Monday, August 18, 2014

उर्मिला कौल आरा की पहचान थीं : सुधीर सुमन

पिछले साल सितंबर माह में मधुकर सिंह के सम्मान में एक समारोह हुआ था। रोजी-रोटी के चक्कर में देश के अलग-अलग हिस्सों में बिखर गए आरा के कई साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी उस आयोजन में जुटे थे। हमेशा की तरह उर्मिला कौल अध्यक्ष मंडल में थीं। उन्होंने कहा कि इस समारोह की मधुर स्मृति लंबे समय तक रहेगी। लेकिन काल की गति को कोई नहीं जानता। इस साल अप्रैल में जब शायर फराजनजर चांद गुजरे तो कई मित्रों ने याद दिलाया कि कुछ माह पहले ही तो मधुकर सिंह सम्मान समारोह में उनसे मुलाकात हुई थी। उसके बाद पिछले 15 जुलाई को मधुकर सिंह हमसे बिछड़े और ठीक एक माह बाद 15 अगस्त को उर्मिला कौल भी नहीं रहीं। ये ऐसे रचनाकार थे, जिनसे आरा का साहित्यिक संसार जीवंत बना रहता था। उर्मिला कौल का निधन इस साल आरा के साहित्य जगत के लिए तीसरी बड़ी क्षति है। 
उर्मिला कौल आरा शहर की बेहद सम्मानित शख्सियत थीं। नब्बे के दशक के शुरू में जब साहित्यिक गोष्ठियों में जाने की शुरुआत हुई तो उनसे परिचय हुआ। उसके बाद जब जन संस्कृति मंच मुझे जिम्मेवारी मिली, तब से आयोजनों के लिए आमंत्रित करने के सिलसिले में उनके घर भी आना-जाना शुरू हुआ। उन्हें आरा शहर की कई संस्थाओं ने खुद से संबद्ध कर रखा था। इसके बावजूद जब भी हमने जन संस्कृति मंच के किसी आयोजन में उन्हें आमंत्रित किया, तो वे जरूर उसमें शामिल हुईं। जब हमने चित्रकारों का संगठन कला-कम्यून बनाया तो उसके पहले आयोजन का उद्घाटन भी उन्होंने किया। आरा की वे अकेली महिला रचनाकार थीं, जो आखिरी समय तक साहित्यिक सृजन में लगी रहीं और साहित्यिक आयोजनों में जिनकी हमेशा मौजूदगी बनी रही। वे किसी भी आयोजन में तय समय पर पहुंचती थीं और अंत तक वहां मौजूद रहती थीं। आज जबकि कुछ रचनाकार साहित्यिक गोष्ठियों में शिरकत करने को समय की बर्बादी समझने लगने हैं, तब साहित्य और साहित्यिक आयोजनों के प्रति ऐसा लगाव दुर्लभ लगता है। उनके आने से आयोजनों की गरिमा बढ़ जाती थी। 
उर्मिला कौल का जन्म आरा में नहीं हुआ था, लेकिन इस शहर में निरंतर अपनी साहित्यिक सक्रियता के कारण वे यहां की पहचान बन चुकी थीं। 25 फरवरी 1931 को पंजाब के अंबाला में जन्मी उर्मिला कौल के पिता प्रो. मेला राम पंडित खुद भी कवि थे। नाटक और कविता में उनकी दिलचस्पी बचपन से ही थी। उर्मिला कौल के पति उद्योग विभाग में पदाधिकारी थे। उन्हीं के साथ वे आरा आईं और हमेशा के लिए आरा की हो गईं। आरा में उर्मिला कौल के रहते हुए साहित्यिक आयोजनों में कभी भी महिलाओं के प्रतिनिधित्व की जरूरत का ख्याल ही नहीं आया। आज जब वे नहीं हैं, तब महसूस हो रहा है कि उनकी तरह व्यापक सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव के लिए रचनाकारों को प्रेरित करना और खासकर महिला लेखन को प्रोत्साहित करना कितना जरूरी है। उनके कहानी संग्रह ‘शिलालेख’ के फ्लैप पर कथाकार मधुकर सिंह ने सही ही लिखा था कि ‘बहुआयामी परिवेश का होना किसी भी रचनाकार के लिए व्यापक ‘सामाजिक सरोकार’ का परिचायक है।...विभिन्न वर्गों के भीतर प्रवेश करती उर्मिला स्थितियों को रू-ब-रू रखने की कला में माहिर हैं।’ 
‘शिलालेख’ का प्रकाशन 1992 में हुआ। इस संग्रह की कहानियों की विषयवस्तु में जो विविधता है उससे उनके व्यापक सरोकार का पता चलता है। पहली कहानी ‘हमवतन’ इस विडंबना पर है कि भारत की जिस सेना ने विश्वयुद्ध मंे ब्रिटेन को विजय दिलाई, विभाजन के बाद किस तरह उसमें बंटवारा होता है और एक ही सेना के लोग एक दूसरे के दुश्मन की स्थिति में खड़े हो जाते हैं। वृद्ध दंपत्ति की पीड़ा पर आधारित ‘वसीयत’ कहानी हो या जुल्मी-भोले-भाले असुंदर रिक्शा चालक पर केंद्रित कहानी ‘कब आओगे प्रिय!’ या मिलिट्रीमैन बनने का सपना देखने वाले पियक्कड़ बुद्धन की कथा ‘मलेटरी मैन’- इनसे उर्मिला कौल की व्यापक संवेदनशीलता का अंदाजा लगाया जा सकता है। ‘मलेटरी मैन’ की जो भाषा शैली है, उसे पढ़ते हुए रामेश्वर सिंह कश्यप रचित मशहूर चरित्र ‘लोहा सिंह’ की याद आ जाती है।  
1981 में उनकी पहली पुस्तक ‘पथिक आ’ का प्रकाशन हुआ था, जो उनकी कविताओं का संग्रह था। तबसे अब तक तीन दशक से अधिक समय में उन्होंने कई साहित्यिक विधाओं में सृजन किया। अंग्रेजी कविताओं का संग्रह ‘ब्रिद आॅफ ब्रीज’ और ‘डेजर्ट इन द मेकिंग’, उपन्यास ‘पाषाणी कौन’ और ‘लाॅन्ग लिव आवर जंगबहादुर’, लघु कथा संग्रह ‘इंद्रधनुष कैसा होता है’ और ‘स्वांतः सुखाय’, दोहा संग्रह ‘आखर-आखर’ तथा बाल कहानी संग्रह ‘लेटर बाॅक्स महासम्मेलन’, यात्रा वृत्तांत ‘चल, पहाड़ की ओर’ उनकी प्रमुख कृतियां हैं। 
उर्मिला कौल ने जापानी काव्य रूप ‘हाइकू’ को हिंदी में लोकप्रिय बनाने का काम किया। ‘अनुभूति’, ‘बिल्व पत्र’, बोंसाई आदि उनके प्रमुख हाइकू संग्रह हैं। उन्होंने न केवल अंग्रेजी में हाइकू लिखा, बल्कि हाइकू छंद में ही ‘कैकयी’ नामक खंड काव्य भी लिखा। उन्होंने हाइकू में ही अपनी आत्मकथा भी लिखा है, जिसका प्रकाशन अभी होना है। ‘समय की शिला पर’ नामक उनका निबंध संग्रह भी प्रकाशित हुआ। उन्होंने अंतरिक्ष विज्ञान एवं चंद्रगमन पर आधारित 11 अंकीय नाटक ‘तारालोक’ की रचना भी की।  
स्वाधीनता आंदोलन की विद्रोही परंपरा से उर्मिला कौल का गहरा लगाव था। 1857 की 150 वीं वर्षगांठ पर उन्होंने बहादुर शाह जफर पर केंद्रित ‘1857 का शाही शहीद’ नाटक लिखा। आजाद हिंद के कर्नल जीएस ढिल्लन और कैप्टन लक्ष्मी सहगल से उनका पारिवारिक जुड़ाव था। बातचीत में वे उनकी और आजाद हिंद फौज का अक्सर जिक्र करती थीं। उन्हें साहित्य सृजन के लिए कई सम्मान मिले। उन्होंने कर्नल ढिल्लन की आत्मकथा ‘फ्राॅम माई बोन्स- आईएनए ट्रायल इन रेड फोर्ट का ‘मेरी अस्थियों से’ नाम से अनुवाद भी किया। उर्दू, कश्मीरी, बंगला, तमिल, जापानी और नेपाली में उनकी रचनाओं के अनुवाद हुए। साहित्य के अलावा सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, हस्तशिल्प, सितार वादन में भी उनकी रुचि थी। अपने सौम्य और स्नेहिल व्यक्तित्व तथा साहित्य-संस्कृति के प्रति गहरी आस्था के लिए उर्मिला कौल हमेशा याद आएंगी। 


Sunday, August 17, 2014

हर दौर में 'दुश्मन' क़ी पहचान क़ी यह नजर हमें भी हासिल करनी होगी


( कथाकार मधुकर सिंह क़ी स्मृति में संतोष सहर की एक जरूरी टिप्पणी )

मधुकर जी अब हमारे बीच नहीं हैं- आज से ठीक माह भर पहले 15 जुलाई को ही वे हमसे विदा ले चुके हैं- 16 जुलाई को आरा के पार्टी कार्यालय (भाकपा-माले के भोजपुर जिला कार्यालय) में, जहाँ अंतिम दर्शन के लिए उन्हें कुछ देर के लिए रखा गया था, आयोजित श्रद्धांजलि सभा में मैं भी शामिल था- फिर, पटना (20 जुलाई) और 26 जुलाई को आरा में आयोजित सभाओं में भी, जहाँ मुझे उनसे किसी न किसी रूप में जुडे दर्जनों लोगों के संस्मरण और विचार जानने-सुनने का मौका मिला (साथ ही इस सिलसिले से अपनी बातों को रखने का भी). श्रद्धांजलि सभाओं के अधिकांश वक्ता दिवंगत के साथ अपने प्रथम साक्षात्कार और बाद में बने आपसी रिश्तों में आये खटास-मिठास और इस लिहाज से ही कुछेक घटनाओं (कभी-कभी तो बहुत ही विस्तार से) का जिक्र करने के जरिये संपन्न करते हैं. मेरी पूरी कोशिश यह रही कि मैं इससे बचूं और जरूरी बातों पर ही ध्यान दूँ. मुझे इतना समय भी नहीं मिलता और न ही मुझे इसकी जरूरत थी. 

कहते हैं कि आदमी का अस्तित्व इस बात से कत्तई निर्धारित नहीं होता कि वह खुद के बारे में कितने ऊँचे ख्याल रखता है बल्कि इससे होता है कि उसे जाननेवाले लोग उसके बारे में कैसा ख्याल रखते हैं. अपनी नजर में तो हम सभी महान ही होते हैं. आज जहाँ ओछापन ही हमारे समाज (और कमोबेश बौद्धिक समाज का भी) गुणधर्म बना हुआ है, इन श्रद्धांजलि सभाओं में इसकी काई परत छितराती हुई सी नजर आई. यह हमारी नहीं, मधुकर जी क़ी ही उपलब्धि मानी जाएगी- उनके व्यक्तित्व का यह विशिष्ट पहलू मेरे सामने पहली बार इस रूप में उजागर हुआ. मैं अब भी उनके व्यक्तित्व में इस विशिष्ट पहलू के निर्मिति के गुणसूत्रों को तलाशने का प्रयत्न कर रहा हूँ और इस क्रम में बरबस मेरी निगाह एक ही जगह पर जाकर टिक जा रही है. यक़ीनन, ऐसा ही है भी.

अब जबकि मधुकर जी हमारे बीच नहीं हैं उनको और उनकी विरासत को विस्मृति के गर्त में डुबो देने. हड़प लेने या भटका देने क़ी कोशिशें भी तेज होंगी. खतरे क़ी घंटियां सुनाई भी पड़ने लगी हैं. देश-विदेश में कई महान लेखकों-चिंतकों के साथ ऐसा हुआ भी है. 'महानता' के शिखर पर बिठाने का ढोंग करते हुए और अपने ओछेपन को शब्दाडंबरों और लफ्फाजियों की आड़ में छुपाते हुए भी ऐसा किया जा सकता है. लेकिन, हमने यह भी देखा है कि उन देशों की जनता और सच्चे बौद्धिकों ने अपनी विरासत से खिलवाड़ करनेवालों को किस तरह से धूल चटाई है. जर्मनी में टुटपुंजिया समाजवादियों के जरिये 'गेटे' और रूस में जारशाही एजेंटों और उदारपंथियों क़ी ओर से टॉलस्टॉय क़ी विरासत को भी हड़प लेने क़ी जबरदस्त 'कोशिशें हुई थीं जिसके बरख़िलाफ़ अपने समय के दो महान विचारकों फ्रेडरिक एंगेल्स और लेनिन ने मोर्चा संभाला था. उनकी स्मृति और सच्ची विरासत को तनिक भी धूमिल नहीं होने दिया था. अपने देश में भी भगवा ताकतें शहीदे आजम भगत सिंह क़ी विरासत पर हमेशा अपनी गिद्ध नजर गड़ाए रहती हैं. हमें मधुकर सिंह क़ी सच्ची विरासत को अक्षुण्ण बनाये रखने और उसे और भी समृद्ध करने का भी मजबूत संकल्प लेना होगा. मधुकर जी अपने लेखन ही नहीं बल्कि जीवन-व्यवहार में भी 'दुश्मन' खेमे में जा बैठे लोगों क़ी बार-बार और साफ-साफ पहचान क़ी थी. यह नजर हमें भी हासिल करनी होगी. इस बेहद नाजुक बन चुके दौर में तो यह और भी ज्यादा जरूरी है.