Saturday, December 26, 2015

साथी पंकज सिंह की याद में उनकी दो कवितायें



(पंकज सिंह, 22 दिसंबर 1948- 26 दिसंबर 2015, जन्म-स्थान : मुजफ्फरपुर, बिहार। शिक्षा :पैतृक गांव चैता (चम्पारण) से स्कूली शिक्षा का आरंभ। बिहार विश्वविद्यालय से इतिहास में बी.ए. (ऑनर्स) और एम.ए.। प्रमुख कृतियां : पहली कविता 1966 में प्रकाशित। पहला कविता-संग्रह ‘आहटें आसपास’ 1981 में प्रकाशित। दूसरा ‘जैसे पवन पानी’ 2001 में प्रकाशित, तीसरा 'नहीं' (2009)  । बॉग्ला, उर्दू, अंग्रेजी, जापानी और फ्रांसीसी आदि भाषाओं में कविताओं के अनुवाद। पेरिस (1978-80) और लंदन (1987-91) में प्रवास। रचनात्मक लेखन के साथ-साथ राजनीति और साहित्य कला-संस्कृति पर भी पत्र-पत्रिकाओं में बहुविध लेखन। डॉक्यूमेंटरी और कथा-फिल्मों के लिए स्क्रिप्ट लेखन। दूरदर्शन और अन्य चैनलों पर कई प्रस्तुतियां। जनांदोलनों से गहरा जुड़ाव।)



पंकज भाई, अभी तो फासीवादी मुहिम के विरुद्ध अभियान को परवान चढ़ना था। अभी तो जनप्रतिरोध को पूरे देश में नए सिरे से संगठित होना था। प्रतिरोध की विभिन्न धाराओं को एकजुट होना था, इसी बीच आप हम सबसे जुदा हो गए। पिछले पांच नवंबर को फासीवाद के खिलाफ अभियान के तहत जनहस्तक्षेप के कार्यक्रम की सूचना पाकर मैं गांधी शांति प्रतिष्ठान पहुंचा था, जहां आपसे और सविता जी से मुलाकात हुई थी। कहां पता था कि आखिरी बार मिल रहा हूं!

आपकी ही पंक्तियां याद आ रही हैं- 

दुख जितना मन में है उतना ही जर्जर देह में उतना ही
नहीं उससे बहुत ज्यादा बेफिकर नुचे-चिंथे समाज में

आप चाहते थे समाज के दुखों की मुक्ति, सबकी दुखों से मुक्ति। आपकी पीढ़ी के नौजवानों और कवियों को नक्सलबाड़ी ने मुक्ति का जो रास्ता दिखाया था, चाहे आप जहां भी रहे, उस रास्ते को नहीं भूले, आखिर तक माक्र्सवाद-लेनिनवाद की राजनीतिक धारा के साथ जुड़े रहे। आपकी कविताओं में भोजपुर आंदोलन की स्मृतियां हैं, वहां भोजपुर आंदोलन के शहीद साथी हैं, वहां नरायन कवि हैं, साधुजी हैं, वहां शीला चटर्जी हैं। भोजपुर के कुछ लोग आज भी आपको याद करते हैं। खासकर आपके साथी वरिष्ठ कवि जगदीश नलिन, जिनसे जब भी मिला, तो आपकी जरूर चर्चा हुई। 

आप मेरे प्रिय उद्घोषक थे। जिन दिनों बीबीसी हिंदी सेवा का नियमित श्रोता हुआ करता था, उन दिनों आपसे आत्मीय संबंध बना। फिर जब जन संस्कृति मंच से जुड़ा तो पता चला कि आप इसके करीब हैं। सन् 1998 के दिल्ली राष्ट्रीय सम्मेलन में आप इसके परिषद में भी शामिल हुए। एक मुलाकात में आपने भाकपा-माले के पूर्व महासचिव का. विनोद मिश्र के साथ अपने घनिष्ठ संबंधों का जिक्र किया था कि किस तरह आप उनके साथ देश-दुनिया की राजनीतिक स्थितियों को लेकर बातचीत करते हुए कई बार पैदल नोएडा उनके आवास तक चले जाते थे। उसी मुलाकात में आपने मेरी एक चिट्ठी का जिक्र किया था, जिसे आपने सहेज कर रखा था, जिसमें संभवतः मैंने अपनी जिंदगी की मुश्किलों और उलझनों का जिक्र किया था। नवंबर में ही पुराने कागजात छांटते हुए मुझे आपके कुछ खत मिले, जिसे मैंने सहेज कर रख दिया था। 
आपकी कविताएं मुझे अच्छी लगती रही हैं। अफसोस, ‘जैसे पवन पानी’ पर लिखी हुई मेरी समीक्षा प्रकाशित नहीं हो पाई, प्रकाशन की प्रक्रिया में वह कहीं खो गई, नोट्स अब भी उस कविता संग्रह में पड़े होंगे। कविता पढ़ने का आपका अंदाज भी मुझे पसंद था। ‘जैसे पवन पानी’ के प्रकाशन के बाद पटना के माध्यमिक शिक्षक संघ भवन में आपकी कविताओं का जो पाठ हुआ था, उसकी स्मृति आज भी है। आपको श्रद्धांजलि देते हुए आपकी ही दो प्रतिनिधि कविताएं पेश कर रहा हूं, जिसे बसंत का वज्रनाद यानी नक्सलबाड़ी के 40 साल पूरा होने पर हमने समकालीन जनमत में प्रकाशित किया था-


जैसे पवन पानी

हमारी आवाजें थीं हमीं से कुछ कहने की कोशिश में
फिर कुछ गूंजता हुआ सा थमा रहा सिसकी सा
आखिरकार वह भी गुम हुआ आहिस्ता-आहिस्ता
बचा रहा एक बेआवाज शोर


यह सारा वृत्तांत बहुत उलझा-उलझा है बहुत लंबा
सबकी अलग-अलग थकान है
हर दुख का है कोई अविश्वसनीय प्रति-दुख
जो हमारे अनुपस्थित शब्दों की जगह जा बैठता है


दुख जितना मन में है उतना ही जर्जर देह में उतना ही
नहीं उससे बहुत ज्यादा बेफिकर नुचे-चिंथे समाज में


एक तरफ होकर अपने ही खोए शब्दों का आविष्कार
करना होगा जो भले ही बिगड़ी शक्ल में आएं खूनआलूदा
मगर हमारे हों जैसे कल के


हम उन्हें पहचान ही लेंगे हर हाल में 
हमारी हकलाहट में गुस्से में रतजगों में शामिल 
बेबाक खड़े थे जो
दिखते हैं हमें भोर के सपने में कभी-कभी
उनके चेहरों पर आंसुओं के दाग हैं


हम उन्हें पहचान लेंगे
सारे आखेट के बीच नए आरण्यक की सारी कथाओं के बावजूद 
सारे खौफनाक जादू सारे नशे के बावजूद
वे हमारी आवाजें थे 

अब भी होंगे हमारी ही तरह मुश्किलों में
कहीं अपने आविष्कार के लिए 
और विश्वास करना चाहिए
हम उन्हें पा लेंगे क्योंकि हमें उनकी जरूरत है 
अपने पुनर्जन्म की खातिर 
थोड़े उजाले थोड़े साफ आसमान की खातिर 
मनुष्यों के आधिकारों की खातिर
वे थे 
वे होंगे हमारे जंगलों में बच्चों में घरों में उम्मीदों में
जैसे पवन पानी...



मध्यरात्रि

मध्यरात्रि में आवाज आती है ‘तुम जीवित हो?’
मध्यरात्रि में बजता है पीपल
जोर-जोर से घिराता-डराता हुआ


पतझड़ के करोड़ों पत्ते 
मध्यरात्रि में उड़ते चले आते हैं
नींद की पारदर्शी दीवारों के आर-पार
पतझड़ के करोड़ों पत्ते घुस आते हैं नींद में

मध्यरात्रि में घूमते होंगे कितने नारायन कवि धान के खेतों में
कितने साधुजी
सिवान पर खड़ी इंतजार करती हैं शीला चटर्जी मध्यरात्रि में

मध्यरात्रि में मेरी नींद खून से भीगी धोती सरीखी
हो जाती है मध्यरात्रि में मैं महसूस करता हूं ढेर सारा ठंढा खून

‘तुम जीवित हो?’ आती है बार-बार आवाज

मध्यरात्रि में दरवाजा खटखटाया जा सकता है
बजाई जा सकती है किसी की नींद पर सांकल 

मध्यरात्रि में कभी कोई माचिस पूछता आ सकता है
या आने के पहले ही मारा जा सकता है मुठभेड़ में
मेरे या तुम्हारे घर के आगे

मध्यरात्रि में कभी बेतहाशा रोना आ सकता है
अपने भले नागरिक होने की बात सोचकर













Thursday, December 10, 2015

विद्रोही : गुलामी के प्रतिरोध में खड़ा एक जनकवि

‘जब भी किसी 
गरीब आदमी का अपमान करती है
ये तुम्हारी दुनिया, 
तो मेरा जी करता है
कि मैं इस दुनिया को 
उठाकर पटक दूं।’
- ये हैं कवि विद्रोही, जो बिना लाग-लपेट के गरीबों और मेहनतकशों की तरफदारी में बोलते हैं। विद्रोही का कहना है कि वे पब्लिक के हुक्म से कविताएं रचते हैं। वे कहते हैं- ‘पुश्त दर पुश्त से रही है अदावत की रवायत/ तुम मुझे निरा शायरी का मुंतजिर न समझना ऐ सनम।’ दो दुनियाओं के बीच की जो अदावत है, जो संघर्ष है वह विद्रोही की कविता में बिल्कुल मुखर है। उनकी कविता एकसाथ इतिहास, मिथ और वर्तमान सबसे निरंतर बहस करती है। मोहनजोदड़ो की महान सभ्यता का विध्वंस करने वालों से लेकर आज के बर्बर और रक्तपिपासु अमेरिकन साम्राज्यवाद तक से उनकी अदावत है। अब किसी को लगे तो लगे कि यह कविता नहीं लाठी है, तो है यह लाठी ही, एक सचेत किसान की लाठी, कवि के शब्दों में- जो बड़ों के खिलाफ भंजती है/ छोटों के खिलाफ नहीं/ भगवान के खिलाफ भंजती है/ इंसान के खिलाफ नहीं।’ वास्तव में यह रूढि़यों से मुक्त कविता की खेती करने वाले एक सचेत किसान की कविताएं हैं। 
विद्रोही जनता के प्रतिरोध के कवि हैं। सिर्फ वर्तमान ही नहीं, बल्कि मनुष्य के पूरे इतिहास को जान-समझकर उन्होंने प्रतिरोध के कविकर्म का सचेतन चुनाव किया है, क्योंकि 
हर जगह ऐसी ही जिल्लत
हर जगह ऐसी ही जहालत
हर जगह पर पुलिस
और हर जगह पर है अदालत।
हर जगह नरमेध है, 
हर जगह कमजोर मारा जा रहा है, खेद है
सूलियां ही हर जगह है, निजामों की निशानी
हर जगह फांसियों पर लटकाए जाते हैं गुलाम।
हर जगह औरतों को मारा-पीटा जा रहा है
जिंदा जलाया जा रहा है
खोदा-गाड़ा जा रहा है
हर जगह पर खून है और हर जगह आंसू बिछे हैं।’ 
मनुष्य की चेतना को कुंद करने वाले और उसे गुलाम बनाने वाले तमाम विचारों, प्रवृत्तियों, परंपराओं, विश्वासों से वे दुश्मनी ठाने हुए हैं। ईश्वर, खुदा, धर्म सब जनता के शोषण के हथियार हैं, वे यह बार-बार कहते हैं और अपनी कविता में गणेश, चूहा, हनुमान, कच्छप, वराह, नृसिंह आदि तमाम मिथ और अवतारों की अवधारणा से मुठभेड़ करते हैं। वे परंपरागत विश्वासों को उलटते हुए एक नई दुनिया की तामीर के ख्वाब को दो टूक लहजे में अभिव्यक्त करते हैं- भाड़ में जाए ये तेरी दुनिया खुदा/ एक दुनिया नई हमको गढ़ लेने दो/ जहां आदमी-आदमी की तरह/ रह सके, कह सके, सुन सके, सह सके। धार्मिक धंधेबाजों और साम्राज्यवाद के रिश्ते को भी वे बखूबी खोल कर रख देते हैं- ‘खुदा और रामचंद्र ये दोनों जने ही/ अमेरिकी बुकनी की मालिश किए हुए हैं/ खुदा रामचंद्र हैं नंगे पर, पांवों में डाॅलर की पालिश किए हुए हैं।’ साम्राज्यवाद और धार्मिक-राजनीतिक सत्ताओं का यह रिश्ता किस तरह दलितों, स्त्रियों, वंचितों के विरोध में है, इसे विद्रोही की कविता उजागर करती है। स्त्रियों के दुख और उत्पीड़न के प्रति जितनी गहरी संवेदना विद्रोही की कविता में मिलती है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। विद्रोही की कविता में भुखाली हरवाह, कन्हई कहार, नूर मियां और नानी-दादी के अद्भुत आत्मीय और जीवट से भरे चरित्र हैं। ऐसे ही लोगों से जो देश बनता है विद्रोही उसके कवि हैं। वे इस जनता के राष्ट्र के निर्माण की गहरी बेचैनी और फिक्र के कवि हैं। फिलहाल उन्हें अपना अभागा देश कालिंदी की तरह लगता है, और सरकारें कालिया नाग की तरह, जिससे देश को मुक्त कराना उनकी कविता का जरूरी कार्यभार है। 
अभाव, वंचना, गुलामी, शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ प्रतिरोध की तमाम परंपराएं जैसे घुली-मिली हैं विद्रोही की कविता में। गुलामों की जीत और उनका तख्त पर काबिज होना उन्हें गहरे आह्लाद से भर देता है। बलबन पर लिखी गई अपनी कविता में इसी कारण वे उसे खुदाओं का खुदा कहकर सलाम करते हैं। लाल झंडे के प्रति भी उनकी आस्था इसी कारण है कि वह गुलामी और शोषण के समूल नाश के लिए जारी संघर्षों का झंडा है। देश, जिसे लाल झंडा अपनी सलामी देता है, उस देश से उनका आग्रह है- बहुत बेइज्जत हुई आबादियां/ बहुत देखी रानियां-शहजादियां/ बराबरी का ताज है यह ध्वज/ इसे रख सिर के ऊपर/ ऐ वतन...’’ 
3 दिसंबर 1957 को अइरी फिरोजपुर (सुल्तानपुर, उ.प्र.) में जन्मे रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ 1980 में जेएनयू एम.ए. करने आए थे। यहीं वामपंथी आंदोलन के संपर्क में आए। 1983 में छात्र आंदोलन में उन्होंने बढ़चढ़कर शिरकत की और जेएनयू से निकाल दिए गए। लेकिन छात्रों के बीच उनकी लोकप्रियता के कारण कई बार चाहकर भी जेएनयू प्रशासन उन्हें वहां से बाहर नहीं कर पाया। जनता का कवि होने का अभिमान है विद्रोही को। साहित्य के नामवरों की अनदेखी तथा पूंजी और बाजार द्वारा तय श्रेष्ठता के पैमानों की उन्हें कोई परवाह नहीं है। वे तो बड़े गर्व से कहते हैं- मेरे हौसले पर नजाकत झुकी है/ विरासत है सबको दिए जा रहा हूं। और इस विरासत की कितनी पूछ है यह जसम के सांस्कृतिक संकुल (सांस) की ओर से प्रकाशित उनके पहले कविता संग्रह ‘नई खेती’ की मांग बताती है। दिल्ली से लेकर बिहार तक उनके चाहने वालों की लंबी कतार है। 
वैसे विद्रोही की कविता की असली ताकत उसे सुनते हुए ही महसूस किया जा सकता है। वे कविता लिखते नहीं, कविता कहते हैं। एक खास त्वरा युक्त किसी बयान के सिलसिले से जैसे हम गुजरते हैं, जिसमें कई शैलियों और शिल्प का इस्तेमाल मिलता है। विद्रोही को सुनना जनता के किसी कवि को सुनना मात्र नहीं है, बल्कि खुद को सुनना है, खुद को बचाना है, अपने भीतर की जिद को मजबूत करना है, अपने भीतर उस इंसान को जीवित रखना है, जो आजाद है, जो समझौते नहीं करता, जो कभी नहीं हारता, जो कभी नहीं मरता। विद्रोही को सुनना अपने रगों में किसी आदिम और नैसर्गिक ज्वार के उमड़ने के अहसास को हासिल करने जैसा है। विद्रोही कहते भी हैं- न ये वाशिंगटन है, न ये इटली है/ ये हिंदुस्तान है, दिल्ली है/ जहां का विद्रोही वासी है/ आदिवासी है, विद्रोही..’। विद्रोही की कविताएं हमारे सहज न्यायबोध, सामाजिकता, मनुष्यता, आजादी, बराबरी, इश्क, कुर्बानी जैसे भावों के ऊपर पड़ने वाले धूल को जैसे धोकर हमें हमको ही सौंपती हैं।
(यह लेख मैंने जुलाई 2011 में लिखा था। जिसे साथी कुमार मुकुल ने अपने ब्लॉग पर लगाया था। डब्ल्यूटीओ के  हाथों भारत की शिक्षा को नीलाम करने और यूजीसी द्वारा नॉन-नेट फ़ेलोशिप बंद किए जाने के खिलाफ जो आंदोलन चल रहा है उसी के दौरान  8 दिसंबर को  आंदोलन के मोर्चे पर ही विद्रोही जी ने आखिरी सांस ली। कामरेड विद्रोही को लाल सलाम! आप हमेशा हमारी यादों और संघर्षों में रहेंगे। )

Tuesday, November 10, 2015

घृणा और हिंसा को स्टेट पावर का समर्थन हासिल है : उमा चक्रवर्ती



'हिंसा की संस्कृति बनाम असहमति, चुनाव और प्रतिरोध’ विषय पर उमा चक्रवर्ती ने चौथा कुबेर दत्त स्मृति व्याख्यान दिया

धर्म आधारित फासीवाद जाति और जेंडर के स्तर पर हिंसा को वैधता प्रदान करता है : उमा चक्रवर्त

लोकतांत्रिक समाज में प्रतिरोध के स्वर का होना जरूरी है : मंगलेश डबराल

‘‘हमारे देश में जो फासीवादी माहौल बना है, उसके पीछे एक लंबी प्रक्रिया रही है। यह धर्म आधारित फासीवाद है, जो जाति और जेंडर के स्तर पर हिंसा को वैधता प्रदान करता है। घृणा और हिंसा को स्टेट पावर का समर्थन हासिल है। कल तक आपस में एक दूसरे समुदाय पर जो आक्षेप लोग घरों के भीतर बैठकर लगाते थे, जो गंदगी दबी हुई थी, अब उसे खुल्लममखुल्ला मान्यता मिल गई है।’’ 7 अक्टूबर को गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली में 'हिंसा की संस्कृति बनाम असहमति, चुनाव और प्रतिरोध’ विषय पर चौथा कुबेर दत्त स्मृति व्याख्यान देते हुए मशहूर नारीवादी और इतिहासकार उमा चक्रवर्ती ने यह कहा। 

उमा चक्रवर्ती ने कहा कि डॉ॰ नरेंद्र दाभोलकर और पानसरे तो तर्कवादी बुद्धिजीवी थे, कलबुर्गी तो उसी समाज के बारे में लिख रहे थे, जिसकी जाति और कर्मकांड विरोधी परंपरा थी, लेकिन उसे भी बर्दाश्त नहीं किया गया। अब तो हालत यह हो गई है कि हम अपनी ही परंपरा को खोलकर नहीं देख सकते, क्योंकि हमारे ऊपर जो ठेकेदार बैठे हैं, वे हमारा मुंह दबा देंगे। जो हमारी परंपरा है उसके भीतर भी हम उतरेंगे तो हम पर इल्जाम लगेगा कि हम भावनाओं को आहत कर रहे हैं। भावनाएं आहत होने को आज एक तरह से संवैधानिक अधिकार बना दिया गया है। आज के जमाने में ज्योति बा फुले होते, तो उन्हें भी मार दिया जाता।

उमा चक्रवर्ती ने कहा कि आज जो बगावत शुरू हुई है, वह देर से ही सही पर दुरुस्त शुरुआत है। सोचने और चुनने का अधिकार और उसके अनुरूप क्रियाशील होना हमारा बुनियादी अधिकार है। इसका कोई मतलब नहीं है कि पहले क्यों नहीं बोले, अब क्यों बोल रहे हैं? आनंद पट्टवर्धन ने तो कहा कि वे इमरजेंसी के खिलाफ थे, तो उनसे पूछा जा रहा है कि माओइस्टों के खिलाफ क्यों नहीं बोला? कारपोरेट मीडिया में जो डिबेट हो रहा है, उसके जरिए एक पोलराइज्ड हिस्टिरिया निर्मित की जा रही है। एक ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि कोई किसी चीज के बारे में कुछ बोल नहीं सके।

उमा चक्रवर्ती ने यह भी संकेत किया कि इस उन्माद और हिंसा का जनविरोधी आर्थिक नीतियों को ढंकने के लिए भी इस्तेमाल किया जा रहा है। वे नहीं चाहते कि बजट में जो कटौती हो रही है, उस पर कोई बात हो। अब हमारे सामने सवाल यह है कि हम कैसे अपनी बात कहेंगे, कैसे लिखेंगे, कैसे दूसरों से बातचीत करेंगे? कैसे हम अंततः कोई राजनीतिक गोलबंदी करेंगे? 

उमा चक्रवर्ती ने कहा कि सांप्रदायिकता आज की चीज नहीं है, इसका लंबा इतिहास है। उन्होंने कुछ घटनाओं का जिक्र करते हुए बताया कि लिंग और जाति के स्तर पर मौजूद मानवविरोधी व्यवहार भी सांप्रदायिक शक्तियों के लिए मददगार सिद्ध हो रहा है। उन्होंने कहा कि जिस समाज में अंतर्जातीय शादियों पर घिनौनी प्रतिक्रियाएं होती हैं, वहां बाबू बजरंगी पैदा होंगे ही। उसने कहा था कि हर हिंदू घर में एक एटम बम है यानी घर में जो लड़की है, वह एटम बम है, कभी भी फूट सकती है, क्योंकि वह कभी भी किसी के साथ जा सकती है, क्योंकि उस लड़की के हाथ में यह अधिकार है कि वह किसी को चुन लेगी। इसकी गहरी वजह हमारी सामाजिक संरचना में है। यही मानसिकता ‘लव जेहाद’ का प्रचार करती है, जिसे लेकर दंगे हो जाते हैं।

उन्होंने कहा कि राजनीति हर चीज में है। किस तरह का घर होगा, किस तरह की शादी होगी, किस तरह का कौम बनेगा, किस तरह का हमारा देश बनेगा, ये सवाल राजनीति से अलग नहीं हैं। मुझे लगता है कि फासिज्म तो हमारे प्रतिदिन के जीवन में है। उन्होंने कहा कि सहिष्णुता तो हमारी सामाजिक संरचना में है ही नहीं। पहले जो लोग अपनी जीवन शैली थोड़ी –सा बदलते थे तो समाज उन्हें बहिष्कृत कर देता था, आज तो मार ही दिया जा रहा है। मीडिया की छात्रा निरूपमा जो ब्राह्मण थी और कायस्थ लड़के से प्रेम करती थी, उसकी मौत का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि उसके पिता ने उसे चिट्ठी लिखी थी कि तुम जिस संविधान की बात कर रही हो, उसको सिर्फ साठ साल हुए हैं, हमारा संविधान जो है वह 2000 साल का है। उनका जो संविधान है वह ब्राह्मणवादी मान्यताओं पर आधारित है।

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उमा चक्रवर्ती ने कहा कि आज हाशिये के समाजों से चुनौती आएगी ही आएगी। वे लोग अपना हक मांगेंगे, कोई भी चुप नहीं रहने वाला। युवाओं की ओर से भी चुनौती आ रही है। वे बड़े दायरे में चीजों को देख रहे हैं, उनमें प्रश्नात्मकता आई है। आपातकाल के दौरान बुद्धिजीवियों की भूमिका को याद करते हुए उन्होंने कहा कि शासकवर्ग देख रहा है कि विश्वविद्यालयों से भी चुनौती आ रही है, तो वहां भी हिंसा जरूर आएगी, हमें उसका विरोध करना होगा। सार्वजनिक बयानों से कुछ तो फर्क पड़ा है। आगे चलकर हमें देखना होगा कि हम किस तरह का प्रतिरोध और आंदोलन खड़ा कर सकते हैं। प्रतिरोध की संस्कृति को हमें बनाना होगा, उसे फिर से सृजित करना होगा। हमें हर चीज पर बोलना होगा। हक के लिए हो रही हर लड़ाई को आपस में जोड़ना होगा। अगर मैं जिंदा हूं तो बोलूंगी। बकौल फैज़ - बोल कि सच जिंदा है अब तक।

व्याख्यान के बाद श्रोताओं ने उनसे सवाल पूछे, जिसका जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि हम सच्चे देशभक्त हैं। देश के प्रतिनिधि सत्ताधारी नहीं हो सकते। कारपोरेट मीडिया और देश के शासकवर्ग के बीच एक तरह की मैच फिक्सिंग है। वे सोनी सोरी के टार्चर के मुद्दे को नहीं उठाते। टार्चर करने वाले अधिकारी को इस देश में गैलेंट्री एवार्ड मिलता है। उन्होंने सवाल उठाया कि जब सरकार कह रही है कि लेखकों-कलाकारों का विरोध मैनुफैक्चर्ड है, तो फिर ऐसी सरकार से बात कैसे हो सकती है?

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ कवि और जसम के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मंगलेश डबराल ने कहा कि लेखकों ने किसी राजनीतिक या सामूहिक निर्णय के आधार पर नहीं, बल्कि अपने विवेक और जमीर के आधार पर सम्मान वापसी का निर्णय लिया, जो स्वतःस्फूर्त रूप से एक अभियान बन गया। 

उन्होंने सवाल उठाया कि क्या यह महज संयोग है कि भारत के तथाकथित राष्ट्रवादी और पाकिस्तान के उग्रवादी लगभग एक ही तरह की भाषा बोल रहे हैं? भारत में प्रतिरोध का सांस्कृतिक कर्म अगर अधिक मजबूत रहता तो ऐसी भाषा का विकास संभव न हो पाता जो अपनी प्रकृति में हिंसक और अलोकतांत्रिक है, जैसा आज आमतौर पर लोग अपने विरोधियों के लिए करते देखे जा रहे हैं। लोकतांत्रिक समाज में प्रतिरोध के स्वर का होना जरूरी है, उसका बहुमत या अल्पमत होना जरूरी नहीं। उन्होंने कहा कि देश किसी शेर की सवारी करती देवी का नाम नहीं है जिसे हम भारतमाता कहते हैं। देश, उस भूमि पर रहने वाली जनता की बहुत ठोस आकांक्षाओं और जरूरतों का नाम है जिसे जानबूझकर इन दिनों झुठलाया जा रहा है।

जसम के राष्ट्रीय सहसचिव सुधीर सुमन ने संचालन के क्रम में कुबेर दत्त की कुछ कविताओं के अंशों का पाठ करते हुए कहा कि सत्ता के इशारे पर होने वाले दमन और उसके संरक्षण में चलने वाली हिंसा का विरोध किसी भी जेनुईन रचनाकार की पहचान है। आज पहली बार एक साथ साहित्य-कला की सारी विधाओं से जुड़े लोग सामाजिक-राजनीतिक हिंसा की संस्कृति के खिलाफ खड़े हुए हैं। इस लड़ाई को जारी रखना देश और समाज के बेहतर भविष्य लिए जरूरी है।

कार्यक्रम में जमशेदपुर में इस साल जुलाई में हुए सांप्रदायिक दंगे पर फिल्म बनाने वाले युवा फिल्मकार कुमार गौरव को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और विश्व हिंदू परिषद द्वारा जान से मारने की धमकी दिए जाने की भर्त्सना की गई तथा छात्रों के आक्युपाई यूजीसी आंदोलन के समर्थन में प्रस्ताव लिया गया। 

इस मौके पर वरिष्ठ कवि रामकुमार कृषक, वरिष्ठ चित्रकार हरिपाल त्यागी, लेखक प्रेमपाल शर्मा, दूरदर्शन आर्काइव की पूर्व निदेशक और नृत्य निर्देशक कमलिनी दत्त, कथाकार विवेकानंद, जसम के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष चित्रकार अशोक भौमिक, चित्रकार सावी सावरकर, आलोचक आशुतोष कुमार, लेखक बजरंग बिहारी तिवारी, लेखिका अनीता भारती, संजीव कुमार सिंह, विकास नारायण राय, ज्ञानपीठ के पूर्व निदेशक दिनेश मिश्र, जसम उ.प्र. के सचिव युवा आलोचक प्रेमशंकर, प्रतिरोध का सिनेमा के राष्ट्रीय संयोजक संजय जोशी, पत्रकार प्रसून लतांत, अखिल रंजन, भाषा सिंह, उपेंद्र स्वामी, कलकत्ता से आए बुद्धिजीवी आशुतोष सिंह, कवि श्याम सुशील, तृप्ति कौशिक, शिक्षाविद राधिका मेनन, युवा कवि अरुण सौरभ, कल्लोल दास, आशीष मिश्र, वेद राव, रामनिवास, कमला श्रीनिवासन, निशा महाजन, रोहित कौशिक, राम नरेश राम,अनुपम सिंह, रविदत्त शर्मा, सोमदत्त शर्मा, चंद्रिका, असलम, दिनेश, सौरभ, पाखी जोशी आदि मौजूद थे। 









Wednesday, October 14, 2015

भविष्य के भारत और भारत के भविष्य की लड़ाई


लेखकों, कलाकारों द्वारा पुरस्कार वापसी पर जन संस्कृति मंच का बयान

जन संस्कृति मंच उन तमाम साहित्यकारों, कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों का स्वागत करता है जिन्होंने देश में चल रहे साम्प्रदायिकता के नंगे नाच और उस पर सत्ता-प्रतिष्ठान की आपराधिक चुप्पी के खिलाफ साहित्य अकादमी और संगीत नाटक अकादमी के पुरस्कारों तथा पद्मश्री आदि अलंकरण लौटा दिए हैं. जन संस्कृति मंच साहित्य अकादमी की राष्ट्रीय परिषद् तथा अन्य पदों से इस्तीफा देनेवाले साहित्यकारों को भी बधाई देता है जिन्होंने वर्तमान मोदी सरकार के अधीन इस संस्था की कथित 'स्वायत्तता' की हकीकत का पर्दाफ़ाश कर दिया है. जिस संस्था के अध्यक्ष इस कदर लाचार हैं कि प्रो. कलबुर्गी जैसे महान 'साहित्य अकादमी विजेता' लेखक की बर्बर हत्या के खिलाफ अगस्त माह से लेकर अबतक न बयान जारी कर पाए हैं और न ही दिल्ली में एक अदद शोक-सभा तक का आयोजन, उस संस्था की 'स्वायत्तता' कितनी रह गयी है? आखिर किस का खौफ उन्हें यह करने से रोक रहा है? के. सच्चिदानंदन द्वारा उनको लिखा पत्र सब कुछ बयान कर देता है, जिसका उत्तर तक देना उन्हें गवारा न हुआ. सितम्बर के पहले हफ्ते में भी विभिन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों के प्रतिनिधि अकादमी के अध्यक्ष से दिल्ली में मिले थे और उनसे आग्रह किया था कि प्रो.कलबुर्गी की शोक-सभा बुलाएं. आज तक उन्होंने कुछ नहीं किया.


भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद् हो या पुणे का फिल्म इंस्टिट्यूट, नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी हो या भारतीय विज्ञान परिषद्, आई.आई.एम और आई.आई.टी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान हों अथवा तमाम केन्द्रीय विश्विद्यालय तथा राष्ट्रीय महत्त्व के ढेरों संस्थान- शायद ही किसी की भी स्वायत्तता नाममात्र को भी साम्प्रदायिक विचारधारा और अधिनायकवाद के आखेट से बच सके. ऐसे में साहित्य अकादमी की स्वायत्तता की दुहाई देकर अकादमी पुरस्कार लौटानेवालों को नसीहत देना सच को पीठ दे देना ही है.


2014 के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले मुज़फ्फरनगर में अल्पसंख्यकों के जनसंहार के बाद से लेकर अब तक हत्याओं का निर्बाध सिलसिला जारी है. पैशाचिक उल्लास के साथ हत्यारी टोलियाँ दादरी जिले के एक छोटे से गाँव में गोमांस खाने की अफवाह के बल पर एक निरपराध अधेड़ मुसलमान का क़त्ल करने से लेकर पुणे-धारवाड़-मुंबई-बंगलुरु जैसे महानगरों तक अल्पसंख्यकों, लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का आखेट करती घूम रही हैं. बुद्धिजीवियों, कलाकारों, पत्रकारों के नाम पर 'डेथ वारंट' जारी कर रही हैं. घटनाए इतनी हैं कि गिनाना भी मुश्किल है. इनके नुमाइंदे टी.वी. कार्यक्रमों में प्रतिपक्षी विचार रखनेवालों को बोलने नहीं दे रहे, खुलेआम धमकियां और गालियाँ दे रहे हैं. सोशल मीडिया पर इनके समर्थक किसी भी लोकतांत्रिक आवाज़ का गला घोंटने और साम्प्रदायिक घृणा का प्रचार करने में सारी सीमाएं लांघ गए हैं. कारपोरेट मीडिया का एक बड़ा हिस्सा इन कृत्यों को चंद हाशिए के सिरफिरे तत्वों का कारनामा बताकर सरकार की सहापराधिता पर पर्दा डालना चाहता है. क्या इन कृत्यों का औचित्य स्थापन करनेवाले सांसद और मंत्री हाशिए के तत्व हैं? लेकिन छिपाने की सारी कोशिशों के बाद भी बहुत साफ़ है कि इतनी वृहद योजना के साथ पूरे देश में, कश्मीर से कन्याकुमारी तक, असम से गुजरात तक निरंतर चल रहे इस भयावह घटनाचक्र के पीछे सिर्फ चन्द सिरफिरे हाशिए के तत्वों का हाथ नहीं, बल्कि एक दक्ष सांगठनिक मशीनरी और दीर्घकालीन योजना है. उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में 16 मई, 2014 के बाद से सैकड़ों छोटे बड़े दंगे प्रायोजित किए जा चुके हैं. खान-पान, रहन-सहन, प्रेम और मैत्री की आज़ादी पर प्रतिबन्ध लगाए जा रहे हैं. गुलाम अली के संगीत का कार्यक्रम आयोजित करना या पाकिस्तान के पूर्व विदेशमंत्री की पुस्तक का लोकार्पण आयोजित कराना भी अब खतरों से खेलना जैसा हो गया है. त्योहारों पर खुशी की जगह अब खौफ होता है कि न जाने कब, कहाँ क्या हो जाए. भारत एक भयानक अंधे दौर से गुज़र रहा है. अभिव्यक्ति ही नहीं, बल्कि जीने का अधिकार भी अब सुरक्षित नहीं.


आज़ाद भारत में पहली बार एक साथ इतनी तादाद में लेखकों-लेखिकाओं और कलाकारों ने सम्मान, पुरस्कार लौटा कर और पदों से इस्तीफा देकर 'सत्य से सत्ता के युद्ध' में अपना पक्ष घोषित किया है. यह परिघटना ऐतिहासिक महत्त्व की है क्योंकि सम्मान वापस करनेवाले लेखक और कलाकार दिल्ली, केरल, कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, उत्तराखंड, बंगाल, कश्मीर आदि तमाम प्रान्तों के हैं. वे कश्मीरी, हिन्दी, उर्दू, मलयालम, मराठी, कन्नड़, अंग्रेज़ी, बांगला आदि तमाम भारतीय भाषाओं के लेखक-लेखिकाएं हैं. उनका प्रतिवाद अखिल भारतीय है. उन्होंने अपने प्रतिवाद से एक बार फिर साबित किया है कि सांस्कृतिक बहुलता और सामाजिक समता और सदभाव, तर्कशीलता और विवेकवाद भारतीय साहित्य का प्राणतत्व है. रूढ़िवाद और यथास्थितिवाद का विरोध इसका अंग है. इन मूल्यों पर हमला भारतीयता की धारणा पर हमला है. हमारी आखों के सामने अगर एक पैशाचिक विनाशलीला चल रही है, तो उसका प्रतिरोध भी आकार ले रहा है. हमारे लेखक और कलाकार जिन्होंने यह कदम उठाया है, सिर्फ इन मूल्यों को बचाने की लड़ाई नहीं, बल्कि भविष्य के भारत और भारत के भविष्य की लड़ाई को छेड़ रहे हैं.
आइये, उनका साथ दें और इस मुहिम को तेज़ करें.


राजेन्द्र कुमार ( अध्यक्ष , जन संस्कृति मंच )
प्रणय कृष्ण (महासचिव,जन संस्कृति मंच)

Monday, September 28, 2015

आरा में कवि वीरेन डंगवाल को श्रद्धांजलि दी गई





नाउम्मीदी भरे समय में वीरेन को उम्मीद का कवि बताया साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों ने


मशहूर कवि वीरेन डंगवाल के निधन पर 28 सितंबर 2015 को आरा में भाकपा-माले जिला कार्यालय के परिसर में शहर के साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों ने एक श्रद्धांजलि सभा की। वीरेन डंगवाल जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष थे। पांच अगस्त 1947 को उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल में उनका जन्म हुआ था। बरेली के एक काॅलेज में वे हिंदी के प्रोफेसर थे। इसी दुनिया में, दुष्चक्र में स्रष्टा और स्याही ताल उनके प्रकाशित कविता संग्रह हैं। उन्होंने पाब्लो नेरूदा, नाजिम हिकमत और ब्रेख्त सरीखे महान क्रांतिकारी कवियों की रचनाओं का अनुवाद किया था। कैंसर की बीमारी से उन्होंने लंबा संघर्ष किया। अंततः आज सुबह चार बजे उनकी सांसें थम गईं। मृत्यु से एक सप्ताह पहले वे अपनी कर्मभूमि बरेली लौट आए थे। वीरेन डंगवाल को साहित्य अकादमी सम्मान (2004) समेत कई पुरस्कार और सम्मान मिले। उन्होंने कई यादगार संस्मरण भी लिखे। युवा रचनाकारों से उनकी बहुत गहरे आत्मीय रिश्ते थे। उनकी काव्य पंक्तियों पर पोस्टर भी खूब बनाए गए। उन्होंने अमर उजाला का संपादन किया और कई युवा पत्रकारों और रचनाकारों को प्रोत्साहित करने में अहम भूमिका निभाई।  
उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए जसम के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष वरिष्ठ आलोचक रामनिहाल गुंजन ने उन्हें आवेगमयी काव्यपरंपरा का कवि बताया। वीरेन डंगवाल की चर्चित कविता ‘राम सिंह’ के हवाले से हत्यारे शासकवर्ग पर निशाना साधते हुए उन्होंने कहा कि ‘वे माहिर लोग हैं राम सिंह/ वे हत्या को भी कला में बदल देते हैं।’ उन्होंने उनकी कविता की भाषा की खासियतों की चर्चा की तथा कहा कि वे सामान्य विषयों पर असाधारण कविता लिखने वाले कवि थे। वीरेन डंगवाल की ‘कवि’ शीर्षक कविता की पंक्तियां भी उन्होंने सुनाईं- मैं ग्रीष्म की तेजस्विता हूं/ और गुठली जैसा/ छिपा शरद का उष्म ताप/ मैं हूं वसंत में सुखद अकेलापन... 
कवि-आलोचक जितेंद्र कुमार ने कहा कि वीरेन डंगवाल की कविताओं को पढ़ते हुए यह अहसास होता है कि वे सामाजिक-परिवर्तन की चेतना के कवि हैं। उनकी कविताओं में जो सामान्य चीजें हैं, वे उपेक्षित जनता की प्रतीक भी हैं। उनकी कविताएं सामान्य लोगों के भीतर की रचनाशीलता को उजागर करती हैं, जिनके बगैर यह दुनिया पूरी नहीं होती। जितेंद्र कुमार ने वीरेन डंगवाल की कविता ‘दुष्चक्र में स्रष्टा’ की पंक्तियों के हवाले से उनकी वैचारिक दृष्टि को रेखांकित किया। 
प्रलेस, बिहार के महासचिव रवींद्रनाथ राय ने कहा कि वीरेन डंगवाल की कविताएं बताती हैं कि जीवन में जो साधारण और सहज है, वही महत्वपूर्ण है। उन्होंने उनकी कविता ‘परंपरा’ का पाठ भी किया। 
जसम, बिहार के अध्यक्ष सुरेश कांटक ने कहा कि वीरेन डंगवाल का जाना एक सदमे की तरह है। उनकी कविताएं अंधेरे में रोशनी दिखाती हैं। उन्होंने वैसी चीजों पर लिखा, जो आम आदमी की जिंदगी से जुड़ी होती हैं। जनपथ संपादक अनंत कुमार सिंह ने कहा कि जनपक्षधर रचनाकारों के लिए वे हमेशा अनुकरणीय रहेंगे। युवा कवि सुमन कुमार सिंह ने कहा कि उनकी कविताओं में हमारी पीढ़ी को अपनी अभिव्यक्ति मिली और हमने उनके जरिए अपने समय को अच्छी तरह समझा। उन्होंने उनकी कविता 'हमारा समाज' का पाठ किया। कवि ओमप्रकाश मिश्र ने कहा कि वीरेन डंगवाल की कविताओं में एक अनोखापन है, जो उन्हें अन्य कवियों से अलग करता है। वे छोटे-मोटे प्रसंगों पर बड़ी कविताएं लिखने वाले कवि हैं। कवि सुनील चौधरी ने कहा कि वीरेन डंगवाल में कविता, जीवन और जनता के प्रति गहरी प्रतिबद्धता नजर आती है। उनकी कविता में बेघर, बेदाना, बेपानी, बिना काम के लोगों के क्षुब्ध हाहाकार के संदर्भ में कही गई पंक्ति ‘घनीभूत और सुसंगठित होनी है उनकी वेदना अभी’ को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा कि यही वेदना बदलाव का हथियार बनती है और इसी से बदलाव की जिजीविषा पैदा होती है।
चित्रकार राकेश दिवाकर ने वीरेन डंगवाल को आज के नाउम्मीदी भरे समय में उम्मीद का कवि बताते हुए कहा कि पाश और गोरख पांडेय के बाद वही ऐसे कवि हैं, जिनकी कविताओं में हमारे भावों की अभिव्यक्ति मिली, इसी कारण उनकी कविताओं के पोस्टर भी अधिक बनाए गए। माले नेता सत्यदेव ने कहा कि उनकी कविताएं सामाजिक-बदलाव में लगे लोगों को संघर्ष की ताकत प्रदान करती हैं। माले नेता जितेंद्र कुमार सिंह ने वीरेन डंगवाल को जनता की लड़ाइयों का सहयोद्धा रचनाकार बताया। 
संचालन जसम राज्य सचिव सुधीर सुमन ने किया। 
जनवादी लेखक संघ के नगर सचिव रविशंकर सिंह और आशुतोष कुमार पांडेय ने भी वीरेन डंगवाल को श्रद्धांजलि दी। इस मौके पर दिलराज प्रीतम, मिथिलेश कुमार, राजनाथ राम आदि भी मौजूद थे।

Monday, September 14, 2015

बिहार में वामपंथी विकल्प


लेखकों, संस्कृतिकर्मियों, बुद्धिजीवियों का कन्वेंशन संपन्न

वामपंथी दलों के उम्मीदवारों के समर्थन की अपील 

‘‘जिस नवउदारवादी अर्थनीति पर इस देश की सरकारें चल रही हैं, उसी के भीतर फासिज्म, सांप्रदायिकता, हिंसा और बर्बरता के बीज मौजूद हैं। मोदी की सरकार इस अर्थनीति को और भी आक्रामकता से लागू कर रही है। वैसे भी भारतीय राजसत्ता के भीतर पहले से फासिस्ट रूझान रहा है। नरेंद्र मोदी एक निरंतरता की उपज हैं। इसीलिए वामपंथ ने मोदी के प्रधानमंत्री बनने को सामान्य परिघटना नहीं माना। फासिज्म से लड़ने की क्षमता लालू, नीतीश या सपा, बसपा में नहीं है। वक्त ने वामपंथ के कंधे पर फासिज्म के खिलाफ संघर्ष कीऐतिहासिक जिम्मेवारी दी है। इस जिम्मेवारी ने ही वामपंथी दलों की एकजुटता को संभव बनाया है। इस एकजुटता के भीतर वामपंथियों की भविष्य की मजबूत एकता के बीज मौजूद हैं।’’ प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा और पैगाम कल्चरल सोसाइटी की ओर से 13 सितंबर 2015 को माध्यमिक शिक्षक संघ भवन के सभागार में आयोजित लेखक, संस्कृतिकर्मियों और बुद्धिजीवियों के कन्वेंशन ‘बिहार में वामपंथी विकल्प’ को संबोधित करते हुए समकालीन जनमत के प्रधान संपादक रामजी राय ने ये बातें कहीं। 

प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय समिति के सदस्य प्रसिद्ध आलोचक खगेंद्र ठाकुर ने कहा कि वामपंथ ने इस देश में अपने संघर्षों के जरिए भूमि सुधार कानून, बंटाईदारी कानून समेत कई जनपक्षीय कानूनों को बनाने में अपनी ऐतिहासिक भूमिका अदा की है। वामपंथी दलों की एकता एक ऐतिहासिक घटना है, इससे वामपंथी कार्यकताओं में काफी उत्साह नजर आ रहा है। उन्होंने साहित्यकारों से अपील की, कि वे राजनीतिक विषयों पर भी लेख लिखें। उन्होंने अपेक्षा जाहिर की, कि वे वामपंथ के पक्ष में भी लेख लिखेंगे।

जनवादी लेखक संघ, बिहार के राज्य अध्यक्ष प्रो. नीरज सिंह ने कहा कि इस चिरप्रतीक्षित घड़ी का बहुत दिनों से इंतजार था। इस देश में तो लेखक प्रायः वामपंथी ही रहे हैं। वामपंथी दलों की एकता न होने से सबसे ज्यादा चिंता उन्हें ही होती थी। इसी कारण चुनाव के वक्त लेखक अक्सर धर्मसंकट में पड़ जाते थे, पर इस बार कोई धर्मसंकट नहीं है। वामपंथी दलों की एकजुटता से लेखक बहुत उत्साहित हैं। 

प्रलेस के राज्य सचिव प्रो. रवींद्रनाथ राय ने कहा कि लेखक-संस्कृतिकर्मियों की एकता सिर्फ चुनाव के लिए नहीं बनी है। हमें जनांदोलनों के करीब होना जाना होगा, विकल्प बिना संघर्ष के नहीं पैदा हो सकता। जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा के राज्य महासचिव अशोक मिश्रा ने कहा कि बिहार में सरकार किसी की बने, लेखक, संस्कृतिकर्मियों और बुद्धिजीवियों का एकताबद्ध संघर्ष जारी रहेगा। पैगाम कल्चरल सोसाइटी के मणिकांत पाठक ने वामपंथी कार्यकर्ताओं की उन्नत रुचि, उन्नत नैतिकता और ईमानदारी की चर्चा की।

उपरोक्त वक्ताओं ने संयुक्त रूप से कन्वेंशन की अध्यक्षता की। संचालन जन संस्कृति मंच के राज्य सचिव सुधीर सुमन ने किया।

इस मौके पर वरिष्ठ कवि अरुण कमल ने पूंजीवाद के संकट और दुनिया कई हिस्सों में वामंपथ के उभार की चर्चा करते हुए मशहूर रूसी कवि मायोकोवोस्की के हवाले से कहा- समय अश्व को मोड़ो, बायें, बायें, बायें। उन्होंने कहा कि वामपंथी दलों के बीच जो एकजुटता बनी है, उससे जनता के बीच यह बात जाएगी कि वामपंथ ही असली विकल्प है। 

वरिष्ठ आलोचक प्रो. तरुण कुमार ने कहा कि देश की बहुत बड़ी आबादी को भय की मानसिकता में धकेला जा रहा है। यूआर अनंतमूर्ति के देहांत के बाद यहां जश्न मनाया गया। ऐसी अमानुषिकता बेहद चिंतित करने वाली बात है। एक समुदाय पर आबादी बढ़ाने का आरोप लगाकर उन्हंे दंडित करने को कहा जा रहा है। जैनियों और ईसाईयों को भी प्रताड़ित किया जा रहा है। ऐसे माहौल में लोकतंत्र, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के मूल्यांे के लिए वामपंथी दलों का एक होना बहुत उम्मीद बंधाता है। इस चीज की लंबे समय से प्रतीक्षा थी। 

चर्चित आलोचक कर्मेंदु शिशिर ने कहा कि अभी का समय जिस रूप में है, वैसा पहले कभी नहीं था। आज का पूंजीवादी क्लासिक पूंजीवाद नहीं है। तकनीक और प्रबंधन ने उसे बदल दिया है। उसे प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा चाहिए। वह खतरनाक इच्छाओं के साथ विकसित हो रहा है। कांग्रेस और भाजपा उसी पूंजीवादी शासकवर्ग के चाकर हैं। भाजपा भारत की बुनियाद और जनता द्वारा सदियों में गढ़े गए मानवीय मूल्यों पर हमला कर रही है, उसका मजबूत प्रतिकार जरूरी है। 

शिक्षाविद् मो. गालिब ने कहा कि एक ख्वाब जो तामिर ले रहा है, वह रंग दिखलाएगा, इसका पूरा यकीन है। पत्रकार कमलेश ने कहा कि नीतीश कुमार का शासन दमन के मामले में भाजपा की सरकारों से कतई भिन्न नहीं है। अगर नीतीश दुबारा शासन में आए, तो दमन और बढ़ेगा। एक सर्वेक्षण का हवाला देते हुए उन्होंने बताया कि बिहार के पंद्रह जिलों में वामपंथ की मजबूत दावेदारी होगी। 12 जिलों में वे चुनाव को दो धु्रवीय नहीं रहने देंगे। 

डाॅ. पीएनपी पाल ने इस पर सवाल उठाया कि कभी वामपंथ की विकल्प पेश करने की जो स्थिति थी, वह क्यों खत्म हो गई। वह सिकुड़ते-सिकुड़ते हाशिये पर क्यों चला गया, इस पर गंभीरता से सोचना होगा। भारत की जनता अब भी बेहतर विकल्प चाहती है। वामपंथ को वह विकल्प बनने की कोशिश करनी चाहिए। 

कवि तैयब हुसैन, कोआॅर्डिनेशन फाॅर यूनियन एंड एसोसिएशन, बिहार के संयोजक मंजुल कुमार दास, चर्चित अधिवक्ता उमाकांत शुक्ल, मदरसा शिक्षक संघ के महासचिव सैयद मोहीबुल हक, कहानीकार अनंत कुमार सिंह, भोजपुरी साहित्य के विद्वान नागेंद्र प्रसाद सिंह, चर्चित मगही कवि घमंडी राम, बांग्ला कवि विद्युत पाल आदि ने भी कन्वेंशन को संबोधित किया। 

कन्वेंशन की शुरुआत पावेल अग्निदीक्षा के द्वारा जनगीत के गायन से हुई। उसके बाद जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा के राज्य अध्यक्ष हसन इमाम ने कन्वेंशन का दृष्टिपत्र रखा, जिसे मौजूद लोगों ने ध्वनिमत से पारित किया। इस कन्वेंशन में मौजूद हस्तियों में कथाकार संतोष दीक्षित, कवयित्री साजीना, सीमा रानी, प्रतिभा वर्मा, शायर संजय कुमार कुंदन, जसम के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य संतोष सहर, हिरावल के संयोजक संतोष झा, कुमार परवेज, संस्कृतिकर्मी अमरेंद्र कुमार, रासराज, मृत्युंजय कुमार, अरविंद कुमार, अभिनव, प्रीति प्रभा, समता राय, दीपनारायण शर्मा, दीपक, बैंक इम्पलाइज फेडरेशन के उमेश कुमार, पसमांदा मुस्लिम महाज के मो. हसनैन, सचिवालय सेवा संघ के नवल किशोर सिंह, खेत मजदूर यूनियन के सुरेंद्र सिंह, जेवियर इंस्टीट्यूट आॅफ सोशल रिसर्च पटना के निदेशक डाॅ. जोस कलापुरा, पीसीएल के किशोर जी, सीटू के अरुण मिश्रा, एआईएसएफ के अंकित कुमार, आइसा के कुणाल किशोर, निखिल, बंटी झा, सुधीर, संतोष आर्या, प्राची राज, बागडोर के संतोष यादव, छात्र समागम के मनीष यादव आदि भी मौजूद थे। 

इस कन्वेंशन ने आगामी विधानसभा चुनाव में वामपंथी पार्टियों के उम्मीदवारों के समर्थन की अपील के प्रस्ताव को पारित किया। इस अपील का पाठ जलेस के राज्य सचिव विनीताभ ने किया। 

प्रसिद्ध रंगकर्मी मलय श्री हाशमी, अर्थशास्त्री नवल किशोर चैधरी, नटमंडप के जावेद अख्तर खान ने भी इस कन्वेंशन के प्रति अपनी एकजुटता का इजहार किया। 

इस मौके पर कन्वेंशन से प्रसिद्ध मार्क्सवादी शिक्षक का. विष्णुदेव सिंह के निधन पर शोक जाहिर किया गया। कन्वेंशन ने प्रख्यात मानवाधिकार कार्यकर्ता जाॅन दयाल को दक्षिणपंथी ताकतों द्वारा सोशल साइट पर धमकी देने और गालीगलौज करने की तीखी भर्त्सना की। 

धन्यवाद ज्ञापन प्रलेस के सुमंत जी ने किया। 

Friday, July 24, 2015

आखिरी दौर की डायरी और एक कहानी

मधुकर सिंह 




15 जुलाई 2015 को कथाकार मधुकर सिंह की पहली बरसी थी। अपने आखिरी दिनों में उन्होंने अपनी डायरी में राजनीति, खेल, फिल्म आदि पर कुछ टिप्पणियां और साहित्य-संस्कृति से जुड़ी यादों के साथ-साथ कुछ छोटी कहानियां भी लिखी हैं। पेश है उन टिप्पणियों और यादों के कुछ अंश और उनकी एक छोटी कहानी- 'लाश', जो समकालीन जनमत के जुलाई अंक में प्रकाशित  हैं। टिप्पणियों के नीचे उन्होंने आमतौर पर तारीख नहीं लिखी है, लेकिन इनको पढ़ते हुए पता चल जाता है कि ये प्रायः 2013-14 के बीच लिखी गई हैं। कहानी  भी इसी दौर की है। इस कहानी को पढते हुए कमलेश्वर की 'लाश' कहानी की याद आ सकती है। लाश दोनों कहानी में है। लेकिन फर्क यह है कि कमलेश्वर की कहानी में जहां मुख्यमंत्री एक पात्र है वहीँ मधुकर जी की कहानी में प्रधानमंत्री पात्र है।
कमलेश्वर की कहानी में मुख्यमंत्री के विरोध में प्रदर्शन का नेतृत्व करने वाले व्यक्ति की एक पहचान है। पर मधुकर  जी की कहानी में जनता खुद जगह जगह महंगाई, बेकारी और भ्रष्टाचार के खिलाफ  सड़कों पर उतर आयी है। वह संसद में इन सवालों पर बहस चाहती है। प्रधानमंत्री कहता है- 'जनता बेमतलब पागल हो गयी है। विपक्ष ने उसे बहका दिया है।' इसी बीच प्रधानमंत्री की हत्या की खबर आती है। प्रधानमंत्री  आपातकाल लागू करने के लिए विधेयक लाना चाहता है। वह अपनी हत्या की खबर सुनकर लाश को देखने जाता है। वह कहता है कि लाश उसकी नहीं, विपक्षी नेता की है। जबकि विपक्षी नेता का कहना है कि वह लाश प्रधानमंत्री की ही है। कमलेश्वर की कहानी में  प्रदर्शन पर हमला होता है. हादसे में एक लाश गिरती है. जिसे पुलिस का मानना है कि लाश  प्रदर्शन  का नेतृत्व करने वाले  कांतिलाल की है, जबकि कांतिलाल कहता है कि लाश मुख्यमंत्री की हैआखिर में मुख्यमंत्री आता है और लाश को गौर से देखते हुए कहता है - 'यह मेरी नहीं  है। लेकिन मधुकर जी की कहानी में संसद में भी पक्ष-विपक्ष  उस लाश को एक दूसरे  की लाश  बताने लगते हैंअंततः आपातकाल लागू हो जाता है। लाश से बदबू आने लगती है। महामारी का अंदेशा है। कहानी के अंत में जनता  चीख पड़ती है कि लाश उन दोनों की है, यानी प्रधानमंत्री और विपक्ष दोनों की। शायद यह लाश मोदी के दौर के शासकवर्गीय राजनीतिक पक्ष-विपक्ष और उसके प्रति जनता के भीतर बढती नफरत को  स्पष्ट करने में ज्यादा सक्षम है






प्रेमचंद ने मुझे सीधे रास्ते पर ला दिया

लिखते-लिखते मुझे नींद आ गई थी। रात के दो बज रहे थे। किसी ने मेरे गाल पर तमाचा जड़ा। मैं अचकचाया। आंखें मलता हुआ उठकर बैठ गया। आंखें खोली तो सामने कथा-सम्राट प्रेमचंद खड़े थे। उन्होंने पूछा- ‘‘क्या लिख रहे हो, मेरे कथाकार?’’
मैंने कहा, ‘‘गोदान की तरह का उपन्यास लिख रहा हूं।’’
उन्होंने मुझे डांटा, ‘‘चुप? तुम्हारे होरी, झुनिया, गोबर, मेहता इनके आगे के होंगे। नागार्जुन का ‘बलचनवा’ होरी के आगे का नायक है जो किसान-मजदूर के हक की लड़ाई लड़ता है। तुम्हारा नायक कौन है? तुम तो किसान-मजदूर के कहानीकार हो। मार्कंडेय से आगे हो। तुम ‘बीच के लोग’ नहीं लिखते। तुम्हारे पात्र सीधे लड़ाई में है।’’ 
प्रेमचंद जी ने मुझे मेरे सीधे रास्ते पर ला दिया।...
उर्दू में प्रगतिशीलों की जमात कृश्नचंदर, उनकी पत्नी सलमा सिद्दीकी, ख्वाजा अहमद अब्बास, राजेंद्र सिंह बेदी आदि ने अच्छी कहानियां लिखीं। प्रेमचंद इनके आदर्श थे। बाकी उर्दू के युवा कहानीकार जदीदियत (आधुनिकता) के चक्कर में प्रेमचंद को इग्नोर कर रहे थे। हिंदी के गुमराह कहानीकार भी प्रेमचंद से कटकर अपनी राह चल रहे थे।...


लेखक अपने पात्रों के साथ जीता है

एक लेखक का अस्तित्व उसके लिखने के लिए है। वह लिखता है इसलिए जिंदा है। मैं जीने के लिए लिखता हूं। एक लेखक की राजनीतिक चेतना एक राजनेता से अधिक तीव्र होती है। जिसके लिए लिखता है उससे जुड़ा रहता है, जबकि राजनेता को अपने वोटर की पहचान नहीं होती है। वह सत्ता के लिए क्षेत्र बदल लेता है। लेखक अपने पात्रों के साथ जीता है। राजनेता अपने लोगों को छोड़ देता है।


युवानीति की पहली प्रस्तुति और अन्य आयोजनों की याद

श्रीकांत, अजय अपने पिता जी के साथ आए थे। श्रीकांत ने कहा कि मधुकर सिंह को पढ़ते हुए हम सयाने हुए हैं। इनकी कहानी ‘दुश्मन’ का मैंने, सिरिल मैथ्यू, नवेंदु, रामेश्वर उपाध्याय ने नाट्य-रूपांतर कर जवाहरटोला के मुसहरटोली में मंचन किया। मुसहरटोली खचाखच भरा था। समता का सामाजिक माहौल बन गया था। 
चित्रकार राकेश दिवाकर द्वारा बनाया गया एक स्केच 
बीस साल पहले मैंने राजगीर में समांतर सम्मेलन कराया था। कमलेश्वर, आबिद सुरती, बाबू राव बागुल समेत कई भाषाओं के लेखक आए थे।...
सन् 2007 में कथा सृजनोत्सव के आयोजन का कुछ छुटभइये विरोध कर रहे थे। कमलेश्वर की हर्टसर्जरी हुई थी। उन्होंने कहीं जाने से मना कर दिया था। मैं नर्वस था। सौभाग्य से कमलेश्वर ने अपना लिखित वक्तव्य भेज दिया था। रामजी राय, सुधीर सुमन, सलिल सुधाकर ने आयोजन को संभाल लिया था। जलनेवाले जलते रहे। 





क्रिकेट समझने लगा हूं


पाकिस्तान के रमीज रजा, भारत के सौरभ गांगुली, रवि शास्त्री ऐसी कमेंटरी करते हैं कि इनकी बात दर्शक को समझ में आती है, परंतु राजनेता की बात समझ में नहीं आती है। ये बड़े-बड़े वायदे करते हैं कि इनकी सरकार बनी तो हर परिवार को रोजगार देंगे, पर ऐसा होता नहीं। खिलाडि़यों में आपस में जलन नहीं होती। स्पर्द्धा होती है। राजनेता खेल भावना नहीं रखते।...
बचपन में मैं क्रिकेट का नाम नहीं जानता था। गांव में और स्कूल में फुटबाल जानता था। अखबार में पढ़कर और टीवी में देखकर क्रिकेट में मेरी रुचि जगी। मैं बचपन में कबड्डी-चीका खेलता था। इधर क्रिकेट समझने लगा हूं।


फिल्म देखने की आदत

फिल्म देखने की आदत स्कूल के दिनों से थी। अस्पताल के एक ड्रेसर मेरे मित्र थे। हमदोनों टिकट कटाकर हाॅल में घुस जाते थे। उन दिनों राज कपूर, दिलीप कुमार, सायरा बानो- हमारे चहेते कलाकार थे। राजकपूर की फिल्में- ‘आवारा’, ‘अनाड़ी’, ‘श्री चार सौ बीस’, ‘मेरा नाम जोकर’, आज भी बार-बार देखता हूं। शांताराम की ‘डाॅ. कोटनिस की अमर कहानी’ और ‘झनक झनक पायल बाजे’ को आज भी भूल नहीं पाता हूं। पृथ्वीराज कपूर, सोहराब मोदी, बनमाला, मेहताब अपने समय के महत्वपूर्ण कलाकार थे। इनकी फिल्में यादगार हैं। इन्हीं फिल्मों ने फिल्मों के प्रति मेरी रुचि जगाई। 


चुनाव और राजनीतिक अवसरवाद

चुनाव में नेताओं के अपने पराये हो गए हैं। कोई भी किसी नेता का दामन थामने को तैयार बैठा है। चुनाव में सारे रिश्ते राजनेता भूल जाते हैं। जगजीवन राम की पौत्री माधव कीर्ति मीरा कुमार के खिलाफ चुनाव लड़ रही है। आडवाणी गुजरात गांधी नगर से चुनाव लड़ रहे हैं। रामकृपाल बीजेपी से चुनाव लड़ रहे हैं। किसी को किसी पार्टी से परहेज नहीं है। पार्टी का महत्व नहीं रह गया है। जिस पार्टी का लंबा हाथ हो, उसे थाम लो, विजय तुम्हारी है! पार्टी की पहचान खो गई है। पार्टी चाहे जो हो, हमें तो जीत चाहिए। जिसकी सरकार होगी, उसमें हम होंगे। हमारी सरकार होगी। सत्ता में हम रहेंगे। सत्ता की जय हो। 
चिराग पासवान का फ्लैट पचास लाख का है। सासाराम से एक ही पार्टी के तीन उम्मीदवार मैदान में हैं, जो जिसे पटक दे। दुर्भाग्य जगजीवन राम की पौत्री माधव कीर्ति, जो उनके बेटे सुरेश राम की बेटी हैं, का नामांकन रद्द हो गया। 
लालू जी को खुशफहमी है कि तीसरी बार भी कांग्रेस की सरकार बनेगी। बिहार में जाति आधारित टिकट का बंटवारा हुआ है। जद-यू ने छह, भाजपा ने चार तथा राजद ने तीन अति पिछड़े को टिकट दिया है। एन.के.सिंह और शिवानंद तिवारी ने अभी तक किसी पार्टी का दामन नहीं पकड़ा है। लेकिन सभी पार्टियों में खेल चल रहा है। प्रख्यात पत्रकार एम.जे. अकबर भाजपा में शामिल हो गए हैं। इस तरह आवाजाही चल रही है। 
माले का जबरजोत नारा है- बदलो नीति, बदलो राज, संसद में जनता की आवाज। भाजपा का एक ही नारा है- अबकी बार मोदी सरकार। जद-यू नारा गीत की तरह गुनगुना रहा है- ‘नीतीश का विकास बिहार का विकास है।’ 
दूसरी पार्टी का नेता दल बदलते ही चरित्रवान हो गया है, उसे मनचाहा जगह से टिकट मिल गया है। कुछ इस तरीके के विरोधी हैं। भाजपा के जसवंत सिंह कहते हैं- मैं कुर्सी-टेबुल नहीं हूं जो एडजस्ट हो जाऊंगा। जसवंत सिंह ने निर्दलीय पर्चा भरा।


नेहरू और उनके बाद की राजनीति

जवाहरलाल नेहरू ने अपने समय में कुछ आदर्श रखे थे। कल-कारखानों का निर्माण, नेशनल बुक ट्रस्ट और साहित्य अकादमी का निर्माण उनके रचनात्मक मानस का परिचायक था। उन्होंने कांग्रेस पार्टी में एक परिपाटी चलाई। डाॅ. राममनोहर लोहिया ने उनकी बराबर आलोचना की, किंतु नेहरू जी ने उनके खिलाफ कांग्रेस का उम्मीदवार चुनाव में कभी खड़ा नहीं किया। उनके बाद कांग्रेस ने यह परंपरा तोड़ दी। नेहरू जी के स्वभाव मेें लोकतंत्र का सुविचार था। उनके बाद ये सुविचार खत्म है। राजनीति स्वार्थपरक होती गई है। पार्टियां एक-दूसरे को ललकार रही हैं। 


एक कहानी 

लाश
महंगाई और भ्रष्टाचार से जनता त्रस्त है। चारों तरफ जनता का हंगामा है। अशांति और विरोध है। लोग जगह-जगह प्रधानमंत्री का पुतला-दहन कर रहे हैं। भूखे-नंगों की टोलियां पागल हो गई हैं। प्रधानमंत्री का बयान मीडिया में आता है- मेरे खिलाफ मेरे विरोधियों की साजिश चल रही है। इनके पास कोई मुद्दा नहीं रह गया है। इनके साथ सरकार सख्ती से पेश आएगी। जमाखोरों, कालाबाजारियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई शुरू हो चुकी है। महंगाई-भ्रष्टाचार कहां नहीं है? हमारे यहां कम है। अमरीका-चीन में हमसे ज्यादा है। हर जगह है। हम विदेशी बैंकों से सबके खाता जमाकर सरकारी खजाने में डाल देंगे। किसके पास कितना काला धन है, इसका खुलासा अपने आप हो जाएगा। जनता बेमतलब पागल हो गई है। विपक्ष ने उसे बहका दिया है। जनता पागल हो गई है। प्रधानमंत्री की कुर्सी अडिग है। भूकंप आ जाए तो बात दूसरी है। प्रधानमंत्री हिले तो जनता भी धराशायी हो जाएगी। 
जनता सड़कों पर उतर आई है। महंगाई, बेकारी और भ्रष्टाचार के मूल पर वार कर रही है। संसद में इन सवालों पर बहस चाहती है। सड़क से संसद तक हिल रहा है। इतने में मीडिया की खबर आती है कि प्रधानमंत्री की हत्या हो चुकी है। 
प्रधानमंत्री आपातकाल लागू करने का विधेयक लाना चाहते हैं। विरोधी दल इसका विरोध कर रहे हैं। सड़क से संसद तक शोर थम नहीं रहा है। बढ़ता ही जा रहा है। 
प्रधानमंत्री राजधानी से उड़े और अपनी हत्या का मुआयना करने घटना-स्थल पर पहुंच गए। उन्होंने बड़े गौर से अपनी लाश को देखा। वे मुस्कुराते हुए बोले- ‘‘नहीं, नहीं। यह लाश मेरी नहीं है। यह लाश तो विपक्षी दल के नेता की है। मैं जिंदा हूं। मेरी प्यारी जनता, मैं जिंदा हूं।’’
संसद हक्का-बक्का थी। संसद से सड़क तक हंगामा लौट आया था। विपक्ष सकते में था। विपक्षी नेता, अपनी लाश पहचानने घटना-स्थल पर रवाना हुए। उन्होंने लाश को चारों तरफ से देखा। कहा, ‘‘यह लाश मैं कतई नहीं हूं। प्रधानमंत्री खुद को मुझे बता रहे हैं।’’
विपक्ष ने संसद चलने नहीं दी। बहस दूसरी दिशा में बदल चुकी थी। 
‘‘तुम्हारी लाश है।’’
‘‘मेरी नहीं, तुम्हारी’’
‘‘तुम्हारी’’
‘‘तुम झूठे हो।’’
‘‘हम नहीं, तुम हो।’’
दोपहर तक ऐसा ही चलता रहा। 
अध्यक्ष ने उस दिन के लिए संसद स्थगित कर दी। सरकार आपातकाल की मुद्रा में आ गई। 
पुलिस ने लाश से घेराबंदी उठा ली थी। नाक पर रूमाल रखकर लोग आ-जा रहे थे। 
देश में आपातकाल लागू कर दिया गया था। कई दिनों से पड़ी लाश से बदबू आ रही थी। महामारी फैलने का अंदेशा था। नगर निगम की गाड़ी उस बदबूदार लाश को उठाने के लिए अभी तक नहीं आई थी। जनता की परेशानी बढ़ती जा रही थी। वह चीख पड़ी- यह तुम दोनों की मिली-जुली लाश है, तुम दोनों की।

Saturday, July 18, 2015

ईदगाह

प्रेमचंद 

रमजान के पूरे तीस रोजों के बाद ईद आयी है। कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभाव है। वृक्षों पर अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है। आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल है, यानी संसार को ईद की बधाई दे रहा है। गाँव में कितनी हलचल है। ईदगाह जाने की तैयारियाँ हो रही हैं। किसी के कुरते में बटन नहीं है, पड़ोस के घर में सुई-धागा लेने दौड़ा जा रहा है। किसी के जूते कड़े हो गए हैं, उनमें तेल डालने के लिए तेली के घर पर भागा जाता है। जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें। ईदगाह से लौटते-लौटते दोपहर हो जायगी। तीन कोस का पैदल रास्ता, फिर सैकड़ों आदमियों से मिलना-भेंटना, दोपहर के पहले लौटना असम्भव है। लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्न हैं। किसी ने एक रोजा रखा है, वह भी दोपहर तक, किसी ने वह भी नहीं, लेकिन ईदगाह जाने की खुशी उनके हिस्से की चीज है। रोजे बड़े-बूढ़ों के लिए होंगे। इनके लिए तो ईद है। रोज ईद का नाम रटते थे, आज वह आ गयी। अब जल्दी पड़ी है कि लोग ईदगाह क्यों नहीं चलते। इन्हें गृहस्थी की चिंताओं से क्या प्रयोजन! सेवैयों के लिए दूध ओर शक्कर घर में है या नहीं, इनकी बला से, ये तो सेवेयाँ खायेंगे। वह क्या जानें कि अब्बाजान क्यों बदहवास चौधरी कायमअली के घर दौड़े जा रहे हैं। उन्हें क्या खबर कि चौधरी आँखें बदल लें, तो यह सारी ईद मुहर्रम हो जाय। उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर का धन भरा हुआ है। बार-बार जेब से अपना खजाना निकालकर गिनते हैं और खुश होकर फिर रख लेते हैं। महमूद गिनता है, एक-दो, दस,-बारह, उसके पास बारह पैसे हैं। मोहसिन के पास एक, दो, तीन, आठ, नौ, पंद्रह पैसे हैं। इन्हीं अनगिनती पैसों में अनगिनती चीजें लायेंगें— खिलौने, मिठाइयाँ, बिगुल, गेंद और जाने क्या-क्या। और सबसे ज्यादा प्रसन्न है हामिद। वह चार-पाँच साल का गरीब- सूरत, दुबला-पतला लड़का, जिसका बाप गत वर्ष हैजे की भेंट हो गया और माँ न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गयी। किसी को पता क्या बीमारी है। कहती तो कौन सुनने वाला था? दिल पर जो कुछ बीतती थी, वह दिल में ही सहती थी ओर जब न सहा गया तो संसार से विदा हो गयी। अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है और उतना ही प्रसन्न है। उसके अब्बाजान रूपये कमाने गए हैं। बहुत-सी थैलियाँ लेकर आयेंगे। अम्मीजान अल्लाह मियाँ के घर से उसके लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीजें लाने गयी हैं, इसलिए हामिद प्रसन्न है। आशा तो बड़ी चीज है, और फिर बच्चों की आशा! उनकी कल्पना तो राई का पर्वत बना लेती है। हामिद के पाँव में जूते नहीं हैं, सिर पर एक पुरानी-धुरानी टोपी है, जिसका गोटा काला पड़ गया है, फिर भी वह प्रसन्न है। जब उसके अब्बाजान थैलियाँ और अम्मीजान नियामतें लेकर आयेंगी, तो वह दिल से अरमान निकाल लेगा। तब देखेगा, मोहसिन, नूरे और सम्मी कहाँ से उतने पैसे निकालेंगे। अभागिन अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है। आज ईद का दिन, उसके घर में दाना नहीं! आज आबिद होता, तो क्या इसी तरह ईद आती ओर चली जाती! इस अंधकार और निराशा में वह डूबी जा रही है। किसने बुलाया था इस निगोड़ी ईद को? इस घर में उसका काम नहीं, लेकिन हामिद! उसे किसी के मरने-जीने से क्या मतलब? उसके अन्दर प्रकाश है, बाहर आशा। विपत्ति अपना सारा दल-बल लेकर आये, हामिद की आनंद-भरी चितवन उसका विध्वंस कर देगी।

हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है— तुम डरना नहीं अम्माँ, मैं सबसे पहले आऊँगा। बिल्कुल न डरना।

अमीना का दिल कचोट रहा है। गाँव के बच्चे अपने-अपने बाप के साथ जा रहे हैं। हामिद का बाप अमीना के सिवा और कौन है! उसे कैसे अकेले मेले जाने दे? उस भीड़-भाड़ से बच्चा कहीं खो जाय तो क्या हो? नहीं, अमीना उसे यों न जाने देगी। नन्ही-सी जान! तीन कोस चलेगा कैसे? पैर में छाले पड़ जायेंगे। जूते भी तो नहीं हैं। वह थोड़ी-थोड़ी दूर पर उसे गोद में ले लेती, लेकिन यहाँ सेवैयाँ कौन पकायेगा? पैसे होते तो लौटते-लौटते सब सामग्री जमा करके चटपट बना लेती। यहाँ तो घंटों चीजें जमा करते लगेंगे। माँगे का ही तो भरोसा ठहरा। उस दिन फहीमन के कपड़े सिले थे। आठ आने पैसे मिले थे। उस अठन्नी को ईमान की तरह बचाती चली आती थी इसी ईद के लिए लेकिन कल ग्वालन सिर पर सवार हो गयी तो क्या करती? हामिद के लिए कुछ नहीं है, तो दो पैसे का दूध तो चाहिए ही। अब तो कुल दो आने पैसे बच रहे हैं। तीन पैसे हामिद की जेब में, पाँच अमीना के बटवे में। यही तो बिसात है और ईद का त्यौहार, अल्लाह ही बेड़ा पार लगावे। धोबन और नाइन ओर मेहतरानी और चुड़िहारिन सभी तो आयेंगी। सभी को सेवैयाँ चाहिए और थोड़ा किसी को आँखों नहीं लगता। किस-किस सें मुँह चुरायेगी? और मुँह क्यों चुराये? साल भर का त्यौहार है। ज़िंदगी ख़ैरियत से रहे, उनकी तकदीर भी तो उसी के साथ है। बच्चे को खुदा सलामत रखे, यें दिन भी कट जायँगे।

गाँव से मेला चला। और बच्चों के साथ हामिद भी जा रहा था। कभी सबके सब दौड़कर आगे निकल जाते। फिर किसी पेड़ के नीचे खड़े होकर साथ वालों का इंतज़ार करते। यह लोग क्यों इतना धीरे-धीरे चल रहे हैं? हामिद के पैरो में तो जैसे पर लग गए हैं। वह कभी थक सकता है? शहर का दामन आ गया। सड़क के दोनों ओर अमीरों के बगीचे हैं। पक्की चारदीवारी बनी हुई है। पेड़ो में आम और लीचियाँ लगी हुई हैं। कभी-कभी कोई लड़का कंकड़ी उठाकर आम पर निशान लगाता है। माली अंदर से गाली देता हुआ निकलता है। लड़के वहाँ से एक फर्लांग पर हैं। खूब हँस रहे हैं। माली को कैसा उल्लू बनाया है।

बड़ी-बड़ी इमारतें आने लगीं। यह अदालत है, यह कालेज है, यह क्लब- घर है। इतने बड़े कालेज में कितने लड़के पढ़ते होंगे? सब लड़के नहीं हैं जी! बड़े-बड़े आदमी हैं, सच! उनकी बड़ी-बड़ी मूँछे हैं। इतने बड़े हो गए, अभी तक पढ़ने जाते हैं। न जाने कब तक पढ़ेंगे और क्या करेंगे इतना पढ़कर! हामिद के मदरसे में दो-तीन बड़े-बड़े लड़के हैं, बिल्कुल तीन कौड़ी के। रोज मार खाते हैं, काम से जी चुराने वाले। इस जगह भी उसी तरह के लोग होंगे ओर क्या। क्लब-घर में जादू होता है। सुना है, यहाँ मुर्दो की खोपड़ियाँ दौड़ती हैं। और बड़े-बड़े तमाशे होते हैं, पर किसी को अंदर नहीं जाने देते। और वहाँ शाम को साहब लोग खेलते हैं। बड़े-बड़े आदमी खेलते हैं, मूँछो दाढ़ी वाले। और मेमें भी खेलती हैं, सच! हमारी अम्माँ को यह दे दो, क्या नाम है, बैट, तो उसे पकड़ ही न सकें। घुमाते ही लुढ़क जायँ।

महमूद ने कहा— हमारी अम्मीजान का तो हाथ काँपने लगे, अल्ला कसम।

मोहसिन बोला— चलो, मनों आटा पीस डालती हैं। ज़रा-सा बैट पकड़ लेंगी, तो हाथ काँपने लगेंगे! सैकड़ों घड़े पानी रोज निकालती हैं। पाँच घड़े तो तेरी भैंस पी जाती है। किसी मेम को एक घड़ा पानी भरना पड़े, तो आँखों तले अँधेरा आ जाय।

महमूद— लेकिन दौड़ती तो नहीं, उछल-कूद तो नहीं सकतीं।

मोहसिन— हाँ, उछल-कूद तो नहीं सकतीं; लेकिन उस दिन मेरी गाय खुल गयी थी और चौधरी के खेत में जा पड़ी थी, अम्माँ इतना तेज दौड़ीं कि मैं उन्हें न पा सका, सच।

आगे चले। हलवाइयों की दुकानें शुरू हुईं। आज खूब सजी हुई थीं। इतनी मिठाइयाँ कौन खाता है? देखो न, एक-एक दूकान पर मनों होंगी। सुना है, रात को जिन्नात आकर खरीद ले जाते हैं। अब्बा कहते थे कि आधी रात को एक आदमी हर दुकान पर जाता है और जितना माल बचा होता है, वह तुलवा लेता है और सचमुच के रूपये देता है, बिल्कुल ऐसे ही रूपये।

हामिद को यकीन न आया— ऐसे रूपये जिन्नात को कहाँ से मिल जायेंगे?

मोहसिन ने कहा— जिन्नात को रूपये की क्या कमी? जिस खजाने में चाहैं चले जायँ। लोहे के दरवाजे तक उन्हें नहीं रोक सकते जनाब, आप हैं किस फेर में! हीरे-जवाहरात तक उनके पास रहते हैं। जिससे खुश हो गये, उसे टोकरों जवाहरात दे दिये। अभी यहीं बैठे हैं, पाँच मिनट में कलकत्ता पहुँच जायँ।

हामिद ने फिर पूछा— जिन्नात बहुत बड़े-बड़े होते हैं?

मोहसिन— एक-एक सिर आसमान के बराबर होता है जी! जमीन पर खड़ा हो जाय तो उसका सिर आसमान से जा लगे, मगर चाहे तो एक लोटे में घुस जाय।

हामिद— लोग उन्हें कैसे खुश करते होंगे? कोई मुझे यह मंतर बता दे तो एक जिन्न को खुश कर लूँ।

मोहसिन— अब यह तो मै नहीं जानता, लेकिन चौधरी साहब के काबू में बहुत-से जिन्नात हैं। कोई चीज चोरी जाय चौधरी साहब उसका पता लगा देंगे ओर चोर का नाम बता देंगे। जुमराती का बछवा उस दिन खो गया था। तीन दिन हैरान हुए, कहीं न मिला तब झख मारकर चौधरी के पास गये। चौधरी ने तुरन्त बता दिया, मवेशीखाने में है और वहीं मिला। जिन्नात आकर उन्हें सारे जहान की खबर दे जाते हैं।

अब उसकी समझ में आ गया कि चौधरी के पास क्यों इतना धन है और क्यों उनका इतना सम्मान है।

आगे चले। यह पुलिस लाइन है। यहीं सब कानिसटिबिल कवायद करते हैं। रैटन! फाय फो! रात को बेचारे घूम-घूमकर पहरा देते हैं, नहीं चोरियाँ हो जायँ। मोहसिन ने प्रतिवाद किया—यह कानिसटिबिल पहरा देते हैं? तभी तुम बहुत जानते हो अजी हजरत, यह चोरी करते हैं। शहर के जितने चोर-डाकू हैं, सब इनसे मिले रहते हैं।रात को ये लोग चोरों से तो कहते हैं, चोरी करो और आप दूसरे मुहल्ले में जाकर ‘जागते रहो! जागते रहो!’ पुकारते हैं। तभी इन लोगों के पास इतने रूपये आते हैं। मेरे मामू एक थाने में कानिसटिबिल हैं। बीस रूपया महीना पाते हैं, लेकिन पचास रूपये घर भेजते हैं। अल्ला कसम! मैंने एक बार पूछा था कि मामू, आप इतने रूपये कहाँ से पाते हैं? हँसकर कहने लगे— बेटा, अल्लाह देता है। फिर आप ही बोले—हम लोग चाहें तो एक दिन में लाखों मार लायें। हम तो इतना ही लेते हैं, जिसमें अपनी बदनामी न हो और नौकरी न चली जाय।

हामिद ने पूछा— यह लोग चोरी करवाते हैं, तो कोई इन्हें पकड़ता नहीं?

मोहसिन उसकी नादानी पर दया दिखाकर बोला- अरे, पागल! इन्हें कौन पकड़ेगा! पकड़ने वाले तो यह लोग खुद हैं, लेकिन अल्लाह, इन्हें सजा भी खूब देता है। हराम का माल हराम में जाता है। थोड़े ही दिन हुए, मामू के घर में आग लग गयी। सारी लेई-पूँजी जल गयी। एक बरतन तक न बचा। कई दिन पेड़ के नीचे सोये, अल्ला कसम, पेड़ के नीचे! फिर न जाने कहाँ से एक सौ कर्ज लाये तो बरतन-भांडे आये।

हामिद—एक सौ तो पचास से ज्यादा होते हैं?

‘कहाँ पचास, कहाँ एक सौ। पचास एक थैली-भर होता है। सौ तो दो थैलियों में भी न आऍं?

अब बस्ती घनी होने लगी। ईदगाह जानेवालों की टोलियाँ नजर आने लगी। एक से एक भड़कीले वस्त्र पहने हुए। कोई इक्के-ताँगे पर सवार, कोई मोटर पर, सभी इत्र में बसे, सभी के दिलों में उमंग। ग्रामीणों का यह छोटा-सा दल अपनी विपन्नता से बेखबर, सन्तोष ओर धैर्य में मगन चला जा रहा था। बच्चों के लिए नगर की सभी चीजें अनोखी थीं। जिस चीज की ओर ताकते, ताकते ही रह जाते और पीछे से बार-बार हार्न की आवाज होने पर भी न चेतते। हामिद तो मोटर के नीचे जाते-जाते बचा।

सहसा ईदगाह नजर आयी। ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया है। नीचे पक्का फर्श है, जिस पर जाजम बिछा हुआ है। और रोजेदारों की पंक्तियाँ एक के पीछे एक न जाने कहाँ तक चली गयी हैं, पक्की जगत के नीचे तक, जहाँ जाजम भी नहीं है। नये आने वाले आकर पीछे की कतार में खड़े हो जाते हैं। आगे जगह नहीं है। यहाँ कोई धन और पद नहीं देखता। इस्लाम की निगाह में सब बराबर हैं। इन ग्रामीणों ने भी वजू किया ओर पिछली पंक्ति में खड़े हो गये। कितना सुन्दर संचालन है, कितनी सुन्दर व्यवस्था! लाखों सिर एक साथ सिजदे में झुक जाते हैं, फिर सबके सब एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ झुकते हैं, और एक साथ घुटनों के बल बैठ जाते हैं। कई बार यही क्रिया होती है, जैसे बिजली की लाखों बत्तियाँ एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जायँ, और यही क्रम चलता रहा। कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियाएँ, विस्तार और अनंतता हृदय को श्रद्धा, गर्व और आत्मानंद से भर देती थीं, मानों भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोये हुए है।


2

नमाज खत्म हो गयी है। लोग आपस में गले मिल रहे हैं। तब मिठाई और खिलौने की दूकान पर धावा होता है। ग्रामीणों का यह दल इस विषय में बालकों से कम उत्साही नहीं है। यह देखो, हिंडोला है एक पैसा देकर चढ़ जाओ। कभी आसमान पर जाते हुए मालूम होगें, कभी जमीन पर गिरते हुए। यह चर्खी है, लकड़ी के हाथी, घोड़े, ऊँट, छड़ों में लटके हुए हैं। एक पैसा देकर बैठ जाओ और पच्चीस चक्करों का मजा लो। महमूद और मोहसिन ओर नूरे ओर सम्मी इन घोड़ों ओर ऊँटों पर बैठते हैं। हामिद दूर खड़ा है। तीन ही पैसे तो उसके पास हैं। अपने कोष का एक तिहाई जरा-सा चक्कर खाने के लिए नहीं दे सकता।

सब चर्खियों से उतरते हैं। अब खिलौने लेंगे। इधर दूकानों की कतार लगी हुई है। तरह-तरह के खिलौने हैं—सिपाही और गुजरिया, राजा और वकील, भिश्ती और धोबिन और साधु। वाह! कितने सुन्दर खिलौने हैं। अब बोला ही चाहते हैं। महमूद सिपाही लेता है, खाकी वर्दी और लाल पगड़ीवाला, कंधे पर बंदूक रखे हुए, मालूम होता है, अभी कवायद किये चला आ रहा है। मोहसिन को भिश्ती पसंद आया। कमर झुकी हुई है, ऊपर मशक रखे हुए है। मशक का मुँह एक हाथ से पकड़े हुए है। कितना प्रसन्न है! शायद कोई गीत गा रहा है। बस, मशक से पानी उड़ेलना ही चाहता है। नूरे को वकील से प्रेम है। कैसी विद्वमता है उसके मुख पर! काला चोगा, नीचे सफेद अचकन, अचकन के सामने की जेब में घड़ी, सुनहरी जंजीर, एक हाथ में कानून का पोथा लिये हुए। मालूम होता है, अभी किसी अदालत से जिरह या बहस किये चले आ रहे हैं। यह सब दो-दो पैसे के खिलौने हैं। हामिद के पास कुल तीन पैसे हैं, इतने महँगे खिलौने वह कैसे ले? खिलौना कहीं हाथ से छूट पड़े तो चूर-चूर हो जाय। जरा पानी पड़े तो सारा रंग घुल जाय। ऐसे खिलौने लेकर वह क्या करेगा; किस काम के!

मोहसिन कहता है— मेरा भिश्ती रोज पानी दे जायगा साँझ-सबेरे।

महमूद— और मेरा सिपाही घर का पहरा देगा कोई चोर आयेगा, तो फौरन बंदूक से फैर कर देगा।

नूरे— और मेरा वकील खूब मुकदमा लड़ेगा।

सम्मी- और मेरी धोबिन रोज कपड़े धोयेगी।

हामिद खिलौनों की निंदा करता है— मिट्टी ही के तो हैं, गिरें तो चकनाचूर हो जायँ, लेकिन ललचाई हुई आँखों से खिलौनों को देख रहा है और चाहता है कि जरा देर के लिए उन्हें हाथ में ले सकता। उसके हाथ अनायास ही लपकते हैं, लेकिन लड़के इतने त्यागी नहीं होते हैं, विशेषकर जब अभी नया शौक है। हामिद ललचाता रह जाता है।

खिलौने के बाद मिठाइयाँ आती हैं। किसी ने रेवड़ियाँ ली हैं, किसी ने गुलाबजामुन किसी ने सोहन हलवा। मजे से खा रहे हैं। हामिद बिरादरी से पृथक है। अभागे के पास तीन पैसे हैं। क्यों नहीं कुछ लेकर खाता? ललचायी आँखों से सबकी ओर देखता है।

मोहसिन कहता है— हामिद रेवड़ी ले जा, कितनी खुशबूदार है!

हामिद को संदेह हुआ, ये केवल क्रूर विनोद है, मोहसिन इतना उदार नहीं है, लेकिन यह जानकर भी वह उसके पास जाता है। मोहसिन दोने से एक रेवड़ी निकालकर हामिद की ओर बढ़ाता है। हामिद हाथ फैलाता है। मोहसिन रेवड़ी अपने मुँह में रख लेता है। महमूद, नूरे और सम्मी खूब तालियाँ बजा-बजाकर हँसते हैं। हामिद खिसिया जाता है।

मोहसिन— अच्छा, अबकी जरूर देंगे हामिद, अल्लाह कसम, ले जाव।

हामिद— रखे रहो। क्या मेरे पास पैसे नहीं हैं?

सम्मी— तीन ही पैसे तो हैं। तीन पैसे में क्या-क्या लोगे?

महमूद— हमसे गुलाबजामुन ले जाव हामिद। मोहमिन बदमाश है।

हामिद— मिठाई कौन बड़ी नेमत है। किताब में इसकी कितनी बुराइयाँ लिखी हैं।

मोहसिन— लेकिन दिल में कह रहे होंगे कि मिले तो खा लें। अपने पैसे क्यों नहीं निकालते?

महमूद— हम समझते हैं, इसकी चालाकी। जब हमारे सारे पैसे खर्च हो जायेंगे, तो हमें ललचा-ललचाकर खायगा।

मिठाइयों के बाद कुछ दूकानें लोहे की चीजों की, कुछ गिलट और कुछ नकली गहनों की। लड़कों के लिए यहाँ कोई आकर्षण न था। वे सब आगे बढ़ जाते हैं, हामिद लोहे की दुकान पर रूक जाता है। कई चिमटे रखे हुए थे। उसे खयाल आया, दादी के पास चिमटा नहीं है। तवे से रोटियाँ उतारती हैं, तो हाथ जल जाता है। अगर वह चिमटा ले जाकर दादी को दे दे तो वह कितना प्रसन्न होंगी! फिर उनकी उंगलियाँ कभी न जलेंगी। घर में एक काम की चीज हो जायगी। खिलौने से क्या फायदा? व्यर्थ में पैसे खराब होते हैं। जरा देर ही तो खुशी होती है। फिर तो खिलौने को कोई आँख उठाकर नहीं देखता। यह तो घर पहुँचते-पहुँचते टूट-फूट बराबर हो जायेंगे या छोटे बच्चे जो मेले में नहीं आये हैं जिद कर के ले लेंगे और तोड़ डालेंगे। चिमटा कितने काम की चीज है। रोटियाँ तवे से उतार लो, चूल्हें में सेंक लो। कोई आग माँगने आये तो चटपट चूल्हे से आग निकालकर उसे दे दो। अम्माँ बेचारी को कहाँ फुरसत है कि बाजार आयें और इतने पैसे ही कहाँ मिलते हैं? रोज हाथ जला लेती हैं।

हामिद के साथी आगे बढ़ गये हैं। सबील पर सब-के-सब शर्बत पी रहे हैं। देखो, सब कितने लालची हैं। इतनी मिठाइयाँ लीं, मुझे किसी ने एक भी न दी। उस पर कहते है, मेरे साथ खेलो। मेरा यह काम करो। अब अगर किसी ने कोई काम करने को कहा, तो पूछूँगा। खायें मिठाइयाँ, आप मुँह सड़ेगा, फोड़े-फुन्सियाँ निकलेंगी, आप ही जबान चटोरी हो जायगी। तब घर से पैसे चुरायेंगे और मार खायेंगे। किताब में झूठी बातें थोड़े ही लिखी हैं। मेरी जबान क्यों खराब होगी? अम्माँ चिमटा देखते ही दौड़कर मेरे हाथ से ले लेंगी और कहेंगी—मेरा बच्चा अम्माँ के लिए चिमटा लाया है। कितना अच्छा लड़का है। इन लोगों के खिलौने पर कौन इन्हें दुआयें देगा? बड़ों की दुआयें सीधे अल्लाह के दरबार में पहुँचती हैं, और तुरंत सुनी जाती हैं। मेरे पास पैसे नहीं हैं।तभी तो मोहसिन और महमूद यों मिजाज दिखाते हैं। मैं भी इनसे मिजाज दिखाऊँगा। खेलें खिलौने और खायें मिठाइयाँ। मै नहीं खेलता खिलौने, किसी का मिजाज क्यों सहूँ? मैं गरीब सही, किसी से कुछ माँगने तो नहीं जाता। आखिर अब्बाजान कभीं न कभी आयेंगे। अम्मा भी आयेंगी ही। फिर इन लोगों से पूछूँगा, कितने खिलौने लोगे? एक-एक को टोकरियों खिलौने दूँ और दिखा दूँ कि दोस्तों के साथ इस तरह का सलूक किया जाता है। यह नहीं कि एक पैसे की रेवड़ियाँ लीं, तो चिढ़ा-चिढ़ाकर खाने लगे। सबके सब खूब हँसेंगे कि हामिद ने चिमटा लिया है। हँसें! मेरी बला से। उसने दुकानदार से पूछा— यह चिमटा कितने का है?

दुकानदार ने उसकी ओर देखा और कोई आदमी साथ न देखकर कहा— तुम्हारे काम का नहीं है जी!

‘बिकाऊ है कि नहीं?’

‘बिकाऊ क्यों नहीं है? और यहाँ क्यों लाद लाये हैं?’

तो बताते क्यों नहीं, कै पैसे का है?’

‘छ: पैसे लगेंगे।‘

हामिद का दिल बैठ गया।

‘ठीक-ठीक पाँच पैसे लगेंगे, लेना हो लो, नहीं चलते बनो।‘

हामिद ने कलेजा मजबूत करके कहा- तीन पैसे लोगे?

यह कहता हुआ वह आगे बढ़ गया कि दुकानदार की घुड़कियाँ न सुने। लेकिन दुकानदार ने घुड़कियाँ नहीं दी। बुलाकर चिमटा दे दिया। हामिद ने उसे इस तरह कंधे पर रखा, मानो बंदूक है और शान से अकड़ता हुआ संगियों के पास आया। जरा सुनें, सबके सब क्या-क्या आलोचनाएँ करते हैं!

मोहसिन ने हँसकर कहा— यह चिमटा क्यों लाया पगले, इसे क्या करेगा?

हामिद ने चिमटे को जमीन पर पटककर कहा— जरा अपना भिश्ती जमीन पर गिरा दो। सारी पसलियाँ चूर-चूर हो जायँ बच्चू की।

महमूद बोला—तो यह चिमटा कोई खिलौना है?

हामिद— खिलौना क्यों नही है! अभी कंधे पर रखा, बंदूक हो गयी। हाथ में ले लिया, फकीरों का चिमटा हो गया। चाहूँ तो इससे मजीरे का काम ले सकता हूँ। एक चिमटा जमा दूँ, तो तुम लोगों के सारे खिलौनों की जान निकल जाय। तुम्हारे खिलौने कितना ही जोर लगायें, मेरे चिमटे का बाल भी बाँका नही कर सकते। मेरा बहादुर शेर है चिमटा।

सम्मी ने खँजरी ली थी। प्रभावित होकर बोला— मेरी खँजरी से बदलोगे? दो आने की है।

हामिद ने खँजरी की ओर उपेक्षा से देखा- मेरा चिमटा चाहे तो तुम्हारी खँजरी का पेट फाड़ डाले। बस, एक चमड़े की झिल्ली लगा दी, ढब-ढब बोलने लगी। जरा-सा पानी लग जाय तो खत्म हो जाय। मेरा बहादुर चिमटा आग में, पानी में, आँधी में, तूफान में बराबर डटा खड़ा रहेगा।

चिमटे ने सभी को मोहित कर लिया, अब पैसे किसके पास धरे हैं? फिर मेले से दूर निकल आये हैं, नौ कब के बज ग्ये, धूप तेज हो रही है। घर पहुँचने की जल्दी हो रही है। बाप से जिद भी करें, तो चिमटा नहीं मिल सकता। हामिद है बड़ा चालाक। इसीलिए बदमाश ने अपने पैसे बचा रखे थे।

अब बालकों के दो दल हो गये हैं। मोहसिन, मह्मूद, सम्मी और नूरे एक तरफ हैं, हामिद अकेला दूसरी तरफ। शास्त्रार्थ हो रहा है। सम्मी तो विधर्मी हो गया! दूसरे पक्ष से जा मिला, लेकिन मोहसिन, महमूद और नूरे भी हामिद से एक-एक, दो-दो साल बड़े होने पर भी हामिद के आघातों से आतंकित हो उठे हैं। उसके पास न्याय का बल है और नीति की शक्ति। एक ओर मिट्टी है, दूसरी ओर लोहा, जो इस वक्त अपने को फौलाद कह रहा है। वह अजेय है, घातक है। अगर कोई शेर आ जाय तो मियाँ भिश्ती के छक्के छूट जायँ, मियाँ सिपाही मिट्टी की बंदूक छोड़कर भागें, वकील साहब की नानी मर जाय, चोगे में मुँह छिपाकर जमीन पर लेट जायँ। मगर यह चिमटा, यह बहादुर, यह रूस्तमे-हिंद लपककर शेर की गरदन पर सवार हो जायगा और उसकी आँखें निकाल लेगा।

मोहसिन ने एड़ी—चोटी का जोर लगाकर कहा— अच्छा, पानी तो नहीं भर सकता?

हामिद ने चिमटे को सीधा खड़ा करके कहा— भिश्ती को एक डाँट बतायेगा, तो दौड़ा हुआ पानी लाकर उसके द्वाडर पर छिड़कने लगेगा।

मोहसिन परास्त हो गया, पर महमूद ने कुमुक पहुँचाई— अगर बच्चा पकड़ जायँ तो अदालत में बँधे-बँधे फिरेंगे। तब तो वकील साहब के पैरों पड़ेंगे।

हामिद इस प्रबल तर्क का जवाब न दे सका। उसने पूछा— हमें पकड़ने कौन आयेगा?

नूरे ने अकड़कर कहा— यह सिपाही बंदूकवाला।

हामिद ने मुँह चिढ़ाकर कहा— यह बेचारे हम बहादुर रूस्तमे—हिंद को पकड़ेंगे! अच्छा लाओ, अभी जरा कुश्ती हो जाय। इसकी सूरत देखकर दूर से भागेंगे। पकड़ेंगे क्या बेचारे!

मोहसिन को एक नयी चोट सूझ गयी— तुम्हारे चिमटे का मुँह रोज आग में जलेगा।

उसने समझा था कि हामिद लाजवाब हो जायगा, लेकिन यह बात न हुई। हामिद ने तुरंत जवाब दिया— आग में बहादुर ही कूदते हैं जनाब, तुम्हारे यह वकील, सिपाही और भिश्ती लौंडियों की तरह घर में घुस जायेंगे। आग में कूदना वह काम है, जो यह रूस्तमे-हिन्द ही कर सकता है।

महमूद ने एक जोर लगाया— वकील साहब कुरसी-मेज पर बैठेंगे, तुम्हारा चिमटा तो बावरचीखाने में जमीन पर पड़ा रहेगा।

इस तर्क ने सम्मी और नूरे को भी सजीव कर दिया! कितने ठिकाने की बात कही है पट्ठे ने! चिमटा बावरचीखाने में पड़ा रहने के सिवा और क्या कर सकता है?

हामिद को कोई फड़कता हुआ जवाब न सूझा, तो उसने धाँधली शुरू की— मेरा चिमटा बावरचीखाने में नही रहेगा। वकील साहब कुर्सी पर बैठेंगे, तो जाकर उन्हें जमीन पर पटक देगा और उनका कानून उनके पेट में डाल देगा।

बात कुछ बनी नहीं। खासी गाली-गलौज थी; लेकिन कानून को पेट में डालने वाली बात छा गयी। ऐसी छा गयी कि तीनों सूरमा मुँह ताकते रह गये मानो कोई धेलचा कनकौआ किसी गंडेवाले कनकौए को काट गया हो। कानून मुँह से बाहर निकलने वाली चीज है। उसको पेट के अंदर डाल दिया जाना बेतुकी-सी बात होने पर भी कुछ नयापन रखती है। हामिद ने मैदान मार लिया। उसका चिमटा रूस्तमे-हिन्द है। अब इसमें मोहसिन, महमूद नूरे, सम्मी किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती।

विजेता को हारनेवालों से जो सत्कार मिलना स्वाभविक है, वह हामिद को भी मिला। औरों ने तीन-तीन, चार-चार आने पैसे खर्च किए, पर कोई काम की चीज न ले सके। हामिद ने तीन पैसे में रंग जमा लिया। सच ही तो है, खिलौनों का क्या भरोसा? टूट-फूट जायँगे। हामिद का चिमटा तो बना रहेगा बरसों?

संधि की शर्तें तय होने लगीं। मोहसिन ने कहा— जरा अपना चिमटा दो, हम भी देखें। तुम हमारा भिश्ती लेकर देखो।

महमूद और नूरे ने भी अपने-अपने खिलौने पेश किये।

हामिद को इन शर्तों को मानने में कोई आपत्ति न थी। चिमटा बारी-बारी से सबके हाथ में गया, और उनके खिलौने बारी-बारी से हामिद के हाथ में आये। कितने खूबसूरत खिलौने हैं।

हामिद ने हारने वालों के आँसू पोंछे— मैं तुम्हे चिढ़ा रहा था, सच! यह चिमटा भला, इन खिलौनों की क्या बराबरी करेगा, मालूम होता है, अब बोले, अब बोले।

लेकिन मोहसिन की पार्टी को इस दिलासे से संतोष नहीं होता। चिमटे का सिक्का खूब बैठ गया है। चिपका हुआ टिकट अब पानी से नहीं छूट रहा है।

मोहसिन— लेकिन इन खिलौनों के लिए कोई हमें दुआ तो न देगा?

महमूद— दुआ को लिये फिरते हो। उल्टे मार न पड़े। अम्माँ जरूर कहेंगी कि मेले में यही मिट्टी के खिलौने मिले?

हामिद को स्वीकार करना पड़ा कि खिलौनों को देखकर किसी की माँ इतनी खुश न होंगी, जितनी दादी चिमटे को देखकर होंगी। तीन पैसों ही में तो उसे सब कुछ करना था ओर उन पैसों के इस उपयोग पर पछतावे की बिल्कुल जरूरत न थी। फिर अब तो चिमटा रूस्तमें-हिन्द है ओर सभी खिलौनों का बादशाह।

रास्ते में महमूद को भूख लगी। उसके बाप ने केले खाने को दिये। महमूद ने केवल हामिद को साझी बनाया। उसके अन्य मित्र मुँह ताकते रह गये। यह उस चिमटे का प्रसाद था।


3

ग्यारह बजे गाँव में हलचल मच गयी। मेलेवाले आ गये। मोहसिन की छोटी बहन ने दौड़कर भिश्ती उसके हाथ से छीन लिया और मारे खुशी के जा उछली, तो मियाँ भिश्ती नीचे आ रहे और सुरलोक सिधारे। इस पर भाई-बहन में मार-पीट हुई। दानों खुब रोये। उनकी अम्माँ यह शोर सुनकर बिगड़ीं और दोनों को ऊपर से दो-दो चाँटे और लगाये।

मियाँ नूरे के वकील का अंत उनके प्रतिष्ठानुकूल इससे ज्यादा गौरवमय हुआ। वकील जमीन पर या ताक पर तो नहीं बैठ सकता। उसकी मर्यादा का विचार तो करना ही होगा। दीवार में खूँटियाँ गाड़ी गयी। उन पर लकड़ी का एक पटरा रखा गया। पटरे पर कागज का कालीन बिछाया गया। वकील साहब राजा भोज की भाँति सिंहासन पर विराजे। नूरे ने उन्हें पंखा झलना शुरू किया। अदालतों में खस की टट्टियाँ और बिजली के पंखे रहते हैं। क्या यहाँ मामूली पंखा भी न हो! कानून की गर्मी दिमाग पर चढ़ जायगी कि नहीं? बाँस का पंखा आया और नूरे हवा करने लगे। मालूम नहीं, पंखे की हवा से या पंखे की चोट से वकील साहब स्वर्गलोक से मृत्युलोक में आ रहे और उनका माटी का चोला माटी में मिल गया! फिर बड़े जोर-शोर से मातम हुआ और वकील साहब की अस्थि घूरे पर डाल दी गयी।

अब रहा महमूद का सिपाही। उसे चटपट गाँव का पहरा देने का चार्ज मिल गया, लेकिन पुलिस का सिपाही कोई साधारण व्यक्ति तो नहीं, जो अपने पैरों चलें। वह पालकी पर चलेगा। एक टोकरी आयी, उसमें कुछ लाल रंग के फटे-पुराने चिथड़े बिछाये गये, जिसमें सिपाही साहब आराम से लेटे। नूरे ने यह टोकरी उठायी और अपने द्वार का चक्कर लगाने लगे। उनके दोनों छोटे भाई सिपाही की तरह ‘छोनेवाले, जागते लहो’ पुकारते चलते हैं। मगर रात तो अँधेरी ही होनी चाहिये। महमूद को ठोकर लग जाती है। टोकरी उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ती है और मियाँ सिपाही अपनी बन्दूक लिये जमीन पर आ जाते हैं और उनकी एक टाँग में विकार आ जाता है।

महमूद को आज ज्ञात हुआ कि वह अच्छा डाक्टर है। उसको ऐसा मरहम मिला गया है जिससे वह टूटी टाँग को आनन-फानन जोड़ सकता है। केवल गूलर का दूध चाहिए। गूलर का दूध आता है। टाँग जवाब दे देती है। शल्य-क्रिया असफल हुई, तब उसकी दूसरी टाँग भी तोड़ दी जाती है। अब कम-से-कम एक जगह आराम से बैठ तो सकता है। एक टाँग से तो न चल सकता था, न बैठ सकता था। अब वह सिपाही संन्यासी हो गया है। अपनी जगह पर बैठा-बैठा पहरा देता है। कभी-कभी देवता भी बन जाता है। उसके सिर का झालरदार साफा खुरच दिया गया है। अब उसका जितना रूपांतर चाहो, कर सकते हो। कभी-कभी तो उससे बाट का काम भी लिया जाता है।

अब मियाँ हामिद का हाल सुनिए। अमीना उसकी आवाज सुनते ही दौड़ी और उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगी। सहसा उसके हाथ में चिमटा देखकर वह चौंकी।

‘यह चिमटा कहाँ था?’

‘मैंने मोल लिया है।

‘कै पैसे में?’

‘तीन पैसे दिये।‘

अमीना ने छाती पीट ली। यह कैसा बेसमझ लड़का है कि दोपहर हुआ, कुछ खाया न पिया। लाया क्या, चिमटा! ‘सारे मेले में तुझे और कोई चीज न मिली, जो यह लोहे का चिमटा उठा लाया।

हामिद ने अपराधी भाव से कहा—तुम्हारी उँगलियाँ तवे से जल जाती थीं, इसलिए मैने इसे लिया।

बुढ़िया का क्रोध तुरन्त स्नेह में बदल गया, और स्नेह भी वह नहीं, जो प्रगल्भ होता है और अपनी सारी कसक शब्दों में बिखेर देता है। यह मूक स्नेह था, खूब ठोस, रस और स्वाद से भरा हुआ। बच्चे में कितना त्याग, कितना ‍सद्‌भाव और कितना विवेक है! दूसरों को खिलौने लेते और मिठाई खाते देखकर इसका मन कितना ललचाया होगा? इतना जब्त इससे हुआ कैसे? वहाँ भी इसे अपनी बुढ़िया दादी की याद बनी रही। अमीना का मन गद्‌गद्‌ हो गया।


और अब एक बड़ी विचित्र बात हुई। हामिद के इस चिमटे से भी विचित्र। बच्चे हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था। बुढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गयी। वह रोने लगी। दामन फैलाकर हामिद को दुआएं देती जाती थी और आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें गिराती जाती थी। हामिद इसका रहस्य क्या समझता!