Friday, June 25, 2021

महेश्वर के असंकलित गीत और कविताएँ

महेश्वर जी हिंदी की क्रांतिकारी जनवादी धारा के महत्वपूर्ण एक्टिविस्ट, पत्रकार, संपादक, लेखक, कवि और विचारक थे। वे समकालीन जनमत के प्रधान संपादक थे। महेश्वर जी जन संस्कृति मंच के महासचिव भी रहे। अपनी जानलेवा बीमारी से उनका जुझारू संघर्ष चला। लगभग एक दशक के उसी अंतराल में उन्होंने साहित्य-संस्कृति और पत्रकारिता के मोर्चे पर बेमिसाल काम किया। 25 जून 1994 को उनका निधन हो गया, पर आज भी उनका जीवन और उनका काम हमारे लिए उत्प्रेरक है, प्रासंगिक है। उनके स्मृति दिवस पर पेश है उनके कुछ असंकलित गीत और कविताएँ-


प्रीत के परनवां

अनगिन किरिनियां से घेरि के गगनवां 

                    सुरूजवा उतरै धरतिया

                    हमरी धरती पै राम

                    खेले फाग तपनवां।

रूमझुम रगिनिया से घेरि के गगनवां

                पवनवां उतरै धरतिया

                हमरी धरती पै राम

                        बाजे मारू बजनवां।

अतल हिलोरि चहूं दिसि व्यापै

अटक तोड़ि जिनगानी,

तेग सपन सतरंगिया बान्हे

फिरै जगत हुलसानी।

बावरी बिजुरिया से घेरि के गगनवां

            बदरवा उतरै धरतिया

            हमरी धरती पै राम

                    दमकै सरस सवनवां।

रंगमहल की राजलक्ष्मी

जब बिच मरै पियासी

अगम लहर पै डारि हिंडोला

झूलै जुग अविनासी।

अपरूब रंगोलिया से घेरि कै गगनवां

            मधुअवा उतरै धरतिया

            हमरी धरती पै राम

                    गावे कजरी फगुनवां।

सत की चुंदरी ओढ़ि सुहागिनि

सेज चढ़ी पुरवइया

सीस बदै नित न्याय की चैसर

खेलै सजन समइया

टटकी चंदनिया से घेरि कै गगनवां

            चनरमा उतरै धरतिया

            हमरी धरती पै राम

                दहकै प्रीत के परनवां

(जगरम, मार्च 91, प्रवेशांक)



सुन लो जिंदगी की मांग

सुन लो जिंदगी की मांग-

थोड़ी छाया

थोड़ी धूप

दे दो साथियो!

समय का पहिया ठहरा क्यों है, सोचो मेरे भाई,

सदियों से अपनी धरती की दिखी नहीं अंगड़ाई;

आसमान से गिरी न बिजली आंधी कभी न आई,

ऐसा क्या हो गया जगत की रीत बदल न पाई?

सुन लो जिंदगी की मांग-

थोड़ी छाया...



जिस तेवर से दुश्मन कांपे वहीं कहाये छाया,

बहुत पुराना भेद जगत का कोई समझ न पाया;

धूप वही करनी है जो अंधियारा दूर भगाये,

पिंजरे में बंदी गोरैया सांस मुक्ति की पाये।

सुन लो जिंदगी की मांग-

थोड़ी छाया....



जोर लगाकर पिंजरा तोड़े वही कहाये वीर,

अपने पथ पर बढ़ता जाये उल्टी धारा चीर;

ओस शीत ठिठुराये चाहे छूटे पसीना,

सूरज सा दमके कर डाले चाक वर्दी का सीना,

सुन लो जिंदगी की मांग-

थोड़ी छाया....



रोक टोक न माने दिल पर कड़ी चोट ले झेल,

विपदाओं के आगे खेलें धूप-छांव का खेल;

ऐसे वीरों की जमात को टेक सके यह धरती,

एका का हथियार उठाये, मारे कभी न मरती।

सुन लो नयी कबीरी सीख-



ले के छाया

ले के धूप

आओ साथियों।

जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाओ-

ले के छाया

ले के धूप

आओ साथियो!



चले हिरावल काल के

चले हिरावल काल के

जलती हुई मशाल से

रोशनियों को रोशन करती, चढ़ी रक्त की धारा

बदल रही है रस्म जिंदगी तोड़ जुल्म की कारा

                           साथी, तोड़ जुल्म की कारा!



धरती की भट्टी में तपकर जिंदा हुआ पसीना,

फसल हाथ से फाड़ रहा खूंख्वार जेठ का सीना,

चले हिरावल काल के

ज्वालामुखी सवाल से

मेड़ रौंदते कदम ढूंढते पावे नहीं किनारा,

बदल रही है रस्म जिंदगी तोड़ जुल्म की कारा,

                    साथी, तोड़ जुल्म की कारा!



पर्वत सीना तान कूच कर ओ मासूम इरादे,

मेहनतकश आकाश दहक छाती पर सूरज साधे,

चले हिरावल आज के

भावी सही समाज से

बच्चों की सांसों ने कातिल सपनों को ललकारा,

एक बार बस और कि होता सदियों का निपटारा,

                            साथी, तोड़ जुल्म की कारा!

(अग्रिम पहल, दिसंबर-फरवरी 1989)



कविताएँ

महेश्वर

बच्चों के बारे में

बच्चों से अदब से बात करो

वे तुमसे बाहर

तुम्हारे आदमी होने की तमीज है

जब भी उठता है

कोई हाथ

उनके खिलाफ

तुम्हारे आदमी होने की तमीज हैं

जब भी उठता है

कोई हाथ

उनके खिलाफ

तुम्हारे अंदर का इन्सान मारा जाता है

लोट सको

तो बचपन की देहरी पर लौटकर देखो

वहाँ मासूमियत की जबान में

घायल इन्सानियत का प्रतिशोध पलता है।

16.9.93



किसी एक के लिए

तुम्हारे सीने में जज्ब था मेरे सूरज का बीज

तभी तो धरती के अंधकार में

अब भी सलामत है उजाले की संभावना

तुम्हारी धड़कनों ने न सहेजा होता

मेरे उद्धत मन का आवारा समुद्र

तो लहरें किनारों से भला क्या बतियातीं

और कितना बेअक्स गुजर जाता

भंवर में फंसे आकाश का दिल

युद्ध के भोगे हुए दर्द की तरह तुम अपनी देह से उठीं

और मेरी सांसों के टूटते कगार पर

एक इन्सानी चीख की तरह ठहर गई

उस क्षण

काल की परिधि से परे

तुम्हारे एहसासों की जलती जमीन पर

मैंने जाना कि जन्म लेना भी कितना मुश्किल है

मैंने कहा- मुझे लो

                        मुझे ग्रहण करो

                        मुझे जीतो

                        मुझे जोड़ो

                        मुझे अपने बंधन में मुक्ति दो...

तुमने मुस्कराकर मेरी आत्मा के ऊसर में

रोप दिया अपनी उदास आंखों का नन्हा-सा बिरवा और आज मैं

तुम्हारे उस भरे-पूरे पेड़ पर

जीवन और यौवन का शाश्वत बसंत हूं

आखिर में एक दिन

जब पतझड़ और पाले की सूनी पगडंडी से

रात और बिरात की रागिनी अलापता

आएगा मृत्यु का अभिशप्त हरकारा-

जब सजने से पहले ही घिस-पिट जाएगा

श्रद्धांजलियों की लफ्फाजी का कीमती लिबास-

जब उठने से पहले ही बैठ जाएगा

अफवाहनुमा सच और सचमुच अफवाहों का गर्द-गुबार-

जब कलई किये चेहरों से अचानक

उतर जाएगा आंसुओं और अफसोस का मुलम्मा-

और जब नामी-गिरामी मसखरों का भी जायका बिगाड़ देंगे

मेरी उदात्तता के लावारिस चुटकुले-

तब,

तुम्हारे भरे-पूरे पेड़ के धूप धुले माथे से

टूटेगा एक कोई पत्ता-चुपचाप-

सदियों के धीरज-सा

आहिस्ता-आहिस्ता आएगा नीचे

छुएगा

समेटेगा

धारण करेगा मुझे मेरी संपूर्णता में

और मेरी जड़ों में बज उठेगा जैसे जलतरंग....

27.9.93



कुछ निरे खैरख्वाहों से

पहले भाव से लुभाया

अब अभाव का ठेंगा दिखाते हो!

अपने को अपने ही शीशे में उतारते हुए

जब नमक निभाने का वक्त आया

तो मौत की शर्तों पर जीना सिखाते हो!

क्या समझते हो मुझे-

सिर्फ इसलिए

कि काजी जी दुबले हैं शहर के अंदेशे

मैं नाक दबाकर निगल लूंगा

तुम्हारी छिनाल भलमनसी का गू!

मैं नहीं हूं

सवर्ण मुर्दों पर लुटाए गए सिक्कों-जैसे

जिंदगी के चंद भगोड़े पलों का बेगैरत उठाईगीर

टूटी सांसों की आंख मिचौली नहीं है मेरी दास्तान

न शो-केस में सजी बेजान मूरतों पर

खारिश मारे कुत्तों की उठी हुई टांग

मैं नहीं हूं

आत्मा की देहबंदी का दलाल

न भिखारी

न मसीहा

न वाइज

न बनिया-बक्काल


मैं हूं समय का स्वायत्त सारथी

मेरे हाथ की रेखाओं में नत्थी है

नकचढ़े सूरज के सात घोड़ों की बाग

मेरे तलवों में दम तोड़ते हैं

दिन के सेंधमार काली रातों के लंबोतरे साये

मेरे फैसलों की शिनाख्त है

अतीत के गर्त में सर धुनता भय का अपराधी अंधड़

मुझे मालूम है मचकती सदिच्छाओं की साजिश

और ऐसी शुभकामनाओं का वह पुराना शब्द जाल

जो आदमी से चूस लेता है आदमी की अंतर्वस्तु....

नहीं, नहीं

तुम कभी नहीं बना सकते

मेरी अर्थवत्ता को मेरा ही शून्य

एहतियात और पाबंदियों की फकत खैरख्वाही से

जकड़ नहीं सकते तुम


हामियों-मनाहियों के निरे दस्तूर से



कंधों पर भविष्य वहन करने का मेरा दायित्व...



मैं नहीं हूं ताबेदार कैलेंडर के पन्नों का

न घड़ी के कांटों का हुक्मी गुमाश्ता

मैं तो हूं आने वाली पीढ़ियों का राजदूत

काल के द्वार पर भावी नर-नारियों की दस्तक

मैं तुम पर इंसानियत का चढ़ा हुआ कर्ज हूं

और इसकी भरपाई की बकाया रसीद पर

अपने बच्चों के नाम का रबड़ स्टाम्प हूं...

नगद-उधार के रिश्तों के माहिर हो,

अब तो कबूल करो

मेरी ताईद के बगैर तुम उलटपांव प्रेत हो....

                                                        ऋणी हो

                                                        कैदी हो

                                                        सीठी हो

                                                        रेत हो!! 
                                                                        (30.9.93)



एक कटे हुए सिर का बयान

(तसलीमा नसरीन के लिए एक कविता)

अंधेरे की छाती में

रोशनी के सूराख की तरह

मैं अपने लहू की धार से उभरा

और

जबकि

मुर्दा जिस्मों की नुमाइश में मशगूल थे

खुदाई खिदमतगार

मैंने एक अदद सीधे-सच्चे इन्सान को

उसकी अपनी जबान में पुकारा

रिश्तों के सफेद खून को क्या मालूम

कि किसी सरहद के रोके नहीं रुकता

जमीर का फैलाव

मांएं अलबत्ता जानती हैं

कि उनके बच्चों के लिए

नकचढ़े मजहब से ज्यादा जरूरी है

कायदे के सूखे गर्भ पोतड़े

तो क्या....

तो क्या मांओं और बच्चों के बाद

अब पोतड़ों को भी सूली चढ़ाओगे?

और क्या होगा

सरहदों का और जमीर का-

ये तो हद है, म्यां,

ये तो हद है...

मैंने कहा- नहीं...

मैं ऐलान करता हूं-

मैं ऐलान करता हूं

खुदा से खाविंद तक

अब और नहीं है

महज खौफ की परछाई

एक औरत

साजिश की रेशमी उंगलियों पर

अब और नहीं है

सिर्फ अक्सरीयत और

अकल्लीयत का जोड़-बाकी

आने वाले कल का बीज

एड़ियों से झटककर मौत के साये

मुक्त हो जीवन का प्रचंड सौंदर्य

पचास हजार टके की सनद रहे-

मेघना बेचकर मदीना नहीं

कमाएगा मेरा मयमनसिंग

मेघना

बेचकर

मदीना

नहीं कमाएगा

मेरा मयमनसिंग!!

13.12.93

(समकालीन जनमत, 16-31 दिसंबर 1994)