Sunday, October 29, 2017

रमाकांत द्विवेदी रमता के गीत



हो गइले दीवाना
सुरजवा के कारण छैला हो गइले दीवाना
खद्दर पहिर के धइले भेस फकिराना
लाठी सहे, हंटर सहे, लाख-लाख गाली सहे
पुलिस-दारोगा के सहेले तीखे ताना
देखि के जुलुम बैमान अंगरेजवन के
बागी बन के गावेलें आजादी के तराना
चेत-चेत भारत के भाई हो-बहिनिया हो
तोड़ ई हुकूमत सुंदर आइल बा जमाना
कहे रमाकांत राज होई पंचाइत के
जरि जइहें आग में कचहरी अवरू थाना
19.1.1942


विद्रोही

रूढ़िवाद का घोर विरोधी, परिपाटी का नाशक हूं
नई रोशनी का उपासक, विप्लव का विकट उपासक हूं
प्राचीनता की चिता-भस्म से प्रतिमा नई बनाता हूं
नई कल्पना के सुमनों से रच-रच उसे सजाता हूं
मैं तो चला आज, जिस पथ पर भगत गए, आजाद गए
खुदीराम-सुखदेव-राजगुरु-बिस्मिल रामप्रसाद गए
ममता शेष नहीं जीवन की बीत मृदुल अरमान गए
मैं तो आज बना विद्रोही, जग के झूठे मान गए
सिंधु सलिल को क्षार करूं, वह बड़वानल की ज्वाला हूं
शंकर का भी कंठ जला दूं, काल कूट का प्याला हूं
हंसी उड़ाऊं कानूनों की, वह बांका मतवाला हूं
शासन सत्ता की आंखों में सदा खटकने वाला हूं
कठिन पंथ है मेरे आगे, पर इसकी परवाह नहीं
मुझे जरूरत है वीरों की, भयभीतों की चाह नहीं
असंतोष की आग नहीं, यह विप्लव की तैयारी है
आए मेरे साथ कि जिसको सजा मौत की प्यारी है
भस्मसात कर दूं दुनिया को, धूमकेतु का तारा हंू
पल में बरस बहा दूं जग को, प्रलय जलद की धारा हूं
जोश फूंक दूं मुर्दों में, वह महाक्रांति का नारा हूं
दुश्मन दल की ताकत पर आघात कराल करारा हूं
नहीं कल्पना के घोड़े पर बैठ हवाखोरी करता
उससे घृणा असीम, मौत से बिना लड़े ही जो मरता
मैं न हवाई महल बनाता, ठोस काम भाता मुझको
सुलह-बुझारत नहीं सुहाती, लड़ना बस आता मुझको
1943



नई जिंदगी
हम मरते नई जिंदगी पर, तस्वीर पुरानी रहने दे
नस-नस में भरी जवानी है, शमशीर पुरानी रहने दे

तूफान छुपाये कानों को, रुनझुन से बहलाना कैसा
हम झाड़ जिसे आये पथ में, जंजीर पुरानी रहने दे
रे कलम चलाने वाले, अब बेकार सभी कोशिश तेरी
निर्माण हमारे कदमों में, तकदीर पुरानी रहने दे
24.4.1950


गांव के बतकही
गांव-गांव के लोग आज बस इहे बात बतिआवत बा
बीती दुख के समय, जमाना मन लायक आवत बा
उहे बनी मालिक जमीन के, जे हर-फार चलावत बा
अपना हाथे कुटी काटि के भोरे बैल खिलावत बा
उहे बनी मालिक मशीन के चक्का जवन चलावत बा
किसिम-किसिम के चीज बनाके कहां-कहां पहुंचावत बा
अब अइसन अन्हेर ना रही कि केहू खटते खटत मरी
केहू मुफुते बाबू बनि के शान बघारी-मउज करी
11.12.51

किसान
जहवां न उजहल खगड़ा-धमोइया, ओही खेते उपजेला धान
ओही खेते गेहूं-बूंट-रहर-मटरन-जव, ओही खेते गड़ेला मचान
छिछिलेदर फूंटिया सियरवो ना पूछे, बांस नियन मकई के थान
जेकर पसेना बूंन मोती झरि लावेला, सभे के जियावेला किसान
खेतही मड़इया मड़उवे के छाजन, बांसवा के उटुंग मचान
सावन-भदउआ के रतिया भेयावन, लउर लेके सूतेला चितान
सनसन पुरवा के लरहा झटासेला, तबहूं ना जागेला नादान
‘पट’ सेनी ओही आरी करेला सहिलिया, चिहुंकि के फानेला जवान
हंसुआ-खुरुपिया-कुदारी-हर-हेंगा लेके, दिन में करेला घमसान
ठेहा पर चूकामूका बइठेला गंड़ासी लेके, जसही होखेला मुंह लुकान
मंस-डंस, पिलुआ-पताई के ना फिकिर करे, छनकल राखेला बथान
पिछिली पहर लोही लागेले पहिलकी, ओही राति जागेला किसान
जेठ के झरक, झाराझरी चाहे सावन के, माघ के टुसार मारे जान
कवनो जुगुतिये दइब बिलमावे, जनमे से मेहनत के बान
एही रे धरतिया प बाप-दादा रहले, दूधे-दही कइले असनान
कवन कमाई राम, आजु चूक गइलीं कि फुटहा के छछने किसान
जेकरा धरमे चमकत बाटे ईंटा-ईंटा, गछियोले ऊंचे-ऊंच मकान
धरती से बड़ी दूर, बदरियो से ऊपर, चिल्हि अइसन उड़ता विमान
आदिमी के हुकुम बजावेले मशीनिया कि रोजे रोजे बढ़े बिगेयान
कवनि कमाई राम, आजु चूकि गइलीं कि देखि-देखि तरसे किसान
जेकरा धरमे बसे शहर-बजरिया, दिने दिन बढ़ती प शान
जेकरा धरमे अनमन रंग चीजवा से चमचम चमके दोकान
जेकरा धरमे झारि लामी-लामी धोतिया आदमी कहावे बबुआन
कवनि कमाई राम, आजु चूकि गइलीं कि गंवंई में दुखिया किसान
30.7.52


बेयालिस के साथी
साथी, ऊ दिन परल इयाद, नयन भरि आइल ए साथी
गरजे-तड़के-चमके-बरसे, घटा भयावन कारी
आपन हाथ आपु ना सूझे, अइसन रात अन्हारी
चारों ओर भइल पंजंजल, ऊ भादो-भदवारी
डेग-डेग गोड़ बिछिलाइल, फनलीं कठिन कियारी
केहि आशा वन-वन फिरलीं छिछिआइल ए साथी
हाथे कड़ी, पांव में बेड़ी, डांड़े रसी बन्हाइल
बिना कसूर मूंज के अइसन, लाठिन देह थुराइल
सूपो चालन कुरुक करा के जुरुमाना वसुलाइल
बड़ा धरछने आइल, बाकी ऊ सुराज ना आइल
जवना खातिर तेरहो करम पुराइल ए साथी
भूखे-पेट बिसूरे लइका, समुझे ना समुझावे
गांथि लुगरिया रनिया, झुखे, लाजो देखि लजावे
बिनु किवांड़ घर कूकुर पइसे, ले छुंछहंड़ ढिमिलावे
रात-रात भर सोच-फिकिर में आंखों नींन न आवे
ई दुख सहल न जाइ कि मन उबिआइल ए साथी
क्रूर-संघाती राज हड़पले, भरि मुंह ना बतिआवसु
हमरे बल से कुरसी तूरसु, हमके आंखि देखावसु
दिन-दिन एने बढ़े मुसीबत, ओने मउज उड़ावसु
पाथर बोझल नाव भवंर में, दइबे पार लगावसु
सजगे! इन्हिको अंत काल नगिचाइल ए साथी
8.6.53



हरवाह-बटोही संवाद
हरवा जोतत बाड़े भइया हरवहवा कि आग लेखा बरिसेला घाम
तर-तर चूबेला पसेनवा रे भइया कि तनिए सा करिले आराम
चुप रहु, बुझबे ना तेहूं रे बटोहिया कि राहे-राहे धरती के ताल
जइसे चूवे तन के पसेना रे बटोहिया कि ओइसे बढ़े धरती के हाल
हरवा जोतत बाड़े भइया हरवहवा कि सहि-सहि बरखा ले घाम
कबहूं ना भरिपेट खइले करमजरूआ कि झूलि गइले ठटरी के चाम
हरवा जोतत मोरि जिनिगि सिरइली कि हरवा से नान्हें पिरीति
भरी छुधा जिनिगी में कहियो ना खइलीं कि इहे तोरा देशवा के रीति
खेतवा में बोईं ले जे बारहो बिरिहिनी कि लागेला जम्हार लेखा चास
कवना करमवां के चूक भइया हितवा, कि बाले-बचे सूतीं ले उपास
जोत-कोड़ कमती ना गंगा बढ़िअइली कि परुए से भइल ना सुखार
कवना करमवां में चूकलीं रे दइबा, कि तेहू पर रहलीं भिखार
देशवा के नांव लेले भइया हरवहवा, कि देशवा में बड़का के राज
हमनी का भइलीं रामा गुलर के पिलुआ कि बड़का भइले दगाबाज
भइल बाटे तलफी भुंभरिया रे भइया कि हाली-हाली डेगवा बढ़ाउ
बोलिया जे बोलले पिरीतिया के भइया कि छंहरी बइठि बतिआउ
जेठ-बइशाखवा के अइन दुपहरिया कि रोएं-रोएं मार तारे धाह
मोरा लेखे भइया रे, दुनिया उलटली कि तोरा लेखे बबुरी तर छांह
14.8.54

कुंवर सिंह
झांझर भारत के नइया खेवनहार कुंवर सिंह
आजादी के सपना के सिरिजनहार कुंवर सिंह

इतिहास के होला सांपे लेखा टेढ़टाढ़ चाल
कभी सूतेला निहाल, कभी उठेला बेहाल
बढ़ल आपस के फूट, देश हो गइल पैमाल
गांवे-नगरे फएल गइल कंपनी के जाल

मने-मने करत रहन सब विचार कुंवर सिंह
अपना देश खातिर पोसत रहन प्यार कुंवर सिंह

देखत-देखत ढाका-काशी के उजार हो गइल
लंकाशायर-मैनचेस्टर के सुतार हो गइल
अने-धने भरल-पुरल, से भिखार हो गइल
भूखड़ टापू इंगलैंड गुलजार हो गइल

चुपे चुपे होत रहन तइयार कुंवर सिंह
खीसी जरत रहन एंड़ी से कपार कुंवर सिंह

जब अनमोल कलाकार के अंगूठा कटाई
आ, बलाते जब सोहागिनी के जेवर छिनाई
दिने दूपहर सड़क पर जबकि इज्जत लुटाई
अइसन के होइ, करेजा जेकर फाट ना जाई

आंख फार के देखले लूट-मार कुंवर सिंह
कान पात के सुनले हाहाकार कुंवर सिंह

भारत माता के अचक्के में पुकार हो गइल
खीस दबल रहे भीतर से उघार हो गइल
बाढ़ आइल अइसन जोश के, दहार हो गइल
बात बढ़त-बढ़त आखिर में जूझार हो गइल

देशी फउज के बनले सरदार कुंवर सिंह
अपना देश के भइले रखवार कुंवर सिंह

रहे मोछ ना, उ बरछी के नोक रहे रे
तरूआरे अइसन तेगा अइसन चोख रहे रे
कसल सोटा अइसन देह, मन शोख रहे रे
अइसन वीर जनमावल, धनी कोख रहे रे

ओह बुढ़ारी में जवानी के उभार कुंवर सिंह
अलबेला रे बछेड़ा असवार कुंवर सिंह
गइल जिनिगी अनेर, जब निशानी ना रहल
सवंसार के जवान प’ कहानी ना रहल
जिअल-मुअल दूनों एक, जब बदानी ना रहल
छिया-छिया रे जवानी, जबकि पानी ना रहल
हुंहुंकार के सुनवले ललकार कुंवर सिंह
रने वन मचवले धुआंधार कुंवर सिंह

होश बड़े-बड़े वीर के ठेकाने ना रहल
तोप, गोला के, बनूक के कवनो माने ना रहल
केकरो हाथ, गोड़, नाक, केकरो काने ना रहल
लागल एको झापड़, ओकरा तराने ना रहल

छपाछप फेरसु चारो ओर दुधार कुंवर सिंह
नीचे खून के बहवले पवनार कुंवर सिंह
होला ईंट के उत्तर पत्थर से देवे के जबाना
कस के दुशमन से बदला लेवे के जबाना
कभी छिप के, कभी परगट लड़े के जबाना
कभी हटे के, आ, कबहीं बढ़े के जबाना

रहन अइसन फन में खूबे हुंसियार कुंवर सिंह
राते रात करस अस्सी कोश ले पार कुंवर सिंह
अधिकार पा के मुरुख मतवाला हो जाला
रउआ कतनो मनाई, सुर्तवाला हो जाला
देश जागेला त दुनिया में हाला हो जाला
कंपनी का? परलामेंट के देवाला हो जाला

एह विचार के सिखवले बेवहार कुंवर सिंह
जगदीशपुर के माटी के सिंगार कुंवर सिंह

खांव गेहूं चाहे रहे एहूं दूनों सांझे पेट
दान मुटठी खोल के होय, चाहे खाली रहे टेंट
बांह देश के उधारे, चाहे गंगाजी के भेंट
मान कायम रहे, जीवन लीला ले समेट

अस्सी बरिस के भोजपुरी चमत्कार कुंवर सिंह
लक्ष्मीबाई-तंतिया-नाना के इयार कुंवर सिंह
23. 4. 55


टपान
बाटे टपान बस इहे, कदम बढ़ा के चल

आवे दे, का भइल अगर तूफान आ गइल
बिछिली भइल अन्हार में, बरखा बरिस गइल
बिजुरी सुझाई राह, तनि नोंह गड़ा के चल
साथी-समाज ना छूटे, कसिके हंकार ले
के दो गिरे-गिरे भइल, धइले-संभार ले
नइ के उठाउ, अब बा, कान्हा चढ़ाके चल


खेवा-खरच ओरा गइल, चिंता के बात का
पेटे भइल पहाड़ त, शिव के जमात का
हिम्मत न हार, जान के बाजी लड़ाके चल

फाटी कुहेस, सब घरी अन्हार ना रही
फहरी निशान जय के, झुर-झुर पवन बही
जिनिगी के बिपत-बिघिन के, कबड्डी पढ़ाके चल

24.8.56


जिंदा शहीद

अरे नौजवान, तुम्हें क्या बताएं
कि किन मुश्किलों से आजादी ले आए

गजब जुल्म की आधियां चल रही थीं
कयामत की उमड़ी थीं सौ-सौ घटाएं
जमीं धंस रही, आसमां फट रहा
जान पर आ पड़ी, कांपती थीं दिशाएं

मगर हम थे ऐसे कि चट्टान जैसे
अड़े रह गए, ना तनिक डगमगाए

अजब बेरहम हो गई थी हुकूमत
अजब बेबसी का था जालिम जमाना
हम अपने ही घर से बेदखल यूं हुए थे
कि मरघट में भी था न अपना ठिकाना

जो थे गैर, वे तो भले गैर थे ही
जो अपने भी थे, हो गए थे पराए

मिटे जा रहे थे घरों के घिरौंदे
कुटुंब और कबीले छुटे जा रहे थे
मगर एक धुन के हजारों दीवाने
कहीं एक लय पर जुटे जा रहे थे

तमन्ना थी, गोरी हुकूमत मिटा के
गरीबों की देशी हुकूमत बनाएं

सभा चल रही थी, जुलूस चल रहा था
अहिंसा का आदर्श भी चल रहा था
चले जा रहे थे बढ़े डेपुटेशन
सुलह का परामर्श भी चल रहा था

मगर हमने देखा कि बेकार है सब
तो आखिर बगावत का झंडा उठाए

सजा कर के बलिवेदियां अपने हाथों से
सर पे लपेटे कफन हम खड़े थे
फिरंगी उधर था मशीनों के पीछे
इधर शाम में हम निहत्थे अड़े थे

बरसती थी गोली धुआंधार लेकिन
बढ़े पांव हमने न पीछे हटाए

अभी हाथ में चिह्न हैं हथकड़ी के
अभी पांव में बेड़ियों के हैं घट्ठे
कभी देख लेना खुला जब बदन हो
कि हैं बेंत के दाग कितने इकट्ठे

मगर यह न समझो कि हम रो पड़े थे
सदा मौज में हम रहे, गीत गाए

बढ़े जा रहे हों नए टैक्स दिन-दिन
कि लाचार जनता मरी जा रही हो
करोड़ों को रोटी-लंगोटी न हो, पर
अमीरों की थैली भरी जा रही हो

बताओ तुम्हीं नौजवानों, कि ऐसे में
कैसे कोई रह सके चुप लगाए

जहां न्याय नीलाम होता हो खुल कर
जहां रिश्वतों का ही हो बोलबाला
हर आॅफिस जहां डाकुओं का हो अड्डा
औ’ कानून का पिट गया हो दिवाला

थी ऐसी हुकूमत की साया से नफरत
हम ऐसी हुकूमत की धज्जी उड़ाए

29.4.59


नक्सलबाड़ी की जय

चला दमन का चक्र, छेड़ सोता सिंह जगाओ
धरती के भूखे कृषकों तक, राजनीति पहुंचाओ

लाठी-गोली-जेल-सेल से, जनता नहीं डरेगी
छोटी चिनगारी सारे, जंगल को क्षार करेगी

जमींदार-सेठों के टुकड़खोर, तुम्हारी क्षय हो
धरती के बेटों की जय, नक्सलबाड़ी की जय हो

8.8.67


सरकारी हिंसा हिंसा न भवति                                                                                                                          
भुनते रोज गोलियों से सौ-सौ भूखे मजदूर-किसान
भुनते रोज गोलियों से अन्याय विरोधी छात्र-जवान
नारि-पुरुष, बच्चे-बूढ़े तक घेर जलाए जाते हैं
अक्सर गांव-नगर में लंकाकांड रचाए जाते हैं

लेकिन यह सरकारी हिंसा, तो कानूनी हिंसा है
चाहे जितनी गर्दन काटो, सौ फीसदी अहिंसा है

मगर दूसरे उबल पड़ें तो कुल विकास रुक जाते हैं
मिट जाती एकता, देश पर खतरे आ मड़राते हैं
सत्ता के सारे ही भोंपू, पहले से रहते तैयार
गला फाड़ चिल्ला उठते हैं, ‘‘प्रजातंत्र डूबा मझधार’’

4.2.75



धनवान इजाजत ना देगा
जीने के लिए कोई बागी बने, धनवान इजाजत ना देगा
कोई धर्म इजाजत ना देगा, भगवान इजाजत ना देगा

रोजी के लिए-रोटी के लिए, इज्जत के लिए कानून नहीं
यह दर्द मिटाने की खातिर, मिल्लत के लिए कानून नहीं
कानून नया गढ़ने के लिए, जिंदगी की तरफ बढ़ने के लिए
गद्दी से चिपककर फूला हुआ शैतान इजाजत ना देगा

जो समाज बदलने को निकले, बे-पढ़ो में चले, पिछड़ों में चले
फुटपाथ पे सोनेवालों में, और उजड़े हुए झोंपड़ों में चले
कुर्सी-टेबुल-पंखे के लिए जो कलमफरोशी करता है
बदलाव की खातिर सोच की वह विद्वान इजाजत ना देगा

20.4.82


रे कुचाली

थोरे दिनवां ना रे कुचाली, थोरे दिनवां ना
जनाले आपन जारी रे, थोरे दिनवां ना

डाका-चोरी, छीना-छोरी, लूट-मार-हत्यारी रे
सब अबगुन आगर जनमवलस कइसन बाप मतारी रे

लुच्चा-लंपट-लुकड़-पियक्कड़, सबके खातिरदारी रे
दुनिया भर के गुंडन खातिर तोरे घर ससुरारी रे

तोरा घर में अड्डा मारे पुलिस, लंठ, व्याभिचारी रे
निमन सिखावन सीखत होइहें बेटा, बेटी, नारी रे

खल से प्रीति, बैर भल मन से, जनता से बरिआरी रे
देशभक्त पर, जनसेवक पर हमला, निंदा, गारी रे

गांव-जवार, पड़ोसा-टोला सबके दुश्मन भारी रे
जे भी आपन हक पद चिन्हे, कहिदे नक्सलवारी रे

का करिहें बंदूक-रायफल, बडीगार्ड सरकारी रे
तोरा कुल के जरि से कोड़ी पीजल लाल कुदारी रे

4.2.83

अइसन गांव बना दे
अइसन गांव बना दे, जहां अत्याचार ना रहे
जहां सपनों में जालिम जमींदार ना रहे

सबके मिले भर पेट दाना, सब के रहे के ठेकाना
कोई बस्तर बिना लंगटे- उघार ना रहे
सभे करे मिल-जुल काम, पावे पूरा श्रम के दाम
कोई केहू के कमाई लूटनिहार ना रहे

सभे करे सब के मान, गावे एकता के गान
कोई केहू के कुबोली बोलनिहार ना रहे

18.3.83


त हम का करीं
क्रांति के रागिनी हम त गइबे करब
केहू का ना सोहाला त हम का करीं
लाल झंडा हवा में उड़़इबे करब
केहू जरिके बुताला त हम का करीं

केहू दिन-रात खटलो प’ भूखे मरे
केहू बइठल मलाई से नाश्ता करे
केहू टुटही मड़इया में दिन काटता
केहू कोठा-अटारी में जलसा करे

ई ना बरम्हा के टांकी ह तकदीर में
ई त बैमान-धूर्तन के करसाज ह
हम ढकोसला के परदा उठइबे करब
केहू फजिहत हो जाला त हम का करीं

ह ई मालिक ना, जालिम जमींदार ह
खून सोखा ह, लंपट ह, हत्यार ह
ह ई समराजी पूंजी के देशी दलाल
टाटा-बिड़ला ह, बड़का पूंजीदार ह

ह ई इन्हने के कुकुर वफादार ह
देश बेचू ह, सांसद ह, सरकार ह
सबके अंगुरी देखा के चिन्हइबे करब
केहू सकदम हो जाला त हम का करीं

सौ में पंचानबे लोग दुख भोगता
सौ में पांचे सब जिनिगी के सुख भोगता
ओही पांचे के हक में पुलिस-फौज बा
दिल्ली-पटना से हाकिम-हुकुम होखता

ओही पांचे के चलती बा एह राज में
ऊहे सबके तरक्की के राह रोकता
ऊहे दुश्मन ह, डंका बजइबे करब
केहू का धड़का समाला त हम का करीं
30.1.83


भारत जननि तेरी जय हो
(राग वागेश्वरी, झपताल)

भारत जननि! तेरी जय, तेरी जय हो

हों वीर, रणधीर तेरी सु-संतान
तेरी सभी संकटों पर विजय हो

आजाद, अस्फाक, बिस्मिल, खुदीराम
उधम, भगत सिंह का फिर उदय हो

चारू की, राजू की, किस्टा-भुमैया की
जौहर की आवाज गुंजित अभय हो

जनगण हों आजाद, कायम हो जनवाद
सत्ता निरंकुश का अंतिम प्रलय हो
18.2.1984

भटकल गायक
गाव गान कि जन-जन जगे आत्मसम्मान मितवा
अब तू रचे चल जनमन के हिंदुस्तान मितवा

कबले भटक-भटक भटकइब, कब ले गीत अनर्गल गइब
कबले सरस्वती के बेचब वरदान मितवा

कबही वन में रास रचवल, कबही झूठा जगत बतवल
कबही पत्थर पर बलिदान चढ़वल प्रान मितवा

अबले बात न्याय के दूरे, हक जे भेंटल, उहो अधूरे
जेकर ढोल बजवल, डुबा चुकल ईमान मितवा

कब से ग्राह पकड़ले बाटे, फंदा चल देश के काटे
कबले राह चितइब, ना अइहें भगवान मितवा
13.5.84

राजनीति सब के बुझे के बुझावे के परी                                                                                                  राजनीति सब के बुझे के बुझावे के परी
देश फंसल बाटे जाल में, छोड़ावे के परी

सहि के लाखों बरबादी, मिलल नकली आजादी
एहके नकली से असली बनावे के परी

कवनो वंशे करी राज, या कि जनता के समाज
जतना जलदी, जइसे होखे, फरियावे के परी

बड़-बड़ सेठ-जमींदार, पुलिस-पलटनिया हतेयार
सब लुटेरन, हतेयारन के मिटावे के परी

रूस, अमरीका से यारी, सारी दुनिया के बीमारी
अपना देश के एह यारी से बचावे के परी

कहीं देश फिर ना टूटे, टूटल-फूटल बा से जुटे
सबके हक के झंडा ऊंचा फहरावे के परी

सौ में पांचे जहां सुखिया, भारत दुनिया ऊपर दुखिया
घर-घर क्रांति के संदेशा पहुंचावे के परी
25.9.1984


नौजवान भइया

रोजे रोज बटिया हम जोहिले तोहार
नौजवान भइया! देशवा के तूही करनधार

कहिया ले चारों ओर एकता बनइब
कहिया ले जुलुमिन के जुलुम मेटइब
कहिया ले देब नया युग के विचार

कहिया ले जाई अपना देश से बेकारी
कहिया ले छूटी भूखल पेट के बेमारी
कहिया ले सहल जाई महंगी के मार

कहिया ले होई हमनी के सुनवाई
कहिया ले धन के गुलामी मिट जाई
कहिया ले बनी हमनी के सरकार

तूहीं कुछ सोचब, त, सूझी कवनो राह
तू ही कुछ करब त, होई कुछ छांह
तोहरे पर लागल बाटे आसरा हमार
30.4.85

मैं तो नक्सलवादी

मैं तो नक्सलवादी वंदे! मैं तो नक्सलवादी रे
मुझसे तनिक सही ना जाए अब घर की बरबादी रे

लूटे मेरा देश विदेशी जंगखोर साम्राजी
साथ-साथ सामंत रिजाला, पूंजीवाला पाजी
सबके मन सहकाए, जो बैठे दिल्ली की गद्दी रे

खट-खट के खलिहान-खेत में, मिल में और खदान में
मर-मर सब सुख साज सजावे गांव-नगर-मैदान में
दो रोटी के लिए बने वह द्वार द्वार फरियादी रे

भ्रष्टाचार-भूख-बेकारी दिन-दिन बढ़े सवाई
अत्याचार विरोधी को सरकार कहे अन्यायी
यह कैसा जनतंत्र देश में, यह कैसी आजादी रे

मैं तो वंदे! अग्नि-पंथ का पंथी दूर मुकामी
मेरे संगी-साथी ये अंतिम जुझार संग्रामी
रोटी-आजादी-जनवाद हेतु जो करें मुनादी रे

30.4.85


हमनी साथी हईं
हमनी देशवा के नया रचवइया हईंजा
हमनी साथी हईं, आपस में भइया र्हइंजा

हमनी हईंजा जवान, राहे चलीं सीना तान
हमनी जुलुमिन से पंजा लड़वइया हईंजा

सगरे हमनी के दल, गांव-नगर हलचल
हमनी चुन-चुन कुचाल मेटवइया हईंजा

झंडा हमनी के लाल, तीनों काल में कमाल
सारे झंडा ऊपर झंडा उड़वइया हईंजा

बहे कइसनो बेयार, नइया होइये जाई पार
हमनी देशवा के नइया के खेवइया हईंजा
1.5.85



शहीदों का गीत                                                                                                                                             भगत-आजाद- ऊधम का जो फिर अवतार हो जाए
तो बेशक जालिमों का अंत अबकी बार हो जाए

गए गोरे, मगर अंग्रेज काले जड़ जमा बैठे
कोई तदबीर हो, इनका भी बंटाधार हो जाए

जो रोटी और इज्जत चाहते, क्यों कत्ल होते हैं
ये कैसा रोग है, इसका सही उपचार हो जाए

हमें इस जुल्म की बुनियाद से ऐसे निबटना है
कि अगला हर कदम उस पै करारा वार हो जाए
फंसी तूफान में किश्ती हमारे देश भारत की
जवानो! बल लगाओ तुम तो बेड़ा पार हो जाए

14.8.86

                                                                                                                                                           हामार सुनीं

काहे फरके-फरके बानीं, रउरो आईं जी
हामार सुनीं, कुछ अपनो सुनाईं जी

जब हम करींले पुकार, राउर खुले ना केवांर
एकर कारन का बा, आईं समुझाईं जी

जइसन फेर में बानी हम, ओहले रउरो नइखीं कम
कवनो निकले के जुगुति बताईं जी

सोचीं, कइसन बा ई राज, कुछ त रउरो बा अंदाज
देहबि कहिया ले एह राज के दोहाई जी

जवन सांसत अबहीं होता, का-का भोगिहें नाती-पोता
एह पर रउरो तनि गौर फरमाईं जी

अब मत फरके-फरके रहीं, सब कुछ संगे-संगे सहीं
संगे-संगे करीं बचे के उपाई जी

सभे आइल, रउरो आईं, संगे रोईं-संगे गाईं
हम त रउरे हईं, रउरा हमार भाई जी

9.11.86


रोटी के गीत

जगत में रोटी बड़ी महान!

बिन रोटी क्या पूजा-अर्चा-तीरथ-बरत-नहान
छापा-तिलक-जनेऊ-कंठी-माला कथा-पुरान

बिन रोटी सब सूना-सूना घर-बाहर-मैदान
मंदिर-मस्जिद-मठ-गुरुद्वारा-गिरजाघर मसान

रोटी बढ़कर स्वर्ग लोक से, रोटी जीवन प्राण
रोटी से बढ़कर ना कोई देव-दनुज-भगवान

सो रोटी उपजे खेती से, खेती करे किसान
जो किसान का साथ निबाहे, सो सच्चा इंसान

15.6.88

( ये गीत समकालीन प्रकाशन से 1996 में प्रकाशित रमता जी के हिंदी-भोजपुरी गीतों के एकमात्र संग्रह ‘हामार सुनीं’ से लिए गए हैं। )

Friday, October 27, 2017

रमता जी के बारे में कुछ भी जानने से पहले उनके गीतों को जाना : बलभद्र

रमता जी (छाया- राकेश दिवाकर) 
रमता-स्मरण 
रमाकांत दिवेदी 'रमता' भोजपुरी और हिंदी के एक महत्वपूर्ण कवि। 30 अक्टूबर 1917 उनकी जन्मतिथि। यह उनके जन्म का सौवां साल है। भारतीय स्वाधीनता-संग्राम में उनकी महत्वपूर्ण और अविस्मरणीय भूमिका रही है। आजादी के बाद भी 'स्वराज को सुराज' में बदलने का उनका संघर्ष जारी रहता है। गांधीजी के विचारों से प्रभावित रमताजी आगे चलकर समाजवादी विचारों से जुड़ते हैं। पर, यहां भी वे ठहरते नहीं, आगे बढ़कर वामपंथी विचारधारा से जुड़ते हैं। फिर, आगे बढ़कर जनता और देश की स्थितियों महसूसते हुए वाम की क्रांतिकारी धारा सीपीआई-एमएल से जुड़कर जनांदोलनों में खुद को साझीदार बनाते हैं। हर दौर-हर अनुभव- को उन्होंने कविताओं में दर्ज किया है। भोजपुरी और हिंदी के ये पॉवरफुल कवि हैं। इस अवसर पर 29 अक्टूबर 2017 को आरा में जसम के जन भाषा समूह की तरफ से एक कार्यक्रम का आयोजन होने वाला है। 


· 

रमताजी की एक कविता 'भोजपुरी' भाषा पर है, जिसका शीर्षक है 'भोजपुरी'। उनकी यह कविता 15-11-1952 की है। भोजपुरी भाषा और भोजपुरिया जवान पर भोजपुरी में कई कवियों की कविताएं हैं। उन पर यहां कोई टिप्पणी देना ठीक नहीं। आप सब रमता जी की यह कविता पढ़ें। यह कविता संतोष सहर से प्राप्त हुई है। "नागिचा ना रहे इस्कूल, आ, गरीबी गुने/ बारी रे समयिया गइल बीत!/ अचके में हवा बहल गंवई के सुधि लेके/ लागल भोजपुरी पिरीत! गिटपिट 'हिन्दुई' बुझाला न झरेला लो'के/ मोर मन करेला ये मीत।। भरि पेट रोईं-मुसुकाई भोजपुरिये में/ गाईं भोजपुरिये में गीत।' 




रमता जी के बारे में कुछ भी जानने से पहले उनके गीतों को जाना। वह 1988 का साल होगा जब पहली बार अपने गांव में भगेला यादव के चौपाल पर रमता जी का एक गीत सुना। वह गीत था- "क्रांति के रागिनी हम त गइबे करब केहू का न सोहाला त हम का करीं।" इस चौपाल पर गांव के किसानों-मजदूरों की एक मीटिंग हो रही थी। कॉमरेड चंद्रमा प्रसाद आये थे। मेरे गाँव की अपने टाइप की यह पहली मीटिंग थी। लोगों से बातचीत के बाद चंद्रमा जी ने यह गीत सुनाया। मेरे गाँव की ही नहीं, मेरे लिए भी यह पहली मीटिंग थी। चंद्रमा जी ने तब कवि का नाम भी बताया था, लेकिन मैं तब कवि से बिल्कुल ही अपरिचित था। कविता भी उनकी पहली बार ही सुनने को मिली थी। उनका गीत दूसरी बार सुनने का अवसर अपने बगल के सिकरिया गांव में मिला। इस गांव के गरीब किसान-मजदूर (दलित) ढोल-झाल के साथ गा रहे थे- "हमनी गरीबवन के दुखवा अपार बा।" संत शिवनारायण की जयंती थी और शिवनारायनी की धुन में ही यह गीत है। गाने वालों को पता नहीं था कि यह किसका गीत है। वे तो गा रहे थे कि इसमें वे अपने को पा रहे थे। अपने दुख-तकलीफों को अपनी उपेक्षाओं को। बाद में पता चला कि यह रमता जी का गीत है। तब सिकरिया में राजेंद्र राम, विजय राम, उदय पासवान, बिलगू जी, साहेबजी आदि सक्रिय थे। 




आर्थिक तंगहाली एवं पारिवारिक दबावों के कारण सिकरिया गांव के ये उभरते हुए कार्यकर्ता रोजी-रोजगार की तलाश में बाहर निकलते गए। ये गीत-गवनई में रुचि रखने वाले युवा थे। साहेब तो बाजा पार्टी भी चलाते थे। उदय और राजेंद्र भी उस पार्टी में थे। भर लगन ये शादी-विवाह में सट्टे पर जाते थे। इससे इन लोगों को कुछ कमाई हो जाती थी और खेती के मौके पर ये अपनी थोड़ी- सी खेती संभाल कर दूसरों के यहां मजदूरी भी किया करते थे। राजनीतिक कार्यों में भी बढ़-चढ़कर भाग लेते थे। लगन के अवसरों पर ये लोग फूहड़-अश्लील गीतों को गाने-बजाने से बच-बचाकर चलते थे। फगुआ-चैता में जब ताल ठोका जाता था, तब भी ये सचेत रहते थे। गोरख पाण्डेय, रमता जी, विजेंद्र अनिल, दुर्गेन्द अकारी, कृष्ण कुमार निर्मोही के गीत इन लोगों खूब याद थे। ये अपने से भी गीत बनाना सीख चुके थे। ये इनके ही गीतों को गाया करते थे। फगुआ-चैता में भी, लगन के अवसरों पर भी, पार्टी-कार्यक्रमों के प्रचार-प्रसार में भी। तब इंडियन पीपुल्स फ्रंट का समय था। लेकिन इन लोगों कौन गीत किसका लिखा हुआ है, यह नहीं मालूम था। इनको यह पता था कि इन्हें इन गीतों को गाना है।इसके चलते इनके गांव और आस पास के तथाकथित बड़े लोग , खासकर बड़ी जाति के, काफी नाराज रहा करते थे। 




ये लोग रमता जी के इस गीत को भी खूब गाते थे-'हमनी देसवा के नया रचवइया हई जा/ हमनी साथी हई आपस में भइया हई जा।' गोरख के 'समाजवाद' और 'शुरू भइल हक के लड़इया' वाले गीत को भी जमकर गाते थे। इसमे थोड़ा अपनी ओर से संशोधन कर गाते थे। 'हक' की जगह 'किसान' कर लेते थे। 89 के चुनाव में 'अकारी' के गीत 'चोर राजीव गांधी घुसखोर राजीव गांधी/ बिदेसी सौदा में पकरईल कमीशन खोर राजीव गांधी।' बोफोर्स घोटाले पर यह लिखा गया था। उस चुनाव के समय का यह सुपर-डुपर हिट गीत था। 'ए बबुआ टोपी सिया ल चुनाव में' भी खूब चला। यह विजेंद्र अनिल का गीत है। निर्मोही का 'जबले न रुकी भइया शोषण जुलुमवा कांरवा बढ़ते रही' भी गाया जाता था। इन गीतों के अलावे भी और कई गीत थे जो खूब गाये गये। आज कोई यकीन नही करेगा कि गांव-गांव में इन गीतों को गाने वाले थे। पार्टी के धुर विरोधी भी मन ही मन इन गीतों की लाइनों को गुनगुनाने को मजबूर थे। कभी-कभार तो बकझक करते या मजाक उड़ाते भी इन गीतों की एक-दो लाइनों को बोल जाते थे। ये गीत एक कार्यकर्ता की भूमिका में होते थे। एक मास्टर साहब थे हाई स्कूल जादोपुर के- ओझा जी, वे उस दौर के गानों और नारों को चिढ़ के कारण लोगों के बीच अक्सर सुनाया करते थे। बड़ी बड़ी रैलियों और जुलूसों में मंच से गीत होते थे। 10 मार्च 1989 की रैली जो पटना के गांधी मैदान में आयोजित थी, उसकी पूर्व संध्या पर मैंने नरेंद्र कुमार को गांधी मैदान के मंच से गाते देखा-सुना था। गीत था-'माई गोहरवे मोर ललनवा हो।' 1992 के बाद बनारस एबी होस्टल कमच्छा में रहते इनसे निकटता बनी। आज वो इस धरा-धाम पर नहीं हैं। यह गीत उनके गीतों-गजलों के संग्रह 'कब होगी बरसात' में है। नरेंद्र को भी रमताजी और विजेंद्र अनिल के गीत याद थे। इन गीतों को लोग आज भी गाते हैं। 'हिरावल', पटना के गायक और रंगकर्मी बड़े मन से इन गीतों को गाते हैं। लेकिन क्या कि गांव -गांव गाने वाली बात अब नहीं रही। आंदोलन तो हैं, पर गीत कम हैं। 



89 के लोकसभा चुनाव में आरा लोकसभा क्षेत्र से आईपीएफ के कॉ. रामेश्वर प्रसाद की जीत हुई थी। इसके बाद बिहार विधान सभा के लिए चुनाव था। शाहपुर विधान सभा क्षेत्र के आईपीएफ के प्रत्याशी थे चंद्रमा प्रसाद। शाहपुर बाजार में एक आम सभा होने वाली थी। उस सभा को संबोधित करने आए थे सांसद रामेश्वर प्रसाद और रमता जी। प्रत्याशी चंद्रमा जी को तो रहना ही था। मैं भी उस सभा में था और मेरे गाँव के कुछ युवक भी थे और पार्टी समर्थक अन्य गांवों के भी आए थे। इन वक्ताओं के संबोधन से पहले गीत गाये जा रहे थे। गीत सिकरिया के उदय गा रहे थे। एक पर एक और एक से एक। गोरख, रमताजी, विजेंद्र अनिल के लिखे। उदय अच्छा गाते थे। गोरख पांडेय की एक कविता मैंने भी सुनाई थी। वह कविता थी 'हुआ यह है'। उसकी एक लाइन है- 'जिनको हिरासत में होना चाहिये उनका इशारा संविधान है/ और हम हैं कि खुली सड़कों पर कैद हैं'। है न यह आज पूरापुरी मौजूं। रामजी भाई ने इस लाइन को दो-तीन दिन हुआ, फेसबुक वाल पर डाला था। तो इस कविता को सुनने के बाद रमताजी ने सभा सम्पन्न होने पर मुझसे बातचीत की। उनके करीब बैठने औऱ बोलने-बतियाने का यह पहला अवसर था। मैंने इस सभा मे स्थानीय मुद्दों को केंद्रित करते एक छोटा-सा भाषण भी दिया था। शाहपुर से बिहिया आना था। यहां भी एक सभा होनी थी। यहां भी गीत गाये गये। गीत हमारे संगठन की पहचान बन गए थे। सभा के बाद हमलोग चाय पीने के लिये एक जगह बैठे। रमताजी से यहां भी कुछ बातें हुईं। बीच में आकर चंद्रमा जी ने रमताजी से कहा कि ये साथी बलभद्र जी हैं, इस अंचल में पार्टी कामकाज में हैं। उन्होंने कहा कि ये संतोष सहर के बडे भाई हैं। यह सुन वे और प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा कि आरा पार्टी ऑफिस में हमलोग मिलते हैं। रामेश्वर जी से पहले से अच्छी जान-पहचान थी। रमताजी और रामेश्वर जी हाथ मिला जगदीशपुर के लिए रवाना हुए। 



तो रमता जी और कामरेड रामेश्वर प्रसाद जी बिहिया से जगदीशपुर के लिये रवाना हुए। बिहिया से थोड़ी ही दूरी पर है जगदीशपुर- बाबू कुंवर सिंह वाला जगदीशपुर। बताते चलें कि बाबू कुंवर सिंह पर रमता जी ने भोजपुरी में एक बड़ी अच्छी कविता लिखी है। कुंवर सिंह पर लिखी गयी कविताओं में यह अपनी एक अलग विशिष्ट पहचान रखती है। शाहपुर की सभा को संबोधित करते रमता जी बहुत ही सहज के साथ साथ तथ्यों के विश्लेषण में सन्तुलित और धारदार लगे। कांग्रेसी हुकूमत की कारगुजारियों का सहज ढंग से विश्लेषण किया। आज मैं जितना याद कर पा रहा हूँ, भाषण को बातचीत की शैली में वे रखते थे, जैसे कि भोजपुरी की अपनी कोई कविता सुना रहे हों। एक हाथ की ताली को दूसरे हाथ की ताली से मासूम स्पर्श कराते हुए। धोती कुरता गमछा और झोले वाले रमताजी। आज याद कर रहा हूँ सभा को सम्बोधित करते रमता जी को, एक हाथ की ताली को दूसरे हाथ की ताली से मासूम स्पर्श कराते, तो उनकी इस कविता की याद बारम्बार आ रही है- "खाके किरिया समाजवाद के खानदानी हुकूमत चले/ जइसे मस्ती में हाथी सामन्ती निरंकुश झूमत चले/ खाके के गोली गिरल परजातन्तर कि मुसकिल इलाज हो गइल/ चढ़के छाती पर केहू राजरानी, त केहू युवराज हो गइल।" यह 1984 की कविता है। इस कविता को सुनाने के अंदाज में वो सभा संबोधित कर रहे थे। "हक-पद खोजे से फँसावे आपन गरदन, ऐंठत चले अत्याचारी"। कविता के इन्ही तथ्यों को कविता सुनाने की शैली के बिल्कुल आसपास सुना रहे थे। तब मैं इनकी कविताओं का पाठक नही बन पाया था। तो कहां से जानता रमता जी को कायदे से। मुझे याद है कि किसी कार्यक्रम में शामिल होने आरा गया था तो पुरबवारी रेलवे गुमटी के पास जो पार्टी आफिस(cpi-ml) है, भीतर रमता जी थे। उन्होंने पूछा कि "आप भी कुछ लिखते हैं, कविता, कहानी?" मैंने तब हाँ-ना कुछ भी नही कहा था। फिर पूछा बाबा ने कि नाम के साथ कुछ लिखते हैं क्या जैसे मैं रमता लिखता हूँ, जैसे संतोष अपने नाम के साथ सहर लिखते हैं। मैंने कहा था कि ऐसा कुछ सोचा जरूर था, पर मन को भाया नहीं। फिर जितेंद्र जी ने चाय मंगा दी। भोजपुर के साथियों के बीच रमता जी के लिए जो प्यारा सा संबोधन था वो बाबा था। साहित्य जगत में, खासकर हिंदी में, नागार्जुन को बाबा कहाने का गौरव प्राप्त है। 


8 

30 अक्टूबर 1917 रमता जी का जन्म दिन है। 24 जनवरी 2008 को उन्होंने अपने जीवन की आखिरी सांसें ली। इस तरह यह उनका जन्म शती वर्ष है। जन-सुराज के संघर्षों के सहयात्री कवि थे रमता जी। पूरा नाम- रमाकांत द्विवेदी 'रमता'। बिहार के भोजपुर जिला का महुली घाट(बड़हरा) उनका जन्म स्थान था। यह बाढ़ -बूडाव वाला इलाका है। बाढ़ के चलते इसकी स्थिति काफी बदल चुकी है। बाढ़ ,सुखाड़ और अपने बड़हरा पर भी उन्होंने कविताएं लिखी हैं। उनके लिखे 'गंगाजी के बाढ़ में डुबकियां मारेला खूब/ जिला शाहाबाद भ में खाल बा बड़हरा।' पहले भोजपुर जिला शाहाबाद में था। शाहाबाद के दो भाग हुए-1.भोजपुर और 2.रोहतास। अब तो भोजपर और रोहतास के भी विभाजन हो गए हैं। इस कविता में कवि बड़हरा की भौगोलिक अवस्थिति बताने के साथ-साथ वहां की बदहाली के लिए बाढ़ जैसे प्राकृतिक प्रकोप के साथ-साथ आजादी के बाद की सरकारी नीतियों और अफसरशाही को जिम्मेवार मानता है। वह बड़हरा की बेहाली को गीत का विषय बनाता है। जो तथाकथित भक्त(सत्ता भक्त) किस्म के लोग हुआ करते हैं, उनको ऐसी कविताएं क्योंकर पसंद आएंगी। वे तो आज की तारीख में और मुँहजोर हैं। कहेंगे कि देखो जहां जन्म लेता है, वहीं की शिकायत करता है। राष्ट्रद्रोही है। और खुद जाकर बी डी ओ से मिल-बतियाकर फण्ड का पैसा मजे में हजम करने में जरा भी नहीं शर्माएंगे। तभी तो किसी एक कार्यक्रम के दौरान बड़हरा में ही वहां जमीदारों और उनके लठैतों को रमता जी पर हाथ चलाने में जरा भी संकोच नही हुआ। नहीं संकोच हुआ कि यह आदमी आजादी का लड़ाका भी रहा है। आजादी के लिये इसे रन-वन छिछियाना भी पड़ा है। रमता जी स्वतंत्रता आंदोलन के विचारशील योद्धा थे। आजादी के बाद भी सत्ता- संरचनाओं की पेंचों को समझने और उसकी न केवल आलोचना करने वाले, बल्कि जनआंदोलनों के साथ होकर सच्चे सुराज को संभव करने हेतु जूझते रहने वाले योद्धा थे। किसानों-मजदूरों और नौजवानों के साथ जुलूसों में चलते थे और जुलूसों के लिए गीत भी लिखते थे। बतियाते हुए गीत और ललकारते हुए गीत और चेत कराते हुए गीत। वे किसानों पर कविता लिखते हैं, पर किसान नहीं थे। कहना जरूरी है कि विजेंद्र अनिल भी इसी धारा के कवि हैं, किसान-मजूर उनकी कविताओं और कहानियों के पात्र और विषय हैं, पर वे भी किसान नहीं थे। दुर्गेन्दर अकारी भी इसी धरती की उपज हैं। उन्होंने शुरू -शुरू में मजदूरी भी की थी। बाद में उन्होंने खुद कहा- "मत कर भाई बनिहारी तू सपन में"। अकारी जी पार्टी के हर कार्यक्रम में सक्रिय रूप में मौजूद रहते थे। जनता के बीच बिना माइक-बिना मंच स्वरचित गीतों को गाते-सुनाते दिख ही जाते थे। अकारी जी की एक काव्य पुस्तिका है 'चाहे जान जाये'। उसकी भूमिका रमता जी की लिखी हुई है। भोजपुर और भोजपुरी कविता की यह एक त्रयी है। 

October 27

9

रमता, विजेंद्र अनिल और दुर्गेन्दर अकारी की त्रयी को संग्रामी त्रयी कहना ठीक होगा। इनके बाद इस धारा में आते हैं निर्मोही। सुरेश काँटक, जितेंद्र कुमार, निर्मोही, सुमन कुमार सिंह के साथ-साथ संतोष सहर की कविताओं और गीतों को इस त्रयी की नई कड़ी कहने या नया स्वर कहने में मुझे कोई हिचक या संकोच नहीं। सुरेश काँटक इनमें सबसे अधिक सक्रिय और पहले हैं।विजेंद्र अनिल के बहुत करीब के हैं। इस त्रयी पर अगर कोई बात होगी तो 'युवानीति', जो कि सांस्कृतिक मोर्चे पर सक्रिय युवाओं की एक टीम थी, जिसकी धमक सुदूर गांव-देहातों से लेकर कस्बों और नगरों-महानगरों तक पहुंच चुकी थी, की चर्चा के बगैर बात पूरी नहीं हो पाएगी। युवानीति में तब सुनील सरीन, अजय, धनन्जय, नीरू, राजू, कृष्णेन्दू, संतोष सहर, सुधीर सुमन, शमशाद प्रेम, अरुण आदि कई पूरे प्राणप्रण से सक्रिय थे। नाटकों के साथ-साथ ये इनके गीतों को बड़े प्रभावशाली अंदाज में मंच पर और चौक-चौराहों पर प्रस्तुत किया करते थे। गोरख के गीतों को भी खूब गाते थे। केशव रत्नम के गीत 'हाथों में होगी हथकड़ियां' की याद तो होगी ही सुनील सरीन को। इन गीतों को जन -जन तक पहुंचाने का जरूरी काम युवानीति के साथियों ने किया। मुझे युवानीति के अनेक प्रोग्रामों को देखने का अवसर मिला है। टीम के साथ कई जगहों पर जाने का। टीम के अभ्यासों को भी देखने का। आज की तारीख में 'हिरावल' के साथी यह भूमिका निभा रहे हैं। अनिल अंशुमन , निर्मल नयन की भूमिका भी उल्लेखनीय है। इन लोगों के पास भी रमताजी और विजेंद्र जी की अनेक स्मृतियां होंगी। मुझे याद है कि आरा के कुछ मित्रों ने मिल-जुलकर भोजपुरी की एक पत्रिका निकाली थी, जिसका एक ही अंक आ पाया। वह पत्रिका थी 'हिलोर'। उसमें रमता जी कविताएं छपी थीं और याद आ रहा है कि उसमें सुधीर सुमन का एक लेख भी था रमताजी पर। उस पत्रिका के संपादन से पहले चंद्रभूषणजी ने योजना के बारे में बताया भी था। कृष्णेन्दु, निलय उपाध्याय, चन्द्रभूषण,शमशाद प्रेम का उसमें सहयोग था। शमशाद जी ने बताया था कि इस पत्रिका की पूरी योजना कृष्णेन्दु की थी । पैसे की व्यवस्था में कृष्णेन्दु ही थे। पत्रिका की प्रति मुझे कृष्णेन्दु ने ही दी थी। मैं उनके पकड़ी, आरा वाले घर पे गया हुआ था। याद आ रहा है, झिलमिल-झिलमिल कि आरा के नागरी प्रचारिणी के सभागार में कोई एक कार्यक्रम आयोजित था। सभागार में रमता जी मौजूद थे। वे रामजी राय के साथ बतियाते बाहर निकले, नागरी प्रचारिणी के पूरब के गेट से। रामजी भाई उनकी एक कविता सुन रहे थे। गौर कर सुना था मैंने भी--'सुलहा सुराज ई कुराज हो गइल/ रहे जेकरा प आसा-भरोसा ऊ नेता दगाबाज हो गइल।' रमताजी को अथवा इस त्रयी के किसी एक को याद करने का मतलब मेरे लिए इन सबको और इन तमाम बातों को याद करना है।मेरी स्मृतियों में यह सब एकमुश्त बसे हुए हैं। ढोलक-झाल, हारमोनियम, कैसियो, अपना गांव-जवार। वो चंदा मांगना, यहां-वहां भटकना। 

October 28 



Friday, October 6, 2017

इंसेफेलाइटिस से हुई मौतों के लिए कौन जिम्मेदार?

(गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कालेज में 10 से 13 अगस्त तक जो कुछ घटा यह उसकी रिपोर्ट है। इसे समकालीन जनमत के अगस्त अंक में प्रकाशित किया गया था। )

दस अगस्त की सुबह 11.20 बजे बीआरडी मेडिकल कालेज के नेहरू अस्पताल में लिक्विड आक्सीजन की सप्लाई का इंतजाम देखने वाले आपरेटर कृष्ण कुमार, कमलेश तिवारी, बलवंत गुप्ता लिक्विड मेडिकल आक्सीजन प्लांट पर रीडिंग लेने पहुंचे। प्लांट की रीडिंग 900 देखते ही चौंक गए। इसका मतलब था कि 20 हजार लीटर वाले आक्सीजन प्लांट में सिर्फ 900 केजी लिक्विड आक्सीजन उपलब्ध थी। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। पांच हजार तक रीडिंग पहुंचते ही लिक्विड आक्सीजन लिए टैंकर आ जाता था और प्लांट को रिफिल कर देता था। उन्होंने फौरन हाथ से बाल रोग विभाग की अध्यक्ष को पत्र लिखा और उस पर अपने हस्ताक्षर बनाए। पत्र की काॅपी प्राचार्य, बीआरडी मेडिकल कालेज से सम्बद्ध नेहरू अस्पताल के प्रमुख चिकित्सा अधीक्षक, एनेस्थीसिया विभाग के अध्यक्ष और नोडल अधिकारी एनआरएचएम मेडिकल कालेज को भी भेजी। 
उन्होंने लिखा -‘ हमारे द्वारा पूर्व में तीन अगस्त को लिक्विड आक्सीजन के स्टाक की समाप्ति के बारे में जानकारी दी गई थी। आज 11.20 बजे की रीडिंग 900 है जो आज रात तक सप्लाई हो पाना संभव है। नेहरू चिकित्सालय में पुष्पा सेल्स कम्पनी द्वारा स्थापित लिक्विड आक्सीजन की सप्लाई पूरे नेहरू चिकित्सालय में दी जाती है। जैसे कि-टामा सेंटर, वार्ड संख्या 100, वार्ड संख्या 12, वार्ड 6, वार्ड 10, वार्ड 12, वार्ड 14 व एनेस्थीसिया व लेबर रूम तक इससे सप्लाई दी जाती है। ‘पुष्पा सेल्स कम्पनी के अधिकारी से बार-बार बात करने पर पिछला भुगतान न किए जाने का हवाला देते हुए लिक्विड आक्सीजन की सप्लाई देने से इंकार कर दिया है। तत्काल आक्सीजन की व्यवस्था न होने पर सभी वार्डों में भर्ती मरीजों की जान का खतरा ......। अत: श्रीमान जी से निवेदन है कि मरीजों के हित को देखते हुए तत्काल लिक्विड ऑक्सीज़न की आपूर्ति सुनिश्चित कराने की कृपा करें।’ 
‘ खतरा ’ लिखने के बाद इन आपरेटरों के हाथ कांप गए थे। वे जानते थे आक्सीजन खत्म होने का क्या अंजाम हो सकता है। शायद इसीलिए उनसे आगे कुछ लिखा नहीं गया। उन्हें उम्मीद थी कि खत पहुंचते ही साहब लोग एक्टिव हो जाएंगे और लिक्विड आक्सीजन मंगा लेंगे या उसके विकल्प में आक्सीजन सिलेण्डर की व्यवस्था कर देंगे।
लेकिन आपरेटर नही जानते थे कि एक दूसरे ढंग की खतो खिताबत भी चल रही थी। यह उन लोगों के बीच थी जो ‘आक्सीजन लेने-देने में विशेषज्ञ हैं। यह खतो खिताबत लिक्विड आक्सीजन सप्लाई करने वाली कम्पनी पुष्पा सेल्स प्राइवेट लिमिटेड के बीच छह माह से चल रही थी। मसला यह था कि कम्पनी का बकाया 70 लाख तक पहुंच गया था और उसे मेडिकल कालेज की ओर से भुगतान नहीं मिल रहा था। कम्पनी कह रही थी कि स्थितियां उसके नियंत्रण से बाहर चली गई है। लिहाजा वह लिक्विड आक्सीजन सप्लाई नहीं कर पाएगी। इस मसले का हल एक ताकतवर सरकार और उसके अफसर जो गोरखपुर से लखनऊ तक बैठे थे, नहीं निकाल सके। 
जो खतरा इन आपरेटरों ने देख लिया था, उसे ये सभी ताकतवर लोग बेखबर बने रहे। ये इतने बेखबर थे एक रोज पहले इसी मेडिकल कालेज में ढाई घंटे तक इंसेफेलाइटिस व अन्य रोगों से बच्चों की मौत पर मंथन करते रहे लेकिन उन्हें यह पता तक नहीं चल सका कि उनके बैठके से 100 मीटर दूरी पर आक्सीजन का मीटर शून्य की तरफ खिसकता जा रहा है। इस गहन मंथन में जादुई निष्कर्ष यह निकला था कि इंसेफेलाइटिस के लिए गंदगी जिम्मेदार है और वे गंदगी खत्म कर इसे भी खत्म कर देंगे। इसके बाद सबने स्वच्छ भारत अभियान का नारा लगाया।
दस तारीख की रात घड़ी की सुइयों ने जैसे ही साढ़े सात बजाए, लिक्विड आक्सीजन का प्रेशर कम होने का संकेत होने लगा। उस वक्त सिर्फ 52 आक्सीजन सिलेण्डर थे। उसे जोड़ा गया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। 100 बेड के इंसेफेलाइटिस वार्ड में इंसेफेलाइटिस से ग्रस्त बच्चों, जन्म के वक्त संक्रमण व अन्य बीमारियों के कारण भर्ती हुए नवजात तथा वार्ड संख्या 14 में भर्ती वयस्क मरीजों की जान जाने लगी। शाम साढ़े सात बजे से 11 बजे तक आठ बच्चों की जान चली गई। अगले दिन दोपहर तक कोहराम मच गया। 24 घंटे में 25 और जाने चली गईं। 
ये खबरें मीडिया के जरिए सार्वजनिक हुईं तो लोग गम में डूब गए। सोशल मीडिया उनके दुख और क्षोभ की अभिव्यक्ति का मंच बनने लगा। 
और इसी वक्त वे किरदार फिर नमूदार हुए जिन्होंने इंसेफेलाइटिस के खात्मे का दो दिन पहले समाधान ढूंढ लिया था। कैमरे के चमकते फलैश के बीच कागजों को उलटते-पुलटते सबसे पहले जिले के सबसे बड़े हाकिम ने घोषणा की कि आक्सीजन की कमी से किसी की मौत नहीं हुई। वैकल्पिक इंताजम पूरे थे। मौतों की यह संख्या ‘ सामान्य ’ है। यहां 18-20 मौतें तो हर रोज होती रही हैं। फिर भी हम जांच करेंगे। चार अफसरों की कमेटी बना दी है। कोई जिम्मेदार पाया जाएगा तो सख्त कार्रवाई होगी। जब हाकिम यह बात कह रहे थे तो उनके कमरे के बाहर कुशीनगर जिले के रामकोला की संगीता और उसकी बेटी दहाड़े मार रो रही थीं। संगीता के सात दिन के नाती की मौत हो गई थी। बच्चा नियोनेटल वार्ड में पड़ा था। एक दिन पहले ही वह आया था। मां-बेटी की चीख डीएम के प्रेस कांफ्रेस के कमरे तक पहुंच रही थी और मीडिया को ब्रीफिंग में दिक्कत आ रही थी। दरवाजा बंद करने का आदेश हुआ लेकिन चीखें दरवाजा और मेडिकल कालेज की दीवारें पार कर अंदर पहुंचती रहीं। 
अगले दिन सरकार के दो-दो मंत्री आए। आते ही वे दो घंटे तक बैठक के लिए एक कमरे में बंद हो गए। बाहर टीवी चैनलों के कैमरे उनका इंतजार कर रहे थे। इधर वार्ड में मौत का तांडव जारी था। विजयी की बेटी शांति और विजय बहादुर का बेटा रोशन की जान जा चुकी थी। डाॅक्टर इसलिए शव नहीं दे रहे थे कि वार्ड माओं की चीखों से गूंजने लगेगा और इसी दौरान मंत्री आ जाएं तो उन्हें अच्छा नहीं लगेगा। टीवी वाले भी इनकी मौत का ‘ तमाशा ’ बनाएंगे। 
दोनों मंत्री घंटे बैठक के बाद निकले तो एक के हाथ बहुत से कागजात थे तो दूसरे के हाथ में एक आर्डर। कागजात वाले मंत्री ने मीडिया को बताया कि मैने दो वर्ष के अगस्त महीने के रिकार्ड देखे हैं। इन महीनों में 500-600 मौतें हो जाती हैं। यह ‘ सामान्य ’ है। इस वर्ष आंकड़े बढ़े नहीं हैं। दूसरे मंत्री ने कहा कि आक्सीजन संकट में प्रिसिपल की लापरवाही है। उन्हें सस्पेंड किया जाता है। उन्होंने नौ अगस्त की मीटिंग में मुख्यमंत्री के समक्ष आक्सीजन सप्लाई करने वाली कम्पनी को भुगतान न करने का मामला उठाया नहीं था। मुख्यमंत्री इससे अवगत नहीं थे। ’ 
इसके बाद ही प्रिसिंपल का त्यागपत्र मीडिया में आता है जिसमें उन्होंने लिखा है कि बच्चों की मौत में उनकी कोई गलती नहीं हैं। वह बच्चों की मौत से बहुत आहत हैं। इसलिए प्रिसिंपल का पद छोड़ रहे हैं। ’
दोनों मंत्री लौट गए। फिर शाम को लखनउ में एक बार फिर सरकार मीडिया के सामने आई। सीएम बोलते हैं कि आक्सीजन का पैसा तो पांच अगस्त को भी गोरखपुर भेज दिया गया था। प्रधानमंत्री जी बच्चों की मौत से दुखी हैं। ’ 
विपक्षी नेताओं की गाड़ियां एक के बाद एक मेडिकल कॉलेज पहुंच रही हैं। अंदर काली वर्दीधारी कमांडो तैनात हैं। ऐसा लगता है कि कोई आतंकवादी हमला हुआ है। विपक्षी नेता संवेदना प्रकट करते हुए बाहर आते हैं। मीडिया वाले कैमरा लिए दौड़ पड़ते हैं। विपक्षी नेता की आवाज टीवी पर एयर होने लगती है- सीएम संवदेनहीन हैं। वह इस्तीफा दें। 
बड़ी-बड़ी गाड़ियों, सफेद लकदक कुर्ते में लैस नेताओं के बीच में से कंधे पर अपने लाडलों का शव लादे रोती-बिलखती माएं और पिता दीखते हैं। बाबा राघवदास की प्रतिमा पर मोमबत्ती जलाने वाले आ पहुंचे हैं। तभी हवा तेज हो जाती है और सभी मोमबत्तियां एक साथ बुझ जाती हैं। रात का रिपोर्टर रात डेढ़ बजे अपनी खबर अपडेट करता है- 24 घंटे में फिर 11 बच्चों की मौत हो गई है। 
13 अगस्त की सुबह बूंदाबांदी से होती है। भादो का महीना है लेकिन आसमान जमकर बरस नहीं रहा है। लगता है कि उसके पास पानी की कमी हो गई है। अचानक चैनलों के ओवी वैन तेजी से मेडिकल कालेज की तरफ भागने लगते हैं। खबर तैर जाती है कि सूबे के मुख्यमंत्री आ रहे हैं। उनके साथ नड्ढा साहब भी हैं। इंसेफेलाइटिस वार्ड में सफारी पहने सुरक्षाकर्मी कुत्तों को लेकर घूम रहे हैं जो सबको सूंघते जाते है। वार्ड के फर्श चमकाए जा रहे हैं। मीडिया को छोड़ सभी को बाहर जाने का आदेश गूंज रहा है। 
दो दिन से खाली आक्सीजन प्लांट के पास एक टैंकर आ गई है। वह रात दो बजे लिक्विड आक्सीजन लेकर आई। प्लांट में आक्सीजन रिफिल हो गई है। मीटर का रीडिंग छह हजार बता रहा है। 
दोपहर 12 बजे हलचल तेज हो जाती है। गेट पर मास्क लगाए डाॅक्टर मुस्तैद हो जाते हैं। सीएम और हेल्थ मिनिस्टर तेजी से वार्ड में घुसते हैं। साथ में तमाम नेता भी अंदर आ जाते हैं। अंदर पत्रकार पहले से मौजूद हैं। एक टीवी रिपोर्टर बाहर चीख रही है कि अस्पताल में इतने लोगों को नहीं जाना चाहिए। कुछ देर बाद अंदर से खबर आती है कि भीड़ के दबाव में एक दरवाजे का शीशा टूट गया है। सूचना विभाग के एक अफसर बाहर आते हैं और मीडियाकर्मियों से कहते हैं सेमिनार हाल में चलिए। वही सीएम साहब बात करेंगे। पत्रकार सेमिनार हाल की तरफ चल पड़ते हैं। तभी कुछ पत्रकारों के मोबाइल पर खबर फलैश होने लगती है कि इंसेफेलाइटिस वार्ड में सीएम भावुक हो गए। आंख पोछते देखे गए। 
प्रेस कांफ्रेस में सीएम गंभीर होने के साथ दुखी नजर आ रहे हैं। वह सूचना देते हैं कि प्रधानमंत्री बच्चों की मौत से बहुत दुखी है। यह वाक्य वह कई बार रिपीट करते हैं। फिर वह कहते हैं कि इंसेफेलाइटिस के लिए उनसे ज्यादा कौन लड़ा है ? उनसे ज्यादा इस मुद्दे पर कौन संवेदनशील हैं ? यह कहते हुए उनका गला भर्रा जाता है। कुछ पत्रकार मोबाइल पर तत्काल खबर अपडेट करते हैं कि सीएम एक बार फिर भावुक हुए। वह मीडिया से अपील करते हैं- फेक खबर न चलाइए। तथ्यों पर रिपोर्ट करिए। मुख्य सचिव की रिपोर्ट आने दीजिए। जो भी दोषी पाया जाएगा उसके खिलाफ ऐसी सख्त कार्रवाई होगी कि नजीर बनेगी। 
अब हेल्थ मिनिस्टर नड्ढा साहब बोल रहे है। वह तस्दीक करते हैं कि सीएम साहब ने इंसेफेलाइटिस के लिए सबसे ज्यादा संघर्ष किया है। वह इस बार संसद में नहीं थे तो इंसेफेलाइटिस का मुद्दा नहीं उठा। वही हर बार यह मुद्दा उठाते थे। वह घोषणा करते हैं कि वायरल रिसर्च सेंटर के लिए 85 करोड़ रूपया दिया जा रहा है। 
अब पत्रकारों के सवाल पूछने की बारी है। चैनल वाले सबसे पहले सवाल पूछ रहे हैं। सवाल पूछने के पहले कई बार अपने चैनल का नाम और अपना नाम ले रहे हैं। एक-दो सवाल के बाद आक्सीजन का सवाल उठ जाता है। कई पत्रकार एक साथ सवाल पूछने लगते हैं। पीछे वाले पत्रकार सवाल पूछने के लिए आगे आते हैं तभी धन्यवाद की आवाज आती है और सीएम उठ जाते हैं। प्रेस कांफ्रेस खत्म हो जाती है। 
शाम को खबर आती है कि डा. कफील इंसेफेलाइटिस वार्ड के नोडल अफसर पद से हटा दिए गए हैं। ये वही डाॅक्टर हैं जिन्हें आक्सीजन संकट के वक्त संवेदनशीलता दिखाने के लिए प्रशंसा पाई थी। अब उनके बारे में तमाम ज्ञात-अज्ञात बातें सोशल मीडिया पर आने लगती हैं। दो दिन का ‘ मीडिया का नायक ’ ‘ खलनायक ’ में बदलने लगता है। आक्सीजन, बच्चों की मौत चर्चा से गायब होने लगती है। सोशल मीडिया पर दो दिन से चुप साधे लगे गरजने लगे हैं। 
सुबह की बूंदाबादी रात में तेज बारिश में बदल गई है। रात का रिपोर्टर खबर अपडेट कर रहा है- आधी रात को तमाम चिकित्सक, कर्मचारी, लिपिक मेडिकल कालेज में ही मौजूद हैं। कम्प्यूटर पर आंकड़े तैयार किए जा रहे हैं। 24 घंटे में 12 और बच्चों की मौत हो गई हैै। वार्ड संख्या 14 में दो और मरीज मर गए हैं। 

(समकालीन जनमत, अगस्त 2017 अंक से)

Sunday, September 24, 2017

काग्रुएवात्स में पूरे स्कूल के साथ तीसरी क्लास की परीक्षा : सोमदत्त



[ 19अक्टूबर 1941 को यूगोस्लाव मुहिम के दौरान जर्मन सेनाएं, सुमादिया क्षेत्र के कस्बे क्रागुएवात्स पहुँची. 20 को उन्होंने गिरफ्तारियां कीं. उसी दिन फासिस्टों ने क्रागुएवात्स के प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल के 800 बच्चों को शिक्षकों सहित गिरफ्तार किया और गाँव के पश्चिम छोर पर बनी एक कच्ची बैरक में बंद कर दिया. रात भर वहां रहने के बाद दूसरे रोज़  21 अक्टूबर की सुबह 7 बजे से दोपहर 1 बजे के बीच वे बच्चे 10-20, 25-40, के समूहों में अलग-अलग अपने शिक्षकों सहित भून दिए गए. एक किलोमीटर क्षेत्र में लगभग 20 सामूहिक कब्रे बनीं.

जर्मनों के जाने के बाद जब उस गाँव और दूसरे गाँवों के बचे-खुचे लोग वहां पहुंचे तो उन्हें कब्रों और सूखे खून से सनी मिट्टी के बीच कुछ चिंदियाँ मिलीं, कागज़ की. वे चिन्दियाँ चिठ्ठियाँ थी जिनमें बच्चों ने, शिक्षकों, शिक्षिकाओं ने संदेसे लिखे थे, अपने प्रियजनों को संबोधित आख़िरी संदेसे.

2 मई 1981 को जब मैं ’21 अक्तूबर स्मारक’ पहुंचा तब पहली बार दूसरे महायुद्ध में मासूमों द्वारा झेली गयी यातना का मर्म मिला. क्रागुएवात्स, यूगोस्लाविया यात्रा की सर्वाधिक तकलीफदेह लेकिन मूल्यवान अनुभूति है. अब भी जब क्रागुएवात्स याद आ जाता है तब उन आठ सौ बच्चों की आवाजें .... यह कविता उन्ही की याद में- सोमदत्त]

सोमदत्त की कविता, उन्हीं की भूमिका के साथ ---उनके कविता संग्रह ‘पुरखों के कोठार से’



काग्रुएवात्स में पूरे स्कूल के साथ तीसरी क्लास की परीक्षा

शाम सात बजे
ममा, ममा
मुझे नींद आ रही है
पूरी क्लास को नींद आ रही है
सब जम्हाई ले रहे हैं
अभी-अभी मेरा तलुआ खुजाया
कई बच्चों ने तलुए खुजाए बारी-बारी से
तूने मेरा नाम लिया क्या ! ममा
दरवाजे पर खडे होकर पुकारा या
चेरी के नीचे से ?
वहां टूटी हरी बोतल का एक टुकड़ा पड़ा था
सुबह उससे बाल-बाल बचा मैं,
तुम्हारे साथ टामी भी था क्या
मुझे पुकारता,
अलबत्ता उसकी आवाज़ मुझे नहीं सुनायी दी
क्या तुमने उसके सर के बाल खुजा दिए मेरी तरह ?
उसकी आवाज हमेशा पहचान जाता हूँ मैं,
इस वक़्त
जाने कितने कुत्तों की
वैसी आवाज़ें आ रही हैं माँ
जिन्हें, तू रोना कहती है,
आज मन गणित की क्लास में
नताशा को फिर ज्यादा नंबर मिले
मुझे उसके बाद
मिरो को मेरे बाद, आन्तिच को मिरो के बाद
पान केक संभाल कर रखना
वास्को अंकल को बहुत पसंद है
चट कर जाएंगे,
ममा मुझे नींद आ रही है
सर को गाने सूझ रहे हैं
वे अपनी कैप घुटनों पर रक्खे बैठे हैं
मूंछों के नीचे हंसते हुए
आज पहलीबार वे हम सबको बार-बार गाने सुना रहे हैं
वे कहते हैं गाओ
दूना* का गीत गाओ
बीयोग्राद** का गीत गाओ
दिन भर हमने गाया, पूरी क्लास ने, पूरी स्कूल ने,
आज पूरा स्कूल एक क्लास में लगा है
क्लास स्कूल में नहीं लगी
आठवीं क्लास वाली सिस्टर वीश्निच---
अरे, वही वाली जिनकी आँखें बहुत काली
जिनके बाल भुट्टे के सर में उगे रेशों के रंग से
अरे वही माँ, जो पिछले साल परी बनी थी वह
अचानक दौड़ती हुई हमारी क्लास में आई
बोली
बच्चों! मेरे फूलों!
उनने “मेरे फूलों” क्यों कहा ममा?
हम कोई फूल हैं?
बोली, बच्चों !
यह हमारा नया स्कूल है,
जंगल में टीन से घिरा कोई स्कूल होता है क्या ?
कल सुबह परीक्षा होगी
तडके शुरू हो जायेगी
हरेक की होगी
बच्चों की, टीचरों की, प्रिंसिपल की,
पानी पिलाने वाली बूढ़ी आया की,
स्कूल के चौकीदार सूपिच की,
घंटी बजाने वाले को भी छुट्टी नहीं मिलेगी,
सब
एक लाइन में खड़े किए जाएँगे
फिर एक-एक से सवाल होगा
सवाल बन्दूक पूछेगी
और हमें मुंह से नहीं, अपने सीने से
जवाब देने होंगे
सिर्फ़ एक सवाल किया जाएगा एक से

परचा जर्मनी से आया है
कोई हिटलर है
उसने बनाया है
ऐसा कहके वे हंसीं
हमारी पूरी क्लास हंसी
हंसते-हंसते नताशा ने मुझे गुदगुदाया
मुझे खूब हंसी आई,
टीचरों की परीक्षा की बात सभी को भाई,
परीक्षा के डर के मारे ही
प्रिंसिपल सर भी नहीं हँसे,
और वह खूसट सूपिच जो हर वक़्त हंसता है
वह भी नहीं हंसा,
और न वह घंटी बजाने वाला,
हम लोग तो खूब हँसे
सबने ताली बजाई
कि बन्दूक से हम पहली बार खेलेंगे
उसके सवाल सीने पर झेलेंगे

पापा नहीं रहेंगे
तुम नहीं रहोगी
हमीं हम रहेंगे
खूब मज़ा रहेगा
ठांय-ठांय-ठांय-ठांय होगा
परी सिस्टर ने बताया
पूरे स्कूल से एक ही सवाल पूछा जाएगा,
ऐसा क्यों है माँ कि सभी से एक सवाल पूछा जाएगा?

इसी स्कूल में
आज रात भर रहना है
और मुझे नींद आ रही है माँ
टीचर कहती है अभी ब्रेड मिलेगी
टीचर ने बताया कि तुम्हे और पापा दोनों को मालूम है
सभी के मम्मी पापा को मालूम है कि
सब रात भर यहीं रहेंगे
ममा !
ममा !
अगले बरस जब मैं चौथी में जाऊँगा
तो ये जो जर्मन हैं न लाल चौकोर निशान वाला
उसको चेरी पर चढ़कर
अपनी गुलेल से एक पत्थर जमाऊंगा,
उसने अभी थोड़ी देर पहले
दूना का गीत गाती परी को
बन्दूक के हत्थे से नीचे गिरा दिया था,
ममा उनके मुंह का खून
मेरे सामने फैला है --- उसका रंग बदल रहा है
उसे देखकर मुझे डर लग रहा है
परीक्षा देकर कल जब घर आऊँगा
सब कुछ बताऊंगा
अभी मेरा मुंह सूख रहा है




रात बारह बजे

पानी
ममा ! पानी !
मुझे प्यास लगी है
भूख भी लगी है
नताशा रो रही है, मिरो और आन्तिच भी जाग रहे हैं
घास गड़ने लगी है
प्रिंसिपल सर लिख रहे हैं
अभी एक चिड़िया उडी-
आज दोपहर भी दो कबूतर उड़ते हुए आये थे
जर्मनों ने उन्हें गिराया मार,
फिर एक झुण्ड आया
उन्हें भी उनने गिराया मार,
दो लड़कों की कमीजें उतार कर उनने आग जलाई
दोनों लडके चिल्लाए,
अभी जब वे दोनों मुझे सपने में दिखे,
नंग-धडंग, जर्मनों को नोंचते, अपनी चेरी के सामने
टामी उन्हें देख भोंका
मुझे हंसी आई
हंसा तो नींद खुली
मुझे प्यास लगी है
कहीं पानी नहीं दिखता

सुबह पांच बजे
दूसरे रोज़


ममा, पूरी क्लास अब जग गई
तब अंधेरा था
प्रिंसिपल सर ने अपनी शानदार आवाज़ में कहा
खड़े हो जाओ
दूना का गीत गाओ
सबने गाया
तभी
वह जर्मन आया, उसने प्रिंसिपल सर के कंधे पर
बन्दूक का हत्था पीछे से जमाया और हंसा
कंधे पर हाथ रखते, गिरते-गिरते बचते सर भी हँसे
सर जब हँसे
तब डर लगा मुझे




सुबह सात बजे

ममा, धूप निकली हुई है
हमारे क्लास की परीक्षा शुरू होने वाली है
दस-दस लड़कों के लिए एक बन्दूक है

नक़ल से बचाने के लिए
दूर-दूर ले जाया गया है सबको स्कूल से
हर क्लास दस-दस पेड़ दूर है
मुझे इतनी प्यास लगी है, इतनी प्यास
कि बन्दूक की परीक्षा न होती
भाग आता में




सुबह साढ़े सात बजे
ममा बन्दूक वाले सर सामने खड़े हैं चौकोर निशान पहने
बाद में हम उनसे गंदे जर्मन की शिकायत करेंगे
परी हमारे पीछे
उनने जोर से कहा—
सीने से जवाब देना है
खोलो सीने, ऊँचे उठाओ अपने सिर,
अगर थका न होता मैं
तुम्हारे पेट तक उठा लेता अपना सिर
लेकिन तीनों बटन खोल लिए हैं
ममा
परीक्षा
शुरू
हर कोई
सवाल सुनते ही दूना की तरह लहराता
धड़ से, नीचे लेट जाता है
मैं भी ऐसा ही करूँगा---- पर चीखूंगा नहीं दूसरों के जैसे
फिर दौड़ता आऊँगा, पान केक...

---------------------------
* यूगोस्लाविया में बहने वाली नदी- डेन्यूब जिसे हम कहते हैं|
** यूगोस्लाविया की राजधानी- जिसे हम बेलग्रेड कहते हैं|

(इस कविता को युवा कवि ने 2014 में उपलब्ध कराया था)

Thursday, September 21, 2017

न्‍यायदंड : कुमार मुकुल

हम हमेशा शहरों में रहे
और गांवों की बावत सोचा किया
कभी मौका निकाल
गांव गए छुटि्टयों में
तो हमारी सोच को विस्तार मिला
पर मजबूरियां बराबर
हमें शहरों से बांधे रहीं



ये शहर थे
जो गांवों से बेजार थे
गांव बाजार
जिसके सीवानों पर
आ-आकर दम तोड़ देता था
जहां नदियां थीं
जो नदी घाटी परियोजनाओं में
बंधने से
बराबर इंकार करती थीं
वहां पहाड़ थे
जो नक्सलवादियों के पनाहगाह थे



गांव
जहां देश (देशज) शब्द का
जन्म हुआ था
जहां के लोग
यूं तो भोले थे
पर बाज-बखत
भालों में तब्दील हो जाते थे
गांव, जहां केन्द्रीय राजनीति की
गर्भनाल जुड़ी थी
जो थोड़ा लिखकर
ज्यादा समझने की मांग-करते थे



पर शहर था
कि इस तरह सोचने पर
हमेशा उसे एतराज रहा
कि ऐसे उसका तिलस्म टूटता था
वहां ऊचाइयां थीं
चकाचौंध थी
भागम-भाग थी
पर टिकना नहीं था कहीं
टिककर सोचना नहीं था
स्वावलंबन नहीं था वहां
हां, स्वतन्त्रता थी
पर सोचने की नहीं



बाधाएं
बहुत थीं वहां
इसीलिए स्वतन्त्रता थी
एक मूल्य की तरह
जिसे बराबर
आपको प्राप्त करना होता था
ईमान कम था
पर ईमानदारी थी
जिस पर ऑफिसरों का कब्जा था
जिधर झांकते भी
कांपते थे
दो टके के चपरासी



वहां न्यायालय थे
और थे जानकार बीहड़-बीहड़
न्याय प्रक्रिया के
शहर से झगड़ा सुलझाने
सब वहीं आते थे
और अपनी जर-जमीन गंवा
पाते थे न्याय



न्याय
जो बहुतों को
मजबूर कर देता
कि वे अपना गांव छोड़
शहर के सीमांतों पर बस जाएं
और सेवा करें
न्यायविदों के इस शहर की
पर ऐसा करते
वे नहीं जान रहे होते थे
कि जहां वे बस रहे हैं
वह जमीन न्याय की है
और प्रकारांतर से अन्याय था यह
और उन्हें कभी भी बेदखल कर
दंडित किया जा सकता था
और तब
जबकि उनके पास
कोई जमापूंजी नहीं होती थी
उनके लिए न्याय भी नहीं होता था



हां, न्याय के पास
दया होती थी थोड़ी
और दृष्टि भी
जिससे उनका इस तरह बसना वह
लंबे समय तक अनदेखा करता था
बदले में थोड़ा सा श्रम
करना होता था उन्हें
जिससे न्यायालय तक जाने का रास्ता
चौड़ा और पक्का होता जाता था
और न्याय प्रक्रिया के
अलंबरदारों के लिए
रेस्तरां-भवन-दफ्तर
तैयार होते जाते थे



अब उन आलीशान भवनों से
न्याय की तेज रफ्तार सफेद गाडि़यां
जब भागती थीं सड़कों पर
और अपने सीमांतो का
मुआयना करती थीं
तो वहां बसे वाशिन्दे
उन्हें धब्बों की तरह लगते थे
जिन्हें मिटाने की ताकीद वे
पुलिस-प्रशासन से करते
और लगे हाथ उसकी
मुनादी भी कर दी जाती थी
इस तरह
न्यायपूर्ण शहरों की सीमाएं
बार-बार उजाड़कर
पीछे धकेल दी जाती थीं
और बार-बार
न्याय की दया दृष्टि उन्हें आगे
नए सीमांतों पर टिकने की
मोहलत देती थी



शहर की जो न्याय प्रक्रिया थी
उसमें भी
सोचने-समझने की मनाही थी
इसीलिए आधी सदी से वे
नहीं सोच पा रहे थे
कि हिन्दोस्तां के
इन गर्म इलाकों में



सालों क्यूंकर
गर्म काला चोगा उठाए फिरते हैं
कि क्यों हिन्दी-उर्दू-तेलुगू-तमिल की
इस जमीन पर
अंग्रेजी-फारसी-संस्कृत
डटाए फिरते हैं



जैसे-शहर
एक तिलस्म की तरह था
उसकी न्याय प्रक्रिया भी
एक मिथक की तरह थी
और एक मिथक यह था
कि सोचने-विचारने के मामले में
अन्धी है वह
और जब-तक उसके कान के पास आकर
कोई अपनी फरियाद नहीं दुहराता
उसे कुछ मालूम नहीं पड़ता
इसके लिए उसके पास
ऊंची आवाज में विचरने वाले
हरकारे थे
जो सीमांत के बाशिंदों से
लंगड़ा संवाद बना पाते थे
ये हरकारे
न्यायप्रियता के ऐसे कायल थे
कि मुनादी के वक्त
आंखे मूंदकर
उसके आदेशों को प्रचारित करते थे
न्याय प्रक्रिया के
इस दोहरे अन्धेपन का लाभ
सीमान्त की डंवाडोल जमीन के
बाशिन्दे लेते थे
और उनकी खुसुर-पुसुर देखते-देखते
विचारधाराओं का रूप ले लेती थीं
और जब तक वे
अन्धे कानून को छू नहीं लेती थीं
उसे इसका इल्म तक नहीं होता था
कि उसकी नाक के नीचे
कैसी-कैसी विचारधाराओं ने
अपने तम्बू डाल रखे हैं
ऐसे में परेशान न्यायदंड
तुरत-फुरत
अपनी धाराओं की सेवाएं लेता था
मजेदार बात यह थी
कि न विचारधारा साफ दिखती थी
न धारा
स्थिति की गम्भीरता का पता
तब चलता था
जब दोनों टकराती थीं
और उसकी आवाज
न्याय के ऊंचे दंडों तक जाती थी



अब एक बार फिर
वही पुराना न्याय
दुहराया जाता था
जिसमें अच्छी कीमत अदाकर
विचारधाराओं को
थोड़ी मोहलत दी जाती थी
कि वे अपना तेवर सुधार सकें



न्यायदंड के आस-पास
उसकी सहूलियत के
सारे साजो-सामान भी थे
यथा जेलें थीं
आदर्श कारागृह
वहां बुद्ध की
ऊंची पत्थर की मूर्ति थी
क्योंकि वहीं वह सुरक्षित थी
और कारागृह के निवासियों को
उसकी छाया में शान्ति मिलती थी
जो मोबाइल-चैनल्स-सुरा-सुन्दरी
और मनोरम उत्तर-आधुनिक अपराधों का
सेवन करते
वहीं टेक लेते
बिरहा और चैता का गायन सुनते
लोकगीतों के रसिक सीएम, पीएम
अपने काफिलों के साथ
महीनों वहीं छुट्टियाँ मनाते थे
इसके लिए उन्हें न्यायदंड की
धाराओं की
सेवाएं लेनी पड़ती थीं
फिर जेलों से बाहर आते ही वे
जेल प्रशासन की मुस्तैदी की
समीक्षा करते थे
कारागृहों का यह रूप देखकर
उत्तर रामकथा वाचकों का मन भी
विचलित हो जाता था
और धन-बल-पशुओं को
गीता का उपदेश देने
वे भी वहां जा धमकते थे




न्यायदंड के आस-पास
बिखरे हुए थाने थे
जो पूंजी-प्रसूतों को रास आते थे
बावजूद इसके ये थाने
ढहती लोककला के अद्भुत नमूने थे
जिसकी दीवार के पलस्तर के भीतर से
लाल ईंटें
अपना बुरादा झारती रहती थीं
और रात में जिन्हें
लालटेन की नीम रोशनी रास आती थी
न्यायदंड की सुरक्षा के लिए तैनात
ये थाने थे
जिनकी जीपें
जनता के उस खास वर्ग की
सेवा में जाती थीं
जो कि उसमें पेट्रोल भरा पाती थीं
जहां वैसी मुट्ठी गर्म करने वाली
जनता नहीं थी
वहां पुलिस भी नहीं थी
इसीलिए विकल्प की तरह वहां
आतंकवादी थे



राजभाषा के सारे कवि
न्यायदंड के पास ही निवास करते थे
अपनी अटारियों से वे
पृथ्वी-पृथ्वी चिल्लाते थे
पर पृथ्वी से उनका साबका इतना ही था
जितनी कि उनके गमलों में मिट्टी थी
जिसे सुबह-शाम पानी देते
वे निहारते थे हसरत से



ये कवि थे
और काले बादलों को देख
इनका खून
भय से सफेद पड़ जाता था
ये कवि थे जो न्यायदंड से
अपना प्रेमपत्र बचाने की
याचना किया करते थे



और न्यायदंड प्रेमपत्र तो नहीं
उन कवियों को जरूर बचा लेता था



वह उन्हें कीमती जूते प्रदान करता था
जो न्यायदंड को देखते ही
खुशी से मचमचाने लगते थे
वह उनकी कमरों को
बल (लोच) प्रदान करता था
जिस पर कलाबाजी खाते वे
विचारों को
महामारी की तरह देखते थे
और खुद को उससे बचाने की जुगत
भिड़ाते रहते थे
इनका एक काम
जनता की कारगुजारियों से
न्यायदंड को आगाह करना भी था



इन शहरों में
सार्वभौम कला की तरह
तोंदें थीं
जिसके हिसाब से मोटर कम्पनियां
अपनी डिजाइनें बदलती रहती थीं
नतीजतन सड़कों पर
डब्बे की शक्लवाली
बूमों-मन्तरों-काटिज आदि गाडियाँ
बढ़ती जा रही थीं
यहां अपहरण और नरसंहार
एक उद्योग था
जिसकी रिर्पोटिंग को
पत्रकारिता कहते थे
और पत्रकार खबरें नहीं लिखते थे
विवस्‍त्र रक्तिम लाशें गींजते थे
उनकी जातियों का हिसाब लगाते थे
और जनता सुर्खियों में तब आती थी
जब वह गोलबन्द हो
रैलियों में हिस्सा लेने आ धमकती थी
राजनेताओं के बाद प्रेस
चििड़याखानों के जीवों की
गतिविधि बताना
ज्यादा जरूरी समझते थे
क्योंकि उसका नगर के पर्यावरण पर
सीधा असर पड़ता था



बन्दूक पर निशाना साधते-साधते
हत्यारों-अपहत्ताओं और
निजी सेनाओं के स्त्री-शिशु संहारकों की
एक आंख कमजोर हो गई थी
इसीलिए मीडिया में जब भी
उसकी तस्वीर उभरती थी
तो उसकी एक आंख और आधा चेहरा
गमछे से ढंका होता था



इस बारे में लोगों के
जुदा-जुदा खयालात थे
कि ऐसा वे पहचाने जाने के
भय से करते थे
पर जनमत की राय यह थी कि
खौफ को सार्वजनिक करने के लिए
वे ऐसा करते थे



बुद्ध के बाद गांधी
हत्यारों की पहली पसन्द थे
मीडिया पर इश्तेहारों में
हिंसा को वे मजबूरी बतलाते
और मीडियाकर (दलाल) उनमें
गांधी की अकूत सम्भावनाएं तलाशते
थकते नहीं थे !

Monday, June 19, 2017

सोशल साइट्स के जमाने में कविता की जद्दोजहद : महज बिम्ब भर मैं


राकेश दिवाकर हैं तो चित्रकार, एक सरकारी स्कूल में छात्रों को चित्रकला की शिक्षा देते हैं, पर वे हिन्दी कविता के पाठक भी हैं। पाश उनके प्रिय कवि हैं। अक्सर फेसबुक और गुगल प्लस पर चित्रों के अलावा वे अपनी कवितानुमा अभिव्यक्तियाँ भी लगाते रहते हैं। पिछले दिनों उन्होंने अपनी पीढ़ी के कई चित्रकारों और मूर्तिकारों के काम पर धारावाहिक टिप्पणियाँ लिखीं। राकेश दिवाकर कला समीक्षाओं के अतिरिक्त कविता और कहानी संग्रहों की समीक्षाएं भी लिखते रहे हैं। पेश है सुमन कुमार सिंह के कविता संग्रह 'महज़ बिम्ब भर मैं' पर लिखी गई उनकी समीक्षा, किंचित सम्पादन के साथ। हाल के दिनों में आरा में पुस्तकों या रचनाओं पर गंभीर विचार-विमर्श की प्रवृत्ति बढ़ी है, राकेश की यह समीक्षा इसी की बानगी है। सुमन कुमार सिंह के कविता संग्रह पर बातचीत के दौरान उन्होंने इसी के अंश पढ़े थे। इस बीच पाठक कृष्ण समिद्ध द्वारा लिखी गई समीक्षा उनके ब्लॉग, फेसबुक और हवाट्सएप के जरिए पढ़ चुके होंगे। 'महज़ बिम्ब भर मैं' संग्रह पर जितेंद्र कुमार, सुनील श्रीवास्तव और रविशंकर सिंह ने भी टिप्पणी/ समीक्षा लिखी है। आगे वे भी कहीं पढ़ने को मिलेंगी। 
-----------------------------------------------------------------
पूंजीवादी व्यवस्था में जारी तकनीकी विकास ने हमसे बहुत सी खूबसूरत चीजें छीन ली है । संभवत साहित्य कला का चिंताजनक ह्रास भी इसी का एक दुष्प्रभाव है । यह ह्रास लगभग टीवी के आक्रामक विस्तार के साथ ही शुरू हो गया था लेकिन सोशल साइट्स कीजादुई छापेमारी ने तो सिनेमा तक को हाशिए पर धकेल दिया और साहित्य तो बेचारा अब लगभग इनडेंजर्ड की श्रेणी में पहुंच चुका है ।
यद्यपि फेसबुक पर चोरी की घासलेटी शायरी या कविता ने जोर भी पकड़ा है, बेशक उसमें कुछ मौलिक व काबिल-ए-तारीफ शायरी और कविताई भी हो रही है लेकिन साहित्यिक द्विजों के लिए वह लगभग अछूत है जिसकी स्वीकृति होते होते होगी या यह भी हो सकता है कि अभिव्यक्ति की यह पारंपरिक विधा विलुप्त ही हो जाए । खैर आने वाले समय में यह विधा कौन सा स्वरूप ग्रहण करेगी यह भविष्य के गर्भ में छिपा है क्योंकि ऐसा भी हो सकता है कि दकियानूसी ताकतें जो 21 वीं सदी के दूसरे दशक में दुनिया भर में नए सिरे से जोर पकड़ रहीं हैं, ऐसा भी हो सकता है कि वे पूरी दुनिया का तालीबानीकरण कर दें, तमाम तकनीकी विकास को मटियामेट कर डालें, या फिर सोशल साइट्स को अपनी जागीर बना लें जहां किसी तरह की खिलाफत की इजाजत न हों । फिलहाल कविताई अपने परम्परागत रूप को अर्थात किताबी रूप को बचाने की जद्दोजहद से गुजर रही है । जिसमें कई नए कवि शामिल हैं । ऐसे ही एक कवि हैं सुमन कुमार सिंह ।
सुमन कुमार सिंह ने पिछली सदी के अंतिम दशक में कविता के क्षेत्र में कदम रखा था। वे आम जनजीवन के आम व खास दोनों तरह के संघर्ष को अभिव्यक्त करते रहे हैं । हिंदी कविता की युवा पीढ़ी में उन्होंने एक पहचान भी बनाई है लेकिन बहुत धीरे-धीरे । दो दशक कविता के क्षेत्र में रहने के बाद अब उनका पहला कविता संग्रह आया है- "महज बिंब भर मैं "।
सुमन कुमार सिंह का यह संग्रह कई अर्थों में महत्वपूर्ण है । जब यह महसूस हो रहा था कि पारंपरिक रूढ़िवादी धार्मिक सामंती पुरूषवादी वर्जनाएँ को तोड़ दी गयी हैं और वे  विकृत अवशेष के रूप में अंतिम सांस ले रही हैं, उस दौर में जो कवि पीढ़ी सामने आई,  सुमन कुमार सिंह उस पीढ़ी के कवि हैं।  इस पीढ़ी ने सोवियत संघ का पतन को  भी  देखा और महसूस किया कि धार्मिक चरमपंथ से गठजोड़ कर साम्राज्यवादी पूंजी के नई आक्रामक दिशा में बढ़ रही है। इस पीढ़ी ने देश के पिछड़े गांव शहरों में बचे खुचे सामंती धार्मिक अवशेषों को नए रूप में संगठित होते देखा। किसानी घाटे का सौदा हो चुकी थी, बेरोजगारी पसर रही थी । बिहार में तथाकथित सामाजिक न्याय की सरकार के संरक्षण में खूंखार रणबीर सेना व नव धनाढ्य लंपट संस्कृति कुकरमुत्ते की तरह हर जगह पसर रही थी । नौकरी की संभावनाएं खत्म हो रही थीं। संयुक्त परिवार कलह, अभाव, बेईमानी, गाली गलौज व मारपीट का केन्द्र बन चुके थे। सत्ता संरक्षित अपराध का धंधा नई ऊंचाई हासिल कर रहा था । दूसरी तरफ दबे कुचले, गरीब, दलित पिछड़े, स्त्री शोषण-उत्पीड़न के पुराने दौर में धकेल दिये जाने की कोशिशों का विरोध कर रहे थे। यह उथल-पुथल का एक नया दौर था । ऐसे समय में सुमन सिंह ने कविता शुरू की और अपना स्पष्ट पक्ष चुना । 
सुमन कुमार सिंह की खासियत है कि वे चिल्लाते नहीं हैं, शोर नहीं मचाते हैं बल्कि कविता लिखते हैं । वे कहते हैं- '' पहाड़ पर चढना कभी आसान नहीं रहा / न है / जैसे लक्ष्य पर आगे बढना।'' इसी कविता में वे आगे कहते हैं ''हे मायावी! / हम नहीं जानते तो यह / कि तुम्हारे प्राण कहां बसते हैं / किस खोह में / और हम जानते हैं / अच्छी तरह / कि हमें क्या करना है / उस प्राण का ।'' कई नए रूपक व बिम्ब इस कविता संग्रह की कविताओं में हमें देखने को मिलते हैं। वैसे तो सभी कविताएं गौरतलब हैं परंतु 'आओ चांद', 'पधारो हे महानद!', 'ओ अविरल गंगे ' 'गंधाते बेहाये',  'बकरियां',  'मेरे बदले हुए शहर में' इस संग्रह की बेहतरीन कविताएं हैं ।
'आओ चांद',  'पधारो हे महानद!', 'ओ अविरल गंगे'  प्राकृतिक संसाधनों को कब्जियाने  की नव साम्राज्यवादी षड्यंत्रों की खिलाफत करती मानवीय प्रतिरोध की कविताएं हैं । कवि कहता है कि हे चांद उससे पहले की किसी धनेश्वर के द्वारा कब्जीया लिए जाओ, किसी धनेश्वर के तारामंडल की मशीन में पीस दिये जाने के पहले हमारी तहजीब बन जाओ कि कोई नपाक दैत्य तुम पर कब्जा करने की हिमाकत न करे । कवि कहता है कि सोन को बालू माफियाओं ने हड़प लिया, गंगा को भी हड़पा जा रही है । यह हम रोज देख भी रहे हैं कि किस तरह सोन जो हजारों लोगो को जीवन देता था उसे चंद बालू माफिया सीधे निगल गये । गंगा को हड़पने के लिए पाखंड का सहारा लिया जा रहा है । ये तीनो कविताएं हमें गहराई से संवेदित करती हैं। 
'गंधाते बेहाये' कविता भी आकर्षित करती है। बेहाये हमेशा उपेक्षा का पात्र रहे हैं । सुमन कुमार सिंह कहते हैं कि ये बेहाये घोंघे सितुहा मेढक जैसे कितने ही प्राणियों को आश्रय देते है । जब फूल खिलते हैं तो ये बेहाये विनम्रता से सिस झुका लेते हैं । भले ही इनका नाम बेहाया रख दिया गया हो लेकिन कवि इन्हे विनम्र भी कहता है यह अपने तरीके का बिलकुल नया बिम्ब है। उसी तरह 'बकरियां' कविता में कहता है कि ये बकरियां ऐसे चलती हैं जैसे कामगार महिलाएं । यहाँ भी कवि नए बिम्ब का इस्तेमाल करता है । मेरे बदले हुए शहर में कवि एक आततायी हत्यारे की हत्या के बाद आततायी ताकतों के द्वारा विंध्वस को रेखांकित करता है कि सत्ता किस तरह मौन होकर उनके उपद्रव को देखती है । यह साफ तौर पर यह बताती है कि आततायी ताकतों को सत्ता का संरक्षण था । यह बहुत ही धारदार कविता है । यह कवि की दक्षता को भी दर्शाती है। ऐसे विषय पर कविता लिखना बहुत ही मुश्किल होता है । 'आगे बधिक का घर है' कविता में कवि ने बहुत सावधानी से और सहज रूप में अंध भक्ति के परिणाम को दर्शा दिया है ।
आम तौर पर कवि की प्रेम कविता सर्वाधिक सम्प्रेषणीय व प्रभावशाली होती है, लेकिन सुमन कुमार सिंह यहाँ अपरिपक्व साबित होते हैं, ऐसा शायद इसलिए भी है कि वे कुछ ज्यादा आदर्शवादी दिखने का प्रयास करते हैं ।
कुल मिलाकर यह कविता संग्रह अपने समय का खास संग्रह है । 'जनता', 'हाथी', 'रक्षा सूत्र', 'एक है राजा', 'निरूपमेय डोडो', 'चैत के दिन' आदि बहुत अच्छी कविताएं हैं । पिछले तीन दशक के आम अवाम के संघर्ष व सपनों को प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त करने में यह संग्रह सफल रहा है । 

कविता संग्रह- महज़ बिम्ब भर मैं
 कवि- सुमन कुमार सिंह ।
प्रकाशक- बोधि प्रकाशन 
समीक्षक- राकेश कुमार  दिवाकर (मो- 8521815587)

Monday, May 15, 2017

सुमन कुमार सिंह की कवितायें

बूढ़ी हो रही माँ

मंद-मंद मुस्कुराती
दाव देती
चिंताओं-चतुराइयों को
बूढी हो रही माँ

सहज ही छू लेने को
धरती
वह कमान हुई जा रही

वह बूढी हो रही
मुझे चलते देख तन कर
विश्वासपूर्वक।

ढिबरी
माँ
और उसके पीछे लगी रहनेवाली
अभागन छाया
दीपावली के दिन भी लगी रही
घर-बासन सहेजने-संवारने में

रोशनी की होड़ को
जैसे पहचानती हो
अच्छी तरह कि
घंटे-दो-घंटे से
अधिक नहीं टिकनेवाली

कि स्नेह की बाती
कुछ ही देर
टिमटिमा सकेगी
काबू भर
तुलसी चौरे पर
कहाँ आई लक्ष्मी?
वर्षों से टकटकी लगाये है
माँ
बाट जोह रहा
पूरा गाँव

अक्सर घंटे-दो-घंटे के लिए
गर आई भी, तो
वहीं धूम-धड़ाके,
उन्हीं व्यसनों के साथ
झूमती-लौटती

कहो कि ढिबरी थी
जिसे आजी ने सौंपा था
माँ को
पिता के खाँसी और बलगम की
उपज थी ढिबरी

अक्सर चौंधिया देनेवाली रोशनी
के मुंह
कालिख पोतनेवाली,
दिवाली की मदहोशी के
टूटते ही
काम आने की
माँ-सी उपस्थित
मिट्टी तेल से भरी
मिट्टी की महक के साथ

ढिबरी...।
(बोधि प्रकाशन से प्रकाशित कवि के पहले कविता संग्रह 'महज़ बिम्ब भर मैं' से)