Monday, October 15, 2018

'शंभु बादल का कविकर्म' विषय पर हजारीबाग में आयोजन हुआ



बादल की कविता जीवन की कविता है : रविभूषण
बादल की कविताएं वर्गीय दृष्टि की कविताएं हैं : रामजी राय


हजारीबाग के डीवीसी, प्रशिक्षण सभागार में 14 अक्टूबर 2018 को वरिष्ठ कवि शंभु बादल के कविकर्म पर जन संस्कृति मंच की ओर से एक आयोजन संपन्न हुआ, जिसका संचालन कवि बलभद्र ने किया। अध्यक्षता वरिष्ठ आलोचक रविभूषण ने की। 

रविभूषण ने शंभु बादल को हिंदी की क्रांतिकारी धारा का कवि बताते हुए कहा कि वे संघर्षशील मुक्तिकामी कवियों की उज्जवल कतार में शामिल हैं। भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव, चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला और संकटग्रस्त-संघर्षशील प्यारे लोगों के प्रति कवि के हृदय-सागर में लगातार लहरे उत्पन्न होती है, जैसा कि उनकी चयनित कविताओं के संकलन के समर्पण में कहा गया है। उनकी कविता में 71 वर्षीय आजाद विह्वल होकर भगतसिंह को याद करते हैं, इसलिए कि भगतसिंह के सपने पूरे नहीं हुए हैं। बादल की कविता में जो सपने हैं, वे भगतसिंह के सपनों के भारत से जुड़े हुए हैं। भगतसिंह बार-बार उनकी कविताओं में आते हैं।
उन्होंने कहा कि संयोग यह है कि जब बादल अपने सृजन के पचासवें साल में प्रवेश करने वाले हैं, तब उनके कवि कर्म पर केंद्रित यह महत्वपूर्ण आयोजन हो रहा है। कविता के जीवन, अंतर्वस्तु, संतुलन, दृश्यबिंब, प्रतीक और मुहाबरे की दृष्टि से उनकी कविताएं हिंदी की प्रगतिशील काव्यधारा से जुड़ती हैं। 
रविभूषण ने कहा कि कविता के जीवन का प्रश्न महत्वपूर्ण है, पर उससे ज्यादा महत्वपूर्ण प्रश्न जीवन की कविता का है। बादल की कविता जीवन की कविता है। 
रविभूषण ने कहा कि एक दौर में केंद्र बनाम परिधि की बहस चली थी। दिल्ली केंद्र है और केंद्र के प्रति कवियों में गुस्सा रहा है। दिल्ली के प्रति बादल का गुस्सा भी हाशिये के कवि का गुस्सा है। उन्होंने उनकी कविता में चिड़ियों की मौजूदगी की ओर ध्यान दिलाते हुए कहा कि आकाश में उड़ना विस्तार और आजादी का प्रतीक है। 
समकालीन जनमत के प्रधान संपादक रामजी राय ने कहा कि शंभु बादल की कविताएं अलंकाररहित हैं, यह कोई बुरी बात नहीं है, क्योंकि जीवन से बड़ा कोई अलंकार नहीं होता। दरअसल सहजता ही उनकी कविता का अलंकार है और सरलता उसका लय या संगीत है। बादल का कवित्व गतिमान यथार्थ से जुड़ा हुआ है। वे भाषा को अतिरिक्त आवेशित नहीं करते। भाषा के स्तर पर थोड़ी असजगता जरूर है, पर उनकी कविताएं जिन तर्कों और विडंबनाओं को सामने लाती हैं, वे गौरतलब हैं। उनकी कविताएं वर्गीय दृष्टि की कविताएं हैं। ‘घर’ कविता का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि वह एक दलित के वर्गांतरण की कविता है। रामजी राय ने बलभद्र द्वारा संपादित ‘शंभु बादल की चुनी हुई कविताएं’ के बारे में कहा कि इसमें पच्चीस-तीस कविताएं अच्छी हैं और यह सामान्य बात नहीं है। 
जनवादी लेखक संघ के राज्य अध्यक्ष प्रो. अली इमाम ने कहा कि बादल की कविताएं संघर्ष और सामूहिक चेतना की कविताएं हैं। वे व्यवस्था पर सवाल उठाती हैं। पाठक को बेचैन करती हैं, कुछ करने और बदलने को उकसाती हैं। ‘आ बाघ’ कविता के बारे में उन्होंने कहा कि इसमें बाघ हिंसक, खूंखार और क्रूर अंतर्राष्ट्रीय पूंजी का प्रतीक है। ‘घर’ कविता के संदर्भ में उनका कहना था कि गरीबी और सामाजिक बेइज्जती का रिश्ता है। बेशक पहचान की राजनीति की अपनी सीमा है, पर वर्ग की राजनीति उसे पीछे धकेलकर आगे नहीं बढ़ सकती।
प्रलेस के राज्य सचिव मिथिलेश सिंह ने कहा कि जुमलेबाजी वाले राजनैतिक दौर में भी कविता का अपना अस्तित्व है। राजसत्ता की नजर में हम महज एक मतदाता है और बाजार की नजर में उपभोक्ता। पोस्ट ट्रूथ की बात तो दुनिया में बाद में सामने आई, हमारे यहां तो वह 2014 से जारी है। सवाल यह है कि असीमित लूट और झूठ के इस समय में जब बात घुमा-फिराकर कहने से काम नहीं चल रहा है, तो बात को सीधे-सीधे क्यों न कहा जाए? शंभु बादल की कविताएं इसी जरूरी काम को अंजाम दे रही हैं। 
जसम के महासचिव चर्चित पत्रकार मनोज कुमार सिंह ने कहा कि शंभु बादल जन संस्कृति मंच के संस्थापक साथी हैं और हमारे पथ-प्रदर्शक हैं। 50 साल से वे सृजनरत हैं और हर दौर में जनता के दमन-शोषण के खिलाफ संघर्षों पर उन्होंने कविताएं लिखी हैं, यह महत्वपूर्ण बात है। 
वरिष्ठ कवि रंजीत वर्मा ने कविताओं को प्रभावशाली बनाने के लिए संपादन की जरूरत पर जोर दिया। बादल की कविता ‘चिड़िया वही मारी गई’ के संदर्भ में उन्होंने कहा कि वे आर्थिक-सामाजिक भेदभाव को प्रश्नों को एक-साथ मिलाकर देखते हैं। दलित-वामपंथी राजनीतिक धाराओं की एकजुटता की संभावना की ओर उन्होंने पहले ही संकेत किया था। 
आलोचक अजय वर्मा ने कहा कि आज के आयोजन में बादल जी और उनकी कविताओं के प्रति सबका प्रेम उभरा है। निःसंदेह वे महत्वपूर्ण कवि हैं। उन्होंने कहा कि जीवन के बारे में बहुत बातें होती हैं, पर कविता के जीवन पर भी बात होनी चाहिए। कविता क्या केवल अपनी अंतर्वस्तु से पहचानी जानी चाहिए? कविता भाषा में लिखी जाती है, लिहाजा उसकी भाषा पर भी बात होनी चाहिए, क्या उसके अंतर्वस्तु और रूप में संतुलन है, इसका भी मूल्यांकन होना चाहिए। 
युवा कवि निशांत का कहना था कि शंभु बादल जी सिर्फ कवि नहीं, अपने आप में एक संस्थान हैं। वे एक प्रतिबद्ध कवि हैं और उनके सरोकार आम आदमियों से जुड़े हुए हैं। वे अपनी कविताओं के माध्यम से आम आदमी को लगातार जनविरोधी स्थितियों के प्रति आगाह करते हैं। जिम्मेदार नागरिक होने की जरूरत का अहसास दिलाते हैं। शमशेर या कुंवर नारायण की तरह काव्य तत्व उनमें ढूंढना ठीक नहीं होगा। उनकी कविताएं उनके निज अनुभवों की कविताएं हैं।
कवि अनवर शमीम ने बादल जी को लोक मन का पारखी कवि बताते हुए कहा कि उनकी कविता कठिन समय से टकराने वाली कविता है। आज की कठिन परिस्थितियों का सामना कर रहे हर मनुष्य के साथ उनकी कविता खड़ी है। उनकी कविता में मिट्टी की गंध है और प्रतिरोध का कड़क स्वर भी है। 
‘लोकचेतना वार्ता’ के संपादक और आलोचक रविरंजन के अनुसार शंभु बादल की कविताओं में स्मृतियों का आलोक और परंपराओं का विकास नजर आता है। ‘जनता का कवि’ कविता की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि यह विचार करना चाहिए कि दिल्ली कवियों को अच्छी क्यों नहीं लगती। ‘हजारीबाग’ कविता के संदर्भ में उनका कहना था कि इसमें यहां के संत कवि दलेल सिंह का जिक्र होना चाहिए था। 
आलोचक और संस्कृतिकर्मी सुधीर सुमन ने कहा कि आज अपने देश में मुसोलिनी, हिटलर जैसों का जो जुल्मी बयार है, ‘झूम रहा बाजार’ और ‘झूम रही सरकार’ के जो प्रधान और प्रवक्ता हैं, बादल जी की कविता उनकी शिनाख्त करती है, ‘वे सब कौन हैं?’ यह बताती है। उन्होंने कहा कि उनकी कविता में सपने उदासी, अकेलपन और संकट के घास-पात को साफ करते हैं। वे कहते हैं- ‘हम दुनिया को देखते हैं/ सपनों के हाथ लिये।’ सपनों को बचा कर रखने के लिए वे सपनों का जीवन बन जाना चाहते हैं। जाहिर है ये सपने बेहतर समाज और दुनिया के हैं, जिन सपनों का जीवन बन जाने की चाहत विरल काव्य-संदर्भ है। सपनों के हाथ बदलाव के लिए लोगों के हाथों की जरूरत महसूस करते हैं।
सुधीर सुमन ने कहा कि किसके बल पर गति की स्याही से कवि जीवन भर लिखता रहा, वह गौर करने लायक है- टोकरी भर धूप, टोकरी भर छाया, ऊर्जा के घने मेघ, ऐसी बिजली की गर्जना जिससे धरती के दागदार वृक्ष फट जाते हैं, खेत झूम उठते हैं, उनकी कविता की ताकत हैं। खेती-किसानी से जुड़े बिंब और प्रतीक उनकी कविता में बड़ी सहजता से आते हैं। ‘चने लगाता आया हूं’ और ‘बीज हंस रहे हैं’ जैसी कविताएं इसका उदाहरण हैं। चिड़ियां उनकी कविता में उत्पीड़ित समुदायों और स्त्रियों के संदर्भ में आती हैं। एक कविता में चिड़िया खुद उनकी पत्नी का प्रतीक है।
विडंबनाओं और वर्ग-वैषम्य की स्थितियों की पहचान कराना उनकी कविताओं की खासियत है। उनकी चुनी हुई कविताओं के संकलन की पहली कविता ‘चांद’ से लेकर ‘प्रिय वेनिस’ जैसी कविता तक में इसे देखा जा सकता है। चांद पर मनुष्य के कदम से कवि को खुशी है तो आशंका भी है कि वह कहीं धुएं से न भर जाए, वेनिस के सौंदर्य में डूबा कवि इस विडंबना की शिनाख्त करना नहीं भूलता कि ‘समृद्ध नगर में कट्टर अविवेक’ है, मानो ‘भव्य नाव में बारीक सुराख’। शासकवर्गीय छल-प्रपंच का लगातार पर्दाफाश करने के कारण भी उनकी कविताएं महत्वपूर्ण हैं। 
सुधीर सुमन ने कहा कि शंभु बादल परिवर्तन की उम्मीद और संघर्ष के प्रति सक्रियता का भाव जगाने वाले कवि हैं। ‘मैं ही महेंद्र सिंह हूं’ कविता में वे कहते हैं- ‘‘तुमने/ क्रांति की/ उदास फसलों को/ अपने खून से सींच/ हरा-भरा किया।’ इसी कविता में कवि ने वर्तमान को बहुमार्गी बताया है और इस बहुमार्गी वर्तमान को संवारने वालों की एकता की बात कही है। यह राजनीति और साहित्य दोनों के लिए जरूरी सामयिक वैचारिक संदर्भ है। 
कवि लालदीप गोप ने यह चिह्नित किया कि बादल की कविताओं में सर्वहारा की स्थिति को लेकर विलाप नहीं, बल्कि उन स्थितियों को बदल देने की जिजीविषा नजर आती है। 
कवि नीलोत्पल रमेश ने शंभु बादल की कविताओं को उद्धृत करते हुए उन्हें हिंदी की प्रगतिशील-जनवादी काव्य परंपरा का महत्वपूर्ण कवि बताया। जनता के संघर्ष, प्रतिरोध और परिवर्तन के प्रति उनकी कविता प्रतिबद्ध है। डाॅ. गजेंद्र सिंहने कहा कि कविता में बाघ वालमाॅर्ट और कारपोरेट्स का प्रतीक है। राजेश रंजन ने कहा कि उनकी कविताओं में सूरत नहीं, सीरत है। राजेश दूबे, अभिषेक पांडेय और डाॅ. हीरालाल साहा ने भी कवि शंभु बादल और उनकी कविताओं के महत्व को रेखांकित किया। 
इस मौके पर शिल्पा कुमारी झा ने बादल जी की कविता ‘सांवली लड़की’ और प्रियंका कुमारी ने ‘सपनों से बनते हैं सपने’ का पाठ किया। स्वयं शंभु बादल ने ‘आ बाघ’ और अपनी नई कविता ‘हंसी फैलेगी’ सुनाई।
आयोजन स्थल को संभावना कला मंच, गाजीपुर के निहाल कुमार और मृदुल चौधरी ने कविता-पोस्टरों से सजाया था। इस आयोजन में बादल जी और उनकी कविता को चाहने वालों की भारी तादाद मौजूद थी। आयोजन के आरंभ में जन संस्कृति मंच, झारखंड के सचिव अनिल अंशुमन ने अतिथियों और श्रोताओं का स्वागत किया। धन्यवाद ज्ञापन जावेद इस्लाम ने किया। 
इस मौके पर गंगा में प्रदूषण मुक्ति के लिए अनशन के दौरान शहीद प्रोफेसर और पर्यावरण विज्ञानी जी. डी. अग्रवाल को एक मिनट का मौन रखकर श्रद्धांजलि दी गई।


Tuesday, October 9, 2018

लोहिया का पूरा जीवन मुझे एक मिसाल की तरह लगा : कुमार मुकल

( कुमार मुकल से उनकी किताब ‘लोहिया और उनका जीवन दर्शन’ को लेकर मैंने यह बातचीत आकाशवाणी के लिए की थी जिसका प्रसारण  इंद्रप्रस्थ चैनल से 9 अक्टूबर 2012 को हुआ था। ) 

डाॅ. लोहिया और उनका जीवन दर्शन ' नामक यह पुस्‍तक, सत्ता में मौजूद लोहियावादियों के सैद्धांतिक पतन और चरम अवसरवाद के विपरीत लोहिया को अपने देश की समाज, राजनीति और अर्थनीति में परिवर्तन चाहने वाले बुद्धिजीवी और नेता के रूप में हमारे सामने लाती है। आपने अपनी भूमिका में लिखा है कि आप राजनीति विज्ञान के छात्र रहे हैं और छात्र-जीवन में लोहिया की दो जीवनियां आपने पढ़ रखी थीं पर उनका दिमाग पर ऐसा असर नहीं हुआ था जो पुस्तक लिखने को प्रेरित करे। ऐसे में आपको लोहिया पर किताब लिखने का मौका मिला तो आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या हुई, कौन सी वे बातें थीं लोहिया की जिसने इस किताब को लिखने के दौरान आपके लेखक को प्रभावित किया 

पहले जो कुछ पढा था वह सरसरी निगाह से पढा था फिर जिस तरह लोहिया के हिटलर की सभाओं में जाने को लेकर चीजें, बातें प्रचारित थीं उससे लोहिया से एक दूरी-सी लगती थी पर पुस्‍तक लिखने के दौरान जब उनके तमाम लेखन से साबका पडा तो जाना कि सच के कई दूसरे आयाम हैं... लोहिया जर्मनी पढाई के लिए गये थे और वहां होने वाली गतिविधियों में सक्रियता से हिस्‍सा लेते थे, वहां नाजी और कम्‍यूनिस्‍ट दोनों उनके मित्र थे, उनके नाजी मित्र ने जब उनहें भारत में जाकर नाजी दर्शन का प्रचार करने की सलाह दी तब उनका जवाब था – 'जर्मनी के अतिरिक्‍त अन्‍य किसी देश में वंश और जाति की श्रेष्‍ठता को माननेवाला दर्शन शायद ही स्‍वीकृत होगा।' आगे हिटलर के प्रभाव के बढते जाने के कारण उन्‍हें समय से पहले भारत लौटना पडा था। मद्रास पहुंचने पर आर्थिक संकट को ध्‍यान में रख उन्‍होंने 'फ्यूचर ऑफ हिटलरिज्‍म' शीर्षक लेख लिखकर पारिश्रमिक के तौर पर 25 रुपये  प्राप्‍त किए थे। 

इसी तरह भारत लौटने के पहले जब जेनेवा की 'लीग आफ नेशंस' की बैठक में भारत की प्रतिनिधि बीकानेर के महाराज गंगा सिंह ने भारत में अमन चैन की बात की तो वहां उपस्थित लोहिया ने इसका विरोध किया और अगले दिन उन्‍होंने वहां के एक अखबार में लेख लिखकर भारत में चल रहे पुलिसिया अत्‍याचारों और भगतसिंह को दी गयी फांसी का मुददा उठाया था। इसके अलावे लोहिया का पूरा जीवन मुझे एक मिसाल की तरह लगा। वे सादा जीवन जीते थे और खुद पर न्‍यूनतम खर्च करते थे। कार्यकर्ताओं का ख्‍याल कर उन्‍होंने सिगरेट पीना छोड़ दिया था।  उनके एक साथी जब बैंक से पैसे निकालने गये तो उन्‍होंने कहा कि कैसे समाजवादी हो, बैंक में खाता रखते हो, यहां तक कि उनकी जान चली गयी, क्‍योंकि सहज ढंग से वे विदेश जाकर अपना इलाज कराने को तैयार नहीं थे। वे अपने लिए उतनी ही सुविधा चाहते थे जितनी भारत की गरीब जनता अपने लिए जुटा पाती थी, सांसद बनने पर गाडी और यहां तक कि कमरे में कूलर तक लगवाने से इनकार कर दिया था, इस सबके अलावे वैचारिक पहलू पर भी वे खुद को बराबर दुरूस्‍त करते रहते थे। 'मैनकाइंड' में एक पत्रकार के रूप में उनकी भूमिका ने भी मुझमें उनके प्रति सकारात्‍मकता पैदा की।

आपने गांधी और मार्क्‍स के साथ लोहिया के समान लगाव की बात की है। आपने लिखा है कि वे मार्क्‍स की ‘डिक्लास थ्योरी' और गांधी के ‘अंतिम आदमी' को हमेशा ध्यान में रखते थे। जबकि लोहिया अपने आप को कुजात गांधीवादी कहते हैं और वामपंथ की तीखी आलोचना करते हैं। एक जगह वे यह भी कहते हैं कि ‘न मैं मार्क्‍सवादी हूं और न मार्क्‍सवाद विरोधी'। इसी तरह न मैं गांधीवादी हूं न गांधीवाद-विरोधी... तो आखिर आपकी निगाह में वे क्या हैं... इस किताब में वामपंथ के प्रति उनके पूर्वाग्रह को रेखांकित करने और अमेरिका व पूंजीवाद के प्रति उनकी उम्मीद के धूल-धूसरित होने का भी जिक्र किया गया है। आखिर लोहिया के इस नजरिए के तत्कालीन वैचारिक स्रोत क्या हैं, आज जबकि सोवियत संघ बिखर चुका है और अमेरिकी साम्राज्यवाद की मनमानी पूरी दुनिया में जारी है तब जनता और राष्ट्रों की स्वतंत्रता और संप्रभुता के संघर्ष के लिहाज से क्या लोहिया के विचार आपको उपयोगी लगते हैं?

गांधीवादी या मार्क्‍सवादी होने या दोनों का विरोधी होने को लोहिया समान मूर्खता मानते हैं, उनका कहना है कि गांधी और मार्क्‍स दोनों के ही पास अमूल्‍य ज्ञान-भंडार है। खुद मार्क्‍स मार्क्‍सवादी नहीं थे, इसी अर्थ में वे खुद को कुजात गांधीवादी कहते हैं वे इन दोनों के विचारों के सकारात्‍मक, वैज्ञानिक तथ्‍यों को लेकर आगे बढना चाहते थे। जरूरत पडने पर वे दोनों की सकारात्‍मक आलोचना करते थे। गांधी की बहुत सी बातों को वे आगे बढाना चाहते थे, पर उपवास आदि के पक्षधर नहीं थे। इसी तरह वे मार्क्‍स के दर्शन में जहां जड ढंग से बांधने की कोशिश दिखती थी, वहां उसका विरोध करते थे। वे किसी विचारधारा को व्‍यक्त्‍िा का पर्याय बनाने के खिलाफ थे। एक जगह गांधी और मार्क्‍स पर विचार करते वे लिखते हैं- 'मार्क्‍सवाद अपनी सीमाओं के अंदर विपक्ष और सरकार दोनों ही रूपों में ज्‍यादा क्रांतिकारी होता है। उसके क्रांतिकारी चरित्र में सरकारी होने या न होने से कोई बाधा या फर्क नहीं पडता।' 

वे पाते थे कि उनके समय में जो कुछ चल रहा है वह गांधीवाद न होकर गांधीवाद और मार्क्‍सवाद का घटिया सम्मिश्रण है। वे इसे गांधीवाद की कमजोरी मानते थे कि मार्क्‍सवाद उन्‍हें सम्मिश्रण के लिए मजबूर कर देता है। वे देखते हैं कि गांधीवाद जब त‍क सत्‍ता से दूर रहता है तब तक ही क्रांतिकारी रह पाता है, इसीलिए वे खुद को गांधीवाद से अलगाते हुए कुजात गांधीवादी कहते हैं। उनके लेखन के बडे हिस्‍से से गुजरने के बाद पता चलता है कि उनके वैचारिक आधार की नींव में मार्क्‍सवाद है और गांधी के साथ काम करने के कारण उनका भावात्‍मक प्रभाव ज्‍यादा है। वे भारतीय वामपंथ से टकाराते थे और कहते थे कि– मार्क्‍स के सिद्धांतों में ज्‍योतिषियों जैसी बहानेबाजी नहीं थी, जैसी कि वे वामपंथियों में पाते थे। वे अमेरिका से उस समय कुछ ज्‍यादा आशा कर रहे थे पर रूस और चीन की बदलावकारी भूमिका को हमेशा स्‍वीकारते थे, उनकी आलोचना उनसे और बेहतर की मांग थी।

आपकी इस पुस्तक में तिब्बत का मसला नहीं आया है, क्या इसे जान-बूझकर आपने छोड़ दिया है, तिब्बती जनता की स्वायत्ता और स्वतंत्रता की मांग के समर्थन के बावजूद क्या यह सच नहीं है कि तिब्बत मसले को हवा देने में अमेरिका का भी बड़ा हाथ था और लोहिया ने भी इस मसले को उठाया था?

हां तिब्‍बत और कई मसले इस पुस्‍तक में नहीं हैं, आगे संसद में उनके भाषणों पर भी काम करना बाकी है, संभवत: अगली पुस्‍तक में इन मुददों पर विचार कर पाऊंगा।

कहते हैं कि आजादी के पहले से ही नेहरू की विदेश नीति पर लोहिया का गहरा असर रहा है। खुद भी लोहिया नेहरू से प्रभावित थे। वही लोहिया जो कांग्रेस आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के विकल्प की बात सोचने वालों को नेहरू की तरह ही गलत मानते हैं और 1939 के कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव के वक्त उसे टूट के खतरे से बचाने के लिए कई लेख लिखते हैं... आखिर ऐसा क्या हुआ कि आजादी के बाद उन्होंने गैरकांग्रेसवाद की राजनीति को हवा दी। आजादी से मोहभंग जिन वजहों से था उनके निदान में लोहिया के गैरकांग्रेसवाद ने क्या भूमिका अदा की?

हां, आजादी के पहले और बाद लोहिया ही नहीं नेहरू आदि सब बदले। व्‍यवहार में सत्‍ता संभालने के बाद के संघर्ष ने दोनेां को अलग किया। नेहरू की विदेश नीति पर लोहिया का प्रभाव था पर आजादी के बाद नेहरू अपने ढंग से खुद को अलग करते गये। और लोहिया की आपत्तियां बढती गयीं। भारत के विभाजन के समय ही नेहरू और लोहिया के मतभेद गहराने लगे थे, आगे इसने दोनों को अलगाया। नेहरू की आंख मूंद कर... जैसे लोग पूजा करने लगे थे, लोहिया को यह सख्‍त नापसंद था। संसद में पहले ही दिन लोहिया ने कहा कि– 'प्रधानमंत्री नौकर है और सदन उसका मालिक ...।'

आज तो 'आम आदमी' एक ऐसा जुमला है कि जिसका वे सब धड़ल्ले से प्रयोग कर रहे हैं जिन्होंने राजनीति को अकूत धन बटोरने का पेशा बना डाला है। लेकिन जब लोहिया आम आदमी की बात करते हैं तो उसका मतलब क्या होता है, 'पिछड़ा पावे सौ में साठ' नारे ने क्या गरीबों के हाथ में सत्ता देने में कोई भूमिका निभाई?

संसद में आम आदमी के लिए ढंग से पहली बहस लोहिया ने ही शुरू की थी। रिक्शाचालकों की स्थिति पर जब संबंधित मंत्री ने कहा कि रिक्‍शा चलाने से उनके स्‍वास्‍थ्‍य पर अवांछित प्रभाव नहीं पडता, तो लोहिया ने जवाब दिया – 'क्‍या आप एक महीना रिक्‍शा चलाकर फिर से इसे कहेंगे?' मंत्रियों को दी जाने वाली सलामियां उन्‍हें सख्‍त नापसंद थीं। वे शासकों के व्‍यक्तिगत खर्चे की सीमा 1500 रुपये रखना चाहते थे। वे नहीं चाहते थे कि जनप्रतिनिधि जनता से अलग उन्‍नत जीवन जीएं। पिछड़ा पावे सौ में साठ ने राजनीति का चेहरा बदलकर रख दिया । 

जाति, संप्रदाय, क्षेत्र, लिंग और भाषा के विमर्श आज की राजनीति और समाज में जैसी भूमिका निभा रहे हैं उसे देखते हुए आपको लोहिया के चिंतन की क्या प्रासंगिकता लगती है? आपने इस किताब में कई जगह ऐसे संदर्भ दिए हैं
 

जाति को लोहिया समूल नष्‍ट करना चाहते थे, पर उनका नजरिया जड नहीं था, वे उन सबको ऊंची जाति में रखना चाहते थे जिनके पूर्वज उस क्षेत्र में राजा रहे हों। वे कहते हैं कि एक ब्राहमण जो राज चलाता है नौकरी करता है वह उंची जाति का हो गया और दूसरा जो शिवजी पर बेलपत्र चढाता है वह नीची जाति का हो गया। हालांकि इन दोनों कथनों में अंतरविरोध है पर यह समय संदर्भ में अलग ढंग से सोचने के कारण है... मूलत: वे किसी भी तरह इस कुप्रथा को नष्‍ट करना चाहते थे। जाति की तरह वे योनि के कटघरों को भी खत्‍म करना चाहते थे। एक जगह वे लिखते हैं – कि 'एक अवैध बच्‍चा होना आधे दर्जन वैध बच्‍चे होने से कई गुणा अच्‍छा है।' कई जगह लोहिया की भाषा कवित्‍वपूर्ण हो जाती थी– यह लोहिया ही थे कि लाहौर जेल में भी ज्‍योत्‍सना यानि चांदनी का वैभव देख पाते थे। 

आपने एक जगह लिखा है कि लोहिया का कोई बैंक एकाउंट नहीं था। सवाल यह है कि क्या लोहिया के विचार और उनकी राजनीति निजी संपत्ति के खात्मे के लिहाज से उपयोगी हैं?

हां, वे निजी संपत्ति के खात्‍मे के पक्षधर थे। गांधी और मार्क्‍स के इससे संबंधित विचारों को लेकर वे लिखते हैं – 'कि संपत्ति संबंधी गांधीजी के विचारों के साथ झंझट यह है कि वे जब अस्‍पष्‍टता से निकल रहे थे तभी उनकी मृत्‍यु हो गयी।' जबकि मार्क्‍स इस मामले में पक्के थे और उन्‍होंने परिवर्तन का समर्थन किया।

आज जनता का अपने जीवन के मूलभूत अधिकारों के लिए जो संघर्ष है उसके लिए डाॅ. लोहिया के विचार आपको किस हद तक उपयोगी लगते हैं?

जनता के मूलभूत अधिकरों के लिए जो संघर्ष है उसमें लोहिया के विचार आज भी प्रसंगिक हैं अपने छोटे से संसदीय कार्यकाल में लोहिया ने आमजन के अधिकारों के लिए जैसा प्रतिरोधी संघर्ष चलाया वह अविस्‍मरणीय है।


वुमनिया देखते हुए : संतोष सहर

"बेशकीमती हैं हम
एक दिन हमारे दुःख 
बन जाएंगे
दुनिया के अचरज।"

'वुमनिया' एक डाक्यूमेंट्री फ़िल्म है जो विगत 30 सितंबर को बिहार म्यूजियम के ओरिएंटल हॉल में दिखाई गई। यह फ़िल्म 'नारी गुंजन' नाम की एक स्वयंसेवी संस्था (एनजीओ) के द्वारा संचालित किये जानेवाले बिहार के एक महिला बैड 'सरगम' को केंद कर बनाई गई है।

बरसों पहले नोट्रेडम संस्था से जुड़कर केरल से बिहार आयी सुधा वर्गीज़ ने 1987 में 'नारी गुंजन' संस्था बनायी। यह संस्था बिहार के कुछ जिलों में दलित-महादलित समुदाय के बीच स्कूलों और स्वयं सहायता समूहों का संचालन करती है। 2013 में पटना से सटे दानापुर के ढिबरा गांव के दलित टोले में नारी गुंजन के स्वयं सहायता ग्रुप से जुड़ी महिलाओं ने यह सरगम बैंड बनाया था। 'वुमनिया' सरगम बैंड की महिलाओं की गाथा है।

अपने साथियों व दर्जनों उत्साही दर्शकों के साथ बैठकर मैंने करोड़ों की लागत से बने बिहार म्यूजियम के एक वातानुकूलित हॉल में हो रहे इस फ़िल्म को देखा। अब जबकि इस शीत गृह का दरवाजा बंद हो चुका है, नियोन की दूधिया रोशनी की जगह वहां अंधेरा है और उत्साही दर्शकों की तालियों की गूंज बस स्मृति का हिस्सा भर बनकर रह गयी हैं, मैं 'वुमनिया' को लेकर आपसे मुख़ातिब हो रहा हूँ।

'वुमनिया' एक सफल फ़िल्म है क्योंकि यह बिहार में महिला सशक्तिकरण के नाम पर अबतक घटित हो चुकी कई-कई भयावह व त्रासद कथाओं के बीच से जीवित बच रही चंद कथाओं में से एक है। यह 'रेयरनेस' ही इसका प्राण तत्त्व है। इसी वजह से यह कथा प्रिंट व श्रव्य माध्यमों में भी पहले ही खासी जगह पा चुकी है। बीबीसी और अलजज़ीरा ने भी इसे प्रमुखता से प्रचारित किया है। सरगम बैंड केबीसी का मेहमान बना है। अखबारों ने उसपर फीचर बनाये हैं और केंद्र-राज्य सरकारों ने अपने आयोजनों में इस बैंड को जगह दी है।

ब्रांडिंग बिहार उर्फ बिहार में बहार

विश्व बैंक प्रायोजित उदारीकरण के दौर में सरकारी योजनाओं को जब पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप मोड़ में लाया गया तो उनमें एनजीओ की भागीदारी बढ़ गई। 2005 में सत्ता हासिल करने के साथ ही नीतीश कुमार ने इसे खूब बढ़ाया। अपने सीमित जनाधार को देखते हुए दलितों (महादलितों)और महिलाओं को निशाने पर रखा। सरकारी प्रचार का एक प्रमुख एजेंडा बना - महिला सशक्तिकरण। पंचायतों व स्कूल शिक्षकों की बहाली में 50 फीसदी आरक्षण, आशा-आंगनबाडी में रोजगार, स्कूली बच्चियों की साइकिल-पोशाक, कन्या विवाह व हुनर योजनायें बनीं।

सुशासन और न्याय के साथ विकास की जुगलबंदी में महिला सशक्तिकरण का राग सर्वाधिक सुरीला लगता था। सरकार, यूनिसेफ और बिहार शिक्षा परियोजना के साथ संगत करते हुए एनजीओ व मीडिया ने बिहार में महिला रोल मॉडलों को तलाशना शुरू किया और उनकी फौज ही खड़ी कर दी। बी-गर्ल अनिता कुशवाहा और किसान चाची राजकुमारी देवी (मुजफ्फरपुर), कचरे वाली किरण और बाल मजदूर चुनचुन कुमारी (पटना), मशरूम उत्पादक लालमुनि देवी (नौबतपुर, पटना) स्कूल वार्डेन तहसीन बानो (गया), आंगनबाड़ी सेविका जूली (खगड़िया) के साथ ही नई-नई कायम की गई पंचायती राज व्यवस्था में शामिल कई महिलाओं, खेल की दुनिया - कबड्डी, कराटे, फुटबॉल, क्रिकेट की खिलाड़ियों और स्लम और रेड लाईट इलाकों में सामाजिक काम से जुड़ी औरतों-बच्चियों ने सरकारी पोस्टरों, विज्ञापनों, अभियानों और टेक्स्ट बुक किताबों में जगह हासिल कर ली। इस 'फील गुड' को 2015 चुनाव का स्लोगन बना दिया गया - 'बिहार में बहार है।'

टूट गए सारे सितारे

मुझे ठीक-ठीक पता नहीं कि महिला सशक्तिकरण के उपरोक्त सितारों की मौजूदा जिंदगी कैसी है। अब उनकी चर्चा तक नहीं होती। सुधा वर्गीज़ जी को इसी दौर में पद्मश्री की उपाधि जरूर हासिल हुई।
और हां, साल भर पहले एक एनजीओ द्वारा करोड़ों रुपयों की सरकारी राशि के लूट का उद्घाटन भी हुआ। इस 'सृजन घोटाला' की ने मुख्य सूत्रधार मनोरमा देवी भी 'समाजसेवी' पायी गयी थीं। सुनते हैं कि उनकी भी समाज सेवा की दुदुंभी बजाते हुए नीतीश सरकार ने पद्मश्री से नवाजने की सिफारिश कर डाली थी. अगर ऐसा होता तो इस क्षेत्र से पद्मश्री पानेवाली वे दूसरी महिला होतीं।

'सृजन' ने तो नीतीश सरकार व एनजीओ तंत्र के 'महिला सशक्तिकरण' विद्रूप चेहरे से पर्दा भर खिसकाया, छह माह बाद tiss की रिपोर्ट के जरिये बिहार के आश्रय गृहों में होनेवाली अनियमितताओं और उनमें रह रही महिलाओं-बच्चियों के साथ हिंसा और बलात्कार के सनसनीखेज खुलासे ने तो उसके वीभत्स और बर्बर रूप को पूरीतरह से खोलकर रख दिया।ब्रजेश ठाकुर और मनीषा दयाल सरीखे सोशलाइटों और नीतीश-मोदी सरकार के मंत्रियों-अधिकारियों की दरिंदगी तो उजागर हुई ही इसकी जांच की आंच रंगमहल तक जा पहुंची। यह तथ्य यह भी है कि पद्मश्री सुधा वर्गीज़ के 'नारी गुंजन' पर भी कलंक ये काले धब्बे लग चुके है।

सरगम की तान

इन सारी गद्दारियों, धोखाधडियों और विफलताओं के बीच सरगम बैंड, जैसा कि मैंने पहले ही कहा है, एक हद तक सफलता की कहानी है। इस 'रेयरनेस' की अच्छे से ब्रांडिंग करती है फ़िल्म 'वुमनिया'। यह कथ्य के अनुरूप भाषा में फिल्माई गयी है। दृश्यांकन में पानी भरे खेत, धान के ताजे बिचड़े, धरती की हरीतिमा के बीच जोश से दमकते चेहरों की सुंदर लयकारी है। बैंड की महिलाओं का चटक रंग पहनावा तथा सिंदूर, महावर और नेल पॉलिश से अपनी मांग, पैरों व नाखूनों को सजाने के दृश्य नजर आते हैं। मुर्गे-मुर्गियां या बकरी-छौनों की मौजूदगी भी इसमें कहीं से बाधक नहीं बल्कि इसी सुखद परिवेश का विस्तार लगते हैं तथा उनके बैंड वादन में श्रम और क्रीड़ा के बीच की दीवार ओझल हो जाती है।

उड़ान को फड़फड़ाते पंख

स्क्रीनिंग के दौरान मेज़बान मो. यूसुफ साहब (निदेशक, बिहार म्यूजियम) ने कहा कि यहां इस फ़िल्म के प्रदर्शन का एक उद्देश्य म्यूजियम की एलीट छवि को तोड़ना भी है। सुन रहे हो न पटना के गरीब संस्कृतिकर्मियों! बता दें कि मुख्यतः पुराने व ऐतिहासिक पटना म्यूजियम की कलाकृतियों को उठाकर सजाये गए इस म्यूजियम में झांकने भर के लिए सौ रुपये का टिकट लगता है।
ट्रेनर गुंजन जी ने प्रैक्टिस के सवाल पर उनके परिजनों के शुरुआती मर्दाना विरोध का जिक्र करते हुए मुख्यतः खेतों में दिहाड़ी मजदूरी करनेवाली अशिक्षित व अल्पशिक्षित महिलाओं को सिखाने में दरपेश दिक्कतों व तरीकों पर रोशनी डाली। सुधा वर्गीज़ ने महिलाओं की सृजन क्षमता को सामने लाने और वंचित तबकों को 'मेहनत' के जरिए अपनी आर्थिक हालत सुधार लेने का मंत्र दिया। आयोजक सुशील कुमार (समन्वय के संयोजक व बिहार पुलिस सेवा के अधिकारी) ने बताया बैंड बनाने के बाद से इन महिलाओं में आत्म विश्वास आया है और अब वे पुरुषों की मदद के बिना ही दूर तक की, यहां तक कि हवाई यात्राएं भी कर लेती हैं और होटलों, रेस्तराओं समेत सभी सार्वजनिक जगहों पर मौजूद नागरिक सुविधाओं का बेधड़क उपयोग करती हैं। बैंड लीडर सविता देवी ने सरगम बैंड के गठन तथा पटना और दिल्ली के सरकारी आयोजनों में भागीदारी और जनता को संबोधित करने के अनुभव रखे। फ़िल्म निर्माता आकाश अरुण ने सूचना दी कि 'वुमनिया' शिमला में आयोजित फ़िल्म फेस्टिवल में भी प्रदर्शित की जाएगी।

गंउवा बनाव क्रंतिकरिया, नजरिया खोल .....

फ़िल्म देखकर लौटते हुए मुझे बैंड के संगीत के बजाय इन महिलाओं के समूह गान की याद आयी। फ़िल्म में उनके दो समूह गान हैं। पहला गीत आजाद भारत में मौजूद समाजार्थिक विभाजन को बेहद सधे किंतु स्पष्ट तरीके से सामने लाता है - सहज-सरल शब्दों में, खान-पान, पहनने-बिछाने और रहन-सहन के बुनियादी पैमानों के जरिये। भूलना नहीं चाहिये कि 70' के दशक में ऐसे कई-कई जनगीतों ने उस समय की जनभावना को लोकप्रिय तरीके से अभिव्यक्त किया था और इसी जनभावना ने ही संगठित रूप लेते हुए अपने बिहार के भोजपुर, मगह और मिथिला में एक बड़े जनविद्रोह की रचना कर डाली थी। 
दूसरा गीत इस विषय में संदेह की जरा भी गुंजाईश नहीं रहने देता। संयोगवश तीन दिनों पहले ही पटना के गांधी मैदान में आयोजित हुई अपनी पार्टी भाकपा-माले की रैली में बिहार के खेत-खलिहानों से आई महिला साथियों के समूहगान में मैंने यही गीत उसके मूल रूप में सुना था -
गंउवा बनाव क्रंतिकरिया
नजरिया खोल ए भईया!
सरगम बैंड की महिलाएं इसी गीत के एनजीओ संस्करण को गा रही थीं। 'क्रंतिकरिया' की जगह 'अधिकरिया' और 'भईया' के बदले 'दीदी' - बस यही फर्क था।

एक नजर इधर भी

व्यस्तताओं के बीच रहते हुए भी मैं प्रायः अपने पार्टी आधार में शामिल असंख्य दलित-महादलित टोलों में से कुछ में जाने का अवसर निकाल ही लेता हूँ। ऐसे हर टोले में मैंने बैंड बाजा दल पाये हैं। शादी-ब्याह के दिनों में जब खेती और घर-मकान बनाने का काम नही रहता, यह आमदनी का एक जरिया है। यह कम कठिन या प्रतियोगी काम नहीं है और उन्हें कोई सरकारी/गैर सरकारी सहायता, प्रोत्साहन या संरक्षण भी नहीं मिलता। 
मुझे ठीक-ठीक पता नहीं कि सरगम बैंड की व्यावसायिक सफलताएं कितनी हैं? मुझे इस बैंड की कलात्मक दक्षता का भी सही अंदाज नहीं है। फ़िल्म के एक दृश्य में जहां वे अपने ही ट्रेनर की शादी में प्रदर्शन कर रही हैं, एक अन्य बैंड पार्टी की भी मौजूदगी देखकर यह जिज्ञासा और बढ़ जाती है।
हम सब यह भी बखूबी जानते हैं कि हमारे राज्य में महिला नर्तकियों के जो सैकड़ों समूह हैं उनका सबसे बड़ा हिस्सा इन दलित-महादलित महिलाओं के बीच से आया है। नाच मंडली व थियेटर-आर्केस्ट्रा ग्रुप के सदस्य व संचालक के रूप में जीवन-यापन कर रही ये महिलायें आज भी सुरक्षित व सम्मानित जीवन की मुन्तज़िर हैं। उस दिन की मुन्तज़िर हैं जिस दिन 'तमाम दुःख उनके लिये अचरज बन जाएंगे।' जब किसी 'बबीता' को बीच बाजार भरी भीड़ में निर्वस्त्र कर घुमाने और लात-घूंसों से पीटने की घटनाएं नहीं होंगी।
सरगम बैंड दल की एक सदस्य की किशोर वय बच्ची की आंखों से मैं उनके भविष्य के सपने देखता हूँ। यकीनन, उसमें मां की तरह ही बैंड बजाने का सपना कत्तई नहीं है।
आइये, हम सब उनके सच्चे सगे-सम्बंधी और बंधु-बांधव बनें और उसके सपनों में बसे उस एक दिन को लाने का पुरजोर यत्न करें। लेकिन, तब जरूरी है कि हम उनकी एक नई और सही-सही ब्रांडिंग करें-
आइये हम समवेत गायें - गंउवा बनाव क्रंतिकरिया, नजरिया खोल ए भईया!

Monday, October 8, 2018

मंटो आज के हिंदुस्तान के बारे में क्या सोचते : अजय सिंह

अभिनेत्री और निर्देशक नंदिता दास की फ़िल्म ‘मंटो’ (2018, रंगीन, 112 मिनट) को देखते हुए कुछ सवाल दिमाग़ में कौंधने लगते हैं। यह फ़िल्म हिंदुस्तान और पाकिस्तान के एक अत्यंत महत्वपूर्ण उर्दू लेखक सादत हसन मंटो (1912-1955) के जीवन व उनकी लिखी कुछ कहानियों पर केंद्रित है। ख़ासकर 1946 से 1950 के बीच की मंटो की ज़िंदगी—जब वह बंबई (अब मुंबई) और लाहौर में रहे—क्या और कैसी थी, इसे फ़िल्म में दिखाया गया है। वह पूरा दौर और समय क्या था, बौद्धिक माहौल व फ़िल्म जगत किस तरह का था, और राजनीतिक व साहित्यिक बहसें क्या थीं, फ़िल्म इन सबको बारीकी व सजगता से पकड़ती है।

मंटो 1948 के शुरू में हिंदुस्तान (मुंबई) छोड़कर पाकिस्तान (लाहौर) चले गये, और वहीं 18 जनवरी 1955 में उनका इंतक़ाल हुआ। तब उनकी उम्र सिर्फ़ 42 साल नौ महीने थी। फ़िल्म ‘मंटो’ मानीख़ेज़ और मर्मस्पर्शी है, दर्शक को पूरी तरह बांधे रखती है, और गहरी समझदारी व संवेदनशीलता से बनायी गयी है। यह मंटो के जीवन व विचार को, उनकी जद्दोजहद को, उनके अंतर्द्वंद्व और अंतर्विरोध को शिद्दत से उभारने की कोशिश करती है। इस कोशिश में फ़िल्म काफ़ी हद तक क़ामयाब है। ‘फायर’ फ़िल्म की अभिनेत्री नंदिता दास से, जो अब निर्देशक की भूमिका में हैं, यही उम्मीद थी।

फ़िल्म से यह भी पता चलता है, और जैसा कि उर्दू-हिंदी साहित्यिक जगत से जुड़े लोगों को मालूम है, कि प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन व प्रगतिशील लेखक संघ (पीडब्लूए) से मंटो का रिश्ता तनावपूर्ण था। प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े लेखकों के समूह ने—हिंदुस्तान में व बाद में पाकिस्तान में भी—मंटो को ‘प्रतिक्रियावादी व अश्लील लेखक’ कहना, कड़ी आलोचना करना और मंटो से दूरी रखना शुरू कर दिया था। इस बात ने मंटो को बहुत चोट पहुंचायी थी। विडंबना यह है कि पाकिस्तान की सरकार मंटो को ‘अवांछित प्रगतिशील’ के रूप में देखती थी।

मंटो पर, अपनी कहानियों के माध्यम से, अश्लीलता फैलाने के आरोप में तीन मुक़दमे अविभाजित हिंदुस्तान में चले और इतने ही मुक़दमे पाकिस्तान में भी चले, जिनमें से एक में उन्हें जेल भी हुई थी। इन मुक़दमों में उन्हें प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से कोई मदद नहीं मिली। पाकिस्तान में जब मंटो की कहानी ‘ठंडा गोश्त’ पर अश्लीलता-संबंधी मुक़दमा चला, तब अदालत में मंटो की तरफ़ से गवाही देने के लिए कवि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ हाज़िर हुए थे। उन्होंने अपनी गवाही में यह तो कहा कि ‘ठंडा गोश्त’ अश्लील नहीं है, लेकिन साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि कहानी साहित्य की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। अब यह कहना क्यों ज़रूरी था? शायद ऐसा करके फ़ैज़ मंटो से अपनी दूरी दिखाना चाह रहे होंगे, जो उन दिनों प्रगतिशील लेखकों-कवियों के बीच का चलन था। फ़ैज़ की यह टिप्पणी मंटो को बहुत दुखी, बहुत बेचैन कर गयी, क्योंकि इसका मतलब था, मंटो को साहित्य की तमीज़ नहीं है। फ़िल्म में मंटो कहते हैं कि फ़ैज़ ने अगर मेरी इस कहानी को अश्लील कह दिया होता तो मुझे इतनी तकलीफ़ न होती। 1950 के आसपास लिखी गयी कहानी ‘ठंडा गोश्त’ समय बीतने के साथ-साथ ज़्यादा-से-ज़्यादा पढ़ी व सराही गयी है और इसे मनुष्य की अंतरात्मा को झकझोर देने वाली कहानी के रूप में देखा-समझा गया है।

पाकिस्तान में प्रकाशित अपने एक कहानी संग्रह की भूमिका में सादत हसन मंटो ने लिखा थाः ‘आप मुझे एक कहानीकार के रूप में जानते हैं और इस देश की अदालतें मुझे एक अश्लील लेखक के रूप में जानती हैं। आप इसे मेरी कल्पना कह सकते हैं, लेकिन मेरे लिए यह कड़वी सच्चाई है कि मैं पाकिस्तान नामक इस देश में, जिसे मैं बेहद प्यार करता हूं, अपने लिए जगह पाने में नाकाम रहा हूं। इसीलिए मैं हमेशा बेचैन रहता हूं। इसी वजह से कभी मैं पागलख़ाने में पाया जाता हूं और कभी अस्पताल में।’

फ़िल्म ‘मंटो’ देखकर कुछ सवाल दिमाग़ में कौंधते हैं। मंटो अगर ज़िंदा होते, तो आज के हिंदुस्तान को देखकर क्या सोचते? वह किस तरह की कहानियां लिखते? क्या मंटो आज भी प्रासंगिक हैं? जब मुसलमानों को खुलेआम, सरकार की सरपरस्ती में, वीडियो फ़िल्में बनाकर लिंच (पीट-पीट कर मार डालना) किया जा रहा हो, जब मुसलमानों के हत्यारों को सार्वजनिक तौर पर फूलमालाएं पहनाकर केंद्रीय मंत्री स्वागत कर रहे हों, तब मंटो अपने लिए वाजिब जगह कहां तलाशते? घर वापसी-लव जिहाद-गाय आतंकवाद के शोर और भगवावादी विमर्श में मंटो के बेचैन कर देनेवाले तीखे सवाल सुनायी देते? क्या मंटो की हत्या न कर दी जाती, जैसे अन्य लेखकों व बुद्धिजीवियों की की गयी?

नंदिता दास कहती हैं कि सादत हसन मंटो आज भी प्रासंगिक हैं, क्योंकि वह हमें विभाजित करनेवाली धार्मिक और राष्ट्रीय पहचान की सीमा को पार कर गये हैं। मंटो को किसी धार्मिक या राष्ट्रीय पहचान में बांध कर नहीं रखा जा सकता। फ़िल्म ‘मंटो’ बताती है कि मंटो की प्रासंगिकता बनी रहेगी—हिंदुस्तान में भी, पाकिस्तान में भी। मंटो हमारे अपने हैं।

लखनऊ : 30.09.2018, इतवार

Tel: 09335778466
                                                                             जनसंदेश टाइम्स से साभार

Tuesday, October 2, 2018

कुबेर दत्त : एक हरफनमौला रचनाकार


एक गुलाम शहर में आजाद सपने की तरह...

(स्मृति 
दिवस पर विशेष)

सुधीर सुमन


मीडियाकर्मी, कवि-संस्मरणकार और चित्रकार कुबेर दत्त की बड़ी खासियत यह है कि विविध कलाएं और साहित्य की विविध विधाएं उनकी रचनाओं और कलाकृतियों में अत्यंत सहजता से परस्पर घुलती-मिलती प्रतीत होती हैं। 

मुजफ्फरनगर के बिटावदा गांव में 1949 को कुबेर दत्त का जन्म हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा मुजफ्फरनगर और गांव में हुई। उनके शिक्षक पिता आर.सी.सरस संस्कृत के विद्वान थे और हिंदी-फारसी के अच्छे कवि थे। जब उनका तबादला पूना हुआ, तो कुुबेर दत्त भी उनके साथ गए। पूना से गांव लौटे, तो पास के बुढ़ाना कस्बे के इंटर काॅलेज में दाखिला लिया। बी.ए. साहिबाबाद के लाजपतराय कालेज और एम.ए. गाजियाबाद के महानंद मिशन काॅलेज से किया। इसके बाद भारतीय विद्या भवन पत्रकारिता में डिप्लोमा के बाद उन्होंने कुछ अखबारों में छिटपुट लिखना शुरू किया। 26 अक्टूबर, 1973 को दूरदर्शन में प्रोड्यूसर के बतौर उनकी नियुक्ति हुई। 2008 में अपनी सेवानिवृत्ति तक सहायक केंद्र निदेशक, एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर और चीफ प्रोड्यूसर के पदों पर काम किया। सेवानिवृति के बाद डीडी भारती के सलाहकार रहे। 

कुबेर दत्त दूरदर्शन के विलक्षण कार्यक्रम निर्माता और प्रसारक थे। 1976 में दूरदर्शन-प्रोड्यूसर के रूप में एफटीआईआई, पुणे में ट्रेनिंग लेते वक्त उन्होंने ए.प्रताप की कहानी ‘सीलन’ पर फीचर वीडियो और मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ पर फिल्में बनाईं थीं। उन्होंने दूरदर्शन के माध्यम से न केवल प्रेमचंद, प्रसाद, निराला, महादेवी, पंत, हरिवंश राय बच्चन, अज्ञेय, नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर, रामविलास शर्मा, केदारनाथ अग्रवाल, भवानी प्रसाद मिश्र, अमृत राय, हंसराज रहबर, कमला देवी चटोपाध्याय, भीष्म साहनी, पद्मा सचदेव, इस्मत चुगताई, महाश्वेता देवी, मार्कंडेय, स्वदेश दीपक, कुमार विकल, रामकुमार कृषक, मुज्तबा हुसैन और तसलीमा नसरीन सरीखे भारतीय उपमहाद्वीप के सैकड़ों साहित्यकारों के जीवन और साहित्य से परिचित कराया, बल्कि खलील जिब्रान, तोल्सतोय, चेखव, लू-शून, ज्यां पाल सात्र्र, एडवर्ड सईद, नेल्सन मंडेला, देरिदा, नोम चोमस्की आदि प्रमुख साहित्यकारों, दार्शनिकों, विचारकों और नेताओं के विचारों, कृतियों और जीवन से भी अवगत कराया। ऋत्विक घटक, नेत्रसिंह रावत, नेमीचंद्र जैन, सफदर हाशमी जैसे फिल्मकार और रंगकर्मियों; रजा, रेरिख, जे. स्वामीनाथन, विवान सुंदरम, गुलाम रसूल संतोष, हरीप्रकाश त्यागी जैसे चित्रकारों और मास्टर फिदा हुुसैन, हरि प्रसाद चैरसिया, उस्ताद अली अकबर खां जैसे संगीतकारों पर भी उन्होंने कार्यक्रम बनाए। पिकासो की पेंटिंग पर सत्तर कड़ियों का एक यादगार धारावाहिक उन्होंने बनाया। 1980 में उन्होंने किशोरी दास वाजपेयी पर दो खंडों में एक शोधपरक वृत्तचित्र बनाया और उनके योगदान पर एक लंबा लेख भी लिखा, जिसका शीर्षक था- अभिनव पाणिनी किशोरी दास वाजपेयी। उसी वर्ष प्रेमचंद की सौवीं जयंती पर उनके गांव लमही जाकर एक यादगार कार्यक्रम बनाया। उन्होंने लगभग चार दशक की अनेक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक गतिविधियों और सक्रियताओं  को दर्ज किया। यह अपने आप में बेमिसाल दस्तावेजीकरण है। 
कुबेर दत्त ने 25 वर्षों तक साहित्यिक ‘कार्यक्रम’ पत्रिका का निर्देशन किया। 12 वर्षों तक श्रोताओं के पत्रोत्तर का कार्यक्रम ‘आप और हम’ पेश किया। आईना, कला परिक्रमा, पहल, जनवाणी, सरस्वती, फलक, सृजन, किताब की दुनिया आदि कार्यक्रमों के जरिए उन्होंने अपने समय के काफी महत्वपूर्ण प्रसंगों, संदर्भों और बहसों को दर्ज किया। नई सदी के शुरुआत में तो एक साल उन्होंने हर दिवस के अनुरूप एक प्रोग्राम तैयार किया।

कुबेर दत्त दूरदर्शन के एक बेहद जनप्रिय कार्यक्रम ‘जनवाणी’ के प्रोड्यूसर थे। इस कार्यक्रम में किसी एक मंत्री से जनता सवाल पूछती थी। रिकार्डिंग के दौरान मंत्री की सहायता के लिए संबंधित मंत्रालय का कोई अधिकारी मौजूद नहीं होता था और न ही इसकी इजाजत थी कि संपादन के दौरान मंत्री का कोई सहायक या मंत्रालय का अधिकारी मौजूद रहेगा। जिस मंत्री पर कार्यक्रम तैयार होता था, उसकी दूरदर्शन अग्रिम पब्लिसिटी करता था। जाहिर है अक्षम मंत्रियों को एक्सपोज होना पड़ा। इस कारण कुबेर दत्त की छवि को धूमिल करने की साजिश की गई। वे दो-ढाई वर्ष अनेक तरह की यातनाओं से गुजरे। सस्पेंशन, तबादला, हार्ट अटैक, मां की मृत्यु, डिपार्टमेंटल इंक्वायरी, अर्थ कष्ट आदि का सामना किए। हालांकि हर जांच में वे पाक-साफ निकले। उनकी जीवन संगिनी प्रसिद्ध नृत्य निर्देशक और दूरदर्शन अर्काइव्स की पूर्व निदेशक कमलिनी दत्त के अनुुसार, ‘‘वे इस संबंध में स्पष्ट विचार रखते थे कि कार्यक्रम दर्शकों के लिए बनता है, सरकार या अधिकारियों के लिए नहीं।’’ 

कैमरे पर लिखी गई एक अप्रकाशित कविता में कुबेर दत्त ने यह कहा है कि एक दिन कैमरा कविताएं भी लिखेगा। वे मूलतः अपने को कवि मानते थे। कविताएं वे छात्र जीवन से ही लिखने लगे थे, लेकिन उनका पहला कविता संग्रह ‘काल काल आपात’ 1994 में प्रकाशित हुआ। काॅलेज के दिनों में बाबा नागार्जुन ने उनकी कविताओं पर टिप्पणी करते हुए कहा कि ‘इनमें नाट्य तत्व’ खूब है। 1970-71 में लिखी गई उनकी लंबी कविता ‘अंधकूप’ काफी चर्चित रही, जिसका एक अंश रमेश बक्षी ने ‘आवेश 72’ में प्रकाशित किया। इसी वर्ष इस कविता के एक अंश पर दिल्ली दूरदर्शन की प्रोड्यूसर कीर्ति जैन ने एक फिल्म बनाई। ‘काल काल आपात’, ‘कविता की रंगशाला’, ‘केरल प्रवास’, ‘धरती ने कहा फिर’, ‘अंतिम शीर्षक’, ‘इन्हीं शब्दों में’ और ‘शुचिते’ नामक उनके कविता संग्रहों में नेरूदा, बे्रख्त, नजरूल, मुक्तिबोध, नागार्जुन, धूमिल, शमशेर आदि देश-दुनिया के कई मशहूर प्रगतिवादी कवियों की परंपराएं नजर आती हैं। ‘भाषा’ और ‘कविता’ शब्द अनेक बार उनकी कविताओं में आते हैं। कवियों को संबोधित जितनी रचनाएं और जितनी पंक्तियां उन्होंने लिखीं, शायद उनके समकालीनों में उतनी किसी ने नहीं लिखी होगी।

‘काल काल आपात’ संग्रह की कविताएं सूचना क्रांति यानी सूचना साम्राज्य के दौर में सामाजिक-पारिवारिक संबंधों, धर्म, अर्थनीति, साहित्य-संस्कृति और राजनीति के क्षेत्र में हो रहे अप्रत्याशित बदलावों की प्रक्रिया से जूझते एक संवेदनशील मन की कविताएं हैं। ये कविताएं सूचना ‘क्रांति’ का पोस्टमार्टम करती हैं- ‘‘सिर्फ दृश्य ही नहीं पकड़ता कैमरा/ दृश्यों के रंग भी बदलता है/ खुुद नहीं रोता/ दर्शक के तमाम आंसुओं को/ श्रीमंतों के पक्ष में घटा देता है/...प्रेम मुहब्बत को/ बना देता है/ प्रेम-मुहब्बत की डमी।/ आमात्यों के पक्ष में रचता है/ नयी बाइबिल/ रामायण, गीता नयी/ वेद, कुरान, पुराण नये... परिवारों और दिलों के/ गुप्त कोनों, प्रकोष्ठों को/ करता है ध्वस्त।/ दिखाता नहीं है फकत युद्ध/ रचता है युद्ध भी/ खा सकता है इतिहास/ उगल भी सकता है, इतिहास का मलबा,/ निगल भी सकता है भूगोल-/ राज और समाज का’’ लेकिन इसी कविता के अंत में कवि ने लिखा है- ‘‘तुम चाहो तो/ जा सकते हो/ कैमरों के पीछे/ चाहो तो/ मोड़ सकते हो/ कैमरों का लैंस भी/... तय करो/ कहां रहोगे अंततः/ कैमरों के आगे/ या पीछे?’’ (कैमरा: एक)

कुबेर दत्त के दूसरे कविता संग्रह ‘कविता की रंगशाला’ की ‘हट जा... हट जा...हट जा...’, ‘संसद में संसद’, ‘अब बजा लो सितार’ आदि कविताएं आम और खास, जनता और व्यवस्था के बीच बढ़ती दूरी और राजनीतिक दलों के प्रति बढ़ते गहरे मोहभंग और आक्रोश को जाहिर करती हैं। कबीर मठों की यात्राएं करने के बाद लिखी गई कविता ‘समय-जुलाहा’ में कवि अपने समय के हिंसक कुचक्र को फिर से तोड़ने की नई युक्ति के बारे में सोचता है- ‘‘कोटि कोटि/ हृृदयों का मंथन/ कोटि कोटि शोषित बाधित तन/ नव कबिरा के पुनर्सृजन में/ पल पल रत हैं।’’ बाद में महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय विश्वविद्यालय की पत्रिका ‘पुस्तक वार्ता’ में ‘समय जुलाहा’ शीर्षक से ही वे साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों और आयोजनों पर रपट भी लिखते रहे। 

कुुबेर दत्त एक प्रयोगधर्मी रचनाकार थे। अपने तीसरे कविता संग्रह ‘केरल प्रवास’ की कविताएं कवि ने केरल में अपनी पत्नी कमलिनी दत्त के इलाज के दौरान लिखी हैं, जो हिंदी भाषियों के हृदय का विस्तार करती हैं और सही मायने में उसे राष्ट्रीय बनाती हैं। विष्णुचंद्र शर्मा ने इस संग्रह की भूमिका में लिखा है- ‘‘कवि मलयाली भाषा की ‘आंखों की गली’ में उतर कर हिंदी भाषा को एक नया अर्थ देता है। यह एक अनूठा प्रयोग है। कविताओं की पृष्ठभूमि में रहती है पत्नी की पीड़ा और सामने नजर आता है केरल का सौष्ठव।’’ यहां हहराते हैं अंतरिक्ष तक हरे समंुदर, जिसके सामने कवि अपने सब अभिमान को तिरोहित होता महसूस करता है, फुदकते-चहकते केरल के लंबे कौए हैं, कैंटीन के भीतर से आती सांबर, चावल, रसम आदि की खुश्बू है, बारिश में नहाते अपना सीना ताने नारियल के पेड़ हैं। केरल प्रिय संबोधन से लिखी गई 29 कविताओं में केरल के साथ कवि का संवाद काफी दिलचस्प है। ‘भेषज-प्रसंग’ में पत्नी को दी जाने वाली सिद्धमकरध्वज, अश्वगंधारिष्ट, विषमज्वारांतम्, रससिंदूरम्, तुलसीजल, क्षीरबला, नेत्रामृतम्, कपूर्रादि तैलम, पिषिच्चल आदि औषधियों को शीर्षक बनाकर कवि ने रूपकीय संरचना प्रदान करने की कोशिश की है।

वरिष्ठ कवि विष्णुचंद्र शर्मा की रचनाओं से गुुजरते हुए लिखी गई लंबी कविता ‘अंतिम शीर्षक’ पर आधारित काव्य पुस्तिका में उनके साथ-साथ उनकी दिवंगता पत्नी और उनके कुत्ते शेरू के वक्तव्यों के जरिए आर्थिक उदारीकरण और इलेक्ट्रानिक सूूचना माध्यमों के सर्वग्रासी वर्चस्व से ग्रस्त समाज, राजनीति, संस्कृति, विचारधारा और कविता- सबकी गहरी समीक्षा करने की कोशिश की गई है। कुबेर दत्त ने इसमें फ्लैश बैक, स्वप्न, एकालाप आदि फिल्म और इलेक्ट्रानिक माध्यमों के कला-रूपों का इस्तेमाल किया है। 

2 अक्टूबर 2011 को कुबेर दत्त के असमय निधन के बाद से अब तक उनके तीन काव्य संग्रह ‘इन्हीं शब्दों में’  ‘शुचिते’ और ‘बचा हुआ नमक लेकर’ का प्रकाशन हुआ है। ‘इन्हीं शब्दों में’ संग्रह की कविताओं में कवि साम्राज्यवादी वैचारिकी को मानो चुनौती देता है कि विचारों और सपनों के अंत की जो घोषणाएं हो रही हैं उनसे अपनी भाषा के इन्हीं शब्दों के जरिए वह लड़ेगा। ‘जड़ों में’ कविता में उन्होंने लिखा है- ‘इस नगर के/ भाषा वाणिज्य में/ कहीं भी शामिल नहीं- मेरी जिंदा या मृत/ भाषाओं की अनुगूंज.../ एक गुलाम शहर में/ आजाद सपने की तरह/ तैरता हूं-/ याद करता हूं अपने खलिहान की गंध/ और/ बिना यूरिया की तूरई/ और कुम्हड़े का स्वाद.../ मैं जादुई यथार्थवाद नहीं/ चमरौंधे का/ तेल हूं/ जो बजिद है/ भाषा की जड़ों में लौटने के लिए...’। दरअसल भाषा की जड़ों में लौटने की आकांक्षा का मतलब ही है, जनता के साथ गहरे जुड़ाव की चाहत। इसी जनसमूह में पत्नी, बेटी और उनके प्रिय साहित्यकार हैं और इसी में लाहौर, पटना, इलाहाबाद जैसे शहर भी। उन्हीं की कविता के हवाले से कहा जाए तो जो जनसमुद्र है, उसकी सांस हैं उनकी कविताएं।

उनका कविता संग्रह ‘शुचिते’ दुनिया भर की बेटियों और महाकवि निराला की बेटी सरोज के नाम समर्पित है। इस संग्रह की कविताएं कवि की अपनी बेटी भरत नाट्यम की सुप्रसिद्ध नृत्यांगना पुरवाधनश्री को संबोधित हैं। इनमें एक ओर भारतीय मिथकों और प्रतीकों की प्रेरणाएं हैं, तो दूसरी ओर स्त्री को गुलाम बनाने वाली तमाम परंपराओं के प्रतिकार का उद्घोष भी। पितृसत्ता ने एक स्त्री के लिए जो मर्यादाएं और नैतिकताएं तय की हैं, उससे कवि को जबर्दस्त इंकार है। कवि को एक नई स्त्री की प्रतीक्षा है- एक आजाद और सशक्त स्त्री की। कुबेर दत्त के अन्य संग्रहों में संकलित ‘छिन्नमस्ता वह’, ‘ऋतु-चक्र के उत्सव-सदन में’, ‘चिदग्निकुंडसंभूता’, ‘पुरुष करंट’, ‘एक और स्त्री चाहिए’, ‘अब मैं औरत हूं’, ‘क्या वह तुम थीं?’, ‘पूर्वकाल से उत्तरकाल तक...तुम!, ‘काली औरतें’, ‘स्त्री के लिए जगह’ आदि कविताओं में स्त्री मुक्ति को मुक्ति के अन्य संदर्भों से ही जोड़कर देखा गया है।

‘स्वप्न-पुनर्नवा’ में कवि ने लिखा है- 

‘मेरी प्रिय 

आजाद सांस और आजाद हवा

और आजाद धरती से बड़ा

कुछ नहीं होता।’

स्त्री समेत तमाम उत्पीड़ित समुदायों, भाषा, हवा और धरती तक की आजादी का जो स्वप्न है वह कुबेर दत्त की कविताओं को विशिष्ट बनाता है। प्रयोग के स्तर पर ‘शुचिते’ कुबेर दत्त की खूबसूरत हस्तलिपि में लिखी गई कविताओं और हरिपाल त्यागी के चित्रों का संयोजन है।

जीवन के आखिरी वर्षों में खुद कुबेर दत्त ने हजारों चित्र बनाए। उनके चित्रों का देखते हुए ऐसा महसूस होता है, मानो रंग आपस में संवाद कर रहे हों। उनमें स्वप्न-दुःस्वप्न, अतीत, वर्तमान और भविष्य सबके बीच बड़ी तेज गति से आवाजाही नजर आती है। एक सहजता जो बालकला और लोककला की जान होती है, उसे भी उनके चित्रों में महसूस किया जा सकता हैं। विशाल और विविधता से भरी दुनिया के अनगिनत रंगों को देखकर हम जिस तरह उनके प्रति एक दुर्निवार आकर्षण से भर उठते हैं, कुछ वैसा ही जादू उनके चित्रों में है- सम्मोहक फैंटेसी या स्वप्न दृश्यों सरीखा, पर हकीकत की जमीन कहीं पीछा नहीं छोड़ती। इनमें दृश्यों के भीतर दृश्य हैं, रंगों का एक दूसरे में घुलना है, कहीं नाॅस्टेल्जिया है, कहीं अपने दौर की भयानक आशंकाएं, कहीं रंगों में  घुलती आकृतियां हैं और कहीं कोई रंग ही शक्ल लेता प्रतीत होता है। हरिपाल त्यागी के शब्दों में- ‘रचना के आंतरिक सौंदर्य के प्रति उसकी जिज्ञासा, छटपटाहट, सहजता और डाइरेक्टनेस देखते ही बनती है।’ कुबेर दत्त ने जो हजारों चित्र बनाए हैं, उनका मूल्यांकन अभी बाकी है। उनके चित्रों से कई किताबों और पत्रिकाओं के आवरण भी बने।

मुक्तिबोध कुबेर दत्त के प्रिय कवि हैं। उनकी लंबी कविताओं के संग्रह ‘धरती ने कहा फिर’ में संकलित 9 कविताओं में से ‘आमीन’ कविता मुक्तिबोध को ही समर्पित है। कवि मदन कश्यप इन कविताओं को ‘मुक्तिबोध की परंपरा का विकास’ मानते हैं, तो दिनेश कुमार शुक्ल इन्हें हमारे वक्तों का रिपोर्ताज बताते हुए ‘कविता में गुएर्निका’ की संज्ञा’ देते हैं। ‘एशिया के नाम खत’ भी इसी तरह की कविता है, जो 2017 में प्रकाशित कविता संग्रह ‘बचा हुआ नमक लेकर’ में संकलित है।  ‘बचा हुआ नमक लेकर’ में उनकी कविता का हर रंग है। 1987 से 2011 के बीच लिखी गयी ये ऐसी कविताएँ  हैं, जो पिछले किसी कविता-संग्रह  में  मौजूद नहीं  हैं। भक्ति आंदोलन से लेकर प्रगतिवादी-जनवादी आंदोलन तक की काव्य परम्पराओं की अनुगूंज सुनाई देती है इनमें, और हिंदी-उर्दू की साझी परम्परा की भी। मुक्तिबोध ने लिखा है कि मैं उनका ही होता, जिनसे/ मैंने रूप-भाव पाये हैं। कुबेर जी के यहाँ कोशिश दिखती है। जनकवियों में उनका शुमार नहीं होता, पर वे जनकवि होना चाहते हैं। उनका यह रूप इस संग्रह के जरिए सामने आता है। इसमें उनके गीतों और ग़ज़लों को शामिल किया है। ये किसी जनांदोलन के लिए लिखे गए गीत नहीं हैं, पर इनकी अंतर्वस्तु जनराजनीतिक है। वर्गभेद पर उंगली उठाना वे कभी नहीं भूलते। जो निराशाएँ या मोहभंग हैं वे भी एक विराट स्वप्न के टूटने या उसके हकीकत में तब्दील न होने की वजहों से है। इसीलिए यथास्थिति का इनमें विरोध है, खासकर मध्यवर्गीय यथास्थिति का। राजनीतिक वर्ग पर तीखा प्रहार है और उसके जनविरोधी व्यवहार को लेकर अनवरत बहस भी। सबसे बड़ी बात यह कि उनकी कविताएँ किसी फ्रेम में जबरन फिट नहीं की गई है, बल्कि कंटेंट और क्राफ्ट दोनों स्तरों पर फ्रेम को तोड़ती हैं। अपने लिए अपना मौलिक-सा स्पेस बनाती हैं। 
कुबेर जी  की कविताओं पर विस्तार से लिखना इस लेख में संभव नहीं है, इसके लिए एक लंबे स्वतंत्र लेख की दरकार होगी।

कुबेर जी को संगीत की गहरी समझ थी। पुराने फिल्मी गीत और ‘ब्रह्म है मुझमें लीन’, ‘बोल अबोले बोल’ जैसे अपने गीत अक्सर वे गाते थे। आदमी को आदमी का हाथ चाहिए, आदमी को आदमी का साथ चाहिए- यह गीत उन्हें बहुत प्रिय था। यह जैसे उनका घोषणा-पत्र था। शायद इसी साथीपन की चाह ने उनके चाहने वालों की बड़ी कतार पैदा की। नौजवानों के साथ सहजता के साथ घुल जाना उनका स्वभाव था। कवि-पत्रकार चंद्रभूषण के अनुसार, वे नौजवानों की तरह निश्छल और निष्कवच थे। पाक-विद्या में उनकी रुचि, खाने-पिलाने का उनका शौक और उनकी आत्मीय दुनिया में मौजूद बिल्लियों के किस्से तो जगजाहिर हैं।

कुबेर दत्त देश दुनिया की दशा को लेकर बेहद बेचैन रहने वाले साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी थे। कमलिनी दत्त जैसी कला-साधक का जीवन भर का साथ उनकी ताकत थी। आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने एक आयोजन में सही कहा था कि संस्कृति की दुनिया में ऐसा कोई दूसरा दंपत्ति दिखाई नहीं देता। कमलिनी दत्त ने अपने एक साक्षात्कार में कहा है- ‘‘कुबेर तमाम आक्रोश और प्रतिबद्धता के बावजूद रोमांटिक थे, स्वप्नद्रष्टा तो थे ही। उनका सबसे बड़ा स्वप्न था- एक सोशलिस्ट कम्यूनिस्ट समाज, साम्यवादी समाज जिसमें इंसान-इंसान के बीच फर्क नहीं होा। पुरुष-स्त्री समाज रूप से गरिमापूर्ण जीवन बिताएंगे। बच्चों का बिना शोषण विकास होगा, हर बच्चा अपने स्वप्न को साकार करने में सक्षम बनेगा। जनता अपने निर्णय लेगी। एक स्वस्थ समाज की रचना उनका सबसे बड़ा स्वप्न था।’’ ( कल के लिए, अप्रैल 2015 से मार्च 2016, पृ. 76 )