27 मई को जिस वक्त मेरे शहर में बारिश हुई, उस वक्त मैं कथाकार मधुकर सिंह के यहां जाने की तैयारी में था। बारिश के बाद बदले हुए वातावरण में पैदल ही उनके घर गया। हमेशा की तरह मिलकर वे बहुत खुश हुए। अब उनके लिए बहुत चलना फिरना संभव नहीं है, पर उनके लेखक की जिजीविषा तनिक भी कमजोर नहीं हुई है। अपने पर शोध करने वाली किसी छात्रा के गाइड के पत्र का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि अजीब मूर्ख है, मेरे पते में लिखता है- मधुकर सिंह, पूर्व शिक्षक और पूर्व साहित्यकार। यह सुनकर मुझे बहुत हंसी आई। मैंने कहा कि जब पूर्व साहित्यकार ही हैं आप, तो चिट्ठी किस लिए भेजा है उन्होंने। खैर, मधुकर जी ने जोर देकर कहा कि वे अभी भी शिक्षक हैं और साहित्यकार तो हैं ही। बेशक आखिरी दम तक वे साहित्यकार रहेंगे। जब मैं पहुंचा तो वे कुछ लिख रहे थे। बताया कि आत्मकथा लिख रहे हैं, जिसको पढ़कर लोग बहुत गालियां देंगे। जोर देकर कहा कि बिल्कुल ईमानदारी से लिख रहे हैं। उनके गांव के बगल नहर पर जो पुल है उस पुल और मोड़ से पटना जाने वाली सड़क गुजरती है। वह पुल और मोड़ मय अपने इतिहास के साथ उनकी आत्मकथा में आएगा, उन्होंने जैसा बताया उसे सुनकर लगा। अब इसमें स्मृतियों और सुनी हुई बातों का घालमेल भी संभव है। उन्होंने बताया कि जब गांधी यहां से गुजरे तो ब्राह्मणों ने उन पर हमले की योजना बनाई थी, तो उनके दादा ने गांव के लोगों को एकजुट करके ब्राह्मणों को वहां से भगाया। ब्राह्मणों का गुस्सा राजगोपालाचारी की बेटी से गांधी के बेटे की शादी को लेकर था। मेरे पास फुर्सत थी नहीं कि इस तथ्य की छानबीन करूं। फिर उन्होंने बताया कि नेहरू भी इस मोड़ से गुजरे थे पटना जाते वक्त। और सुभाष भी इंफाल जाते वक्त। उन्होंने बताया कि सुभाष जिन्होंने ब्रिटिश हुकूमत का जोरदार मुकाबला किया, उन्हें जब हाथी पर चढ़ाया गया, तो वे डर रहे थे। मैंने इन्हें इतिहास की तरह नहीं लिया, स्मृतियां सिर्फ इतिहास से नहीं बनतीं। और चूंकि आजकल वे ठीक से सुन नहीं पाते, ज्यादातर अपनी ही रौ में अपनी बात सुनाते जाते हैं, और बोलते वक्त उनकी आवाज भी पहले की तरह एकदम स्पष्ट नहीं होती, इस कारण उनसे इनकी तथ्यात्मकता को लेकर कोई बातचीत संभव नहीं थी। हां, जीवन के वे कौन से राज हैं, जिसे लिखने से लोग गालियां देंगे, इसे उन्होंने नहीं बताया, इसे राज ही रखा।
उन्होंने पाखी के संपादक प्रेम भारद्वाज के बारे में पूछा जो आजकल कभी कभार उनका लिखा छापते हैं। साथी मदन कश्यप के बारे में भी पूछा। दो साल पहले कुबेर जी ने उनके पैरों में मालिश के लिए कर्पूरआदितैलम नाम की एक दवा भेजी थी। पिछली बार जब आया था तो उन्होंने उस दवा की मांग की थी, इस बार मैं दवा लेके पहुंचा था। दवा मिलते ही वे कुबेर जी को याद करने लगे। बताया कि कब रंजीत वर्मा से उन्होंने दूरदर्शन के लिए उनका एक इंटरव्यू रिकार्ड करवाया था। मधुकर जी के बेटे ने एक कार ली है, उसी से कभी कभार बहुत जरूरी हुआ तो वे शहर में जा पाते हैं। मुझसे बोले कि टीम यानी युवानीति और जसम की एक बैठक बुलाइए, मैं उसमें रहना चाहता हूं। चित्रकार साथी राकेश दिवाकर को याद किया कि बगल में उनकी रिश्तेदारी है, वहां आते थे तो पहले मुझसे मिलकर ही जाते थे, पर बहुत दिनों से उनका आना नहीं हुआ है।
मधुकर जी ने एक दिलचस्प सपने का जिक किया कि उन्हें साहित्य अकादमी की ओर से दस लाख का पुरस्कार मिला है और पुरस्कार समारोह में शीला दीक्षित भी हैं। पिछले कई वर्षों से मधुकर जी को आस है कि सरकारें उनकी सुध लेंगी। लेकिन जो उनका अब तक का लेखन है, वह इन सरकारों के बहुत काम का तो है नहीं, भला वे क्योंकर उन पर ध्यान देंगी। नीतीश कुमार से उन्हें बहुत उम्मीद थी, लेकिन उनसे भी उन्हें मनोवांछित मदद नहीं मिली। चलते चलते उन्होंने कहा कि अगर दस लाख रुपये होते तो जिंदगी कितनी आसानी से गुजर जाती। मधुकर जी चूंकि अब इस हालत में नहीं हैं कि सरकारों से उनकी उम्मीद को लेकर कोई बहस करता। अगर वे स्वस्थ होते और पहले की तरह उसी तरह पैदल चलकर सभा गोष्ठियों में पहुंचते और अपनी महत्वाकांक्षाओं और विभ्रमों और जनांदोलन के साथ अपने संबंध को लेकर अपने अंदाज में किसी को चिरकुट और घंघरिया का तमगा दे रहे होते, झल्ला रहे होते या फिर किसी नए रचनाकार-कलाकार से उसकी रचना या कला के बारे में पूछ रहे होते या उस पर अपनी प्रशंसनीय टिप्पणी देने की स्थिति में होते, यानी पहले की तरह एकदम स्वस्थ होते तो जरूर मैं उनसे बहस करता।
मैंने उनकी पत्रिका ‘इस बार’ के कई अंक निकाले। मेरे अपने चयन पर उनका कोई हस्तक्षेप नहीं रहता था। हां, उनके द्वारा चुनी गई कुछ चीजों पर जरूर एकाध बार बहस हुई थी। एक बार मुझे शक था कि सुरेशचंद्र श्रीवास्तव के उपन्यास पर मेरी समीक्षा वे पत्रिका में जाने नहीं देंगे, इस कारण मैंने कहा कि पहले लेखक को समीक्षा दे दीजिएगा, अगर वह ईमानदार लेखक हुआ तो जरूर उसके प्रकाशन से उसे दिक्कत नहीं होगी और वह समीक्षा ‘इस बार’ में छपी। बाद में उन्होंने कई लोगों को लेखक की प्रतिक्रिया से अवगत भी कराया। बहुत सारे संस्मरण हैं मधुकर सिंह के। कभी कभार मेरी राजनीतिक गतिविधियों पर वे झल्लाते भी थे, गो कि वे गतिविधियां मेरे सांस्कृतिक कामकाज का ही हिस्सा थीं और हैं। एक बार वागर्थ में उनके उपन्यास पर मेरी समीक्षा छपी, तो उन्होंने कहा कि पार्टी बनकर लिखे हो, मैंने जवाब दिया कि आप जब पार्टियों के बारे में लिखिएगा तो गैरपार्टी बनकर उसकी समीक्षा कैसे होगी? लेकिन मैं यह तो समझता ही हूँ कि अन्य साहित्यकार मित्रों की तरह मधुकर सिंह भी चाहते हैं कि मैं लिखने पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करूं। पर जितना मित्र उम्मीद करते हैं उतना लिखना अभी भी संभव नहीं हो पाता। कई दूसरे सांस्कृतिक काम भी जरूरी लगते हैं। खैर, मधुकर सिंह की पूरे रचनाकर्म को लेकर बातचीत, किसी बडे आयोजन और पत्रिका के विशेषांक की योजना है। कोशिश है कि जल्द ही संभव हो।