Saturday, June 25, 2016

महेश्वर की कविताएं



महेश्वर जी हिंदी की क्रांतिकारी जनवादी धारा के महत्वपूर्ण एक्टिविस्ट पत्रकार, संपादक, लेखक, कवि और विचारक थे। वे समकालीन जनमत के प्रधान संपादक थे। उनके संपादन में इस पत्रिका ने वैकल्पिक पत्रकारिता के क्षेत्र में एक मिसाल कायम की और आंदोलनों को आवेग देने वाली पत्रिका के रूप में जानी गई। महेश्वर जी जन संस्कृति मंच के महासचिव भी रहे। अपनी जानलेवा बीमारी से उनका जुझारू संघर्ष चला। लगभग एक दशक के उसी अंतराल में उन्होंने साहित्य-संस्कृति और पत्रकारिता के मोर्चे पर बेमिसाल काम किया।  25 जून 1994 को उनका निधन हो गया, पर आज भी उनका जीवन और उनका काम हमारे लिए उत्प्रेरक हैं, प्रासंगिक है।   स्मृति दिवस पर पेश है उनकी कुछ कविताएं-


तुम्हारे पदचिह्न

बशर्ते

एक अदद आकाश हो सर के ऊपर

और पैरों के नीचे हो

वही तुम्हारी जानी-पहचानी

जमी-जमायी घर-गिरस्ती-सी जमीन-




कदमों से लिपटी हो

हुई-अनहुई असमाप्त यात्राओं की दस्तक

और मन की स्लेट पर मुकर्रर हो

अपने ही पक्ष में वक्त की सबसे जोरदार दलील-




बशर्ते

तुम्हें मालूम हो कि क्या हो तुम

और किधर ले जाना चाहती हैं तुम्हें तुम्हारी इच्छाएं

और भोर के झुटपुटे में पहले पखेरू के जगने से पहले

कहीं कोई और नहीं

बल्कि महज तुम कह सको कि हां,

सभी संदेहों और सवालों और विवादों से परे है 

तुम्हारा होना- 




यानी, 

अगर यथार्थ के छंद में

उठती और गिरती हो कल्पना की पलक

और तुम्हारे बाहर से एकदम 

अलग-थलग ही न हो तुम्हारे अंदर का रचना-संसार-




तो-

ईमानवाले ईमान लाएं और 

यकीन वाले दांव पे लगाएं अपना यकीन-

मुश्किल नहीं है

बादलों में घिरते समुद्र की संभावना

भाटे के ज्वार के छितराये हुए बीज

उल्टी हुई डोंगी के जलखाये पेटे में 

चमचमाती मछलियों की रूपहली हलचल

रेत के बगूलों और घोड़ों की टापों के बीच

मूर्तिमान वेग जैसे भागते हुए पल

जाड़ों की बारिश से ठिठुरे हुए मौसम में

एकटक जलते अलावों के निशान

दौलत के ठीहे पर कीमा संवेगों का दारुण प्रतिकार 

और फैसले की वो घड़ी

जिसके हर कील-कांटे पर हाकिम हो इंसान का अंगूठा....




कुछ भी मुश्किल नहीं है तुम्हारे वास्ते-

यहां तक कि समय से पहले ही

पहचान लिए जाते हैं व्यवस्था के बहुरूपिए

बहुत तेज-तेज बजती है उनके खोखलेपन की मुखरता

परम प्रतापी विकराल मुखौटों में

चैराहों पर लड़खड़ाते हैं सजावटी कठघोड़वे

अपने भीतर के भय से निकालते हैं बाहर

धूपछांही शब्दों के लुंज-पुंज तार-

-ध्वंस-पराजय-अंत-समापन-कलह और शोक-

-मौत से मौत तक जारी रहता है 

उनका मारण-मोहन-उच्चाटन




बेशक, 

धरती के उन अक्षांश-देशांतरों की पहुंच से पहले

जहां समय के दोधारे पर

उनके लिए आॅक्टोपस की आंख की तरह

रोजाना उगते और जलते हैं तुम्हारे पदचिह्न!!


वे

वे जब विकास की बात करते हैं

तबाही के दरवाजे पर 

बजने लगती है शहनाई




वे

कहते हैं- एकजुटता

और गांव के सीवान से 

मुल्क की सरहदों तक

उग आते हैं कांटेदार बाड़े



वे

छुपाने के उस्ताद हैं

मगर खोलने की बात करते हैं



वे

मिटा देते हैं फर्क

गुमनाम हत्याओं और राजनीतिक प्रक्रियाओं के बीच




उनके लिए 

धर्म एक धंध है और सहिष्णुता- हथकंडा



वे 

राशन-दुकान की लंबी लाइन में चिपके

आदमी के हाथ 

बेच देते हैं

आदमी के सबसे हसीन सपने

और कहते हैं 

कि दुनिया बदल रही है- धीरे-धीरे




वे 

बदलाव के गीत गाते हैं

और 

अच्छे भरे-पूरे दिन

रातों-रात बन जाते हैं

टूटी दीवारों पर फड़फड़ाते इश्तिहार




वे

चाहें तो 

सूरज को पिघला कर 

बना दें- निरा पानी




वे चाहें तो चांद के धब्बे

हो जाएं- और गहरे




वे चाहें तो तारों को बना दें डाॅलर

और खरीद लें दुबारा

अपनी बेची हुई अस्मिता




अपनी चाहत में वे हैं-

सर्वशक्तिमान-

मगर उनका जोर चलता है

कमजोरों पर-

यानी, उन पर

जो ऐन वक्त पर 

आदमी होने के बजाय

साबित होते हैं-

भेड़िए के मुंह में मेमना! 




रोशनी के बच्चे

मत करो उन पर दया

मत कहो उन्हें- ‘बेचारी गरीब जनता’

या, इसी तरह का कुछ और




मत करो उनकी यंत्रणाओं का बयान

छेड़ो मत उनकी सदियों पुरानी

भूख और बीमारी की लंबी दास्तान

मत कहो तबाही-बदहाली-लाचारी और मौत

जो कि निरे शब्द हैं

उनकी जागृत जिजीविषा के सामने

टिसुए मत बहाओ

अगर उन्हें समझा जाता है समाज का तलछट

और फेंकी जाती है मदद मुआवजे के बतौर




वे झेल आए हैं इतिहास की गुमनामी

वे वर्तमान में खड़े हैं

भविष्य में जाएंगे

उन्हें नहीं चाहिए हमदर्दी की हरी झंडी




उनकी नसों में उर्वर धरती का आवेग है

उनके माथे पर चमकता है जांगर का जल

उनके हाथ की रेखाओं से

रची जाती है सभ्यता की तस्वीर

उनकी बिवाइयों से फूटते हैं संस्कृति के अंकुर

उनके पास उनकी ‘होरी’ है

‘चैता’, ‘कजरी’ और ‘बिरहा’ है

हजारों हत्याकांडों के बावजूद 

सही-सलामत है उनका वजूद-

उनकी शादी-गमी

उनके पर्व-त्योहार

उनका हंसना-रोना

जीना-मरना

सोना-जगना

उठना-बैठना

पाखंड और बनावट से परे उनका होना



वे स्वर्ग से निर्वासित आदम हैं

उनके निर्वासन से डरता है स्वर्ग 

वे रोशनी के बच्चे हैं

सुबह से शाम तक 

पूरब से पश्चिम तक

वे ढोते हैं सूरज अपनी पीठ पर




मत करो मैली उनकी राह

अपने मन के घनेरे अंधकार से

मत थोपो उनके संसार पर अपना संसार




औरत के बारे में एक कविता

वह आएगी-

बांस के झुरमुटों 

और 

फूलों की घाटी को

अपने लहूलुहान पैरों से

हमवार करती हुई




वह

जले हए जंगलों से

निचोड़ लाएगी हरीतिमा

और 

उससे खींच डालेगी 

सेवा और प्यार के बीच एक लकीर- 

जैसे पुराने किलों के चारों ओर

खोदी गई थीं खाइयां 

जैसे आदमी की नसों को दुह कर 

निकाली गई थीं नहरें

जिन्हें लील गया समय पर

पूरा-का-पूरा एक रेगिस्तान




तुम इसी रेगिस्तान में जलोगे!




तुम्हारी आवाज में जो 

पुरुष खनक थी 

जो रुआब और रुतबा था

मालिकाना था

हुक्म और डपट थी

और थी

अपमान और यंत्रणा-




सब-के-सब गर्क हो जाएंगे

मृत्यु की प्रकाशहीन घाटी में- 

उस बेहोशी की तरह

जो 

किसी भी क्षण

आत्महीन लोगों को

धर दबाती है

जैसे उचट जाती है

बिना सपनों की वीरान नींद

और 

जैसे उड़ जाती है भूगोल से 

कोई भी बस्ती

सुंदरीकरण के प्रचंड पदाघात से



तब,

जीवन के लहलहाने की बारी आएगी-

फूलने, फलने और पकने के दिन आएंगे

तब,

वह आएगी-

एक विजेता की तरह

मेंहदी रची हथेलियों में बहार का संदेसा लिए

फूलों की घाटी में सूरज उगाती हुई। 


हमारी जमीन

हम जिस जमीन पर खड़े हैं आज

अगर हमारे पूर्वजों के लहू ने

उगायी नहीं इस पर सभ्यता की फसल 

तो कहां से भर आया इसमें

उर्वरता का अजस्र स्रोत?



हम जिस जमीन पर खड़े हैं आज

अगर नहीं है इस पर हमारा कोई अधिकार

तो क्यों बहाया जाता है हमारे बेटों का लहू

हवामहल के बाशिंदों को

जमीन पर काबिज करने के वास्ते?

हम जिस जमीन पर खड़े हैं आज

अगर नहीं है इसकी छाती में प्रतिशोध का दर्प

तो क्यों जब हमारे सिर के बाल हिलते हैं

खड़े हो जाते हैं कब्रिस्तान की तरह

मालिक की देह के रोंगटे? 

सवालों से घिरे अपने देश में

हम जिस जमीन पर खड़े हैं आज

उसी पर कल से शुरू होगी

जवाबों की नई शताब्दी 

हमारे सिवा और कौन है

जो रख सके

इस नई सदी की पुख्ता बुनियाद!




जिंदगी 

जिंदगी तो है

काल के पहिये पर

भागता हुआ एक रथ

और मैं हूं

अपनी चूक से 

संतुलन खोकर गिरा हुआ महारथी

अब मैं क्या करूं-

अपनी गलती के

भद्दे अंजाम पर

सर धुनकर 

व्यक्त करूं खेद

या

नए संतुलन के साथ 

फिर से पकड़ लूँ

भागते रथ की

मजबूत बागडोर?




जिंदगी तो है

विषमता के विरुद्ध 

एक अविराम युद्ध

और मैं हूँ

अतिशय उत्तेजना में

टूटी ढाल के साथ

कठोरतम वारों के 

मुकाबले उतरा 

एक दुस्साहसी योद्धा

अब मैं क्या करूं-

अपने दुस्साहस के

घायल परिणामों पर

हाथ मल-मल कर पछताऊं

या घावों पर मरहम रख

नई ढाल के साथ

फिर से उतर पड़ूं मैदान में? 




जिंदगी तो है

इतिहास की लंबी कूच में

शामिल सैलानी

और मैं हूं

अपनी ही तंद्रा में

लीक से भटका मुसाफिर

अब मैं क्या करूं-

अपने भटकाव से

पैदा अलगाव पर

हाहाकार मचाऊं 

या 

तंद्रा तोड़ूं

दम भर रुककर दौड़ लगाऊं 

और पा जाऊं फिर से

लंबी कूच की कतार?

मगर-

जिंदगी नहीं रुकती

देने को किसी की

तुच्छ उधेड़बुन का जवाब 

किसी की हताश चीत्कारों पर

मुड़कर नहीं देखती है जिंदगी

मंजिल-दर-मंजिल

जीत के मिशन के साथ

आगे ही आगे

बढ़ती जाती है जिंदगी



हां-

मेरे बीमार बिस्तर 

और मेरी उदास आंखों में

उतरे नीले शून्य 

के 

बीच

हर वह चीज जो चमकती है

हर वह चीज जो धड़कती है

हर वह चीज जो छलांगें भरती गुजर जाती है

बार-बार

पुकार कर

दिशाओं से कहती है: 

आदमी को 

हर हाल में

निर्णायक होना चाहिए! 

Monday, June 6, 2016

युवानीति : इसके नाटक दर्शकों को झकझोरते हैं- सुनील सरीन


युवानीति के 38 वर्ष 

आपातकाल के बाद का दौर था। लोकतंत्र की जद्दोजहद जारी थी। भारतीय शासकवर्ग की अलोकतांत्रिक प्रवृत्तियों और उसके पाखंड के खिलाफ गहरा जनविक्षोभ बरकरार था। राजनीति ही नहीं, संस्कृति के क्षेत्र में भी सत्ता की चाटुकारिता, पूंजीवादी पतनशीलता और व्यक्ति-पूजा का जोर था। इन्दिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ जो नयी सरकार आई, वह भी जनता की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरी।  इन्हीं परिस्थितियों में अड़तीस वर्ष पूर्व 5 जून 1978 को आरा शहर के जवाहरटोला मुहल्ले की  मुसहरटोली में कथाकार मधुकर सिंह की कहानी ‘दुश्मन’ की नाट्य-प्रस्तुति के जरिए नाट्य संस्था ‘युवानीति’ ने अपने सफर की शुरुआत की थी। इस संस्था के गठन के लिए शहर के विभिन्न समुदायों के ऐसे नौजवान साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी और बुद्धिजीवी नागरिकों ने पहल की थी, जो बेहतर सामाजिक-राजनीतिक बदलाव चाहते थे, जो संस्कृतिकर्म को जनता की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाना चाहते थे। 

पहले नाटक के रूप में ‘दुश्मन’ का चुनाव कई दृष्टियों से इस नाट्य संस्था के मकसद को स्पष्ट करता है। एक नेता जो सत्ता मे जाते ही शोषक-उत्पीड़क शक्तियों का सहयोगी बन जाता है, उसे यह कहानी ‘दुश्मन’ घोषित कर देती है, यानी सत्ता या व्यवस्था में शामिल होते ही जिनका वर्ग बदल जाता है, शुरू से उनका स्पष्ट नकार इस संस्था की दिशा थी।

जाहिर है यह रास्ता संस्कृतिकर्म के क्षेत्र में सत्ता और सत्ता के ठेकेदारों द्वारा दिए जाने वाले प्रलोभनों को ठुकराते हुए जनसहयोग के बल पर संस्कृतिकर्म करने का रास्ता था। युवानीति के कलाकारों के लिए अभावों और कम सुविधाओं के बीच काम करना कोई बाध्यता नहीं, बल्कि एक खास राजनैतिक-आर्थिक परिस्थिति में सचेत वैचारिक चुनाव था। रंगकर्मियों को सामंती आतंक और शासकीय दमन के खतरों को भी झेलने को तैयार रहना था। युवानीति ने भोजपुर के किसान आंदोलन से उर्जा ग्रहण की, गांवों में भी जाकर नाट्य प्रस्तुतियां कीं। नुक्कड़ से लेकर प्रेक्षागृृह तक में सफल प्रस्तुतियों के जरिये यह साबित किया कि अगर जनता से जुड़े सवालों और बेहतर बदलाव की जनाकांक्षा को लेकर कोई संस्था प्रतिबद्धता के साथ वैचारिक संस्कृतिकर्म करेगी, तो उसे दर्शकों का हमेशा साथ मिलेगा।

जंगीराम की हवेली, जनता पागल हो गई है, पत्ताखोर, राजा का बाजा, हत्यारे, कामधेनु, जनतंत्र के मुर्गे, सरकारी साढ़, गिरगिट, तमाशा, कफन, ये किसका लहू है कौन मरा, अंधेर नगरी चैपट राजा, तेरा नहीं मेरा नहीं सब कुछ हमारा, जरा सोचिए, खून से सना गेहूं समेत दो दर्जन से अधिक नुक्कड़ नाटकों की हजारों प्रस्तुतियां युवानीति ने की। कम संसाधनांे में युवानीति के कलाकारों ने जो रंग प्रयोग किए, उसकी चर्चा पूरे देश में रही। जबकि महानगरों में मंचीय प्रस्तुतियों के दौरान दर्शकों की कमी का रोना रोया जाता रहा, उस दौरान भी युवानीति ने पोस्टर, सिंहासन खाली है, तेतू, आदि विद्रोही स्पार्टाकस, बकरी, कामरेड का कोट, हजार चैरासी की मां, पदचाप, मास्टर साब जैसे विचारोत्तेजक और जटिल संरचना वाले नाटकों का बेहद सफल मंचन किया। तत्काल घटित घटनाओं के आधार पर युवानीति ने कई नाटको की प्रस्तुुति की, जिसमें एड्स के कुप्रचार, कुष्ट निवारण केंद्र की दुर्दशा, बाढ़ के दौरान गोली कांड और सांप्रदायिकता को आधार बनाकर कर किए गए नाटकों ने भी दर्शकों को काफी प्रभावित किया। 

युवानीति ने देश के कई शहरों में भी अपने नाटकों की प्रस्तुति की। सामूहिकता इस संस्था की खासियत रही है। सामूहिक लेखन और सामूहिक निर्देशन को महत्व देने वाली शायद ही कोई ऐसी संस्था होगी। 

बेशक ‘युवानीति’ के 38 वर्षों का सफर काफी उतार-चढ़ाव से गुजरा है। जनता के लिए रंगकर्म की दशा-दिशा और रंगकर्मियों के व्यक्तिगत जीवन के प्रश्नों के अलावा कई सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक मुद्दों पर इस संस्था के भीतर बहसें चलती रही हैं। मेरे पास कई मिनट्स बुक हैं जो उन बहसों के साक्ष्य हैं। विभिन्न आयोजनों की तस्वीरें, युवानीति के नाटकों के स्क्रिप्ट, खबरों और रिर्पोटों की कटिंग्स और जन नाट्यकर्म के लिहाज से महत्वपूर्ण इसके संग्रहणीय स्मारिकाओं में भी इसका इतिहास दर्ज हैं। 

आज जब सत्ता-प्रतिष्ठानों द्वारा संस्कृतिकर्म के क्षेत्र में करोड़ों रुपये बहाए जा रहे हों और संस्कृतिकर्म के क्षेत्र में नए-नए ठेकेदार-माफिया पैदा हो रहे हों, जब सर्वग्रासी पूंजी-तंत्र कला-संस्कृति को पूरी तरह निगल जाने को आतुर है, तब ‘युवानीति’ सत्ता के साथ आलोचनात्मक रिश्ते और अपनी स्वतंत्रता और स्वायत्तता की विरासत को कैसे बचाएगी, यह एक गंभीर सवाल है। 

‘युवानीति’ की 38 वीं वर्षगांठ के अवसर पर पेश है इस संस्था के पूर्व सचिव सुनील सरीन का एक आलेख ‘रंगकर्म की गुरिल्ला लड़ाई लड़ रही है युवानीति’, जो उन्होंने इस संस्था के दस साल पूरे होने के बाद लिखा था। यह लेख 11 जनवरी 1989 को नवभारत टाइम्स के पटना संस्करण में छपा था। यह आलेख ‘युवानीति’ की वैचारिक दिशा और उसकी ताकत के स्रोत को समझने के लिहाज से भी उपयोगी है।- सुधीर सुमन 


जून 1978 की पांचवी तारीख- शाम का समय- चार चैकियों को सटाकर एक मंच बनाया गया था। पीछे की ओर सटी मिट्टी की अधढही दीवार साइक्लोरामा (पीछे का परदा) के रूप में थी। मंच के बाकी तीन ओर के खुले एप्रन (मंच का अग्रभाग) में दो खंभे गाड़कर टंगे बल्बों और गैस बत्तियों (जो बिजली गुल हो जाने की आशंका से टांगी गई थीं) का प्रकाश फैला हुआ था। मुसहर टोली के...सूअरबाड़ी के चारों ओर खेलने वाले नंग-धडंग बच्चों और दुधमुंहे बालकों को अपनी गोदी में चिपकाए...महिलाओं के बीच ‘युवानीति’ ने अपनी प्रथम नाट्य प्रस्तुति की थी- मधुकर सिंह का नाटक ‘दुश्मन’। यह अवसर था जब साहित्य व कला को जनता के बीच पहुंचाने को बेचैन युवा साहित्यकारों और रंगकर्मियों की एक जमात ने कला संस्कृति को जनता और जीवन के फलसफे के रूप में स्थापित करने का ऐलान किया। पूरे भोजपुर में यही वह दौर था जब जन संस्कृति की प्रबल धारा ने वेग पकड़ना शुरू किया था। 

रंगकर्म मनोरंजन नहीं है और न ही विशुद्ध कलात्मक विद्या। वह इन स्थितियों से आगे एक कर्मक्षेत्र है, एक गुरिल्ला लड़ाई- जड़ तथा निष्क्रिय जीवन में उत्पन्न एक भूचाल। यह लोगों को क्रियोन्मुख करता है। इसकी भूमिका बदलाव की है- इस फलसफे को आत्मसात कर निरंतर प्रयासरत रही है ‘युवानीति’...। इसीलिए इसके नाटक दर्शकों को आनंदित नहीं करते, बल्कि झकझोरते हैं और उसे एक सार्थक दिशा की ओर उन्मुख करते हैं। उस दिशा की ओर जहां बदलाव और संघर्ष की ताकतें एकजुट हो रही हैं। 

यह तो बिल्कुल ही स्पष्ट है कि आज थियेटर के बारे में अलग से बात नहीं की जा सकती है, जब तक कि मूल समस्या और संपूर्ण सामाजिक संदर्भ से न जुड़ा जाए। लोग संस्कृति को समाज और जनता की आर्थिक राजनैतिक नाट्य स्थितियों का आईना मानते हैं, इसीलिए अगर आज का नाटक जनतंत्र के गुर्गों और मुर्गों के खिलाफ है। बेईमान, भ्रष्ट, निकम्मे, शोषक-शासक शक्तियों और सामान्य जनों को बांटने वाली ताकतों और वर्तमान भारतीय तंत्र के खिलाफ है तो यह स्वाभाविक है। रंगदर्शक ऐसी ही स्थितियों में रहकर अपनी मुक्ति का मार्ग ढूंढ रहा है। इसलिए आज की नाट्य प्रस्तुतियां जंगल की आग की तरह चैकन्नी, अधिकारों के हनन को तत्पर इस तंत्र के खिलाफ एक भूचाल की मानिंद प्रतिरोध की संस्कृति के समर्थन में उठा हुआ नाट्यांदोलन बन गई है। ‘युवानीति’ ने आरंभ से ही जनता के संकल्पों, स्वप्नों, विश्वासों और उसकी संगठित रूप से सक्रिय प्रतिरोधी चेतना को अपने नाटकों और गीतों का अंतर्वस्तु बनाया। दर्शकों के नैतिक समर्थन, दृढ़ विश्वास, सक्रिय सहयोग और प्यार का संबल पाकर इस संगठन ने रंगकर्म के क्षेत्र में अपनी पहचान कायम कर ली है।

इस वर्ष (1988) ‘युवानीति’ ने अपनी स्थापना के दस साल पूरे किए हैं। अपनी इस रंगयात्रा के दौरान इसने विभिन्न नाटकों की अब तक ढाई हजार से भी ज्यादा प्रस्तुतियां कीं। भोजपुर जिले के लगभग सभी गांवों के लोगों ने इन्हें देखा जाना है और प्यार दिया है। 

नाट्य प्रस्तुति की सूचना मिलते ही पूरे जवार के लोग उमड़ आते हैं रंगस्थल पर। सिर्फ अपने जिले में ही नहीं, बल्कि बिहार के कई नगरों, कस्बों व ग्रामीण क्षेत्रों में ‘युवानीति ने नाट्य प्रदर्शन किए हैं। भोपाल में आयोजित अखिल भारतीय नुक्कड़ रंग मेले में इसकी प्रस्तुतियों की वजह से इसकी एक अलग पहचान बन गई थी। 

दिल्ली, उत्तर प्रदेश व पश्चिम बंगाल के कई नगरों व कस्बों में ‘युवानीति’ ने मंच व नुक्कड़ों पर नाट्य प्रस्तुतियां की हैं। ‘सवा सेर गेहूँ’, ‘सरकारी साढ़’, ‘जंगी की पुकार’, ‘इंकलाब जिंदाबाद’ ‘जनता पागल हो गई है’, ‘कामधेनु’, ‘हत्यारे’, ‘दुश्मन’ आदि इसके नाटक गांवों में बहुत लोकप्रिय हैं। रंगमंचीय नाटकों के क्षेत्र में भी इसका प्रयास सराहनीय है। तीन-तीन दिनों तक प्रेक्षागृह में चलने वाले नाटकों में दर्शकों की अपार भीड़ रहती है, यहां तक कि टिकट ब्लैक किए जाने की घटनाएं द्रष्टव्य हैं, या फिर सीटों के भर जाने पर खड़े-खड़े नाटक देखना निश्चय ही इसकी लोकप्रियता और बेहतर रंगकर्म का प्रमाण है। प्रेक्षागृह में हुई इसकी प्रस्तुतियों में ‘सिंहासन बाकी है’, ‘तेतू’, ‘पूस की रात’, ‘पोस्टर’, ‘मारीच-संवाद’, ‘स्पार्टाकस’ आदि नाटकों का प्रदर्शन उल्लेखनीय है। 

बिहार में सर्वप्रथम नुक्कड़ नाटक प्रस्तुत करने वाली संस्था संभवतः ‘युवानीति’ है। जून ’78 में ‘दुश्मन’ और ‘गिरगिट’ नाटक की प्रस्तुति आरा और पटना के नुक्कड़ों पर इसने की। इसके बाद सर्जना, हिरावल, इप्टा, प्रयास, दिशा, विशाल, नवांकुर आदि कई संस्थाएं अस्तित्व में आईं और बिहार में नुक्कड़ नाट्य प्रस्तुतियों की संख्या काफी बढ़ीं। आज 100 से भी ज्यादा नाट्य संस्थाएं बिहार में सक्रिय हैं। राजेश कुमार, गुरुशरण सिंह, असगर वजाहत, रमेश उपाध्याय, शिवराम, जन नाट्य मंच, दिल्ली आदि के दर्जनों नाटकों की प्रस्तुति के अलावा ‘युवानीति’ ने खुद कई नाटक तैयार कर प्र्र्रस्तुत किए हैं। विभिन्न अवसरों पर तथा तात्कालिक समस्या व घटनाओं पर इसने इम्प्रोवाइजेशन और झांकियां प्रस्तुत की हैं। जिसमें युवानीति के नजरिए और उसकी रंगचेतना को बखूबी समझा जा सकता है। 

यह सही है कि ‘युवानीति’ ने गांवों, कस्बों व शहरों में पतनशील संस्कृति के खिलाफ अपने नाटकों के माध्यम से कारगर हस्तक्षेप कया है, किंतु अपने इन प्रयासों के दरम्यान उसे अनेक संकटों व परेशानियों का सामना करना पड़ा है। गांवों की असुविधाओं (आने-जाने, रहने, खाने-पीने आदि) के बीच नाटक करना कोई आसान काम नहीं। कभी-कभी तो इस हद तक तक टीम को कठिनाई झेलनी पड़ी कि बरसात की उमस भरी गर्मी में कीचड़-पंक वाले खेतों की पगार (मेड़) पर कई कोस पैदल चलने के बाद कच्ची-अधपकी लिट्टियां खाकर मवेशी बांधने वाले घर में कलाकारों को सोना पड़ा। बावजूद इसके, उन्होंने नाट्य प्रदर्शनों में कहीं से भी हताशा नहीं दर्शाई न ही दर्शकों को निराश किया। 

दूसरी तरफ सामंतों, गुंडों व पुलिस वालों की हरकतों का भी कम सामना नहीं करना है इन्हें। 1984 में टीम को सहार थाने में पुलिस ने गिरफ्तार कर रात भर थाने में रखा। सुबह यह धमकी देकर उन्हें छोड़ा गया कि वे इस क्षेत्र में कभी नाटक करने नहीं आएंगे। 1982 में ‘युवानीति’ के तीन वरिष्ठ रंगकर्मियों पर झूठे मुकदमे मढ़े गए। उन पर सरकारविरोधी प्रचार का आरोप लगा। इसके अलावा अक्सर विभिन्न कार्यक्रमों में सामंती गुंडों की धमकियां, पुलिस का आतंक अक्सर झेलना पड़ता है। अभी पिछले मई माह (1988) में उत्तर बिहार में मुजफ्फरपुर जिले के मुशहरी प्रखंड में नाटक होने के पूर्व गुंडों ने हाथ में बम और राइफल लेकर गांवों में प्रचार किया था कि नाटक देखने कोई नहीं जाएगा। 

इन धमकियों व दमन के बावजूद ‘युवानीति’ के नाट्य प्रदर्शनों में ऐसी समस्याएं आड़े नहीं आतीं और ज्यादातर ऐसा होता है कि यदि सामंती गुंडे और पुलिस नाटक खेलने में कोई अवरोध उत्पन्न करते हैं तो दर्शक ही पुलिस और जमींदार से लोहा लेते हैं। पिछले ही दिनों मुजफ्फरपुर में गांव वालों ने गुंडों की धमकियों को धता बताते हुए हजारों की संख्या में ‘युवानीति’ के नाटकों के प्रदर्शन में शिरकत किया और भोजपुर के कलाकारों की जुबान से अपने जीवन और संघर्षों की दास्तान सुनी। सोनबरसा (भोजपुर जिले (अब बक्सर) के नवानगर थाने में अवस्थित) में पुलिस वालों को दर्शकों ने भगा दिया कि बीच में डिस्टर्ब मत करें। शांति आप नहीं बनाइएगा, हम बनाएंगे। बक्सर में नुक्कड़ पर नाटक होते समय बीच में हस्तक्षेप करने वाले एक हवलदार को दर्शकों ने हूट कर दिया। वह मुंह चुराकर भाग गया। इस तरह की और भी कई घटनाएं हैं। 

‘युवानीति’ की संस्कृति के प्रति स्वस्थ और वैज्ञानिक समझ का एक महत्वपूर्ण नतीजा यह भी है कि जनता की समस्याओं के समाधान व उनके हक अधिकारों को दिलाने के लिए परिवर्तनकामी राजनीतिक कार्यकर्ताओं को खड़ा किया। संस्कृति व राजनीति का ऐसा सामंजस्य अनूठा है।