Wednesday, November 2, 2016

कवि बलभद्र के भोजपुरी गीत और कविता

भलहीं जे रहबो कुजतिया
भलहीं जे रहबो कुजतिया
ना ढोअले ढोआला इजतिया

लइका सेयान सभे भाॅंजे लउरिया
कातिक असाढ़ तानि सुते दुपहरिया
असकत के भरल मोटरिया
ना ढोअले ढोआला इजतिया

लाम-चाकर अतना कि आॅंटे ना बतिया
आॅंखि जाए जहॅंवा ले बाटे बिगहटिया
नवले नवे ना फुटनिया
ना ढोअले ढोआला इजतिया

घरवा में कुहुकेली कनिया-कुॅंआरी
हतिएसा बतिया प लात-मुका-गारी
देखत झवान भइल मतिया
ना ढोअले ढोआला इजतिया

बड़े-बड़े लोगवा से नेवता हॅंकारी
बड़का कहाए के बड़की बेमारी
जतिए भइल जहमतिया
ना ढोअले ढोआला इजतिया


अबेर हो जाई
गड़िए में बचवा सबेर होइ जाई
ठाॅंवे-ठाॅंवे रोकबऽ, अबेर होइ जाई

खाइब-पियब कइसे के रतिया कटाइब
काल्हुए सहेबवा का बतिया बताइब
कुल्हिए कइलका अनेर होइ जाई
ठाॅंवे-ठाॅंवे रोकबऽ, अबेर होइ जाई

नाहीं बा सड़किया, ना सुविधा-सहूर बा
टेसन से गॅंउवा हमार बड़ा दूर बा
साॅंप-बिछी गोड़वा कॅंटेर होइ जाई
ठाॅंवे-ठाॅंवे रोकबऽ, अबेर होइ जाई
होइहें अन्हार राहे-बाटे बटमारवा
अरजल धन सून छन्हिया छपरवा
हॅॅंसिए बखेरा में अन्हेर हो जाई
ठाॅंवे-ठाॅंवे रोकबऽ, अबेर होइ जाई

गइया दुआर खूॅंटा अन्हके बछरुआ
घरवा बेहाल कवनो नाहीं रे पहरुआ
नेहिया टॅंगाई के बॅंड़ेर होइ जाई
ठाॅंवे-ठाॅंवे रोकबऽ, अबेर होइ जाई

गफलत परी हाय गिर-पर जइबऽ
सॅॅंचल सनेहिया के कइसे बॅंचइबऽ
हाथ-गोड़ का जाने ढेर होई जाई
ठाॅंवे-ठाॅंवे रोकबऽ, अबेर होइ जाई

भाई-भउजाई तहार माई ताके रहिया
मने-मने बाबूू देलें अपनो उमिरिया
रोटिया सुखाइ के कड़ेर होइ जाई
ठाॅंवे-ठाॅंवे रोकबऽ, अबेर होइ जाई

आजुए ना कल्हुए त लड़ि जाले रेलिया
चिरई के जान लइका के खेलिया
दिने-दुपहर गधबेर होइ जाई
ठाॅंवे-ठाॅंवे रोकबऽ, अबेर होइ जाई

गड़िए में बचवा सबेर होइ जाई
ठाॅंवे-ठाॅंवे रोकबऽ, अबेर होइ जाई

गम काथी के बा
हम त काॅंट-कूस चलवइया
हमरा गम काथी के बा
हम त ताल-तूल बन्हवइया
हमरा गम काथी के बा

देह अॅंइठलऽ रोबे आपन
लोक बिगड़लऽ रोबे आपन
हम त साॅंच-साॅंच कहवइया
हमरा गम काथी के बा

सगरो भरम-भेद फैलवलऽ
सहक-सनक के माथ गिरवलऽ
हम त नेह-छोह सॅॅंचवइया
हमरा गम काथी के बा

आखिर माया-मरम छुपल ना
कंचल काया फरल-फुलल ना
हम त रूप-रंग रचवइया
हमरा गम काथी के बा

रोजे-रोज बनवलऽ सेना*
तब्बो कवनो जोर चले ना
हम त अंतकथा लिखवइया
हमरा गम काथी के बा

*सेना- बिहार की निजी सामंती सेनाएँ 

खत अगिला में शेष
जालऽ कवना दो देस
देके जोगिनी के भेस
आहो अॅंखिए में कटि जाला रतिया नू हो
जालऽ कवना दो देस...

पीहऽ फूँकि-फूॅंकि पानी
बिसरइहऽ जनि छान्ही
आहो ठोपे-ठोपे चूए बरसतिया नू हो
ढाॅंपी अॅंचरा कि केस?
जालऽ कवना दो देस...

जोते बोए के सुतार
नाहीं केनियो उधार
घरे ससुरू बेमार
सासु आॅंखे अलचार
आहो थउसल सॅंउसन उमिरिया नू हो
कहीं कतना कलेस!
जालऽ कवना दो देस...

एगो धउगल डोले
एगो टापा-टोंइया बोले
जानीं सॅॅंझवा ना भोर
बा समइया मुॅंहजोर
आहो फरके से छाॅंटेलऽ फुटनिया नू हो
इहाॅं ठाॅंवे-ठाॅंवे ठेस
जालऽ कवना दो देस...

होला काॅंव कीच हाला
झूठ भइलें धरमसाला
जाने कतना दो बोझा
लउके केहू नाहीं सोझा
आहो बखरे बेहाल बखरिया नू हो
आहो दूनो हाथे बजिहें थपरिया नू हो
खत अगिला में शेष
जालऽ कवना दो देस...

जालऽ कवना दो देस
देके जोगिनी के भेस



मधुर राग में
खाए से जादे खिआवे के सुख
दिन के फिकिर, दुनिया भर के
सुति जाली सिरहाना सहेज

चूल्हि दमक दिहलस
तसला के बाफ ठंढक
उनकर सबसे पाॅंखवार दिन
चउकठ के पाठ से टकरा के गुुजरल
जबसे होस हम सम्हरलीं
घेरत घटा के
लुभावे से बेसी
उनके के सचेत करत पवलीं
उनका लिलार के रेख से पुछलीं
पुछलीं आॅंगन के माथ प मेड़रिआत मेघ से

उमिर का थकाई उनका के!
थका दिहलस ठेहुना के दरद

उनका दरद के बारे में सोचत
इयाद परेला दॅंवरी
मेह घेरवटत मुॅंह जाबल महादेव

जबकि सभे नीन में रहेला
बिचहीं टूटल मनभावन सपना
जोड़े के कोशिश में केहू-केहू
नीम के पतइन बीचे बइठल भुुचेंगा
भोर के अगरम पाके शिव-शिव गुहरावेला
आ मधुर राग में गावेली माई-
‘...अमवा लगवलीं टिकोरवा के आसा
बहि गइलें पुरवा चुअन लागे लासा...’

आ भोर के झुलफुल चदर ओढ़ि
सिरहाना से
उठा लेली सहेजल आपन चीज मनगॅंवे
उनका खटर-पटर के संगे
पसर जाला दिन के दुधमुॅंह मुसकी
दुनिया भर के


जा रहल बा लोग, अबकियो
ऊ लोग गुरुप में बा
साॅंस-में-साॅंस गॅंथाइल-जेनरल डाबा में
चूरा-चबेना के फाॅंका में
मन के अपना फरियावत-फॅंफरियावत

कमा-धमा के रहे लोग आइल
फेरू जा रहल बा- कमाए-धमाए
घर के, खेती-खरिहानी के-
तास सम्हार के
सम्हारे भर भरि के
फेरु लवटि आवे खतिरा
ई जतरा

सटि-सुटि के बइठल, बइठवले
बीड़ी धरावत
खइनी बनावत
नीन के बेसम्हार झोंका
बगलवाला कान्ह प सम्हरावत

नया नइखे ई सफर
ना रेल, ना टीटी, ना पुलिस
ना हल्ला, ना हुज्जत, ना खोमचा-खॅंचोली
नया नइखे पानी बिना परान घुटुकत नल
बाकिर! के जाने कइसे, कुछ अइसन
कि जा तारे जा
पहिले-पहिले जात जइसन
सभत्तर लुटात-डॅंटात
डब्बा के हज-हज में
गाॅंव-घर के फेंटले आपन बात
जा रहल बा लोग- हॅंसत-हहात
साल-छौ महीना के दूरी के
कठिन एहसास में दहात
जा रहल बा लोग एगो झोंक में
एह झोंक में दिल्ली बा झलकत
झलकत बा सूरत...

दियरखा प छूटल चुनौटी के संग
जइसे छूटि गइल होखे मन
जा रहल बा लोग
अपना के छोड़ले...

निसबद रात में
दीया अस बरी अबकियो
गीत बन झरी
कूकर, कराही भा ताल ठोंकी तसला प
ईहे छुटलका

जा रहल बा लोग
अबकियो
कतने कुुल्हि बात
कतने फरमाइस
कतने कुल्हि आस-फाॅंस लिहले
लवटि के आवे के दिन धइले
जा रहल बा लोग
अबकियो....



अपनापन एगो जियला अस
कबो बेटा के तरफ
कबो पतोह के तरफ
कबो बेटी
कबो दामाद के तरफ
बोलेली माई
बेटा-पतोह के तरफ जतना
कम ना तनिको बेटी-दामाद के तरफ
बाबू जहिया उतरल-उतरल
भा लउकेलन थाकल-थहराइल
भा कम जहिया खालन
उनका से हिर-फिर पूछेली माई
बाकी जब बोले के होला
त बहुते कम बोलेली बाबू के तरफ

उनका बोले के जगह के नइखे कवनो कमी
ऊ रसोई घर से बोल सकेली
बोल सकेली भंडार घर से
आॅंगन-दुुआर भंडार घर से
आॅॅंगन-दुआर
कवनो कोना कवनो अंतरा से बोल सकेली
ऊ जहॅंवा से बोलस चाहे जवना तरे
भाषा में उनका ना परेला कवनो खास फरक
बोलेली त जरुरियो ई नइखे
कि लग्गे उनका होखबे करे केहू

ऊ बतिया लेली चूल्हा से
तावा-चउकी-बेलन से बतिया लेली भरपेट
सूप से चलनी से
बहुत फरिछ भाषा में बतिया लेली झाड़ू से
अनाज के बोरा आ फाटल-पुरान झोरा से
बरिस-बरिस के ई अरजन उनकर आपन

उनकर बोलल-बतियावल
कबो लड़ला अस लागेला
कबो गीत कवनो गवला अस
जेठ के दुपहरिया में
ओरियानी तर एक सुर में बोलेलें स पंडुक
काम के पल्ला छटका के सुस्तालें मजूर
आ सुस्ताली माई
सुुई-धागा के हर टोप पर
मतलब छोड़त चीजन के नया एगो मतलब देत
अपनो के मतलब से जोड़त हर टोप पर

तीज-तेवहार के मोका प कवनो
भा असहूॅं बीच क के सूक भा सोमार
घरर-घरर ताल आपन ठोकेला जाॅंत
उचटि जाला घर के बड़-बनुआ नीन

जाॅंत के उखाड़े के चलल जब-जब बात
उखड़ि गइली माई
कि जइसे कि उखाड़त केहू उनुके के होखे

गाॅॅंव में आटा-चक्की के नइखे कवनो कमी
घर-दुआर चूल्हा-चउका बदल गइल बहुते
बहुते बदल गइल बात-बेवहार
तब्बो रुकल नइखे ई जाॅंत
नइखी रुकल माई
खूब बा दवर आ दरकार
खूबे खीस-पीत
खूब बा अपनापन
ऊ बोलेली अपना अपनापन के तरफ
एह अपनापन के जियला अस बाटे
उनकर बोलल-डोलल



हद बाड़ी स!
हद बा
अतना रोक-टोक के बादो
चहकि रहल बाड़ी स ई लइकी
जाए के बा बक्सर
पुरहर एगो गोल में
बहकि रहल बाड़ी स ई लइकी
हद बाड़ी स

बिरत रात ले गावत-बजावत
सहेजत-सरियावत एक-एक चीज
बिरत रात ले
तेयारी में बाड़ी स

कब सुतली स
कब जगली स
कब भइली स तेयार
कहल कठिन बा
होत फजीरे बइठे लगली स बस मंे
पिछिला सीट प
एक पताॅंह से
भउजियो के छोड़ली स ना
खींच ले ली स अपना लग्गे
घूघ-घेरा सरका देली स
एकनिए के लग्गे, लागि के
बेबइठले रहली ना
आजी, चाची, माई आ मउसी

बस अपना चाल में आइल
आ लइकियो अपना गोल-ढोल के साथे
मुॅंह प एकनी के झूलि-झूलि आवत रहे केस
खात रहे रहि-रहि के झटका
जतने ऊ रहली स बस में
ओसे तनिको कम ना सड़क प
हाट-बाट के कतने कुल्हि लोग
लय-बहार ई लोक लेत रहे लपकि-लपकि
बस के संगे उड़त धूूर के जाके पार

अनेर नइखे ई चहक-बहक
ढोल आ बोल
तान आ ताल नइखे ई अनेर
गहगहा रहल बा बस
नस-नस में दउरत खून अस
सनसनी एगो पसरि रहल बा सगरो

हद बा
अतना रोक-टोक के बादो
गा-बजा रहल बाड़ी स
अतना गवला-बजवला के बादो
रोक-टोक में बाड़ी स
हद बाड़ी स!



काका के गइला के बाद
चाय त बनी
रोज
बूढ़, जवान, लइका, मेहरारू सभे सुरुकी
ना होइहें त एगो मुखिया काका
खाटी के पाटी से ना होई लागल उनुकर डंटा
दोसर कवनो डंटा उपरा लिहें स लइका
खेलिहें स घोड़ा-घोड़ा
केहू अउर के लुकवा के जूता, केहू अउर उहाॅं होई-
मने मुसुकात, मुॅंहे छिछियात-बिखियात

आसमान में बदरी-कबो झमरी, भा करी खूब झापस
फुहियाई भा फाटी, भा घमरस बरखी
कबो दिन-दिन भ सूरुज के सॅंवस ना लागी कि झाॅंकी
त आॅंख प तरहथी के ओट से, जब कवनो मौसम-विज्ञानी
थाही कि कबले निबद्दर हो पाई आकाश
काका के आई इयाद

केहू किहें हित-नात अइहें
तै-तापर होई शादी-बियाह
बिकाई-किनाई केहू के बैल, गाय बियाई
केहू घरे सोहर गवाई
भा आई कवनो आफत
झाॅंकियो ना पारी
जब केहू किहाॅं केहू
त काका के रहला के माने बुझाई
काका के गइला के बाद

जे उठावत रहे तनखाह
हलुको-पातर नगद के आवग रहे जेकरा
ना जानि पावल ऊ, काका के घुकुुड़ियाइल कद-काठी के राज
उनुका बूता के बहरी रहे काका के मन के पीर-पहचान

समिलात सताइस बिगहा के जोत
परथकू होखे तक जवना के, शान से गिनत-गिनावत अइले आपन
बान्हि के राखल चहले जवन इज्जत-बरोह
हर लेलस ऊहे, उनुका भीतर के आग-पानी

उनका बारे में जवन चाहत बानीं कहल साफ-साफ
अॅॅंटक के अझुरा जा रहल बाटे बिचहीं
उनुका जिनगी के तार, के जाने कवन-कवन दुविधा में
ना झनक पावल, अपना रंग-राग में कबहीं

एह धरा-धाम से मुकुती के
महीना-डेढ़ महीना पहिले के बात उनुकर
नाच रहल बाटे सुरता प हमरा
कि सचहूूॅं, जाति-जनेव से आदिमी के पहचान बा अनेर...
कि आदिमी के सोचे के परी, आदिमी बन
उनुका जिनगी के रहे ई निचोर, कि कवनो मुॅंह देखल बात!

उनुका गइला के कई-कई दिन बाद ले, रोज साॅंझ खा
काकी जोहत रही, बगही* से उनुका लवटला के बाट
*बगही- एक स्थानीय बाजार



ई सोचि के
ई सोचि के ना बनल रहे ई पुल
कि लोग एह पर बइठी-सुहताई
बोली-बतियाई
खइनी-बींड़ी बनाई-धराई
चरवाह चढ़ि तकिहें
कि गाय-गोरू गइलें स केने
लगइहें हाॅंक
बूनी-बदरी में लुकइहें
गोबर-गोइंठा बीने वाली
गढ़ेवाली घास जुड़इहें एकरा नीचे
का-का दो ना बतियइहें
हेरिहें ढील
ई सोचि के थोड़े ना बनल रहे
कि पानी जब आई अफरात
एह पर से कूदिहें-फनिहें लइका
साॅंझ से बिरत रात ले
खाये के खोज-पुकार ले
रहिहें एही पर जमल
राही-बटोही पूछिहें
एह पर बइठल मनई से
कि ए भाई
बर्हमपुर परी कतना दूर
रानीसागर जाई कवन राह

मामा जो अइहें
बहिन से अपना भेंटे से पहिले
एही पर होइहंे नया-पुरान
केहू खुरपी पिजाई
केहू हॅंसुआ-कुदारी के बेंट सोझियाई
ललकारी केहू फगुआ-चइता
पेठाई केहू गीतन के जरिए कलकत्ता सनेस

ना बनल रहे ई सोचि के
कि एकरा जरी बनी छठ के घाट
माई अपना छोटकी पतोह के
दीहें कलसुप

ई सोचि के थोड़े बनल रहे
कि रहले ई रही
कि एह पर कहियो
लिखल जाई कविता

(लोकायत प्रकाशन, बी-2, सत्येंद्र कुमार गुप्त नगर, लंका, वाराणसी-221005  से प्रकाशित कविता संग्रह 'कब कहलीं हम' से साभार। मूल्य- 100 रुपए)









Wednesday, October 5, 2016

कुबेर दत्त की कविताएं

2 अक्टूबर 2016 को कवि-चित्रकारटीवी प्रोड्यूसर कुबेर दत्त के स्मृति दिवस पर हमने एक अनौपचारिक गोष्ठी कीजिसमें उनकी कविताओं को पढ़ा गया। पहले मैंने उनके सृजनात्मक व्यक्तित्व के सारे पहलुओं के बारे में विस्तार से बताया। कुछ संस्मरण भी सुनाए। मौजूदा तंत्र के भीतर रहते हुए किस तरह उन्होंने प्रगतिशील-जनवादी साहित्य-संस्कृति और विचारधारा के लिए काम कियाइसकी चर्चा की। संयोग से उनके सारे कविता संग्रह मेरे पास थे। हमने तय किया कि जिसको जो कविता पसंद आएवह उसे पढ़े और चाहे तो यह भी बताए कि उसे वह कविता क्यों पसंद आई।
कवि सुनील श्रीवास्तव ने एक छोटी कविता आंखों में रहना’ से कविता पाठ की शुरुआत की। उन्होंने कहा कि पहली ही नजर में यह कविता उन्हें अच्छी लगी। आज के बाजारवादी युग का जो प्रवाह हैउसमें हम बह न जाएंइसके लिए यह कविता प्रेरित करती है। उन्होंने स्त्री के लिए जगह’ और प्रेयसी से’ कविता का पाठ किया। कवि रविशंकर सिंह ने अब मैं औरत हूं’ और रात के बारह बजे’ कविता का पाठ किया। आशुतोष कुुमार पांडेय जो मोबाइल से कविता पाठ का वीडियो बनाने में मशगूल थेउन्हें टीवी और कैमरे से संबंधित टीवी पर भेड़िए’, ‘कैमरा: एक’ और कैमरा: दो’ शीर्षक कविताओं ने खास तौर पर आकर्षित किया। उनका कहना था कि आज टी.वी. पर बहुत सारी ऐसी खबरें आ रही हैंजो आदमी के अंदर आतंक पैदा करती हैंकुबेर जी ने उसी को अपनी कविताओं में समेटा है।
आज के दौर में जब अधिकांश टीवी चैनल पूरी तरह दमनकारीजनविरोधी सरकार के प्रवक्ता बन चुके हैंतब वैसे भी ये कविताएं प्रासंगिक लगती हैं। पर जब आशुतोष ने कैमरा : 2’ पढ़ना शुरू किया और उसमें निम्नलिखित पंक्तियां आईं-
‘‘टीवी सब दिखाता है
फौजी विजयघोष।
राजपथ विजयपथ दर्पपथ...
.........
राजा गाल बजाता है!
.........
सुरक्षा कवच पहन-पहन
बैठे सिपहसालार और सालारजंग
दायें-बायें नगर-प्रांतों में गोली-वर्षा जारी
शासन पर विजय का पल-पल नशा तारी।
............
सैनिक के बूटों के नीचे जो
बजता है
महाकुठार शवों-अस्थियों का
शस्त्रों का नहीं।
कनस्तर खाली है
माल-असबाब सब
अन्नखाद्यान सब
तन्नमन्नधन्न सब
विजय गीत की
स्वरलिपियों में बदल चुका।
दासानुदास प्रवर
बना बैठा है प्रधान
लोक-लोक बज रहा
सज रहा तंत्र-तंत्र
सत्ता के मंत्र पर
गर्दन हिलाता है
      विषधर वह....................’’
तो मैं और सुनील श्रीवास्तव एक साथ बोल पड़े- यह तो आज की कविता लगती है!
आशुतोष ने भंग संगीत समारोह’ कविता का पाठ भी किया।
इसी दौरान कवि-चित्रकार राकेश दिवाकर और कवि सुनील चौधरी पहुंचे। राकेश ने संसद में संसद’ और सुनील चौधरी ने हट जा... हट जा...हट जा’ शीर्षक कविता का पाठ किया।
आखिर में मैंने भी बोल अबोले बोल’, ‘संगीत-1’, ‘अयोध्या-1’, ‘अयोध्या-2’, ‘ओ केरल प्रिय-2’, ‘ओ केरल प्रिय-3’, ‘कोट्टकल में मई दिवस’, ‘कोट्टकल में बकरीद’ का पाठ किया। वरिष्ठ कवि विष्णुचंद शर्मा के रचना संसार से गुजरते हुए लिखी गई कुबेर जी की लंबी कविता अंतिम शीर्षक’ के पाठ के साथ इस अनौपचारिक गोष्ठी का समापन हुआ। गोष्ठी के बाद सबकी जो प्रतिक्रियाएं थीं, उससे महसूस हुआ कि किसी रचनाकार पर केन्द्रित इस तरह की छोटी गोष्ठियां जिसमें पूरे इत्मीनान के साथ उनकी रचनाओं को पढ़ा जाएउन पर बातचीत की जाएतो वह भी सार्थक हो सकता है।
यहां मैं इस गोष्ठी में पढ़ी गई कुबेर जी की कविताओं को प्रस्तुत कर रहा हूं। समयाभाव के कारण उनमें से पांच-छह कविताएं टाइप नहीं कर पायाइस कारण उन्हें यहां नहीं दे पा रहा हूं।

आंखों में रहना
दुख का पारावार भले हो
जीवन-गति लाचार भले हो
हे सूरज
हे चांद-सितारो
आंखों में रहना।

मतिभ्रम का बाजार भले हो
हे समुद्र
हे निर्झर, नदियो
आंखों में रहना।

स्त्री के लिए जगह
कोई तो होगी
जगह
स्त्री के लिए
जहां न हो वह मां, बहिन, पत्नी और
प्रेयसी
न हो जहां संकीर्तन
उसकी देह और उसके सौंदर्य के पक्ष में
जहां
न वह नपे फीतों से
न बने जुए की वस्तु
न हो आग का दरिया या अग्निपरीक्षा
न हो लवकुश
अयोध्या,
हस्तिनापुर,
राजधनियां और फ्लोर शो
और विश्व सौदर्य मंच
निर्वीय
थके
पस्त
पुरुष अहं
को पुनर्जीवित करने वाली
शाश्वत मशीन की तरह
जहां न हों
मदांध पुरुषों की गारद
जहां न हों
संस्कारों और विचारों की
बंदनवार
उर्फ हथकड़ियां
कोई तो जगह अवश्य होगी
स्त्री के लिए
कोई तो जगह होगी
जहां प्रसव की चीख न हो
जहां न हों पाणिग्रहण संस्कारों में छुपी
भविष्यत की त्रासद
कथा- शृंखलाएं
जहां न हो
रीझने रिझाने की कला के पाठ
और सिंदूर-बिंदी के वेदपुराण
कोई तो जगह होगी
स्त्री के लिए
जहां
न वह अधिष्ठित हो
देवियों की तरह
रानियों, पटरानियों
जनानियों की तरह
ठीक उसी तरह
जैसे कि
उस जैसे पीड़ित पुरुष के लिए
जो जन्मा है
उसी से
कोई तो जगह होगी।
हर जगह
सर्व शक्तिमानों के लिए
कभी नहीं थी
जैसे कि
अज्ञान और अधर्म के
लिए नहीं है हर जगह
कोई तो जगह अवश्य होगी।

प्रेयसी से
कहां गए वे दिन
जिन्हें हमने छोटे छोटे एल्युमीनियम के गमलों में बोया था?
धीरे-धीरे बड़े हो रहे थे दिन।
हमारे श्रमकर्षित जिस्मों से निकलती थीं ठोस इरादों की उसांसें,
बांस की छोटी सी झोपड़ी की खिड़की से आती ठंढी हवा
हमें सुबह की लड़ाई के लिए लोहा बना देती थी।
दिन भर हम भट्ठी में गलते थे
और शाम को देखते थे एल्युमीनियम के गमलों में
                                पलते-बड़े होते अपने दिनों को।
वे दिन थे हमारे लिए- तुलसी दल
                                पीपल
                                कनेर, बेला, गुलमेहदी, सूरजमुखी
                                गुलमोहर, तीज त्योहार, नए कपड़े,
                                नई किताबें, नई कविताएं, नये नृत्य-
                                संगीत रचनाएं, संघर्ष की नई खबरें,
                                नई तैयारियां, नई सफलताएं, नए मित्र
                                नए संवाद...
गमलों में उगते उन दिनों में
झलकते थे इंद्रधनुष, अलकापुरी, सैर सपाटे, अभियान,
पर्वत, समंदर, फूलों की घाटी की सैर...
चाबुक खाते लोगों के साथ हम भी लगाते थे इंकलाब का नारा
                                हो जाते थे लहूलुहान.... पर
                गमलों को सिरहाने रख हम
                सो जाते थे अगली सुबह की लाली को मस्तक पर
                                गालों पर
                                होठों पर
                                हृदय पर मलने के लिए...
कि जब एक दूजे के चेहरों में खुद को
और अपने जैसों करोड़ों अनाम साथियों को देख
                                रीझ रीझ जाते थे हम।
बिस्तर की सलवटों को
निकालते-चहकते हम सुनते थे प्रभात फेरियों के ताजा स्वर
और दुनिया भर के अंधे कुंओं की मुंडेर पर
                                खड़ी होकर चीखती भीड़ की आवाज-
                                                ‘सुबह हो गई,
                                                अंधेरा बेदखल हो!
...कि जब अखबारों के तेज तुर्श शीर्षकों को
कैंची से काट
हम असली खबरों की अलबम में चिपकाते थे...
...कि जब दफ्तर के बॉस को मुंह चिढ़ाते थे
और अपनी पसंद के शब्द लिखते थे सरकारी नोटशीट पर
कि जब मार्क्स और आदि शंकराचार्य
लेनिन और भगतसिंह
कबीर और पुरंधरदास और हरिदास
मीरा और आण्डाल- सबको मथते थे अपने अध्ययन कक्ष में
कि जब घर की खिड़कियों से झांकते
भेड़ियों को हम भगा देते थे जंगलों में-
                                डरा कर अपनी आंखों की लाल चिंगारियों से।
मगर फिर क्या हुआ?
याद है?
मुझे याद है।
मुझे याद है कि सचिवालय से आया था एक तेजाब का बादल
बरस गया था हमारे गमलों पर।
फिर भी हमारे इरादे सुरक्षित थे
तेजाब के बादलों के छंटते ही हमने देखी थी माफिया टोली
नहीं नहीं वे जादूगर नहीं थे-
बाजीगर नहीं थे
बहुरूपिये नहीं थे
उनमें थे व्यापारी, आरक्षी, अधिकारी-राजपुरुष-गुंडे-कातिल,
लबारची, चारण, चमचे, दलाल, कमीशनखोर, सटोरिये,
जुएबाज, चोर, बटमार और गोएबल्स के नए कम्प्यूटरी संस्करण।
उनमें हरेक के जबडों में फंसे थे
हमारे छोटे छोटे गमले
जिनमें रोपे थे हमने अपने दिन।
                वे हमारे दिन चबा रहे थे....
हमारे शरीर का तमाम लोहा और रक्त उन्होंने सोख लिया है
वे सोख चुके हैं हमारे मस्तिष्क का
                                तमाम विवेकी द्रव...
अपनी अपनी पोशाक पर
तीन रंगों का उलटा स्वस्तिक सजाए....वे
हमें गुलाम बना चुके हैं...
हमें बेहोश कर
हमारी नींद में उन्होंने ले लिए हैं हमारे अंगूठों के निशान-
                                अपने सोने-चांदी-हीरे और झूठ के
                                स्टाम्प पेपरों पर।
दशक धंस रहे हैं काल के गाल में।
धंस सकती है शताब्दी भी...
अगले दशक भी, अगली शताब्दी भी...
हमारी जलती लालटेन की बत्ती
उन्होंने निकालकर फेंक दी है।
.........................
अंधेरे, घुप्प अंधेरे में
छू रहा हूं मैं तुम्हें
टटोल रहा हूं
कोशिश कर रहा हूं जगाने की....
ताकि तुम्हारे चेहरे की
मायावी रंगत बेदखल हो....
तुम एक नहीं हो मेरी प्रेयसी
तुम महादेश की करोड़ो करोड़ जनता हो
तुम्हारी अधखुली, नींद भरी आंखों की कोरों से रिसते
सपनों के दृश्यबंध और
तुम्हारी चेतना में नर्तन करते
एक गोल गुंबद में रचे जादू के करिश्मों के
मायाजाल के तार काट सकूं...
                                बेताब हूं इसके लिए...

देखो तो/ जागो तो/ सुनो तो
सबके साथ यही हुआ है... ठीक यही...
हम सबके साथ यही हुआ है...
...............................
हां मैं देख रहा हूं साफ साफ
तुम जाग रही हो धीरे धीरे/ लोग जाग रहे हैं धीरे धीरे
रंगीन, सुगंधित कोमा की दलदल से लोग
धीरे धीरे उठ रहे हैं, संभल रहे हैं....
बुझी हुई लालटेनों की बत्तियां ढूंढ रहे हैं लोग...
अपने अपने गमलों में फिर से रोपेंगे
अपने पौधे, अपने स्वप्न
जिन्हें पोसेगी आजाद हवा।

मेरी प्रिय
आजाद सांस और आजाद हवा
                और आजाद धरती से बड़ा
                कुछ नहीं होता।
...मैं तुम्हारी आंखों की
                रक्ताभा में देख रहा हूं
                आजादी का
                                स्वप्न, पुनर्नवा!

(‘इन्हीं शब्दों मेंसंग्रह में संकलित यह कविता स्वप्न पुननर्वानाम से कविता की रंगशालासंग्रह में भी संकलित है।)

अब मैं औरत हूँ
मेरे आका
खिड़कियों के सुनहरे शीशे
अब काले पड़ चुके हैं
उधर मेरा रेशमी लिबास
                                तार तार...
कमरबंद के चमकीले गोटे में
                                पड़ चुकी फफूंद
तुम्हारे दिए चाबुक के निशान
मेरी पीठ से होते हुए
दिल तक जा पहुंचे हैं...
जिस्म मेरा
नंगा होने लायक अब नहीं रहा
उस पर दुबके हैं दुनिया भर के
                                अनाथ बच्चे...
तार तार मेरा लिबास
उतरते ही जिसके
एक इशारे पर
नहीं कांपने दूंगी उन बच्चों को
                तुम्हारे जूतों की कसम...
मेरे आका
मेरी-तुम्हारी आंखों की टकराहट से
नहीं पैदा होंगे अब
                अंगूर के बागान...
सभ्यताएं और थरथराएंगी-
तुम्हारे इरादों की जुंबिश पर।
ब्रह्मांड सिकुड़कर
नहीं जाएगा तुम्हारे नथुनों में अब...
तुम्हारी धमनियों में बहता
तीसरी दुनिया का लहू
बेगैरत अब नहीं रहा...
रौंद रहा तुम्हारी
सैनिक संगीत-लिपियों को
लोकसंगीत अब...
देख लो
गौर से देख लो मेरे आका
कि अब
असल में तुम नहीं रहे मेरे आका;
नई सदी का पहला आघात
हो चुका है तुम्हारी नाभि पर
तुम्हारी नाभि में
हलाक है आदमी की अधूरी यात्राएं...
गौर से देख
अब मैं कनीज नहीं
                                औरत हूं।

टी.वी. पर भेड़िये
भेड़िये
आते थे पहले जंगल से
बस्तियों में होता था रक्तस्राव
फिर वे
आते रहे सपनों में
सपने खंड-खंड होते रहे।
अब वे टी.वी. पर आते हैं
बजाते हैं गिटार
पहनते हैं जीन
गाते-चीखते हैं
और प्रायः अंग्रेजी बोलते हैं
उन्हें देख
बच्चे सहम जाते हैं
पालतू कुत्ते, बिल्ली, खरगोश हो जाते हैं जड़।
भेड़िये कभी-कभी
भाषण देते हैं
भाषण में होता है नया ग्लोब
भेड़िये ग्लोब से खेलते हैं
भेड़िये रचते हैं ग्लोब पर नये देश
भेड़िये
कई प्राचीन देशों को चबा जाते हैं।
                लटकती है
                पैट्रोल खदानों की कुंजी
                दूसरे हाथ में सूखी रोटी
दर्शक
तय नहीं कर पाते
नमस्ते किसे दें
पैट्रोल को
                या रोटी को।
टी.वी. की खबरे भी
गढ़ते हैं भेड़िये
पढ़ते हैं उन्हें खुद ही।
रक्तस्राव करती
पिक्चर ट्यूब में
नहीं है बिजली का करंट
दर्शक का लहू है।

कैमरा : एक
सिर्फ दृश्य ही नहीं पकड़ता है कैमरा
दृश्यों के रंग भी बदलता है
खुद नहीं रोता
दर्शक के तमाम आंसुओं को
श्रीमंतों के पक्ष में घटा देता है।
चमड़े के सिक्कों को
बदलता है स्वर्ण मुद्राओं में
भाषा नहीं है कैमरा
गढ़ लेकिन सकता है रत्नजड़ित भाषा
उजाड़ में उतार देता है परिस्तान
धरती पर स्वर्ग बसा देता है।
जहां नहीं है धरती
रच सकता है धरती वहां।
जहां है उखड़ी हुई जमीन
बसाता है बस्तियां वहां।
दिन या रात
या गहरी रात के किसी प्रकाश-इंतजाम में
कैमरा
स्लम और झोपड़पट्टियों की कतारों को
बनाता है आकर्षक
सजाता है बंदनवार शवों पर
मुर्दाघर को कर सकता है सराबोर
                समृद्ध शास्त्रीय संगीत से।
गैस पिये कंकालों के ढेर पर
रच देता है विश्व कविता मंच।
नैतिकता के
असमाप्त प्रवचन के दरमियां
ताबड़तोड़ गालियां देता है कैमरा।
प्रेम-मुहब्बत को
बना देता है
प्रेम-मुहब्बत की डमी।
आमात्यों के पक्ष में रचता है
                नयी बाइबिल
                रामायण, गीता नयी
                वेद, कुरान, पुराण नये
   और तो और दास कैपिटल नयी,
परिवारों और दिलों के
गुप्त कोनों, प्रकोष्ठों को
                करता है ध्वस्त।
दिखाता नहीं है फकत युद्ध
रचता है युद्ध भी
खा सकता है इतिहास
उगल भी सकता है, इतिहास का मलबा,
निगल भी सकता है भूगोल-
                                राज और समाज का

एक चेहरे पर अजाने ही
चस्पां कर देता है चेहरा ए और बी और सी
या
कोई भी नोट, पुरनोट
मुद्रा, स्फीति, प्रतिभूति, बैंक,
राष्ट्रीय पुरस्कार
अंतर्राष्ट्रीय तमगे
किरीट या गोबर के टोकरे
आदमी की काया को करता है फिट
मनचाहे जानवर के सिर पर।
सिर के बल खड़े
औचक भौचक इंसानों को
बदलता है
भाप
इंजन
इंधन
इलेक्ट्रान
शून्य
संख्या या गणित में।
अचेत इंसानों के इरादों तक को
गुजार देता है इन्फ्रारेड इंद्रजाल से
या खालिस सैनिक संगीत में
                                अनूदित कर देता है।
सिलसिला शवाब पर है
कैमरा प्रमुदित है
हे दर्शक
चाहे तो
गौर से देख
दिखाता जो कैमरा है
शक्तिशाली उससे भी
तीन आयामी फिल्में असंख्य
चलती हैं तुम्हारी चेतना के पर्दे पर
तुमने ज्यादा देखा है।
अभी तो
कुछ-कुछ नींद में हो
नहीं जो तुम्हारी कमाई हुई पूरी-पूरी
तुम चाहो तो
जा सकते हो
कैमरों के पीछे
चाहो तो
मोड़ सकते हो
कैमरों का लैंस भी
मोड़ते जैसे हो बंदूक की नाल
                                कभी-कभी।
यकीन कर
हे दर्शक
व्यू फाइंडर देखेगा वही
जो तुम देखना चाहोगे।
तय करो
कहां रहोगे अंततः
कैमरों के आगे
या पीछे?


कैमरा : दो
टीवी सब दिखाता है
फौजी विजयघोष।
राजपथ विजयपथ दर्पपथ
लेफ्ट राइट लेफ्ट राइट
लेफ्ट राइट थम।
सांस थामे
जीन कसे घोड़ों की
चमकीली पीठ पर
लहरियां लेता संगीत
बरतानी बाजों से
सांप की फुफकार-सा
       बाहर आता है
       राजा गाल बजाता है!
पार्श्व में
रोता है भारत का दलिद्दर!
सुरक्षा कवच पहन-पहन
बैठे सिपहसालार और सालारजंग
दायें-बायें नगर-प्रांतों में गोली-वर्षा जारी
शासन पर विजय का पल-पल नशा तारी।
ढेर-ढेर होता है
भारत का दलिद्दर
सचिवालय के पार्श्व में रोता है!
खद्दर से रेशम तक
खोई से साटन तक
पहुंच गया गणराज्य
सैनिक के बूटों के नीचे जो
बजता है
महाकुठार शवों-अस्थियों का
शस्त्रों का नहीं।
कनस्तर खाली है
माल-असबाब सब
अन्न, खाद्यान सब
तन्न, मन्न, धन्न सब
विजय गीत की
स्वरलिपियों में बदल चुका।
दासानुदास प्रवर
बना बैठा है प्रधान
लोक-लोक बज रहा
सज रहा तंत्र-तंत्र
सत्ता के मंत्र पर
गर्दन हिलाता है
      विषधर वह
      जिसकी फुफकार
      आती बाहर है
      बरतानी बाजों की नलियों से
                       छिद्रों से।

आसमान बारूदी
हवा, पानी, धरती सब बारूदी
भारत का दलिद्दर
खांसता है खांसता है।

संसद में संसद
1
संसद में बिकी संसद टके सेर
राजपथ पर सुलभ सारे हेर फेर
बिना मूल्य बिके मूल्य टके सेर
संसद में बिकी संसद टके सेर।
भाजपा जपा इंका तिंका
जद फद, जदस फदस
अगप सकप
सपा बसपा
लुक छिप सरे-आम
                बिना दाम
                लुट रहे टके सेर
संसद में बिकी संसद टके सेर।

2
कीचड़ मल सने राजकाज
हत्या हथियारों के व्यापारी
                लूट चके शर्म लाज
मादर
बिरादर तक सत्ता के
दरबदर घूम रहे-
                सत्ता के अपने ही गलियारे
                त्राहि त्राहि रहे टेर
संसद में बिकी संसद टके सेर।

3.
भाषण पर भाषण देता है दुःशासन
अनुशासन की चीर जांघ
सजा धजा हत्यासन
कविचारण, कलावंत, पत्रकार,
                                कलाकार
भाट रचनाकार करते
                                संकीर्तन
द्रौपदी का चीरहरण फिर जारी
वृहन्नला बने खड़े हैं-
जबर-बबर-रबर-शेर
संसद में बिकी संसद टके सेर।

4.
जनता को
गाय वाय
भेड़ भूड़
बकरी या ठेठ मूढ़
समझे हैं सदियों से
                धवल वस्त्रधारी पिंडारी
भाषा के आखेटक,
नियमों-अधिनियमों के
                नादिरी बहेलिये
हाड़ मांस नगर गांव
इंसानी हाथ पांव एक साथ खाते जो
                सभ्यता चबाते जो
मूल, सूद, पंचायत, पालिका, जिला, प्रांत...
देश-द्वीप-महाद्वीपखोर
ग्लोब की नसों पर, चिपके हैं-
                                जोंक से...
बारूदी, रक्तबुझी, स्वर्णतुला
तौल रही देश-दुनिया
संसदी चंगेज मुखरित हैं, मगन हैं
मगन उनके धूर्त, हिंसक पुतुल-सर्कस
संसदी चंगेज के गुंडे बजाते तालियां हैं
राम-महिमा के निकट ही
दाम-महिमा का हरम है
गरम है, खासा गरम है
शासनी बंदूक के घोड़े के पीछे-
                                                राम-रथ के,
                रोज की तनखा-खरीदे
                खच्चरी घोड़े खड़े हैं
उनके पीछे
क्रूर चेहरे
न्याय, समता की नटी की
ओढ़नी ओढ़े खड़े हैं
पोस्टर पर पोस्टर पर पोस्टर है
शब्दकोषों की धुनाई चल रही है
जन-लहू की
उन को बट कर
बुनाई चल रही है
हर अंधेरा मुंह छिपाए
                                भागता है-
                देखकर यह
                खून से तरबतर अजब अंधेर
संसद में बिकी संसद टके सेर।

5.
संसदी चंगेज के खूनी जमूरे
औरतों, मजदूर, बच्चों को, किसानों को
दफ्तरों, सड़कों, मुहल्लों को
कारखानों, मदरसों को
खेत को, खलिहान को
रायफल की नोक पर टांगे खड़े हैं...
पेटियां मत की हुईं तैयार
हुलसते हैं सेठ-साहूकार
लो,
उधर सुविधा-सलौने
                                उर्फ बौने
बिके, सत्ता-सिंके वे सब पत्रकार
झूठ की रपटें बनाने में जुटे हैं,
पत्रकारी के सभी आदर्श-
                स्वर्ण बिस्कुट
                मोद मदिरा से पिटे हैं
                                स्वेच्छा से, लुटे हैं;
खौफ के मंजर हैं या
जम्हूरियत के खाक पिंजर
रोज टीवी पर दिखाए जा रहे हैं
खून पीते
ग्लोब भर का नून खाते, चून खाते
                                                संसदी चंगेज
                रोज टीवी पर दिखाए जा रहे हैं
आदमी से आदमी तक
खिंच रही है बोल-भाषा की दिवार
इस सदी से दूसरी में
हो रही दाखिल
गुनाहों की मिनार...
कालिमा की
किंगडम का बनैला अंधेर...
संसद में बिकी संसद टके सेर।

हट जा...हट जा...हट जा
आम रास्ता
खास आदमी...
हट जा, हट जा, हट जा, हट जा।।
खास रास्ता
आम आदमी
हट जा, हट जा, हट जा, हट जा।।
धूल फांक ले,
गला बंद कर,
जिह्वा काट चढ़ा दे-
संसद की वेदी पर,
बलि का कर इतिहास रवां तू,
मोक्ष प्राप्त कर,
प्रजातंत्र की खास सवारी का-
              पथ बन जा
हट जा, हट जा, हट जा, हट जा।।
बच्चों की किलकारी बंद कर
राग भारती की वेला है
शोषण का आलाप रोक दे
राष्ट्र-एकता का रथ पीछे मुड़ जाएगा,
क्लिंटन-मूड बिगड़ जाएगा,
गौर्बाचैफ शिरासन करता रुक जाएगा...
आंख मूंदकर-
भज हथियारम्,
कारतूस का पावडर बन जा,
हत्यारों के नवसर्कस में
हिटलर का तू हंटर बन जा
हट जा, हट जा, हट जा, हट जा।।
सोच समझ के-
हेर फेर में-
मत पड़-
सुन ले-
मत पेटी के बाहर लिखा है-
ठप्पा कहां लगाना लाजिम’,
राजकाज के-
तिरुपति मंदिर-
की हुंडी में
सत्य वमन कर
      हल्का हो जा,
आंतों पर
सत्ता का लेपन-
कर, सो जा निफराम नींद तू,
मल्टीनेशन के अल्टीमेटम को सुनकर
पूजा कर तू विश्वबैंक की
कर्जों का इतिहास रवां कर
महाजनी परमारथ बन जा
हट जा, हट जा, हट जा, हट जा, हट जा।।
कला फला का,
न्याय फाय का,
अदब वदब का,
मूल्य वूल्य का,
जनहित वनहित,
जनमत फनमत
सब शब्दों का इंद्रजाल है
      इसमें मत फंस,
कलदारी खड़ताल बजा ले,
कीर्तन में लंगड़ी भाषा सुन,
सुप्त सरोवर में गोते खा,
धूप, दीप, नैवेद्य सजाकर
राजा जी की गुण-गीता गा...
आम आदमी
खास भरोसे,
राम भरोसे जगती को कर,
जनाधार का ढोल पीटकर,
परिवर्तन की मुश्क बांध ले,
सावधान बन,
शासन जी की इच्छाओं का
            प्रावधान बन,
शासित हो, अनुशासित हो जा,
जाग छोड़ दे, नींद पकड़ ले,
अपना आपा आप जकड़ ले,
आतमहंता वर्जिश करके-
एजडिजायर्ड शराफत बन जा
हिस्टोरिकल हिकारत बन जा
आदमखोर हिमाकत बन जा
रक्त-राग की संगत बन जा
हरी अप
हरी अप
हरी अप
हरी अप
भू देवों के नेक इरादों पर तू डट जा
हट जा, हट जा, हट जा, हट जा।।


बोल, अबोले बोल
1
बोल
अबोले बोल
अबोले बोल
फंसे जो,
भाषा के संकरे
भोजन-तलघर से लेकर
भाषा की वर्तुल ग्रीवा में
     गांठ-गांठ
     गठरी-गठरी में
     भाषा की ठठरी में बजती है
     अर्थ-समर्थ
          अनर्थ
          हुए सब डांवाडोल।
          बोल
          अबोले बोल
          अबोले बोल।
2
तम से उपजा
          काल
          हुआ आपात
उधेड़ा गात प्रात का
वणिक चक्र से ब्रह्मचक्र तक
काल काल आपात।
काल चबेना राजकाज का
जनता के आमाशय में जबरन ठूँसा जाता
चुभता बनकर विष-शूल।
कभी कलदार-खनक,
दक्षिणा-दंड वह
कुत्तों तक को नहीं हुआ मंजूर,
              हुआ मगरूर....
खोल, काल की ऐंठन खोल।
              बोल
              अबोले बोल, अबोले बोल।
3.
मुर्दे घूम रहे।
         बस्ती में।
सस्ती, सुंदर और टिकाऊ
सरकारों का
दंड-विधान लिए।
प्रेत-बाध को कील, कवि।
कर, सर-संधान प्रिये
घर,
मग में अब
        लौह-चरण
        सत्ता का उड़े मखौल।
        बोल
        अबोले बोल, अबोले बोल।
4.
शस्त्रों की
खेती उजाड़
भकुओं के भाषण
           फाड़
स्वेद कणों की देख बाढ़
            भागें लबाड़
            लुच्चे, बैरी, कुटिल-कबीले
            मुफ्तखोर, साधू-कनफाड़
काट डाल सपनों के बंधन,
तन के, मन के।
दायें-बायें उगी हुई जो
          खरपतवारी बाढ़,
खूब चले हंसिया कुदाल....
सोने की हेठी के
नाकों में लोहे की दे नकेल
शोषक सांप-बिच्छुओं को
धरती से नीचे दे ढकेल...
शिशुओं का क्रंदन बंद करो कवि
उनके आंसू का मंडी में लगे न कोइ्र मोल
दोहन का मिट्टी-गारा,
श्रम-कर्म-संपदा को, हे कवि।
पूरा-पूरा तोल
           बोल, अबोले बोल
           अबोले बोल।
परहित
जनहित के ध्वज फहरें
राजमहल पर, प्रासादों पर
दहल-दहल जायें
भूपतियों के कातिल संसार संवत्सर
स्वर्ण-बिस्कुटों की
जाजम
बिछ जाए वहां जनपथ पर।
जनता के घायल पद-दल से
         फूटें
         नव दिनकर।
क्रांति-राग के सम्मुख हारे
          खूनी शंख, ढपोल
          बोल
          अबोले बोल
          अबोले बोल।


अयोघ्या : एक
बाकर अली
बनाते थे खड़ाऊं
       अयोध्या में।
खड़ाऊं
जाती थीं मंदिरों में
राम जी के
शुक्रगुजार थे बाकर अली।
खुश था अल्लाह भी।
उसके बंदे को
मिल रहा था दाना-पानी
नमाज और समाज
        अयोध्या में।
एक दिन
जला दी गई
बाकर मियां की दूकान
जल गई खड़ाऊं-
मंदिरों तक जाना था जिन्हें
                हे राम!

केरल-प्रवास : तीन
कैंटीन के भीतर से आती
खुशबू ने मुझे लुभाया...
कैंटीन के भीतर जाकर
सांबर के संग चावल खाया
ऊपर से एक
छोटा पापड़
चरड़ चरड़ चड़ खूब चबाया
              कूट्ट भी खाया
            कद्दू का कुछ...
चार ओक पी रसम चरपरी
छाछ पिया फिर तीन कटोरी।
भूलभाल कर
दिल्ली, हिंदी
भूलभाल कर
शर्ट-पैंट, अंग्रेजी की दुम
मैंने भी लुंगी डाटी थी
तबियत खासी खांटी थी।
चलन हुआ रंगीला मेरा
चाल हो गई गबरू मेरी
मुझे देखकर
कैंटीन का पतला-सा वह
खुशदिल बैरा
फरर फरर हंसता जाता था
मानो कहता हो वह मुझको-
दिल्ली वाले के बस का यह
इमली रोज पचाना
यूं आसान नहीं जी
          मुश्किल है जी।
एक साल कम से कम रह लो
थोड़ी-सी मलयालम सीखो
थोड़ा-सा कर्नाटक म्यूजिक
केरल कला मंडलम जाकर
थोड़ी सीखो कला-कथकली
नंबूदरियों से भिड़ने का कौशल सीखो
थोड़ा सीखो हाथ चलाना, पैर चलाना
थोड़ा सीखो नाव चलाना
कई-कई दिन
घरवालों से दूर
समंदर के जबड़ों में
      रहना सीखो।
मच्छी पकड़ो
कच्छी पहनो
पैंट-शर्ट को अलमारी की भेंट चढ़ाओ...
नारिकेल के
ऊंचे-ऊंचे शहतीरों पर
सरपट-सरपट चढ़ना सीखो।
केरल की जनता के संग-संग
जीना सीखो, मरना सीखो,
ताप, घाम, बारिश-थपेड़ को
सिर-माथे पर धरना सीखो।
धारा के विरुद्ध तैरो तो
                 बात बनेगी
           इमली तभी पचेगी।
वरना श्रीमन्
नारिकेल की चटनी खाकर
केले के पत्तों पर थोड़ी
              उपमा लेकर
              अप्पम लेकर
लेकर थोड़ा
पान-सुपारी,
ताड़ी की कुछ
लाल खुमारी
हरियाली का
चुंबन लेकर
लौटो अपनी दिल्ली वापस
पहनो अपनी पैंट महाशय
पकड़ो अपनी ट्रेन महाशय
केरल को
केरल रहने दो।


संगीत : एक
कहां से आ रहा है संगीत यह?
शेल्फ में अंटी, धूल-सनी
किताबों में संभावनाएं भरता हुआ....
            यह संगीत कहां से आ रहा है...?
दिशाओं के
श्वेत परदों पर उभरने लगीं
सपनों में देखे सच की शक्ल...
मैले-चीकट चेहरों पर नाचने लगे
                     जुगनू...
खंडहरों में धूनी रमा रहे हैं
                बिस्मिल्ला खां...
भूतकाल के लैंपपोस्ट के नीचे खड़ी
खलास-बदहवास आकृतियों में
          उभरने लगे हाथ पैर सिर
                       अभियान...
अकादमियों की कारा से
मुक्त होकर दौड़ पड़े रचनाकार
विस्तृत मैदानों में
सांस लेते खुलकर
हवाओं को आलिंगनबद्ध करते....
          मुक्तिकामी रचनाओं का
          चुंबन लेते चुंबन देते....
जादू कर रहा है संगीत यह...
खुल रही है बस्ती की
          डरी दुबकी खिड़कियां
          सड़कों पर जुट रहे हैं लोग
          शिरस्त्रान कस रही हैं राजधानियां
          रक्षाकवच पहन रहे हैं भद्रजन....
चाबुक खाई मांओं की गोद में
लोरियां सुनते
         शिशु
         उठ बैठे हैं
         सीख रहे हैं जल्दी-जल्दी चलना
मौसम के तमाम
आदिम अर्थ लेकर
इतिहास की लावारिस
काली-सफेद सुर्खियां लेकर
आंसुओं के सूर्यमुखी लेकर
जड़ आत्माओं के विलुप्त गीत लेकर
और
मेरे समय के आधे हरे आधे भरे
घावों को दुलराता
और
मेरे समय के शब्दों को
              अर्थवान करता....
और
करता हुआ हजारों सुराख
               अंधेरे की दीवार में
               यह संगीत...
               आखिर
               कहां से आ रहा है?