Sunday, October 5, 2014

छोले का स्वाद और कविता की संवेदना

बात तो शुरू हुई थी मटर के छोले से, मगर उसके साथ कविता भी आ जुड़ी। और फिर कविता ही आगे आ गई और छोले का मौका उसके बाद आया। लेकिन जो आया तो क्या खूब आया! 
हुआ यह कि दोस्त संजय ने कहा कि चाची (यानी मेरी मामी) के हाथ से बनाए गए छोले खाए हुए बहुत दिन हो गए। मैंने उनसे पूछा तो वे बनाने के लिए सहर्ष तैयार हो गईं। अगला दिन विजयदशमी का था, यूं ही हमलोग घूमने निकले। नौजवान मूर्तियों को अपने मोबाइल कैमरे में कैद कर रहे थे, वीडियो बना रहे थे। हमलोग बस पंडाल देखते हुए निकलते जा रहे थे। आशुतोष पांडेय और मैं दो दिन पहले ही दुर्गा की मूर्तियां देख चुके थे। महंगाई का असर इस बार मूर्तियों की कद-काठी और भव्यता पर भी दिख रहा था। पंडालों के निर्माण में कुछ विविधता जरूर थी। एक जगह ब्रह्मकुमारी नाम से शुरू होने वाली एक संस्था ने लड़कियों को ही मूर्ति बना दिया था। बीच-बीच में वे स्लाइड शो के जरिए ज्ञान-वान का प्रचार कर रहे थे। इस बीच लड़कियों को आराम मिल जाता होगा। वहां जैसे ही हम पहुंचे उद्घोषक की आवाज सुनाई पड़ी कि लक्ष्मी ज्ञान और धन की देवी हैं और सरस्वती विद्या और न जाने क्या की, अब याद नहीं है। सुनील और आशुतोष ने भी इस पर ध्यान दिया। थोड़ी देर हम वहां रुके। प्रवचननुमा उद्घोषणा में जो अज्ञान और मूर्खता धड़ल्ले से जारी थी, उसे सुन पाना मुश्किल था। मजा लेने के ख्याल से भी रुकना संभव नहीं हुआ। हम आगे बढ़ चले। मैं सोच रहा था कि क्या बोल रहे हैं उस पर गौर करने  के बजाए आजकल धाराप्रवाह कुछ भी बोलना ही काबलियत हो गई है। नरेंद्र मोदी तो इस शैली का मास्टर है। हम आगे बढ़ चले। 
इसके लगभग दस मिनट बाद ही कवि सुनील श्रीवास्तव ने भारी भीड़ के बीच अचानक कहा कि इससे तो अच्छा होता कि हमलोग कहीं बैठकर एक-दूसरे की कविताएं सुनते। उसके बाद आगे कवि सुमन कुमार सिंह मिल गए। मैंने कहा कि कल ही एक-दूसरे की कविताएं सुनी जा सकती हैं। मैं फोन करूंगा। हम घरों को लौट रहे थे, तभी आशुतोष के मोबाइल पर किसी का मैसेज आया कि गांधी मैदान में भगदड़ मची है, बहुत लोग मरे हैं। अपने शहर में भी एक-दो जगह ऐसी भीड़ से हमारा सामना हुआ, जिसे कंट्रोल करने में पुलिस को काफी मशक्कत करनी पड़ रही थी। हमें लगा कि पटना की दुर्घटना के बाद प्रशासन को निर्देश आया होगा। 
3 अक्टूबर को सुबह रामजी भाई की कविता फेसबुक पर देखी, जो गांधी मैदान में भगदड़ की चपेट में आकर मरे बच्चों और महिलाओं के प्रति संवेदित होकर लिखी गई थी। इसी दुर्घटना को लेकर फेसबुक पर ही बड़ी ही क्रूरता के साथ लिखी गई कुछ टिप्पणियों, जिनमें आम लोगो की उत्सवधर्मिता या धार्मिकता को लेकर व्यंग्य किया गया या उपदेश दिया गया, के विपरीत रामजी भाई की कविता न केवल हमें मृतकों के परिजनों के दुख में साझीदार बनाती है, बल्कि बच्चों और स्त्रियों के प्रति भी संवेदनशील बनाती है और कोमल बच्चों की निगाह से उनकी सुरक्षा की वास्तविक फिक्र करने वाली महिलाओं- मां, बहन, फुआ.. के संवेदनशील चरित्र को प्रतिष्ठित करती है। बेशक वे बच्चों को बचाने की कोशिश में मारी गईं। वे अपना दायित्व निभाते हुए मारी गईं। इसी के बरक्स जब हम पूरी व्यवस्था और इसके संचालकों के बारे में सोचें तो लगता है कि वे अपने दायित्व से कितने बेखबर है, कितने संवेदनहीन है। 
शाम में जब कविता पाठ के लिए हम जुटे तो रामजी भाई की इस कविता का भी पाठ हुआ। आशुतोष पांडेय ने ‘वागर्थ’ में छपी विजया सिंह की दो कविताएं पढ़ीं, जो इराक और सीरिया के बच्चों के नाम लिखी गई हैं। इन कविताओं में भी बच्चों को उसी संवेदनशील निगाह से देखा गया है। बड़ा मौजूं सवाल उठाती हैं ये कविताएं- ये कैसे हाथ हैं जो/ बच्चों के गालों को/ बंदूकों से छू रहे हैं।
कविताओं में हमारे समय की असुरक्षा और जीवन-मृत्यु के बीच घटते फासले, तमाम व्यवस्थाजन्य विडंबनाओं जिनसे व्यक्ति का हर रोज साक्षात्कार होता है, उनका आना बहुत स्वाभाविक है। ‘यकीन’, ‘मेरे भीतर भी’, ‘समय नहीं था मेरे पास’ आदि कविताओं में सुनील श्रीवास्तव ने हमारे समय को इसी रूप में दर्ज किया है। उन्होंने ‘लड़कियों हंसो’ नामक कविता भी सुनाई जो स्त्रियों की आजादी और बराबरी का मजबूती से पक्ष लेती है। सुमन कुमार सिंह ने भी ‘चीखती मद्धम रोशनी’ शीर्षक कविता सुनाई, जो 16 दिसंबर 2012 को दिल्ली गैंगरेप के बाद उभरे देशव्यापी आंदोलन के दौर में लिखी गई थी। ‘तुम्हारे ठीये से मैं’, ‘ख्वाजासरा और मेरा देश’, ‘बूढ़ी होती मां’, ‘ओ अविरल गंगे’ आदि कविताएं सुनाई। ‘बता बेटे सूबे-पैगाम का सच/ ये साड़ी, शाल, मन-मनुहार का सच’ शीर्षक एक गीत भी उन्होंने सुनाया।
चित्रकार राकेश दिवाकर ने भोजपुरी और हिंदी- दोनों जबानों में रचित अपनी कविताओं का पाठ किया। ‘तकलीफ हजार बा’ से शुरू करके ‘यह गुलामी’ शीर्षक कविता तक, उन्होंने पूंजीपतियों का ड्रामा, जनविरोधी बाजार और उससे जुड़ी राजनीति  को अपनी कविताओं के जरिए निशाना बनाया। बकौल राकेश- यह गुलामी जो आजादी के आवरण में सजी है/ पसरी है धुर देहात से शहर-नगर। 
दोपहर में सुनने में आया था कि धर्म के ठेकेदार एक दल के लोग सुबह से यह प्रचार करने में लगे हुए थे कि आज मूर्तियों का विसर्जन नहीं करना है, यानी अगले दिन भी नहीं, क्योंकि रविवार को विसर्जन नहीं किया जाता। उनकी योजना थी, विसर्जन के दिन को सोमवार तक ले जाने की, जिस दिन बकरीद है। लेकिन प्रशासन के दबाव के कारण विसर्जन हो रहा था। कानफोड़ू संगीत की आवाजें दूर से हम तक भी आ रही थीं, लेकिन हम लोगों ने अपना ध्यान कविताओं को सुनने में लगा रखा था। आखिर में मैंने भी चार-पांच कविताएं सुनाईं। बीच भी भाषा, व्याकरण, लिंग-निर्णय को लेकर अच्छी खासी बहस भी हुई। मेरी कविता में भी एक गड़बड़ी पकड़ में आई, मैंने उसे तत्काल सुधार लिया। 
कविता पाठ जब खत्म हुआ, तब तक पेट में चूहे दौड़ने लगे थे। छोले आए। सबने सराह-सराह कर खाए। जिन्होंने बनाया, उनके चेहरे पर खुशी और संतुष्टि की लहर थी कि आज भी उनके हाथों का जादू बरकरार है, आज भी उनके बनाए छोले पहले ही जैसे स्वादिष्ट हैं। इस खुशी में प्याज के पकौड़े भी मिल गए। हालांकि आशुतोष पांडेय, जिन्होंने पहली बार इन छोलों का स्वाद चखा था, उन्होंने कहा कि पकौड़े के बजाए छोले ही दुबारा मिल जाते तो मजा आ जाता। चूंकि परिवार के सारे बच्चे भी इन छोलों के स्वाद के आकर्षण में खींचकर चले आए थे और जब कविता पाठ चल रहा था, उसी बीच वे अपना हिस्सा खाकर जा चुके थे, इस कारण अब दुबारा की कोई संभावना ही नहीं बची थी। हां, प्याज के पकौड़े भी आशुतोष समेत सभी दोस्तों ने उसी तरह चटखारे लेकर खाए। मूर्ति विसर्जन के कारण बिजली गायब थी। इस कारण हम छत पर बैठे थे। 
मामी को मैंने बताया कि अभी और छोले होते तो एक बार और खाए जाते। इस पर उन्होंने मेरे ही हवाले से याद दिलाते हुए बताया कि एक दिन मधुकर जी आए थे, तो उन्होंने दो बार छोले खाए और आपसे बाद में कहा कि मैं तो और मांगने की सोच रहा था, पर संकोचवश नहीं कह पाया। 
अब तो पुराना घर टूट गया है, जिसमें मधुकर जी अक्सर आते थे। ‘इस बार’ का संपादकीय पता भले धरहरा था, पर ज्यादातर कामकाज यहीं होता था। अब उसी पुराने घर की जमीन पर बने इस नए घर में मधुकर जी की यादें थीं। 
आजकल दुनिया में जाने कितनी महत्वाकांक्षाएं पैदा हो गई है, बाजार ने जाने कितने तरह के स्वाद और आकर्षण पैदा कर दिए हैं। राकेश की कविता इस ओर इशारा भी कर रही थी। लेकिन इन छोलों के स्वाद के आगे वे आकर्षण बेकार लग रहे थे। हमारे लिए यह स्वाद अप्रतिम है। यह स्वाद जहां है, शायद वहीं कहीं हमारी कविताओं की संवेदना के तत्व भी हैं, वहीं शायद साहित्य का भविष्य भी है।
यह ठीक है कि इस स्वाद को रचने वाली हमारी कविताओं को सुन नहीं रही थीं। लेकिन शायद वे कविता को रचने वालों को ज्यादा ठीक से जानती-समझती हैं। ऐसा नहीं है कि घर के कामकाम में लगी औरतों का अक्षरों से नाता नहीं होता। अभी एक पत्रिका आई, जिसमें मधुकर सिंह पर मेरा लेख था। मैं नहीं था, तो कोरियर वाला बगल के घर में उसे देकर चला गया। जानिए कि एक बच्ची जो स्नातक की छात्रा है और एक महिला जो गृहिणी हैं, दोनों उस पत्रिका को पढ़ गईं। वह पत्रिका सरिता या मनोरमा जैसी पत्रिका नहीं थी, जिन्हें औरतों की पत्रिका का दर्जा दे दिया गया था। उन्हें अवसर मिले तो वे सबकुछ पढ़ सकती हैं। मां जब थीं, तब वे मेरी तमाम पत्रिकाओं को उलटती-पुलटती रहती थीं। बातों-बातों में कभी किसी लेख या कहानी की चर्चा भी करती थीं। 

Thursday, October 2, 2014

कुबेर जी के स्मृति दिवस पर उनकी एक गज़ल


महलों से मुर्दघाट तक फैले हुए हैं आप

मखमल से लेके टाट तक फैले हुए हैं आप


बिजनेस बड़ा है आपका तारीफ क्या करें

मंदिर से लेके हाट तक फैले हुए हैं आप


सोना बिछाना ओढ़ना सब ख्वाब हो गए

डनलप पिलो से खाट तक फैले हुए हैं आप


ईमान तुल रहा है यहां कौडि़यों के मोल

भाषण से लेके बाट तक फैले हुए हैं आप


दरबारियों की भीड़ में जम्हूरियत का रक्स

आमद से लेके थाट तक फैले हुए हैं आप


जनता का शोर खूब है जनता कहीं नहीं

संसद से राजघाट तक फैले हुए हैं आप

                                     - कुबेर दत्त