Monday, June 9, 2014

एक रेलयात्री की सामान्य आपबीती


गरीब रथ में जब टिकट लिया था तब वेटिंग 236 था। जिस दिन सफर की तारीख थी, उस दिन सुबह से कन्फर्मेशन की स्थिति जानने के लिए लगातार कोशिश करता रहा। मेरे साथ एक सीनियर कामरेड थे जो कई दिनों से टिकट कन्फर्म न होने के कारण परेशान थे, बाद उन्होंने भी उसी ट्रेन मेें तत्काल में टिकट लिया था और उनका सीट भी कन्फर्म हो गया। मैंने एक रेलवे अधिकारी मित्र से भी आग्रह किया था कन्फर्मेशन के लिए। टे्रन को शाम पांच बजे खुलना था। लेकिन भागलपुर से आनंदविहार आने वाली ट्रेन ही समय पर नहीं आई थी। वह लगभग 10 घंटे लेट पहुंची। शाम 7 बजे मेरा भी टिकट कन्फर्म हो गया। लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि सीट की स्थिति क्या होगी? असल में गरीब रथ की कुछ बोगियों में साइड में भी तीन-तीन सीटें लगी होती हैं। मेरे सफर में आम तौर पर एक बड़ा बैग रहता है। लेकिन इस बार तीन भारी सामान थे और उनको घर ले जाना जरूरी था। इसीलिए बुकिंग के वक्त अपर बर्थ का चुनाव किया था। खैर, कन्फर्मेशन के बाद जो सीट नंबर था, सामान्य बोगियों के लिहाज से उसे अपर बर्थ ही होना चाहिए, यह सोचकर मैने सफर के सामान को कम नही किया। 
रेल प्रशासन ने ट्रेन के प्रस्थान का समय पहले रात 12 बजे और बाद में रात 3 बजे तय किया। मैंने 1:20 का एलार्म लगाया। लेकिन ठीक से नींद नहीं आई, रात 12:30 में ही जाने की तैयारी में जुट गया। एक बार फिर इंटरनेट कनेक्शन और कम्प्यूटर आॅन किया। गाड़ी के प्रस्थान संबंधी सूचना देखी। प्रस्थान का संभावित समय 3 बजे रात ही था। 1:30 में हम सड़क पर आए। एक आॅटो किया। मेट्रो से जहां जाने में 10-10 रुपये लगते वहीं आॅटो वाला 100 रु. पर तैयार हुआ। वह तेज गति से आॅटो चला रहा था। शायद उसका अगला चक्का कुछ टाल था, जिसकी वजह से मुझे आॅटो कुछ असंतुलित ढंग से चलता लग रहा था। साल के शुरू में हुए आॅटो एक्सिडेंट की भी रह-रह के याद आ रही थी। कभी कभी लग रहा था कि ड्राइवर हल्की नींद में है या यह भी आशंका हो रही थी कि कहीं दारु तो नहीं पी रखी है, हालांकि शराब की कोई गंध नहीं थी। मैं नास्तिक, किसी भगवान को भी नहीं पुकार सकता था। ड्राइवर ही हमारा भगवान था, कई बार जिसका एक ही हाथ स्टेरियरिंग पर रहता था, दूसरा हाथ माथा के पीछे गर्दन के उपर खुजाने में व्यस्त था। खैर, हम सुरक्षित स्टेशन पहुंच गए। 
ट्रेन आधा घंटा पहले स्टेशन पर आ गई। मैं अपने कोच में घुसा और अपनी सीट पर पहुंचा. लेकिन जिसका डर था, वही बात हो गई। वह सीट तो साइड की मिडिल सीट निकली। तब तक किसी सज्जन ने अपने सीटों की संख्या सुनाई, मैं चौंका- अरे, उसमें तो मेरा सीट नंबर भी है। उनसे पूछा तो उन्होंने अपने मोबाइल का मैसेज बाॅक्स खोलके दिखा दिया। वही नंबर! मैंने भी अपने मोबाइल का इनबाॅक्स खोलके दिखाया। तब तय हुआ कि टीटी आएगा, तो वहीं फैसला करेगा। इसी बीच दो महिलाएं बाल-बच्चा समेत वहां आकर बैठ गईं। उन्होंने भी वही नंबर बताया। मैंने कहा कि यह नीचे के बर्थ का नंबर नहीं है, यह नंबर मिडिल बर्थ का है और वह मेरा है। अगर टीटी के भरोसे रहना होता, तो शायद और परेशानी होती। वे लोग तो सात-आठ घंटे बाद नजर आए। बोगी के बाहर लगे रिजर्वेशन चार्ट से निर्णय हुआ कि वह सीट मेरा ही है। खैर, मैंने जल्दी-जल्दी दो सीटों के नीचे दो सामानों को व्यवस्थित किया। बाद में जब नीचे के बर्थ वाले की मेहरबानी हुई, तब मैंने मिडिल बर्थ को सेट किया और तीसरे बैग को सिरहाने रखके लेटा। 
पानी का बोतल ले रखा था। लेकिन अपना ही पिछला सबक इस बार भूल गया था। सबक यह है कि ट्रेन लेट होने पर खाने-पीने का सामान पहले ही ले लेना चाहिए, वर्ना अनिच्छा से उपवास करना पड़ सकता है। ऐसा ही हुआ। हमारी सीनियर कामरेड दो बोगी पीछे थे। उन तक जा पाना भी संभव नहीं था। मेरा जूता यात्रियों के सामान के नीचे दबा था। ट्रेन में जितने रिजर्वेशन वाले यात्री थे, उससे ज्यादा वेटिंग वाले थे। खैर, गरीब रथ के एसी ने जरूर सहूलियत दी। 
कायदे से ट्रेन को बारह घंटे में यानी 3 बजे शाम तक आरा पहुंच जाना चाहिए था। लेकिन कानपुर के बाद पहले से ही देरी से खुलने वाली ट्रेन और देर करने लगी। कानपुर निकल गया, तो सोचा कि इलाहाबाद में कुछ खाने को लिया जाएगा। लेकिन वहां फुड स्टाॅलों पर यात्रियों की इतनी भीड़ लग गई कि कुछ भी ले पाना संभव न हुआ। मेरी ही तरह निराश कुछ यात्रियों ने खुद को सांत्वना दी कि कोई बात नहीं, मुगलसराय में ले लेंगे। कानपुर से ट्रेन को मुगलसराय पहुंचने में करीब 10 घंटे लग गए। सुपर फास्ट ट्रेनें भी इस बीच मालगाडि़यों के सम्मान में उनके पीछे-पीछे चलती हैं, रुककर उन्हें रास्ता देती हैं। कई बार का ऐसा अनुभव है। हर बार लगता है कि यात्रियों का समय रेल प्रशासन तो बर्बाद करता ही है, साथ ही सुपर फास्ट चार्ज भी ट्रेनों की देरी की वजह से एक किस्म की लूट लगती है। 
इलाहाबाद पहुंचते-पहुंचते नीचे के यात्रियों का दबाव बढ़ गया था कि बीच वाली सीट को समेट दिया जाए। मैंने कहा कि मैं अपना बैग कहां रखूंगा। खैर, उन्हें बैठने में दिक्कत हो रही थी, सो उन्होंने एक सीट पर मेरा बैग व्यवस्थित किया। सीट समेट दी गई। मुझे नीचे की सीट पर एक साइड में लगभग उकडूं सा बैठने को मिला। 
सामने की दो सीटों पर कुछ नौजवान विराजमान थे। वे भी ट्रेन की लेटलतीफी से उबे हुए थे। उन लोगों की बातें दिलचस्प थी। आजकल जिस नेता के चमत्कार के महिमामंडन में देश की मीडिया डूबी हुई है। उससे वे चिढ़े हुए थे। वे पढ़े-लिखे और कहीं रोजगार करने वाले लग रहे थे। उनमें से एक ने चमत्कारी नेता का नाम लेते हुए कहा कि हद हो गई है, दिन रात उसी का नाम, कुछ भी हगेगा तो उसे दिखाएंगे। कि आज जो हगा है, वह नीले रंग का है, आइए देखते हैं इस नीले रंग का क्या महत्व है? मैं बड़ी दिलचस्पी से उन्हें सुन रहा था। कहा जा रहा है कि नौजवान बड़े फिदा हैं उस पर, लेकिन यहां तो ये नौजवान उससे उबे हुए थे। उसके प्रति किसी सम्मान का भाव भी नहीं था उनमें और उसके प्रति किसी किस्म की उम्मीद भी मुझे उन नौजवानों में नजर नहीं आ रही थी। सिद्धांत व नीतियों को भूलकर अपने स्वार्थ के लिए उस तथाकथित चमत्कारी नेता की पार्टी का साथ देने वाले मौकापरस्त नेताओं पर भी वे कटाक्ष कर रहे थे। जाहिर है यह भी एक यथार्थ था, जिसका टीवी चैनलों से अलग मुझे रेल के सफर में अहसास हो रहा था।
अब ट्रेनों और प्लेटफार्म की दुनिया में पहले जैसी कहां रही। ताजा पुड़ी सब्जी आदि बेचने वाले वहां से खदेड़े जा चुके हैं। मुगलसराय के ठीक पहले के स्टेशन पर भीगे हुए चना वाले आए तो मेरा उपवास टूटा। अंततः साढ़े छह बजे ट्रेन मुगलसराय पहुंची तो यहां दो समोसे और एक पैटीज लेने में सफल हुआ, जाहिर है जो तुरत के बने नहीं थे। खाने के सामानों की कीमत भी पिछले कुछ वर्षों में लगातार बढ़ा दी गई है। इसके बाद एक चायवाले से ‘रामप्यारी चाय’ ली। मालूम हुआ जो चाय पिछले कुछ ही माह पहले 7 रुपये की मिलती थी, वह 10 रुपये की हो गई है। 
खैर, मुगलसराय से आरा तक ट्रेन ठीक-ठाक चली और ट्रेन के चलने के साढ़े उन्नीस घंटे बाद और रेलवे टाइम टेबुल के निर्धारित समय से साढ़े अट्ठाइस घंटे बाद आरा पहुंचा। दो बैग और एक बोरे के साथ मैं बाहर आया। रेलवे स्टेशन के कैंपस में रिक्शावाले कम ही थे। जो थे भी वे तैयार न हुए। और जैसा कि ऐसी परिस्थितियों में होता है, मैं अपने बाजुओं और कंधों पर भरोसा करता हूं। चल पड़ा। तीन-चार सौ कदम बाद एक रिक्शा वाला विपरीत दिशा से आता हुआ दिखाई दिया। पुकारने पर वह रुका। मैंने अपने मुहल्ले का नाम बताया। उसके बाद वह कुछ सोचने लगा, फिर कहा कि रिक्शा जमा करने का समय हो गया है। मैं फिर आगे बढ़ चला। फिर डेढ़ सौ कदम चलने के बाद लगा कि अब खुद ढोकर ले जाना मुश्किल है। एक और रिक्शे वाले को आवाज दी, वह भी नहीं रुका। पैदल मुहल्ले में पहुंचने में दस मिनट से ज्यादा नहीं लगता, पर सामान भारी था। ट्रेन समय पर पहुंचती तो सहजता से किसी दोस्त को बुला लेता। दस बजे रात को क्या करूं! सब दिन भर के काम के बाद खाने-पीने की तैयारी में लगे होंगे। आखिरकार अपने एक दोस्त को फोन किया, उसने अपने भतीजे को स्कूटी से भेजा। उसके बाद मैं सही-सलामत सामान सहित घर पहुंचा। 
यह ट्रेन वातानुकूलित थी और यात्री को स्टेशन के पास ही एक ही मुहल्ले में जाना था, जरा सोचिए गैर वातानुकूलित ट्रेनों से सफर करने वाले और किसी स्टेशन पर उतरकर दूर गांव-देहात जाने वाले यात्रियों का क्या हाल होता होगा!

Wednesday, June 4, 2014

लालकिला और जनता के न होने के मायने : सुधीर सुमन


अपनी एक मशहूर कविता ‘रेल’ में कवि आलोकधन्वा लिखते हैं-


हर भले आदमी की एक रेल होती है

जो मां के घर की ओर जाती है

सीटी बजाती हुई

धुंआ उड़ाती हुई। 

वक्त गुजरने के साथ धुंआ उड़ाने वाली ट्रेनें तो कम हो गईं, पर भले आदमियों की अपनी-अपनी रेलें तब भी रहीं, जो उनकी मां के घर की ओर जाती थीं। अब भला तमाम कुव्यवस्थाओं को दूर करने की बजाय बुलेट ट्रेन का सपना बेचने में मशगूल नई हुकूमत के रेल अधिकारियों को उन भले आदमियों की भावनाओं से क्या लेना-देना जिनकीे मां के घर की ओर लालकिला और जनता एक्सप्रेस जैसी ट्रेनें जाती रही हैं! 

पिछले हफ्ता-दस दिन से दिल्ली-हाबड़ा रूट की ट्रेनें लगातार देर से चल रहीं हैं, पर देरी की वजहों को दुरुस्त करने के बजाए रेल प्रशासन ने इस रूट की दो ऐतिहासिक ट्रेनों को ही बंद करने का निर्णय ले लिया है। लालकिला एक्सप्रेस इस देश में रेलवे के शुरुआती दौर की ट्रेन है, इसका परिचालन 1866 में हावड़ा से दिल्ली के बीच शुरू हुआ था। 11 अप और 12 डाउन के नाम से मशहूर यह ट्रेन लंबे समय से गरीब निम्नवित्त के लोगों के सफर का सहारा है। ऐसी ही ट्रेन 13039 अप और 13040 डाउन यानी हाबड़ा-दिल्ली जनता एक्सप्रेस है, जिसका परिचालन 1946 में शुरू हुआ था। ये दोनों ट्रेनें उन लाखों गरीब लोगों की ट्रेनें रही है, जिनके पास समय का अभाव नहीं, बल्कि अर्थाभाव है, जिनके जेब में इतने पैसे नहीं हैं, कि वे तेज रफ्तार और सुविधाओं वाली ट्रेनों या दूसरे द्रुत गति वाले साधनों के यात्री हो सकें। रोजगार की तलाश में अपनी जन्मभूमि छोड़कर दर-दर की खाक छानने वाले मजदूरों की ये ट्रेनें हैं। 

कोई ट्रेन महज लोहे का डिब्बा नहीं होती। और न ही सिर्फ कोयला, डीजल और बिजली से चलती है। वह लोगों की जरूरतों से चलती है। क्या लोगों का अब इन ट्रेनों से कोई वास्ता नहीं रह गया है? क्या इन्हें यात्री नहीं मिल रहे हैं? क्या लोेगों ने इन्हें उपेक्षित कर दिया है? शादी-ब्याह का समय हो या छुट्टियों के दूसरे वक्त, यही ट्रेनें हैं जिनमें रिजर्वेशन मिलने की थोड़ी संभावना रहती है। सच तो यह है कि गर्मी की इन छुट्टियों में इनमें भी रिजर्वेशन मिल पाना संभव नहीं है। कहां तो ट्रेनें बढ़ाने की जरूरत है, लेकिन कहां दो महानगरों को जोड़ने वाली इन ट्रेनों को बंद करने का तुगलकी फैसला लिया जा रहा है!

रेलवे के अधिकारियों के हवाले से यह खबर मिली है कि कोच कम होने के कारण दोनों ट्रेनें यात्रियों की जरूरतों को पूरा नहीं कर पा रही हैं, इस कारण इनका परिचालन स्थायी रूप से बंद किया जा रहा है। कोई यह पूछे कि ट्रेन जरूरतों को पूरा कर रही है या नहीं, यह यात्रियों द्वारा भी तय होगा या सिर्फ अधिकारी इसे तय करेंगे? दूसरी खबर के अनुसार एक अधिकारी का यह कहना है कि दोनों ट्रेनें काफी विलंब से चल रही थीं, अब इन दोनों को बंद करके जनता एक्सप्रेस के समय पर ही एक नई ट्रेन चलाई जाएगी। क्या विलंब से चलने के लिए ये ट्रेनें ही दोषी हैं? कोई रेस है क्या, जिसमें वे आगे नहीं भाग पा रही हैं, तो उन्हें मैदान से बाहर खदेड़ दिया जाए? अगर विलंब ही पैमाना है तब तो मगध एक्सप्रेस सरीखी कई दूसरी ट्रेनें भी बंद करनी पड़ सकती हैं? दरअसल ट्रेनों के विलंब की दूसरी वजहें हैं, रेल प्रशासन उनका समाधान करता, तो ज्यादा बेहतर होता। आखिर कौन सी वजह है कि मगध एक्सप्रेस दिल्ली से कानपुर तक तो ठीक-ठाक चलती है, पर कानपुर के बाद मुगलसराय तक रेंगती हुई चलती है और मालगाडि़यों के पीछे पीछे उसे चलना पड़ता है? 

रेल प्रशासन का यह भी कहना है कि लाल किला एक्सप्रेस और जनता एक्सप्रेस के बदले जो नई मेल एक्सप्रेस ट्रेन चलाई जाएगी, उसकी लोडिंग कैपसिटी बढ़ा दी जाएगी. 20 से 24 बोगियों का रैक लगाए जाने की संभावना है। साथ ही यह भी कहा गया है कि इसे सही समय पर चलाए जाने की कोशिश होगी यानी जो नई ट्रेन होगी, उसके भी सही समय पर चलने की गारंटी नहीं है। अब दो की जगह एक ट्रेन होने से एक ही समय पर लोगों को ट्रेन पकड़ना होगा, दो समयों में दो ट्रेन पकड़ने का जो विकल्प था, वह खत्म हो जाएगा। क्या रेल अधिकारियों को पता है कि कुल मिलाकर कितने यात्री इन दोनों ट्रेनों से सफर करते हैं? 

यदि लोग यह मान रहे हैं कि यह तब्दीली इसलिए की जा रही है कि इन ट्रेनों से सफर करने वालों से अब नई ट्रेन के नाम पर ज्यादा रकम वसूली जा सके, तो वे क्या गलत मान रहे हैं! जिस तरह सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता को नष्ट करके निजी स्कूलों के लिए रास्ता बनाया गया, जिस तरह खेती को घाटे का पेशा बना देने की परिस्थितियां बनाई गईं हैं, ताकि खुद किसान उन्हें पूंजीवादी घरानों को सौंप दें, कहीं भारतीय रेलवे भी उसी रास्ते पर तो नहीं जा रही है! 

गुगल पर खबरें देख रहा हूँ कि आसनसोल, चितरंजन, जसीडीह आदि जगहों में लोग इन ट्रेनों को बंद करने के फैसले से आक्रोशित हैं। उनका कहना है कि इन दोनों ट्रेनों में सुपर फास्ट शुल्क नहीं लगता। इनको बंद करने से गरीबों को दिल्ली जाने में महंगाई की मार झेलनी पड़ेगी। वे इसका औचित्य भी पूछ रहे हैं कि जब दिल्ली जाने वाले यात्रियों की संख्या बढ़ रही है, तो इन दो महत्वपूर्ण ट्रेनों को क्यों बंद किया जा रहा है?

नब्बे के दशक की शुरुआत में मैं खुद एक रेडियो प्रोग्राम के सिलसिले में लालकिला एक्सप्रेस से पहली बार दिल्ली आया था। तब कम्प्यूटर से रिर्जवेशन नहीं होता था। मैं गलत कोच में अपने नंबर की सीट पर बैठ गया था। ट्रेन जब इलाहाबाद पहुंचने वाली थी, उसके पहले एक छोटे स्टेशन पर मुझे बताया गया कि दूसरे कोच में जाना पड़ेगा। उन्नीस-बीस साल की उम्र में मैं पहली बार अपने शहर से हजार कि.मी. दूर देश की राजधानी में जा रहा था। थोड़ी घड़बड़ाहट-सी थी, पर मुझे याद है कि उस छोटे स्टेशन पर, जिस पर लाल बजरी बिछी हुई थी, मैं दौड़ता हुआ, अपने कोच में पहुंचा। हालांकि वह लालकिला में पहली यात्रा नहीं थी। मेरे बचपन में लालकिला एक्सप्रेस और जनता एक्सप्रेस दो ऐसी महत्वपूर्ण ट्रेनें थीं, जो मेरे शहर से होकर पश्चिम बंगाल के आसनसोल शहर की ओर जाती थीं। आसनसोल से सटे बर्णपुर में दादा जी आइरन एंड स्टील कंपनी में काम करते थे। बचपन में भी एकाध बार मैं इनमें सफर कर चुका हूं। जाड़े के दिनों में इन ट्रेनों से जब सुबह-सुबह उस रेलवे स्टेशन पर उतरता था, जहां से बस, जीप और तांगें मेरे गांव की ओर जाते थे, तब सरसो के पीले फूलों का जादू अद्भुत तरीके से पूरी चेतना को अपने आगोश में ले लेता था। वैसे पटना के बाद से ही सरसो के पीले फूलों और गेहूं के पौधों की हरियाली के समुंदर के बीच से ट्रेन मानो तैरते हुई चलती थी। उसके पहले के दृश्य इसलिए याद नहीं रहते थे कि तब रात होती थी। हां, पहाड़ भी पहली बार इन्हीं दोनों ट्रेनों के सौजन्य से देखने को मिले। फिर विद्यार्थी जीवन में कई बार लोकल पैसेंजर ट्रेनों के लेट होने पर इनमें सफर किया। सन् 2001 में जनमत के संपादन की जब जिम्मेवारी मिली, तब शुरुआती वर्षों में यही दोनों ट्रेनें थीं, जिनसे बिना रिजर्वेशन के भी इलाहाबाद से आरा-पटना जाना संभव हो पाता था। कई पाठकों के पत्रों के जवाब भी इन्हीं ट्रेनों की गैरआरक्षित बोगियों में लिखे गए।

मुझे याद है, भूमिहीन किसान मजदूरों के जीवन यथार्थ के कहानीकार और जनगीतकार बिजेंद्र अनिल ने अपने निधन से कुछ वर्ष पूर्व हिंदी कहानी में यथार्थ के सवाल पर इन्हीं ट्रेनों और आरा और बक्सर के बीच मौजूद अपने छोटे से रेलवे स्टेशन रघुनाथपुर को रूपक बनाते हुए अपनी बात कही थी। उन्होंने कहा था कि हमारे रेलवे स्टेशन से जिस तरह राजधानी और अन्य कई ट्रेनें बिना रुके तूफान की तरह गुजर जाती हैं, उसी तरह बहुत सारा यथार्थ जिनकी चर्चा महानगरों के आलोचक करते हैं, वे हमारे बीच से तूफान की तरह गुजर जाते हैं। कहने का मतलब यथार्थ के वे नजरिए यहां जगह ही नहीं बना पाते। दरअसल रघुनाथपुर स्टेशन पर लोकल ट्रेनों के अलावा लालकिला, जनता एक्सप्रेस और तूफान एक्सप्रेस जैसी ट्रेनें ही रुकती रही हैं। उनमें जो लोग सफर करते रहे हैं, उन्हीं के वर्गीय सरोकारों की कहानियां बिजेंद्र अनिल लिखते थे। मुझे तो यह भी आशंका हो रही है कि लालकिला और जनता एक्सप्रेस के बाद कहीं तूफान एक्सप्रेस जैसी ट्रेनों को भी न बंद कर दिया जाए! उससे भी मेहनतकश वर्ग की बहुत बड़ी तादाद आती-जाती है।

यह फैसला तो कुछ कुछ ऐसा ही है कि बेरोजगारों की संख्या बढ़ती जा रही है, पर नौकरियां सृजित करने के बजाए पहले से काम कर रहे लोगों की छंटनी की जा रही है या पद ही खत्म किए जा रहे हैं। अब तो लंबी दूरी वाली पैसेंजर ट्रेनें प्रायः हैं नहीं, ये काम भी यही दोनों ट्रेनें करती रही हैं। इस पूरे रूट में उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के हजारों कर्मचारी और छात्र भी इनसे सफर करते रहे हैं। इस रूट में तो और नए ट्रेनों की जरूरत है, ऐसी एक्सप्रेस ट्रेनों की जिनके ज्यादा स्टाॅपेज हों या लंबी दूरी के पैंसेजर ट्रेनों की, लेकिन ऐसा करने के बजाए पहले से चल रही ट्रेन को ही बंद किया जाना कहां की समझदारी है? 

मेरे दोस्त संजय को ट्रेनों को गुजरते देखने की आदत थी। अब उसकी फेहरिश्त से ये दो ट्रेनें हमेशा के लिए गायब हो जाएंगी। खुद उसके पिता जहां काम करते थे, वहां जाने के लिए इन्हीं दोनों ट्रेनों से सफर करना पड़ता था। उसकी भी ढेरों स्मृतियां इन ट्रेनों के साथ जुड़ी हुई हैं। हमसे हमारी स्मृतियां छिनी जा रही हैं। क्या इन ट्रेनों को और बेहतर नहीं बनाया जा सकता? क्या विलंब की वजहों को दुरुस्त नहीं किया जा सकता? क्या इनकी गति को ठीक नहीं किया जा सकता? क्या ये ट्रेनें समय पर नहीं चल सकती थीं?

जो भाषणों में परंपरा और अतीत की बात बहुत करते हैं, आखिर उनके सत्ता में काबिज होते ही कई चीजों को मिटाने की शुरुआत क्यों होने लगती है? लालकिला रहा होगा अंगरेजों के लिए विजय की स्मृति, हमारे लिए तो 1857 के महान जनविद्रोह का साक्ष्य है। कुछ लोग हमेशा शब्दों में ही इतिहास को बदलने के पागलपन में डूबे रहते हैं, इतिहास ही बदलना है तो लालकिला ट्रेन को रहने दो और इसके साथ 1857 के महान जनविद्रोह को भी कहीं जोड़ दो! उस जनविद्रोह को, जिसमें हमारी साझी राष्ट्रीयता सामने आई, जिसमें किसानों के बेटों और मेहनतकशों ने लड़ाई की कमान संभाली थी। कहते हैं कि तकनीकी रूप से अंग्रेज उन्नत थे इसलिए उनकी जीत हुई, पर क्या यह आंशिक सत्य नहीं है? उनकी जीत इसलिए भी हुई कि हमारे शासकों के एक बड़े हिस्से ने जनांकांक्षाओं के साथ गद्दारी की और अंगरेजों के साथ देश की लूट में साझीदार बने। आज भी यह तर्क देने वाले बहुत हैं कि अंगरेज आए तो हमारा विकास हुआ। हमारे पूर्व प्रधानमंत्री तो इसके लिए आभार भी प्रकट कर आए थे। पूंजीपतियों के विकास का जो फलसफा अंगरेज हमें सीखा गए, उसके गुणग्राहक तो पूर्व और अभूतपूर्व सारे रहनुमा बने हुए हैं। इस देश के तमाम संसाधनों को लुटने को आतुर पूंजीपति वर्ग और ज्यादा से ज्यादा सुविधा और संपन्नता हासिल करने की रेस में शामिल मध्यवर्ग तो गरीबों, आदिवासियों और किसानों को अपने विकास में बाधक ही समझ रहा है। इस देश का धनिक वर्ग जिस तरह गरीब-मेहनतकश वर्ग को अपनी तीव्र स्वार्थलिप्सा की पूर्ति में बाधक समझता है और तेज गति के तथाकथित विकास का सहचर न हो पाने के कारण आदिवासियों, किसानों और मजदूरों को कोसता रहता है और उन्हें मिटा देना चाहता है, ठीक उसी तरह का व्यवहार आज लालकिला और जनता एक्सप्रेस के साथ किया जा रहा है।