Sunday, May 10, 2015

कसक (कविता) : सुनील श्रीवास्तव

सुनील श्रीवास्तव 

दिन वे लौट आते अगर
सुधार लेता कुछ गलतियां
चुपचाप गटक जाता गीला भात
नहीं खिसियाता बनाने वाली पर
एक मेरे लिए ही तो वह
सिंझाती थी भात
एक मैं ही तो था भतहा
पूरे घर में 

सौ ग्राम नमकीन
यही तो मंगवाया था उसने
मैं भूलता रहा रोज
दफ्तर से लौटते वक्त
दुकान रास्ते से थोड़ा हटकर थी
उसके जाने का पता होता 
तो लूट लाता
शहर की सारी दुकानों का
सारा नमकीन

असाध्य बीमारी की असह्य पीड़ा
और इतना बड़ा घर
वह घर को सजाकर रखना चाहती थी
चीजों को तरतीबवार
और मैं फिजूल के कामों में
व्यर्थ नहीं करना चाहता था
हफ्ते की दो छुट्टियां
मैं चंद घंटों में सजा देता सारा घर
वह लौट आती एक बार अगर
बेतरतीबी के लिए भ्ज्ञी तो 
मैं ही था 
सबसे ज्यादा जिम्मेदार

वह सबको प्यार करती थी
सब उसको प्यार करते थे
मैं उसे बेपनाह प्यार करता था
और निस्संकोच उपेक्षा भी
प्यार छिपता रहा
उपेक्षाएं दिखती रहीं
मैं सबकुछ बता देता उसे
जना देता प्यार को
दिन लौट आते अगर

वह अक्सर एक सपना देखती
सपने में वह 
गिरती होती एक ऊंचे मचान से 
नीचे मैं खड़ा होता बांहें फैलाए
बीच में ही टूट जाती नींद
मैं अक्सर एक सपना देखता
सपने में भोर होती
उठता आंखें मलते तो
पाता उसके दरवाजे पर
एक भयानक काला सांप
कमरे में वह बैठी होती निश्चल 
मैं सांप को मारने चलता
सांप भीतर घुसने लगता कमरे में
बीच में ही टूट जाती नींद
हम दोनों अपने-अपने सपने देखते
मैं उसमें बेइंतहा मोहब्बत देखता
वह मुझमें बेहद भरोसा देखती
दिन वे लौटते तो
मैं लगा देता जोर
करता सपनों का सुखांत

दोस्तो, आखिरी बार
जाने के पहले आखिरी बार
उसने पुकारा था मुझे
वह जाना नहीं चाहती थी
उसने चिल्लाकर कहा था मुझसे
खुद को रोक लेने को
और मैं रोक सकता था उसे
मैं कसम खाकर कहता हूं
रोक सकता था उसे
पर, पता नहीं कहां उस दिन 
मैं छोड़ आया था अपने कान
मैं उसे रोककर दिखाता
दिन वे लौट आते एक बार

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