Friday, March 18, 2016

कहां हैं तुम्हारी वे फाइलें


विजेंद्र अनिल
मैं जानता  था: तुम फिर यही कहोगे
यही कहोगे कि राजस्थान और बिहार में सूखा पड़ा है
ब्रह्मपुत्र में बाढ़ आई है, उड़ीसा तूफान की चपेट में है।
तुम्हारे सामने करोड़ों की समस्याएं हैं
मुट्ठी भर आंदोलनकारियों की तुम्हें परवाह नहीं,
कि आंदोलन से किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता।

तुम वर्षों से, लगातार यही तो कह रहे हो
और सूखा हर साल पड़ता है, बाढ़ हर साल आती है
तूफान हर साल आता है और हर साल मरते हैं लाखों लोग

तुम्हारी फाइलों में सिर्फ आंकडे हैं
आंकड़े हैं उन बच्चों के जो अभी-अभी मां के गर्भ से बाहर निकले हैं
उन मर्दों के जिन्हें तुमने आॅपरेशन और इंजेक्शन के द्वारा नपुंसक बना दिया है
और उन खोखली योजनाओं के,
जिनका एक-एक पैसा घूमफिर कर तुम्हारी ही तिजोरियों में कैद हो जाता है।

कहां हैं तुम्हारी वे फाइलें
जिनमें हड़ताली खान मजदूरों पर चलाई गई
गोलियों के आंकड़े हैं?
कहां हैं वे फाइलें जिनमें जवानों के सीनों में
घुसेड़ी गई संगीनों के दाग हैं?
कहां हैं वे फाइलें जिनमें आंदोलनकारी छात्रों पर फेंके गए
टीयर गैस के गोलों और बंदूक के छर्रों के निशान हैं?
कहां हैं? कहां हैं वे फाइलें
जिनमें जिंदा जलाए गए हरिजनों और आदिवासियों की
लावारिस लाशों की गंध है?
तुम चालाक हो,
जानते हो, ये फाइलें आग बन सकती है।
इसलिए तुमने इन्हें बर्फ की सिल्लियों में छिपा रखा है।
मगर, लगातार पिघल रही बर्फ की इन सिल्लियों का
क्या करोगे?

क्या करोगे इन सिल्लियों का जो लगातार
हड़तालों और आंदोलनों के ताप से पिघल रही हैं?
तुम कागज की दीवार खड़ी करके गंगा के बहाव को
रोकना चाहते हो
तुम ‘ब्लास्ट फर्नेस’ में पिघलते लोहे की गर्मी को
चम्मच भर दूध और चुल्लू भर पानी से कम करना चाहते हो
वाकई, तुम बहुत चालाक हो!

हर पांच साल पर, तुम्हारे देश की सीमा पर होती है लड़ाई
कहते हैं खदेरू, गोरख, घीसू, भिखारी, जोखू और करामात के जवान बेटे

जो रोटी की तलाश में
अपनी गर्भवती बीवी को घर पर छोड़ कर
या बीमार बाप की खाट पर दवा की खाली शीशी पटक कर
या विधवा मां के मुंह से गिरते बलगम में खून के
थक्कों को देखकर
या रोटी के लिए चीखते बच्चों को पत्नी के आंचल में बांधकर
भाग गए
तुम्हारे ‘रिक्रूटिंग आॅफिस’ की ओर
और तुमने उनके हाथों में थमाकर लोहे की पतली-पतली नलियां
उनके माथे पर पटक दिया था देश का बेडोल नक्शा
और ऐलान कर दिया था कि यही ‘तुम्हारी मां है’-

...और जिस वक्त
कागजी मां की नकली सीमाओं की हिफाजत के लिए
वे अपने ही भाइयों के सीनों में घुसेड़ रहे थे संगीनें
अथवा दाग रहे थे तोपें और गोलियां
उस वक्त, तुम अपनी बीवी के जूड़े में खोंस रहे थे
रजनीगंधा के फूल
अथवा ‘नाइट शो’ से लौटने के बाद अपने एयरकंडीशण्ड
कमरे में बैठकर तोड़ रहे थे ‘रम’ और ह्विस्की के कार्क।

लेकिन यह सब कहना फिजूल है
मैं जानता हूं, तुम फिर यही कहोगे
यही कहोगे कि देश एक नाजुक दौर से गुजर रहा है
सीमा पर शत्रुओं ने गोली चलाई है
और फिर...
तुम्हारी टेबल पर नई नई फाइलें बिखर जाएंगी
तुम्हारे प्रेस, तुम्हारे रेडियो, तुम्हारे अखबार,
तुम्हारे टेलीविजन झूठ के बड़े-बड़े गोले उगलने लगेंगे।