Wednesday, July 23, 2014

भोजपुर स्कूल का पहला कथाकार मधुकर सिंह : रविभूषण


लगभग एक वर्ष पहले हिंदी कथाकार मधुकर सिंह (2 जनवरी, 1934-15 जुलाई, 2014) के सम्मान में आरा में संपन्न एक राष्ट्रीय समारोह में पहली बार मैंने हिंदी कहानी के भोजपुर स्कूल की बात कही थी. हिंदी कहानी के इतिहास में कुछ लोगों ने प्रेमचंद और प्रसाद स्कूल की बात कही है, जिसमें कथाकार प्रमुख है, न कि स्थान, युग, प्रवृत्ति आदि. भोजपुर स्कूल में एक पूरा भौगोलिक क्षेत्र अपनी खूबियों-खराबियों के साथ प्रस्तुत होता है. शिवपूजन सहाय और राजा राधिकारमण सिंह भोजपुर जनपद के थे, लेकिन उनकी कहानियों को भोजपुर स्कूल के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता. एक विशेष जनपद हिंदी के कई कवियों में, जिनमें नागाजरुन, केदार और त्रिलोचन प्रमुख हैं, धड़कता-गूंजता दिखायी देता है, पर कहानियों में कम. रेणु के यहां पूर्णिया है और कई कहानीकारों के यहां भी उनका जनपद है, पर एक जनपद में कहानीकारों का जमघट हो, यह केवल भोजपुर में ही हुआ.

जैसे लमही की पहचान प्रेमचंद से बनी, उसी प्रकार धरहरा की मधुकर सिंह से. कहानी-संसार में मधुकर का आगमन ‘नयी कहानी’ दौर के बाद हुआ. साठोत्तरी कहानीकारों में वे शामिल थे. यद्यपि इस समय के प्रमुख कहानीकारों ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह, दूधनाथ सिंह और रवींद्र कालिया की तरह न वे प्रथम पंक्ति में रहे और न आलोचकों के बीच. मधुकर का बल कलात्मकता पर नहीं वास्तविकता पर था. नामवर ने कहानी-संबंधी आलोचना में ‘यथार्थ’ और ‘यथार्थवाद’को ‘वास्तविकता’ का प्रयोग किया है. अरुण प्रकाश से एक लंबी बातचीत में यथार्थवाद को ‘पराई शब्दावली’ कहा है- ‘जान-बूझ कर मैंने ‘वास्तविकता’ शब्द का प्रयोग किया कि इसमें गुंजाइश है कि हम यथार्थवाद वाले दुष्चक्र से निकल कर अपने कथा-साहित्य पर बात कर सकें.’ स्वतंत्र भारत में घटित तिव्र परिवर्तनों की पहचान हम जिन कहानियों से कर सकते हैं, उनमें मधुकर की कहानियां भी हैं. शिव प्रसाद सिंह, मरकडेय और रेणु के गांवों से मधुकर की कहानियों के गांव भिन्न हैं. गांव बदल रहे थे. नेहरू-युग से मोहभंग के बाद साहित्यिक परिदृश्य ही नहीं, राजनीतिक परिदृश्य भी बदल गया था. राजनीति नयी करवट ले रही थी. 1967 में कई राज्यों में संविद सरकार का गठन हुआ और नक्सलबाड़ी आंदोलन दूर तक फैलने लगा था. यह किसान आंदोलन था और कहानियों में किसान नये तेवर के साथ उपस्थित हो रहे थे. 1964 के बाद 1967 में भी कम्युनिस्ट पार्टी विभाजित हुई. एक नयी चेतना का, किसान-चेतना का जन्म हुआ. कल्याण मुखर्जी की पुस्तक ‘भोजपुर में नक्सलबाड़ी आंदोलन’ से उस समय के भोजपुर को समझा जा सकता है. क्रांतिकारी गीत हजारों लोगों के साथ गाये जाने लगे थे. ‘गुलमिया अब हम नाहीं बजइबो, अजदिया हमरा के भावे ला.’

भोजपुर के कहानीकार आंदोलन में उतरे. उनकी कहानियां पहले की कहानियों से भिन्न थीं. स्वतंत्र भारत में पहली बार क्रांतिकारी राजनीति के साथ क्रांतिकारी या संघर्षशील कहानियां खड़ी हुईं. यह हिंदी कहानी का एक सर्वथा नया दौर था. मधुकर सिंह इसके अगुआ कहानीकार थे. वे केवल लेखन में नहीं, आंदोलन के अनेक मोरचों पर सक्रिय रहे. उनकी कहानियों के पात्र दलित, वंचित, पीड़ित, शोषित, तिरस्कृत, अपमानित थे, जिनकी मुट्ठियां तनी हुई थीं. भूमिहीनों, पिछड़ों, खेतिहर मजदूरों के साथ केवल कहानियों में ही नहीं, आंदोलनों में भी मधुकर डट कर खड़े रहे. वे अकेले नहीं थे. उनके साथ भोजपुर के तमाम कथाकार थे. उन्होंने ‘युवानीति’ जैसी रंग-संस्था के निर्माण में बड़ी भूमिका निभायी थी. कहानी, उपन्यास, नाटक, गीत, संगोष्ठियों से आरा का साहित्य-जगत उन दिनों चमकता था. क्या हम हिंदी प्रदेश के किसी भी स्थान बनारस, इलाहाबाद, दिल्ली आदि को भोजपुर के समकक्ष रख सकते हैं? नामवर की बात छोड़ दें, पटना के गोपाल राय क्या इन्हें देख रहे थे? ‘हिंदी उपन्यास का इतिहास’(2003) में मधुकर सिंह का नामोल्लेख तक नहीं है. ‘हिंदी कहानी का इतिहास भाग-2’ (2011) में इतिहासकार ‘अथक प्रयास के बावजूद मधुकर सिंह की कहानियों के बारे में अपेक्षित सामग्री संकलित नहीं कर सके ’ और ‘उनसे संपर्क स्थापित करने में असफल रहे.’ सुरेंद्र चौधरी और मधुरेश ने संक्षेप में ही सही, मधुकर की कहानियों पर विचार किया.

सिपाही बाप का यह कथाकार बेटा, लकवाग्रस्त व्यवस्था को अपनी कहानियों में चुनौती देता है. क्या विडंबना है कि वे स्वयं पक्षाघात के शिकार हुए. स्वतंत्र भारत में सरकारी योजनाओं का लाभ संपन्न तबके को मिला. सामंत और शक्तिशाली हुए. सामंत, जमींदार, ठेकेदार, माफिया, अफसर, पुलिस, व्यवसायी, उद्योगपति, नेता, मंत्री-सब एक साथ हो गये. मधुकर ने अपनी कहानियों से व्यवस्था को चुनौती दी. ऐसी कहानियों से कलात्मकता की अपेक्षा अनुचित है. वे स्वयं एक सामान्य किसान थे. स्कूल टीचर. पुलिस, सरकार का जनविरोधी चरित्र उनकी कहानियों में है. उनकी कहानियों से एक प्रश्न बार-बार गूंजता है- आजादी किसे मिली? स्वाभाविक था कहानी की अंतर्वस्तु का बदलना. एक नये कथानक का जन्म. इस दौर की उपेक्षा किसान आंदोलन और संघर्षशील पात्रों की उपेक्षा है. प्रेमचंद के बाद खेतों में हल चलानेवालों, भूमिहीन मजदूरों के साथ कलम चलानेवाले कितने कहानीकार हैं? कहां के हैं? हरिजन सेवक, पहला पाठ, सत्ताधारी, अगनुकापड़, लहू पुकारे आदमी, कवि भुनेसर मास्टर सहित कई कहानियों में उनके गहरे सरोकार-संघर्ष देखे जा सकते हैं. लगभग सौ कहानियों और कई उपन्यासों में उनकी चिंताओं की पहचान की जा सकती है.

मधुकर कमलेश्वर के समानांतर आंदोलन से जुड़े. कमलेश्वर पर एक किताब संपादित की. उनका अनुभव संसार व्यापक और समृद्ध था. वे एक साथ प्रगतिशील जनवादी और क्रांतिकारी कथाकार थे. सामाजिक संरचना को बदलने को बेचैन मधुकर ने कहानी की संरचना पर अधिक ध्यान नहीं दिया. इस सामाजिक संरचना को बदलने के लिए प्रेमचंद अपनी रचनाओं में सदैव तत्पर, सक्रिय रहे. मधुकर के यहां भटकाव, विचलन भी है. भीष्म साहनी और अमरकांत जैसे कहानीकारों में जो स्पष्ट वर्ग-चेतना थी, जब उधर आलोचकों ने ध्यान नहीं दिया, तो मधुकर की वर्गीय चेतना को वे कैसे स्वीकार करते? वे जितने प्रिय आरा में थे, उतने बिहार में नहीं, जितने बिहार में उतने दिल्ली में नहीं. उनकी ‘दुश्मन’ कहानी प्रेमचंद के बाद इस विषय पर गंभीरता से लिखी गयी कहानी है. भोजपुर स्कूल को आलोचक स्वीकार करें या नहीं, पर यह कहानीकार ‘लोकल’ होने के बाद ही ‘नेशनल’ हुआ.

Prabhat Khabar Jul 21 2014 से साभार

Friday, July 18, 2014

मधुकर होने का मतलब : प्रेम भारद्वाज

जब मधुकर सिंह ने लिखना शुरू किया तब वह नेहरू युग से मोहभंग के बाद आक्रोश, नाराजगी और जनांदोलनों का दौर था. वह दिल्ली माने सत्ता, माने सुविधा, माने तिकड़म से इसलिए दूर रहे, क्योंकि उन्होंने जो रास्ता चुना वह दिल्ली नहीं पहुंचता था.
एदुआदरे गालीआनो ने लिखा है, ‘इस दुनिया में वर्गीकरण की एक अजीब सनक है. और इस वजह हम सबके साथ कीड़ों की तरह व्यवहार होता है.’ मधुकर सिंह के 15 जुलाई को अचानक चले जाने पर अगर ये पंक्तियां सहसा जेहन में कौंधी तो जरूर इसका कोई मतलब है. मतलब दोहरा है, एक उनके लिए, जिनके बारे में मधुकर सिंह जिंदगी की आखिरी सांस तक लिखते रहे. दूसरे खुद लेखक के मुताल्लिक, जिसे कीड़ा नहीं तो ‘कुजात’ जरूर समझा गया. यह एक मधुकर सिंह नहीं, हाशिये का दर्द और उपेक्षा का दंश ङोलनेवाले हिंदी के बहुत सारे ‘मधुकरों’ की तल्ख हकीकत है. हमारे समय में मधुकर सिंह होने का अर्थ क्या है, यह कथाकार मधुकर सिंह के संघर्ष और उनकी व्यथा-कथा की कुछ झलकियों से जाना-समझा जा सकता है.
अंत के पहले तक अंत नहीं मानने की जिद ही किसी लेखक को मधुकर सिंह बनाती है. कायदे से मुङो लिखना चाहिए कि मधुकर सिंह हिंदी कथा साहित्य के महान लेखक थे. उनके निधन से साहित्य के एक युग का अंत हो गया. एक अपूरणीय क्षति हुई है.
लेकिन, मैं ऐसा न लिख कर सिर्फ वहीं बातें करूंगा जो हिंदी समाज में मधुकर सिंह के बनने, होने और मिट जाने की वजहें रही हैं और जिसे हमने भीष्मीय-अश्वत्थामीय आभिशप्तता के रूप में स्वीकार कर लिया है. हमने कबूल लिया है कि जो दिल्ली से दूर रहेगा, वह साहित्य की प्रारंभिक नागरिकता से भी दूर होगा. जो किसी महंत का शिष्यत्व नहीं स्वीकारेगा, वह हाशिये पर ही रहेगा. जो हिंदी में प्रचलित कलावाद की तलवारें नहीं चमकायेगा, उसके जीवन में अंधकार बना रहेगा.
मधुकर सिंह ने अपने एक आत्मकथात्मक लेख में कहा, ‘पुलिसमैन पिता मुङो दारोगा बनाना चाहते थे, लेकिन मैं बन गया लेखक. उन्होंने बचपन में ही मेरी शादी कर दी. जब मैं मैट्रिक में पढ़ता था, तभी बाप भी बन गया. तभी से दो पीढ़ी के बापों का संघर्ष जारी रहा. मेरी ‘तक्षक’ कहानी इसी तनाव की गाथा है. सुराजियों को बर्फ की सिल्ली पर भी वंदे मातरम गाते हुए सुनता था. पुलिस और सरकार के खिलाफ मैंने बराबर लिखा.’ असल में उन्होंने बहुत पहले ही समझ लिया था कि उन्हें करना क्या है. जिस पुलिसिया जुल्म के खिलाफ उनकी कहानियां चीत्कार करती हैं, उस पुलिस व्यवस्था का हिस्सा वह कैसे बन सकते थे. संघर्ष उनकी धमनियों में लहू बन कर जिंदगी की आखिरी सांस तक दौड़ता रहा. संघर्ष उनके जीवन में भी रहा और लेखन में भी.
2 जनवरी, 1934 को बंगाल प्रांत के मिदनापुर में जन्मे मधुकर सिंह दस साल की अवस्था में भोजपुर जिले के धरहरा गांव आ गये. शोषण, विषमता और संघर्ष से मधुकर सिंह का गहरा रिश्ता रहा. बचपन में ही उन्होंने अंगरेजों के विरुद्ध सुराजियों को आजादी के लिए संघर्ष करते देखा. जवान हुए तो आजाद देश में गरीबों-वंचितों, भूमिहीनों, किसानों, मजदूरों के शोषण चक्र में बदलाव नहीं आया. आजादी के चमकते सूरज के उगने के बावजूद जुल्म का स्याह अंधेरा बरकरार रहा. मधुकर सिंह जानते थे कि अंधेरे को दूर करने का एक ही रास्ता है- रोशनी. वे बेजुबानों की जुबान बन कर रचनाओं के जरिये चीखे, तो उन पर तरह-तरह के आरोप लगे. यहां तक कि उन्हें नक्सली लेखक भी कहा गया.
साठ के दशक में जब मधुकर सिंह ने लिखना शुरू किया, तब वह नेहरू युग से मोहभंग के बाद आक्रोश, नाराजगी और जनांदोलनों का दौर था. वह दिल्ली माने सत्ता, माने सुविधा, माने तिकड़म से इसलिए दूर रहे क्योंकि उन्होंने जो रास्ता चुना वह दिल्ली नहीं पहुंचता था. उन्होंने दलितों, पिछड़ों के संघर्ष और उनकी जिजीविषा को अपनी रचनाओं का केंद्रीय विषय बनाया. अगर भोजपुर क्षेत्र के किसानों की व्यथा-कथा, वहां के समाज, राजनीतिक संघर्ष को जानना हो तो मधुकर सिंह के कथा साहित्य में उसे ढूंढ़ा जा सकता है. वह साधारण आदमी थे.
उनकी छोटी जरूरतें थीं, मामूली इच्छाएं. सपना भी खुद के लिए नहीं, उन गरीब किसानों, मजदूरों के लिए देखा जो उनकी कहानियों के पात्र थे. सोवियत लैंड जैसा पुरस्कार जरूर लिया, पर पुरस्कार की राजनीति से दूर रहे. वह सहज, सरल और साधरण थे, जो शायद उनका अपराध बन गया और सजा के तौर पर उन्हें वह सम्मान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे.
अंत में यान ओत्शानेक की पंक्तियां याद आ रही हैं, ‘कुछ लोगों को अक्सर याद किया जाता है, कुछ हैं जिन्हें हमेशा के लिए भुला दिया जाता है. कुछ ऐसे भी हैं जिनका जिक्र कोई नहीं करता. वे बिना शब्दों के जीवित रहते हैं, मुंह के पीछे, आंखों के पीछे वे पुराने घरों में अविरल गिरते प्रवाहमान इतिहास का आंगन होते हैं.’ मधुकर सिंह उन लोगों में हैं, जिनके रचे शब्द उनकी हमेशा याद दिलाते रहेंगे. खास कर तब जब किसी गरीब किसान की आंखों में आंसू होंगे और वह अपना दर्द बयान करने में गूंगा साबित कर दिया जायेगा.
By Prabhat Khabar | Publish Date: Jul 17 2014 6:02AM | 

Wednesday, July 16, 2014

कथाकार मधुकर सिंह को जसम की श्रद्धांजलि




प्रगतिशील जनवादी धारा के मशहूर कथाकार मधुकर सिंह आज 15 जुलाई को अपराह्न पौने चार बजे हमारे बीच नहीं रहे। आरा जिले के धरहरा गाँव स्थित अपने निवासस्थान पर उन्होंने अंतिम साँसें लीें। विगत पांच-छह वर्षों से मधुकर सिंह अस्वस्थ थे, उन पर पैरालाइसिस का आघात हुआ था। लेकिन अस्वस्थता की स्थिति में भी उन्होंने आखिरी सांस तक लेखन कार्य जारी रखा। सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक बदलाव के लिए संघर्षरत लोगों के लिए वे हमेशा प्रेरणास्रोत रहेंगे। 

मधुकर सिंह फणीश्वरनाथ रेणु के बाद हिंदी के उन गिने चुने साहित्यकारों में से थे, जिन्होंने आजीवन न केवल ग्रामीण समाज को केंद्र बनाकर लिखा, बल्कि वहां चल रहे राजनीतिक-सामाजिक बदलाव के संघर्षों को भी शिद्दत के साथ दर्ज किया। उन्होंने भोजपुर के क्रांतिकारी किसान आंदोलन को स्वाधीनता आंदोलन की निरंतरता में देखा और अपनी रचनाओं में इसे चिह्नित किया कि जब 1947 के बाद भी सामाजिक विषमता और उत्पीड़न खत्म नहीं हुआ और शासकवर्ग का दमनकारी चरित्र नहीं बदला, तो फिर से आजादी की एक नई लड़ाई भोजपुर में शुरू हुई। नक्सलबाड़ी विद्रोह ने उसे आवेग प्रदान किया। मधुकर सिंह के साहित्य का बहुलांश भोजपुर के मेहनतकश किसानों, खेत मजदूरों, भूमिहीनों, मेहनतकश औरतों और गरीब, दलित-वंचितों के क्रांतिकारी आंदोलन की आंच से रचा गया। सामंती-वर्णवादी-पितृसत्तात्मक व्यवस्था से मुक्ति के लिहाज से मधुुकर सिंह की रचनाएं बेहद महत्व रखती हैं। स्त्री की मुक्ति के सवाल को मधुकर सिंह ने दलित मुक्ति से अभिन्न रूप से जोड़कर देखा। दलितों, स्त्रियों, अल्पसंख्यकों की सामाजिक मुक्ति का संघर्ष इनके कथा साहित्य में जमीन के आंदोलन से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ रहा है। सामंती-पूंजीवादी व्यवस्था के सबसे निचले स्तर पर मौजूद मेहनतकशों की सामाजिक-आर्थिक मुक्ति वर्ग-समन्वय के किसी रास्ते से संभव नहीं है, मधुकर सिंह की कहानियां बार-बार इस समझ को सामने लाती हैं।


2 जनवरी 1934 को बंगाल प्रांत के मिदनापुर में जन्मे मधुकर सिंह ने जीवन के आठ दशक का ज्यादातर समय बिहार के भोजपुर जिला मुख्यालय आरा से सटे अपने गांव धरहरा में गुजारा। सोनभद्र की राधा, सबसे बड़ा छल, सीताराम नमस्कार, जंगली सुअर, मनबोध बाबू, उत्तरगाथा, बदनाम, बेमतलब जिंदगियां, अगिन देवी, धर्मपुर की बहू, अर्जुन जिंदा है, सहदेव राम का इस्तीफा, मेरे गांव के लोग, कथा कहो कुंती माई, समकाल, बाजत अनहद ढोल, बेनीमाधो तिवारी की पतोह, जगदीश कभी नहीं मरते समेत उन्नीस उपन्यास और पूरा सन्नाटा, भाई का जख्म, अगनु कापड़, पहला पाठ, असाढ़ का पहला दिन, हरिजन सेवक, पहली मुक्ति, माइकल जैक्सन की टोपी, पाठशाला समेत उनके ग्यारह कहानी संग्रह और प्रतिनिधि कहानियों के कुछ संग्रह भी प्रकाशित हैं। लाखो, सुबह के लिए, बाबू जी का पासबुक, कुतुब बाजार आदि उनके चर्चित नाटक हैं। ‘रुक जा बदरा’ नामक उनका एक गीत संग्रह भी प्रकाशित है। उनकी कई कहानियों के नाट्य मंचन भी हुए हैं। वे जन नाट्य संस्था युवानीति के संस्थापकों में से थे। मधुकर सिंह ने कुछ कहानी संकलनों का संपादन भी किया। बच्चों के लिए भी दर्जनों उपन्यास और कहानियां उन्होंने लिखी। उनकी रचनाओं के तमिल, मलयालम, कन्नड़, तेलुगु, मराठी, पंजाबी, उडि़या, बांग्ला, चीनी, जापानी, रूसी और अंग्रेजी में अनुवाद हो चुके हैं। उन्होंने ‘इस बार’ पत्रिका के अतिरिक्त कुछ पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी किया। हमेशा प्रगतिशील-जनवादी साहित्यिक-सांस्कृतिक आंदोलन से जुड़े रहे कथाकार मधुकर सिंह जन संस्कृति मंच की स्थापना के समय से ही इसके साथ थे। उन्होंने जसम के राष्ट्रीय परिषद और कार्यकारिणी के सदस्य बतौर अपनी जिम्मेवारियां निभाई और लंबे समय तक राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रहे। सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, फणीश्वरनाथ रेण पुरस्कार, कर्पूरी ठाकुर पुरस्कार समेत उन्हें कई सम्मान और पुरस्कार मिले। पिछले ही साल आरा में उन्हें जन संस्कृति सम्मान से सम्मानित किया गया था और उनके साहित्यिक योगदान का मूल्यांकन किया गया था। 
जन संस्कृति मंच जनता के संघर्षों के हमसफर, साथी और अपने अत्यंत प्रिय लेखक मधुकर सिंह को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है.
(जसम के केन्द्रीय कार्यकारिणी की ओर से सुधीर सुमन द्वारा जारी)

Monday, July 14, 2014

रूढ़ियों से भिड़ते हुए आधुनिक रास्ते पर चलने की उनकी जीवन-कथा हमेशा रहेगी



सलाम ज़ोहरा सहगल !


जोहरा सहगल नहीं रहीं। बीती 10 जुलाई को उन्होने इस दुनिया को अलविदा कहा। सबकी मौत का एक दिन मुअय्यन है, पर जाने क्यों, उन्हें देख लगता था कि वे हमेशा रहेंगी। उनकी जीवंत, गतिशील और आवेगमय छवि उनके चाहने वालों की आँखों में हमेशा बनी रहेगी।



ज़ोहरा बरतानवी हुकूमत के दौर में 1912 में सहारनपुर में रोहिल्ला पठानों के खानदान में पैदा हुईं। क्वींस कॉलेज लाहौर में शिक्षा पाई। ढर्रे पर चलना उनकी तबीयत को गवारा न था, सो कुछ अलग करने की सोची। मामा सईदुज्जफर खान स्कॉटलैंड में थे, उन्होने ज़ोहरा को नाटक सीखने को बुला लिया। उस जमाने में ज़ोहरा कार से लाहौर से फिलिस्तीन होते हुए मिस्र तक गई। यूरोप पहुँच कर उन्होने आधुनिक नृत्य का अध्ययन किया। यहीं प्रख्यात नृत्य गुरु उदयशंकर से उनकी मुलाक़ात हुई, बाद में जिनके साथ ज़ोहरा ने काम किया।


उदयशंकर के साथ लंबे समय तक काम करने के दौरान ज़ोहरा, कामेश्वर सहगल से मिलीं। दोनों ने मिलकर नृत्य में जबर्दस्त काम किया। विभाजन के दौरान दोनों बंबई आ गए और ज़ोहरा की जिंदगी का नया दौर शुरू हुआ।


ज़ोहरा ने 1945 में नाटक की दुनिया में कदम रखा और उनका जुड़ाव प्रगतिशील कला-समूहों, पृथ्वी थियेटर और इप्टा से हुआ। इप्टा की फिल्म-प्रस्तुतियों, 'धरती के लाल' [ख्वाजा अहमद अब्बास] और 'नीचा नगर' [चेतन आनंद] में उन्होने काम किया। इब्राहिम अलकाजी के नाटक 'धरती के अंधेरे' में उन्होने काम किया। बीच-बीच में वे फिल्मों में नृत्य-निर्देशन भी करती रहीं।


59 में पति की मृत्यु के बाद वे दिल्ली की नाट्य अकादमी की निदेशक बनाई गईं। 62 में अध्ययन के लिए लंदन गईं और वहाँ कई धारावाहिकों और फिल्मों में काम किया। भारत लौटकर उनके व्यक्तित्त्व का एक और पहलू उभरा- उन्होने कई जगह विभिन्न कवियों के काव्य-पाठ की प्रस्तुति दी। फ़ैज़ उनके पसंदीदा शायरों में से एक थे। बाद के दिनों में हिन्दी मुख्यधारा सिनेमा में उन्हें कई तरह के अभिनय करने का मौका मिला, 'दिल से' से लेकर 'साँवरिया' तक बीसियों फिल्मों में उन्होने काम किया और अपनी अभिनय प्रतिभा को स्थापित किया। आखिरी दिनों में वे दिल्ली में रह रही थीं। सरकार उन्हें निचले तले का मकान भी उपलब्ध नहीं करा पाई जिसके लिए वे बार-बार दरख्वास्त करती रहीं।


कम ही लोगों को पता होगा कि महिला आंदोलन से उनकी एकजुटता थी। एक बार उन्होने 'अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसिएशन' के उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता भी की थी। मशहूर इतिहासकार इरफान हबीब ने ज़ोहरा सहगल को याद करते हुए कहा कि 'वह अपनी शर्तों पर जीने वाली महिला थीं।' वे एक ऐसी महिला थीं, जिन्होंने अपने लिए जिंदगी चुनी, दुनिया से भिड़ते हुए अपना खुद का रास्ता बनाया। शायद ख्वाजा अहमद अब्बास ने ऐसा ही कुछ देखा-महसूस किया होगा, जब उन्होने ज़ोहरा को 'भारत की इजाडोरा डंकन' कहा था।


ज़ोहरा सहगल नहीं रहीं, पर रूढ़ियों से भिड़ते हुए आधुनिक रास्ते पर चलने की उनकी जीवन-कथा हमेशा रहेगी। चिरयुवा ज़ोहरा सहगल अपने आखिरी दिनों में भी वैसी ही रहीं- जीवन से आवेग से दमकती हुई ! 


जन संस्कृति मंच उन्हें आखिरी सलाम पेश करता है।


जन संस्कृति मंच की ओर से जारी। 

Friday, July 11, 2014

नयेपन की तलाश जोहरा की खासियत है : योगराज टंडन

बेहद जिंदादिल और हमेशा नौजवानों सी उर्जा से भरी जोहरा सहगल ने आज 10 जुलाई को आखिरी सांसें ली. साहित्य अकादमी के सभागार में मैंने 4-5 साल पहले उनकी जुबान से हफीज जालंधरी की मशहूर नज्म 'अभी तो मैं जवां हूँ' को सुना था. मेरे लिए वह अद्भुत अनुभव था. भारतीय रंगमंच और फिल्म जगत की इस बेमिसाल शख्सियत को हार्दिक श्रद्धांजलि.

रेडियो और दूरदर्शन में नाट्य लेखन व प्रस्तुति संबंधी कार्यों से जुड़े योगराज टंडन जी ने उनके 100 साल पूरे होने पर एक दिन दूरदर्शन आर्काइव में मुझे और श्याम सुशील को उनसे सम्बंधित एक संस्मरण सुनाया था. 1950 में पृथ्वी थियेटर में टंडन जी ने जोहरा सहगल के साथ काम किया था। उनकी पुस्तक ‘थियेटर के सरताज पृथ्वीराज’ में भी जोहरा सहगल से संबंधित प्रसंग  हैं। पेश है योगराज टंडन का वह संस्मरण- सुधीर सुमन 

... मैं जब बंबई पहुंचा तो वहां नेपथ्य में मुझे भूमिका मिली, मुझे अभिनेताओं के अभिनय और प्रापर्टी वगैरह पर नजर रखनी थी। वहीं पहली मुलाकात जोहरा सहगल से हुई।नाटक ‘गद्दार’ में वे बड़ी बी बनती थीं। हफ्ते दो हफ्ते बाद मैंने एक दिन उन्हें टोका कि ये डायलाॅग आपने गलत बोला। आपका किरदार तो यह बोल ही नहीं सकता। बिना किसी बहस के वे मेरी बात से सहमत हो गईं।

पृथ्वी थियेटर में शामिल होने से पहले जोहरा सहगल और उनकी छोटी बहन अजरा मुमताज अंतराष्ट्रीय स्तर पर मशहूर भारतीय नर्तक उदय शंकर के बैले ग्रुप में थीं और इस ग्रुप में काफी महत्वपूर्ण स्थान रखती थीं। खासकर जोहरा जी तो अल्मोड़ा में उदय शंकर जी की नृत्य एकेडमी की सक्रिय कार्यकर्ता थीं। वहां नृत्य की शिक्षा के लिए जो कायदे-कानून बनाए गए थे, वे उस सिलेबस की इंचार्ज थीं। वहीं उन्होंने अपने से आठ साल छोटे एक नवयुवक नर्तक और चित्रकार साथी कामेश्वर सहगल से शादी की। उन दिनों यह शादी अपने प्रकार की पहली शादी कही जा सकती थी। इसमें किसी को अपना धर्म बदलने की आवश्यकता नहीं पड़ी। उनके परिवार के लोग चाहते थे कि वे धर्म परिवर्तन कर लें। लेकिन उन्होंने बिना धर्म परिवर्तन किए साथ रहना तय किया और इसकी बहुत चर्चा थी। इसे लोगों ने बड़ा सराहा और एक प्रगतिशील कदम बताया। इसके बाद जोहरा जी और कामेश्वर सहगल अल्मोड़ा छोड़कर लाहौर चले गए और वहां नृत्य की शिक्षा के लिए एकेडमी खोल ली। आरंभ में तो अपनी आजादख्याली और प्रगतिशील दृष्टिकोण के कारण लाहौर के सामाजिक लोगों ने उनको हाथोहाथ लिया। जगह-जगह उनके सम्मान में दावतें हुईं। उनको जनसभाओं और घरेलू किस्म की बैठकों में बुलाया गया, उनके विचार सुने गए। एक हिंदू तो दूसरा मुसलमान, फिर भी एक साथ जीवन बसर कर रहे हैं, घर-घर में उनकी शादी के बड़े सुखद चर्चे होने लगे थे। उस वक्त माहौल ऐसा था भी कि होली हिंदू-मुस्लिम साथ मिलके मनाते थे। दीवाली के दिन मुसलमान भी दीये जलाते थे। हमारे ननिहाल में तजिया निकलता था और उसके लिए जो घोड़ा पाला जाता था, वह हिंदू नंबरदार पालते थे। वही मुसलमान थे जिन्होंने दंगे-फसाद के दौरान हिंदुओं को बचाया और हिंदुओं ने मुसलमानों को। खुद मेरे पिता को भी उनके मुस्लिम दोस्त ने अपने पास रखा। दोस्त की बीवी रोज काफिर कहके उन्हें गालियां देतीं। एक दिन दोस्त ने अपनी बीवी को गालियां बकते सुन लिया और उसने कहा कि तुमसे पहले मेरा दोस्त है और उसी वक्त तलाक, तलाक, तलाक कहके तलाक दे दिया। बाद में फिर मौलवी आए, उन्होंने कहा कि गुस्से में कहा है इसलिए यह तलाक मंजूर नहीं होगा। लेकिन राजनीतिक परिस्थितियां तो बदल चुकी थीं। मुस्लिम लीग और कट्टर किस्म के मौलानाओं का प्रभाव उभरने लगा तो लोगों की दृष्टि बदलने में देर नहीं लगी। तारीफ के बजाए अब नुक्ताचीनी होने लगी। शको-शुब्हात के घने बादल चारों ओर मंडराने लगे। बहानों-बहानों जोहरा सहगल और कामेश्वर सहगल का सोशल बाइकाॅट भी होने लगा। इसके बाद ही दोनों सबकुछ समेटकर लाहौर से बंबई आ गए। 

जोहरा जी को अपनी सूझबूझ और नृत्य में निपुणता के कारण फिल्मों में काम मिलने लगा, पर वह उस काम से भिन्न था, जिसे उन्होंने उदय शंकर के साथ किया या लाहौर में जिसे करने के लिए उत्साह के साथ लगी थीं। जोहरा जी की छोटी बहन अजरा अब तक पृथ्वी थियेटर में शामिल हो चुकी थीं। पृथ्वी थियेटर अब तक दो नाटकों के शो हो चुके थे। जोहरा जी जब वहां पहुंची तो दूसरे नाटक की ही आगामी प्रस्तुतियों की तैयारियां जोर-शोर से चल रही थीं। नाटक की कास्ट तय थी। एक्टिंग जोहरा जी का पहला शौक था, वे पृथ्वी थियेटर में आना चाहती थीं। मगर पृथ्वीराज कपूर के मन में एक झिझक थी कि अजरा उनकी दोनों नाटकों की हीरोइन थीं, वे जो मासिक वेतन अजरा जी को दे रहे थे, उससे कम या ज्यादा वेतन वे जोहरा जी को दे नहीं सकते थे। आखिरकार जोहरा जी अभिनेत्री के बतौर नहीं, बल्कि नाटकों में नृत्य की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पृथ्वी थियेटर में शामिल हुईं, लेकिन बहुत जल्द ही उन्होंने अपनी मेहनत और लगन से अपना एक खास स्थान बना लिया। डांस में तरतीब देने के साथ-साथ बाकायदा नृत्य सिखाने के लिए रोजाना कलाकारों को अभ्यास भी कराती थीं। हर अभिनेता-अभिनेत्री को निजी रूप से एक-एक शारीरिक हरकत का अभ्यास कराती थीं। 

जब मैंने पृथ्वीराज जी का घर छोड़ा तो मुझे सर छुपाने के लिए कोई जगह चाहिए थी। जोहरा जी ने कहा कि मेरे सर्वेंट क्वाटर में रह लो। पैरी रोड पर वह बंग्ला था। मैंने कहा कि मैं कहां से उसका किराया दे पाऊंगा। छूटते ही वे बोलीं- जो बन सके वह दे देना। वहां रहना शुरू किया। रोज सुबह ही निकल जाता था। जोहरा जी अपने नौकर से हमेशा यह कहती थीं कि इसका ख्याल रखना। बल्कि अक्सर वे कहती रहती थीं कि- कभी तो मेरे साथ बैठकर खा। यह संभव नहीं हो पाता था। लेकिन उनकी एक क्रिश्चन सहेली कई बार मुझे भोजन करा देतीं थीं, उनका तर्क होता कि क्रिश्चन हूं, अकेले कैसे खा सकती हूं। मुझे लगता है कि यह सब जोहरा जी के इशारे पर होता था। वे हमारे लिए आइडियल हैं। व्यवहार उनका बहुत अच्छा रहा है। वे मेरा पूरा ख्याल रखती थीं। मुझे याद है कि जब मुझे महीने में 75 रुपये मिलते थे जिनमें 25 रुपये मैं घर भेज देता था। मेरे बड़े भाई की शादी होनी थी। मैं सोच रहा था कि जब मैं कुछ कंट्रिब्यूट नहीं कर सकता, तो क्यों जाऊं? जोहरा जी को शादी के बारे में पता चला, तो पूछने लगीं कि कब जा रहा है? मैंने कहा- मैं तो नहीं जा रहा। उन्होंने कहा कि ये तो कोई बात नहीं। लेकिन उनका वश नहीं चला। फिर उन्होंने पापा जी- पृथ्वीराज जी से कहा कि ये अपने भाई की शादी में नहीं जा रहा है। खैर, पृथ्वीराज जी ने समझाया कि तुम कुछ नहीं दे सकते, यह तो ठीक है, पर तुम नहीं जाओगे तो जान-पहचान वाले क्या कहेंगे? लोग सोचेंगे कि तुम भाई की शादी में क्यों नहीं हो? बड़ी बदनामी होगी। ये जो तुम बोझ बनने से परेशान हो, उससे तो ज्यादा बुरा होगा न! खैर, मैं गया। अगर जोहरा जी ने पहल न की होती, तो मैं अपने भाई की शादी में न गया होता। इसे मैं कभी नहीं भुलता। अजरा जी की आपा तो वे थी हीं, वे सबके लिए आपा जैसी ही थीं। बड़ा ह्यूमन व्यक्तित्व है उनका।

दीवार में पहले जो भूमिका बलराज साहनी की पत्नी करती थीं, उनकी मृत्यु के बाद जोहरा वह रोल करने लगीं। पहले किसी द्वारा निभाई गई भूमिका के बाद उसी भूमिका को निभाना और अपना प्रभाव छोड़ना बहुत मुश्किल होता है, जो उन्होंने किया। एक थियेटर आर्टिस्ट के लिए बाॅडी मूवमेंट्स और कैरेक्टर की समझदारी, कि कौन सा रोल निभाना है, उसकी भाषा कैसी होनी चाहिए, यह सब उनमें है। आप जान लीजिए कि मैं तो मामूली असिस्टेंट था, मैंने कोई बात कही, तो वे उसे सुनती थीं। यूं सर पर सवार होकर कभी पेश नहीं आतीं थीं। जब वे ‘दीवार’ नाटक में विदेशी औरत का रोल करती थीं, तो बाल कैसे बनाने हैं, टोपी कौन सी लगानी है, हमेशा यह सोचती रहती थीं। कहीं न कहीं नयापन लाने की कोशिश वे हमेशा करती थीं। वह तलाश अब भी उनकी जारी है। उनकी क्रिएटिविटी थकती नहीं। इस उम्र में भी वे वोकल और बाॅडी एक्सरसाइज करती हैं, जबकि वे अपने आप चल नहीं सकतीं। ह्विल चेयर पर चलती हैं। याददाश्त उनकी गजब की है। लगता ही नहीं कि बूढ़ी हैं। मुझे तो हमेशा उसी तरह से यंग लगती हैं। मुझे उनकी हर परफामेंस नई लगी। रोल तो एक ही होता था और हफ्ते में उसकी तीन-तीन प्रस्तुतियां होती थीं। मगर हर बार वे कुछ न कुछ चेंज कर देती थीं। कभी कास्ट्यूम तो कभी कुछ, और यह सब बड़ा कन्विसिंग लगता था। इतना ही नहीं कि खुद अपने में चेंज कर लेती थीं, बल्कि उस परिवर्तन के बारे में साथी कलाकार से बात भी करती थीं कि अगर ऐसा बदलाव किया जाए तो कैसा रहेगा, ताकि वह भी उसके अनुरूप अपनी भूमिका को निभाए। 

बाद में उनके और उनके पति के बीच टकराव पैदा हुआ। कामेश्वर कुछ ज्यादा ही आत्मकेंद्रित थे। उन्हें लगता था मानो वो समय से बहुत पहले आ गए हों और उनके प्रशंसक अभी उतनी सूझबूझ नहीं रखते कि उनकी रचना को समझ सकें। वे यह नहीं चाहते थे कि उनकी बेटी आर्टिस्ट बने, यह भी तनाव की वजह थी। एक बड़ी वजह यह भी रही होगी कि जितना जोहरा लाइम लाइट में थीं, वे उतने नहीं थे। तंग आकर उन्होंने खुदकुशी कर ली। अब घर जोहरा जी को काटने के लिए दौड़ता था। कुछ दिन वे अजरा जी के साथ रहीं। पृथ्वी थियेटर तब ‘पृथ्वी हट’ बन गया था। कुछ दिन वहां रहने की कोशिश की, पर बंबई शहर में रह पाना मानसिक रूप से उनके लिए बहुत कष्टकर था। लेकिन वे जीना चाहती थीं अपने बच्चों के लिए। उन्होंने बंबई शहर और पृथ्वी थिएटर दोनों को छोड़ दिया। पृथ्वीराज कपूर चाहकर भी उन्हें रोक नहीं सके। पहले वे दिल्ली आईं और फिर लंबे समय के लिए लंदन चली गईं। भारत वापस आने के बाद उन्होंने दिल्ली शहर को ही अपना घर बना लिया।पति के मृत्यु के बाद खुद ही बच्चों को पाला, नाटक किया, उन्हें पढ़ाया। जैसी वे थीं, वैसा ही बच्चों को बनाया। पति के साथ तनाव के दौरान भी कभी बच्चों को पति के खिलाफ भड़काया नहीं। 

1983 में जब मैं दूरदर्शन में ड्रामा प्रोड्यूसर था तब उनसे मुलाकात हुई। मैंने कहा कि जोहरा जी मैं चाहता हूं कि आप नाटक में काम करें। लेकिन आपकी जितनी फीस है वह दे नहीं पाऊंगा। दूरदर्शन में दूसरी मुश्किलें थीं। अधिकारियों का यह कहना था उनकी आवाज अप्रूव्ड नहीं है। मेरे यह बताने का भी उन पर असर नहीं पड़ रहा था कि वे फिल्मों में काम कर चुकी हैं, पृथ्वी थियेटर में काम कर चुकी हैं। उनकी पोजिशन ऐसी है कि आवाज के एपू्रवल की जरूरत नहीं है। खैर, बड़ी मुश्किल से फाइल पहुंची अपनी जगह पर। उस वक्त उनको प्रति नाटक 1000 रुपये देना तय हुआ। 1989 में अपनी रिटायरमेंट के बाद मैं उनके यहां आता-जाता रहा। वहीं उन पर केंद्रित एक किताब पढ़ने को मिली। मैंने उनकी जीवनी लिखनी शुरू की थी, पर मेरी कमजोरी कहिए कि 50-60 पन्नों के बाद आगे नहीं लिख पाया। मुझे लगा कि पुनरावृति हो रही है, पृथ्वीराज कपूर वाली किताब के ही प्रसंग बार-बार आ जा रहे थे। मुझे लगा कि उन्हीं प्रसंगों को लेकर दुबारा एक किताब लिखना ईमानदारी नहीं होगी। फिर भी क्या जीवन है उनका! अपनी फैमिली में सबसे ज्यादा आधुनिक और रिवोल्ट करने वाली महिला हैं वे। पहले एयर सर्विस तो इस तरह थी नहीं, पानी के जहाज से ही जाना पड़ता था। वे पानी के जहाज से ही देश-दुनिया में गईं। उन्होंने कार चलाना सीखा। नाम याद नहीं आ रहा, एक बार तो एक मुस्लिम मुल्क में वे यहां से कार से ही गईं। एडवेंचर उन्हें पसंद है। उनकी बेटी उन्हें प्यार से फैटी कहती है, पर वे वैसे मोटी नहीं रहीं कभी भी। वे अब भी रियाज करती हैं। डांस वाली बाॅडी है उनकी। अभी भी फैज और हफीज जालंधरी उन्हें याद है। उनकी आवाज की गूंज अभी भी पहले जैसी ही है। 

हां, अजरा जरूर उनसे ज्यादा खूबसूरत थीं, लेकिन वे नाटक में अपनी निरंतरता बरकरार नहीं रख सकीं। बेशक जोहरा जी देखने में अधिक सुंदर नहीं थीं। लेकिन उनमें आकर्षण भरपूर रहा है। उनके बातचीत करने में अद्भत किस्म का अपनापन और आकर्षण है। जब वे नृत्य करती थीं, तो आकर्षण की सारी सीमाएं टूट जाती थीं। आयु का बंधन टूट जाता था। 

आज के दौर में आर्ट थोड़ा पीछे रह गया है, शोमैनशिप और ग्लैमर आगे आ गया है। आज के दौर में किसी जोहरा सहगल को आना होगा, तो उसे उनसे भी ज्यादा ग्रेट होना होगा, क्योंकि जमीन हमवार नहीं है, उबड़-खाबड़ रास्ते हैं। लाइटिंग और कपड़े ही जरूरी हो गए हैं। कहानी, डायलाॅग और कैरेक्टर पीछे रह गए हैं। पहले स्क्रिप्ट पर कितनी बहसें होती थी, लेकिन आज किसके पास फुर्सत है! एक खला है, एक गैप है। ऐसे दौर में हम परफार्म करती जोहरा सहगल को बहुत मिस करते हैं। आज तो बस उन्हें बोलते हुए ही हम सुन पा रहे हैं।