Thursday, August 29, 2013

भारत का जनतंत्र एक खतरनाक मोड़ पर खड़ा है: जितेंद्र कुमार

आरा में ‘सामंती-सांप्रदायिक-कारपोरेट फासीवाद विरोधी मार्च’

26 अगस्त को भोजपुर जिला मुख्यालय आरा में जसम, आइसा-इनौस और ऐपवा की ओर से ‘सामंती-सांप्रदायिक-कारपोरेट फासीवाद विरोधी मार्च’ निकाला गया। बलात्कार के आरोपी आसाराम बापू तथा अंधविश्वासविरोधी आंदोलन के कार्यकर्ता डा. नरेंद्र दाभोलकर के हत्यारों की गिरफ्तारी के नारों के साथ मार्च की शुरुआत हुई। बिहार में बढ़ रही बलात्कार की घटनाओं और दलित उत्पीड़न की घटनाओं के खिलाफ भी नारे लगे। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति और कारपोरेट फासीवाद की राजनीति को शिकस्त देने के नारे भी गूंजे। जिला समाहरणालय से शुरू हुआ मार्च आरा रेलवे स्टेशन में पहुंचकर एक सभा में तब्दील हो गया, जिसे संबोधित करते हुए जसम के राष्ट्रीय सहसचिव कवि जितेंद्र कुमार ने एक ओर आसाराम बापू के आश्रम में जादू टोना के नाम पर बच्चों की हत्या की जाती है और उनको कोई दंड नहीं मिलता, दूसरी ओर नरेंद्र दाभोलकर, जो अंधविश्वास और काला जादू आदि के खिलाफ लोगों को सचेत करते है, तो उनकी हत्या हो जाती है और उन्हें धमकी देने वाले हिंदुत्ववादी संगठनों और हत्यारों को पकड़ा तक नहीं जाता। महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान के लिए देश में इतने जबर्दस्त आंदोलन हो रहा है, इसके बावजूद आसाराम बापू जैसों के खिलाफ सरकारें कुछ नहीं करती। इससे जाहिर होता है कि भारत का जनतंत्र एक खतरनाक मोड़ पर खड़ा है।

आइसा के बिहार राज्य सचिव अजीत कुशवाहा ने कहा कि जिस बलात्कारी संत के खिलाफ सरकारें और भाजपा जैसी पार्टी खड़ी है, उनके कुकृत्य के खिलाफ आरोप लगाना बेहद हिम्मत का काम है और यह काम एक लड़की ने किया है, इसके लिए उसका सम्मान किया जाना चाहिए। बलात्कार की घटनाएं हों या भ्रष्टाचार की सच्चाई या सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की साजिशें, भाजपा-कांग्रेस और उनके सहयोगी दल इसमें पूरी तरह लिप्त हैं। गठबंधन टूटने के बाद अकेले बिहार में सोलह जगह दंगा भड़काने की कोशिशें हुई हैं। अजीत ने उत्तर प्रदेश में भाजपा-सपा की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति पर भी सवाल उठाया।

समकालीन जनमत के संपादक सुधीर सुमन ने कहा कि भारत की प्रगतिशील-जनवादी साहित्य की जो विरासत है, वह भी हमें प्रेरित कर रही है कि हम देश में अंधविश्वास और सांप्रदायिकता को संरक्षण और बढ़ावा देने वाली ताकतों का विरोध करें। देश के शासकवर्ग ने एक ओर जनता की जिंदगी के संकटों को बढ़ाकर उन्हें ढोंगी, धनलोलुप और मनोविकृति के शिकार बाबाओं की शरण में धकेल दिया है, वहीं दूसरी ओर इन बाबाओं को अपनी सांप्रदायिक राजनीति व काले धन का केंद्र भी बना रखा है, इसी कारण इनके खिलाफ कोई सख्त कार्रवाई नहीं होती। जब इस देश के किसान आत्महत्या करते हैं, तब यहां की सरकारें बाबाओं को आध्यात्मिक प्रचार के लिए धन देती हैं। महाराष्ट्र तो जैसे इस तरह की प्रवृतियों का गढ़ बना हुआ है, जहां अंधविश्वास विरोधी आंदोलन इसके खिलाफ खड़ा है। डा. दाभोलकर इस आंदोलन के कार्यकर्ता थे, जिन्होंने सूखे से ग्रस्त इलाके में आसाराम बापू द्वारा होली खेलने के लिए पानी के इस्तेमाल के खिलाफ सफल प्रतिवाद किया था। आसाराम जिस पर पहले भी जमीन लूट और बच्चों और भक्तों की हत्या के आरोप लगे हैं और ताजा मामले में उस पर बलात्कार का आरोप लगा है, उसके खिलाफ इस देश की पुलिस और सरकारें कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं कर रही हैं। दूसरी ओर डा. दाभोलकर के हत्यारे भी अब तक पुलिस की पकड़ से बाहर है। हद यह है कि डा. दाभोलकर की याद में आयोजित सभा में दलित उत्पीड़न और कारपोरेट लूट व भ्रष्टाचार के खिलाफ गीत गाने और नाटक करने वाले कबीर कला मंच के कलाकारों की प्रस्तुति के बाद आयोजक एफटीआईआई, पूणे के छात्रों पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के गुंडे हमला करते हैं और पुलिस उल्टे घायल छात्रों पर ही गैरकानूनी गतिविधि का आरोप मढ़ देती है।

सुधीर सुमन ने कहा कि संघ गिरोह के गुंडे जो कारपोरेट लूट के लिए जारी आपरेशन ग्रीन हंट का समर्थन करते हैं, उन्हें तो कांग्रेस-भाजपा दोनों की सरकारों ने देश की राजधानी से लेकर पूरे देश में उत्पात मचाने की छूट दे रखी है, लेकिन जो नौजवान-संस्कृतिकर्मी प्राकृतिक संसाधनों की लूट और शासकवर्ग के विनाशकारी विकास मॉडल, सर्वव्यापी भ्रष्टाचार और सांप्रदायिक-जातिवादी उत्पीड़न का विरोध कर रहे हैं, उन्हें जेलों में डाला जा रहा है। जेनयू के छात्र और संस्कृतिकर्मी हेम मिश्रा व आदिवासी युवक पांडु नरोटे व महेश तिर्की की गढ़चिरौली में गिरफ्तारी इसी का उदाहरण है। ये सारी घटनाएं भले ही अलग-अलग हों, पर इनके बीच गहरा संबंध है। देश की शासकवर्गीय पार्टियों में जैसे इसकी होड़ सी लगी है, कि कारपोरेट का हित साधने के लिए कौन तानाशाही की किस हद तक जा सकता है। इसलिए इस वक्त कारपोरेट फासिज्म के खिलाफ जनता के विक्षोभ और संघर्षों की एकजुटता बेहद जरूरी है।

कवि सुनील चौधरी ने बिहार के खास संदर्भ में कहा कि यहां कोई सुशासन नहीं है। मजदूरों का पलायन आज भी जारी है। बलात्कार की घटनाएं बिहार में भी लगातार बढ़ी हैं। हर गरीब को आवास के लिए 3 डिसमिल जमीन देने के सरकारी वादे को सरकार भूल गई है। मनरेगा के तहत सबसे कम काम बिहार में हुआ है। ऐसे में जो लोग जमीन के लिए आंदोलन कर रहे हैं, उन्हें यह सरकार जेल में डाल दे रही है। बिहार में भी विकास का कोई जनपक्षीय मॉडल नहीं है। गरीब मेहनतकश जनता का संशय वाजिब है कि विशेष राज्य का दर्जा अगर मिला, तो उसका उन्हें फायदा नहीं होगा। चूंकि जनता के सवालों का समाधान सरकार के पास नहीं है, इसीलिए भाजपा-जद-यू दोनों चाहते हैं कि राज्य में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो, ताकि जनता के बुनियादी सवालों से बचा जा सके।

जनकवि निर्मोही ने सभा के दौरान ‘कारपोरेट से कइले बा इयारी, ए भइया कर लड़े के तैयारी’ गीत को सुनाया। सभा का संचालन अजीत कुशवाहा ने किया। 

इस मौके पर जसम के राज्य अध्यक्ष वरिष्ठ आलोचक रामनिहाल गुंजन, इनौस के सत्यदेव, युवानीति के अरुण प्रसाद, राजीव रंजन, आइसा के जिला सचिव शिवप्रकाश रंजन, शमशाद, मनोज, अभय, का. रामकिशोर राय, का. हरेंद्र आदि के साथ अपने हक अधिकार के लिए आंदोलनरत गरीब-मेहनतकश महिलाएं भी मौजूद थीं।

Wednesday, August 21, 2013

आजाद हिन्दुस्तान के शहीदों में गिने जाएंगे डा. दाभोलकर (श्रद्धांजलि)


डा. दाभोलकर को जसम की श्रद्धांजलि 

नई दिल्ली : 21 अगस्त 2013

कल 20 अगस्त, मंगलवार के दिन पुणे में मार्निंग वाक पर निकले मशहूर अंधविश्वास-विरोधी, तर्कनिष्ठ और विवेकवादी आन्दोलनकर्ता डा. नरेन्द्र दाभोलकर की अज्ञात अपराधियों ने नृशंस ह्त्या कर दी. डा. दाभोलकर लम्बे समय से समाज में अंध-आस्था की तिजारत और राजनीति करनेवालों के निशाने पर रहे. डा. दाभोलकर की जिस दिन ह्त्या हुई , उसी दिन वे पर्यावरण की दृष्टि से हानिरहित गणेश प्रतिमाओं के आगामी त्योहारों के समय प्रयोग के लिए प्रेसवार्ता करनेवाले थे. दाभोलकर लम्बे समय से महाराष्ट्र विधानसभा में अंधविश्वास और काला-जादू विरोधी विधेयक को पास करके क़ानून बनवाने के लिए प्रयासरत थे, जिसका भारी विरोध कई तरह के साम्प्रदायिक संगठन कर रहे थे, हालांकि शिवसेना और भाजपा को छोड़कर सभी राजनीतिक दल इस विधेयक के पक्ष में थे. उनकी ह्त्या के बाद अचानक जागी पुलिस हाल के दिनों में उन्हें 'सनातन प्रभात' और 'हिन्दू जन जागृति समिति' जैसे संगठनों से मिल रही धमकियों के आरोपों की जांच कर रही है. उनकी ह्त्या काफी सुनियोजित थी क्योंकि हत्यारों को पता था कि पुणे में वे प्रायः सप्ताह के दो दिन यानी सोमवार और मंगलवार को ही रहते हैं .

डा. दाभोलकर (65) सतारा जिले में एक ऐसे परिवार में पैदा हुए थे जो समाजवादी आन्दोलन से जुड़ा हुआ था. पेशे से वे डाक्टर थे और लगभग 10 साल डाक्टरी पेशे में काम करने के बाद उन्होंने अपना जीवन सामाजिक चेतना निर्माण और परिवर्तन के लक्ष्य को समर्पित कर दिया. समाजवादी नेता बाबा आढव के साथ 'एक गाँव, एक कुंआ' आन्दोलन में उन्होंने 1983 से काम करना शुरू किया और 1989 में उन्होंने महाराष्ट्र अंध-श्रद्धा निर्मूलन समिति का निर्माण किया. दाभोलकर तांत्रिकों, बाबाओं, चमत्कार से रोग दूर करने का दावा करनेवाले धोखेबाजों और तमाम पिछड़ी हुई धर्मानुमोदित प्रथाओं के खिलाफ आन्दोलन को स्कूलों, कालेजों और गाँव-गाँव तक ले गए. पिछले 30 वर्षों से वे लगातार ऐसे तत्वों से जूझते तथा तर्क और विवेकशीलता की चेतना निर्मित करते हुए सक्रिय रहे. इस दरमियान उन्होंने 30 से अधिक किताबें लिखीं, मराठी साप्ताहिक 'साधना' का सम्पादन किया और सतारा नशा-मुक्ति केंद्र की स्थापना भी की. सन 2000 में उन्होंने अहमदनगर के शनि शिन्गनापुर मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश के लिए ज़बरदस्त आन्दोलन चलाया. उन्होंने निर्मला देवी और नरेन्द्र महाराज जैसे बेहद ताकतवर धर्मगुरुओं को खुली चुनौती दी. इस साल होली के ठीक पहले भयानक सूखे का सामना कर रहे महाराष्ट्र में आसाराम बापू द्वारा हजारों लीटर पेयजल से होली खेले जाने को डा. दाभोलकर ने चुनौती दी और अंततः सरकार को इस पर प्रतिबन्ध लगाना पडा. 

हमारे देश में पिछडापन और सामंती अवशेष तो अंधविश्वासों के लिए ज़िम्मेदार हैं ही, भ्रष्टाचार, सट्टे और दलाल पूंजी की मार्फ़त अमीर और ताकतवर बने मुट्ठी भर लोग अपनी चंचला पूंजी की हिफाजत की दुश्चिन्ता से घिर कर ढोंगियों और आपराधिक धर्मगुरुओं के संरक्षक बने हुए हैं . इनमें राजनेता, नौकरशाह और थैलीशाह बड़े पैमाने पर शामिल हैं जिनकी सहायता के बगैर अंधश्रद्धा का अरबों-खरबों का कारोबार एक दिन नहीं चल सकता. बौद्धिक- वर्ग का भी अच्छा- खासा हिस्सा न केवल संस्कारतः अंध-श्रद्धा की चपेट में है, बल्कि कुछ लोगों ने तो इसको पालने-पोसने में निहित स्वार्थ तक विकसित कर लिए हैं . दूसरी ओर, बड़े पैमाने पर गरीबी और बेरोज़गारी से बदहाल देश की जनता का एक बड़ा हिस्सा मानसिक राहत के लिए 'हारे को हरिनाम' की मनोदशा में ढोंगी धर्मगुरुओं, तांत्रिकों और चमत्कार से इलाज करनेवालों के चंगुल में फंसता रहता है. मीडिया बड़े पैमाने पर अंधविश्वास हर दिन परोसता है. जिस देश में आज भी अनेक स्थानों पर निर्दोष स्त्रियाँ डायन कह कर मार दी जाती हों, जहां नर-बलि तक के समाचार अखबारों की सुर्खियाँ बनते हों, जहां मनोचिकित्सा अभी भी बड़े पैमाने पर ओझा-सोखा के हवाले हो, वहां डा. दाभोलकर का काम कितना सुस्साध्य रहा होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है. सबसे बढकर अंध-आस्था का उपयोग राजनीति और तिजारत के लिए, जनता की चेतना को दिग्भ्रमित करने के लिए ताकि वह अपनी वंचना के कारणों को जान न सके, अपने वास्तविक हक़-हुकूक के लिए लड़ न सके, किया जाता है. ऐसे में डा. दाभोलकर पूंजी की सत्ता की आँखों में भी किरकिरी बने हुए थे. उन पर हमले पहले भी होते रहे, धमकियां पहले भी मिलती रहीं, उनकी प्रेस-वार्ताओं में पहले भी उपद्रव किया जाता रहा, लेकिन विनम्रता के साथ सादगी भरा जीवन जीते हुए वे अपने काम में अडिग बने रहे.

सन 2011 में केरल युक्ति संघम के अध्यक्ष यू. कलानाथन पर टी वी शो के दौरान तब हमला किया गया जब वे तिरुवअनंतपुरम के पद्मनाभ स्वामी मंदिर की अकूत धन संपदा के सार्थक उपयोग पर बहस कर रहे थे. इसी तरह सन 2012 में मुंबई के एक चर्च में जीसस की प्रतिमा की आँखों से आंसू निकलने को चमत्कार कहे जाने के खिलाफ जब विवेकवादी चिन्तक सनल एडामरुकु ने वैज्ञानिक कारण प्रस्तुत किए तो उन पर धार्मिक विद्वेष फैलाने का मुकदमा ठोंक दिया गया. और अब तो डा. दाभोलकर की ह्त्या ही कर दी गई है. जिन दक्षिणपंथी ताकतों ने यह घृणित कारनामा अंजाम दिया है, वे यह न भूलें कि भारत में विवेकवाद और तर्क-प्रमाणवाद की भी एक परम्परा है जो हजारों साल पुरानी है. लोकायत की हजारों साल पुरानी परम्परा को बदनाम और विरूप करने, उसके ग्रंथों को नष्ट कर डालने के बाद भी वह लोक- मनीषा में नए-नए ढंग से आकार ग्रहण करती रही. डा. नरेन्द्र दाभोलकर इसी महान परम्परा की अद्यतन कड़ी हैं. वे तर्क-प्रमाणवाद, विवेकवाद के जुझारू योद्धा के बतौर आज़ाद हिन्दुस्तान में मानसिक गुलामी के खिलाफ लड़ते हुए शहीद हुए.

जन संस्कृति मंच उनकी प्रेरणादाई स्मृति को तहे-दिल से सलाम करता है. 

( सुधीर सुमन, राष्ट्रीय सह-सचिव, जन संस्कृति मंच द्वारा जारी )

Sunday, August 4, 2013

वीरेन डंगवाल : नगण्यता की विनम्र गर्वीली ताकत बयान करने वाला कवि



हम सबके प्रिय कवि वीरेन डंगवाल इस 5 अगस्त को 66 साल के हो जाएंगे। इसी साल हृदयाघात को उन्होंने शिकस्त दी। उम्मीद है कि जीवन की उर्जा से भरपूर वीरेन दा कैंसर को भी शिकस्त देंगे.जिसके इलाज के लिए वे दिल्ली में हैं। उनके जल्दी सेहतमंद होने और लंबे जीवन की कामना के साथ उनकी कविताओं पर एक पुराने लेख का सम्पादित अंश यहाँ पेश है : सुधीर सुमन



किसने आखिर ऐसा समाज रच डाला है
जिसमें बस वही दमकता है जो काला है?

मुझे याद है कि जब वीरेन दा की कविता ‘हमारा समाज’ प्रकाशित हुई थी, तो सहज हमारी जुबान पर चढ़ गई और तब से अब तक कई बार हमने समाज में सफल और समृद्ध माने जाने वालों के समाजविरोधी चेहरों की शिनाख्त करते हुए इन पंक्तियों को दुहराया होगा। मुक्तिबोध जिस सफलता के बारे में कहते हैं कि वह चक्करदार जीनों पर मिलती है छल, छद्म, धन की, वह वीरेन जी के यहां आकर मानो इस अनुभवजन्य सवाल में बदल जाता है कि हमने ये कैसा समाज रच डाला है/ इसमें जो दमक रहा, शर्तिया काला है। हालांकि आजकल जिस प्रकार छिद्रान्वेषण की प्रवृत्ति हिंदी साहित्य जगत में बढ़ी है, उसे देखते हुए कई बार यह डर लगता है कि कोई यह न कह दे कि वीरेन दा को काले रंग से ही नफरत है? लेकिन तब उस कविता ‘पी.टी.ऊषा’ (काली तरुण हिरनी/ अपनी लम्बी चपल टाँगों पर/ उड़ती है/ मेरे गरीब देश की बेटी) को वे कहां रखेंगे, जो हमारी बेहद प्रिय कविता है और जिसे हम गरीबी, श्रम और रंग के आधार पर भेदभाव करने वाले अभिजात्यवर्गीय संस्कारों के खिलाफ एक जवाब की तरह इस्तेमाल करते रहे हैं?

‘हमारा समाज’ कविता में दरअसल कालापन कई रूपों में आता है-

‘मोटर सफेद वह काली है
वे गाल गुलाबी काले हैं
चिंताकुल चेहरा-बुद्धिमान
पोथे कानूनी काले हैं
आटे की थैली काली है
हर सांस विषैली काली है
छत्ता है काली बर्रों का
वह भव्य इमारत काली है।

कहने का मतलब है कि तकनीकि विकास, व्यवसाय, सौंदर्य, बौद्धिकता, कानून, संसद- सब पर काली शक्तियां हावी हैं और काली इच्छाओं की बिसात बिछाकर लोगों को घेर रही हैं। गौर से देखें तो जिन जनसामान्य, गरीब-दलित-पिछड़ों और आदिवासियों को आमतौर पर काले लोग के रूप में देखा जाता रहा है, उस दृष्टि का ही मानो यह कविता प्रतिवाद करती है, कि काले तो दरअसल खुद को सफल, उज्जवल और सभ्य मानने वाले लोग और काली तो उनके द्वारा रची गई व्यवस्था है, काला जादू तो दरअसल वे फेर रहे हैं। वही जादू है जिसने लोगों को अपनी व्यक्तिगत-पारिवारिक महत्वांकाक्षाओं तक केंद्रित कर दिया है और मनुष्य को गैर सामाजिक बना रहा है, वर्ना प्यार, भोजन-वस्त्र, सर पर छत, बीमार पड़ने पर थोड़ा ढब का इलाज, बेटे-बेटियों को ठिकाना, कुछ इज्जत-मान और कभी कभार कुछ जश्न किसे नहीं चाहिए। समाज जिस भयानक आत्मकेंद्रित अंधड़ में उड़ रहा है, वीरेन दा की कविता उस अंधड़ में उड़ने से इनकार ही नहीं करती, बल्कि पाठक को भी इनकार के लिए प्रेरित करती है- ‘बोलो तो कुछ करना भी है/ या काला शरबत पीते-पीते मरना है?’

वीरेन डंगवाल वैचारिक तौर पर प्रतिबद्ध कवि हैं, विचारधारा उनकी कविता में कहीं से अदृश्य नहीं है, लेकिन वह फैशन की तरह टांगे-फिरने और हमेशा प्रदर्शन करते रहने की चीज भी नहीं है, वह कविता में बड़ी सहजता से घुली हुई रहती है। अनुभवों की प्रौढ़ता और वैचारिक गहराई उनमें बहुत है, पर वैचारिक अनुभववाद का कोई बोझ वे पाठकों पर नहीं लादते, बल्कि कहने के नए नए तरीके अपनाते हुए एक युवोचित मुद्रा के साथ वे अनुभववाद के दबावों से खुद को मुक्त करते रहते हैं और पाठकों के अनुभव में शामिल होते हुए अचानक किसी नाजुक मोड़ पर उन्हें पकड़ लेते हैं और इस तरह सवालों से घेरते हैं कि वे लाजवाब हो जाते हैं। वे हमारे समकालीन समाज के खतरों को बड़ी ही सहजता से चिह्नित करने वाले कवि हैं। समाज जिस अमानुषिक रास्ते पर जा रहा है, उस पर वे ‘हड्डी खोपड़ी खतरा निशान’ लगाने की जद्दोजहद करते हैं। गहरे व्यंग्य और वक्रोक्ति वाली इस कविता ‘हड्डी खोपड़ी खतरा निशान’ में भद्र लोगों के यथास्थितिवाद पर वे तीखा हमला करते हैं-

‘अब दरअसल सारे खतरे खत्म हो चुके
प्यार की तरह
दरअसल चारों तरफ चैन ही चैन है
..........................................
डोमा जी उस्ताद सुधर चुके
और विधानसभा भी कभी की वातानुकूलित की जा चुकी
मान लिया भद्र लोगों, कोई खतरा नहीं बाकी बचा।’

इस तरह वे अंततः खतरे की ही निशानदेही करते हैं, कि किस तरह पूंजी और अपराध के बल पर मौजूदा सभ्यता प्रेम को भी नष्ट कर रही है और खतरों के अहसास को भी। कवि यह भी कहना चाहता है कि प्रेम का अभाव भी खतरा महसूस करने की क्षमता का नाश करता है। इस तरह अपने आसपास हड्डी खोपड़ी खतरा निशान कम नजर आने के तथ्य से शुरू होकर कविता अंततः उस हकीकत तक ले जाती है, जहां मनुष्य को बर्बर और संवेदनहीन बनाने देने की निरंतर प्रक्रिया चल रही है, जहां जितनी सुविधाएं मिलती हैं, उतना ही खतरे का बोध नष्ट होता है। ‘मार्च की एक शाम में आईआईटी कानपुर’ में भी वे इसी खतरनाक प्रक्रिया को दिखाते हैं कि किस तरह उस्ताद हत्यारे गर्वीले गरदनों वाले किशोरों को अपना सहयोगी बना डालते हैं, किशोरों की मेधा अपने समाज के लोगों के दुख और मुश्किलों को हल करने में नहीं लगती, बल्कि बिल गेट्स जैसों की स्वार्थसिद्धि में जाया होती है। इसी विडंबना पर उन्होंने लिखा है- कितने अभागे हैं वे पुल/ जो सिर्फ गलियारें हैं, जिसके नीचे से गुजरती नहीं/ कोई नदी?

वीरेन डंगवाल की कविता उस हर शख्स से सवाल करती है, जिसके बल पर मनुष्य विरोधी व्यवस्था चल रही है, चाहे वे आईआईटी कानपुर से निकलने वाली प्रतिभाएं हों या राम सिंह जैसा सैनिक।
जिस रोज भारत को आजादी मिलने की बात की जाती है, उससे 10 दिन पहले वीरेन डंगवाल का जन्म हुआ। 5 अगस्त 2013 को जब वे 66 साल को हो रहे हैं, तो इस देश की उस आजादी के भी 66 साल होने वाले हैं, जिसकी व्यवस्था पहले से भी ज्यादा राम सिंह को बर्बर बनाते हुए अपने को बचाने की कोशिश कर रही है। ऐसे में ‘राम सिंह’ कविता के सवाल पहले से भी ज्यादा प्रासंगिक लगने लगते हैं-

तुम किसकी चौकसी करते हो रामसिंह ?
तुम बन्दूक के घोड़े पर रखी किसकी ऊँगली हो ?
किसका उठा हुआ हाथ ?
किसके हाथों में पहना हुआ काले चमड़े का नफीस दस्ताना?
जिंदा चीज में उतरती हुई किसके चाकू की धार
कौन हैं वे, कौन
जो हर समय आदमी का एक नया इलाज ढूंढते रहते हैं?
जो रोज रक्तपात करते हैं और मृतकों के लिए शोकगीत गाते हैं
जो कपड़ों से प्यार करते हैं और आदमी से डरते हैं
वो माहिर लोग हैं रामसिंह
वे हत्या को भी कला में बदल देते हैं।

इन खतरनाक विडंबनाओं और गहरी चिंता वाली कविताओं के साथ-साथ वीरेन डंगवाल की कविताओं में जीवन के छोटे-छोटे सुखकर पलों, दृश्यों और अहसासों को भी भीतर भर लेने की भरपूर कोशिश है, पर इस कोशिश में भी फिक्र से नाता कहीं नहीं टूटता। चाहे ‘वसंत-दर्शन’ हो या ‘रात की रानी’, ‘जहीरूद्दीन डागर का धु्रपद सुनकर’ हो या ‘पोदीने की बहक’- इनमें सुखकर अनुभूतियां भी किसी बड़ी फिक्र से जोड़ देती है।

आम तौर पर वीरेन जी की जो कविताएं ‘हल्के-फुल्के’ अंदाज में शुरू होती हैं, उनका भी अंत कभी हल्केपन के साथ नहीं होता। साहित्य में आजकल जो हर गंभीर मुद्दे को विमर्श के नाम पर हल्का और सतही बना देने या कभी कभी मजाक में तब्दील कर देने की प्रवृत्ति बढ़ी है, वीरेन डंगवाल की कविताएं ठीक उसकी विपरीत दिशा में चलती हैं। यहां ‘पोदीना’, ‘समोसा’, ‘पोस्टकार्ड’, ‘चूना’, ‘तम्बाकू’ या ‘जलेबी’ जैसी चीजों का कविता का विषय बनना किसी चमत्कार प्रदर्शन की मंशा से नहीं हुआ है, बल्कि ये चीजें साम्राज्यवादी बाजाद के प्रतिकार स्वरूप भी कविता में दाखिल हुई हैं। ये अभिजात्यवर्गीय दुनिया के नकार और सामान्य लोगों के जीवन से लगाव का भी पता देती हैं। इतना ही नहीं, जलेबी अगर धनुर्धारी नायकों और गांधी जी से भी ताकतवर दिखती है या पोदीने की बात हिंदुत्ववादी नहीं समझते, जबकि असफल निराश लोहियावादी को पोदीने की चटनी से तृप्ति मिलती है, तो इसकी साफ वजह यह है कि वैचारिक तौर पर कवि इन विचारधाराओं को अप्रासंगिक मानता है।

वीरेन डंगवाल की कविताओं में सामान्य और नगण्य-सी लगने वाली चीजों के प्रति जो लगाव है, वह एक राजनैतिक समझ की ही देन है। सोवियत ध्वंस के बाद जो लोग चरम निराशा और हताशा मे डूबकर अपनी आस्थाएं बदलने लगे थे, उनकी कतार में वीरेन कभी शामिल नहीं हुए। सोवियत संघ की स्मृति में रचित ‘सितारों के बारे में’ कविता में उनका साफ संकेत है कि अभी दिशा तो बता ही सकती है उस व्यवस्था की स्मृति।

अपने समय की जटिलताओं से वीरेन डंगवाल की कविता दूर नहीं भागती, बल्कि व्यवस्था के जाल में फंसने वालों से बारंबार सवाल करती है-
‘‘जरा सोचो, अक्सर वहीं क्यों जलाई गई बत्तियां खूब
जहां उनकी सबसे कम जरूरत

जिन पर चलते सबसे कम मनुष्य
आखिर क्यों वही सड़कें बनी चौड़ी -चकली?
खुशबुएं बनाने का उद्योग
आखिर कैसे बन गया इतना भीमकाय
पसीना जबकि हो गया एक फटा उपेक्षित जूता
हमारे इस समय में
जबकि सबसे साबुत सच तब भी वही था।
इन नौजवानों से कैसे छीन लिया गया उनका धर्म
और क्यों भर जाने दिया उन्होंने अपने दिमाग में
सड़ा हुआ जटा-जूट-घास-पात?
कहां से चले आए ये गमले सुसज्जित कमरों के भीतर तक
प्रकृति की छटा छिटकाते
जबकि काटे जा रहे थे जंगल के जंगल
आदिवासियों को बेदखल करते हुए?
आखिर लपक क्यों लिया हमने ऐसी सभ्यता को
लालची मुफ्तखोरों की तरह? अनायास?
(तारंता बाबू से कुछ सवाल)

हमारे भीतर मौजूद जनतांत्रिक संवेदनशीलता को खत्म करने के लिए शासकवर्ग कभी विकास और समृद्धि की आत्मकेंद्रित महत्वाकांक्षाओं का चारा फंेकता है, तो कभी पंरपरा के जाल में फांसने की कोशिश करता है। जिस सांप्रदायिक पुनरुत्थान की कोशिशें विगत दो-ढाई दशक से जोरों से इस देश में जारी हैं, वीरेन डंगवाल की ‘पंरपरा’ उसका विरोध करती है। उन्होंने यह भी दिखाया है कि जयघोष करती उन्मत्त भीड़ को देखकर साजिशकर्ता डर भी जाते हैं। संकेत यह है कि जो जनता उनके सम्मोहन में है, उसके जीवन की परिस्थितियां अंततः उनके विरुद्ध ही ले जाएगी। इसीलिए ईश्वरीय मर्जी से दुनिया के चलने और बदलने की समझ तथा ईश्वर के करुणानिधान स्वरूप में आस्था रखने वाली चेतना को सहलाते हुए बालसुलभ अंदाज में वीरेन डंगवाल अपने तर्कों को रखते हैं और ईश्वर के कारनामों को बखानते हुए उसे गंभीर सवालों के घेरे में ले लेते हैं- नहीं निकली नदी कोई पिछले चार-पांच सौ साल से/ एकाध ज्वालामुखी जरूर फूटते दिखाई दे जाते हैं/ कभी कभार/ बाढ़ें तो आईं खैर भरपूर, काफी भूकंप, तूफान/ खून से हत्याकांड अलबत्ता हुए खूब.... प्रार्थनागृह जरूर उठाए गए एक से एक आलीशान/ मगर भीतर चिने हुए रक्त के गारे से/ वे खोखले आत्माहीन शिखर-गुंबद-मीनार/ उंगली से छूत ही जिन्हें रिस आता है खून!/ आखिर यह किनके हाथों सौंप दिया है ईश्वर/ तुमने अपना इतना बड़ा कारोबार?’ कहना न होगा कि यह कविता ईश्वर के प्रति अविश्वास ही पैदा करती है और इस निष्कर्ष तक पहुंचती है कि हत्यारों की व्यवस्था को किसी ईश्वरीय आस्था के जरिए नहीं बदला जा सकता।

‘रात-गाड़ी’ में वीरेन दा विस्तार से मौजूदा मनुष्य विरोधी व्यवस्था का बेचैन कर देने वाला चित्रण करते हैं- ‘प्यास लगी होने पर एक ग्लास शीतल जल भी/ प्यार सहित पाना आसान नहीं/ बेगाने हुए स्वजन/ कोमलता अगर कहीं दिख गई आंखों में, चेहरे पर/ पीछे लग जाते हैं कई-कई गिद्ध और स्यार...... माया ने धरे कोटि रूप/ अपना ही मुल्क हुआ जाता परदेश।’

‘टेलीविजन
अखबार भाषा की खुजाती हुई बड़ी आंत
विश्वविद्यालय बेरोजगारों के बीमार कारखाना
गुंडों के मेले राजधानियां
कलावा बांधे गद्गद खल विदूषक
सोने के मुकुट पहनते उतरवा रहे हैं फोटो
प्राथमिक शाला के प्रांगण में
नाच रहा है विभोर विश्वबैंक का कार्याधिकारी
बावर्दी बेवर्दी हत्यारे
रौंद रहे गांव-गांव, नगर-नगर’
लेकिन इस यातनादायक यथार्थ को महसूस कर वीरेन डंगवाल की कविता निराशा या पलायन की दिशा नहीं अपनाती। उनकी कविता दो टूक कहती है-
देश बिराना हुआ मगर इसमें ही रहना है
कहीं ना छोड़ के जाना है इसे वापस भी पाना है (गप्प सबद)।
वापस पाने का यह संकल्प यूं ही हवा में नहीं है, बल्कि उसका मजबूत वैचारिक आधार और काव्यगत सरोकार भी है। कवि को उनकी परिवर्तनकारी ताकत में यकीन है जो बेहद सामान्य और नगण्य समझे जाते हैं। सामान्य जन के प्रति उद्धारक भाव से भरे कवियों से भिन्न हैं वीरेन डंगवाल। वे तो उनके प्रति कृतज्ञ हैं। वे लिखते हैं-
याद रखूंगा मैं पूरे संसार को ढोने वाली
नगण्यता की विनम्र गर्वीली ताकत
जिसे अभी सही-सही अभिव्यक्त होना है’
(माथुर साहब को नमस्कार)।

‘घनीभूत और सुसंगठित होनी है उनकी वेदना अभी’
(रात-गाड़ी)