Saturday, December 26, 2015

साथी पंकज सिंह की याद में उनकी दो कवितायें



(पंकज सिंह, 22 दिसंबर 1948- 26 दिसंबर 2015, जन्म-स्थान : मुजफ्फरपुर, बिहार। शिक्षा :पैतृक गांव चैता (चम्पारण) से स्कूली शिक्षा का आरंभ। बिहार विश्वविद्यालय से इतिहास में बी.ए. (ऑनर्स) और एम.ए.। प्रमुख कृतियां : पहली कविता 1966 में प्रकाशित। पहला कविता-संग्रह ‘आहटें आसपास’ 1981 में प्रकाशित। दूसरा ‘जैसे पवन पानी’ 2001 में प्रकाशित, तीसरा 'नहीं' (2009)  । बॉग्ला, उर्दू, अंग्रेजी, जापानी और फ्रांसीसी आदि भाषाओं में कविताओं के अनुवाद। पेरिस (1978-80) और लंदन (1987-91) में प्रवास। रचनात्मक लेखन के साथ-साथ राजनीति और साहित्य कला-संस्कृति पर भी पत्र-पत्रिकाओं में बहुविध लेखन। डॉक्यूमेंटरी और कथा-फिल्मों के लिए स्क्रिप्ट लेखन। दूरदर्शन और अन्य चैनलों पर कई प्रस्तुतियां। जनांदोलनों से गहरा जुड़ाव।)



पंकज भाई, अभी तो फासीवादी मुहिम के विरुद्ध अभियान को परवान चढ़ना था। अभी तो जनप्रतिरोध को पूरे देश में नए सिरे से संगठित होना था। प्रतिरोध की विभिन्न धाराओं को एकजुट होना था, इसी बीच आप हम सबसे जुदा हो गए। पिछले पांच नवंबर को फासीवाद के खिलाफ अभियान के तहत जनहस्तक्षेप के कार्यक्रम की सूचना पाकर मैं गांधी शांति प्रतिष्ठान पहुंचा था, जहां आपसे और सविता जी से मुलाकात हुई थी। कहां पता था कि आखिरी बार मिल रहा हूं!

आपकी ही पंक्तियां याद आ रही हैं- 

दुख जितना मन में है उतना ही जर्जर देह में उतना ही
नहीं उससे बहुत ज्यादा बेफिकर नुचे-चिंथे समाज में

आप चाहते थे समाज के दुखों की मुक्ति, सबकी दुखों से मुक्ति। आपकी पीढ़ी के नौजवानों और कवियों को नक्सलबाड़ी ने मुक्ति का जो रास्ता दिखाया था, चाहे आप जहां भी रहे, उस रास्ते को नहीं भूले, आखिर तक माक्र्सवाद-लेनिनवाद की राजनीतिक धारा के साथ जुड़े रहे। आपकी कविताओं में भोजपुर आंदोलन की स्मृतियां हैं, वहां भोजपुर आंदोलन के शहीद साथी हैं, वहां नरायन कवि हैं, साधुजी हैं, वहां शीला चटर्जी हैं। भोजपुर के कुछ लोग आज भी आपको याद करते हैं। खासकर आपके साथी वरिष्ठ कवि जगदीश नलिन, जिनसे जब भी मिला, तो आपकी जरूर चर्चा हुई। 

आप मेरे प्रिय उद्घोषक थे। जिन दिनों बीबीसी हिंदी सेवा का नियमित श्रोता हुआ करता था, उन दिनों आपसे आत्मीय संबंध बना। फिर जब जन संस्कृति मंच से जुड़ा तो पता चला कि आप इसके करीब हैं। सन् 1998 के दिल्ली राष्ट्रीय सम्मेलन में आप इसके परिषद में भी शामिल हुए। एक मुलाकात में आपने भाकपा-माले के पूर्व महासचिव का. विनोद मिश्र के साथ अपने घनिष्ठ संबंधों का जिक्र किया था कि किस तरह आप उनके साथ देश-दुनिया की राजनीतिक स्थितियों को लेकर बातचीत करते हुए कई बार पैदल नोएडा उनके आवास तक चले जाते थे। उसी मुलाकात में आपने मेरी एक चिट्ठी का जिक्र किया था, जिसे आपने सहेज कर रखा था, जिसमें संभवतः मैंने अपनी जिंदगी की मुश्किलों और उलझनों का जिक्र किया था। नवंबर में ही पुराने कागजात छांटते हुए मुझे आपके कुछ खत मिले, जिसे मैंने सहेज कर रख दिया था। 
आपकी कविताएं मुझे अच्छी लगती रही हैं। अफसोस, ‘जैसे पवन पानी’ पर लिखी हुई मेरी समीक्षा प्रकाशित नहीं हो पाई, प्रकाशन की प्रक्रिया में वह कहीं खो गई, नोट्स अब भी उस कविता संग्रह में पड़े होंगे। कविता पढ़ने का आपका अंदाज भी मुझे पसंद था। ‘जैसे पवन पानी’ के प्रकाशन के बाद पटना के माध्यमिक शिक्षक संघ भवन में आपकी कविताओं का जो पाठ हुआ था, उसकी स्मृति आज भी है। आपको श्रद्धांजलि देते हुए आपकी ही दो प्रतिनिधि कविताएं पेश कर रहा हूं, जिसे बसंत का वज्रनाद यानी नक्सलबाड़ी के 40 साल पूरा होने पर हमने समकालीन जनमत में प्रकाशित किया था-


जैसे पवन पानी

हमारी आवाजें थीं हमीं से कुछ कहने की कोशिश में
फिर कुछ गूंजता हुआ सा थमा रहा सिसकी सा
आखिरकार वह भी गुम हुआ आहिस्ता-आहिस्ता
बचा रहा एक बेआवाज शोर


यह सारा वृत्तांत बहुत उलझा-उलझा है बहुत लंबा
सबकी अलग-अलग थकान है
हर दुख का है कोई अविश्वसनीय प्रति-दुख
जो हमारे अनुपस्थित शब्दों की जगह जा बैठता है


दुख जितना मन में है उतना ही जर्जर देह में उतना ही
नहीं उससे बहुत ज्यादा बेफिकर नुचे-चिंथे समाज में


एक तरफ होकर अपने ही खोए शब्दों का आविष्कार
करना होगा जो भले ही बिगड़ी शक्ल में आएं खूनआलूदा
मगर हमारे हों जैसे कल के


हम उन्हें पहचान ही लेंगे हर हाल में 
हमारी हकलाहट में गुस्से में रतजगों में शामिल 
बेबाक खड़े थे जो
दिखते हैं हमें भोर के सपने में कभी-कभी
उनके चेहरों पर आंसुओं के दाग हैं


हम उन्हें पहचान लेंगे
सारे आखेट के बीच नए आरण्यक की सारी कथाओं के बावजूद 
सारे खौफनाक जादू सारे नशे के बावजूद
वे हमारी आवाजें थे 

अब भी होंगे हमारी ही तरह मुश्किलों में
कहीं अपने आविष्कार के लिए 
और विश्वास करना चाहिए
हम उन्हें पा लेंगे क्योंकि हमें उनकी जरूरत है 
अपने पुनर्जन्म की खातिर 
थोड़े उजाले थोड़े साफ आसमान की खातिर 
मनुष्यों के आधिकारों की खातिर
वे थे 
वे होंगे हमारे जंगलों में बच्चों में घरों में उम्मीदों में
जैसे पवन पानी...



मध्यरात्रि

मध्यरात्रि में आवाज आती है ‘तुम जीवित हो?’
मध्यरात्रि में बजता है पीपल
जोर-जोर से घिराता-डराता हुआ


पतझड़ के करोड़ों पत्ते 
मध्यरात्रि में उड़ते चले आते हैं
नींद की पारदर्शी दीवारों के आर-पार
पतझड़ के करोड़ों पत्ते घुस आते हैं नींद में

मध्यरात्रि में घूमते होंगे कितने नारायन कवि धान के खेतों में
कितने साधुजी
सिवान पर खड़ी इंतजार करती हैं शीला चटर्जी मध्यरात्रि में

मध्यरात्रि में मेरी नींद खून से भीगी धोती सरीखी
हो जाती है मध्यरात्रि में मैं महसूस करता हूं ढेर सारा ठंढा खून

‘तुम जीवित हो?’ आती है बार-बार आवाज

मध्यरात्रि में दरवाजा खटखटाया जा सकता है
बजाई जा सकती है किसी की नींद पर सांकल 

मध्यरात्रि में कभी कोई माचिस पूछता आ सकता है
या आने के पहले ही मारा जा सकता है मुठभेड़ में
मेरे या तुम्हारे घर के आगे

मध्यरात्रि में कभी बेतहाशा रोना आ सकता है
अपने भले नागरिक होने की बात सोचकर













Thursday, December 10, 2015

विद्रोही : गुलामी के प्रतिरोध में खड़ा एक जनकवि

‘जब भी किसी 
गरीब आदमी का अपमान करती है
ये तुम्हारी दुनिया, 
तो मेरा जी करता है
कि मैं इस दुनिया को 
उठाकर पटक दूं।’
- ये हैं कवि विद्रोही, जो बिना लाग-लपेट के गरीबों और मेहनतकशों की तरफदारी में बोलते हैं। विद्रोही का कहना है कि वे पब्लिक के हुक्म से कविताएं रचते हैं। वे कहते हैं- ‘पुश्त दर पुश्त से रही है अदावत की रवायत/ तुम मुझे निरा शायरी का मुंतजिर न समझना ऐ सनम।’ दो दुनियाओं के बीच की जो अदावत है, जो संघर्ष है वह विद्रोही की कविता में बिल्कुल मुखर है। उनकी कविता एकसाथ इतिहास, मिथ और वर्तमान सबसे निरंतर बहस करती है। मोहनजोदड़ो की महान सभ्यता का विध्वंस करने वालों से लेकर आज के बर्बर और रक्तपिपासु अमेरिकन साम्राज्यवाद तक से उनकी अदावत है। अब किसी को लगे तो लगे कि यह कविता नहीं लाठी है, तो है यह लाठी ही, एक सचेत किसान की लाठी, कवि के शब्दों में- जो बड़ों के खिलाफ भंजती है/ छोटों के खिलाफ नहीं/ भगवान के खिलाफ भंजती है/ इंसान के खिलाफ नहीं।’ वास्तव में यह रूढि़यों से मुक्त कविता की खेती करने वाले एक सचेत किसान की कविताएं हैं। 
विद्रोही जनता के प्रतिरोध के कवि हैं। सिर्फ वर्तमान ही नहीं, बल्कि मनुष्य के पूरे इतिहास को जान-समझकर उन्होंने प्रतिरोध के कविकर्म का सचेतन चुनाव किया है, क्योंकि 
हर जगह ऐसी ही जिल्लत
हर जगह ऐसी ही जहालत
हर जगह पर पुलिस
और हर जगह पर है अदालत।
हर जगह नरमेध है, 
हर जगह कमजोर मारा जा रहा है, खेद है
सूलियां ही हर जगह है, निजामों की निशानी
हर जगह फांसियों पर लटकाए जाते हैं गुलाम।
हर जगह औरतों को मारा-पीटा जा रहा है
जिंदा जलाया जा रहा है
खोदा-गाड़ा जा रहा है
हर जगह पर खून है और हर जगह आंसू बिछे हैं।’ 
मनुष्य की चेतना को कुंद करने वाले और उसे गुलाम बनाने वाले तमाम विचारों, प्रवृत्तियों, परंपराओं, विश्वासों से वे दुश्मनी ठाने हुए हैं। ईश्वर, खुदा, धर्म सब जनता के शोषण के हथियार हैं, वे यह बार-बार कहते हैं और अपनी कविता में गणेश, चूहा, हनुमान, कच्छप, वराह, नृसिंह आदि तमाम मिथ और अवतारों की अवधारणा से मुठभेड़ करते हैं। वे परंपरागत विश्वासों को उलटते हुए एक नई दुनिया की तामीर के ख्वाब को दो टूक लहजे में अभिव्यक्त करते हैं- भाड़ में जाए ये तेरी दुनिया खुदा/ एक दुनिया नई हमको गढ़ लेने दो/ जहां आदमी-आदमी की तरह/ रह सके, कह सके, सुन सके, सह सके। धार्मिक धंधेबाजों और साम्राज्यवाद के रिश्ते को भी वे बखूबी खोल कर रख देते हैं- ‘खुदा और रामचंद्र ये दोनों जने ही/ अमेरिकी बुकनी की मालिश किए हुए हैं/ खुदा रामचंद्र हैं नंगे पर, पांवों में डाॅलर की पालिश किए हुए हैं।’ साम्राज्यवाद और धार्मिक-राजनीतिक सत्ताओं का यह रिश्ता किस तरह दलितों, स्त्रियों, वंचितों के विरोध में है, इसे विद्रोही की कविता उजागर करती है। स्त्रियों के दुख और उत्पीड़न के प्रति जितनी गहरी संवेदना विद्रोही की कविता में मिलती है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। विद्रोही की कविता में भुखाली हरवाह, कन्हई कहार, नूर मियां और नानी-दादी के अद्भुत आत्मीय और जीवट से भरे चरित्र हैं। ऐसे ही लोगों से जो देश बनता है विद्रोही उसके कवि हैं। वे इस जनता के राष्ट्र के निर्माण की गहरी बेचैनी और फिक्र के कवि हैं। फिलहाल उन्हें अपना अभागा देश कालिंदी की तरह लगता है, और सरकारें कालिया नाग की तरह, जिससे देश को मुक्त कराना उनकी कविता का जरूरी कार्यभार है। 
अभाव, वंचना, गुलामी, शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ प्रतिरोध की तमाम परंपराएं जैसे घुली-मिली हैं विद्रोही की कविता में। गुलामों की जीत और उनका तख्त पर काबिज होना उन्हें गहरे आह्लाद से भर देता है। बलबन पर लिखी गई अपनी कविता में इसी कारण वे उसे खुदाओं का खुदा कहकर सलाम करते हैं। लाल झंडे के प्रति भी उनकी आस्था इसी कारण है कि वह गुलामी और शोषण के समूल नाश के लिए जारी संघर्षों का झंडा है। देश, जिसे लाल झंडा अपनी सलामी देता है, उस देश से उनका आग्रह है- बहुत बेइज्जत हुई आबादियां/ बहुत देखी रानियां-शहजादियां/ बराबरी का ताज है यह ध्वज/ इसे रख सिर के ऊपर/ ऐ वतन...’’ 
3 दिसंबर 1957 को अइरी फिरोजपुर (सुल्तानपुर, उ.प्र.) में जन्मे रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ 1980 में जेएनयू एम.ए. करने आए थे। यहीं वामपंथी आंदोलन के संपर्क में आए। 1983 में छात्र आंदोलन में उन्होंने बढ़चढ़कर शिरकत की और जेएनयू से निकाल दिए गए। लेकिन छात्रों के बीच उनकी लोकप्रियता के कारण कई बार चाहकर भी जेएनयू प्रशासन उन्हें वहां से बाहर नहीं कर पाया। जनता का कवि होने का अभिमान है विद्रोही को। साहित्य के नामवरों की अनदेखी तथा पूंजी और बाजार द्वारा तय श्रेष्ठता के पैमानों की उन्हें कोई परवाह नहीं है। वे तो बड़े गर्व से कहते हैं- मेरे हौसले पर नजाकत झुकी है/ विरासत है सबको दिए जा रहा हूं। और इस विरासत की कितनी पूछ है यह जसम के सांस्कृतिक संकुल (सांस) की ओर से प्रकाशित उनके पहले कविता संग्रह ‘नई खेती’ की मांग बताती है। दिल्ली से लेकर बिहार तक उनके चाहने वालों की लंबी कतार है। 
वैसे विद्रोही की कविता की असली ताकत उसे सुनते हुए ही महसूस किया जा सकता है। वे कविता लिखते नहीं, कविता कहते हैं। एक खास त्वरा युक्त किसी बयान के सिलसिले से जैसे हम गुजरते हैं, जिसमें कई शैलियों और शिल्प का इस्तेमाल मिलता है। विद्रोही को सुनना जनता के किसी कवि को सुनना मात्र नहीं है, बल्कि खुद को सुनना है, खुद को बचाना है, अपने भीतर की जिद को मजबूत करना है, अपने भीतर उस इंसान को जीवित रखना है, जो आजाद है, जो समझौते नहीं करता, जो कभी नहीं हारता, जो कभी नहीं मरता। विद्रोही को सुनना अपने रगों में किसी आदिम और नैसर्गिक ज्वार के उमड़ने के अहसास को हासिल करने जैसा है। विद्रोही कहते भी हैं- न ये वाशिंगटन है, न ये इटली है/ ये हिंदुस्तान है, दिल्ली है/ जहां का विद्रोही वासी है/ आदिवासी है, विद्रोही..’। विद्रोही की कविताएं हमारे सहज न्यायबोध, सामाजिकता, मनुष्यता, आजादी, बराबरी, इश्क, कुर्बानी जैसे भावों के ऊपर पड़ने वाले धूल को जैसे धोकर हमें हमको ही सौंपती हैं।
(यह लेख मैंने जुलाई 2011 में लिखा था। जिसे साथी कुमार मुकुल ने अपने ब्लॉग पर लगाया था। डब्ल्यूटीओ के  हाथों भारत की शिक्षा को नीलाम करने और यूजीसी द्वारा नॉन-नेट फ़ेलोशिप बंद किए जाने के खिलाफ जो आंदोलन चल रहा है उसी के दौरान  8 दिसंबर को  आंदोलन के मोर्चे पर ही विद्रोही जी ने आखिरी सांस ली। कामरेड विद्रोही को लाल सलाम! आप हमेशा हमारी यादों और संघर्षों में रहेंगे। )