Friday, December 27, 2013

एक अंतर्कथा : गजानन माधव मुक्तिबोध



अग्नि के काष्ठ
खोजती माँ,
बीनती नित्य सूखे डंठल
सूखी टहनी, रुखी डालें
घूमती सभ्यता के जंगल
वह मेरी माँ
खोजती अग्नि के अधिष्ठान

मुझमें दुविधा,
पर, माँ की आज्ञा से समिधा
एकत्र कर रहा हूँ
मैं हर टहनी में डंठल में
एक-एक स्वप्न देखता हुआ
पहचान रहा प्रत्येक
जतन से जमा रहा
टोकरी उठा, मैं चला जा रहा हूँ

टोकरी उठाना...चलन नहीं
वह फ़ैशन के विपरीत –
इसलिए निगाहें बचा-बचा
आड़े-तिरछे चलता हूँ मैं
संकुचित और भयभीत

अजीब सी टोकरी
कि उसमें प्राणवान् माया
गहरी कीमिया
सहज उभरी फैली सँवरी
डंठल-टहनी की कठिन साँवली रेखाएँ
आपस में लग यों गुंथ जातीं
मानो अक्षर नवसाक्षर खेतिहर के-से
वे बेढब वाक्य फुसफुसाते
टोकरी विवर में से स्वर आते दबे-दबे
मानो कलरव गा उठता हो धीमे-धीमे
अथवा मनोज्ञ शत रंग-बिरंगी बिहंग गाते हों

आगे-आगे माँ
पीछे मैं;
उसकी दृढ़ पीठ ज़रा सी झुक
चुन लेती डंठल पल भर रुक
वह जीर्ण-नील-वस्त्रा
है अस्थि-दृढ़ा
गतिमती व्यक्तिमत्ता
कर रहा अध्ययन मैं उसकी मज़बूती का
उसके जीवन से लगे हुए
वर्षा-गर्मी-सर्दी और क्षुधा-तृषा के वर्षों से
मैं पूछ रहा –
टोकरी-विवर में पक्षी-स्वर
कलरव क्यों है
माँ कहती –
'सूखी टहनी की अग्नि क्षमता
ही गाती है पक्षी स्वर में
वह बंद आग है खुलने को।'
मैं पाता हूँ
कोमल कोयल अतिशय प्राचीन
व अति नवीन
स्वर में पुकारती है मुझको
टोकरी-विवर के भीतर से।
पथ पर ही मेरे पैर थिरक उठते
कोमल लय में।
मैं साश्रुनयन, रोमांचित तन; प्रकाशमय मन।
उपभाएँ उद्धाटित-वक्षा मृदु स्नेहमुखी
एक-टक देखतीं मुझको –
प्रियतर मुसकातीं...
मूल्यांकन करते एक-दूसरे का
हम एक-दूसरे को सँवारते जाते हैं
वे जगत्-समीक्षा करते-से
मेरे प्रतीक रूपक सपने फैलाते हैं
आगामी के।
दरवाज़े दुनिया के सारे खुल जाते हैं
प्यार के साँवले किस्सों की उदास गलियाँ
गंभीर करूण मुस्कराहट में
अपना उर का सब भेद खोलती हैं।
अनजाने हाथ मित्रता के
मेरे हाथों में पहुँच मित्रता भरते हैं
मैं अपनों से घिर उठता हूँ
मैं विचरण करता-सा हूँ एक फ़ैंटेसी में
यह निश्चित है कि फ़ैंटेसी कल वास्तव होगी।
मेरा तो सिर फिर जाता है
औ' मस्तक में
ब्रह्मांड दीप्ति-सी घिर उठती
रवि-किरण-बिंदु आँखों में स्थिर हो जाता है।

सपने से जागकर पाता हूँ सामने वही
बरगद के तने-सरीखी वह अत्यंत कठिन
दृढ़ पीठ अग्रगायी माँ की
युग-युग अनुभव का नेतृत्व
आगे-आगे,
मैं अनुगत हूँ।
वह एक गिरस्तन आत्मा
मेरी माँ
मैं चिल्लाकर पूछता –
कि यह सब क्या
कि कौन सी माया यह।
मुड़कर के मेरी ओर सहज मुसका
वह कहती है –
'आधुनिक सभ्यता के वन में
व्यक्तित्व-वृक्ष सुविधावादी।
कोमल-कोमल टहनियाँ मर गईं अनुभव-मर्मों की
यह निरुपयोग के फलस्वरूप हो गया।
उनका विवेकसंगत प्रयोग हो सका नहीं
कल्याणमयी करूणाएँ फेंकी गईं
रास्ते पर कचरे-जैसी,
मैं चीन्ह रही उनको।
जो गहन अग्नि के अधिष्ठान
हैं प्राणवान
मैं बीन रही उनको
देख तो
उन्हें सभ्यताभिरूचिवश छोड़ा जाता है
उनसे मुँह मोड़ा जाता है
दम नहीं किसी में
उनको दुर्दम करे
अनलोपम स्वर्णिम करे।
घर के बाहर आंगन में मैं सुलगाऊँगी
दुनियाभर को उनका प्रकाश दिखलाऊँगी।'

यह कह माँ मुसकाई,
तब समझा
हम दो
क्यों
भटका करते हैं, बेगानों की तरह, रास्तों पर।
मिल नहीं किसी से पाते हैं
अंतस्थ हमारे प्ररयितृ अनुभव
जम नहीं किसी से पाते है हम
फिट नहीं किसी से होते हैं
मानो असंग की ओर यात्रा असंग की।
वे लोग बहुत जो ऊपर-ऊपर चढ़ते हैं
हम नीचे-नीचे गिरते हैं
तब हम पाते वीथी सुसंगमय ऊष्मामय।
हम हैं समाज की तलछट, केवल इसीलिए
हमको सर्वाज्ज्वल परंपरा चाहिए।
माँ परंपरा-निर्मिति के हित
खोजती ज़िंदगी के कचरे में भी
ज्ञानात्मक संवेदन
पर, रखती उनका भार कठिन मेरे सिर पर

अजीब अनुभव है
सिर पर टोकरी-विवर में मानव-शिशु
वह कोई सद्योजात
मृदुल-कर्कश स्वर में
रो रहा;
सच. प्यार उमड़ आता उस पर
पर, प्रतिपालन-दायित्व भार से घबराकर
मैं तो विवेक खो रहा
वह शिकायतों से भरा बाल-स्वर मँडराता
प्रिय बालक दुर्भर, दुर्धर है – यह मैं विचारता, कतराता
झखमार, झींक औ' प्यार गुँथ रहे आपस में
वह सिर पर चढ़ रो रहा, नहीं मेरे बस में
बढ़ रहा बोझ। वह मानव शिशु
भारी-भारी हो रहा।

वह कौन? कि सहसा प्रश्न कौंधता अंतर में –
'वह है मानव परंपरा'
चिंघाड़ता हुआ उत्तर यह,
'सुन, कालिदास का कुमारसंभव वह।'
मेरी आँखों में अश्रु और अभिमान
किसी कारण
अंतर के भीतर पिघलती हुई हिमालयी चट्टान
किसी कारण;
तब एक क्षण भर
मेरे कंधों पर खड़ा हुआ है देव एक दुर्धर
थामता नभस दो हाथों से
भारान्वित मेरी पीठ बहुत झुकती जाती
वह कुचल रही है मुझे देव-आकृति।
है दर्द बहुत रीढ़ में
पसलियाँ पिरा रहीं
पाँव में जम रहा खून
द्रोह करता है मन
मैं जनमा जब से इस साले ने कष्ट दिया
उल्लू का पट्ठा कंधे पर है खड़ा हुआ।
कि इतने में
गंभीर मुझे आदेश –
कि बिल्कुल जमे रहो।
मैं अपने कंधे क्रमशः सीधे करता हूँ
तन गई पीठ
और स्कंध नभोगामी होते
इतने ऊँचे हो जाते हैं,
मैं एकाकार हो गया-सा देवाकृति से।
नभ मेरे हाथों पर आता
मैं उल्का-फूल फेंकता मधुर चंद्रमुख पर
मेरी छाया गिरती है दूर नेब्यूला में।
बस, तभी तलब लगती बीड़ी पीने की।
मैं पूर्वाकृति में आ जाता,
बस, चाय एक कप मुझे गरम कोई दे दे
ऐसी-तैसी उस गौरव की
जो छीन चले मेरी सुविधा
मित्रों से गप करने का मज़ा और ही है।
ये गरम चिलचिलाती सड़कें
सौ बरस जिएँ
मैं परिभ्रमण करता जाऊँगा जीवन भर
मैं जिप्सी हूँ।

दिल को ठोकर
वह विकृत आईना मन का सहसा टूट गया
जिसमें या तो चेहरा दिखता था बहुत बड़ा
फूला-फूला
या अकस्मात् विकलांग व छोटा-छोटा-सा
सिट्टी गुम है,
नाड़ी ठंडी।
देखता हूँ कि माँ व्यंग्यस्मित मुस्करा रही
डाँटती हुई कहती है वह –
'तब देव बिना अब जिप्सी भी,
केवल जीवन-कर्तव्यों का
पालन न हो सके इसीलिए
निज को बहकाया करता है।
चल इधर, बीन रूखी टहनी
सूखी डालें,
भूरे डंठल,
पहचान अग्नि के अधिष्ठान
जा पहुँचा स्वयं के मित्रों में
कर ग्रहण अग्नि-भिक्षा
लोगों से पड़ौसियों से मिल।'
चिलचिला रही हैं सड़कें व धूल है चेहरे पर
चिलचिला रहा बेशर्म दलिद्दर भीतर का
पर, सेमल का ऊँचा-ऊँचा वह पेड़ रूचिर
संपन्न लाल फूलों को लेकर खड़ा हुआ
रक्तिमा प्रकाशित करता-सा
वह गहन प्रेम
उसका कपास रेशम-कोमल।
मैं उसे देख जीवन पर मुग्ध हो रहा हूँ!

Tuesday, December 17, 2013

जनसंहार पीडितों के न्याय की लड़ाई : सुधीर सुमन


पिछले दिनों बिहार में बाथे जनसंहार के मामले में हाईकोर्ट के अन्यायपूर्ण फैसले के बाद न्याय के लिए हस्ताक्षर अभियान चलाया गया है। 10 दिसंबर मानवाधिकार दिवस को बिहार की राजधानी पटना से लाखों हस्ताक्षर लेकर न्याय यात्रा चल पड़ी है। बिहार के जनसंहार वाले इलाकों से और हस्ताक्षरों को एकत्र करते हुए लोग सड़क के रास्ते उत्तर प्रदेश होते हुए दिल्ली पहुंचेगे जहां राष्ट्रपति को हस्ताक्षर सौंपे जाएंगे और 18 दिसंबर को  12 बजे से दिल्ली, जंतर मंतर पर जनसुनवाई होगी, जिसमें जस्टिस राजेंद्र सच्चर, अधिवक्ता रेबेका जान, प्रो. सोना झारिया मिंज, जेएनयू, प्रो. नंदिनी सुंदर, डीयू, प्रो. नवल किशोर चौधरी, पटना यूनिवर्सिटी, डॉ. वाईएस एलोन, जेएनयू, कॉलिन गोंजाल्विस, पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन, जेएनयू छात्र संघ की उपाध्यक्ष अनुभूति अग्नेस बारा समेत कई लोग बतौर जूरी शिरकत करेंगे।
हाल में नगरी जनसंहार, बथानी जनसंहार और बाथे जनसंहार के सूचकों और गवाहों से मेरी मुलाकात हुई। एक गांव में संयोग से एक जमाने में गुरिल्ला लड़ाई में शामिल एक कामरेड से भी मुलाकात हुई। वहीं हमने जनता से संघर्ष के गीत भी सुने। न्याय की लंबी लड़ाई के प्रति किस तरह की अवधारणा उनके भीतर है, न्याय की कानूनी लड़ाई और हाईकोर्ट के फैसलों को लेकर वे क्या सोचते हैं, मैंने यह जानने की कोशिश की। पूरा लेख 'न्याय के लिए लड़ता बिहार' समकालीन जनमत के दिसंबर अंक में देखा जा सकता है। यहां पेश है कुछ अंश-

न्याय की लड़ाई में कातिल हारे हुए हैं
12 नवंबर को नगरी जनसंहार के सूचक उमा यादव से मुलाकात हुई। 11 मई 1998 को नगरी में रणवीर सेना ने 8 दूकानदारों और 2 अन्य लोगों की हत्या कर दी थी। सेशन कोर्ट ने इसमें कुछ अभियुक्तों को फांसी और कुछ को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। लेकिन हाईकोर्ट से अभियुक्त रिहा कर दिए गए।...एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि जिस तरह की कार्रवाई रणवीर सेना ने की, उस तरह की कार्रवाई हम नहीं कर सकते। व्यक्तिगत प्रतिशोध के बजाए न्याय की बड़ी लड़ाई से हमारी लड़ाई जुड़ी हुई है......यह लड़ाई आज की नहीं है, यह उसी लड़ाई से जुड़ी है जिसकी शुरुआत भोजपुर में जगदीश मास्टर, रामेश्वर अहीर, रामनरेश राम और बुटन मुसहर ने की थी। हमारी लड़ाई किसी जाति विशेष से नहीं है। न्याय की लड़ाई कहीं भटकी नहीं है। हमने वोट देने का अधिकार हासिल किया। हमने बूथ कब्जा करने वालों का विरोध किया। हमने सामाजिक बराबरी के लिए संघर्ष किया। नगरी के दूकानदारों ने दबंगों को रंगदारी टैक्स देना बंद कर दिया था। उन दबंगों के आतंक को कायम रखने के लिए रणवीर सेना ने जनसंहार को अंजाम दिया था। यहां तक कि खुद भूमिहार जाति के कमलेश पांडेय के भाई ने उन्हें रोका कि वे गलती कर रहे हैं, तो उनकी भी उन्होंने हत्या कर दी। 
उमा यादव ने बताया कि इस पूरी लड़ाई में सिर्फ भाकपा-माले ही उनके साथ खड़ी रही। अन्य पार्टियों की भूमिका के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि जनसंहार के बाद राजद की टीम आई थी। माओवादियों के एक नेता ने भी संपर्क किया था, लेकिन हमलोग यहां माओवादी कहे जाने वालों की भूमिका देख रहे थे, रंगदारी टैक्स वसूलना, चोरी-छिनतई और डकैती करना उनका धंधा रहा है, हमने यही सवाल किया कि ऐसे लोग हमारी क्या मदद करेंगे?....जहां तक भाजपा की बात है तो वह शुरू से ही कातिलों के साथ है।...  
मैंने पूछा कि न्याय की इस लड़ाई से आपने  क्या पाया है और अभियुक्तों ने क्या खोया है? क्या हाईकोर्ट से रिहाई उनकी जीत है? उमा ने छूटते ही जवाब दिया कि हम इस देश के सर्वोच्च न्यायालय तक भी गए हैं, देखना है कि वहां क्या फैसला होता है। अपराधियों की जीत उनकी सुरक्षा की गारंटी नहीं होती।...न्याय की इस लड़ाई में कातिल पहले से ही हारे हुए हैं, उन्होंने बहुत कुछ खोया है। हत्यारों और अन्यायी वर्ग को आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक रूप से नुकसान हुआ है।   
उमा यादव ने जोर देकर कहा कि हम बिके नहीं, डरे नहीं, तो इसलिए कि हम कमजोरों और गरीबों को संगठित करने वाली ताकत भाकपा-माले के जरिए सींचे गए हैं। बातचीत में उन्होंने न्याय प्रणाली पर सवाल उठाते हुए इस जरूरत को चिह्नित किया कि हाईकोर्ट में गरीबों के प्रति संवेदनशील, न्यायपसंद और वर्गचेतना वाले लोग कैसे पहुंचे इसके बारे में भी सोचना चाहिए, ताकि पीड़ित लोगों को न्याय मिल सके।

न्याय की कानूनी लड़ाई भी प्रतिरोध है
बथानी टोला शहीद स्मारक 
इसी रोज बथानी टोला जनसंहार के गवाह नईमुद्दीन से मुलाकात हुई। हत्यारों ने नईमुद्दीन की बहन, पतोहू, दो बेटियों और दो बेटों की हत्या की थी। उनकी बेटी आस्मां मात्र तीन माह की थी, जिसे हत्यारों ने तलवार से काट डाला था। एक बेटे की आमिर सुभानी की उम्र 3 साल थी और दूसरे बेटे सद्दाम की उम्र 8 साल थी, जिसने आरा सदर अस्पताल में दम तोड़ा था। मैंने पूछा कि कभी आपके मन में ख्याल नहीं आया कि इसी तरह हत्यारों के परिजनों को मारके बदला ले लें? नईमुद्दीन ने कहा कि ऐसा हम करते तो उनमें और हममें फर्क ही क्या रह जाता?...ऐसा नहीं है कि हम प्रतिरोध करना नहीं जानते थे। जनसंहार के पहले भी छह बार हमले हुए थे। प्रशासन, सरकार और राजनीतिक पार्टियों को इसकी खबर थी। लेकिन तब भाकपा-माले को छोड़कर कोई हमारे साथ नहीं खड़ा हुआ था। हम छह बार उनके हमलों को जनता की संगठित ताकत के बल पर ही तो विफल कर पाए। हाईकोर्ट कहता है कि सुबह में एफआईआर क्यों हुआ? क्या इसमें हमारी कमजोरी है? यह तो पुलिस की कमजोरी है। जज कह रहे हैं कि साक्ष्य नहीं था, तो क्या हाईकोर्ट से वे देख रहे थे कि गवाह यहां नहीं थे? लोअर कोर्ट के फैसले से जनता बहुत खुश थी कि हत्यारों ने जैसा किया, वैसी उन्हें सजा मिली। लेकिन जब हाईकोर्ट के सामने लोअर कोर्ट के फैसले का कोई वैल्यू नहीं है, तो लोअर कोर्ट को रखने की जरूरत क्या है?...
मैंने कहा कि कुछ लोग कह रहे हैं कि न्याय की कानूनी लड़ाई से जनता का प्रतिरोध कमजोर हो रहा है? इस पर वे भड़क उठे और बोले कि इस तरह की हवाई फायरिंग करने वाले प्रतिरोध को क्या समझेंगे? अगर जनता के प्रतिरोध से इतनी हमदर्दी होती तो प्रतिरोध करने वाली जनता से संपर्क करते, उसके दुख-दर्द में शामिल होते। जो ऐसा कह रहे हैं उन्हें बता दीजिए कि न्याय की कानूनी लड़ाई भी प्रतिरोध ही है। जनता की संगठित ताकत और प्रतिरोध की हिम्मत न हो, तो अन्याय की ताकतें गरीबों को कोर्ट तक ही न पहुंचने दें। 
नईमुद्दीन ने बताया कि अजय सिंह और  धीरेंद्र सिंह नाम के अभियुक्तों ने जान से मार देने की धमकी भी दिलवाई। मैंने साफ कह दिया कि मारना है तो मारो, सब परिवार खो दिए हैं, पर केस नहीं छोड़ेंगे। न्याय की लड़ाई लड़ रहे हैं, कोई गलत काम नहीं कर रहे हैं, इसमें जान भी चली जाए, तो परवाह नहीं।....

आज हमारी राजनीति आगे है
13 नवंबर की शाम मैं और हिरावल के साथी संतोष झा संदेश प्रखंड के एक गांव अहपुरा पहुंचे। हम गए थे इस गांव के कलाकारों से मिलने, जो आंदोलनों के गीत गाते हैं। लेकिन इस गांव में पहुंचते ही सबसे पहले भूमिगत जमाने के एक कामरेड से मुलाकात हो गई। ये भाकपा-माले के दूसरे महासचिव का. जौहर के साथ काम कर चुके थे। उम्र के सात दशक पार कर चुके, सीधे तने हुए, पतले छरहरे, कहीं से किसी श्रेष्ठताबोध का कोई भाव नहीं, बिल्कुल ही सामान्य लोगों में घुले-मिले उन कामरेड से मैंने पूछ दिया कि कहां तो आप गुरिल्ला लड़ाई लड़ रहे थे और कहां आप जनांदोलन चला रहे हैं और कानूनी लड़ाइयां लड़ रहे हैं, ऐसा नहीं लगता कि पार्टी अपने मूल रास्ते से भटक गई है? उन्होंने बड़े शांत लहजे में कहा कि हमलोग जब का. जौहर के नेतृत्व में गुरिल्ला लड़ाई लड़ रहे थे, उन दिनों भी वे कहते थे कि एक दिन हमारी पार्टी का बड़ा आधार होगा और उसके जरिए वह जनता के राजनीतिक आंदोलन का नेतृत्व करेगी। वह हर मोर्चे पर शासकवर्ग को चुनौती देगी। आज हमारी पार्टी सिर्फ भोजपुर और बिहार की ही पार्टी नहीं है, बल्कि पूरे देश की पार्टी बन गई है, आज लगता है कि का. जौहर कितना सही सोच रहे थे। मैंने उनसे सवाल किया कि आज ‘जनसंहार पीड़ितों के लिए न्याय’ का जो आंदोलन चलाया जा रहा है, एक सशस्त्र लड़ाका होने के नाते क्या आपको लगता है कि यह प्रतिरोध नहीं है? इस पर वे बोले कि आंदोलन तो एकदम जरूरी है। मैंने कहा कि कुछ लोग कह रहे हैं कि माले ने समझौता कर लिया है। उन्होंने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा- समझौता! हमलोग संघर्ष में है साथी। माओवादियों की लाइन ही गड़बड़ है। वे हथियारबंद प्रतिरोध को ही सिर्फ प्रतिरोध कहते हैं। आज हमारी राजनीति आगे है, इसीलिए वे इस तरह का आरोप लगा रहे हैं। उन्होंने कहा कि शासकवर्ग की जो राजनीति है हथियार उसके आगे चलता है, लेकिन जो सही मायने में जनता की राजनीति होती है, हथियार उसके पीछे चलता है यानी राजनीति के नेतृत्व में हथियार न कि हथियार के नेतृत्व में राजनीति। उन्होंने कहा कि शासकवर्ग माले पर हर हथियार आजमा चुका है और नाकामयाब हुआ है, अब अपने दूसरे हथियार को आगे किया है, पूंजी को, जिसके जरिए वह माले के आधार को तोड़ने की कोशिश करता रहता है, हमें इस पूंजी को हराना है। पूंजी को हराने की इस बात को हम बाद में कई कई सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों में महसूस करते रहे।

संस्कृति के मोर्चे पर भी जारी है लड़ाई
जब कलाकार जुटे, तो हमने पहले उन कामरेड से आग्रह किया कि वे कुछ सुनाएं। थोड़ी देर तो वे मुकरते रहे कि वे कोई कलाकार नहीं है, पर फिर एक शहीद गीत सुनाया और उसके बाद अकारी जी का एक मशहूर गीत सुनाया, जो 30 अक्टूबर की माले की रैली जिन परिस्थितियों में हुई थी, उसमें बार-बार मेरी जुबान पर आ रहा था- 
चाहे कुछ भी करो, मुझे बमे ना मारो
मगर तुझको हटा कर, दमे दम लूंगा। 
चाहे जान जाए, मेरा प्राण जाए।
पिछले साल 5 नवंबर को अकारी जी नहीं रहे, पर यहां जनता के संकल्प, न्यायबोध और संघर्षों के बीच वे जीवित थे। हमें यह महसूस हो रहा था कि हमेशा तात्कालिकता और उतावलेपन में रहने वाले लोग शायद जनता के धैर्य और उसकी ताकत को कभी नहीं समझ सकते। अखबारों में देखा था कि अस्सी के दशक में कई गरीबों की हत्या करने वाले एक आदमखोर सामंत की प्रतिमा का अनावरण रणवीर सेना से जुड़ा एक अपराधी जो बिहार के सत्ताधारी दल का विधायक भी है, कर रहा था। जिस तरह रणवीर सेना के सरगना को गांधी और किसानों का शुभचिंतक बताने के तमाम प्रपंच विफल हुए, उसी तरह उस आदमखोर को जुल्म के खिलाफ संघर्ष करने वाली जनता कभी भी समाजसेवी नहीं मान सकती। इस गांव में तो जनता अब भी अकारी जी का लिखा वह गीत गा रही थी, जिसमें वर्णन था कि किस तरह वह आदमखोर जनप्रतिरोध में मारा गया था। यह लड़ाई हमेशा जुल्म करने वालों के खिलाफ रही है, किसी जाति के खिलाफ नहीं रही।
यह एक संयोग था कि वह आदमखोर जिस उंची जाति का था, उसी उंची जाति से आने वाले एक शहीद कामरेड वीरबहादुर सिंह इस गांव की राजनीति और संस्कृति में गहरे पैठे हुए थे। 1976 में उनकी ही जाति के सामंतों ने उनकी हत्या कर दी थी। उन्होंने गरीबों के जागरण के लिए संगीत-नाटक मंडली बनाई थी। नाटक और गीत भी लिखे थे। उनके गीत आज भी इस गांव के लोग गाते हैं। उनके साथ काम कर चुके सतहत्तर साल के शर्मा जी ने उनके द्वारा ही रचित गाना ‘इंसान जहां भूखो मरते, हैवान अमीरी करते हैं’ गाया तो लगा जैसे फिर वे अपनी जवानी के दिनों में पहुंच गए। सामने बैठी महिलाओं ने कहा कि बिना गाना के इस गांव में किसी बैठक की शुरुआत नहीं होती। पंद्रह साल से लेकर सत्तर साल के कलाकार थे इस गांव में। न केवल गायक और वादक, बल्कि खुद नए-नए गीत रचने वाले, आसपास की विसंगतियों और संघर्ष की जरूरतों के गीत। 
बबन शर्मा अपने एक गीत में उस जनता से संबोधित थे कि जिसने भाजपा को वोट दिया था, वे बता रहे थे कि वोट देने से उसे क्या नुकसान हुआ, तो दूसरे गीत में रोजगार गारंटी, इंदिरा आवास आदि योजनाओं में मौजूद भ्रष्टाचार को निशाना बना रहे थे, वहीं 15 साल के किशोर मंटू अपनी वर्ग स्थिति पर खड़े होकर अपने आसपास की चीजों को परख रहे थे। स्कूलों में मिल रही खिचड़ी पर उन्होंने काफी पोपुलर अंदाज में एक गीत लिखा था कि खिचड़िया ले गइल लइकन के पढ़ाई। उनके अपने तर्क थे कि किस तरह पढ़ाई-लिखाई की ही अवहेलना हो रही है। यहां तक कि उनका भक्ति गीत भी आजकल प्रचलित भक्ति गीतों की लंपट और उत्तेजक प्रवृत्ति के विपरीत गरीब और निर्धन जनता के सवालों को उठा रहा था। अपराधियों के ठिकाने को खोजने, भटके हुए भाइयों की एकता बनाने और विजय के लिए गरीबों की एकता बनाने का निवेदन उसमें था। मुझे उसे सुनते हुए याद आ रही थी निराला की कविता ‘राम की शक्तिपूजा’ की पंक्तियां- ‘अन्याय जिधर है उधर है शक्ति’ और ‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना।’  
.... ओज और उत्साह से भरी इस टीम के संयोजक बबन शर्मा बनाए गए।...उनकी आवाज में एक इस्पाती दृढ़ता और लचीलापन था- एक हरफनमौला कलाकार, ओज भरी आवाज में गायन, वादन और लेखन भी। लाल झंडे, पार्टी की राजनीति और आंदोलन से सीधे जुड़े आह्वान गीत भी अद्भुत सृजनात्मकता से रचे गए थे- जब जब घटा छाया काल, उसे मिटा दिया लाल/ ले झंडा हाथ लाल, चल मंजिल बना मिसाल। बीच-बीच में बिल्कुल लय के साथ इंकलाब जिंदाबाद, भाकपा-माले जिंदाबाद की गूंज। ऐसा महसूस हो रहा था कि हम किसी जुलूस में हों और एक जबर्दस्त मार्चिंग सान्ग बज रहा हो। आखिर में उन्होंने जो गीत सुनाया, उसमें कई जनसंहारों की तारीखों का जिक्र था और उन्हें याद रखने का निवेदन था। हमें महसूस हुआ कि लड़ाई कई मोर्चे पर जारी है।...

इंसाफ के लिए संगठित होता आक्रोश
गवाह लक्ष्मण राजवंशी का घर और टूटा हुआ दरवाजा 
14 नवंबर को हमलोग बाथे पहुंचे। पहुंचते ही गवाह लक्ष्मण राजवंशी जी से मुलाकात हुई, जिनकी बेटी और पतोहू समेत परिवार के तीन लोग मारे गए थे। वे नीतीश सरकार के खिलाफ काफी आक्रोश से भरे हुए थे। हमने कहा कि सरकार तो कह रही है कि वह सुप्रीम कोर्ट जाएगी। इस पर वे बोले- सुप्रीम कोर्ट का जाएंगे, उनकी सरकार है, उन्हीं की राय से सब हुआ है, तीन माह बीतने वाला है, चकमा दे रहे हैं कि अपील कर रहे हैं। 
लक्ष्मण जी कोर्ट और सरकार के रवैये से बहुत दुखी थे। उन्होंने कहा कि अच्छा होता कि सरकार हमें ही फांसी पर चढ़ा देती। संतोष ने धीरे से जनकवि निर्मोही के गीत की याद दिलाई- रहिहें ना मजूर नाहिं करिहें मजदूरी/ चलवा द ए नीतीश गरदनिए पर छूरी। यही कह रहे थे लक्ष्मण जी- महादलित बनवावे के काम कइलें, आ कटववलें। पीड़ित जनता हाईकोर्ट के फैसले को दुबारा जनसंहार करने के तौर पर ही देखती है। 
शहीद स्मारक बाथे 
...लक्ष्मण जी ने हमें बताया कि गवाही के दौरान उन्होंने लगातार धमकियां दी, कदम-कदम पर उनके लोग थे। गवाही से पलटने के लिए 25 लाख रुपया का प्रलोभन भी दिया, पर वे नहीं माने। 
लक्ष्मण राजवंशी को कतई आशंका नहीं थी कि हाईकोर्ट से हत्यारों की रिहाई का फैसला आएगा। हम जहां बैठे हुए थे, वहीं बगल में एक टीन का धुंधला सा बोर्ड लगा हुआ था। बायीं ओर भाकपा-माले द्वारा बनाया हुआ स्मारक था। हमें दिलचस्पी हुई कि उस टीन के बोर्ड पर क्या लिखा हुआ है। काफी ध्यान से देखने पर पता चला कि इस पर भी मृतकों की सूची दर्ज है, जिसे मजदूर किसान संग्रामी परिषद संगठन की ओर से लगाया गया था। यह संगठन पार्टी यूनिटी, फिर पीपुल्स वार से जुड़ा हुआ था। अब इससे जुड़े लोग भाकपा-माओवादी के साथ हैं। हमने पूछा कि यह बोर्ड जिन लोगों ने लगाया है, वे कभी आए? लक्ष्मण जी बोले- कोई नहीं आया।
...हत्यारों की रिहाई से बाथे के नौजवान बिल्कुल खौफजदा नहीं थे। नौवीं कक्षा में पढ़ने वाले एक नौजवान ने कहा कि वह तो अचक्के में यानी अचानक हुआ था, अब हम सचेत हैं, अब कोई करके देखे। वहीं हमारी मुलाकात विमलेश राजवंशी से हुई, जिनके चेहरे पर दुख, क्षोभ और गुस्से का एक स्थायी भाव सा था। हमें मालूम हुआ कि उनके परिवार के पांच लोग- दो भाई, दो भाभी और पिता की हत्या हुई थी। गोली उन्हें भी लगी थी और वे बेहोश होके लाशों के नीचे वे दब गए थे। बाद में इलाज हुआ और बच गए। उन्होंने कहा कि यह फैसला कोई अंत नहीं है।...
एक नौजवान ने हत्यारों की नृशंसता के बारे में बताते हुए कहा कि उनको कभी माफ नहीं किया जा सकता, एक साल के बच्चे को उनलोगों ने गोली मारा था, वह बिधुना (क्षत-विक्षत) गया था। मैंने फिर नौजवानों के मिजाज की थाह लेनी चाही कि क्या कभी मन नहीं करता कि आप लोग भी उन्हीं के तर्ज पर बदला लें? उनका दो टूक जवाब था- हम औरतों-बच्चों को मारना नहीं चाहते, क्योंकि उन्होंने हमारा कुछ नहीं बिगाड़ा है। हम तो चाहते हैं कि दोषियों को सजा मिले। इस तरह का बदला हम नहीं लेना चाहते कि जाके कहीं किसी को मार दें।...
देश बाल दिवस मना रहा था। बाथे में बिल्कुल छोटे बच्चे अपने स्लेट व किताब-कॉपी के थैले संभाले गांव की गलियों से अपने घरों को लौट रहे थे। नौजवानों में आक्रोश था। बुजुर्गों में क्षोभ था। मेरे जेहन में बाल दिवस और स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर खूब बजने वाला गीत गूंज रहा था- इंसाफ के डगर पे बच्चो दिखाओ चल के/ ये देश है तुम्हारा नेता तुम्हीं हो कल के। सोच रहा था कि कहां है इंसाफ की डगर? इस देश में उस डगर को कितना दुर्गम बना दिया गया, कितने छलावों से उसे भर दिया गया है! लेकिन खुद उस डगर की जो गड़बड़ियां हैं, वे भी इंसाफपसंद लोगों के संघर्ष के जरिए ही दुरुस्त होंगी, यह तय है।

Thursday, November 7, 2013

श्रद्धांजलि : परमानन्द जी ने कविता को एक असमाप्त जीवंत-प्रक्रिया के रूप में देखा-समझा- जसम


सुप्रसिद्ध आलोचक परमानंद श्रीवास्तव ( 1935-2013) का दिनांक 5 नवम्बर को गोरखपुर में 78 वर्ष की आयु में निधन हो गया. आधी सदी से भी ज़्यादा के अपने रचनात्मक जीवन में उन्होंने आलोचना की एक दर्जन पुस्तकें लिखीं. ‘नयी कविता का परिप्रेक्ष्य’(1965),’हिन्दी कहानी की रचना प्रक्रिया’ (1965,’कवि-कर्म और काव्य-भाषा’(1975) ‘उपन्यास का यथार्थ और रचनात्मक भाषा’ (1976),‘जैनेन्द्र के उपन्यास’ (1976),‘समकालीन कविता का व्याकरण’ (1980), ’समकालीन कविता का यथार्थ’ (1988). ‘शब्द और मनुष्य’ (1988), ‘उपन्यास का पुनर्जन्म’(1995),‘कविता का अर्थात’(1999),‘कविता का उत्तर जीवन’ (2005), ’दूसरा सौंदर्यशास्त्र क्यों?’(2005) उनकी आलोचना संबंधी पुस्तकें हैं. उनके छः कविता संग्रह हैं- ‘उजली हंसी के छोर पर’( 1960),‘अगली शताब्दी के बारे में ‘ (1981), ‘चौथा शब्द’ (1993),‘एक अनायक का वृत्तांत’ (2004), ‘प्रतिनिधि कवितायेँ’(2008) और  ‘इस बार सपने में ‘(2008). ‘मेरे साक्षात्कार’ शीर्षक से उनके साक्षात्कारों की पुस्तक 2005में प्रकाशित हुई. उनके दो निबंध संग्रह ‘अँधेरे कुँए से आवाज़’ और ‘सन्नाटे में बारिश’ क्रमशः 2005 और 2008 में प्रकाशित हुए. उन्होंने पाब्लो नेरुदा की 70 कविताओं का अनुवाद किया और साहित्य अकादमी से निराला और जायसी पर उनके दो मोनोग्राफ प्रकाशित हुए. साहित्य अकादमी से ही ‘समकालीन हिन्दी कविता’ और ‘समकालीन हिन्दी आलोचना’ के संचयन उनके सम्पादन में क्रमशः 1990 और 1998 में निकले. काफी समय तक वे ‘आलोचना’ पत्रिका से जुड़े रहे, पहले नामवर सिंह के सम्पादक रहते हुए उनके साथ सह-सम्पादक के रूप में, फिर सम्पादक के बतौर और इस दरम्यान दोनों आलोचकों ने इस पत्रिका को रचना और विचार की एक समर्थ और अग्रणी पत्रिका के रूप में निखार दिया.
   परमानंद जी कविता के मर्मज्ञ आलोचक ही नहीं थे, बल्कि कहना चाहिए कि उन्होंने कविता के जीवन को आखिरी हद तक जा कर देखने का मिजाज़ विकसित किया था, कविता के जीवन को ही नहीं उसके उत्तर-जीवन को, उसके पुनर्जन्म को भी. वे कविता ही नहीं, बल्कि समूचे सृजन की उत्तर-जीविता को एक ऐसे समय में रेखांकित कर रहे थे, जब इतिहास, कर्ता, कला, साहित्य और सृजन सबके अंत की घोषणाएँ हो रही थीं. भारतीय परिप्रेक्ष्य में इस परिघटना के कुछ अन्य आयाम भी थे. ‘कविता का उत्तर-जीवन’ शीर्षक पुस्तक के पूर्वकथन में वे लिखते हैं, देखते देखते कविता को सस्तेपन की ओर, भद्दी तुकबंदियों की ओर और अश्लील मनोरंजन तक सीमित रखने का जो दुश्चक्र साम्प्रदायिक ताकतों के एजेंडे पर है, उसे देखते हुए भी कहा जा सकता है कि कविता की जीवनी शक्ति असंदिग्ध है. यही समय है कि ग़ालिब, मीर, दादू, कबीर भी हमारे समकालीन हो सकते हैं.  
कविता के श्रेष्ठ आलोचक और भी रहे और हैं, लेकिन कविता को एक असमाप्त जीवंत-प्रक्रिया के रूप में देखना समझना और उससे डूब कर प्यार करना परमानंद जी का अपना निराला रास्ता था. परमानंद जी ने कविता के अर्थ, कविता में बहते समय, कविता और समाज के रिश्ते, कविता और पाठक के बीच संवाद पर लगातार विचार किया और उसे जीवनानुभूति और जीवन-ज्ञान के एक समानांतर संसार की तरह समझा. काव्यभाषा पर उनकी गहरी पकड़ थी, लेकिन नयी कविता के संस्कार में दीक्षित आलोचकों की तरह उन्होंने उसे एकमात्र या सर्वोपरि निकष नहीं बनाया. भक्ति-काल से लेकर बिलकुल अभी तक की कविता पर उन्होंने लिखा. हिन्दी कविता में जितने कवियों पर उन्होंने लिखा,शायद अन्य किसी आलोचक ने नहीं और जिन पर उन्होंने लिखा उनमें समकालीन कविता के नव्यतम हस्ताक्षर तक शामिल हैं. उपन्यास और कहानी पर लिखते हुए भी वे बराबर नव्यतम पीढी के रचना संसार से रिश्ता जोड़े रहे. स्त्री जीवन पर केन्द्रित और खुद स्त्रियों द्वारा लिखे साहित्य को उन्होंने ख़ास तौर पर रेखांकित किया और स्त्री रचनाशीलता की अपनी अलग शख्सियत को महत्त्व दिया. अनामिका, गगन गिल, सविता सिंह, नीलेश रघुवंशी, अनीता वर्मा, कात्यायनी या तेजी ग्रोवर, इन कवयित्रियों के काव्यस्वर में समवेत क्या है और इनकी विशिष्टताएं क्या हैं, उन्हें लक्षित करना उन्होंने ज़रूरी समझा. परमानंद जी ने आधुनिक भारतीय कविता के बुनियादी सेक्युलर चरित्र का बारम्बार रेखांकन करते हुए मराठी, बांग्ला, मलयालम, उडिया, असमिया, पंजाबी, कन्नड़ आदि भाषाओं की समकालीन रचनाशीलता को भी सामने रखा.
उनके जीवन में सादगी और खुलापन तो था ही, साम्प्रदायिकता और जन-विरोधी शासकीय नीतियों के खिलाफ एक नागरिक के बतौर वे लगातार मुखर रहे. पूर्वी उत्तर-प्रदेश के नाभि-केंद्र गोरखपुर में रहते हुए सेक्युलर और प्रगतिशील बौद्धिक दायरे के निर्माण में कई दशकों से उनकी एक प्रमुख भूमिका रही और यह कार्य आसान कतई न था. वाद- विवाद, सहमति-असहमति को उन्होंने कभी भी व्यक्तिगत नहीं माना और हरदम उसे वैचारिक दायरे की ही चीज़ समझा. उन्होंने लिखा है, कविता शब्दों में या शब्दों से लिखी ज़रूर जाती है पर साथ ही अपने बाहर या आसपास वह जगह भी छोड़ती चलती है जिसे पाठक अपनी कल्पना और समय के अनुरूप भर सकता है. परमानंद श्रीवास्तव की आलोचना के बारे में भी बहुत हद तक यही बात कही जा सकती है.
परमानंद जी का जाना साहित्य की दुनिया में एक बड़े खालीपन की तरह लगता है. नयी रचनाशीलता को इस खालीपन को भरने की चुनौती और दायित्व को उठाना होगा.
परमानंद जी को जन संस्कृति मंच की हार्दिक श्रद्धांजलि.

Tuesday, October 29, 2013

श्री राजेन्द्र यादव को जन संस्कृति मंच की श्रद्धांजलि


श्री राजेन्द्र यादव ( 28 अगस्त 192928 अक्तूबर 2013)अचानक चले गए. उनका जाना असमय इसलिए है कि अपने समवयस्कों के बीच जीवितों में वे ही थे जो बाद की साहित्यिक पीढ़ियों के बीच भी सबसे जीवंत और विवादास्पद बने रहे. अपने आधा दर्जन उपन्यास और इतने ही कहानी संग्रह, एक कविता-संग्रह और ढेरों आलोचनात्मक लेखों से ही वे साहित्य की दुनिया में एक कद्दावर हैसियत रखते थे, लेकिन और बहुत कुछ था जो उन्हें विशिष्ट बनाता था.
हिन्दुस्तानी समाज में इस उम्र में दुनिया छोड़ देना बहुत हैरत की बात नहीं, लेकिन हैरत और दुःख इसलिए है कि वे बिलकुल कल तक ज़िंदगी की हरकतों के बीच बने रहे, जमे रहे, अड़े रहे. कोई उनसे सहमत हो या असहमत, उनकी उपस्थिति और उनके साथ संवाद से मुंह नहीं मोड़ सकता था. वे यारों के यार थे, लेकिन जो उनसे मुखालिफ विचार रखते थे, उनके लिए भी वे एक ऐसे प्रतिद्वंद्वी थे जिसके बगैर उनसे प्रतिद्वंद्विता रखने वाले साहित्यिक आचार और विचार भी खुद को ‘कुछ कम’ सक्रिय महसूस करते थे.
राजेन्द्र यादव ‘नयी कहानी’ के स्तंभों में तो थे ही, ‘हंस’ पत्रिका के सम्पादक के नए अवतार में उन्होंने अपने ‘सम्पादकीयों’ के ज़रिए 1980 के दशक के मध्य से जिन बहसों को छेड़ा वे साहित्य और समकालीन समाज के रिश्ते की बेहद महत्वपूर्ण बहसें थीं. बहस चाहे 1857 के मूल्यांकन के बारे में हो, ‘पुरुष की निगाह में स्त्री’ के बारे में हो या फिर हिन्दुस्तानी मुसलमानों के बारे में, वे हरदम ही एक पक्ष थे जिसके बरअक्स अन्य लोगों को बात करना ज़रूरी लगता था. राजेन्द्र यादव बहस उकसाते थे, प्रतिक्रियाएं जगाते थे. इस उद्देश्य के लिए चाहे जितनी सनसनी की जरूरत हो, उन्हें इससे गुरेज़ न था.
राजेन्द्र यादव का आग्रह था कि अस्मितामूलक साहित्य को ही नयी प्रगतिशीलता माना जाए. इसके लिए उन्होंने ‘हंस’ पत्रिका को एक मुखर मंच बनाया. लेकिन प्रतिद्वंद्वी विचारों के लिए जगह की कोई कमी पत्रिका में भरसक नहीं थी. उनके जरिए पिछले ढाई दशकों में ‘हंस’ ने तमाम युवा स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और पिछड़े समुदाय की प्रतिभाओं से हिन्दी जगत को परिचित कराया. इन वर्षों में प्रगतिशील चेतना की तमाम कहानियां ‘हंस’ के ज़रिए प्रकाश में आयीं. वे मोटे तौर पर एक उदारवादी, सेक्युलर और लोकतांत्रिक बुद्धिजीवी की भूमिका जीवनपर्यंत निभाते रहे. ‘कुफ्र’ कहने की आदत उनकी अदा थी जो लोगों को रुचती थी, सहमति या असहमति की बात दीगर है.         
उनके कथा- लेखन की प्रयोगधर्मिता निश्चय ही उल्लेखनीय है, लेकिन पिछले तीन दशकों से ‘मैं’ शैली में बेबाक ढंग से, अंतर्विरोधग्रस्त होने, गलत या सही समझे जाने के खतरों को उठाते हुए बोलना और लिखना उन्हें एक निराली साहित्यिक शख्सियत प्रदान करता है जिसकी कमी लम्बे समय तक हिन्दी की साहित्यिक दुनिया को खलती रहेगी.  
उन्होंने लेखन, सम्पादन के अलावा जीविका के दूसरे साधन नहीं तलाशे. ये हमारी आज की दुनिया में बेहद मुश्किल चुनाव है. जन संस्कृति मंच हिन्दी की इस निराली शख्सियत को अपनी श्रद्धांजलि पेश करता है .

(जन संस्कृति मंच की ओर से सुधीर सुमन द्वारा जारी)

कामरेड रामनरेश राम की स्मृति के साथ भोजपुर में



एक पत्रिका के लिए बाथे जनसंहार पर आए फैसले पर लेख लिखना था, लेकिन लगातार भागदौड़ मे वह लेख अब तक पूरा नहीं हो सका है। जब से बाथे जनसंहार पर हाईकोर्ट का फैसला आया है, तबसे तमाम किस्म के बहसों के बीच मुझे एक शख्सियत की सबसे ज्यादा याद आती रही, जिन्होंने भोजपुर में गरीबों के क्रांतिकारी जागरण का नेतृत्व किया और आज जबकि वे नहीं हैं, तब भी गरीब-मेहनतकशों के लिए वे जीवित संदर्भ की तरह हैं। जब भी शासकवर्गीय नजरिए से कोई हत्यारों के बचाव में भूस्वामियों पर अत्याचार की फर्जी कहानियां सुनाता है, तब साठ और सत्तर के दशक में का. रामनरेश राम और उनके साथियों द्वारा शुरू किए गए सामंतवादविरोधी संघर्ष की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों की ओर ध्यान चला जाता है। सामाजिक-आर्थिक विषमता, शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ तमाम गरीब मेहनतकश समुदाय के लोगों के राजनीतिक जागरण की शुरुआत तो उन्होंने इसी व्यवस्था द्वारा निर्धारित तौर-तरीकों से की, लेकिन सामंती-वर्णवादी शक्तियों को यह मंजूर नहीं था। वे मुखिया के चुनाव में खड़े हुए। लेकिन गांव के वर्चस्वशाली लोगों ने कहा कि इस पंचायत में सर्वसम्मति से मुखिया का चुनाव होता है। जब उन्होंने चुनाव लड़ने का इरादा नहीं बदला, तब भूस्वामियों ने एक नया पैंतरा लेते हुए यह शर्त रखा कि गांव में जो पोखरा है, उसके घाट का पक्कीकरण करना है, उसमें पांच हजार रुपये लगेंगे, जो पांच हजार रुपये देगा, उसे ही सर्वसम्मति से मुखिया बनाया जाएगा। रामनरेश राम ने सीधा सवाल किया कि इसका मतलब यह है कि जिसके पास धन नहीं होगा, वह मुखिया नहीं बनेगा। उन्होंने भूस्वामियों की एक नहीं सुनीं और चुनाव में खड़े हुए और मुखिया का चुनाव जीते। दरअसल धन की राजनीति के खिलाफ जन की राजनीति करना है, यह तो उन्होंने उस वक्त ही तय कर लिया था, जब 40 के दशक के उत्तरार्ध में कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए थे। कम्युनिस्ट पार्टी उस वक्त प्रतिबंधित थी. मुखिया होने से पहले वे भोजपुर में किसानों के कई लोकप्रिय आंदोलनों का नेतृत्व कर चुके थे। मुखिया के कार्यकाल के दौरान उन्हें तरह तरह के फर्जी मुकदमों में फंसाने और उनकी हत्या करने की भी कोशिश की गई, पर गरीबों के दुश्मनों को सफलता नहीं मिली। अपने जीवन के आखिर तक गरीब-मेहनतकशों के बीच वे मुखिया जी के रूप में ही मशहूर रहे। हालांकि इस बीच 1967 में सीपीआई-एम ने उन्हें सहार विधान सभा से अपना प्रत्याशी बनाया और उन्हीं के गांव एकवारी के जगदीश मास्टर, जो आरा जैन स्कूल में विज्ञान के शिक्षक थे, उनके चुनाव एजेंट बने। चुनाव के दौरान उसी गांव में भूस्वामी अपने उम्मीदवार के पक्ष में फर्जी वोटिंग कर रहे थे, जिसका जगदीश मास्टर ने विरोध किया, उसकी प्रतिक्रिया में उनलोगों ने उन पर जानलेवा हमला किया। इस बीच नक्सलबाड़ी विद्रोह की चिंगारी एकवारी पहुंची और सामाजिक उत्पीड़न व अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के हिंसक दमन के खिलाफ के खिलाफ रामनरेश राम, जगदीश मास्टर और रामेश्वर यादव के नेतृत्व में गांव के गरीबों ने अपनी मान मर्यादा, लोकतांत्रिक हक अधिकार के लिए सशस्त्र प्रतिरोध का रास्ता अख्तियार किया। भूस्वामियों के साथ पूरी राज्य मशीनरी, पुलिस और न्यायपालिका शामिल थी। गरीब-मेहनतकशों के प्रतिरोध का भीषण दमन किया गया। जगदीश मास्टर और रामेश्वर यादव समेत रामनरेश राम के कई क्रांतिकारी साथी शहीद हो गए, लेकिन उस भीषण दमन के दौर में भी भूमिगत होकर वे गरीब-मेहनतकशों के आंदोलन को आगे बढ़ाते रहे और अपने शहीद साथियों के सपनों को साकार करने में लगे रहे। 

का. रामनरेश राम ने संघर्ष के सारे मोर्चों पर एक बेमिसाल कम्युनिस्ट क्रांतिकारी के तौर पर अपनी भूमिका अदा की और हर मोर्चे को जरूरी समझा। वे अपनी पार्टी और उसके आंदोलन को 1857 से लेकर भगतसिंह और उनके साथियों, तेलंगाना, तेभागा तथा 1942 के आंदोलन में मौजूद जनप्रतिरोध की पंरपरा से जोड़ते थे। खुद अपनी पहल पर उन्होंने भोजपुर के लसाढ़ी में ब्रिटिश सैनिकों से पंरपरागत हथियारों के साथ जूझ पड़ने वाले 12 शहीदों का स्मारक बनवाया। 1857 की 150 वीं वर्षगांठ पर जगदीशपुर में उनकी पहल पर भोजपुर के संग्रामी मजदूर किसानों ने साम्राज्यवादविरोधी महासंग्राम के नायक कुंवर सिंह को याद किया। 

28 साल बाद जब विरोधी पार्टियों की तमाम साजिशों के बावजूद का. रामनरेश राम उसी सहार विधान सभा से भाकपा माले के प्रत्याशी के रूप में निर्वाचित हुए, तो फिर जीते जी उन्हें कोई परास्त नहीं कर पाया। एक विधायक के तौर पर अपनी ईमानदारी और पारदर्शी तरीके से काम करने की जो मिसाल उन्होंने कायम की, वह दुर्लभ है। उनके साथ ही बगल के संदेश विधान सभा से का. रामेश्वर प्रसाद की भी 1995 में जीत हुई थी। दरअसल मंडल-कमंडल की राजनीति के उस दौर में गरीबों की यह राजनीतिक जीत सामंती-सांप्रदायिक अवशेषों पर टिकी राजनीति को बर्दाश्त नहीं हुई। सत्ताधारी पार्टी राजद की शह पर तब रणवीर सेना का गठन हुआ और उसे भाजपा, समता (अब की जद-यू), कांग्रेस सबने संरक्षण दिया। रणवीर सेना ने बेगुनाह गरीबों, दलित-पिछड़े-अल्पसंख्यकों के बेहद नृशंस तरीके से जनसंहार किए। महिलाओं और बच्चों को भी नहीं छोड़ा गया। यहां तक की गर्भस्थ बच्चों की भी हत्या की गई। और रणवीर सेना सरगना ने तर्क दिया कि ये महिलाएं नक्सलियों को जन्म देती हैं और बच्चे नक्सली बनते हैं, इसलिए इनकी हत्या जायज है। जबकि शासकवर्ग की पूरी मंशा यह थी कि गरीब-मेहनतकशों का राजनैतिक आंदोलन हिंसा-प्रतिहिंसा के दुष्चक्र में फंसकर खत्म हो जाए, तब का. रामनरेश राम के नेतृत्व में भाकपा-माले ने बड़ी धैर्य से शासकवर्ग की इस बर्बर राजनैतिक चुनौती का सामना किया। बथानीटोला में जनसंहार के मृतकों का जो स्मारक बना है, वह अन्याय और जुल्म के खिलाफ गरीबों की लड़ाई के प्रति प्रतिबद्धता को ही जाहिर करता है।
इस स्मारक पर का. रामनरेश राम के शब्द दर्ज हैं कि एक जनवादी समाज और गरीब-मेहनतकशों के राज का निर्माण ही इन शहीदों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। इस अनावरण के तीन माह बाद ही का. रामनरेश राम का निधन हो गया था। 26 अक्टूबर 2010 को उनकी शवयात्रा में उमड़े विशाल जनसमूह की याद अब भी ताजा है। वे सही मायने में जननेता थे।
इस बार जब मैं भोजपुर पहुंचा तो अखबारों में इसकी खूब चर्चा थी कि बिहार में नरेन्द्र मोदी की रैली होने वाली है. बड़ा हाईटेक मंच बन रहा है. कि कभी चाय बेचने वाले के रूप में मोदी की लोकप्रियता बढ़ गई है, कि नमो चाय स्टाल खुल गए हैं, कि कितनी ट्रेनें और बसें रिजर्व की गई हैं. किसी ज़माने में एक सज्जन खुद को गरीबों का बेटा कहके बिहार में सत्ता में आये थे और अपनी कुर्सी के लिए गरीबों की हत्या करने वाली सामंती साम्प्रदायिक निजी सेना को संरक्षण दिया था, वे तो घोटाले में जेल गए, पर  घोटाले और गरीबों के जनसंहार के उनके संगी साथी आज भी सत्ता की होड में लगे थे और गरीबों के प्रति उसी तरह संवेदनहीन नज़र आ रहे थे. मोदी के चाय बेचने वाले ड्रामे का गरीबों पर कोई असर नहीं दिख रहा था. वे तो सवाल कर रहे थे कि हुंकार रैली में जो करोड़ों रूपया खर्च हो रहा है, वह कहाँ से आ रहा है? धन की राजनीति साम्प्रदायिक-सामन्ती शक्तियों के हुंकार भरने की तैयारी में लगी थी, पर जन की राजनीति के पास जो कुछ संभव था उसी के जरिए अपने वास्तविक नायक को याद कर रही थी. मैंने देखा  कामरेड रामनरेश राम के स्मारक को. गरीबों को कोई फूलदान नहीं मिला तो उन्होंने एक कोल्ड ड्रिंक के दो हरे बोतलों को ही फूलदान बना दिया था.
कामरेड रामनरेश राम स्मारक, सहार, भोजपुर 
स्मारक से सोन का दृश्य 
कामरेड स्वदेश भट्टाचार्य द्वारा माल्यार्पण 
सोन के तट पर कामरेड रामनरेश राम का यह भव्य स्मारक है जिसके लिए एक गरीब कार्यकर्ता ने अपनी जमीन दी थी. हर साल 26 अक्टूबर को लोग भोजपुर के मजदूर-किसान जुटते हैं और उनके सपनों को साकार करने तथा उनके अरमानों को मंजिल तक पहुंचाने का संकल्प लेते हैं। सामने ही सहार और अरवल को जोड़ने वाला पुल दिखाई देता है, जिसके निर्माण के लिए उन्होंने सड़क से लेके विधानसभा तक में कई बार आवाज़ उठाई थी. गरीब मेहनतकश जनता की मांग थी कि इसे रामनरेश राम सेतु नाम दिया जाए, पर गरीबों का जनसंहार रचाने वालों को बचाने में लगी नीतीश सरकार को यह भला कैसे मंजूर होता. नीतीश राज में सड़कों के निर्माण को बहुत बड़ी उपलब्धि बताया जाता रहा है. लेकिन हमने देखा कि सड़कें टूट रही थीं. यहाँ तक कि जो फोरलेन सड़क बन रही थी, उसे देखके उसके निर्माण में भी भारी घोटाले का अंदेशा हो रहा था. अनायास रामनरेश जी के नेतृत्व में सड़क निर्माण के लिए हुए एक लोकप्रिय आन्दोलन की याद हो आयी. एक नहर के बगल से गुजरती एक टूटीफूटी सड़क के बारे में साथ चल रहे कामरेड जितेन्द्र ने बताया कि पहली बार यह सड़क रामनरेश जी ने ही बनवाई थी, पर हाल के वर्षों में  इसकी कोई मरम्मत नहीं की गई है.  लोग उन्हें इसका श्रेय देते हैं कि उन्होंने बहुत सारे वैसे गांव जहाँ बरसात में जा पाना मुश्किल था वहां सड़कें और पुल बनवाए. सिचाई के लिए आहरों का निर्माण करवाया. गरीब बस्तियों में उन्होंने खास तौर पर प्राथमिकता के आधार पर स्कूल भवन और सामुदायिक भवन बनवाए. साथ में भाकपा- माले के राज्य सचिव का. कुणाल और केन्द्रीय कमेटी सदस्य अमर भी थे. जो न केवल पारस जी की ऐतिहासिक भूमिका के साक्षी थे, बल्कि उनके साथ लंबे समय तक काम भी किया था. पारस जी? यही तो भूमिगत दौर में रामनरेश जी का नाम था. का. अमर अक्सर बताते है कि किस तरह वे छात्र जीवन में ही उनके साथ हो लिए थे. सचमुच इस पारस के संस्पर्श ने कितने ही नौजवानों के जीवन को क्रांतिकारी उर्जा और चमक से भर दिया और उनके जीवन को न केवल खुद उनके लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए अर्थपूर्ण बना दिया.
जिस सहार विधान सभा से का. रामनरेश राम जीतते थे, परिसीमन में उसका नाम बदल दिया गया है, पर इस तरह नाम बदलने से क्रांतिकारी इतिहास पर भला कैसे पर्दा पड़ सकता है, जबकि वह आंदोलन जारी है! अब इस विधान सभा का नाम तरारी विधान सभा हो गया है.
इस साल कार्यकर्ताओं ने तरारी प्रखंड कार्यालय परिसर में भी का. रामनरेश राम के स्मारक का शिलान्यास कार्यक्रम रखा था, जिसमें हजारों लोग मौजूद थे। सत्तर के दशक से ही भोजपुर आंदोलन में का. रामनरेश राम के साथ रहे और कभी जिस पार्टी को भोजपुर की पार्टी कहा जाता था, उसे पूरे देश की पार्टी बना देने के संघर्ष में उनके अभिन्न सहयोगी भाकपा-माले पोलित ब्यूरो सदस्य का. स्वदेश भट्टाचार्य ने स्मारक का शिलान्यास किया। 
शिलान्यास स्थल पर लोगों ने भारत का एक मानचित्र बना रखा था, जिसमें कामरेड रामनरेश राम का नाम लिखा हुआ था. गरीब-मेहनतकशों की इस आकांक्षा पर मीडिया का ध्यान भला कैसे जा सकता है. उन्हें मोदी और राहुल के नाटक दिखाने से फुर्सत मिले तब न! 







अम्बेडकर छात्रावास में स्मृति सभा


इसके बाद 27 अक्टूबर को राजकीय अंबेडकर कल्याण छात्रावास में भी एक स्मृति सभा हुई, जिसे मुख्य वक्ता के बतौर का. स्वदेश भट्टाचार्य ने संबोधित किया और एकताबद्ध सामाजिक लोकतांत्रिक आंदोलन के लिए छात्रों-नौजवानों का आह्वान किया। उन्होंने का. रामनरेश राम के संघर्ष को स्वाधीनता आंदोलन की विरासत से जोड़ा और कहा कि आज भी सामंती ताकतें गरीबों की आजादी, मान सम्मान और हक अधिकार को कुचल देना चाहती हैं, अदालतें अन्यायपूर्ण फैसले सुना रही हैं, ऐसे में गरीबों के राजनैतिक आंदोलन को और अधिक ताकतवर बनाना जरूरी है। का. रामनरेश राम के रास्ते पर चलकर ही गरीब अपने राजनैतिक हक अधिकार हासिल कर सकते हैं। उन्होंने विधायक के तौर पर भी उनकी भूमिका को याद किया कि किस तरह उन्होंने चार चार बार विधायक बनने के बावजूद अपने निजी हित में कुछ नहीं किया. जब उनके निधन के बाद पत्रकार उनके गांव पहुंचे तो उन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि  चार बार विधायक रहने वाले किसी व्यक्ति का एक खंडहरनुमा मिट्टी का घर हो सकता है। 
आरा पहुँचने से पहले ही जुझारू नौजवान साथी मनोज मंजिल की गिरफ्तारी की सूचना मुझे मिल चुकी थी. यहाँ पता चला कि कई फर्जी मुकदमें उन पर लाद दिए गए हैं. उनसे जब सीजीएम ने पूछा कि क्या जेल में भी आन्दोलन करोगे? उनका दोटूक जवाब था कि अगर कुछ गलत हुआ तो जरूर आन्दोलन करेंगे। प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि सीजीएम इस पर लाजवाब थे। मनोज मंजिल और आरा जेल में बंद अन्य साथियों के नेतृत्व में  500 बंदियों द्वारा का. रामनरेश राम की स्मृति में सभा किए जाने की सूचना भी हमें मिली। एक दिन बाद ही पटना में माले की ‘खबरदार रैली’ है। अपने निधन से पूर्व उसी गांधी मैदान में का. रामनरेश राम ने गरीबों की और भी बड़ी रैली का आह्वान किया था। उसके बाद पिछले साल जो रैली हुई, वह पहले से बड़ी रैली थी, जिसमें बिहार की गरीब-मेहनतकश, लोकतंत्रपसंद जनता ने सरकारी रैली को जबर्दस्त चुनौती दी। उम्मीद है कि माले की ‘खबरदार रैली’ पिछली रैली से भी बड़ी होगी और कारपोरेट लूट व सामंती-सांप्रदायिक घृणा व उन्माद की राजनीति को जोरदार चुनौती देगी। हजारों गरीब-मेहनतकश लोगों, छात्र-नौजवानों, महिलाओं और लोकतंत्रपसंद-इंसाफपंसद बुद्धिजीवियों व नागरिकों की आंखों में उसी स्वप्न और संकल्प को  बिहार और देश के लोग देखेंगे, जिसे साकार करने के लिए का. रामनरेश राम और उनके साथियों ने आजीवन संघर्ष किया और संघर्ष की जिस विरासत को लेकर उनके साथी आगे बढ़ रहे हैं।
















Monday, October 28, 2013

बिहारी जनता की तर्कशीलता के पैमाने पर मोदी की रैली

बम विस्फोट ने मोदी की रैली को कुछ ज्यादा ही चर्चा दे दिया। वर्ना भीड़ इतनी अधिक नहीं थी, जिसके प्रचार में अखबारों के पन्ने रंगे हुए हैं। निश्चित तौर पर यह भीड़ भाजपा की पिछली रैलियों से अधिक थी। लेकिन क्या यह पूरे बिहार का प्रतिनिधित्व करने वाली रैली थी? यह सवाल इसलिए पैदा हो रहा है कि गांव जवार से लोग यही सवाल कर रहे हैं कि इस बार सड़क मार्ग से गाडि़यों का तांता नजर नहीं आया, तो फिर लोग कहां से आए? अभी एक जिले के स्थानीय संस्करण में छपी एक खबर पर लोग सवाल खड़ा कर रहे थे कि पैसा लेकर लिखा है या दारु पीकर, बता रहा है कि गाडि़यों की कतार से जाम रही सड़कें, जो कि सरासर गलत है, दिन भर हमलोग यहीं थे, हमें तो कोई जाम नहीं दिखा। फिर जो रैली की तस्वीरें हैं, उसे भी अलग-अलग अखबारों से मिलाकर लोग इस खेल पर चर्चा कर रहे थे कि कैसे किसी रैली को बड़ी रैली दिखाया जा सकता है। 
यह तर्कशीलता ही बिहार की खासियत है। लगता है कि मोदी के प्रचार मैनेजमेंट वालों को यह तर्कशीलता नजर नहीं आती। लोग तो बम विस्फोट के वक्त और उसके स्थान को लेकर भी सवाल उठा रहे हैं। लोगों का यह कहना है कि अगर मोदी की भीड़ को प्रभावित करना बम विस्फोट करने वालों का मकसद होता, तो पहले ही विस्फोट करते, ठीक मोदी के भाषण के दो-तीन घंटा पहले अलग अलग जगहों पर विस्फोट की मंशा क्या है? खैर, जो भी हो, जब मोदी की रैली हो रही थी और नीतीश बाबू भाजपा की सांप्रदायिक साजिशों से नावाकिफ नहीं थे और इससे भी बाखबर ही होंगे कि किस तरह सांप्रदायिक राजनीति के सूत्र आईबी तक से जुड़े हुए हैं, इसके बावजूद उनकी पुलिस और खुफिया विभाग ने चौकसी क्यों नहीं रखी? सवाल यह भी है कि क्या इस मामले की सही ढंग से पड़ताल की जाएगी या इसके आड़ में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का वही खेल चलेगा, जो पूरे देश में पिछले दो दशक से भाजपा-कांग्रेस, सपा और अन्य पार्टियां खेल रही हैं?
खैर, मोदी महिमा मंडन में डूबी मीडिया में कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिन्होंने अपना होश नहीं खोया। इस रैली में कौन सा बिहार मौजूद था, इसके बारे में दैनिक हिंदुस्तान में आशीष कुमार मिश्र ने लिखा है। उन्होंने मोदी के भाषण कला की तारीफ भी की है, जिससे मैं असहमत हूं, क्योंकि मोदी का अपना कुछ नहीं है, वह तो प्रचार एजेंसियों के कठपुतले का भाषण था, जो लोकप्रियता के हर लटके-झटके का इस्तेमाल कर लेना चाहता है। बहरहाल आशीष ने चिह्नित किया है कि रैली में कौन सा वर्ग आया था। जाहिर है कि वे गरीब नहीं थे, जिनसे मोदी हुंकार भरने को कह रहे थे। दूसरे आशीष ने इस पर भी सवाल उठाया है कि मोदी के भाषण में दलित और अल्पसंख्यक समुदाय के महापुरुषों का नाम नहीं था। उन्होंने रैली में शामिल नौजवानों के कम सउर के होने को भी चिह्नित किया है, साथ ही उनकी नजर इस पर है कि रैली में महिलाओं की संख्या कम थी। उनका यह मानना है कि यह रैली बिहार का यथार्थ नहीं, बल्कि उसके उच्च मध्यवर्ग और मध्यवर्ग का चेहरा था।
इतना तो तय है कि यह रैली गरीबों की रैली नहीं थी। वैसे भी गरीबों के हत्यारों के पक्ष में खड़ी पार्टी के साथ गरीब कैसे हो सकते हैं? लेकिन मेरा सवाल तो मोदी के भाषण लेखकों से है कि भाई महापुरुषों का तो अपमान न करो। गांधी के हत्यारे गोडसे की तारीफ करने वालों के मुंह से चंपारण के गांधी की याद और देश भर में सांप्रदायिक कत्लेआम की राजनीति को बढ़ावा देने वाले, गुजरात के राज्य प्रायोजित कत्लेआम के दोषी के मुंह से महान स्वाधीनता सेनानी कुंवर सिंह का नाम सुनना भी विडंबनापूर्ण ही था। यह किसको नहीं पता कि कुंवर सिंह के नेतृत्व में साम्राज्यवादविरोधी युद्ध के हिरावल गरीब-दलित लोग थे, मुसलमान उस लड़़ाई में कंधे से कंधा मिलाकर लड़े थे। कारपोरेट लूट और साम्राज्यवादी अर्थनीति का कोई पैरोकार, मुसलमानों व दलितों के जनसंहार को न्यायोचित बताने वाली कोई पार्टी भला कुंवर सिंह की परंपरा के साथ कैसे हो सकती है? नरेंद्र मोदी तो सम्राट अशोक की परंपरा को भी कलंकित करने वाले हैं। अशोक ने तो कलिंग जनसंहार के बाद युद्ध से तौबा कर लिया था, और एक तरह से प्रायश्चित किया था, लेकिन मोदी तो आरएसएस के हैं, वे प्रायश्चित कैसे कर सकते हैं, न तो उन्हें और उनकी पार्टी को बाबरी मस्जिद ध्वंस पर प्रायश्चित करना है, न उसके बाद हुए कत्लेआम पर और न गुजरात जनसंहार पर, वह तो उनके लिए शौर्य का प्रदर्शन है, वे तो अभी अंधराष्ट्रवाद और सांप्रदायिक फासीवादी अभियान के तहत ‘हुंकार’ भर रहे हैं। जहां तक छठ पूजा की बात है, तो यह भी याद रखना चाहिए कि वह सूर्य की उपासना का त्योहार है। सूरज अपने आप में एक प्रतीक भी  है। मुझे तो एक गीत याद आ रहा है- जगत भर की रोशनी के लिए करोड़ों की जिंदगी के लिए/ सूरज रे तू जलते रहना। तो जो सूरज खुद जलके रोशनी देता है, उसकी पूजा होती है छठ में, लोगों के घरों और उनको जला देने वाली किसी आग की बिहार के गरीब लोग पूजा नहीं करते। 

Wednesday, October 9, 2013

युवा रंग निर्देशक प्रवीण कुमार गुंजन पर पुलिसिया हमले की निंदा


निरंकुश पुलिसिया राज के खिलाफ सांस्कृतिक प्रतिवाद वक्त की जरूरत है : जन संस्कृति मंच 
नई दिल्ली: 08 अक्टूबर 2013

जन संस्कृति मंच देश के प्रतिभावान युवा रंग निर्देशक प्रवीण कुमार गुंजन की बिहार के बेगुसराय में नगर थाना प्रभारी द्वारा बर्बर पिटाई की कठोरतम शब्दों में निंदा करता है और दोषी पुलिस अधिकारी की बर्खास्तगी की मांग करता है तथा इस बर्बर पुलिसिया हमले के खिलाफ आंदोलनरत बेगूसराय के संस्कृतिकर्मियों के प्रति अपनी एकजुटता का इजहार करता है। एनएसडी से पास आउट प्रवीण कुमार गुंजन ने निर्देशन की शुरुआत ‘अंधा युग’ से की थी। उसके बाद उन्होंने मुक्तिबोध की कहानी ‘समझौता’ पर आधारित नाटक का निर्देशन किया, जो बेहद चर्चित रहा। उन्होंने शेक्सपियर के मशहूर नाटक ‘मैकबेथ’ का भी निर्देशन किया। प्रवीण द्वारा नाटकों का चुनाव और बेगुसराय जैसी जगह को अपनी गतिविधियों का केंद्र बनाना भी अपने आप में महत्वपूर्ण है। भारत के राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदित संगीत नाटक कला अकादमी का बिस्मिल्ला खां युवा पुरस्कार और बिहार सरकार का भिखारी ठाकुर युवा रंग सम्मान पा चुके इस युवा रंग निर्देशक के ऊपर पुलिस अगर बेवजह इस तरह बर्बर कार्रवाई का दुस्साहस कर सकती है, तो कल्पना की जा सकती है कि इस देश की आम जनता और आम संस्कृतिकर्मियों के साथ उसका किस तरह का रवैया रहता होगा। 
बेगूसराय से मिली सूचना के अनुसार प्रवीण कुमार गुंजन सोमवार की रात रिहर्सल के बाद रेलवे स्टेशन के पास स्थित चाय की दूकान के पास अपनी बाइक लगाकर साथी रंगकर्मियों के साथ पी रहे थे। चाय पीने के बाद वे लौटने ही वाले थे, तभी थाना प्रभारी अपने गश्ती दल के साथ पहुंचे और उनकी बाइक पर तीन सवारी होने का इल्जाम लगाया। उन्होंने कहा कि बाइक जब चल ही नहीं रही है, तो तीन सवारी कैसे हो गए? गुंजन की खूबसूरत दाढ़ी, उनका कैजुअल ड्रेस और उनके साथ कुछ रंगकर्मी युवकों का होना और पुलिसिया आतंक के आगे उनका न दबना, इतना काफी था बिहार पुलिस के लिए। थाना प्रभारी ने उन पर अपराधी होने का आरोप लगाया और उन्हें पीटना शुरू कर दिया। गुंजन ने उससे यह भी कहा कि वह अपने एसपी और जिलाधिकारी से फोन करके बात कर ले, लेकिन उसने एक नहीं सुनी और उनकी पिटाई जारी रखी। 
मंगलवार 8 अक्टूबर को जब द फैक्ट, जसम, आशीर्वाद रंगमंडल, नवतरंग से जुड़े रंगकर्मियों समेत बेगूसराय के तमाम साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों ने इसका प्रतिवाद किया, तो जिला प्रशासन ने थाना प्रभारी को लाइन हाजिर किया। हालांकि यह भी सूचना मिल रही है कि पुलिस अपने बचाव में प्रवीण और उनके साथियों पर फर्जी मुकदमा दर्ज करने की तैयारी कर रही है। हम इस तरह की संभावित साजिश का पुरजोर करते हैं और बिहार सरकार से यह मांग करते है कि वह तत्काल थाना प्रभारी की बर्खास्तगी की कार्रवाई करे, ताकि पुलिसकर्मियों को यह सबक मिले, कि अगर वे बेगुनाहों पर जुल्म करेंगे, तो उनके खिलाफ भी सख्त कार्रवाई हो सकती है। 
प्रवीण कुमार गुंजन की बर्बर पिटाई ने एक बार फिर से पुलिस राज के खिलाफ मजबूत जन प्रतिवाद की जरूरत को सामने लाया है। उन पर किए गए हमले का सही जवाब यही होगा कि देश और बिहार के संस्कृतिकर्मी सख्त पुलिस राज की वकालत करने वाली और पुलिसिया बर्बरता को शह देने वाली राजनीतिक शक्तियों, सरकारों और विचारों का भी हरसंभव और हर मौके पर अपनी कलाओं के जरिए विरोध करें। देश में बढ़ते निरंकुश पुलिसिया राज के खिलाफ सांस्कृतिक प्रतिवाद वक्त की जरूरत है।

Sunday, October 6, 2013

जनप्रतिरोध की सांस्कृतिक विरासत से रूबरू हुए लोग कुबेर दत्त स्मृति आयोजन में

दूसरा कुबेर दत्त स्मृति आयोजन संपन्न 
‘‘हमारा इतिहास आधा देवताओं और आधा राजा रानियों ने घेर रखा है, हमारी पंरपरा है कि हम चित्रण को देखने के आदी रहे हैं। धर्म ने अशिक्षित जनता तक पहुंचने के लिए चित्रकला का खूब सहारा लिया है। अगर धर्म चित्रकला के जरिए जनता तक पहुंच सकता है तो राजनीति भी इसके जरिए उस तक पहुंच सकती है, यह भारतीय चित्रकारों ने दिखाया है।’’- चित्रकार अशोक भौमिक ने 4 अक्टूबर को गाँधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली में जन संस्कृति मंच की ओर से आयोजित स्मृति आयोजन में दूसरा कुबेर दत्त स्मृति व्याख्यान देते हुए यह कहा। ‘चित्रकला में प्रतिरोध’ विषय की शुरुआत उन्होंने विश्वप्रसिद्ध चित्रकारों गोया और पाब्लो पिकासो के चित्रों में मौजूद जनता के दमन और उसके प्रतिरोध के यथार्थ का जिक्र करते हुए किया और तेभागा, तेलंगाना, बंगाल का अकाल, नाविक विद्रोह, रेल हड़ताल, जनसंहार आदि से संबंधित चित्त प्रसाद, सोमनाथ होड़, देवव्रत मुखोपाध्याय, जैनुल आबदीन, कमरूल हसन सरीखे भारतीय चित्रकारों के चित्रों के जरिए इस कला की प्रतिरोधी पंरपरा से अवगत कराया। चित्रों के बारे में बताते हुए उन्होंने यह भी कहा कि निराशा या हार जाना एक ऐसा संदेश है जो आने वाली लड़ाई के लिए हमें सचेत करता है। जनता किन हथियारों से लड़ेगी यह उतना महत्वपूर्ण नहीं होता, जितना कि आंदोलन करने की जरूरत महत्वपूर्ण होती है। प्रतिरोध के चित्र भी उस जरूरत के ही परिणाम है

पूर्वा धनश्री ने इस संग्रह से ‘स्त्री की जगह’ और ‘आंखों में रहना’, श्याम सुशील ने ‘शब्द’ और ‘मेरे हिस्से का पटना’ तथा सुधीर सुमन ने ‘जड़ों में’ शीर्षक कविताओं का पाठ किया। 










लोकार्पित संग्रह पर बोलते हुए आनंद प्रकाश ने कहा कि इस संग्रह की कविताओं में उदासी और अवसाद बहुत है, जो कुबेर दत्त के व्यक्तित्व से अलग है। लेकिन अपने युग की निराशा को भी सशक्त वाणी देना किसी कवि का कर्तव्य होता है और यह काम कुबेर दत्त ने किया है। इसमें भाषा पर बहुत टिप्पणियां हैं, जिसको पढ़ते हुए लगता है कि उनके सामने बड़ा सवाल यह है कि भाषा का सही विकास कैसे किया जाए। आज की कविता में जो बड़बोलापन है वह कुबेर की कविताओं में नहीं है। 
मदन कश्यप ने कहा कि कुबेर दत्त प्रचलित काव्य आस्वाद को बदलने की कोशिश करने वाले कवि हैं। जो समय की रूढि़यां हैं उनको तोड़े बगैर और उससे बाहर आए बगैर उनकी कविता को ठीक से समझा नहीं जा सकता। किसी भी चीज, घटना और परिस्थितियों पर बेहतरीन कविता लिखने की उनमें अद्भुत क्षमता थी। उनके पास व्यापक जीवन अनुभव था। मीडिया के इस पतनशील दौर में भी प्रतिबद्धता को बचाए रखने की जिद उनमें थी और उस जिद को उनकी कविताओं में भी देखा जा सकता है। ये कविताएं पंरपरागत और मूल्यहीन जीवन के खिलाफ नए और प्रतिबद्ध जीवन की आकांक्षा के साथ रची गई हैं। भाषा की जड़ों में लौटने का मतलब ही है उसे अधिक से अधिक मूर्त, संवादधर्मी और संप्रेषणीय बनाना।
दूरदर्शन से संबद्ध रहे महेंद्र महर्षि ने कहा कि कुबेर दत्त चित्रों के खिलाड़ी थे। उनके चित्रों में हर आंख खुली हुई है।

 
कुबेर दत्त के साथ गुजारे गए जीवन के 35 वर्षों को याद करते हुए दूरदर्शन अर्काइव की पूर्व निदेशक और सुप्रसिद्ध नृत्य निर्देशक कमलिनी दत्त ने कहा कि कुबेर दत्त समग्र रूप से एक ब्रॉडकास्टर थे। विषय चयन, स्क्रिप्ट लेखन, वायस ओवर और संगीत के चयन, हर चीज पर उनकी नजर रहती थी। उनकी कविता की भाषा और गद्य की भाषा अलग है और उनके स्क्रिप्ट की भाषा भी अलग है। उन्‍होंने दृश्य माध्यम की भाषा खुद विकसित की थी। उनके सारे वायस ओवर अद्भुत है। आज के इंटरव्यूअर जिस तरह एग्रेसिव होते हैं और खुद ही ज्यादा बोलते रहते हैं, ऐसा कुबेर नहीं करते थे। जिससे बात हो रही है, उससे वे बेहद सहज अंदाज में बात करते थे। कौशल्या रहबर जी से लिया गया उनका इंटरव्यू इसका बेहतरीन उदाहरण है। 




कौशल्या जी 
आयोजन के आखिर में हंसराज रहबर की पत्नी कौशल्या रहबर जी से कुबेर दत्त की बातचीत का वीडियो दिखाया गया। 
भारत में इंकलाब की कोशिशों से आजीवन संबंद्ध और उसके प्रति वैचारिक तौर पर प्रतिबद्ध रहे रहबर जी के साथ कुबेर दत्त के बहुत आत्मीय और वैचारिक संबंध थे। भगतसिंह विचार मंच, जिसके रहबर अध्यक्ष थे, कुबेर दत्त उसके महासचिव थे। कौशल्या रहबर जी से बातचीत में रहबर जी के जीवन के कई अनछुए पहलू सामने आए। गांधी, नेहरू, गालिब जैसे बड़े बड़ों को बेनकाब करने वाले रहबर जी को खुद बेनकाब देखना अपने आप में विलक्षण अनुभव था। हंसराज रहबर की जन्मशती वर्ष में यह उनके प्रति श्रद्धांजलि भी थी। खास बात यह थी कि खुद कौशल्या रहबर और उनकी पुत्रवधुएं भी पूरे आयोजन में मौजूद थीं। वीडियो के अंत में रहबर जी द्वारा कुछ गजलों का पाठ भी देखने-सुनने को मिला। 
सभागार में कुबेर दत्त के नए संग्रह की कविताओं और उनके चित्रों पर आधारित पोस्टर भी लगाए गए थे।

संचालन सुधीर सुमन ने किया। इस मौके पर वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी, लेखक प्रेमपाल शर्मा, दिनेश मिश्र, कवि इब्बार रब्बी, धनंजय सिंह, नीलाभ, रंजीत वर्मा, सोमदत्त शर्मा, अच्युतानंद मिश्र, रोहित प्रकाश, इरेंद्र, अवधेश, क्रांतिबोध, कहानीकार महेश दर्पण, योगेंद्र आहूजा, संपादक हरिनारायण, प्रेम भारद्वाज, पत्रकार स्वतंत्र मिश्र, रंगकर्मी सुनील सरीन, रोहित कुमार, चित्रकार मुकेश बिजौले, महावीर वर्मा, हिम्मत सिंह, हिंदी के शोधार्थी रामनरेश राम, बृजेश, रूबीना सैफी, फिल्मकार संजय जोशी, सौरभ वर्मा, भूमिका, रविदत्त शर्मा, संजय वत्स, रामनिवास, रोहित कौशिक, संतोष प्रसाद, मित्ररंजन, वीरेंद्र प्रसाद गुप्ता और मोहन सिंह समेत कई साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी और साहित्य-कला प्रेमी जन मौजूद थे।  

Wednesday, September 25, 2013

मधुकर सिंह सम्मान समारोह (एक विस्तृत रिपोर्ट)

जो जनता के लिए लिखेगा, वही इतिहास में बना रहेगा
आरा में कथाकार मधुकर सिंह के सम्मान में हुआ एक समारोह
मधुकर सिंह सम्मान समारोह में कई राज्यों से साहित्यकारों का जुटान हुआ


बिहार के चर्चित कथाकार मधुकर सिंह पिछले करीब पांच साल से पैरालाइसिस के कारण कहीं भी अपने पैरो के बल पर चलकर जाने में असमर्थ हैं, लेकिन उनके लेखनी पर उनके हाथों और दिमाग की पकड़ कतई कमजोर नहीं पड़ी है। भोजपुर जिले के मुख्यालय आरा से बिल्कुल सटे हुए अपने गांव धरहरा में अपने घर में वे अस्वस्थता की स्थिति में भी लिख रहे हैं। सोनभद्र की राधा, सबसे बड़ा छल, सीताराम नमस्कार, जंगली सुअर, मनबोध बाबू, उत्तरगाथा, बदनाम, बेमतलब जिंदगियां, अगिन देवी, धर्मपुर की बहू, अर्जुन जिंदा है, सहदेव राम का इस्तीफा, मेरे गांव के लोग, कथा कहो कुंती माई, समकाल, बाजत अनहद ढोल, बेनीमाधो तिवारी की पतोह, जगदीश कभी नहीं मरते समेत मधुकर सिंह के उन्नीस उपन्यास और पूरा सन्नाटा, भाई का जख्म, अगनु कापड़, पहला पाठ, असाढ़ का पहला दिन, हरिजन सेवक, पहली मुक्ति, माइकल जैक्सन की टोपी, पाठशाला समेत दस कहानी संग्रह और प्रतिनिधि कहानियों के कुछ संग्रह अब तक प्रकाशित हो चुके हैं। लाखो, सुबह के लिए, बाबू जी का पासबुक, कुतुब बाजार आदि उनके चर्चित नाटक हैं। ‘रुक जा बदरा’ नामक उनका एक गीत संग्रह भी प्रकाशित है। उनकी कई कहानियों के नाट्य मंचन भी हुए हैं। वे जन नाट्य संस्था युवानीति के संस्थापकों में रहे हैं। उन्हांेने कुछ कहानी संकलनों का संपादन भी किया है। बच्चों के लिए भी दर्जनों उपन्यास और कहानियां उन्होंने लिखी हैं। उनकी रचनाओं के तमिल, मलयालम, कन्नड़, तेलुगु, मराठी, पंजाबी, उडि़या, बांग्ला, चीनी, जापानी, रूसी और अंग्रेजी में अनुवाद हुए हैं। उन्होंने ‘इस बार’ पत्रिका के अतिरिक्त कुछ पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी किया है।
मधुकर सिंह उस पीढ़ी के साहित्यकार हैं, जिनका जनांदोलनों से अटूट नाता रहा है। सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट आंदोलनों का उनके कथा साहित्य पर गहरा असर रहा है। आज भी उनका यकीन है कि जो लेखक अपनी जनता के लिए लिखेगा, वही इतिहास में बना रहेगा। 22 सितंबर को नागरी प्रचारिणी सभागार में अपने सम्मान में आयोजित समारोह में उन्होंने मजबूती से इस यकीन को जाहिर किया। रांची, भोपाल, दिल्ली, बर्नपुर, बनारस, गोरखपुर, लखनऊ, गिरिडिह, पूर्णिया, पटना, एटा आदि कई शहरों से साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी कथाकार मधुकर सिंह के सम्मान समारोह में शामिल होने के लिए अपने खर्चे पर आरा आए थे। और सबसे बड़ी  बात यह कि समाज के हर तबके के लोग सभागार में मौजूद थे। जिन लोगों के जीवन संघर्ष और आंदोलन की कथा मधुकर सिंह ने कही है, उस दलित-वंचित मेहनतकश जनता की भारी तादाद नागरी प्रचारिणी सभागार में मौजूद थी।
अपने साथियों के कंधों और बाजुओं का सहारा लेकर जैसे ही मधुकर सिंह मंच पर  पहुचे सभागार में देर तक लोगों की तालियां गूंजती रहीं।
जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण ने जसम राष्ट्रीय परिषद की ओर से उन्हें पच्चीस  हजार का चेक, शॉल और मानपत्र प्रदान कर सम्मानित किया। मधुकर सिंह जसम की स्थापना के समय से ही इसके साथ हैं और इसके राष्ट्रीय परिषद और कार्यकारिणी के सदस्य के अलावा राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी रह चुके हैं। वे जन नाट्य संस्था ‘युवानीति’ के संस्थापकों में से रहे हैं और आरा शहर की एक मुसहरटोली में  उन्हीं की बहुचर्चित कहानी ‘दुश्मन’ के मंचन से युवानीति ने अपने सफर की शुरुआत की थी।
प्रणय कृष्ण ने मानपत्र को पढ़कर सुनाया, जिसमें जसम की राष्ट्रीय परिषद ने मधुकर सिंह का महत्व इस रूप में रेखांकित किया है कि वे प्रगतिशील जनवादी कथा साहित्य के महत्वपूर्ण स्तंभ हैं। वे फणीश्वरनाथ रेणु के बाद हिंदी के उन गिने चुने साहित्यकारों में से हैं, जिन्होंने आजीवन न केवल ग्रामीण समाज को केंद्र बनाकर लिखा है, बल्कि वहां चल रहे राजनीतिक-सामाजिक बदलाव के संघर्षों को भी शिद्दत के साथ दर्ज किया है। वे सही मायने में ग्रामीण समाज के जनवादीकरण के संघर्षो के सहचर लेखक हैं। वे साहित्य-संस्कृति की परिवर्तनकारी और प्रतिरोधी भूमिका के आग्रही रहे हैं। उनके साहित्य का बहुलांश मेहनतकश किसानों, खेत मजदूरों, भूमिहीनों, मेहनतकश औरतों और गरीब-दलित-वंचित वर्ग के इसी क्रांतिकारी आंदोलन की आंच से रचा गया है। इस आंदोलन के संस्थापकों में से एक जगदीश मास्टर और उनके साथी उनकी रचनाओं में बार बार नजर आते हैं। जगदीश मास्टर मधुकर सिंह के साथ ही जैन स्कूल में शिक्षक थे और सामंती जुल्म के खिलाफ दलितों-वंचितों के जनतांत्रिक अधिकारों के संघर्ष में शहीद हुए थे। सामंती-वर्णवादी-पितृसत्तात्मक व्यवस्था से मुक्ति के लिहाज से मधुकर सिंह की रचनाएं बेहद महत्व रखती हैं। सामाजिक मुक्ति के प्रश्न को उन्होंने जमीन के आंदोलन से और स्त्री मुक्ति के सवाल को दलित मुक्ति से अभिन्न रूप से जोड़कर देखा है। वे एक वामपंथी लेखक हैं और वामपंथ से सामंतवाद के अवशेषों, वर्ण-व्यवस्था और पूंजीवाद के नाश की अपेक्षा करते हैं। सम्मान सत्र में लोगों ने मधुकर सिंह से जुड़ी हुई अपनी यादों को भी साझा किया। शुरुआत उनके बचपन के मित्र और उनकी कई रचनाओं के पात्र कवि श्रीराम  तिवारी ने की और उनके आजाद स्वभाव को खासकर चिह्नित किया। युवानीति के पूर्व सचिव रंगकर्मी सुनील सरीन ने कहा कि मधुकर सिंह का सम्मान उस जन सांस्कृतिक पंरपरा का सम्मान है, जिसने कई नौजवान लेखकों और संस्कृतिकर्मियों को बदलाव का स्वप्न और वैचारिक उर्जा दिया है। वरिष्ठ पत्रकार श्रीकांत ने कहा कि अगर सौ समाज शास्त्रीय अध्ययन एक पलड़े पर रख दिया जाए और दूसरे पलड़े पर मधुकर सिंह की कुछ चुनिंदा कहानियां, तो उनकी कहानियों का पलड़ा भारी पड़ेगा। वे हमेशा नए विचारों और नौजवानों के साथ रहे हैं। बनाफरचंद्र ने उनसे हुई मुलाकातों का जिक्र करते हुए कहा कि साहित्यिक बिरादरी में अपने दोस्ताना मिजाज के कारण मधुकर सिंह एक अलग ही पहचान रखते हैं।
दूरदर्शन, पटना के निदेशक कवि कृष्ण कल्पित ने कहा कि भोजपुर का हमारे लेखन और राजनीति में बहुत बड़ा महत्व है। भोजपुर ने एक बुजुर्ग संघर्षशील लेखक का इस तरह सम्मान करके अनुकरणीय उदाहरण पेश किया है। रेणु नेहरू युग की स्वप्नशीलता के लेखक थे, लेकिन उन्होंने जिस ग्रामीण सौंदर्य को पेश किया है, मधुकर सिंह  के गांव वैसे नहीं है। मधुकर सिंह ने हिंदी कहानी को रूमानियत और आभासी यथार्थ से बाहर निकाला। वे एक श्रमजीवी लेखक हैं। प्रेमचंद की परंपरा को लेकर आज खूब विवाद खड़े किए जा रहे हैं, उन पर ऐसे लोग अपनी दावेदारी जता रहे हैं, जो उनकी परंपरा के विरोधी हैं। लेकिन सही मायने में मधुकर सिंह प्रेमचंद की परंपरा के लेखक हैं। वे शरीर से भले लाचार हैं, पर उनका दिमाग अभी भी लाचार नहीं है।
कहानीकार अरविंद कुमार ने कहा कि जब चंद्रभूषण तिवारी द्वारा संपादित पत्रिका  ‘वाम’ में मधुकर सिंह की कहानी ‘दुश्मन’ छपी, उस दौर में ही वे समांतर कहानी आंदोलन से बाहर आने लगे थे। वहां से उनकी नई शुरुआत होती है। उस कहानी में नेता की धूल उड़ाती जीप और उसके पीछे भागते बच्चों का जो दृश्य है, वह कैमरे की आंख से देखा प्रतीत होता है। उनकी कहानियों में जो नाटकीय तत्व है, वह भी महत्वपूर्ण है।
कथाकार अनंत कुमार सिंह ने कहा कि पूंजीवाद ने जिस सामूहिकता को खत्म किया है, मधुकर सिंह उस सामूहिकता के लिए जीवन और रचना दोनों स्तर पर संघर्ष करने वाले लेखक हैं। कथाकार सुरेश कांटक ने कहा कि मधुकर सिंह का साहित्य जन-जन कीआकांक्षा से जुड़ा हुआ साहित्य है। चर्चित रंगकर्मी राजेश कुमार ने कहा कि भोजपुर से अभिजात्य और सामंती संस्कृति के खिलाफ जनता के रंगकर्म की जो धारा फूटी, उसका श्रेय मधुकर सिंह को है। कथाकार मदन मोहन ने चिह्नित किया कि समांतर आंदोलन के साथ होने के बावजूद मधुकर सिंह की जो वैचारिक आकांक्षा थी वह उस दौर की भी उनकी कहानियों में दिखती है। उस आकांक्षा ने ही उन्हें जनसांस्कृतिक आंदोलन का हमसफर बनाया। वरिष्ठ कवयित्री उर्मिला कौल ने कहा कि
आरा के लोगों के लिए इस सम्मान समारोह की लंबे समय तक मधुर स्मृति रहेगी। मधुकर सिंह की रचनाओं में गांवों के अभावग्रस्त परिवारों की पीड़ा और विवशता नजर आती है। युवानीति के पूर्व रंगकर्मी और वामपंथी नेता सुदामा प्रसाद ने कहा कि भोजपुर में जो सामंतवाद विरोधी संघर्ष शुरू हुआ, उसने जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित किया। राष्ट्रीय स्तर पर भी उसका प्रभाव पड़ा। शासकवर्ग की संस्कृति और मेहनतकशों की संस्कृति के बीच फर्क को समझना आसान हुआ। मधुकर सिंह उन रचनाकारों में हैं जिन्होंने इस फर्क को स्पष्ट किया। प्रो. पशुपतिनाथ सिंह ने युवा पीढ़ी के बदलते पाठकीय आस्वाद पर सवाल उठाते हुए कहा कि देश में जिस तरह का संकट है, उसमें उन्हें मधुकर सिंह सरीखे लोगों का साहित्य पढ़ना चाहिए। वरिष्ठ कवि जगदीश नलिन, रंगकर्मी डा. विंद्येश्वरी, लेखक अरुण नारायण, पत्रकार पुष्पराज ने भी सम्मान सत्र में मधुकर सिंह के महत्व को रेखांकित किया। इस सत्र की अघ्यक्षता सुरेश कांटक, पशुपतिनाथ सिंह और बनाफरचंद्र ने की।
दूसरा सत्र विचार-विमर्श का था, जिसका विषय था- कथाकार मधुकर सिंह: साहित्य में लोकतंत्र की आवाज। विमर्श की शुरुआत करते हुए कहानीकार सुभाषचंद्र कुशवाहा ने कहा कि भारतीय लोकतंत्र में निम्नवर्ग की क्या स्थिति है मधुकर सिंह की कहानियों में इसे देखा जा सकता है। जाति की राजनीति से उत्पीडि़त समुदायों की मुक्ति संभव नहीं है, यह मधुकर सिंह ने अपनी कहानियों में आठवें दशक में ही दिखाया है। जाति का विकास जाति का ही नेता कर सकता है, इस तर्क और धारणा को उन्होंने गलत साबित किया है। वे निम्न वर्ग के शोषण में धर्म की भूमिका को चिह्नित करते हैं। वे सवाल उठाते हैं कि जेलों में बंद लोगों का बहुत बड़ा हिस्सा निम्नवर्ग का क्यों है? क्यों हक मांगने वालों को नक्सलवादी करार दिया जाता है? किस तरह गांधीवाद का इस्तेमाल शोषक वर्ग अपने वर्चस्व बनाए रखने के लिए करता है, इसे भी उन्होंने अपनी कहानियों में दिखाया है।
चर्चित युवा कहानीकार रणेंद्र ने कहा कि मधुकर सिंह वर्णवादी कथाकार नहीं है, उनके साहित्य में वर्ण से उत्पन्न जो पीड़ा है वह वर्ग चेतना तक पहुंचती है। अंबेडकर की गांवों के बारे में जो धारणा थी, वह मधुकर सिंह की कहानियों को पढ़ते हुए सही प्रतीत होती है। वे लोक जीवन में रस नहीं लेते, बल्कि उसे जनतांत्रिक बनाने की चिंता और संघर्ष को अभिव्यक्त करते हैं। वे दिखाते हैं कि किस तरह जो वर्ग अंग्रेजों के समय व्यवस्था का लाभ ले रहा था, वही आजादी के बाद के भारतीय लोकतंत्र का लाभ उठाता रहा। मधुकर सिंह को हिंदी के बड़े आलोचकों ने उपेक्षित किया, पर उनकी 10-15 कहानियां ऐसी हैं, जो मानक हैं। उनका जो देय है, उसका श्रेय उन्हें मिलना चाहिए।
आलोचक रवींद्रनाथ राय ने कहा कि मधुकर सिंह के साहित्य में भोजपुर का आंदोलन दर्ज है। सामाजिक मुक्ति और आर्थिक आजादी के लिए गरीब मेहनतकशों का जो संघर्ष है, मधुकर सिंह उसके कथाकार हैं।
वरिष्ठ आलोचक खगेंद्र ठाकुर ने प्रगतिशील लेखक संघ के साथ मधुकर सिंह के जुड़ाव को याद करते हुए कहा कि एक रचनाकार के रूप में वे जीवन और समाज के यथार्थ के प्रति सचेत लेखक हैं। 60 का दशक, जो कि समझ को गड्डमड्ड करने वाला दौर था, उसमें उन्होंने कहानी के सामाजिक यथार्थवादी धारा की परंपरा को आगे बढ़ाया। दलित चेतना एक आंदोलन के रूप में जरा देर से आई, पर मधुकर सिंह ने इस मेहनतकश समाज के संघर्ष को उसी दौर से चित्रित करना शुरू कर दिया था।
गीतकार नचिकेता ने कहा कि चुनावों के जरिए निम्नवर्ग के जीवन को नहीं बदला जा सकता, मधुकर सिंह ने अपनी कहानियों के जरिए दिखाया है। वे जनता के लेखक हैं और जनता के लेखक ऐसे ही सम्मान के हकदार होते हैं। शिवकुमार यादव ने भोजपुर के संघर्ष के साथ साहित्य के गहरे रिश्ते के संदर्भ में मधुकर सिंह की कहानियों को चिह्नित किया।
कवि चंद्रेश्वर ने कहा कि मधुकर सिंह की कहानियां भारतीय लोकतंत्र के झूठ का पर्दाफाश करती हैं। कवि बलभद्र ने कहा कि सामाजिक आंदोलनों और किसान संघर्षों की जरूरत को महसूस करते हुए मधुकर सिंह ने लोक साहित्य से भी बहुत कुछ लिया। भोजपुर में मधुकर सिंह, विजेंद्र अनिल और सुरेश कांटक की कथात्रयी ने जो काम किया है, उसका हिंदी साहित्य की जनसंघर्षधर्मी परंपरा में अलग से मूल्यांकन होना चाहिए।
जलेस के राज्य सचिव वरिष्ठ कहानीकार नीरज सिंह ने कहा कि मधुकर सिंह का सम्मान केवल भोजपुर ही नहीं, बल्कि पूरे देश के जनधर्मी, संघर्षधर्मी साहित्य के लिए गौरव की बात है। उत्पीडि़त, दलित-शोषित, वंचित वर्गों के प्रति गहरी पक्षधरता के कारण ही वे सत्ताभोगी चरित्रों पर तीखे प्रहार करते हैं। वे एक यारबाश
व्यक्ति रहे हैं और अपने से कम उम्र के लोगों के साथ भी उनके बड़े आत्मीय संबंध रहे हैं।
समकालीन जनमत के संपादक सुधीर सुमन ने कहा कि मधुकर सिंह भोजपुर के आंदोलन में देश के स्वाधीनता आंदोलन की निरंतरता देखते हैं। राष्ट्र और लोकतंत्र के संदर्भ में उनकी धारणाएं भगतसिंह और अंबेडकर से मेल खाती हैं। वे भारत की खोज के नहीं, बल्कि भारत के निर्माण के कथाकार हैं। इस देश में राजनीति, समाज, अर्थनीति और संस्कृति सारे स्तरों पर सच्चे जनतंत्र की आकांक्षा और उसके लिए होने वाले संघर्ष के कथाकार हैं। उनकी कहानियों में गरीब दलित मेहनतकश वर्गीय तौर पर सचेत हैं, वर्ग दुश्मन को वे बहुत जल्दी पहचान लेते हैं। मधुकर सिंह परिवर्तनकारी राजनीति और संस्कृतिकर्म के बीच एकता का स्वप्न देखने वाले साहित्यकार हैं। यह अकारण नहीं है कि उन्होंने बिहार के आदिवासी संघर्ष से जुड़े चरित्रों पर न केवल उपन्यास लिखा, बल्कि नवसाक्षरों और बच्चों के लिए भी कई पुस्तिकाएं लिखी।
वरिष्ठ आलोचक रविभूषण ने कहा कि इस सम्मान समारोह में पांच हिंदी राज्यों और एक अहिंदी प्रांत पश्चिम बंगाल से प्रमुख साहित्यकारों का शामिल होना गहरा अर्थ रखता है। मधुकर सिंह ने एक अस्वस्थ समाज का स्वस्थ साहित्य रचा है। शोषित-दलित समाज के संघर्ष की जो इनकी कहानियां हैं, वे वर्गचेतना संपन्न कहानियां हैं। वे एक मास्टर साहित्यकार की मास्टर कहानियां हैं, जिनमें कुछ तो मास्टर पीस हैं। उनकी कहानियां रात में जलती हुई मोमबत्तियों और कहीं कहीं मशाल की तरह हैं। वे फैंटेसी नहीं, बल्कि यथार्थ के कथाकार हैं। यह संघर्षधर्मी यथार्थवाद ही भोजपुर के कहानीकारों की खासियत है। कथा साहित्य में
एक भोजपुर स्कूल है, जिसका असर पूरे देश के कई कहानीकारों पर देखा जा सकता है। इस भोजपुर स्कूल पर वर्तमान के राजनीतिक-सामाजिक संघर्षों का प्रभाव तो है ही, इसके साथ संघर्षों का एक शानदार इतिहास भी जुड़ा हुआ है, जो 1857 से लेकर भोजपुर आंदोलन तक आता है।
रविभूषण ने कहा कि साहित्य में लोकतंत्र की आवाज तभी आती है, जब राजनीति में लोकतंत्र की आवाज खत्म होने लगती है। जो नई कहानी की त्रयी है, उनकी कहानियों में लोकतंत्र के संकट की शिनाख्त इस तरह से नहीं है, जिसे मधुकर सिंह अपनी कहानियों में शुरू से ही चिह्नित करते हैं। भोजपुर की जो कथात्रयी है, वह
सचमुच लोकतंत्र के संकटों  के खिलाफ संघर्ष करती नजर आती है। यह अकारण नहीं है कि मधुकर सिंह की कई कहानियों में रात्रि पाठशालाएं हैं। वे जनता की राजनैतिक चेतना को उन्नत करने की कोशिश करते हैं। नुक्कड़ नाटक जो खुद एक लोकतांत्रिक विधा है, उससे जुड़ते हैं। गीत, नाटक, कहानी, उपन्यास आदि कई विधाओं में मधुकर सिंह की जो आवाजाही है, उसके पीछे एक स्पष्ट वैचारिक मकसद है। आज जबकि लोकतंत्र भ्रष्टतंत्र, लूटतंत्र और झूठतंत्र में तब्दील हो चुका है, तब उसके खिलाफ प्रतिरोध की आवाजें जिन साहित्यकारों में मिलती हैं, मधुकर सिंह उनमें  अग्रणी हैं। विचार-विमर्श सत्र की अघ्यक्षता खगेंद्र ठाकुर, नीरज सिंह और रविभूषण ने की। दोनों सत्रों का संचालन कवि जितेंद्र कुमार ने किया।
अंतिम सत्र में युवानीति ने मधुकर सिंह की मशहूर कहानी ‘दुश्मन’ की नाट्य प्रस्तुति की। रंगकर्मी रोहित के निर्देशन में तैयार इस नाटक में मधुकर सिंह के भोजपुरी गीत का भी इस्तेमाल किया गया था। शासकवर्ग किस तरह दलित-उत्पीडि़त जनता के नेताओं का वर्गीय रूपांतरण कर उन्हें अपनी ही जनता से काट देता है, इस नाटक में दर्शकों ने इसे बखूबी देखा।
 पटना की नाट्य संस्था हिरावल ने मधुकर सिंह की कहानी ‘कीर्तन’ पर आधारित नाटक प्रस्तुत किया। इसमें देश में बाबाओं के अंधश्रद्धा के कारोबार तथा सामंती पितृसत्ता और मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था के साथ उनके गहरे रिश्ते पर तीखा व्यंग्य था। निर्देशन संतोष झा ने किया था।

तीसरा नाटक जसम बेगूसराय की नाट्य संस्था रंगनायक ने किया। दीपक सिन्हा निर्देशित नाटक ‘माइकल जैक्सन की टोपी’ इसी शीर्षक की कहानी पर आधारित था, जिसमें मधुकर सिंह ने ऐसे छद्म प्रगतिशील जनवादी लेखकों पर व्यंग्य किया है, जो शासकवर्ग पर आश्रित होकर लेखन करते हैं और व्यवहार में ग्रामीण इलाकों और आदिवासी अंचलों में चल रहे जनसंघर्षों का विरोध करते हैं। इन तीनों नाट्य प्रस्तुतियों की खासियत यह थी कि ये पात्र बहुल नाटक थे। इतने सारे कलाकारों को एक साथ इन नाटकों में देखना दरअसल रंगकर्म के भविष्य के प्रति भी उम्मीद जगाने वाला था।
चित्रकारों ने भी अपनी कला के साथ इस सम्मान समारोह में शिरकत की। मंच पर ठीक सामने चित्रकार भुनेश्वर भास्कर द्वारा बनाए गए छह पोस्टर लगाए गए थे, जो उन्होंने मधुकर सिंह के साथ अपनी स्मृतियों की अभिव्यक्ति के बतौर बनाया था। सभागार के बाहर चित्रकार राकेश दिवाकर ने मधुकर सिंह की रचनाओं पर आधारित चित्र लगाए थे। अभिधा प्रकाशन तथा जनपथ पत्रिका की ओर से बुक स्टॉल भी लगाया गया था।
इस समारोह में रामधारी सिंह दिवाकर, रामनिहाल गुंजन, वाचस्पति, कल्याण भारती, संतोष सहर, अशोक कुमार सिन्हा, राकेश कुमार सिंह, उमाकांत, फराज नजर चांद, हीरा ठाकुर, राजाराम प्रियदर्शी, शिवपूजनलाल विद्यार्थी, केडी सिंह, सुमन कुमार सिंह, अरुण शीतांश, संतोष श्रेयांश, शशांक शेखर, सत्यदेव, अयोध्या प्रसाद उपाध्याय, विजय कुमार सिन्हा, दिव्या गौतम, राजू रंजन, सुनील श्रीवास्तव, आशुतोष कुमार पांडेय, कृष्ण कुमार निर्मोही, राजदेव करथ, ओमप्रकाश सिन्हा, रवींद्र भारती, अरुण प्रसाद, किरण कुमारी, इंदु पांडेय, अजय कुमार, रजनीश, प्रशांत कुमार बंटी, शमशाद प्रेम, संजीव सिन्हा समेत कई साहित्यकार, पत्रकार, रंगकर्मी और चित्रकार मौजूद थे।