Sunday, August 5, 2018

मीडिया और मोदी : परंजाॅय गुहा ठाकुरता


तन्मय त्यागी के फेसबुक वाल से साभार 
(परंजाॅय गुहा ठाकुरता ने गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली में 23 नवंबर 2014 को 'मीडिया और मोदी' विषय पर तीसरा कुबेर दत्त स्मृति व्याख्यान दिया था। एबीपी चैनल के प्रबंध संपादक मिलिंद खांडेकर और पुण्य प्रसून वाजपेयी के इस्तीफे और अभिसार शर्मा की लंबी छुट्टी की खबरों के बीच परंजाॅय के उस व्याख्यान की याद आई। इसी बीच यह ख़बर भी मिली कि अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता न्यायाधिकरण (इंटरनेशनल एट्रिब्यूशन ट्रिब्यूनल) ने रिलायंस इंडस्ट्रीज द्वारा ओएनजीसी से गैस चोरी के दावों को खारिज कर दिया गया है और भारत सरकार को 8.3 मिलियन डॉलर (564.44 मिलियन रुपये) का मुआवज़ा देने का आदेश दिया है, जबकि भारत सरकार का दावा था कि रिलायंस इंडस्ट्रीज उसे 1.55 अरब डालर का भुगतान करे। जाहिर सरकार की ऐसी कोई मंशा थी ही नहीं। संबित पात्रा को ओएनजीसी का डाइरेक्टर बना के भेजना और इस मुकदमें में सरकार की हार और मोदी के प्रिय मुकेश अंबानी के रिलायंस इंडस्ट्रीज की जीत अपने आप में सब कुछ स्पष्ट कर देती है। इन लूटेरों के खिलाफ परंजाॅय लगातार संघर्षरत रहे हैं। सुबीर घोष और ज्योतिर्मय चौधरी के साथ मिलकर उन्होंने Gas Wars: Crony Capitalism and the Ambanis जैसी किताब लिखी है। 
पिछले साल मोदी के एक और कारपोरेट यार अडानी के खिलाफ दो लेखों को हटाने के लिए जब कारपोरेट और भारत सरकार ने EPW प्रबंधन पर दबाव बनाया और प्रबंधन झुक गया तो परंजाॅय ने उसके संपादक पद से इस्तीफा दे दिया था।
परंजाॅय ने 'मीडिया और मोदी ' व्याख्यान जब दिया था, तब मोदी सरकार के लगभग छह माह हुए थे। )


बहुत अद्भुत समय से हमलोग गुजर रहा हैं। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में 31 फीसदी वोट लेके लोकसभा में भाजपा के 282 सांसद हैं। 1947 के बाद विरोधी दल इतने कमजोर हैं। कांग्रेस के 44 सांसद हैं, वामदल के 12 हैं और आम आदमी पार्टी के 4 हैं। विरोधी दल तो हैं ही नहीं, ये समझ लीजिए। विरोधी दल की भूमिका में कौन है, किसकी जिम्मेवारी है? कौन है आज सरकार के खिलाफ? सरकार की जो दक्षिणपंथी अर्थनीति, राजनीति और विचारधारा है, उस पर कौन प्रतिबंध लगाएंगा?

कुछ देर पहले आपातकालीन समय का उल्लेख किया गया। आपातकालीन समय के बाद लालकृष्ण आडवाणी ने हमारे देश के एक वरिष्ठ संपादक के बारे में कहा था- When they were asked to bend, They crawled, जब सिर झुकाने को कहा था इंदिरा गांधी ने, एकदम जमीन में लेटकर साष्टांग प्रणाम किया।

आज मीडिया और जो लोक माध्यम पर नियंत्रण कर रहे बड़े-बड़े काॅरपोरेट घराने के मालिक हैं, उनकी स्थिति के बारे में मैं कुछ कहना चाहता हूं। आज एक व्यक्ति पर हमारे लोक माध्यम ने टिप्पणी करना और उसकी आलोचना करना, निंदा करना बंद कर दिया है। एक तरह से हमारे लोक माध्यम हमारे प्रधानमंत्री का विज्ञापन एजेंसी, पब्लिक रिलेशन्स एजेंसी बन गए हैं। क्यों बन गए? हमारे देश में अगर आप अखबार को देखें, नब्बे हजार के आसपास अखबार हैं, छोटे-बड़े सब। 900 के आसपास टेलीविजन चैनल हैं, जिसमें से तीन सौ- साढ़े तीन सौ चैनल अपने आपको खबरों का चैनल कहते हैं। जो आप देखते हैं टेलीविजन के छोटे पर्दे पर उसे आप खबर समझते हैं कि नहीं, यह तो अलग बात है। नाग-नागिन की शादी खबर हो जाती है, अमिताभ बच्चन का सरदर्द लाइव, ब्रेकिंग, एक्सक्लुसिव न्यूज भी हो जाता है।

हम अपने देश को लोकतंत्र कहते हैं, मगर विश्व में ऐसा कोई लोकतंत्र नहीं है, जैसा भारतवर्ष हैं, जहां रेडियो जैसे लोकमाध्यम पर अभी भी सरकारी संस्था प्रसार भारती काॅरपोरेशन, आकाशवाणी (आॅल इंडिया रेडियो) की मोनोपोली है। खबरों के ऊपर मोनोपोली है। हमारे देश में दो-ढाई सौ के आसपास निजी चैनल हैं, डेढ़ सौ के आसपास कम्युनिटी रेडियो स्टेशन है। मतलब वो खबर नहीं दे सकते, सिर्फ आकाशवाणी का खबर आपको सुनने को मिलेगा। वेबसाइट तो बहुत सारे हो गए हैं आज। आप देख रहे हैं कि जो आधुनिक सूचना प्रयुक्ति के माध्यम हैं, हमारे राजनेता और प्रधानमंत्री उसका कैसे इस्तेमाल कर रहे हैं।

आज 125 करोड़ जनसंख्या है भारतवर्ष की। 90 करोड़ के आसपास सिमकार्ड है। सिमकार्ड का मतलब है- एसआईएम यानी सब्सक्राइबर आइडेंटिटी माड्यूल। और 70 करोड़ के आसपास मोबाइल टेलीफोन, सेलुलर फोन हैं। चलायमान दूरभाष यंत्र में आज लोग अपना अखबार बढ़ रहे हैं, किताब पढ़ रहे हैं, रेडियो सुन रहे हैं और टीवी भी देख रहे हैं। 9 बजे की खबर आप 12 बजे भी देख सकते हैं, रात 3 बजे भी देख सकते हैं। इंटरनेट, ये जो नया माध्यम है, सिर्फ हमारे देश में नहीं पूरी दुनिया के लोक माध्यम में किस तरह का बदलाव लाया है, हमारे देश के जो युवा है, उनके ऊपर किस तरह से असर है, हमने ये कभी नहीं सोचा, कि इस रफ्तार से हमारे लोक माध्यम इतने जल्दी बदल जाएंगे। ये इंटरनेट एक तरह से सिर्फ लोक माध्यम नहीं है। इसमें आप वाणिज्य कर सकते हैैं, आप टिकट खरीद सकते हैं- सिनेमा का, बस का, प्लेन का, ट्रेन का। कोई आपका दोस्त दस हजार मील अमेरिका में बैठा है, उसके साथ संपर्क कर सकते हैं। साथ-साथ यह लोक माध्यम भी है। इंटरनेट में अखबार भी तो आ रहे हैं, इससे ज्यादा खबर मिल रही है, तुरंत मिल रही है, हफ्ते में सात दिन 24 घंटे आपको मिल रहे हैं। और हम देख रहे हैं किस तरह से हमारे राजनेता और नरेंद्र मोदी ने इसे इस्तेमाल किया है। 

लेकिन चार कदम पीछे हटके नरेंद्र मोदी को देखा जाए। तब दिल्ली में वे राष्ट्रीय सेवक संघ के प्रचारक थे, भारतीय जनता पार्टी के बहुत सारे साधारण सचिव थे, उनमें से वे एक थे। एक हाॅस्टल की तरह के एक कमरे में रहते थे। तब पत्रकारों के साथ उनके बहुत अच्छे संपर्क थे। राजदीप सरदेसाई की एक किताब आई है। वो कहानी बताते हैं कि उस समय वे और अर्णव गोस्वामी एक साथ एक प्रोग्राम करते थे। एक दिन एनडीटीवी में किसी मेहमान को आना था, जो आ नहीं पाया। उनके पास समय बहुत कम था, तो फोन लगाया नरेंद्र मोदी को- आ जाइए जरा, समय बहुत कम है। तो बोला- अभी तो बहुत ही कम समय है... ठीक है, मैं आ रहा हूं। और ठीक प्रोग्राम शुरू होने से एक-आधा मिनट पहले मोदी पहुंच गए। 

2002 के बाद जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बने, उस समय से हम उनकी एक और छवि देखते हैं। बहुत लोग भूल गए हैं जान बूझ के, फिर भी मैं एक किताब का नाम लेता हूं। ये मनोज मिट्टा की किताब है- The fiction of fact finding. ‘वास्तव’ क्या है, किस तरह से वो ‘वास्तव’ है, वह हमारे पास आता है तो इसमें कल्पना कैसे आ जाती है? अदालत में जो पेश किए गए डाक्यूमेंट्स उनमें से इन्होंने... 2002, गुजरात, हिंदू-मुसलमान का दंगा, बेस्ट बेकरी, एहसान जाफरी, गुलबर्ग सोसाइटी, नानावती कमीशन सब कुछ लिखा हुआ है इस किताब में, और हमारे संघ परिवार के जितने लोग हैं, इनके ऊपर उंगली नहीं उठा पा रहे हैं। क्यों? इसी मनोज मिट्टा ने एच.एस. फुल्कर जी के साथ 1984 में राजधानी दिल्ली में हमारे सिक्ख भाइयों-बहनों के खिलाफ जो दंगा हुआ था, उसके ऊपर भी एक When a Tree Shook Delhi किताब लिखी है।

उस समय से (2002 से) नरेंद्र मोदी की छवि बदल गई, आप जानते हैं, हम जानते हैं। उस समय से मीडिया और पत्रकार लोगों के साथ इनकी जो दोस्ती थी, वह खत्म हो गई। आपको शायद याद होगा कि करण थापर ने उनका एक बार टेलीविजन के लिए इंटरव्यू किया था। उन्होंने उल्लेख किया कि आपके जो राजनैतिक विरोधी हैं उनका कहना है कि आप मास मर्डरर है। उसके बाद साक्षात्कार वहीं बंद हो गया। उसी दिन से मोदी ने सवालों का जवाब देना बंद कर दिया। अब लोक माध्यम और मीडिया के साथ उनका वन वे कम्युनिकेशन है। वे जो कहना चाहते हैं, वही आप सुन लीजिए। हां, दो-चार लोगों को उन्होंने साक्षात्कार दिया, उनको पता था कि वे कौन से सवाल उठाएंगे और उन सवालों का जवाब भी तैयार था, पर कुछ कठिन सवालों का जवाब देने के लिए वे तैयार नहीं थे और आज भी तैयार नहीं हैं। एक तरह से सोनिया गांधी की तरह ही हैं। सोनिया गांधी भी किसी के सवाल का जवाब देना नहीं चाहती हैं। और ये जो सोनिया गांधी के बेटे राहुल गांधी हैं, उनसे बार-बार अर्णव ने कहा कि 2002 के बारे में आप कुछ कहिए, पर वे माया कोडनानी का नाम भी भूल गए। माया कोडनानी कौन थी? नरेंद्र मोदी की सरकार में महिला और बाल विकास मंत्री थी। वह मंत्री थी, उस पर मुकदमा चला और उसे जेल जाना पड़ा। लेकिन उसका नाम राहुल गांधी को याद नहीं था, अहमद पटेल को भी याद नहीं था! और एक तरह से इसके बाद नरेंद्र मोदी ने कहा कि जो लोक माध्यम है उस पर मैं नियंत्रण कर सकता हूं। ऐसे लोगों को हम सामने नहीं आने देंगे, जो कठिन सवाल पूछेंगे। 

कुछ हफ्ते पहले दिवाली के समय में, आप देखिए बहुत सारे पत्रकार गए थे रेस कोर्स में, चाय-नाश्ता किए, एक सवाल भी किसी ने नहीं पूछा! सब सेल्फी लेने के लिए बहुत इच्छुक थे कि मोदी जी के साथ एक तस्वीर अपने मोबाइल फोन पर ले लें।

भारत में ये सोलहवां आम चुनाव था। ये पहली बार हमने देखा किस तरह से पैसा का इस्तेमाल हुआ। ये पैसा कहां से आया है? आप जानते हैं, सब लोग जानते हैं। बड़े-बड़े काॅरपोरेट घरानों के मालिक हैं, बड़े-बड़े पूंजीपति और उद्योगपति हैं। इसमें मुकेश अंबानी हैं, कुमार मंगलम बिड़ला जी हैं, विजय माल्या, टाटा जी हैं, बहुत सारे लोग हैं। (एक श्रोता- अडानी जी।) अडानी जी! अभी (मोदी जी) उनकी हवाई जहाज में उड़ रहे हैं। भारतीय स्टेट बैंक एक अरब का लोन देने के लिए तैयार है।...ये सचमुच पूंजीवाद भी नहीं है। ये याराना पूंजीवाद है, ये भाई-भतीजा, दोस्तों के लिए पूंजीवाद है। 

जब 2002 के बाद गुजरात में बड़े-बड़े पूंजीपति आए थे, वहां मोदी ने गुजरात इंवेस्टर्स समिट किया था। विदेश से उन्होंने लोगों को गुजरात में निवेश करने के लिए बुलाया था। इसमें बहुत सारे बड़े-बड़े उद्योगपति, अनु आगा, राहुल बजाज, जमशेद गोदरेज, साइरस करतार- इन्होंने काफी कड़े शब्दों में मोदी जी की आलोचना की, टिप्पणी की कि कौन आएगा गुजरात में निवेश करने के लिए, यहां की कानून व्यवस्था देखिए! हजारों लोगों की हत्या की गई, सरकार कहां थी? सरकार चुपचाप बैठी थी। भारत में हिंदू-मुस्लिम दंगा में अगर सरकार चुप बैठे तो आप अदालत में प्रमाणित करते रहिए, कौन थे षडयंत्रकारी लोग, ये अलग बात है। नानावती कमीशन को कई बार एक्सटेंशन मिला और अब कहा कि हमने मोदी जी को नहीं बुलाया, बुलाने की जरूरत नहीं थी। मैं दुबारा मनोज मिट्टा की किताब का उल्लेख कर रहा हूं। उन्होंने लिखा है कि एसआईटी- स्पेशल इंवेस्टिगेटिंग टीम ने किस तरह मोदी जी से सवाल पूछा और उससे भी महत्वपूर्ण है जो सवाल नहीं पूछा। 

आप राजदीप सरदेसाई की किताब पढ़िए। मोदी जी का साक्षात्कार करने के बाद जब वापस आ रहे थे, कैसे उनकी गाड़ी रोकी गई थी और लोगों ने बोला- आप पैंट खोल के दिखाइए, आपका धर्म क्या है। उनकी गाड़ी के जो चालक थे वे मुसलमान थे, वे बहुत डरे हुए थे। उस समय उन्होंने अपना कैमरा निकाल के- देखिए, हम मोदी जी का साक्षात्कार लेके आ रहे हैं? आप क्या कह रहें हैं!! उस समय वे लोग कह रहे थे- मोदी जी ने आपको कुछ दिया, प्रवीण तोगड़िया जी तो और कुछ कह रहे हैं।

आज काॅरपोरेट घराना और काॅरपोरेट घराने का लोक माध्यम के ऊपर जो दबाव है, इसके बारे में मैं कुछ कहना चाहता हूं, क्योंकि इसके साथ जिस तरह से मोदी जी का प्रचार चल रहा है, जिस तरह से उनका विज्ञापन आप देख रहे हैं, इसके साथ एक संबंध है। 

विश्वव्यापी आर्थिक संकट के बाद पूरे विश्व में हम देख रहे हैं कि विज्ञापन के ऊपर जो खर्चा था, वह कम हो गया है। बहुत सारे देशों में यह जिस रफ्तार से बढ़ रहा था, वह भी कम हो गया। इसका असर लोक माध्यम और मीडिया घरानों के ऊपर पड़ा, क्योंकि ये लोग विज्ञापन के ऊपर निर्भर करते हैं। आप जो एक अखबार खरीदते हैं 2-3 रुपये में, अगर उसमें एक भी विज्ञापन न हो तो उसकी कीमत 20-22 या 30 रुपया भी हो सकता है। आप जो मुफ्त में टेलीविजन चैनल देखते हैं, अगर उसमें विज्ञापन नहीं रहता, आपको हर महीने पैसे देने पड़ते। तो ये आर्थिक संकट का दौर अभी भी चल रहा है, विज्ञापन के ऊपर जो खर्च करते थे बड़े-बड़े विज्ञापनदाता, वो कम हो गए हैं। अब इंटरनेट बढ़ गया है। एक तरह से दोनों तरफ से- दायें-बायें से- ये जो मीडिया संस्था है, उस पर दबाव पड़ा। उसके आय का स्रोत कम हो गए। इसीलिए मीडिया संस्थाओं के मालिक और पत्रकारों के लिए सरकार और प्रधानमंत्री के खिलाफ लड़ना मुश्किल हो गया, क्योंकि कंपनी घाटे में चल रही है और विज्ञापनदाता में सिर्फ बड़े-बड़े पूंजीपति ही नहीं हैं, सरकार भी बड़े-बड़े विज्ञापन देती है। विज्ञापन और खबर के बीच जो फर्क था, जो पार्थक्य था, ये दिन ब दिन खत्म होता चला गया। आपको मालूम नहीं है कि जो खबर आप देख रहे हैं टेलीविजन के ऊपर या अखबार में पढ़ रहे हैं उसके लिए किसी न किसी ने पैसा दिया हुआ है। और चुनाव के पहले तो ये बहुत बढ़ जाता है। निर्वाचन आयोग और बड़े-बड़े लोग! बड़े-बड़े चक्कर हैं! सबलोग पैसा ले रहे हैं। इसको प्रमाणित करना बहुत मुश्किल का काम है, क्योंकि टेबुल के नीचे काले धन के लेन-देन के खेल चलते हैं। कोई चेक नहीं काटा जाता, कोई रसीद नहीं होता किसी के पास, कोई कागज नहीं। इस तरह से जो बिकी हुई खबर है, जो पेड न्यूज है, इसने विज्ञापन और खबर के बीच जो डिविजन था, जो गैप था, उसे खत्म कर दिया। पेड न्यूज का मतलब किसी एक व्यक्ति का तारीफ करना ही नहीं होता। पैसे लेके किसी उम्मीदवार के पक्ष में यह लिखा जाता है कि ये उम्मीदवार बहुत अच्छे हैं, आप इनको वोट दीजिए, तो पैसे लेके एक उम्मीदवार के विरोध में लड़ रहे उम्मीदवार के खिलाफ भी लिखा जाता है। ये भी पैसा लेके लोग लिख रहे हैं। एक तरह से आप जो हैं, सिर्फ पाठक और दर्शक हैं। ये सिर्फ आपको ही धोखा नहीं दे रहे। जो उम्मीदवार होते हैं, उन्हें चुनाव आयोग को चुनाव के पहले लिखित रूप में देना पड़ता है कि वे कितना खर्च कर रहे हैं, लेकिन वहां भी ये गैरकानूनी काम करते हैं। ये तो आयकर विभाग को नहीं दिखा रहे हैं कि कितना पैसा आया है इनके पास। ये कंपनी एक्ट के खिलाफ है।

तो आज मीडिया और लोक माध्यम की संस्थाएं ऐसे समय से गुजर रही हैं, कि इनके ऊपर राजनेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दबाव है। देखिए इस चुनाव से पहले भी इन्होंने किस तरह से आधुनिक सूचना प्रयुक्ति का इस्तेमाल किया। 2004 में प्रमोद महाजन ने किया था कि आपको फोन आया- मैं अटल बिहारी वाजपेयी हूं, तो फिर आप इसके पहले कहें कि कहिए कुछ, फिर वही टेप मैसेज आ जाएगा, आप सिर्फ सुन रहे हैं। अब उससे भी आगे ये लोग पहुंच गए हैं। थ्री डी होलोग्राम में आप देख रहे हैं मोदी जी को। और हर टेलीविजन चैनल को मुफ्त फीड दे दी है इन्होंने। तो नरेंद्र मोदी भारतवर्ष के अलग-अलग जगह में चुनाव प्रचार कर रहे हैं, मगर टेलीविजन चैनल को ये सब मफ्त में मिल जाता है। एक यह भी है कि मोदी जी का जो भाषण है, आप उसे मुफ्त में सुन सकते हैं। आप फोन कीजिए, आपको कुछ शुल्क देना नहीं पड़ेगा, मुफ्त में आप सुन लीजिए, जितना मन हो। ये सेवा ये लोग दे रहे हैं। 

ये जो सोशल मीडिया की बात की जाती है। आज फेसबुक पर 130-135 करोड़ लोग हैं पूरे विश्व में। चीन की जो जनसंख्या है, उससे थोड़ा बहुत कम है। भारतवर्ष की जो जनसंख्या है, उससे थोड़ा सा ज्यादा है। फेसबुक इज दी सेकेंड मोस्ट पापुलर कंट्री इन दी वल्र्ड। इसके साथ-साथ ट्वीटर है। मगर एक बहुत असली चीज है। आप एक क्लिक कीजिए माउस के ऊपर और आप किसी के फ्रेंड बन जाइए। मगर ये सचमुच के दोस्त नहीं हैं। जीवन में बहुत कम असली मित्र बनते हैं। लेकिन फेसबुक में आपके हजारों दोस्त हो सकते हैं। और ट्वीटर में आज बराक ओबामा और पोप के बाद तीसरे स्थान पर मोदी पहुंच गए हैं। अगर आपने कोई सवाल उठाया, तो उनके साथ एक पूरा समूह है, उसको कहते हैं- ट्राॅल्स, किसी की असली तस्वीर आप नहीं देख सकेंगे, किसी का कार्टून देखेंगे, किसी कोई फूल या शेर की तस्वीर देखेंगे। अद्भुत-अद्भुत नाम है, मिस्टर एबीसी, मिस एक्सवाईजेड और इनका काम यह है कि किसी ने नरेंद्र मोदी के खिलाफ एक भी शब्द उनको लिखा, तो वे उनको हजारों ईमेल भेजेंगे, हजारों ट्वीट करेंगे- पागल हो... मां, बहन की गाली देंगे। तो जैसा इन्होंने सीखा है, ये वही बिकी हुई खबर का रास्ता है।

तो आज बीजेपी और आरएसएस के पास आईटी लड़ाकुओं की पूरी बटालियन है। दिन रात इनके काडर ये काम करने में लगे हुए हैं और इसमें ढेर सारे एनआरआइज हैं। आज मोदी जी क्यों इतने खुश होते हैं न्यूयार्क और आस्ट्रेलिया जाके, क्योंकि जितने सारे एनआरआइज हैं, इनको बहुत पसंद करते हैं। और इन लोगों ने इनकी बड़ी आर्थिक मदद भी की है। और आपको-हमको नहीं मालूम पड़ेगा कि कितना पैसा इनको मिला। ओबामा को कितना मिला, उनके वेबसाइट में आप चले जाइए तो आपको मिल जाएगा कि ओबामा को कौन कितना दान किया। कौन कहीं दोपहर के भोजन के एक प्लेट के लिए दस हजार दिया। हमारे देश में आपको कभी मालूम नहीं पड़ेगा, क्योंकि हमारे देश में जो कानून है इसमें इसकी छूट है। एक तो जो उम्मीदवार है, उससे कहा गया, आप सत्तर लाख से ज्यादा नहीं खर्च कर सकते, मगर 70 लाख तो भूल जाइए, ज्यादा से ज्यादा उम्मीदवार 20-30 लाख खर्च करते हैं और दिखाते हैं निर्वाचन आयोग को कि हम इतना पैसा खर्च कर रहेे हैं। लेकिन राजनीतिक दल जितनी मर्जी खर्च कर सकते हैं। जितने हमारे बड़े-बड़े दल हैं, जो रजिस्टर्ड हैं निवार्चन आयोग के पास, इनके खाता को जो आॅडिट करते हैं, वे कौन हैं? इन्हीं के दोस्त आॅडिट करते हैं। अगर आप बीस हजार रुपया से कम किसी राजनीतिक दल को देते हैं, तो आपको नाम देने की जरूरत नहीं है, पता देने की जरूरत नहीं हैं, पैन नंबर तो भूल ही जाइए। तो मैं एक राजनीतिक दल को 19, 999 एक बार नहीं, सौ बार दे सकता हूं, हमारा नाम कहीं नहीं आएगा। इस तरह से हमारे राजनीतिक दलों का नब्बे-पंचानबे फीसदी पैसा कहां से आता है? जब काॅरपोरेट घराने गुजरात में नरेंद्र मोदी के खिलाफ थे, उन्हें कानून-व्यवस्था कहीं नजर नहीं आता था, तब आपको याद होगा कि गौतम अडानी ने एक और संस्था बनाई थी। और आज हम देख रहे हैं कि ये सारे बड़े-बड़े काॅरपोरेट घराने- सीआईआई- काॅन्फेडरेशन आॅफ इंडियन इंडस्ट्री, फिक्की- फेडरेशन आॅफ इंडियन चेंबर आॅफ काॅमर्स एंड इंडस्ट्री एक शब्द मोदी के खिलाफ नहीं बोले। बहुत खुश हैं आज ये लोग कि मोदी जी आए हैं। समय बताएगा कि कितने दिन ये लोग खुश रहेंगे!

मनमोहन सिंह से तो बहुत नाखुश थे ये लोग, मगर मोदी जी इनलोगों को कितना खुश रखेंगे? अच्छे दिन कब आएंगे जब हमारे युवाओं को नौकरी मिल जाएगा, ये समय बताएगा। संविधान में लिखा हुआ है कि हर नागरिक का एक मौलिक अधिकार है- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, 19-ए ए। संविधान में 19-2 में यह भी लिखा है कि कुछ युक्तिगत प्रबंधन होना चाहिए। ये जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार है, आज इस अधिकार का मतलब क्या है? 

आपातकालीन समय में पत्रकार लोगों को जेल में डाल दिया गया था, आज मोदी जी को इसकी जरूरत नहीं है। क्यों? उनके खिलाफ कहने के लिए कोई है ही नहीं बाकी। और कोई कुछ आवाज उठाएगा, तो उसके पीछे ट्राॅल्स पड़ जाएंगे। मगर मैं आने वाले दिन में जो देख रहा हूं, भविष्य में एकदम अंधकार नहीं देख रहा हूं। यह लोक माध्यम, यह इंटरनेट दोधारी तलवार की तरह है। ये कुछ छिपा कर नहीं रख पाएंगे ज्यादा दिन, स्नूप गेट का केस आप जानते हैं, एक दिन सबकुछ सामने आ जाएगा लोगों के। 

इस लोक माध्यम ने हमारे समाज में एक तरह से पारदर्शिता भी लाया है। मगर ये पारदर्शिता जैसा मैंने कहा कि ये दोधारी तलवार है, जैसे आज इंटरनेट में अश्लील कहानी, अश्लील चित्र-चलचित्र, पोर्नोग्राफी मिलना इतना आसान हो गया। लेकिन आप किसी का गला भी नहीं दबा सकते। हम पूरे विश्व में देख रहे हैं कि उत्तर अफ्रीका, पश्चिम एशिया, दक्षिण अमेरिका, और भी देशों में इंटरनेट लोकतंत्र को मजबूत करने की भी एक भूमिका है। 

पूरे विश्व की जनसंख्या 700 करोड़ है, मगर सिर्फ 200 करोड़ इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे थे। इसी साल ये 200 करोड़ से ऊपर चला गया। मतलब अभी भी हर तीन व्यक्ति में सिर्फ एक व्यक्ति इंटरनेट का इस्तेमाल किया और दो व्यक्ति ने नहीं किया। मगर यह बढ़ रहा है। चीन में 33 फीसदी लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते हंै, अपने देश में शायद बीस या पच्चीस फीसदी के आसपास पहुंचे हैं हम। पश्चिमी देश, जिन्हें विकसित देश कहते हैं, उनमें अभी नब्बे फीसदी-सौ फीसदी के आसपास पहुंच गए हैं, दक्षिण कोरिया, जर्मनी और अमरीका आदि में। 
यही लोक माध्यम, यही इंटरनेट जो आपको नुकसान पहुंचाता है, आपकी मदद करने वाला भी एक रास्ता है। आज हर नागरिक के पास एक अस्त्र आ गया है। यह मोबाइल फोन भी आपके लिए एक अस्त्र है। वो कहते हैं न कि कलम तलवार से भी ज्यादा ताकतवर है, उसी तर्ज पर हर नागरिक मोबाइल का इस्तेमाल कर सकता है। लोगों में जागरूकता आने में समय लगेगा। हर नागरिक को आहिस्ता-आहिस्ता ये समझना होगा। आज हर नागरिक पत्रकार बन सकता है। जो हमारे बड़े राजनेता हैं, जो बड़े काॅरपोरेट घराने के मालिक हैं, उनके खिलाफ जो ‘सत्य’ है, जो ‘असलियत’ है, जो ‘वास्तव’ है, हर नागरिक के पास उसे लोगों तक पहुंचाने का एक रास्ता है। इस रास्ते में हम सबको आगे जाना है। बहुत बैरियर्स आएगा, बाउंस आएगा, कठिनाइयां बहुत होंगी, मगर फिर भी हमें तो आगे बढ़ना ही पड़ेगा। 

आपकी एक चिंताधारा है, आपकी एक विचारधारा है, आप प्रगति में विश्वास करते हैं। प्रगति क्या है? आपका सिर्फ सकल घरेलू उत्पाद बढ़ रहा है और लोगों को नौकरी नहीं मिल रही है, खाद्यान्न का दाम बढ़ रहा है, क्या यह प्रगति है? एक व्यक्ति मुंबई शहर में 27 मंजिल के मकान में रहता है और देश के सौ करोड़ लोगों में कितने लोगों के पास कैसा मकान है, आप यह जानते हैं। 

आज का जो माहौल है, उसी में मैं वापस आ रहा हूं। बहुत आसान है यह सोचना कि एकदम अंधकार भविष्यत् है, आशा की किरण नहीं दिख रही है कहीं भी। ठीक है हमें लड़ना पड़ेगा, एक साथ मिलके लड़ना पड़ेगा। कुछ साल बहुत मुश्किल समय गुजरेगा। कम से कम नरेंद्र मोदी तो पांच साल हैं ही। छह महीना हो गया, साढ़े चार साल बाकी है। 

ये चुनाव व्यवस्था भी एक अद्भुत व्यवस्था है, यहां 31 फीसदी वोट लेके 282 सांसद भी आ सकते हैं। मगर आप देख रहे हैं कि और भी क्या हो रहा है आहिस्ता-आहिस्ता। उत्तर प्रदेश में आप देख रहे हैं, क्या हो रहा है। उपचुनाव में क्या हुआ। बिहार में आप देख रहे हैं क्या हो रहा है, नीतीश कुमार-लालू यादव एक साथ आ गए। आपने देखा महाराष्ट्र में क्या हुआ। कितने दिन ये नई सरकार टिकेगी, समय बताएगा। 

मोदी के साथ दो-तीन व्यक्ति हैं जो पूरा देश चला रहे हैं। आप जानते हैं उनका नाम। एक राज्य को जिस तरह सरकारी अफसरों के साथ इन्होंने चलाया, भारतवर्ष जैसे देश को वैसे चला पाएंगे? मीडिया जितनी भी इनकी मदद करे, ये नहीं चला पाएंगे। इतनी विविधता है, 29 राज्य है, 7 यूनियन टेरिटरिज है, मगर इनकी कोशिश तो यह है कि वे अपने लिए एक दूसरा रिपब्लिक आॅफ इंडिया बनाएं। आज सामने कोई विरोध करने वाला उनको नजर नहीं आ रहा है। मगर दो-तीन साल के बाद देखिएगा, ये जो दक्षिणपंथी राजनीति है, इनको कितना आगे ले जाएगी? दवाई की कीमत बढ़ने वाली है। एक तरफ ये डब्ल्यूटीओ में कह रहे हैं कि हम अमरीका के खिलाफ हैं और साथ-साथ ये अमरीका की जो बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय संस्थाएं हैं, उनके दबाव में अपना बौद्धिक संपत्ति का जो अधिकार था इन्होंने उसे कमजोर कर दिया। ये कह रहे हैं कि नरेगा सिर्फ 200 जिलों में रहेगा। वसुंधरा राजे सिंधिया की जो सरकार है, वह कह रही है कि हम इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट्स एक्ट और फैक्ट्रीज एक्ट को कमजोर कर देंगे। इसी रास्ते से सरकार जा रही है। भूमि अधिग्रहण का जो कानून है, इसके भी कमजोर हो जाने की संभावना है। 

तो मैं सिर्फ आप लोगों को कहना चाहता हूं कि निराश होना बहुत आसान काम है, एक साथ मिलके संघर्ष करना मुश्किल है। लेकिन ये मत भूलिए कि सुबह के सूरज की निकलने के पहले सबसे अंधकार का एक समय आता है, तो शायद हम उसी समय से गुजर रहे हैं।

(व्याख्यान के बाद उज्जवल भट्टाचार्य, पंकज श्रीवास्तव, पीयूष पंत आदि के साथ प्रश्नोत्तर के क्रम में भी परंजाॅय ने कुछ महत्वपूर्ण बातें कहीं, जिनको यहां दिया जा रहा है- सं.) 

पूंजीवाद क्या है, समाजवाद क्या है, कम्युनिज्म क्या है? आर्थिक मंदी के दौर के बाद इस पर नए सिरे से एक चर्चा आगे ले जानी पड़ेगी। यह बहुत जरूरी है। चीन क्या सचमुच कम्युनिस्ट देश है आज या एक तरह से राष्ट्रीय पूंजीवाद में विश्वास करता है? जो स्कैंडेनेवियन कंट्रीज हैं, जैसे नार्वे, स्वीडेन, फिनलैंड, डेनमार्क, इनका जो पूरा सकल घरेलू उत्पाद है, जो नेशनल इनकम हैं, उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा ये बुनियादी ढांचा यानी शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, सड़क, पानी के ऊपर खर्च करते हैं। मगर ये अपने को ज्यादा से ज्यादा सोशल डेमाक्रेट कहते हैं। आप अमरीका में चलिए, छह साल पहले 2008 में जब पूरा विश्वव्यापी आर्थिक संकट था, लग रहा था कि वाल स्ट्रीट खत्म होने वाला है। जेनरल मोटर्स जो एक तरह से अमरीकी पूंजीवाद का प्रतीक है, अमरीकी सरकार उसका सबसे बड़ा शेयर होल्डर हो गई। तो सचमुच क्या वह निजी संस्था रह गई या सरकारी संस्था बन गई? तो जिस देश में खुले बाजार की नीति चल रही है, वहीं का जेनरल मोटर्स सरकारी संस्था बन गया। ये जो सरकार चलाते हैं राजनेता और अफसर साथ-साथ और इनके साथ बड़े-बड़े पूंजीपतियों का जो गठबंधन बन गया है, वह हमारे देश में भी दिखा और वहां भी दिखा। इनको आप कैसे कमजोर करेंगे, ये सबसे बड़ा सवाल है।

ये जो इनक्लुजन की संभावना की बात की गई। मैं एक-दो बातें कहना चाहता हूं। आज श्रम कानून को कमजोर करने के खिलाफ सिर्फ कांग्रेस और वाम दल ही नहीं हैं, इसमें भारतीय मजदूर संघ भी है, जो कि संघ परिवार का ही एक हिस्सा है। लेकिन जरूरत पड़ेगा तो इनके साथ जाना पड़ेगा। जो जेनेटिक मोडिफाइड फूड का मामला है, इसके खिलाफ स्वदेशी जागरण मंच है। मोदी से बहुत नाराजगी है कि उन्होंने वादा किया था चुनाव के पहले कि विदेश से सारा काला धन वापस लाएंगे और हर परिवार में पंद्रह लाख रुपया बांट देंगे, लेकिन एक पैसा अभी तक आया नहीं। अरुण जेटली आज जिस भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं, चिदंबरम और प्रणव मुखर्जी भी उसी भाषा का इस्तेमाल करते थे, कि हम कुछ नहीं कर पा रहे। तो ये जो कंट्राडिक्शन की बात है, आर.एस.एस., स्वदेशी जागरण मंच, भारतीय मजदूर संघ और भारतीय जनता पार्टी के अंदर जो विवाद है, जो अंतर्विरोध हैं, उसको हमें समझना पड़ेगा और जब फायदा मिलेगा हमें उठाना ही पड़ेगा। और कोई रास्ता नहीं है। 

अभी इंटरनेट के खिलाफ गोविंदाचार्य भी अदालत में चले गए हैं। वे बोल रहे हैं कि हमारे यहां कानून है पब्लिक रेकार्ड्स एक्ट का, हमारे देश में कम्प्युटर नेटवर्क नेशनल इनफार्मेटिक्स सेंटर- एनआईसी, लेकिन आप सिर्फ फेसबुक और ट्यूटर का इस्तेमाल कर रहे हैं, आप उस पर सरकारी घोषणाएं कर रहे हैं। नरेंद्र मोदी कह रहे हैं कि छब्बीस जनवरी को बराक ओबामा आ रहे हैं। यह ट्यूटर और फेसबुक से मालूम पड़ रहा है। तो पब्लिक रेकार्ड्स का क्या होगा? जूलियन असांजे ने जबकि यह कहा था कि अमरीका में बैठ के नेशनल इंटेलिजेंस एजेंसी उनकी सबकुछ पढ़ सकती है। 

हम जो अपने आपको प्रगतिशील मानते हैं, जो वाम विचारधारा और राजनीति में विश्वास करते हैं, हमें जो दक्षिणपंथी राजनैतिक दल हैं, उनके अंदर के विवादों को बारीकी से देखना और समझना पड़ेगा और संभव हो तो उसका फायदा उठाना पड़ेगा। 

शत्रु की जो ताकत है, उससे भी सिखने के लिए तैयार रहना होगा, तैयार नहीं होंगे तो हर बार हारेंगे। अगर वे लोक माध्यम का फायदा उठा सकते हैं, तो हम क्यों नहीं उठा सकते? काम इतना मुश्किल नहीं है। जो कम उम्र के युवा हैं, उनलोगों को आप सिखाइए। दादा जी शायद इतनी आसानी से नहीं कर पाएंगे, मगर जो काॅलेज-स्कूल में पढ़ रहे हैं, उनको कहिए, वे इसका इस्तेमाल कर सकते हैं। 

मैं समझता हूं कि जो खोजी पत्रकारिता है, उसके लिए पूरे विश्व में लोग पैसा देने को तैयार नहीं हैं। अगर लोक माध्यम की मुख्यधारा इसके लिए तैयार नहीं है, तो छोटी संस्थाओं और वैकल्पिक लोक माध्यमों का सहारा लेना पड़ेगा। एक छोटी सी संस्था है गोवा की- वीडियो वाॅलेंटियर्स। यह महिलाओं को सीखा रही है कि अगर आपका सरपंच, आपका हवलदार कुछ कह रहा है तो उसे आप चुपचाप रिकार्ड कर सकते हैं। वे सीखा रहे हैं कि कैसे मोबाइल के वीडियो का इस्तेमाल किया जा सकता है। तो वही जो मोबाइल फोन है, जिसका कोई दुरुपयोग कर रहा है, उसके अच्छे उपयोग का भी एक मौका है। आधुनिक सूचना प्रयुक्तियों के माध्यम से लोगों को कैसे संगठित किया जा सकता है, इसे सिखने और सीखाने की जरूरत है। यह भी महत्वपूर्ण काम है आज। 

जहां तक प्रधानमंत्री के ‘मन की बात’ है, तो उसमें हजारों सवालों में से चुनके वे देखेंगे कि किस सवाल का जवाब देंगे और किसका नहीं देेंगे। लेकिन फिर भी कभी कोई सवाल भारी पड़ जाता है। एक बार किसी ने सवाल उठा दिया रेडियो में कि विदेशी बैंकों में कितना पैसा है, तो मोदी जी को यह मानना पड़ा कि उन्हें नहीं मालूम है। जबकि यही व्यक्ति चुनाव के पहले कह रहा था कि हर भारतीय के लिए 15 लाख रुपया है। इसलिए ‘मन की बात’ में कोई सवाल नहीं लिया जा रहा, तो 100 लोगों से वही सवाल उठवाइए, जनधन योजना की बात उठाइए। सूचना अधिकार से पता चला कि जो पचहत्तर प्रतिशत नया बैंक खाता खुला उसमें एक रुपया भी नहीं है और ये वित्तीय समावेश की बात कर रहे हैं! ठीक है कि पुरानी सरकार ने भी इसी तरह के टारगेट ओरिएंटेड प्रोग्राम चलाए थे, जैसे कभी संजय गांधी ने नसबंदी का टारगेट बनाया था, वैसे ही टारगेट ओरिएंटेड प्रोग्राम चल रहा है। 
जहां तक सत्ता द्वारा को-आप्ट कर लेने की बात है, तो यह बहुत सालों से चल रहा है। कभी-कभी वे बेवकूफों की तरह भी ऐसा करते हैं। जैसे रामदेव को आमंत्रित करने के लिए तीन कैबिनेट मंत्री आए थे और वही रामदेव जब साड़ी पहनकर रात बारह बजे भाग गए तो वहां सरकार का एक आदमी भी नहीं था। देखिए पत्रकारों के को-आॅप्शन का काम बहुत सालों से चल रहा है और अभी भी चलेगा। यह कोशिश रहेगी कि जहां भी वे विरोध कर रहे हैं, पहला काम कि इन्हें घूस खिला दो, अगर वे पैसा नहीं चाहते, तो उनको शराब पिला दो, कहीं विदेश घूमा के लाओ। तो ये लालच दिखा के को-आॅप्ट करना, सत्ता में जो भी रहते हैं वे इसी में विश्वास करते हैं। विजय माल्या, मुकेश अंबानी, यह विश्वास करते हैं कि हर आदमी की कीमत होती है। इनके लिए यह विश्वास करना बहुत मुश्किल है कि सौ हवलदार में एक हवलदार अभी भी घूस नहीं लेता, सौ जजेज में एक जज अभी भी घूस नहीं लेता। हां, 100 में 99 पत्रकार को शराब पिला के, पांच सितारा होटल में खाना खिलाके आप जो कहेंगे, वही लिख देंगे, पर वे पत्रकार नहीं हैं, वे स्टेनोग्राफर हैं। 

मैं आशावादी हूं। हर मां चाहती है कि उसके संतान को बेहतर दुनिया मिले और जाहिर है कि उसकी मां ने भी यही चाहा होगा। मिस्टर मोदी आपको पंद्रह लाख देने को कह रहे हैं, मोदी कह रहे हैं कि भारतवर्ष के इतिहास में एक नया युग आ रहा है। मैं समझता हूं कि यह झूठा वादा है। आज से दो-चार साल बाद लोगों को मालूम पड़ेगा। शायद पांच साल बाद भी वे चुन के आ जाएं। पर जब वे कमजोर होंगे तो और भी खतरनाक हो जाएंगे, आप मेरी इस बात को भी सुन लीजिए।