Wednesday, May 13, 2015

समय के आंतक से जूझती कविता

यह समय अराजक है, एक विराट अकेलापन है यहां। धीरे-धीरे अप्रासंगिक और नष्ट होने का अहसास, उदासी, अवसाद, खालीपन, निर्वासन, अनिश्चितता, भूलभुलैया, धुंधलका इस समय के कुछ खास लक्षण हैं। मनोज शर्मा के नए कविता संग्रह ‘ऐसे समय में...’ की अधिकांश कविताएं आज के समय को लेकर विमर्श रचती हैं। कवि ने लिखा है- ‘‘रोबदार, आकर्षक और तुंदियल तरक्कियों के बावजूद/ ये आजादी के बाद की/ सबसे कमबख्त घडि़यां थीं।’’ ‘‘गांवों/कस्बों की ओर/ तेजी से भागतीं ये बेपरवाह, दोगली घडि़यां थीं/ लटरमस्त औ’ पस्त लोगों के हाथों में थे/ कागज के फूल, अजीबोगरीब ब्रांड व नुकीले,/ चमकीले, फुसफुसे चमत्कार/ कुछ प्लास्टिक कार्ड थे/ रेडीमेड किस्म के लजीज खाने, मसाज-पार्लर, वल्र्ड टूअर,/ आलीशान गाडियां, नगदार आभूषण, रेजाॅर्ट वगैरह...’’ 

जाहिर है यह जो समय है, वह कवि द्वारा देखे गए सपनों के विपरीत है। इस समय ने उसे बेचैन कर रखा है- ‘‘यह इक्कीसवीं सदी की बीतती हुई ऐसी शाम थी/ जब हड्डियों तक को चीटिंया लगनी शुरू हो गई थीं/ बाजार ऐसी-ऐसी चीजों से अटे पड़े थे जो/ एकाध घंटे में पुराने पड़ जाते/ रोटी-पानी मुहाल बनाए जा चुके थे, जबकि/ धर्म बताशे की तरह आसान था/ राष्ट्र के नाम पर/ कुनबे के कुनबे जिंदा जलाए जाने का रिवाज स्थायी हो चुका था’’ (नाच)

डर और आशंकाओं से मनुष्य भीषण रूप से आक्रांत हैं- ‘‘आने वाली घड़ी में क्या घट जाएगा/ मौजूदा दौर का ऐसा बीज प्रश्न है/ जो किसी भी दर्शन की बखिया उधेड़ देता है।’’ (उतरती हुई हवा) हर चीज से ही मानो भरोसा उठ गया है- ‘सुख भी नकली/ दुख भी नकली/ नकली अपनों की चीख/ किसको ढो लें/ किसको खोलें/ किसे कहें सब ठीक।’’ (सब बात) यह ऐसा दौर है जिसमें दिलचस्पी नामक शब्द ने अपने ही हाथों अपना मुंह नोच लिया है, जहां ‘कौतूहल को मार गया है काठ/ जिज्ञासा को जंग/ अनमने, बुझे-बुझे, स्खलित चेहरे हैं’, जहां ‘हरेक उम्मीद पर/ पहले से अधिक जोर लगने लगा है’। 

ऐसे हताशा से भरे समय में अगर कवि पीछे छूट चुके शहर की ओर लौटता है, वहां अपनी पहचान तलाशता है और साथियों को पुकार-पुकारकर थक जाता है, तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं लगता। बेशक इस समय के चांद से पुराने समय का चांद बेहतर लगता है, पर उसे वापस पाया नहीं जा सकता, उसकी याद के सहारे समय को बेहतर जरूर बनाया जा सकता है। और ऐसी स्मृतियां हैं मनोज शर्मा की कविताओं में, यह बड़ी बात है। साथ ही इन कविताओं में मेहनतकशों की जिजीविषा से भरी ‘सांस’ है, स्त्रियों की जिंदगी का संघर्ष है, उस नमी की याद और तलाश है जिससे उगते हैं अग्निकण, प्रतिकूल हवा के बावजूद ‘कुछ हटकर करने की इच्छा बल खाती है’ इनमें अब भी, सांप्रदायिक कातिल राष्ट्रप्रेम की काव्यभाषा पर सवाल है और ‘भाषा में प्रेम’ की अभिव्यक्ति और इस दुनिया को खूबसूरत कहने की चाह है, जिनसे मौजूदा समय के आतंक से टकराने का हौसला मिलता है। 

नई पीढ़ी के नाम कवि का सीधा संदेश है- ‘बेटे/ यह शिकारियों के बीच आ खड़े होने का समय है।’ उसके कुछ आग्रह भी उनसे हैं- ‘‘तुम/ इस समय पर सोचते हुए/ अपने पुरखों के बारे में जरूर सोचना/ और पेड़ों, पहाड़ों, नदियों व उन तमाम/ जीव-जंतुओं के बारे में/ जो मनुष्य के हितैषी रहे हैं।’’

मौजूदा समय की विडंबनाओं को ओमप्रकाश मिश्र के संग्रह ‘मामूली बात नहीं’ की कविताओं में भी देखा जा सकता है। वे लिखते हैं- ‘‘वह हिरण के समान/ कुलांचे भरना चाहता है/ पर उसके सींग झाडि़यों में फंसे हैं/ सिंह के समान निर्द्वन्द्व, निर्भय/ वन प्रांतर में विचरण करना चाहता है/ मगर उसके बच्चे/ शिकारियों के कब्जे में हैं।’’

यह समय कितना मुश्किल है इसे उनकी इन पंक्तियों के जरिए समझा जा सकता है- ‘‘चीते की तरह दौड़ती/ इस दुनिया में/ हिरन-सा बच जाना/ मामूली बात नहीं।’’ ठीक इसी तरह का भाव मनोज शर्मा की कविता में भी मिलता है- ‘यही क्या कम है कि/ बचा हुआ हूं...’ (बचा हुआ मैं महफूज)। लेकिन यह सिर्फ किसी एक व्यक्ति का बचना मात्र नहीं है। 

ओमप्रकाश मिश्र की कविता के हवाले से कहें तो यह हरेक हार के बाद जीत की थोड़ी सी आग का भी बचना है। उनकी कविताओं में आम आदमी की दैनंदिन मुश्किलें और संघर्ष, उसके सवाल और जनविरोधी समय को रचने वालों के चेहरे बिल्कुल स्पष्ट हैं। वे अपनी कविता में यह दर्ज करते हैं कि ‘‘ऐसे समय में जब/ टूट-टूटकर बिखर रहे/ आस्थाओं के बुर्ज/ उम्मीदों के कंगूरे/ नदियां विशाल रेगिस्तान में/ पछाड़ें खातीं माथा पटक रहीं/ सदाबहार वन/ दावानल की भंेट चढ़ चुका/ सूर्य की किरणों के सहारे/ आ रहा कोई मानवद्रोही।’’ (व्यथा कथा)

ओमप्रकाश मिश्र की कविताओं में जो गरीब आदमी या आम जन है, उसके मन में सवाल है कि उसके जनप्रतिनिधि दिन-प्रतिदिन कैसे समृद्ध से समृद्धशाली होते जा रहे हैं और वह गरीब से भिखार कैसे होता जा रहा है। उनकी कविता शासकवर्ग के विकास के पाखंड का पर्दाफाश करती है- ‘‘देश की आर्थिक योजनाएं/ उसी को ध्यान में रख, बनाई गई/ उसके विकास के मुद्दे पर/ लड़े गए कई आम चुनाव/ कल्याण के लिए उसके/ कई ठेकदार, अपराधी, माफिया, डाॅन/ दिग्गज साधु संत, राजघराने के लोग/ पहुंच गए संसद/ बदल गई उनकी किस्मत/ मगर अफसोस/ आज भी जस का तस है/ जनतंत्र का आखिरी आदमी।’’

जो ‘हत्यारा’ ‘शासक’ है, उसकी युद्धलिप्सा, जनतंत्र और जनकल्याण के उसके पाखंड और पूंजीवाद से उसके रिश्ते को ओमप्रकाश मिश्र की कविताएं बखूबी उजागर करती हैं और उनकी विभाजनकारी राजनीति से सावधान करती है। इनकी कविताएं मेहनतकशों से सीखने की बात भी करती हैं और इनमें इतिहास की यह समझ भी है कि जनता के सपनों को कोई खत्म नहीं कर सकता। वे पृथ्वी पर हवा, मिट्टी, पानी की तरह रहेंगे।

जनता के सपनों और संघर्षों से जुड़ी कविताओं की एक सुदीर्घ परंपरा रही है, जिससे वरिष्ठ कवि-आलोचक रामनिहाल गुंजन के नए कविता संग्रह ‘समयांतर और अन्य कविताएं’ को पढ़ते हुए साक्षात्कार होता है। उनके इस संग्रह में निराला, मुक्तिबोध, शमशेर, नवारुण भट्टाचार्य, गोरख पांडेय और धूमिल जैसे क्रांतिकारी कवियों, प्रसिद्ध आलोचक रामचंद्र शुक्ल और व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई पर लिखी गई कविताएं भी शामिल हैं। एक कविता में वे लिखते हैं- ‘‘धूमिल के गांव से लौटकर/ मैंने महसूस किया कि/ यही असली समय है/ जबकि सोचा जा सकता है/ शब्दों की सक्रियता/ और/ मुनासिब कार्रवाई के बारे में।’’

रामनिहाल गुंजन की कविताओं को पढ़ते हुए महसूस होता है कि जनता का संघर्ष ही नहीं, बल्कि बदलाव के लिए उसके संघर्ष को आवाज देने वाली कविता भी भविष्य के जनसंघर्षों और भविष्य की कविता के लिए ऊर्जा का काम कर सकती है। उनकी कविता इसे भी चिह्नित करती है कि तानाशाह शब्दों का कारोबार करना चाहता है, उसे तोड़मरोड़ कर पूरे बाजार में फैलाता है, लेकिन फिर भी शब्दों से दुनिया के सभी छोटे बड़े-तानाशाह डरते हैं। इसीलिए ‘किताबें’ उनकी कविता में एक भरोसे की तरह आती हैं- ‘आदमी रहता है जिंदा/ अपने सपनों के साथ ही/ और किताबें उसमें/ जगाती हैं नए-नए सपने/ किताबें ही रह जाती हैं जीवित/ आने वाले समयों में भी।’’

‘आने वाला समय’ कविता में अपने समय के एक महान कवि को याद करते हुए रामनिहाल गुंजन ने लिखा है- ‘‘उस कवि ने/ आखिरी सांस लेते हुए कहा था-/ आने वाला समय/ उन ईमानदार लोगों का होगा/ जिनकी नजरों में/ न कोई छोटा होगा, न बड़ा/ होंगे सभी बराबर/ और खुशहाल/ उस कवि के नहीं होने के बावजूद/ उसकी आवाजें/ जो उसकी कविताओं में बंद थीं/ कर रही हैं पीछा पल-प्रतिपल/ गोया यही वक्त मौजूं है/ धारदार कविता/ लिखने के लिए।’’ ‘मेरा घर’ कविता, जिसमें मुल्क को एक बड़ा घर बताया गया है, में भी बराबरी का स्वप्न नजर आता है। यही स्वप्न है, जो कवि को ‘भोजपुर’, ‘नंदीग्राम’ और ‘लाल किताब’ जैसी कविताएं लिखने को प्रेरित करता है।
-सुधीर सुमन
(जनमत फरवरी 2015 में प्रकाशित)


ऐसे समय में: मनोज शर्मा
मूल्य: 200 रुपये
यूनिस्टार बुक्स प्रा. लि.
चंडीगढ़-160022

मामूली बात नहीं: ओमप्रकाश मिश्र
मूल्य: 100 रुपये
उद्भावना प्रकाशन, सेकटर-23, 
गाजियाबाद

समयांतर और अन्य कविताएं
रामनिहाल गुंजन
मूल्य: 100 रुपये
आरोही, सेक्टर-11, रोहिणी, नई दिल्ली-85










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