Sunday, June 14, 2015

आरवी मिलीजुली तहजीब, जबान और अदब के एक बड़े नुमाइंदे थे : जसम


शीन मीम आरिफ माहिर आरवी को जन संस्कृति मंच की श्रद्धांजलि 

आरा: 13 जून 


शीन मीम आरिफ माहिर आरवी
photo : Imtiyaz Ahmad (Danish) के फेसबुक वाल से साभार 
मशहूर शायर शीन मीम आरिफ माहिर आरवी का 11 जून को पटना में इलाज के दौरान इंतकाल हो गया। उन्होंने नब्बे साल से अधिक की उम्र पाई। जन संस्कृति मंच से जुड़े साहित्यकारों ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा है कि वे भारत की मिलीजुली तहजीब, जबान और अदब के एक बड़े नुमाइंदे थे। उनका निधन सिर्फ उर्दू साहित्य के लिए ही नहीं, बल्कि उस साझी साहित्यिक परंपरा के लिए भी बड़ी क्षति है, जिसे लिपियों के फर्क, अंगरेजों की साजिशों और फिरकापरस्त सियासत की तिकड़मों की वजह से विभाजित करने की हरसंभव कोशिश की गई। 

अजीमुल्ला खान रचित गीत ‘हम हैं इसके मालिक हिंदुस्तान हमारा’, जो कि 1857 के महासंग्राम का झंडागीत था, वह उर्दू के अखबार ‘पयामे आजादी’ में छपा था, जिसे हिंदी-उर्दू दोनों जबानों के बोलने वाले अपना मानते हैं। जिस तरह गालिब, मीर, दाग, मोमिन, नजीर, इकबाल, जोश, फैज, जिगर, मजाज, फिराक सरीखे शायरों से जुड़ाव के बगैर हिंदी का साहित्यिक मिजाज मुकम्मल नहीं होता, उसी तरह आरा में रचे गए उर्दू साहित्य के बेमिसाल इतिहास को जाने बगैर आरा के साहित्यिक इतिहास को मुकम्मल तौर पर नहीं समझा जा सकता। शीन मीम आरिफ माहिर आरवी ने अपनी किताब ‘आरा: एक शहर-ए-सुखन’ में 1747 से 1947 तक के आरा के गजलकारों का परिचय और उनकी गजलों को संकलित किया है। यह एक ऐतिहासिक काम है। इसे पढ़कर यह जाना जा सकता है कि आरा उर्दू अदब का एक ऐतिहासिक केंद्र था। शीन मीम आरिफ आरवी ने ‘आरा : जो एक शहर है’ नामक किताब में आरा शहर के इतिहास को भी दर्ज किया है। यह भी उनका एक महत्वपूर्ण काम है। ‘शायरी के अलिफ बे’ और महान शायर गालिब पर जमीन पर रची गई गजलों और लेखों का संग्रह ‘खस्ता-ए-तेग सितम’ नामक उनकी दो और  महत्वपूर्ण किताबें प्रकाशित हुई थीं।

जसम के राष्ट्रीय सहसचिव जितेंद्र कुमार ने कहा कि उम्रदराज और काफी दुबले-पतले होने के बावजूद रिक्शे से वे खुद साहित्यकारों के घर पहुंच जाते थे। उनमें गजब की ऊर्जा और लोगों से मिलने-जुलने के प्रति दिलचस्पी थी। चार-पांच बार रिक्शे से वे उनके घर भी आए थे। शायरों के घर और साहित्यिक आयोजनों में भी उनसे कई बार मुलाकातें हुईं थीं।

जसम के बिहार राज्य अध्यक्ष रामनिहाल गुंजन ने वेदनंदन सहाय और उनकी गहरी दोस्ती का हवाला देते हुए बताया कि उन्होंने वेदनंदन सहाय के निधन के बाद ‘वेद भाई : स्कूल से चिता तक’ शीर्षक से जो संस्मरण लिखा है, उसमें दोनों की साहित्यिक अभिरुचि के विकसित होने का इतिहास भी दर्ज है। वेदनंदन सहाय जिला स्कूल में दसवीं के छात्र थे और शीन मीम आरिफ माहिर आरवी नौंवी के। उसी दौरान उन लोगों ने ‘साहित्य संगम’ के नाम से फुलस्केप साइज के कागज को बीच के हिस्से से बांटकर एक पत्रिका निकालना शुरू किया, जिसमें दायीं तरफ उर्दू और बायीं तरफ हिंदी और अंगरेजी की रचनाएं होती थीं। उर्दू हिस्सा आरवी साहब लिखते थे और हिंदी का हिस्सा वेदनंदन जी। उस पत्रिका के आठ-दस अंक निकले। इसके बाद फिर एक अंतराल आया। आरवी साहब स्कूल की फुटबाल टीम में खेलने लगे और वेदनंदन जी मैट्रिक के परीक्षा की तैयारी में मसरूफ हो गए। इसके बाद काॅलेज में वे फिर मिले। काॅलेज में ‘कला मंडल’ बनाया और नाटकों का मंचन किया। अपनी-अपनी नौकरी के सिलसिले में दोनों फिर जुदा हुए और 1955 में पुनः एक बार आरा रेलवे प्लेटफार्म पर डेली पैसेंजर के तौर पर दोनों की मुलाकात हुई। उसके बाद वेदनंदन जी ने उर्दू और आरवी साहब ने हिंदी सिखना शुरू किया। वेदनंदन जी ने उन्हें ‘महाभारत’, ‘रामायण’, ‘गुरु ग्रंथ’ और ‘गीता’ के उर्दू अनुवाद उपलब्ध कराए और उन्होंने उन्हें ‘कुरान शरीफ’ का हिंदी अनुवाद उपलब्ध कराया। शीन मीम आरिफ माहिर आरवी साहब ने लिखा है- ‘‘एक-दूसरे की त्योहारों, शादी-ब्याह और दूसरी तकरीबात में शरीक होकर मैं उनका फैमिली मेंबर हो गया।’’ रामनिहाल गुंजन ने कहा कि आज फिरकापरस्त सियासत के उन्मादी दौर में शीन मीम आरिफ माहिर आरवी और वेदनंदन सहाय की दोस्ती की याद हमें समाजी-सियासी माहौल को बदलने और उसे खुशगवार बनाने की प्रेरणा देती है। 

श्रद्धांजलि देने वालों में जनमत के संपादक सुधीर सुमन, कवि सुमन कुमार सिंह, कवि सुनील चौधरी और चित्रकार राकेश दिवाकर भी शामिल थे।

Thursday, June 11, 2015

हत्याओं के मामले में सगुन अच्छा नहीं है



(जितेन्द्र कुमार की दो नई पुस्तकों पर एक संक्षिप्त टिप्पणी)

कवि-आलोचक-समीक्षक जितेंद्र कुमार की दो पुस्तकें आई हैं- ‘जिदंगी के रंग अनेक’ और ‘मेरा शब्द संसार’। ‘जिंदगी के रंग अनेक’ 1992 से लेकर 2001 तक की उनकी डायरी के चुने हुए अंशों पर आधारित है। इसमें काफी वैविध्य है। पुस्तकों, अखबारों और अखबारों को पढ़ने के दौरान उपजी प्रतिक्रियाओं और उनसे संबंधित नोट्स; साहित्यिक आयोजनों, संगठनों और साहित्यकारों से संबंधित अनुभव, रचनाओं के प्लाॅट, वामपंथी राजनीति के विविध आयाम, शहर में हो रहे भौगोलिक-आर्थिक और सांस्कृतिक बदलाव, जमीन का कारोबार और गांव से लेकर शहरी मुहल्लों तक गैरजनवादी बसावट आदि से संबंधित कई प्रसंग इस पुस्तक में दर्ज हैं। पारिवारिक जीवन के भी कुछ प्रसंग हैं, जो कि व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भाें से ही जुड़े हुए हैं। कुछ प्रसंग आॅफिस की जिंदगी के भी हैं। लेखक के अपने वैचारिक और अनुभवजन्य आग्रहों को भी स्पष्टता से महसूस किया जा सकता है। कई जीवित चरित्र अपने पूरे परिचय के साथ इसमें मौजूद हैं, उनसे संबंधित वर्णन और अनुभवों पर एकाध लोगों को आपत्ति भी हो सकती है। लेकिन इस पुस्तक की जो सबसे बड़ी खासियत है वह है- बेबाकी। दूसरी यह कि पुस्तक एक तरह से बीसवीं सदी के आखिरी दशक और इक्कीसवीं सदी के शुरुआत के समय के समाज, परिवार, साहित्य, संस्कृति, संगठन, विचारधारा आदि से जुड़े यथार्थ को दस्तावेजीकृत करती है। जितेंद्र कुमार ने लिखा है- ‘‘मेरी डायरी में सिर्फ मैं नहीं हूं, मेरा संपूर्ण परिवेश है, व्यवस्था है, साहित्य है, साहित्यकार हैं, राजनीति है, राजनीतिज्ञ हैं, आम जीवन की कशमकश है, जीवन-संघर्ष है, जिजीविषा है, आक्रमण है, आत्म-रक्षा की कोशिशें हैं। जिंदगी की तलाश है।’ जाहिर है जिंदगी की यह तलाश भी पाठकों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करेगी। कहीं-कहीं चलते-फिरते मैं भी इसमें नजर आ गया हूं। लेकिन यह कोई महत्वपूर्ण बात नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि यह पुस्तक वर्तमान का आकलन करते हुए भविष्य की आशंकाओं से हमारा साक्षात्कार कराती है। पारिवारिक जमीन जायदाद के बंटवारे के दौरान हुई हत्याओं और प्रेम में उत्पन्न बाधा के कारण प्रेमी द्वारा की गयी हत्या के प्रसंग में जितेंद्र कुमार ने लिखा है- इक्कीसवीं सदी का प्रथम वर्ष है और हत्याओं के मामले में सगुन अच्छा नहीं है। 

दूसरी पुस्तक ‘मेरा शब्द संसार’ में जितेंद्र कुमार के आलोचनात्मक लेख और समीक्षाएं संकलित हैं। शमशेर, रेणु, नागार्जुन, सुरेंद्र चैधरी, भीष्म साहनी, नलिन विलोचन शर्मा, चंद्रभूषण तिवारी, पाश, विजेंद्र, विजेंद्र अनिल, मदन कश्यप, निलय उपाध्याय से लेकर युवा कवि संतोष चतुर्वेदी, ओमप्रकाश मिश्र तक की रचनाओं का उन्होंने मूल्यांकन किया है। पहली पुस्तक में भी पाश की कविताओं से संबंधित नोट्स मौजूद हैं। विजेंद्र की कविताओं पर इस पुस्तक में तीन लेख हैं। मुझे लगता है कि यह लगाव से लेखक की वैचारिक प्रतिबद्धता की ओर स्पष्ट तौर पर संकेत करता है। 

ये दोनों पुस्तकें पिछले लगभग ढाई दशक में एक लेखक के निर्माण की प्रक्रिया और उसकी वैचारिक जद्दोजहद को भी दर्शाती हैं। जो लोग लेखक बनना चाहते हैं, उनके लिए भी ये दोनों पुस्तकें काम की हो सकती हैं। सहज वर्णनात्मकता, वैचारिक आवेग और बहसतलब होना इन दोनों पुस्तकों की खासियत है। सबसे बड़ी बात यह है कि अराजनीतिकरण और वैचारिक अनास्थाओं के दौर में ये दोनों पुस्तकें साहित्य के प्रति आस्था जगाती हैं, उसे जरूरी बताती हैं। ‘मेरा शब्द संसार’ की भूमिका में जितेंद्र कुमार ने लिखा है- ‘‘मैं समझता हूं कि अधिक से अधिक बुद्धिजीवियों को अपने देश के सांस्कृतिक उन्नयन के लिए एवं सामाजिक संवेदना के प्रतिरक्षण के लिए साहित्य का गहरा अध्ययन करना चाहिए। रोजी-रोटी के लिए हम कहीं भी कार्यरत हों, साहित्य के पठन-पाठन के लिए समय का एक अंश अवश्य देना चाहिए।’’