Monday, May 4, 2015

मेरा जीवन : मेरा परिवेश- रामनिहाल गुंजन



रामनिहाल गुंजन हिंदी मार्क्सवादी आलोचना के सुपरिचित नाम हैं। 9 नवंबर 1936 को उनका जन्म हुआ था। गुंजन जी 1916 में अस्सी साल के हो जाएंगे। रामनिहाल गुंजन की अब तक ‘विश्व कविता की क्रांतिकारी विरासत’ (1987), ‘हिंदी आलोचना और इतिहास दृष्टि’ (1988), ‘रचना और परंपरा’ (1989), ‘राहुल सांकृत्यायन: व्यक्ति और विचार’ (1995), ‘निराला आत्मसंघर्ष और दृष्टि’ (1998), ‘शमशेर नागार्जुन मुक्तिबोध’ (1999), ‘प्रखर आलोचक रामविलास शर्मा’ (2000), ‘हिंदी कविता का जनतंत्र’ (2012) और ‘कविता और संस्कृति’ (2013) नामक आलोचना की 9 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनके करीब ढाई सौ आलोचनात्मक लेख अभी भी असंकलित हैं, जिनमें कुछ अप्रकाशित भी हैं। इनके अलावा जार्ज थाॅमसन की पुस्तक ‘मर्क्सिज्म एंड पोएट्री’ और अंटोनियो ग्राम्शी के चुने हुए निबंधों का उन्होंने ‘मार्क्सवाद और कविता’ (1985) तथा ‘साहित्य, संस्कृति और विचारधारा’ (1992) नाम से हिंदी अनुवाद और संपादन किया है। ‘बच्चे जो कविता के बाहर हैं’ (1988), ‘इस संकट काल में’ (1999) और ‘समयांतर तथा अन्य कविताएं’ (2015) शीर्षक से उनके तीन कविता संग्रह भी प्रकाशित हैं। रामवृक्ष बेनीपुरी, आचार्य नलिन विलोचन शर्मा, यशपाल, रांगेय राघव, भीष्म साहनी, डाॅ. सुरेंद्र चौधरी और डाॅ. चंद्रभूषण तिवारी पर शुक्ल शोध संस्थान से प्रकाशित होने वाली शोध पत्रिका ‘नया मानदंड’ के सात महत्वपूर्ण अंक भी उन्होंने संपादित किए। वेदनंदन सहाय, भगवती राकेश, रामेश्वर नाथ तिवारी और विजेंद्र अनिल के व्यक्तित्व और रचनाकर्म से संबंधित पुस्तकों का भी उन्होंने संपादन किया। 1970 के आसपास अपने संपादन में ‘विचार’ पत्रिका निकाली और विचार प्रकाशन के नाम से अब तक कई पुस्तकों का प्रकाशन कर चुके हैं। नागार्जुन पर भी एक पुस्तक का संपादन उन्होंने किया, जो नीलाभ प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था। 

हिंदी का जो लघु पत्रिका आंदोलन है, उसे रामनिहाल गुंजन की लेखकीय ऊर्जा का जबर्दस्त समर्थन और सहयोग मिला है। आज भी वे किसी नौजवान लेखक से अधिक सक्रिय हैं। हिंदी की प्रगतिशील-जनवादी साहित्य परंपरा के प्रति अभी भी उनमें गहरी आस्था है। अपनी कविताओं में भी इस परंपरा को विकसित करने वाले कई नामों को वे याद करते हैं, उनकी कविताओं की पंक्तियों को आज के बदले हुए समय में वे किसी उम्मीद की तरह अपनी कविताओं में लाते हैं। 

राम निहाल गुंजन (संपर्क- 07250201038)
अपने स्वभाव के अनुरूप ही लेखन में भी वे किसी चमत्कार, उतावलापन या सनसनी का सहारा कभी नहीं लेते। बहुत ही धैर्य और दृढ़ता के साथ कई-कई संदर्भों के जरिए वे किसी रचना या आलोचना का मूल्यांकन करते हैं। रामंचद्र शुक्ल, राहुल सांकृत्यायन, रामविलास शर्मा, निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल और मुक्तिबोध की रचना-आलोचना उन्हें अधिक प्रिय हैं। नामवर सिंह की आलोचना दृष्टि से निरंतर उनकी बहसें रही हैं। मुक्तिबोध से प्रायः वे सहमत दिखते हैं। हालांकि जो उनके प्रिय लेखक हैं, उनकी भी किसी अवधारणा से असहमति रहती है, तो उसे भी स्पष्ट तौर पर जाहिर करते हैं। वैसे साहित्यकार जिन्होंने किसी दौर में महत्वपूर्ण काम किया हो, पर उपेक्षित हों या लोग जिन्हें भूल गए हों, गुंजन जी ने उन पर भी बड़ी शिद्दत के साथ लिखा है।

गुंजन जी उन दुर्लभ साहित्यकारों में हैं, जो सत्ता के सांस्कृतिक सम्मोहन से बचे हुए हैं। इस घनघोर आत्मप्रचार और पूंजी व सत्ता की गोद में बैठकर थोड़ा नाम-दाम पा लेने की आतुरता वाले दौर में भी वे एक ऐसे साहित्यकार हैं, जो इस तरह की महत्वाकांक्षाओं और बेचैनियों से मुक्त रहकर बिना किसी शोर के लगातार लेखन कार्य में लगे हुए हैं। 1967 के नक्सलबाड़ी विद्रोह और कृषि क्रांति के उसके लक्ष्य को हिंदी साहित्य के लिए एक निर्णायक मोड़ की वजह मानने वाले रामनिहाल गुंजन वैचारिक तौर पर उसी के प्रभाव से विकसित साहित्य की नवजनवादी धारा से अपने आप को जोड़ते रहे हैं। इस धारा को उन्होंने कभी भी प्रगतिशील-जनवादी धारा से सर्वथा विछिन्न नहीं माना, बल्कि उसी का विकास मानते रहे हैं। सत्ता का लगभग प्रवक्ता बन चुके कुछ भूतपूर्व-अभूतपूर्व क्रांतिकारी साहित्यकारों के विपरीत रामनिहाल गुंजन आज भी पूरी मजबूती के साथ अपनी वैचारिक पोजीशन पर कायम हैं। कभी बढ़-चढ़कर उन्होंने उस धारा पर न अपनी दावेदारी जताई और न ही कभी विचार और व्यवहार में उससे अलग कोई रास्ता अपनाया। फ़िलहाल वे जन संस्कृति मंच, बिहार के राज्य अध्यक्ष हैं

अपनी जिंदगी या अपने लेखन के बारे में वे बहुत कम बात करते हैं। वैसे भी वे बहुत जल्दी खुलते नहीं। बोलते भी हैं तो धीमी आवाज में। कुछ लोगों को यह भ्रम भी होता है कि वे बहुत अंतर्मुखी हैं, गैर-सामाजिक हैं। लेकिन व्यक्तिवाद से वे हमेशा अपनी असहमति जताते रहे है तथा बारंबार रचनाकार और रचनाओं की सामाजिकता का पक्ष लेते रहे हैं। अगर उन्हें लगे कि आप उनके ईमानदार वैचारिक सहयोगी हैं, तो वे देर तक बिना रुके आप से बातचीत कर सकते हैं, आपको समय का पता ही नहीं लगेगा। कितनी सारी घटनाएं, कितने सारे साहित्यिक संदर्भ उनकी जुबान पर रहते हैं। छिद्रान्वेषण, चरित्रहनन, परनिंदा, आत्मश्लाघा और आत्मप्रचार- जिसमें आजकल कस्बों से लेकर देश की राजधानी दिल्ली तक के साहित्यकार डूबे हुए नजर आते हैं, उसका कोई असर उन पर नहीं दिखता। कभी किसी के बारे में कोई सवाल भी होता है उनके मन में, तो बेहद संकोच से पूछते हैं और जो भी जवाब मिले, उसे सुनकर फिर बातचीत के मूल विषय पर केंद्रित हो जाते हैं। शायद ही हल्के और भदेस किस्म की कोई बातचीत करते हुए कभी किसी ने उन्हें सुना हो। 

जब मैंने उनसे अपने बारे में लिखने को कहा, तो पहले तो टाल गए। कहने लगे कि अपने बारे में क्या बताना है, कुछ खास नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि वे कहानीकार नहीं हैं, कहानीकार में यह क्षमता होती है कि वह अपने जीवन के छोटे-छोटे प्रसंगों को महत्वपूर्ण और रोचक ढंग से पेश कर सकता है, जो पाठकों को भी दिलचस्प लगता है। लेकिन बहुत जोर देने पर संभवतः पहली बार उन्होंने अपने जीवन और परिवेश के बारे में कुछ लिखा है। तो लीजिए पेश है गुंजन जी की दास्तान उन्हीं की कलम से-


मेरा जीवन : मेरा परिवेश

रामनिहाल गुंजन

मेरे जन्म से पहले मेरे पूर्वज यानि मेरे पितामह पटना जिले के बिहटा थाने के भरतपुरा गांव से आकर आरा में बस गए थे। वे गांव में कृषि कार्य से जुड़े हुए थे। वहां उनका अपना मकान और खेती बारी के लिए थोड़ी जमीन भी थी, लेकिन पैदावार पर्याप्त नहीं होने और आर्थिक कारणों से उनका गांव में रहना संभव नहीं हो रहा था। इसलिए उन्होंने अन्यत्र जाने का निश्चय किया। चूंकि मेरे पितामह की शादी आरा के एक मध्यवर्गीय परिवार में हुई थी, इसलिए आरा में आकर  बस जाना उनके लिए स्वाभाविक था। मेरे पिता और उनके छोटे भाई का जन्म भरतपुरा में ही हुआ था और उनकी शादी भी मगह यानि मगध के ही किसी गांव में होना एक प्रकार से तय था। तद्नुसार मेरे पिता की शादी गया जिले के मखदुमपुर स्टेशन के पास स्थित एक गांव इनकीन के एक प्रतिष्ठित, किंतु एक छोटे मध्यमवर्गीय किसान परिवार में हुई। गांव में मेरे नाना रामकिसुन महतो का परिवार उस समय के शिक्षित परिवारों में गिना जाता था जबकि गांव में शिक्षित लोगों की संख्या उन दिनों कम ही हुआ करती थी। नाना के लड़के यानि मेरे मामा राम बालक महतो और उनके लड़के श्रीराम महतो भी मैट्रिकुलेशन तक शिक्षित थे। उन्हें भी शिक्षित परिवार का संस्कार इस रूप में बखूबी प्राप्त था। मेरे पिता की शिक्षा मिडिल तक हुई थी। वे हिंदी अच्छी तरह लिख-पढ़ लेते थे। उनकी हिंदी की लिखावट भी अच्छी थी। वे थोड़ी बहुत अंग्रेजी भी जानते थे, क्योंकि जब मैं अंग्रेजी की पहली किताब यानी प्यारे चरण सरकार की ‘द फर्स्ट इंग्लिश बुक आॅफ रीडिंग’ पढ़ रहा था तब जहां-तहां उनसे अंग्रेजी शब्दों के अर्थ जानने में मुझे मदद मिलती थी। उन्होंने एक बार बतलाया था कि ट्रेन में एक अंग्रेज से उनकी भेंट हुई थी, जो बैठने के लिए जगह तलाश कर रहा था, तो उन्होंने उसे ‘सीट बाई मी’ कहकर अपने पास बैठने का संकेत किया था। मेेरे पिता कम पढ़े-लिखे होने के बावजूद एक सामाजिक और व्यावहारिक व्यक्ति थे। 

उल्लेखनीय है कि मेरे पितामह रामकृष्ण चौधरी अपने परिवार के साथ, जिसमें उनकी पत्नी, दो लड़के तथा उनकी पत्नियां शामिल थीं, आरा मे आकर रहने लगे थे। उनके दोनों लड़के यानि वसंत प्रसाद और नन्हक प्रसाद पढ़े-लिखे होने पर भी कृषि कार्याें में अपने पिता की मदद किया करते थे। दस-पंदह कट्ठे की जमीन मालगुजारी पर लेकर वे खेतीबारी करने लगे थे और उसी से परिवार का भरण-पोषण होने लगा था। पितामह आरा आने के कुछ दिनों यानि दो चार साल तक अपनी ससुराल के मकान में ही सपरिवार रहा करते थे और वहीं रहकर खेतीबारी का काम किया करते थे। इसी सिलसिले में उन्होंने अपना एक छोटा सा मकान शिवगंज मुहल्ले में बनवा लिया था जहां वे खुद सपत्नीक रहने लगे थे और उनके लड़के अपने परिवार के साथ उनकी ससुराल वाले मकान में ही रहते रहे, जो तब साधुशरण जी के मकान के नाम से जाना जाता था। साधुशरण जी पिता जी के मामा लगते थे। मैं उन्हें बाबा कहता था। उनका मकान इतना बड़ा था कि उसमें कई परिवार किराये पर रहते थे। वे सब किरायेदार के रूप में जरूर थे, लेकिन उनके साथ साधुशरण जी बिरादराना संबंध रखते थे। किरायेदार भी कई जातियों के थे, लेकिन सब में इस कदर का भाईचारा था कि वे एक दूसरे का सुख-दुख में साथ देते थे। साधुशरण जी खुद शिक्षक की नौकरी करते थे। नगरपालिका के एक प्राथमिक विद्यालय में वे पढ़ाते थे। उनके विद्यालय में पढ़ने वाले मुसलमान और हरिजन परिवार के लड़के भी थे। उनका विद्यालय शिवगंज मुहल्ले में एक ऊंचे स्थान पर चलता था। उस स्थान पर बैठकर पढ़ाते हुए वे निराला के ‘कुल्लीभाट’ के चरित नायक की तरह लगते थे, जिसे मैंने बचपन में अपनी आंखों से देखा था और बाद में जब मैं उस उपन्यास से गुजर रहा था तब मेरी आंखों के सामने वह दृश्य प्रत्यक्ष हो गया था और मेरे जेहन में निराला की ‘जल्द जल्द पैर बढ़ाओ’ शीर्षक कविता की ये पंक्तियां कौंध रही थीं-

आज अमीरों की हवेली
किसानों की होगी पाठशाला
धोबी, पासी, चमार-तेली
खोलेंगे अंधेरे का ताला।

यों बाबा साधुशरण जी संगीत में भी गहरी रुचि रखते थे। मैंने देखा था, किसी सधे हुए संगीतज्ञ की तरह उनकी उंगलियां सितार और वीणा पर थिरका करती थीं। मैंने उनको किसी मंच पर सितार या वीणा बजाते हुए नहीं देखा था, लेकिन वे जो संगीत की साधना किया करते थे वह स्वतः प्रेरित ही थी। मैंने महसूस किया था कि जब वे अभ्यास करते होते थे तो अपना सुध-बुध खोकर संगीत की दुनिया में रम जाया करते थे। वे डील-डौल में निराला की तरह लंबे-चौड़े थे। बंगला कुरता और धोती में सजे-संवरे वे बड़े भव्य लगते थे। अपने छोटे बालों और ऊंचे ललाट के कारण मुझे तो वे किसी महापुरुष से कम नहीं लगते थे। संगीत और शिक्षा से जुड़े होने के अलावा वे एक अच्छे वैद्य भी थे और अपने व्यवहार में इतने उदार थे कि दूसरों की निःशुल्क चिकित्सा करने में उनको ज्यादा आनंद आता था। वे एक अर्थ में समाज कल्याण की चिंता से प्रेरित व्यक्ति थे। वे सामाजिक कार्यों में ज्यादा रुचि लेते थे। 1923 में आरा में जब भीषण बाढ़ आई थी तब उन्होंने कुछ लोगों की मदद से नीम के एक विशाल पेड़ पर चौकी बांध कर उस पर पचासों लोगों को शरण दिलाने और बाढ़ में फंसे उन सभी लोगों के लिए भोजन और राहत पहुंचाने का काम किया था। वही बाबा  जब अपनी एकमात्र बेटी जगदीपा की शादी को लेकर चिंतित थे, तब उस पुश्तैनी मकान को बेचने के अलावा उन्हें कोई दूसरा रास्ता नहीं दिखलाई पड़ा और वह मकान लागत मूल्य से कम में ही बिक गया। उस मकान के बिकते ही उसमें रहनेवाले मकान मालिक और उनके परिवार के लोगों के साथ-साथ किरायेदारों को भी अपने लिए दूसरे मकान खोजने पड़े। मेरी दो बड़ी बहनों, मेरे बड़े भाई और मेरा जन्म उसी मकान में हुआ था। इसके बाद ही हमलोग अनिकेत हो गए। मेरा परिवार किराए के मकान में रहने लगा। मेरे परिवार की आर्थिक स्थिति तब और खराब हो गई। किसी तरह अभाव की स्थिति में बाबा साधुशरण जी ने ही मेरी दोनों बड़ी बहनों की शादी क्रमशः छपरा और बलुआ के नरगदा गांव के खाते-पीते परिवारों में करवाई।

उस समय तक मेरे पितामह और पितामही का भी निधन हो गया था और उनका मकान भी बिक चुका था। बाबा साधुशरण जी अपने आखिरी दिनों में विद्यालय के साथ-साथ आरा गोरक्षिणी सभा की देखरेख का भी काम करने लगे थे। उन्हीं दिनों वे अपनी बेटी से मिलने  पिरौंटा गांव गए थे, लेकिन वहां से लौटने के बाद ही डायरिया का शिकार हो गए और असमय उनका निधन हो गया। अपनी पुस्तक ‘राहुल सांकृत्यायन : व्यक्ति और विचार’ को मैंने उन्हीं को समर्पित किया है। जैसा मैंने बताया कि मेरी दोनों बड़ी बहनों की शादी बाबा के समय में ही हो चुकी थी, इसलिए मेरे पिता जी को अब हमलोगों, यानि मां और हम दो भाइयों की चिंता थी। पिताजी के छोटे भाई भी अपने पैर पर खड़े होकर अलग रहने लगे थे और अपना मकान बनाकर शिवगंज मुहल्ले में स्थायी रूप से बस चुके थे। उनके बड़े लड़के रामदयाल मुझसे दो वर्ष बड़े थे और स्कूल में साथ-साथ पढ़ते थे। पहले तो मैं पढ़ने से भागता था और अपने बचपन के दोस्त सादिक के साथ घूमा फिरा करता था, लेकिन जब उसका भी स्कूल में नाम लिखवा दिया गया तब मुझे भी मजबूरन पढ़ने जाना पड़ा। उस समय शिवगंज मुहल्ले में ‘दुखित गुरु की पाठशाला’ नाम से एक स्कूल चलता था, जिममें मैं और सादिक साथ-साथ पढ़ने लगे। चूंकि मैं सात-आठ साल का होने पर स्कूल में पढ़ने गया था, इसलिए मुझे पाठ को याद करने में आसानी हुई और उसी के चलते मुझे आरंभ में ही तीसरे क्लास के लड़कों के साथ पढ़ने के लिए बैठाया गया। फलतः मैं दो-तीन साल के बाद ही छठे क्लास में पढ़ने के काबिल हो गया। 1950 में मेरा नामांकन टाऊन स्कूल में कराया गया, जो जिले का पहला स्कूल भी था। इसी स्कूल में कभी आचार्य शिवपूजन सहाय पढ़ाया करते थे और जगजीवन राम भी कभी इस स्कूल का छात्र रह चुके थे। इसी स्कूल में मुझे हिंदी पढ़ाने वाले वृंदावन बिहारी जैसे योग्य शिक्षक के सान्निध्य मेें आने का अवसर मिला जो एक अच्छे लेखक भी थे। उनके द्वारा लिखे दो उपन्यासों- ‘आकांक्षा’ और ‘लालचंद’ तथा कहानी संग्रह ‘मधुवन’ से गुजरने का मुझे बाद में अवसर भी मिला। 

जिस साल देश भारतीय स्वाधीनता की पहली लड़ाई यानि 1857 का शताब्दी वर्ष मना रहा था, उसी साल मैंने प्रवेशिका परीक्षा में उतीर्ण होकर जैन काॅलेज में आई.ए. के प्रथम वर्ष में प्रवेश पाया था। उसी वर्ष काॅलेज की पत्रिका का नया नामकरण ‘अभियान’ हुआ था, जिसमें रामधारी सिंह दिनकर, रामदयाल पांडेय आदि कवियों की कविताओं के साथ मेरी भी कविता ‘वेदना’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। यह मेरी दूसरी कविता थी। पहली कविता ‘कवि’ शीर्षक से लिखी गई थी, जिसका प्रकाशन 1955 में आरा के पुकार प्रेस से निकलने वाली मासिक पत्रिका ‘नागरिक’ के एक अंक में हुआ था। तब मैं नौवें वर्ग का विद्यार्थी था और उन दिनों मैं बाल हिंदी पुस्तकालय में नियमित पढ़ने जाया करता था। वहीं मुझे ‘आजकल’ जैसी पत्रिका में छपी निराला, पंत, महादेवी वर्मा या अन्य लेखकों की रचनाएं पढ़ने का सुयोग प्राप्त हुआ। जिन कवियों ने मुझे ज्यादा प्रभावित किया, उनमें निराला, प्रसाद और महादेवी मुख्य थे। मेरी प्रारंभिक कविताओं पर इनका प्रभाव पड़ा। मैं जब स्कूल में था तभी स्कूल लाइब्रेरी की पुस्तकों का अध्ययन मेरी प्रवृत्ति हो गई थी। उन दिनों मैं नेहरू की पुस्तक ‘डिस्कवरी आॅफ इंडिया’ और हिंदी की एक पुस्तक ‘युगारंभ’ से रू-ब-रू हुआ था। नेहरू की पुस्तक पढ़ने के दौरान मुझे अपने अंग्रेजी के शिक्षक श्री बद्री प्रसाद श्रीवास्तव से कभी-कभी कुछ पूछना पड़ता था और वे मुझे विस्तार से उसके बारे में बतलाते थे। ‘युगारंभ’ में निराला, पंत, महादेवी, प्रसाद, अंचल, दिनकर, बच्चन आदि की कविताएं संकलित थीं, जिन्हें पढ़ना मेरे लिए सुखद अनुभव से गुजरने जैसा था। उसी क्रम में दिनकर जी की एक पुस्तक ‘इतिहास के आंसू’ से भी गुजरने का मौका मिला था, जिसमें संग्रहित कविताएं मुझे प्रेरक लगी थीं। कहने का मतलब यह कि आरंभ में मुझे लिखने की प्रेरणा इन्हीं पुस्तकों से मिली। बाद में मैं लगातार कविताएं लिखता रहा, जो ‘अभियान’ के कई अंकों में प्रकाशित हुईं। उन्हीं में एक कविता ‘अस्तु वह सार’ भी थी, जो छंदहीन, किंतु लयात्मक थी। मुझे जैन काॅलेेज में एक काव्य-प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार भी मिला था, जिसमें पुरस्कार स्वरूप अंचल जी का एक काव्य-संग्रह और चतुरसेन शास्त्री का ‘सहयाद्रि की चट्टानें’ नामक उपन्यास प्राप्त हुए थे। तब मैं हिंदी आॅनर्स का विद्यार्थी था। उस समय हिंदी के प्राध्यापकों में मुख्य थे- प्रो. रामेश्वरनाथ तिवारी, डाॅ. कुमार विमल, डाॅ. पूर्णमासी राय, डाॅ. मुरली मनोहर प्रसाद, डाॅ. कपिलदेव पांडेय और डाॅ. लक्ष्मीकांत सिनहा। उन्हीं दिनों दिनकर जी का आगमन महाराजा काॅलेज के एक कार्यक्रम में हुआ था, जिसमें उन्होंने अपनी कविता पुस्तक ‘नील कुसुम’ से कई कविताओं का पाठ कर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया था। उस गोष्ठी की अध्यक्षता रामदयाल पांडेय कर रहे थे। इसी प्रकार जैन काॅलेज में भी समय-समय पर कई नामचीन साहित्यकार पधारे थे जिनमें मुख्य थे- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, जैनेंद्र कुमार, केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’ और नागार्जुन। इन लेखकों को सुनकर और पढ़कर हिंदी में लिखने और पढ़ने की रुचि का बढ़ना स्वाभाविक था। इस बीच मैं आरा के प्रमुख लेखकों- भगवती राकेश, वेदनंदन जी, विजयमोहन सिंह, चंद्रभूषण तिवारी, मधुकर सिंह, श्रीराम तिवारी, मनमोहिनीकांत आदि के संपर्क में आ चुका था। 

वर्ष 1961 में मैं काॅलेज से निकल चुका था। उन्ही दिनों मैंने वैदिक कविताओं पर एक लेख लिखा था जिसकी प्रेरणा मुझे प्रो. हरिमोहन झा द्वारा अनूदित कविताओं को पढ़कर मिली थी। वैदिक ऋचाओं में उषा, पर्जन्य आदि सूक्तों से पता चलता है कि प्रकृति के सान्निध्य में रहने के कारण हमारे ऋषि उस पर विविध भावों और विचारों की कविताएं भी लिखते थे। वैदिक कविताओं पर लिखे अपने लेख का पाठ मैंने एक गोष्ठी में किया था, जिसकी अध्यक्षता डाॅ. कपिलदेव पांडेय कर रहे थे, जिसमें कई लेखक मौजूद थे। मेरे लिए  इस तरह का यह पहला अवसर था। मैंने अपना गद्य-लेखन इसी निबंध से शुरू किया था। उसके कुछ ही दिनों के बाद शाहाबाद हिंदी साहित्य सम्मेलन की ओर से अखबार में ‘जैनेंद्र किशोर जैन : व्यक्तित्व और कृतित्व’ पर लेख लिखने के लिए आमंत्रित किया गया था, जिस पर पुरस्कार घोषित था। मेरी रुचि इस विषय में यानि पुराने लेखकों पर शोध-कार्य में थी, अंतः इस संबंध में पुस्तकों की खोज मैंने शुरू कर दी। मुझे सकल नारायण शर्मा की जैनेंद्र किशोर पर लिखी पुस्तक के अलावा उनकी कई पुस्तकें ‘सोनासती’ और ‘गुलेनार’ जैसे उपन्यास, ‘दीवाने-जौहर’ नामक गजलों का संग्रह भी प्राप्त हो गए। बाल हिंदी पुस्तकालय और नागरी प्रचारिणी सभा में नागरी हितैषिणी पत्रिका के कई अंक देखने को मिले। उसी के एक अंक मेें जैनेंद्र किशोर द्वारा किया गया शेली की ‘दि क्लाउड’ कविता का हिंदी अनुवाद प्रकाशित था। इस प्रकार मैंने जैनेंद्र किशोर पर लंबा प्रबंध लिखा, जो बाद में आरा नागरी प्रचारिणी की पत्रिका ‘शोघ’ के एक अंक में प्रकाशित हुआ, जिसके संपादक बनारसी प्रसाद भोजपुरी थे। इसी निबंध पर शाहाबाद हिंदी साहित्य सम्मेलन की ओर से मुझे 1961 में इक्यावन रु. का प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था। पुरस्कार देने के लिए पटना विश्वविद्यालय के तत्कालीन हिंदी विभागाध्यक्ष आचार्य भुवनेश्वरनाथ मिश्र ‘माधव’ आए थे। उक्त सभा में आरा के सभी साहित्यकार और हिंदी के प्राध्यापक उपस्थित थे। दरअसल यह एक घटना थी, जिसने मुझे सतत लेखन की ओर प्रवृत्त किया। इस बीच 1961 में ही मेरी शादी भी हो चुकी थी। 

बहरहाल वर्ष 1961 से मैंने आरा के दो स्कूलों में शिक्षण कार्य करना आरंभ किया, लेकिन दो वर्षों के बाद ही मैं रेलवे की नौकरी में धनबाद आ गया। रेलवे की नौकरी मुझे रास नहीं आई। इसलिए कुछ ही महीनों के बाद वहां से इस्तीफा देकर मैं आरा समाहरणालय में क्लर्क की नौकरी करने आ गया। हालांकि मेरी नियुक्ति महालेखाकार रांची के कार्यालय में भी होने वाली थी, लेकिन उसमें मेरी रुचि नहीं थी। आरा समाहरणालय की नौकरी ही मुझे पसंद आई और 1964 से 1976 तक इस सेवा में रहा। 1976 से सचिवालय की नौकरी में आ गया, जहां कई कवि, गीतकार, कथाकार पहले से मौजूद थे, उनमें वेदनंदन सहाय, सत्यनारायण, रामनरेश पाठक, गोपीवल्लभ, राजमोहन झा, कुलानंद मिश्र, हरिहर प्रसाद आदि प्रमुख थे। ऐसे ही माहौल में पटना के कई लेखक संपर्क में आए। वहीं रेणु जी से पहली बार भेंट हुई काॅफी हाउस में। मैं पटना काॅफी हाउस अक्सर जाता था, जहां बाबा नागार्जुन, कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह, जितेंद्र राठौर, हरिहर प्रसाद, महेश्वर, सत्यनारायण आदि से भेंट हो जाया करती थी। कभी आरसी प्रसाद सिंह, डाॅ. खगेंद्र ठाकुर, हरिनारायण मिश्र, सतीश आनंद, परवेज अख्तर आदि आ जाते तो उनसे भी साहित्य चर्चा और जरूरी बातें होतीं। 

मैं 1976-1998 तक सचिवालय में सेवारत रहा और उस दौरान मुझे कलकत्ता, बेगूसराय, दिल्ली, रतलाम, बंबई, इलाहाबाद और भोपाल की गोष्ठियों में सम्मिलित होने का संयोग प्राप्त होता रहा। इस बीच पत्र-पत्रिकाओं के लिए लेख और कविताएं लिखता रहा। कार्य-व्यस्तता के साथ-साथ लिखना भी मुझे जरूरी लगता था, इसलिए मैं योजनाबद्ध ढंग से लेखन-कार्य करता रहा। मेरी जो किताबें प्रकाशित हुईं ज्यादातर इलाहाबाद के प्रकाशनों से प्रकाशित हुईं, लेकिन मुझे अपने प्रकाशन यानि विचार प्रकाशन की ओर से भी किताबें प्रकाशित करनी पड़ीं। अभी भी विचार प्रकाशन से पुस्तकें समय-समय पर प्रकाशित होती रहती हैं। मेरी पत्रिका विचार 1970 में छपी थी और चंद्रभूषण तिवारी की ‘वाम’ 1971 में निकली थी। 1964 में भी मैंने एक पत्रिका ‘साहित्य संसद’ का संपादन-प्रकाशन किया था। 

मेरा सरोकार पहले नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा से था, लेकिन कुछ समय बाद कुछ कारणों से उससे अलग हो गया। उन दिनों मेरे पास कई पत्र-पत्रिकाएं ‘लोकदस्ता’, ‘आमुख’ आदि आती रहती थीं, जो नवजनवादी लेखकों की ओर से निकाली जाती थीं और जो एक प्रकार से भूमिगत थीं। उनमें जरूरी रचनाएं प्रकाशित होती रहती थीं, जो हमारे बीच होने वाली वैचारिक बहसों के लिए आधार देती थीं तथा वैचारिक समृद्धि में भी सहायक थीं। मेरी जो आलोचना पुस्तक ‘विश्व कविता की क्रांतिकारी विरासत’ है, उन्हीं विचार-विंदुओं को सामने रखकर लिखी गई थी। उसके अलावा जो मेरे द्वारा अनूदित पुस्तकें- ‘मार्क्सवाद और कविता’ तथा ‘साहित्य, संस्कृति और विचारधारा’ है, उनके पीछे भी वही वैचारिक कारण रहा है। मेरी अन्य पुस्तकें- ‘रचना और परंपरा’, ‘हिंदी आलोचना और इतिहास दृष्टि’, ‘राहुल सांकृत्यायन : व्यक्ति और विचार, शमशेर नागार्जुन मुक्तिबोध, निराला: आत्मसंघर्ष और दृष्टि’, प्रखर आलोचक रामविलास शर्मा, हिंदी कविता का जनतंत्र, कविता और संस्कृति- भी उसी दृष्टि से लिखी गई है।

दरअसल यह प्रसंग जन संस्कृति मच से जुड़ने के पहले का है। हालांकि इससे जुड़ने के बाद अंतिम दो पुस्तकें और अनेक लेख समकालीन चुनौती, समकालीन जनमत, अभिधा, अभिनव कदम, कथांतर, अक्सर, कथन और संबोधन अदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इस जुड़ाव के बाद मेरी सक्रियता भी बढ़ी है। इस बीच साहित्यिक-सांस्कृतिक संगोष्ठियों और सम्मेलनों में शामिल होने के लिए वाराणसी, इलाहाबाद, दुर्ग और गोरखपुर आदि जगहों की यात्राएं भी मैंने की है।  यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा, ऐसा यकीन है। अभी भी मैं लगातार लिख रहा हूं। पत्रिकाएं मेरे लेख प्रकाशित करती हैं, मुझे अच्छा लगता है। ‘समकालीन कविता का सौंदर्यशास्त्र’ नाम की एक पुस्तक प्रकाशित होने वाली है। कहानियों और उपन्यासों से संबंधित लेखों के दो संकलनों के अतिरिक्त प्रेमचंद साहित्य और हिंदी की कथालोचना पर दो पुस्तकों के प्रकाशन की योजना है। 


अपनी पत्नी और बाल-बच्चों के बारे में गुंजन जी ने इस आलेख में कुछ नहीं लिखा है। आलेख के अंत में उन्होंने सिर्फ यह सूचना दी है-

मेरे पिता जी का देहांत 1976 में और मां का 1977 में हो गया था। 
मेरे तीसरे पुत्र विनय कुमार का आकस्मिक निधन 9 सितंबर 1999 को हो गया था। 
मेरी पत्नी शकुंतला वर्मा का निधन 30 जुलाई 2014 को हो गया। 

जाहिर है मां, बाप, बेटा, पत्नी- ये सर्वाधिक करीबी रिश्ते हैं। इनमें से किसी का भी निधन व्यक्ति को बहुत आहत करता है। लेकिन रामनिहाल गुंजन अपने इन व्यथाओं को कभी भी सार्वजनिक नहीं करते। हां, उनकी कविताओं में जरूर यह वेदना आकार पाती रही हैं। अपने पच्चीस वर्षीय पुत्र विनय कुमार की असामयिक मृत्यु और अपने पिता की स्मृति में उन्होंने कविताएं लिखी है। हाल में प्रकाशित अपने तीसरे कविता संग्रह ‘समयांतर तथा अन्य कविताएं’ को उन्होंने अपनी पत्नी शकुंतला जी को समर्पित किया है.
विस्मृति गुंजन जी के स्वभाव में शामिल नहीं है। सब उनकी स्मृतियों के हिस्से हैं, सबके प्रति एक कृतज्ञता का भाव उनके लेखन और व्यवहार में दिखता है, जो जीवन में संग साथ रहे उनके भी और जिनकी वैचारिक विरासत से वे प्रेरित रहे और जो उनके वैचारिक हमसफर रहे उन सबके भी। गुंजन जी आरा और बिहार के उन गिने-चुने साहित्यकारों में हैं, जिनके पास पिछले पचास-साठ साल की साहित्यिक पत्रकारिता, आन्दोलन और आयोजनों से जुडी अनगिनत यादें हैं. खासकर शाहाबाद का साहित्यिक इतिहास लिखने की उनकी पुरानी तमन्ना है. वे अगर अपने संस्मरणों को सिलसिलेवार लिखें तो हम अपने साहित्य-इतिहास के कई अनजाने पहलुओं से रूबरू हो सकते हैं. एक छोटी सी कहानी उन्होंने मुझे एक बार सुनाई थी, जिसमें एक राजा इतिहासकारों को कहता है कि सारे पुराने इतिहास जला दो और लिखो कि इतिहास आज से यानी मेरे शासनकाल से शुरू होता है. एक बूढ़े इतिहासकार को छोड़कर सारे बड़े-नामी इतिहासकारों ने उस राजा का कहा माना. लेकिन सत्ता की चकाचौंध से दूर अपनी कोठरी में बैठे उस बूढ़े इतिहासकार ने इस प्रसंग को भी इतिहास के लिए दर्ज कर दिया. कई बार रामनिहाल गुंजन मुझे उस बूढ़े इतिहासकार की तरह ही लगते हैं. 
इसी प्रसंग में उनकी एक कविता  'इतिहास बनते लोग' याद आ रही है-
इतिहास बनते जा रहे हैं लोग
शब्दों के घेरे से बाहर निकल कर
अपनी यादें सुुरक्षित कर
किताब के उन पन्नों में 
जो रचे गए थे
उन्हीं के हाथों
दिनों, महीनों और वर्षों में

कभी खत्म नहीं होती हैं शब्द यात्राएं
वे जारी हैं आज भी-
निरंतर
अक्षरों की खेती करने वाले और
हजार-हजार हाथों से
बीजाक्षर उपजाने वााले 
उन शब्द-शिल्पियों के द्वारा
जो सलीके की जिंदगी जीने की बजाय
सिखाते हैं
सलीके का आदमी बनाना। 

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