Sunday, September 24, 2017

काग्रुएवात्स में पूरे स्कूल के साथ तीसरी क्लास की परीक्षा : सोमदत्त



[ 19अक्टूबर 1941 को यूगोस्लाव मुहिम के दौरान जर्मन सेनाएं, सुमादिया क्षेत्र के कस्बे क्रागुएवात्स पहुँची. 20 को उन्होंने गिरफ्तारियां कीं. उसी दिन फासिस्टों ने क्रागुएवात्स के प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल के 800 बच्चों को शिक्षकों सहित गिरफ्तार किया और गाँव के पश्चिम छोर पर बनी एक कच्ची बैरक में बंद कर दिया. रात भर वहां रहने के बाद दूसरे रोज़  21 अक्टूबर की सुबह 7 बजे से दोपहर 1 बजे के बीच वे बच्चे 10-20, 25-40, के समूहों में अलग-अलग अपने शिक्षकों सहित भून दिए गए. एक किलोमीटर क्षेत्र में लगभग 20 सामूहिक कब्रे बनीं.

जर्मनों के जाने के बाद जब उस गाँव और दूसरे गाँवों के बचे-खुचे लोग वहां पहुंचे तो उन्हें कब्रों और सूखे खून से सनी मिट्टी के बीच कुछ चिंदियाँ मिलीं, कागज़ की. वे चिन्दियाँ चिठ्ठियाँ थी जिनमें बच्चों ने, शिक्षकों, शिक्षिकाओं ने संदेसे लिखे थे, अपने प्रियजनों को संबोधित आख़िरी संदेसे.

2 मई 1981 को जब मैं ’21 अक्तूबर स्मारक’ पहुंचा तब पहली बार दूसरे महायुद्ध में मासूमों द्वारा झेली गयी यातना का मर्म मिला. क्रागुएवात्स, यूगोस्लाविया यात्रा की सर्वाधिक तकलीफदेह लेकिन मूल्यवान अनुभूति है. अब भी जब क्रागुएवात्स याद आ जाता है तब उन आठ सौ बच्चों की आवाजें .... यह कविता उन्ही की याद में- सोमदत्त]

सोमदत्त की कविता, उन्हीं की भूमिका के साथ ---उनके कविता संग्रह ‘पुरखों के कोठार से’



काग्रुएवात्स में पूरे स्कूल के साथ तीसरी क्लास की परीक्षा

शाम सात बजे
ममा, ममा
मुझे नींद आ रही है
पूरी क्लास को नींद आ रही है
सब जम्हाई ले रहे हैं
अभी-अभी मेरा तलुआ खुजाया
कई बच्चों ने तलुए खुजाए बारी-बारी से
तूने मेरा नाम लिया क्या ! ममा
दरवाजे पर खडे होकर पुकारा या
चेरी के नीचे से ?
वहां टूटी हरी बोतल का एक टुकड़ा पड़ा था
सुबह उससे बाल-बाल बचा मैं,
तुम्हारे साथ टामी भी था क्या
मुझे पुकारता,
अलबत्ता उसकी आवाज़ मुझे नहीं सुनायी दी
क्या तुमने उसके सर के बाल खुजा दिए मेरी तरह ?
उसकी आवाज हमेशा पहचान जाता हूँ मैं,
इस वक़्त
जाने कितने कुत्तों की
वैसी आवाज़ें आ रही हैं माँ
जिन्हें, तू रोना कहती है,
आज मन गणित की क्लास में
नताशा को फिर ज्यादा नंबर मिले
मुझे उसके बाद
मिरो को मेरे बाद, आन्तिच को मिरो के बाद
पान केक संभाल कर रखना
वास्को अंकल को बहुत पसंद है
चट कर जाएंगे,
ममा मुझे नींद आ रही है
सर को गाने सूझ रहे हैं
वे अपनी कैप घुटनों पर रक्खे बैठे हैं
मूंछों के नीचे हंसते हुए
आज पहलीबार वे हम सबको बार-बार गाने सुना रहे हैं
वे कहते हैं गाओ
दूना* का गीत गाओ
बीयोग्राद** का गीत गाओ
दिन भर हमने गाया, पूरी क्लास ने, पूरी स्कूल ने,
आज पूरा स्कूल एक क्लास में लगा है
क्लास स्कूल में नहीं लगी
आठवीं क्लास वाली सिस्टर वीश्निच---
अरे, वही वाली जिनकी आँखें बहुत काली
जिनके बाल भुट्टे के सर में उगे रेशों के रंग से
अरे वही माँ, जो पिछले साल परी बनी थी वह
अचानक दौड़ती हुई हमारी क्लास में आई
बोली
बच्चों! मेरे फूलों!
उनने “मेरे फूलों” क्यों कहा ममा?
हम कोई फूल हैं?
बोली, बच्चों !
यह हमारा नया स्कूल है,
जंगल में टीन से घिरा कोई स्कूल होता है क्या ?
कल सुबह परीक्षा होगी
तडके शुरू हो जायेगी
हरेक की होगी
बच्चों की, टीचरों की, प्रिंसिपल की,
पानी पिलाने वाली बूढ़ी आया की,
स्कूल के चौकीदार सूपिच की,
घंटी बजाने वाले को भी छुट्टी नहीं मिलेगी,
सब
एक लाइन में खड़े किए जाएँगे
फिर एक-एक से सवाल होगा
सवाल बन्दूक पूछेगी
और हमें मुंह से नहीं, अपने सीने से
जवाब देने होंगे
सिर्फ़ एक सवाल किया जाएगा एक से

परचा जर्मनी से आया है
कोई हिटलर है
उसने बनाया है
ऐसा कहके वे हंसीं
हमारी पूरी क्लास हंसी
हंसते-हंसते नताशा ने मुझे गुदगुदाया
मुझे खूब हंसी आई,
टीचरों की परीक्षा की बात सभी को भाई,
परीक्षा के डर के मारे ही
प्रिंसिपल सर भी नहीं हँसे,
और वह खूसट सूपिच जो हर वक़्त हंसता है
वह भी नहीं हंसा,
और न वह घंटी बजाने वाला,
हम लोग तो खूब हँसे
सबने ताली बजाई
कि बन्दूक से हम पहली बार खेलेंगे
उसके सवाल सीने पर झेलेंगे

पापा नहीं रहेंगे
तुम नहीं रहोगी
हमीं हम रहेंगे
खूब मज़ा रहेगा
ठांय-ठांय-ठांय-ठांय होगा
परी सिस्टर ने बताया
पूरे स्कूल से एक ही सवाल पूछा जाएगा,
ऐसा क्यों है माँ कि सभी से एक सवाल पूछा जाएगा?

इसी स्कूल में
आज रात भर रहना है
और मुझे नींद आ रही है माँ
टीचर कहती है अभी ब्रेड मिलेगी
टीचर ने बताया कि तुम्हे और पापा दोनों को मालूम है
सभी के मम्मी पापा को मालूम है कि
सब रात भर यहीं रहेंगे
ममा !
ममा !
अगले बरस जब मैं चौथी में जाऊँगा
तो ये जो जर्मन हैं न लाल चौकोर निशान वाला
उसको चेरी पर चढ़कर
अपनी गुलेल से एक पत्थर जमाऊंगा,
उसने अभी थोड़ी देर पहले
दूना का गीत गाती परी को
बन्दूक के हत्थे से नीचे गिरा दिया था,
ममा उनके मुंह का खून
मेरे सामने फैला है --- उसका रंग बदल रहा है
उसे देखकर मुझे डर लग रहा है
परीक्षा देकर कल जब घर आऊँगा
सब कुछ बताऊंगा
अभी मेरा मुंह सूख रहा है




रात बारह बजे

पानी
ममा ! पानी !
मुझे प्यास लगी है
भूख भी लगी है
नताशा रो रही है, मिरो और आन्तिच भी जाग रहे हैं
घास गड़ने लगी है
प्रिंसिपल सर लिख रहे हैं
अभी एक चिड़िया उडी-
आज दोपहर भी दो कबूतर उड़ते हुए आये थे
जर्मनों ने उन्हें गिराया मार,
फिर एक झुण्ड आया
उन्हें भी उनने गिराया मार,
दो लड़कों की कमीजें उतार कर उनने आग जलाई
दोनों लडके चिल्लाए,
अभी जब वे दोनों मुझे सपने में दिखे,
नंग-धडंग, जर्मनों को नोंचते, अपनी चेरी के सामने
टामी उन्हें देख भोंका
मुझे हंसी आई
हंसा तो नींद खुली
मुझे प्यास लगी है
कहीं पानी नहीं दिखता

सुबह पांच बजे
दूसरे रोज़


ममा, पूरी क्लास अब जग गई
तब अंधेरा था
प्रिंसिपल सर ने अपनी शानदार आवाज़ में कहा
खड़े हो जाओ
दूना का गीत गाओ
सबने गाया
तभी
वह जर्मन आया, उसने प्रिंसिपल सर के कंधे पर
बन्दूक का हत्था पीछे से जमाया और हंसा
कंधे पर हाथ रखते, गिरते-गिरते बचते सर भी हँसे
सर जब हँसे
तब डर लगा मुझे




सुबह सात बजे

ममा, धूप निकली हुई है
हमारे क्लास की परीक्षा शुरू होने वाली है
दस-दस लड़कों के लिए एक बन्दूक है

नक़ल से बचाने के लिए
दूर-दूर ले जाया गया है सबको स्कूल से
हर क्लास दस-दस पेड़ दूर है
मुझे इतनी प्यास लगी है, इतनी प्यास
कि बन्दूक की परीक्षा न होती
भाग आता में




सुबह साढ़े सात बजे
ममा बन्दूक वाले सर सामने खड़े हैं चौकोर निशान पहने
बाद में हम उनसे गंदे जर्मन की शिकायत करेंगे
परी हमारे पीछे
उनने जोर से कहा—
सीने से जवाब देना है
खोलो सीने, ऊँचे उठाओ अपने सिर,
अगर थका न होता मैं
तुम्हारे पेट तक उठा लेता अपना सिर
लेकिन तीनों बटन खोल लिए हैं
ममा
परीक्षा
शुरू
हर कोई
सवाल सुनते ही दूना की तरह लहराता
धड़ से, नीचे लेट जाता है
मैं भी ऐसा ही करूँगा---- पर चीखूंगा नहीं दूसरों के जैसे
फिर दौड़ता आऊँगा, पान केक...

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* यूगोस्लाविया में बहने वाली नदी- डेन्यूब जिसे हम कहते हैं|
** यूगोस्लाविया की राजधानी- जिसे हम बेलग्रेड कहते हैं|

(इस कविता को युवा कवि ने 2014 में उपलब्ध कराया था)

Thursday, September 21, 2017

न्‍यायदंड : कुमार मुकुल

हम हमेशा शहरों में रहे
और गांवों की बावत सोचा किया
कभी मौका निकाल
गांव गए छुटि्टयों में
तो हमारी सोच को विस्तार मिला
पर मजबूरियां बराबर
हमें शहरों से बांधे रहीं



ये शहर थे
जो गांवों से बेजार थे
गांव बाजार
जिसके सीवानों पर
आ-आकर दम तोड़ देता था
जहां नदियां थीं
जो नदी घाटी परियोजनाओं में
बंधने से
बराबर इंकार करती थीं
वहां पहाड़ थे
जो नक्सलवादियों के पनाहगाह थे



गांव
जहां देश (देशज) शब्द का
जन्म हुआ था
जहां के लोग
यूं तो भोले थे
पर बाज-बखत
भालों में तब्दील हो जाते थे
गांव, जहां केन्द्रीय राजनीति की
गर्भनाल जुड़ी थी
जो थोड़ा लिखकर
ज्यादा समझने की मांग-करते थे



पर शहर था
कि इस तरह सोचने पर
हमेशा उसे एतराज रहा
कि ऐसे उसका तिलस्म टूटता था
वहां ऊचाइयां थीं
चकाचौंध थी
भागम-भाग थी
पर टिकना नहीं था कहीं
टिककर सोचना नहीं था
स्वावलंबन नहीं था वहां
हां, स्वतन्त्रता थी
पर सोचने की नहीं



बाधाएं
बहुत थीं वहां
इसीलिए स्वतन्त्रता थी
एक मूल्य की तरह
जिसे बराबर
आपको प्राप्त करना होता था
ईमान कम था
पर ईमानदारी थी
जिस पर ऑफिसरों का कब्जा था
जिधर झांकते भी
कांपते थे
दो टके के चपरासी



वहां न्यायालय थे
और थे जानकार बीहड़-बीहड़
न्याय प्रक्रिया के
शहर से झगड़ा सुलझाने
सब वहीं आते थे
और अपनी जर-जमीन गंवा
पाते थे न्याय



न्याय
जो बहुतों को
मजबूर कर देता
कि वे अपना गांव छोड़
शहर के सीमांतों पर बस जाएं
और सेवा करें
न्यायविदों के इस शहर की
पर ऐसा करते
वे नहीं जान रहे होते थे
कि जहां वे बस रहे हैं
वह जमीन न्याय की है
और प्रकारांतर से अन्याय था यह
और उन्हें कभी भी बेदखल कर
दंडित किया जा सकता था
और तब
जबकि उनके पास
कोई जमापूंजी नहीं होती थी
उनके लिए न्याय भी नहीं होता था



हां, न्याय के पास
दया होती थी थोड़ी
और दृष्टि भी
जिससे उनका इस तरह बसना वह
लंबे समय तक अनदेखा करता था
बदले में थोड़ा सा श्रम
करना होता था उन्हें
जिससे न्यायालय तक जाने का रास्ता
चौड़ा और पक्का होता जाता था
और न्याय प्रक्रिया के
अलंबरदारों के लिए
रेस्तरां-भवन-दफ्तर
तैयार होते जाते थे



अब उन आलीशान भवनों से
न्याय की तेज रफ्तार सफेद गाडि़यां
जब भागती थीं सड़कों पर
और अपने सीमांतो का
मुआयना करती थीं
तो वहां बसे वाशिन्दे
उन्हें धब्बों की तरह लगते थे
जिन्हें मिटाने की ताकीद वे
पुलिस-प्रशासन से करते
और लगे हाथ उसकी
मुनादी भी कर दी जाती थी
इस तरह
न्यायपूर्ण शहरों की सीमाएं
बार-बार उजाड़कर
पीछे धकेल दी जाती थीं
और बार-बार
न्याय की दया दृष्टि उन्हें आगे
नए सीमांतों पर टिकने की
मोहलत देती थी



शहर की जो न्याय प्रक्रिया थी
उसमें भी
सोचने-समझने की मनाही थी
इसीलिए आधी सदी से वे
नहीं सोच पा रहे थे
कि हिन्दोस्तां के
इन गर्म इलाकों में



सालों क्यूंकर
गर्म काला चोगा उठाए फिरते हैं
कि क्यों हिन्दी-उर्दू-तेलुगू-तमिल की
इस जमीन पर
अंग्रेजी-फारसी-संस्कृत
डटाए फिरते हैं



जैसे-शहर
एक तिलस्म की तरह था
उसकी न्याय प्रक्रिया भी
एक मिथक की तरह थी
और एक मिथक यह था
कि सोचने-विचारने के मामले में
अन्धी है वह
और जब-तक उसके कान के पास आकर
कोई अपनी फरियाद नहीं दुहराता
उसे कुछ मालूम नहीं पड़ता
इसके लिए उसके पास
ऊंची आवाज में विचरने वाले
हरकारे थे
जो सीमांत के बाशिंदों से
लंगड़ा संवाद बना पाते थे
ये हरकारे
न्यायप्रियता के ऐसे कायल थे
कि मुनादी के वक्त
आंखे मूंदकर
उसके आदेशों को प्रचारित करते थे
न्याय प्रक्रिया के
इस दोहरे अन्धेपन का लाभ
सीमान्त की डंवाडोल जमीन के
बाशिन्दे लेते थे
और उनकी खुसुर-पुसुर देखते-देखते
विचारधाराओं का रूप ले लेती थीं
और जब तक वे
अन्धे कानून को छू नहीं लेती थीं
उसे इसका इल्म तक नहीं होता था
कि उसकी नाक के नीचे
कैसी-कैसी विचारधाराओं ने
अपने तम्बू डाल रखे हैं
ऐसे में परेशान न्यायदंड
तुरत-फुरत
अपनी धाराओं की सेवाएं लेता था
मजेदार बात यह थी
कि न विचारधारा साफ दिखती थी
न धारा
स्थिति की गम्भीरता का पता
तब चलता था
जब दोनों टकराती थीं
और उसकी आवाज
न्याय के ऊंचे दंडों तक जाती थी



अब एक बार फिर
वही पुराना न्याय
दुहराया जाता था
जिसमें अच्छी कीमत अदाकर
विचारधाराओं को
थोड़ी मोहलत दी जाती थी
कि वे अपना तेवर सुधार सकें



न्यायदंड के आस-पास
उसकी सहूलियत के
सारे साजो-सामान भी थे
यथा जेलें थीं
आदर्श कारागृह
वहां बुद्ध की
ऊंची पत्थर की मूर्ति थी
क्योंकि वहीं वह सुरक्षित थी
और कारागृह के निवासियों को
उसकी छाया में शान्ति मिलती थी
जो मोबाइल-चैनल्स-सुरा-सुन्दरी
और मनोरम उत्तर-आधुनिक अपराधों का
सेवन करते
वहीं टेक लेते
बिरहा और चैता का गायन सुनते
लोकगीतों के रसिक सीएम, पीएम
अपने काफिलों के साथ
महीनों वहीं छुट्टियाँ मनाते थे
इसके लिए उन्हें न्यायदंड की
धाराओं की
सेवाएं लेनी पड़ती थीं
फिर जेलों से बाहर आते ही वे
जेल प्रशासन की मुस्तैदी की
समीक्षा करते थे
कारागृहों का यह रूप देखकर
उत्तर रामकथा वाचकों का मन भी
विचलित हो जाता था
और धन-बल-पशुओं को
गीता का उपदेश देने
वे भी वहां जा धमकते थे




न्यायदंड के आस-पास
बिखरे हुए थाने थे
जो पूंजी-प्रसूतों को रास आते थे
बावजूद इसके ये थाने
ढहती लोककला के अद्भुत नमूने थे
जिसकी दीवार के पलस्तर के भीतर से
लाल ईंटें
अपना बुरादा झारती रहती थीं
और रात में जिन्हें
लालटेन की नीम रोशनी रास आती थी
न्यायदंड की सुरक्षा के लिए तैनात
ये थाने थे
जिनकी जीपें
जनता के उस खास वर्ग की
सेवा में जाती थीं
जो कि उसमें पेट्रोल भरा पाती थीं
जहां वैसी मुट्ठी गर्म करने वाली
जनता नहीं थी
वहां पुलिस भी नहीं थी
इसीलिए विकल्प की तरह वहां
आतंकवादी थे



राजभाषा के सारे कवि
न्यायदंड के पास ही निवास करते थे
अपनी अटारियों से वे
पृथ्वी-पृथ्वी चिल्लाते थे
पर पृथ्वी से उनका साबका इतना ही था
जितनी कि उनके गमलों में मिट्टी थी
जिसे सुबह-शाम पानी देते
वे निहारते थे हसरत से



ये कवि थे
और काले बादलों को देख
इनका खून
भय से सफेद पड़ जाता था
ये कवि थे जो न्यायदंड से
अपना प्रेमपत्र बचाने की
याचना किया करते थे



और न्यायदंड प्रेमपत्र तो नहीं
उन कवियों को जरूर बचा लेता था



वह उन्हें कीमती जूते प्रदान करता था
जो न्यायदंड को देखते ही
खुशी से मचमचाने लगते थे
वह उनकी कमरों को
बल (लोच) प्रदान करता था
जिस पर कलाबाजी खाते वे
विचारों को
महामारी की तरह देखते थे
और खुद को उससे बचाने की जुगत
भिड़ाते रहते थे
इनका एक काम
जनता की कारगुजारियों से
न्यायदंड को आगाह करना भी था



इन शहरों में
सार्वभौम कला की तरह
तोंदें थीं
जिसके हिसाब से मोटर कम्पनियां
अपनी डिजाइनें बदलती रहती थीं
नतीजतन सड़कों पर
डब्बे की शक्लवाली
बूमों-मन्तरों-काटिज आदि गाडियाँ
बढ़ती जा रही थीं
यहां अपहरण और नरसंहार
एक उद्योग था
जिसकी रिर्पोटिंग को
पत्रकारिता कहते थे
और पत्रकार खबरें नहीं लिखते थे
विवस्‍त्र रक्तिम लाशें गींजते थे
उनकी जातियों का हिसाब लगाते थे
और जनता सुर्खियों में तब आती थी
जब वह गोलबन्द हो
रैलियों में हिस्सा लेने आ धमकती थी
राजनेताओं के बाद प्रेस
चििड़याखानों के जीवों की
गतिविधि बताना
ज्यादा जरूरी समझते थे
क्योंकि उसका नगर के पर्यावरण पर
सीधा असर पड़ता था



बन्दूक पर निशाना साधते-साधते
हत्यारों-अपहत्ताओं और
निजी सेनाओं के स्त्री-शिशु संहारकों की
एक आंख कमजोर हो गई थी
इसीलिए मीडिया में जब भी
उसकी तस्वीर उभरती थी
तो उसकी एक आंख और आधा चेहरा
गमछे से ढंका होता था



इस बारे में लोगों के
जुदा-जुदा खयालात थे
कि ऐसा वे पहचाने जाने के
भय से करते थे
पर जनमत की राय यह थी कि
खौफ को सार्वजनिक करने के लिए
वे ऐसा करते थे



बुद्ध के बाद गांधी
हत्यारों की पहली पसन्द थे
मीडिया पर इश्तेहारों में
हिंसा को वे मजबूरी बतलाते
और मीडियाकर (दलाल) उनमें
गांधी की अकूत सम्भावनाएं तलाशते
थकते नहीं थे !