बूढ़ी हो रही माँ
मंद-मंद मुस्कुराती
दाव देती
चिंताओं-चतुराइयों को
बूढी हो रही माँ
सहज ही छू लेने को
धरती
वह कमान हुई जा रही
वह बूढी हो रही
मुझे चलते देख तन कर
विश्वासपूर्वक।
ढिबरी
माँ
और उसके पीछे लगी रहनेवाली
अभागन छाया
दीपावली के दिन भी लगी रही
घर-बासन सहेजने-संवारने में
रोशनी की होड़ को
जैसे पहचानती हो
अच्छी तरह कि
घंटे-दो-घंटे से
अधिक नहीं टिकनेवाली
कि स्नेह की बाती
कुछ ही देर
टिमटिमा सकेगी
काबू भर
तुलसी चौरे पर
कहाँ आई लक्ष्मी?
वर्षों से टकटकी लगाये है
माँ
बाट जोह रहा
पूरा गाँव
अक्सर घंटे-दो-घंटे के लिए
गर आई भी, तो
वहीं धूम-धड़ाके,
उन्हीं व्यसनों के साथ
झूमती-लौटती
कहो कि ढिबरी थी
जिसे आजी ने सौंपा था
माँ को
पिता के खाँसी और बलगम की
उपज थी ढिबरी
अक्सर चौंधिया देनेवाली रोशनी
के मुंह
कालिख पोतनेवाली,
दिवाली की मदहोशी के
टूटते ही
काम आने की
माँ-सी उपस्थित
मिट्टी तेल से भरी
मिट्टी की महक के साथ
ढिबरी...।
(बोधि प्रकाशन से प्रकाशित कवि के पहले कविता संग्रह 'महज़ बिम्ब भर मैं' से)