Wednesday, April 1, 2015

इदू बाबा, किस अदालत में आपकी मौत के मामले में न्याय की अपील करूं?



बड़ी ही त्रासद खबर थी। इदू बाबा को आर्थिक तंगहाली, बीमारी और घरेलू कलह से मुक्ति की राह रेल की पटरियों के बीच मिली। घर से बाजार इलाज के लिए गए थे, लेकिन वहां से करीब दस कि.मी. दूर रेलवे स्टेशन चले गए और रेल से कट गए। 29 मार्च को इलाहाबाद में था, जब मंझले भाई ने फोन से उनकी मौत की खबर दी। बिल्कुल स्तब्ध रह गया। नहीं यह खुदकुशी नहीं है, जिस तरह ग्रामीण गरीबों और मेहनतकश किसानों-खेत मजदूरों को मौजूदा आर्थिक व्यवस्था मौत की ओर धकेल रही है, उसकी ही एक कड़ी है उनकी मौत। 

बचपन से ही इदू बाबा को मेहनत मजदूरी ही करते देखा। शरीर बिल्कुल छरहरा-तना हुआ और रंग मानो धूप की ताप से गढ़ा हुआ और मन सबके प्रति प्रेम और स्नेह से भरा हुआ। वे ज्यादातर खेती का ही काम करते थे, गांव में जब किसी का घर बनता, तो उसमें भी वे काम करते थे। किसी से कभी भी उन्हें लड़ते-झगड़ते नहीं देखा। न ही कभी बेईमानी या काम से जी चुराने की कोई घटना उनके बारे में सुनी। 

गांव में मुस्लिम समुदाय के कुछ ही परिवार हैं। उन्हीं में से एक उनका परिवार है। उनकी बड़ी बेटी सायरा मुझसे एक क्लास सीनियर थीं। पढ़ने में तेज थीं। मैं दो वर्ष शहर में रहकर आया था और सीधे तीसरे क्लास में दाखिला लिया था। उस वक्त अंग्रेजी अच्छी थी। लिहाजा अंग्रेजी के होमवर्क के समय सायरा दीदी कभी-कभी मुझे याद करती थीं। वहां जाने पर किसी न किसी अनाज का भूंजा जरूर मिलता था। अक्सर मुझे लगता है कि अगर उनके परिवार की स्थिति अच्छी होती, तो वे आगे भी पढ़ सकती थीं। लेकिन प्राइमरी स्कूल से आगे उनकी पढ़ाई नहीं हो सकी। 

बचपन में जब हमारे यहां तीन पक्के कमरे बने, तब भी इदू बाबा का घर मिट्टी का था और बहुत दिनों तक वैसा ही रहा। लेकिन जैसा कि छोटे किसान और मजदूर के बीच का अटूट संबंध होता है, वैसा ही अपनापे का संबंध था। अगर दादा और पिता जी की सरकारी नौकरी न होती, तो हम भी किसी संकट के दौर में मजदूर वर्ग की श्रेणी में आ सकते थे, जैसा कि हमारे समुदाय के कई परिवारों की स्थिति थी।

वक्त गुजरता रहा। हम तीनों भाई पढ़ाई-लिखाई के सिलसिले में शहर आ गए। एक-एक करके इदू बाबा के बेटियों की शादी हो गईं। दो बेटियां सपरिवार यहीं आकर उसी घर में रहने लगीं। मां से इदू बाबा के परिवार की खबर हमलोगों को मिलती रही। इदू बाबा की पत्नी यानी हमलोगों की इदू बहु दादी से उनका अच्छा संबंध था। हमेशा आड़े वक्त भी उनकी मदद के लिए तैयार रहती थीं। हमेशा मुझसे कहतीं कि ये लोग बहुत गरीब हैं, कि देखो इनका नाम बीपीएल में से कटवा दिया लोगों ने, कि क्या इनको गरीबों के लिए चलने वाली योजनाओं का लाभ नहीं मिलना चाहिए, कि इसका मतलब क्या है कि लड़कियां-दामाद घर में रहते हैं तो उन्हें उन योजनाओं का लाभ नहीं मिलेगा, ऐसी कोई शर्त है क्या? दिसंबर 2013 में जब मां गुजरीं, इदू बहु दादी बहुत दुखी थीं। अचानक एक दिन वे कुछ पैसे लेकर हमें देने आ गईं, मालूम हुआ कि किसी दिन मां की अनुपस्थिति में भाई से वे चोकर लेकर गई थीं, उसी की वह कीमत है। पैसे तो हमने नहीं लिए, जब नहीं मानीं, तो भाई ने कहा कि ठीक है उसके बदले कभी गोईंठा दे दीजिएगा। ऐसी संवेदनशील और स्वाभिमानी इदू बहू दादी ने किस तरह इदू बाबा की मौत की खबर का सामना किया होगा, मेरी कल्पना से बाहर है। इदू बाबा भी तो उतने ही स्वाभिमानी थे। अपने जांगर पर उन्हें गहरा भरोसा था और अपनी मेहनत पर नाज।

हां, जिनके लिए मैं कुछ नहीं कर सका, उनमें से आप भी एक हैं इदू बाबा। एक अपराधबोध-सा है मेरे भीतर। मुझे याद है उस रोज आप गांव से बाहर नहर पर पीपल के पास सुबह-सुबह मिले थे और मैंने मोबाइल कैमरे से आपकी तस्वीर खींची थी। आज आपकी तस्वीर देख रहा हूं। 13 नंवबर 2012 की है यह तस्वीर। मैंने प्रणाम किया, हालचाल पूछा और आपको पहली बार मैंने लाचार पाया। आप खेत में बोझा बांधने जा रहे थे, जिसके बाद उसे ढोकर खलिहान तक ले जाने का काम भी आपको ही करना था। आपने कहा था- ‘‘अब शरीर साथ नइखे देत बउवा। कहीं कवनो काम मिले त देखिहऽ जवना में ऐतना मेहनत ना होखे। कौनो आॅफिस में चायो पिलावे के काम मिल जाई त कर लेब।’’ 

मैंने आश्वासन दिया कि देखूंगा। घर आकर मां से इसका जिक्र किया तो उन्होंने उनके परिवार की अंदरूनी हालात के बारे में बताया। आरा में भी एक-दो साथियों से बात की, कि किसी को भी छोटे-मोटे काम के लिए किसी व्यक्ति की जरूरत हो तो बताएं। दिल्ली और इलाहाबाद में भी एकाध साथियों से जिक्र किया। लेकिन कोई रास्ता नहीं निकला। लगातार अपनी व्यस्तताओं और भागदौड़ में मैं भूल गया कि मैंने इदू बाबा को कोई आश्वासन दिया था। मां के निधन, अपनी अस्वस्थता के सिलसिले और नौकरी खत्म हो जाने के बाद की परिस्थितियों ने मेरे दिमाग को जकड़े रखा। अब लगता है कि जब उन्होंने कहा था, उसी दौरान अगर थोड़ा रुककर मैं कोशिश करता, कुछ और ज्यादा लोगों से मिलकर इस बाबत बात करता, तो शायद कहीं कोई थोड़े आराम का काम उन्हें जरूर मिल जाता। मैं आपके लिए कुछ नहीं कर पाया इदू बाबा, इसका अफसोस मुझे ताउम्र रहेगा। 

इदू बाबा, जब आपकी मौत की खबर मुझ तक पहुंची, मैं चार रोज पहले गुजरे एक प्रोफेसर और साहित्यकार की एक कहानी के एक बूढ़े चरित्र के बारे में सोच रहा था। मुझे उस साहित्यकार की श्रद्धांजलि सभा में बोलना था। उस कहानी में किराये के घर के एक कमरे में पड़ा एक बीमार बूढ़ा अपने जीवन के बारे में सोचता है तो उसे लगता है कि वह असफल इंसान है। उसकी असफलता का पैमाना जमींदारी वाला उसका अतीत है। जहां उसने हरे-भरे फार्म के बीच वह एक छोटा सा बंगला बनाना चाहा था। लेकिन जमींदारी नहीं रह जाती। खेत बिकते चले जाते हैं। उस बीमार वृद्ध को शिकायत है कि हरवाह जिसका परिवार उसका पुश्तैनी मेहतर था और जिसे खुद उसने दो बीघा जमीन दी थी, जिसका चाचा सूद पर रुपये चलाता है, वह उसे शोषक क्यों कहता है? कम्युनिस्टों और नक्सलियों से उसे शिकायत है। उसकी शिकायत यह है कि जो मार्क्सवादी एमपी है, वह उसी के घर रहकर पढ़ा करता था, अब वह मकान बना रहा है, खेत खरीद रहा है, दुकान चला रहा है और उसे शोषक बताता है। वृद्ध जिसने गांव के घर में कमरे नहीं गिने थे कि कितने थे, वह एक कमरे और उसके सोफे में पड़ा हुआ बताता है कि वह कभी अदालत नहीं गया। वह पाठक को ही अपनी अदालत बताकर एक तरह से न्याय की अपील करता है।

इदू बाबा, मैं किसकी अदालत में आपकी मौत के मामले में न्याय की अपील करूं? आपके पास तो उस कहानी के बूढ़े जैसा कोई स्वर्णिम अतीत भी नहीं था। हां, गर्वीली गरीबी थी, मेहनत का स्वाभिमान था। मां बताती थी कि आप मेरे पिता जी से उम्र में कुछ ही बड़े थे। यह कैसी व्यवस्था है, जहां आप जैसे सत्तर-पचहत्तर साल के वृद्ध को भी हाड़तोड़ मेहनत करने के लिए मजबूर होना पड़ता है? आप तो जिंदगी से मुक्त हो गए, इदू बाबा। आपका तो अंत हो गया। लेकिन सवाल तो बना हुआ है! और यह सवाल अपनी ही असफलता के दुख से घिरे कहानी के उस बूढ़े को भले न दिखाई दे, लेकिन कहानी से बाहर यह करोड़ों मेहनतकशों और गरीबों का तो सवाल है। आप कोई कहानी नहीं इदू बाबा, आप एक जीवित सवाल हैं। एक ऐसा सवाल जो किसी न किसी रूप में हम सबका पीछा कर रहा है, जिससे जान बचाकर शायद हम भाग नहीं सकते।