Friday, July 15, 2016

मधुकर सिंह : जनता का दोस्त जिसे दुश्मनों की पहचान थी


वे पैर जो देश के कई शहरों को नापकर आ गए थे, जो आरा और पटना के साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों, मित्रों, परिचितों के यहां कब मुड़ जाएंगे, इसका कोई निश्चित समय नहीं था, जो पूरे आत्मीय हक के साथ हमारे घरों के भीतर दाखिल होते थे और जिनके साथ आती थीं जाने कितनी खबरें, साहित्यिक-सांस्कृतिक दुनिया की हलचलें, देश-समाज की कुछ गंभीर चिंताएं और कुछ गाॅसिप भी, वे थम गए थे। मधुकर जी आते थे तो हम सबके लेखन और परिवार के सदस्यों का भी हालचाल लेते थे। आरा में जो नाटक की टीम है युवानीति, 1978 में उसकी शुरुआत शहर की एक मुसहर बस्ती में उन्हीं की कहानी ‘दुश्मन’ की नाट्य प्रस्तुति से हुई थी। युवानीति के संदर्भ में वे हमेशा संस्कृतिकर्मियों के बीच ‘पारिवारिकता’ की बात करते थे यानी सामूहिकता। इस परिवार के मधुकर सिंह बेहद प्यारे बुजुर्ग थे, हमेशा नौजवानी की ऊर्जा से भरे बुजुर्ग। लेखन के शुरुआती दौर में तो वे गीतकार और रंगकर्मी के रूप में ही लोकप्रिय थे। 1963 में प्रकाशित उनकी पहली पुस्तक ‘रुक जा बदरा’ भोजपुरी गीतों का संग्रह है। जिन लोगों ने उन्हें गाते हुए सुना है, वे उनकी आवाज में मौजूद लोक की करुणा और उसके माधुर्य को कभी भूल नहीं सकते। मैंने 1993 में उनके नाटक ‘लाखो’ में खलनायक की भूमिका की थी। उस नाटक में भी कई गीत थे। ‘तनी जाग ना जवान गांवा-गांई के/ काहे सुतल चदरिया तानि के’ उनका प्रिय गीत था। 
महुआ गीत (रुक जा बदरा)
‘महुआ का गीत’ उनका एक मशहूर गीत था, जिसे कवि-सम्मेलनों में हाल के वर्षों तक, जब तक वे स्वस्थ थे, सुनाने की हमलोग उनसे जरूर फरमाइश करते थे। बहुत मर्मस्पर्शी है वह गीत और मधुकर जी की आवाज में वह और गहरा असर छोड़ता था। छह साल पहले जब उन पर लकवा का आघात हुआ था, उसके बाद से फिर मैंने वह गीत नहीं सुना। पटना और आरा में कई जगहों पर उनका इलाज हुआ, पर उनके पैरों की ताकत वापस नहीं आई, धीरे-धीरे वे चलने-फिरने में असमर्थ हुए, अंतिम दिनों में उनकी श्रवण शक्ति भी जाती रही। जब भी मैं दिल्ली से आरा जाता, तो एकदम नियम की तरह उनके घर जाकर मिलता था, जब सुनने में उन्हें मुुश्किल होने लगी तो हमलोग उनसे लिखकर बात करने लगे। आवाज पर भी लकवे का असर पड़ा था, पर किसी के जाने पर वे बेहद उत्साह और खुशी से भर जाते थे और खूब बतियाते थे। बात करते-करते तीन-तीन चार-चार पन्ने भर जाते। हर बार विदा होते वक्त वे पूछते थे कि अगली बार कब आइएगा। एक दिन मुझसे कहा कि जसम और युवानीति की बैठक किसी दिन बुलाइए, मैं भी उसमें रहना चाहता हूं। व्यस्तताओं और मां के निधन के कारण दो-तीन महीने बाद इस जनवरी (2014) में जब उनसे मिला, तो उन्होंने एक काॅपी मुझे भेंट में दी, जो उन्होंने नवंबर से ही मेरे जन्मदिन पर देने के लिए रखी हुई थी। बीमारी और शारीरिक अक्षमता से उनके लेखक ने आखिर आखिर तक हार नहीं मानी। इसी साल दूरदर्शन की पत्रिका ‘दृश्यांतर’ में उनकी दो कहानियां छपीं। जब वह पत्रिका उन्हें देने गया, तब दिल्ली से लेकर पटना, आरा हर जगह के लोगों के बारे में पूछते रहे। इस बार कुछ घरेलू व्यस्तताओं में फंसा रह गया। सोच रहा था कि एक-दो दिन में उनसे मिलूंगा, तभी अचानक 15 जुलाई को शाम पांच बजे उनके अधिवक्ता बेटे अनिल का फोन आया कि थोड़ी देर पहले वे नहीं रहे।

मधुकर सिंह का जन्म 2 जनवरी 1934 को बंगाल के मिदनापुर में हुआ था। वहां उनके पिता जेल में पुलिस की नौकरी करते थे। लगभग दस साल की उम्र में ही वे अपनी मां के साथ अपने गांव चले आए। उनके जीवन का ज्यादा समय धरहरा गांव और आरा शहर में ही गुजरा। मधुकर सिंह, धरहरा, आरा यही पता उनकी रचनाओं के साथ छपता रहा। आरा में ही उनकी पढ़ाई-लिखाई हुई। किशोर उम्र से ही उनके पिता की अपेक्षा थी कि वे अर्थोपार्जन में लगें, लेकिन मधुकर सिंह पढ़ना चाहते थे। बचपन में शादी होने के कारण मैट्रिक में ही वे पिता बन गए। अपने परिवार की जिम्मेवारियां भी सामने थीं। लेकिन इन्हीं परिस्थितियों में उन्होंने न केवल बी.ए. किया, बल्कि साहित्य-संस्कृतिकर्म के प्रति रुझान भी उसी दौर में उनमें विकसित हुआ।

मधुकर सिंह जिस माहौल में जन्मे थे, वहां दूर-दूर तक परिवार और रिश्तेदारों में लिखित साहित्य की कोई परंपरा नहीं थी। अगर कोई विरासत थी, तो वह थी मौखिक साहित्य की। मधुकर जी ने लिखा है कि उनकी मां उन्हें बचपन में ‘बाउल’ लोकगीत तथा बंगाल और भोजपुर की लोककथाएं सुनाती थीं। 1950 में जब वे मैट्रिक में थे, तब पहली बार पटना से प्रकाशित ‘नवराष्ट्र’ में उनका नाटक ‘सरस्वती का मंदिर’ छपा। उन्होंने अपने गांव में नाटक मंडली बनाई, जो पर्व-त्योहारों के अवसर पर नाटकों का मंचन करती थी। धरहरा प्राइमरी पाठशाला से ही उनके सहपाठी रहे, उनके बालसखा कवि श्रीराम तिवारी बताते हैं कि उन लोगों ने गांवों में साहित्यिक नाटकों का मंचन किया। पचास के ही दशक में निराला, पंत, महादेवी से ये लोग इलाहाबाद जाकर मिल आए। साहित्यिक यायावरी उन्होंने जीवन भर की। बंबई, दिल्ली, कलकत्ता, इलाहाबाद, लखनऊ, रांची, जमशेदपुर, हजारीबाग, बनारस समेत कई शहरों में उनका आना-जाना लगा रहा। लेकिन जीवन का केंद्र उनका गांव धरहरा ही रहा।

विगत इक्कीस साल से मधुकर सिंह से मेरा घनिष्ठ संबंध था। 1998 में उन्होंने ‘इस बार’ पत्रिका का पुर्नप्रकाशन शुरू किया, तो उन्होंने एक तरह से संपादन की पूरी जिम्मेवारी ही मुझे दे दी। रचनाओं के चुनाव की पूरी स्वतंत्रता उन्होंने दे रखी थी। खुद भी जो रचनाएं लाते थे, उसके बारे में उनका कहना था कि अगर पसंद न आए तो मत दीजिएगा। ‘इस बार’ का जो पुर्नप्रकाशित पहला अंक था, उसमें विनोद मिश्र, नागार्जुन और नक्सलबाड़ी और हिंदी कहानी पर सामग्री थी। उसके एक-दो अंकों के कवर भी मैंने बनाए, जो पसंद किए गए। यूं ही युवा रचनाकार उनको पसंद नहीं करते थे। वे एक बड़े साहित्यकार थे, लेकिन अपनी महानता का बोझ युवाओं पर कभी नहीं डालते थे। उनकी छिपी हुई प्रतिभा को सामने लाने के मौके वे पैदा करते थे। उन पर यकीन करते थे। 1997 में हमने मिलकर महाश्वेता देवी के उपन्यास ‘मास्टर साब’ का नाट्य रूपांतर किया। मुझे लंबे संवाद पसंद नहीं थे। मैंने संवादों को छोटा किया। मधुकर जी ने एक बार भी ऐतराज नहीं किया। वह उपन्यास भोजपुर के उस इंकलाबी शख्सियत पर था, जिस पर उन्होंने खुद उपन्यास और कहानियां लिखीं। किशोर उम्र में जब मैं आरा आया था, तो मेरे ननिहाल में मेरे संस्कृतिकर्मी मामा ने उनके उपन्यास ‘अर्जुन जिंदा है’ के बारे में बताया था कि वह जगदीश मास्टर पर है यानी भोजपुर आंदोलन की नींव रखने वाले जगदीश मास्टर- रामेश्वर अहीर और रामनरेश राम के अभिन्न साथी। 1998 के जनवरी में ‘मास्टर साब’ नाटक का तीन दिवसीय मंचन हुआ। चित्रकार राकेश दिवाकर ने उसके प्रचार के लिए बड़े-बड़े वाॅल पेंटिंग बनाए थे, खूब वाल राइटिंग भी की गई थी। मधुकर जी का कहना था कि युवानीति के कलाकारों ने इस नाटक के मंचन को आंदोलन का रूप दे दिया है। उसी साल जब हमलोग गांवों में उस नाटक का मंचन करने गए, तो मधुकर जी भी हमारे साथ थे, संदेश में भी और सहार में भी, जो जनराजनीतिक संघर्षों के लिहाज से पिछले चालीस साल से चर्चा में रहे हैं। 

मधुकर सिंह ने अपने एक साक्षात्कार में यह स्वीकार किया है कि उनके लेखन की जमीन को व्यापक फलक देने का काम उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं ने भी किया है। शुरू-शुरू में उनका जुड़ाव सोशलिस्ट पार्टी से हुआ। दाम बांधो काम दो और अंग्रेजी हटाओ जैसे नारों ने उन्हें आकर्षित किया। 1957 के आम चुनाव में उन्होंने प्रसिद्ध स्वाधीनता सेनानी और जनकवि रमाकांत द्विवेदी ‘रमता’ के नेतृत्व में सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार दीपनारायण सिंह के प्रचार में गांव-गांव खंजड़ी बजा-बजाकर गीत भी गाए। लेकिन उनके अनुसार ‘जमींदाराना मिजाज के बौद्धिक सोशलिस्टों’ के कारण उनका वहां से मोहभंग हुआ। इसके बाद वे कम्युनिस्ट पार्टी, छात्र संगठन एआईएसफ और प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े। साठ के दशक में उन्होंने कुछ अखबारों और स्कूलांे में नौकरी की और रोजी-रोटी के संघर्ष के दौरान उन संस्थानों में मौजूद जाति भेद को महसूस किया। उन्होंने लिखा है कि अपनी एक कहानी की ब्राह्मणवादी मिजाज से की गई आलोचना की वजह से उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी और प्रगतिशील लेखक संघ से अपनी सदस्यता स्थगित कर दी। इसके बाद वे कमलेश्वर द्वारा चलाए गए समांतर आंदोलन में शामिल हुए। बाद में जब जन संस्कृति मंच बना, तो उससे जुड़े। उसके राष्ट्रीय परिषद और कार्यकारिणी में रहे। कई वर्षों तक वे जसम के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी रहे। नब्बे के दशक में जबकि देश-दुनिया में मार्क्सवाद के अंत की घोषणाएं हो रही थीं, तब उन्होंने भाकपा-माले की सदस्यता ली और आजीवन इसके सदस्य रहे।

1964 में श्रीपत राय की पत्रिका ‘कहानी’ में उनकी पहली कहानी ‘बंद पानी का सैलाब’ प्रकाशित हुई। उसके बाद से ‘कहानी’ में उनकी करीब दो दर्जन कहानियां प्रकाशित हुईं। अपने समय की कहानी की लोकप्रिय पत्रिका ‘सारिका’ में भी वे खूब छपे। ‘सारिका’ के जरिए वे बड़े पाठक वर्ग तक पहुंचे। दूसरी ओर व्यावसायिक पत्रिकाओं के खिलाफ वैचारिक संघर्ष चलाने वाली चंद्रभूषण तिवारी की पत्रिका ‘वाम’ में उनकी मशहूर कहानी ‘दुश्मन’ प्रकाशित हुई। उस समय जो बहसें चल रही थीं, उसमें ‘समांतर कहानी’ के ‘आम आदमी’ की यह कहकर आलोचना की गई कि वह अमूर्त, निराकार और रूपहीन तत्व है, आम आदमी के प्रति पक्षधरता किसके विरोध में है, यह पता नहीं चलता। यह आलोचना शायद कई कहानियों के प्रति जायज भी होगी। लेकिन खुद मधुकर सिंह ने समांतर साहित्य को परिभाषित करते हुए जो लेख लिखा उसका शीर्षक दिया- यथास्थिति के विरुद्ध परिवर्तनकामी लेखन। स्वाधीनता आंदोलन में जनभागीदारी और उसके नेतृत्व की सत्तालोलुपता से उन्होंने उस लेख की शुरुआत की है। उन्होंने लिखा है कि ‘गांधीजी जैसे नेताओं ने सामान्य लोगों की चेतना को जरूर उकसाया, मगर देश के धनवान, जमींदार और सामंत पूरी तरह उनके ऊपर फैलते गए।...नेताओं के दिमाग में यह बिल्कुल स्पष्ट नहीं था कि गुलामी से मुक्ति के बाद अपने देश में व्याप्त विषमताओं के विरुद्ध लड़ने के लिए कौन-सा रास्ता अपनाएंगे अथवा नए समाज का स्वरूप क्या होगा?’ आगे वे लिखते हैं कि आजादी मिलते ही धनवानों और बनिया वृत्ति के लोगों ने सत्ता हथिया ली। फिर वे सामंतवाद और पूंजीवाद के गठजोड़, हरिजनों, पिछड़ी जातियों, खेतिहर मजदूरों को वोट देने के अधिकार और विकास योजनाओं के लाभ से वंचित किए जाने तथा सामाजिक भेदभाव और उत्पीड़न की चर्चा करते हैं और उनसे जुड़ी अपनी दो कहानियों की चर्चा करते हैं। इसमें एक कहानी ‘भुनेसर मास्टर’ जगदीश मास्टर पर केंद्रित है। कहने का मतलब यह है कि समांतर आंदोलन के उस दौर में वे जो कहानियां लिख रहे थे उन पर भोजपुर के क्रांतिकारी जनवादी आंदोलन का असर था। 

समांतर साहित्य वाले लेख में वे जिस दूसरी कहानी का जिक्र करते हैं, उसका शीर्षक है- ‘लहू पुकारे आदमी’। कहानी नगीनाराम मुसहर और भैरवनाथ तिरपाठी की है, जो एक ही साथ काॅलेज में पढ़ते हैं। वे गांव में लोगों की चेतना के विकास के लिए ‘समाजवादी युवक मंच’ बनाते हैं। लेकिन नगीनाराम मुसहर को महामंत्री और कैलाश तिरपाठी को सहायक मंत्री बनाए जाने का प्रस्ताव ब्राह्मण युवकों को मंजूर नहीं होता। अधिकांश लोग इस्तीफा दे देते हैं और जवाब में ‘गांधीवादी युवक मंच’ बनाते हैं। कैलाश तिरपाठी उसका अध्यक्ष बन जाता है। इसके बाद तनाव बढ़ता है। विपत चमार, जिसके पिता कैलाश के हलवाहा हैं और दो चार जुलाहे और लुहार भी कैलाश के दबाव-प्रभाव में उसी का साथ देते हैं। कैलाश और विपत काॅलेज से लौटते वक्त नगीना और भैरवनाथ पर हमला करते हैं। लेकिन नगीना के हाथों कैलाश और भैरवनाथ के हाथों विपत मार खाकर भागने को विवश हो जाते हैं। उसके बाद नगीना और भैरव के बीच जो संवाद होता है, वह गौरतलब है-

-अब क्या होगा, भैरव बाबा? अब तो मुसहरों का गांव के पास रहना मुश्किल हो जाएगा।...

-हिम्मत रखो, नगीना।

-सो तो रखनी पड़ेगी।

-तब क्या बात है?

-कैलाश शैतान है- हमारा नंबर वन का दुश्मन!

-मगर गांव के सभी तो ऐसे नहीं हैं।

-मुझे डर नहीं लगता। मगर चौबीस वर्षों की आजादी ने कितने सही लोगों को पैदा किया है? 

जाहिर है यह सवाल आजादी के बाद के समाज और व्यवस्था पर एक गहरी टिप्पणी है।

कहानी की अंतिम पंक्तियां हैं- ‘वे लोग जब गांव पहुंचे तो मुसहर टोली में आग लगी हुई थी और तमाम बच्चे, औरतें, मर्द चिल्लाते हुए गांव छोड़कर भाग रहे थे, नगीना राम और भैरव तिरपाठी बहुत ऊंचे तूफान को सीने के अंदर रोककर गांव के किनारे सड़क पर रुके हुए थे।’

यह ऊंचा तूफान सामंती-वर्णवादी समाज के खिलाफ गहरे गुस्से और उसे बदलने के संकल्प से पैदा हुआ है। इस लिहाज से देखा जाए तो यह कहानी बाबा नागार्जुन की ‘हरिजन गाथा’ कविता से पहले समाज को बदलने वाले एक संभावित तूफान की ओर संकेत करती है। 

हालांकि अपने पहले संग्रह ‘पूरा सन्नाटा’ जिसमें 1960 से 1966 उनकी कहानियां संकलित हैं, से ही मधुकर सिंह की छवि एक जनपक्षधर कहानीकार की बन चुकी थी। इन कहानियों में आजादी से मोहभंग साफ तौर पर महसूस होता है। नेता, नौकरशाही, डाॅक्टर, प्रोफेसर, वकील, भूस्वामी, पूँजीपति, पत्रकार- सबका जनविरोधी चेहरा इनमें दर्ज है। सरकार की जालसाजों, रिश्वतखोरों और कालाबाजारियों के साथ गहरी यारी है। आम अवाम में व्यवस्था के प्रति गहरा विक्षोभ और आक्रोश दिखता है और उसके दमन के लिए पुलिस तैयार खड़ी नजर आती है। 1966 में लिखी गई उनकी कहानी ‘इन दिनों’ में आम आदमी का एक प्रतिनिधि शासकवर्ग के प्रतीक चेयरमैन की मूर्ति की गरदन मरोड़ देता है और पुलिस उसकी ओर बेनट ताने हुए आगे बढ़ती नजर आती है। संयोग यह है कि इसके एक साल बाद ही 1967 में नक्सलबाड़ी विद्रोह हुआ और उसकी चिंगारी भोजपुर में गिरी। भोजपुर मेहनतकश किसानों और खेत मजदूरों के क्रांतिकारी आंदोलन की आंच से सुलग उठा। 

1975 में प्रकाशित मधुकर सिंह के पहले उपन्यास ‘सबसे बड़ा छल’ में भी इस आंदोलन का प्रभाव दिखाई पड़ता है। इस उपन्यास के नायक देवनाथ सिंह, जो कलकत्ता में हजारों मजदूरों के एकछत्र नेता रहते हैं, वे जब गांव लौटते हैं, तो उन्हें खेतिहरों का संघर्ष की जरूरत महसूस होती है। वे तीव्रता से महसूस करते हैं कि ‘‘भूमि की हदबंदी केवल मृगतृष्णा है। कोई भी सरकार सच्चे दिल से इसके लिए उतारू नहीं है....अभी तक जो भी नियम हैं गरीबों को चूसने के लिए हैं। हरित क्रांति से फायदा बड़े किसानों को छोड़कर किसे हुआ है?’’ जमीन किस तरह कुछ लोगों की ताकत का स्रोत है और किस तरह वे सामंती शोषण-दमन को बनाए रखना चाहते हैं, इसे यह उपन्यास बखूबी दिखाता है। 

भूस्वामियों का जो वर्चस्व है उसे बरकरार रखने में पूरी ब्राह्मणवादी सामाजिक-धार्मिक व्यवस्था सहयोगी दिखती है। पूंजीवाद भी सामंती संरचना को ध्वस्त करने के बजाय उससे गठजोड़ किए हुए है और वही गठजोड़ लोकसभा, विधानसभा और सरकारी-गैरसरकारी संस्थाओं पर काबिज है। सोनभद्र की राधा, सबसे बड़ा छल, सीताराम नमस्कार, जंगली सुअर, मेरे गांव के लोग, समकाल, कथा कहो कुंती माई, अगिन देवी, अर्जुन जिंदा है आदि उनके अधिकांश उपन्यासों की कथाभूमि सामंती और वर्णवादी व्यवस्था की क्रूरताओं और अमानवीयताओं के खिलाफ प्रतिवाद और प्रतिरोध से ही संबंधित हैं। 

सामाजिक यथास्थिति के पक्षधर लोग मधुकर सिंह पर जातिवादी होने का आरोप लगाते रहे, लेकिन उन्होंने हमेशा यह कहा कि वे जातिवादी नहीं हैं, बल्कि ब्राह्मणवाद के विरोधी हैं? गौर से देखें तो मधुकर सिंह की कहानियों में गरीबों, खेत मजदूरों, मेहनतकश स्त्रियों के साथ सवर्ण समुदाय से आने वाला एक प्रबुद्ध हिस्सा हमेशा नजर आता है। हिंदी कथा साहित्य में दलित विमर्श के शुरू होने से दो-ढाई दशक पहले मधुकर सिंह ने दलितों की वर्गीय मुक्ति के प्रश्न को कथा साहित्य का केंद्रीय प्रश्न बनाया। आज के दलित कथा साहित्य के विपरीत उनकी कहानियों और उपन्यासों में दलितों की सामाजिक-आर्थिक मुक्ति का सवाल जमीन पर उनके अधिकार के आंदोलन से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ नजर आता है। ‘मेरे गांव के लोग’ में तो वे कहते भी हैं कि ‘जाति, धर्म-संप्रदाय सबकी बुनियाद जमीन है।’ दलित जाति से आने वाले नौकरशाह, मंत्री उनकी कहानियों और उपन्यासों के नायक नहीं हैं और न ही दलित मध्यवर्ग की जिंदगी उनके केंद्र में है। उनकी कहानियों के दलित नायक बुनियादी तौर पर खेत-मजदूर और भूमिहीन किसान हैं या उनके आंदोलनों के नेता है, जो पूरे समाज और सामंती व्यवस्था के साथ-साथ राजकाज का चेहरा बदलने के लिए संघर्ष करते हैं। इसी कारण सामंती-वर्णवादी शक्तियों को शूद्रों का राज आने का भय सताता है।

बेशक भोजपुर का आंदोलन सामाजिक-राजनीतिक सत्ता को बदलने का आंदोलन था। उसके नेतृत्वकारी जगदीश मास्टर मधुकर सिंह के साथ ही आरा के जैन स्कूल में शिक्षक थे। वे 1972 में शहीद हुए थे। ‘जगदीश कभी नहीं मरते’ महज मधुकर सिंह के किसी उपन्यास का नाम नहीं है, बल्कि यह रचनाकार की पहचान भी है। इस उपन्यास का पूर्वाध आजादी के आंदोलन पर केंद्रित है। ‘अर्जुन जिंदा है’ उपन्यास में जो अर्जुन है वह जगदीश बन जाता है। दरअसल इस नाम परिवर्तन की भी एक कथा है। ‘अर्जुन जिंदा है’ जब 1984 में प्रकाशित हुआ था, तब तक भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी लेनिनवादी) भूमिगत थी। तब सीधे उसके नायकों पर लिखना आसान नहीं था। यही उपन्यास 2010 में ‘जगदीश कभी नहीं मरते’ नाम से प्रकाशित हुआ। ‘जगदीश कभी नहीं मरते’ साठ और सत्तर के दशक के भोजपुर आंदोलन को आजादी के आंदोलन से अनिवार्य रूप से जोड़ता है। आजादी के आंदोलन में भी एक जगदीश हैं, जो लेखक की कल्पना की देन हैं, लेकिन इसके जरिए सच्ची आजादी की उस धारा की जद्दोजहद को ही उन्होंने दिखाया, जो साम्राज्यवाद के साथ ही सामंतवाद और वर्णवाद के खिलाफ भी संघर्षरत थी। अकारण नहीं है कि मधुकर सिंह के साहित्य में जनता अपने संघर्षों के दौरान भगतसिंह से प्रेरणा लेती है और गांधीवाद का इस्तेमाल प्रायः शोषक शक्तियां करती हैं। रामविलास भाई, हरिजन सेवक, भाई का जख्म आदि कई कहानियों में गांधीवादी या तो सामंती शक्तियों के सामने अक्षम नजर आते हैं या उनके साथ खड़े होते हैं। भगतसिंह ने आखिरी दिनों में जेल से नौजवान कार्यकर्ताओं के लिए जो कार्यक्रम दिया था, उसमें पहला जोर सामंतवाद को समाप्त करने पर था। वे लगातार राजनीतिक कार्यकताओं से किसानों-मजदूरों के बीच जाने की वकालत करते हैं। 1947 की आजादी के बाद जगदीश मास्टर और उनके साथी मानो उसी कार्यभार को पूरा करने के लिए अपनी जान की बाजी लगा देते हैं। उपन्यास ‘समकाल’, जो 1942 से लेकर नक्सलबाड़ी आंदोलन तक के राजनैतिक-सामाजिक आंदोलनों पर केंद्रित है, उसके नायक की छवि भी जगदीश मास्टर से प्रभावित लगती है। 

सामंती-पूंजीवादी व्यवस्था के सबसे निचले स्तर पर मौजूद मेहनतकशों की सामाजिक-आर्थिक मुक्ति वर्ग-समन्वय के किसी रास्ते से संभव नहीं है, मधुकर सिंह की कहानियां बार-बार इस समझ को सामने लाती हैं। यही कारण है कि सामंतवाद और वर्णव्यवस्था के ढांचे के नाश के लक्ष्य को छोड़कर उसी की गोद में बैठ जाने वाली राजनीति पर उनकी कहानियां उंगली उठाती हैं। उनकी चर्चित कहानी ‘दुश्मन’ इसी सचाई को सामने लाती है कि इस तरह का दलित नेतृत्व बहुसंख्यक दलितों, जो कि ग्रामीण मजदूर और गरीब हैं, उनके लिए दुश्मन सरीखा ही सिद्ध होता है। 

मधुकर सिंह के उपन्यासों और कहानियों में स्त्रियां सामंती पितृसत्ता, जात-पांत को चुनौती देने के लिए जो रास्ता चुनती हंै वह सामाजिक-राजनीतिक बदलाव के आंदोलनों से होकर गुजरता है। वे अपनी मुक्ति की प्रक्रिया में सामाजिक गैरबराबरी के खिलाफ चल रहे आंदोलनों के करीब आती हैं, उसमें शिरकत और उसका नेतृत्व करती हैं, और इस रास्ते में स्त्री-पुरुष दोनों उसके सहयोगी होते हैं। यही नहीं, गरीब-मेहनतकशों का आंदोलन कुंती माई जैसी आम महिलाओं को सामाजिक-राजनीतिक बदलाव का नेतृत्वकारी बना देता है। इसी आंदोलन में शामिल होकर ‘बेनीमाधो तिवारी की पतोहू’ जैसी स्त्रियों सामंतवाद के घेरे को तोड़ती हैं और अपनी एक नई सामाजिक पहचान को हासिल करती हैं। 1982 में प्रकाशित उपन्यास ‘अगिन देवी’ की दलित नायिका अगिन की शादी पति की मृत्यु के बाद 40 वर्षीय रामरतन से कर दी जाती है। लेकिन वह उस शादी को मंजूर नहीं करती। वह अपने बचपन के दोस्त ममदू मियां के साथ जीवन भर रहने का फैसला करती है। और उसका पिता दुखित रैदास भरी पंचायत में कहता है- ‘‘सुन लो पंचो। गरीब की न कोई जाति होती है, न धर्म। ममदू और अगिन पति-पत्नी हैं। इन्हें गांव से कोई नहीं निकाल सकता। ये जब तक जिंदा हैं। इसी गांव में रहेंगे।’’ इस गांव में जमींदार जमुना सिंह और मुचकुल बाबू सामंती शोषक जमात के प्रतिनिधि हैं। मजदूरों का शोषण और उन पर जुल्म करना वे अपना जन्मजात अधिकार समझते हैं। मजदूरों की स्त्रियों को अपने हवस का शिकार बनाना उनका शौक है। लेकिन समाज में एक नई स्त्री जो उभर रही है, वह इसका प्रतिरोध करती है। जब मजदूर दाउद की बेटी नूरी को मुचकुल बाबू के कारिंदे उठा ले जाते हैं और उसके साथ बलात्कार होता है, तब अगिन मजदूरों को ललकारती है- ‘‘हम सभी के हाथ में हंसुआ है न? जैसे हम धान के डंठल काट रहे हैं, वैसे क्यों जुलुम की गर्दन नहीं काट सकते?’’ ‘उत्तरगाथा’ उपन्यास की रेवती भी इसी तरह जमींदार शिवजी मलिक को चेतावनी देती है- ‘‘मैं ऐसे खानदान की बेटी हूं जो जुलुम के समय इसी तरह हंसुआ उठा लेता है। हिम्मत हो तो आओ पकड़ लो न गट्टा।’’ इतिहास गवाह है कि गरीबों और मजदूरों की स्त्रियों की मान-मर्यादा से खेलने वालों को अपने किए की सजा मिली और उन्हें अपने सामंती व्यवहार पर अंकुश लगाना पड़ा। 

मधुकर सिंह ने अपनी कहानियों में वामपंथ के साथ भी बहस की। उनकी कहानी ‘पाठशाला’ की नायिका मेधा मिश्रा का आकलन है कि ‘सत्ता ने कम्युनिस्ट आंदोलन को भ्रमित किया है।’ वामपंथ से वे सामंतवाद और वर्ण-व्यवस्था के नाश की अपेक्षा करते थे। वामपंथी पार्टियों की सारी कमजोरियों के बावजूद उन्हें उम्मीद मार्क्सवाद से ही लगती थी। ‘समकाल’ उपन्यास का नायक महेंद्र सिंह का कहना है कि ‘दरिद्र देशों में दरिद्रता के खिलाफ एक ही अस्त्र है- मार्क्सवाद’, ‘कम्युनिस्टों का जबर्दस्त बेस हो सकता है हमारे यहां। मगर कोई जमीनी नेता इमर्ज नहीं कर रहा है।’ जनता के आंदोलन और प्रतिरोध से जुड़े जमीनी नेताओं की कहानियां और उपन्यास लिखना उन्हें प्रिय था। यहां तक कि जब उन्हें एक फेलोशिप के तहत उपन्यास लिखने का मौका मिला, तो उन्होंने प्रसिद्ध आदिवासी योद्धा- सिद्धू और कान्हू के संघर्ष पर ‘बाजत अनहद ढोल’ सरीखा उपन्यास लिखा। हालांकि इस उपन्यास को लिखते वक्त भी भोजपुर का किसान आंदोलन उनके अवचेतन पर छाया रहा होगा, ऐसा लगता है।

मधुकर सिंह ने बच्चों और नवसाक्षरों के लिए भी कहानियां और उपन्यास लिखे। भोजपुरी की लोकप्रिय फिल्म ‘दुल्हा गंगा पार के’ की पटकथा भी उन्होंने लिखी। भिखारी ठाकुर की जिंदगी पर आधारित नाटक ‘कुतुब बाजार’ और सामंती-वर्णवादी वर्चस्व को चुनौती देते प्रेम और स्त्री के प्रतिरोध को दर्शाता लोकशैली का नाटक ‘लाखो’ भी जनता की सृजनात्मक ऊर्जा और संघर्ष के प्रति उनके जुड़ाव का उदाहरण है। उनका रेडियो नाटक ‘बाबू जी का पासबुक’ काफी चर्चित रहा। 

मधुकर सिंह साहित्य और संस्कृति की परिवर्तनकारी भूमिका के आग्रही थे। यह आग्रह उनकी कहानियों और उपन्यासों में बार-बार नजर आता है। प्रारंभिक दौर के उनके उपन्यास ‘सोनभद्र की राधा’ से लेकर ‘बेनीमाधव तिवारी की पतोह’ तक में राजनैतिक-सामाजिक आंदोलनों के साथ संस्कृतिकर्म का अभिन्न और अटूट रिश्ता देखा जा सकता है। ग्यारह कहानी संग्रहों और बीस उपन्यासों में जमीन, आजादी, बराबरी के लिए संघर्षरत दलित-वंचित और मेहनतकश-गरीब लोगों के प्रति मधुकर सिंह की जो पक्षधरता है, उसके लिए वे हमेशा प्रासंगिक बने रहेंगे। याद आता है कि जब बथानीटोला जनसंहार के समय लेखकों से बिहार सरकार के सम्मान को ठुकराने की अपील की गई थी, तब मधुकर सिंह बिहार विधान परिषद सभागार के बाहर खड़े होकर सम्मान लेने वालों के विरोध में अपना प्रतिवाद दर्ज करा रहे थे। लखनऊ में आयोजित कथाक्रम पत्रिका के एक आयोजन की मुझे याद है। उसमें शायद ‘कथा में गांव’ विषय पर चर्चा थी। मधुकर जी ने गांवों पर लिखने वालों की उपेक्षा की प्रवृत्ति की जबर्दस्त आलोचना की। राजेेंद्र यादव वहां मौजूद थे। बथानी जनसंहार के विरोध में सम्मान ठुकराने की अपील के बावजूद वे सम्मान ले चुके थे, मधुकर सिंह इसे भूले नहीं थे, उन्होंने वहां मंच से ही उनकी आलोचना की। जिस वर्ग के लिए मधुकर सिंह ने लिखा, उसके साथ कभी गद्दारी नहीं की। यहां तक कि नवसाक्षरों के लिए लिखी गई एक पुस्तिका में भी जनसंहार करने वालों के विरोध में और सामाजिक बदलाव की लड़ाई लड़ने वालों के पक्ष में लिखा।

जैन स्कूल से रिटायरमेंट के बाद दो दशक से अधिक समय मधुकर सिंह ने अखबारों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन करते हुए गुजारा। जीवन के आखिरी दिनों में उनकी काफी लालसा थी कि कहीं से कोई नियमित आर्थिक मदद मिल जाए, ताकि ‘इस बार’ पत्रिका फिर से प्रकाशित हो सके, लेकिन ऐसा न हो पाया। मधुकर सिंह को सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड, फणीश्वरनाथ रेणु पुरस्कार के अलावा बिहार राजभाषा परिषद का गंगाशरण सिंह और जननायक कर्पूरी ठाकुर पुरस्कार मिला था। यह अलग से कहने की जरूरत नहीं है कि वे बिहार के गौरव थे। लेकिन जिन समुदायों की वर्गीय मुक्ति लिए उन्होंने वर्णव्यवस्था और सामंतवाद के खिलाफ आजीवन लेखन किया, उन्हीं समुदायों के नाम पर सत्ता हासिल करने वालों ने उन्हें वह सम्मान नहीं दिया, जिसके वे हकदार थे। पंद्रह वर्ष तक दलितों-पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को सामाजिक न्याय दिलाने के नाम पर एक शासन चला, जिसमें उन्होंने बथानीटोला जनसंहार के विरोध में सरकारी सम्मान ठुकराने की अपील की, उसके बाद न्याय के साथ विकास और महादलितों-अतिपिछड़ों के उत्थान का सपना दिखाने वाला शासन आया, जिसने उनके साथ और भी मजाक किया। वे चलने-फिरने में असमर्थ थे और सरकार के राजभाषा विभाग की ओर से उनके नाम का चयन जोहान्सबर्ग विश्व हिंदी सम्मेलन में जाने वाले सदस्य के रूप में कर दिया गया। मधुकर जी ने मीडिया से कहा कि सरकार जोहान्सबर्ग जाने के लिए जो पैसा देगी, वह उन्हें दे दे, ताकि अपना इलाज करा सकें। सरकार की बड़ी किरकिरी हुई, तो उसके निर्देश पर प्रशासन ने लगभग एक सप्ताह के लिए उन्हें इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान भेज दिया। वहां से वे फिर वापस अपने गांव लौट आए। अगर मधुकर सिंह अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धता छोड़कर इन पार्टियों में शामिल हो गए होते, तो शायद वे भी विधान पार्षद होते या किसी अकादमी के अध्यक्ष-वध्यक्ष का पद सुशोभित कर रहे होते, लेकिन मधुकर सिंह ने ऐसा नहीं किया। इसलिए भी कि उनके भीतर के अर्जुन यानी जगदीश कभी नहीं मरे।

सितंबर 2013 में आरा शहर के नागरिकों, साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों ने मधुकर सिंह के सम्मान में एक समारोह का आयोजन किया था, जिसमें उनके साहित्यिक योगदान पर महत्वपूर्ण चर्चा हुई थी और जसम की ओर से उन्हें जन संस्कृति सम्मान से सम्मानित किया गया था। उस समारोह में देश के विभिन्न शहरों से साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी और पत्रकार जिस तरह अपने खर्चे पर आरा आए थे उससे उनके प्रति लोगों का गहरा प्रेम ही जाहिर हुआ था। जीवन में ऐसा अपनापा और सम्मान कम लोगों को हासिल होता है।...

मधुकर जी के निधन के बाद किसी शासकवर्गीय राजनीतिक पार्टी, सरकार और प्रशासन का कोई प्रतिनिधि उनके गांव शोक संवेदना जाहिर करने नहीं पहुंचा। किसी का बयान भी नहीं आया। मधुकर जी तो रेणु जी के साथ 1974 के आंदोलन में शामिल भी हुए थे। लालू यादव और नीतीश कुमार के लिए वे अपरिचित न थे। मालूम नहीं महादलित मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी उन्हे जानते थे या नहीं! उन्हें यह पता है या नहीं कि मधुकर सिंह ने चार दशक पहले ‘लहू पुकारे आदमी’ कहानी में महादलित समुदाय के एक शिक्षित नौजवान की निगाह से समाज में मौजूद भेदभाव और उत्पीड़न को दर्शाया था और उस समाज को बदल देने की जरूरत पर जोर दिया था! वह कोई अपवाद कहानी नहीं थी। दलित-महादलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक समुदाय के गरीब-मेहनतकश मर्द और औरत ही तो उनके उपन्यासों और कहानियों के संघर्षशील नायक-नायिका हैं। भूमि पर अपने अधिकार के लिए लड़ने वाली उत्पादक शक्तियां ही तो उनकी रचनाओं के केंद्र में हैं। शायद इसीलिए लगातार भूमि सुधार को टालने वाली सरकारों, पार्टियों और ‘दुश्मन’ कहानी के जगेसर की तरह उत्पीड़क-शोषक शासकवर्ग के साथ जा मिलने वाले नेताओं ने हमेशा उनकी उपेक्षा की। साहित्य-संस्कृति के नाम पर बनी अकादमियों के लोग भी वहां नहीं पहुंचे।

16 जुलाई को मधुकर सिंह की अंतिम यात्रा माले के आरा कार्यालय से होकर गुजरी जहां साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों और माले के वरिष्ठ नेताओं ने उन्हें श्रद्धांजलि दी। माले के बिहार राज्य सचिव कुणाल, पोलित ब्यूरो सदस्य अमर, केंद्रीय कमेटी सदस्य नंदकिशोर प्रसाद, राज्य कमेटी सदस्य संतोष सहर और सुदामा प्रसाद समेत कई जिला स्तरीय नेता-कार्यकर्ता भी अंतिम यात्रा में शामिल थे। उनके गांव धरहरा की माले ब्रांच कमिटी की ओर से उनके सम्मान में कफन में लिपटे उनके शव पर पार्टी का लाल झंडा भी रखा गया था। आरा के साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों और नागरिकों ने बिहार के मुख्यमंत्री से उनकी प्रतिमा बनवाने, उनके नाम पर सड़क का नाम रखने तथा उनके समग्र साहित्य का प्रकाशन करने तथा स्कूल-काॅलेजों के सिलेबस में उनकी रचनाएं शामिल करने की मांग की है। देखना है कि बिहार की सरकार इस मांग पर ध्यान देती है या उसके द्वारा जनता के लेखक की उपेक्षा जारी रहती है। 

मधुकर सिंह के निधन के बाद आरा, पटना, इलाहाबाद, रांची, मधुबनी, गिरिडिह, समस्तीपुर, दरभंगा, बेगूसराय, लखनऊ, दिल्ली समेत कई जगहों पर श्रद्धांजलि सभाएं हुईं, जिनमें मैनेजर पांडेय, आलोकधन्वा, रामधारी सिंह दिवाकर, नीरज सिंह, रामजी राय, प्रणय कृष्ण, मदन कश्यप, रविभूषण, अनंत कुमार सिंह, श्रीकांत, नवेंदु, श्रीराम तिवारी, जितेंद्र राठौर, सुरेंद्र प्रसाद सुमन, दीपक सिन्हा, अनिल अंशुमन, संतोष झा, रवींद्रनाथ राय, बलभद्र, ब्रजकुमार पांडेय, नचिकेता, जितेंद्र कुमार, अशोक कुमार सिन्हा, केदार पांडेय, कौशल किशोर, चंद्रेश्वर, प्रेमकुमार मणि, रामनिहाल गुंजन, जगदीश नलिन, सुरेश कांटक, डाॅ. विंधेश्वरी समेत कई साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों ने उनसे जुड़ी यादों को साझा किया और उनके साहित्यिक महत्व को रेखांकित किया। उन पर स्मृति लेख लिखने का भी सिलसिला जारी है।

मधुकर सिंह सम्मान समारोह में रविभूषण जी ने भोजपुर यथार्थवादी कथा स्कूल की चर्चा करते हुए उन्हें उसका पहला कथाकार कहा था। हिंदी साहित्य में मधुकर सिंह भोजपुर और बिहार की पहचान तो रहेंगे ही, ग्रामीण समाज के जनवादीकरण की आकांक्षा और उसके लिए जारी क्रांतिकारी राजनीतिक संघर्ष को अपने उपन्यासों और कहानियों का केंद्र बनाने के लिए भी उनका महत्व रहेगा। शासकवर्गीय पाखंड, अवसरवाद और जनविरोधी विरोधी राजनीति का उन्होंने सिर्फ विरोध ही नहीं किया, बल्कि उसके खिलाफ जनता के संघर्ष और प्रतिरोध की राजनीति को बनाने में भी अपनी अहम भूमिका निभाई। मधुकर सिंह जनांदोलनों से लेखकों का प्रत्यक्ष सरोकार जरूरी समझते थे। उन्होंने अपने एक आत्मकथ्य में यह लिखा है कि वे इस यकीन के साथ लिखते रहे हैं कि उनकी कहानियां बदलाव में भागीदार बन सकती हैं। हमारे दौर में इस यकीन को पाना और उस पर कायम रहना ही मधुकर जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। 
(मेरा यह लेख शंकर द्वारा संपादित पत्रिका 'परिकथा' में प्रकाशित हुआ था)





Sunday, July 3, 2016

कला बाजार की शर्तों से ऊपर थे के. जी. सुब्रमण्यम : राकेश दिवाकर

29 जून 2016 को भारतीय आधुनिक कला के एक युग का अंत हो गया। मूर्धन्य चित्रकार के.जी. सुब्रमण्यम का जाना, भारतीय कला से गंभीरता का जाना है, आदर्श का जाना है। समकालीन भारतीय कला जगत में के.जी.सुब्रमण्यम एक ऐसे कलाकार थे, जो कला बाजार की शर्तों से ऊपर थे । 
1924 में केरल में के.जी सुब्रमण्यम का जन्म हुआ था। 1942 में उन्होंने अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लिया था, जिसके फलस्वरूप उन्हे जेल की सजा भुगतनी पड़ी थी। राजनीति में महात्मा गांधी उनके आदर्श थे। 
1944 में उन्होंने कला अध्ययन के लिए शांति निकेतन में दाखिला लिया। राम किंकर बैज, विनोद बिहारी मुखर्जी, नंदलाल बोस सरीखे कलाकारों के निर्देशन में उन्होंने कला शिक्षा प्राप्त की। कालांतर में फेलोशिप प्राप्त कर पश्चिमी कला का भी गहन अध्ययन किया। कला रचना के साथ ही उन्होंने बडौदा व शांति निकेतन में अध्यापन कर समकालीन भारतीय कला की कई पीढ़ी का मार्ग-दर्शन किया। कला शिक्षण में हमारे यहां चली आ रही पुरानी पश्चिमी प्रशिक्षण पद्धति के खोखलेपन को भाप लिया था, उन्होंने स्वाभाविक कला प्रवृत्तियों को उभारने पर बल दिया। उन्होंने कहा है कि ‘‘आलमतिरा के कलाकार किसी कला विद्यालय में नहीं गये। हमारे प्राचीन मूर्तिकारों ने शरीर रचना विज्ञान का अध्ययन नहीं किया फिर भी उन्होंने अतुल्य कलाकृतियों का सृजन किया।’’ इसका यह मतलब कतई नहीं है कि वे अंधभक्ति में विश्वास रखते थे बल्कि वे कला प्रवृत्तियों का स्वभाविक विकास करना चाहते थे।
उनकी कलाकृतियां बंगाल स्कूल की सकारात्मक प्रवृति को आगे ले जाती हैं, कविवर रवींद्रनाथ टैगोर के कला दर्शन को मूर्त करती हैं। रवींद्रनाथ टैगोर की कलाकृतियों का सौंदर्य उनकी स्वाभाविक अनगढ़ता है तो सुब्रमण्यम की कला का सौंदर्य सहज सुगठता। समकालीन भारतीय कला जब भारी जद्दोजहद के दौर से गुजर रहा थी, बंगाल स्कूल के कलाकार, बंबई के कलाकार, दिल्ली के कलाकार सब अलग-अलग दिशा में प्रयोग कर रहे थे, तब वे एक भिन्न रास्ते पर चले और गहन अध्ययन कर भारतीय कला को एक सरलता प्रदान की। दो चार रेखाओं, रंग के दो-चार धब्बे, दो चार तूलिकाघात में, पशु पक्षी आदमी दृश्य जगत को बहुत ही सरलता से छोटे छोटे कागज के टुकड़ों पर उतार दिया है। देखने में उनकी कृतियां चाहे जितनी सरल व साधारण लगें मगर जब हम उनके सामने खड़े होते हैं तो हर जटिल उतार-चढ़ाव हमारे समक्ष खुलने लगता है। जिस दक्षता से वे कागज के छोटे से टुकड़े को साधारण कलम की चंद रेखाओं से आलोकित कर देते हैं उतनी ही महारत से वे विशाल दीवार को भी म्यूरल से जीवंत बना देते हैं। वे एक मात्र भारतीय कलाकार हैं जिनके लिए कोई भी रचना सामग्री नकारात्मक मायने नहीं रखती । वे चित्रकार, प्रिंट मेकर, म्यूरलिस्ट, टेराकोटा शिल्पी और कला चिंतक हैं। 
रचना सामग्री की तरह ही बाजार की शर्ते भी उनके लिए कोई खास मायने नहीं रखती थीं। आम तौर पर बड़े कलाकार या बिकने वाले कलाकार रचना सामग्री व प्रदर्शनी स्थल का ध्यान रखते हैं, जिससे उनकी कृतियों का बाजार मूल्य बना रहे। चूंकि कला बाजार काले धन के निवेश का एक सुरक्षित जगह बन चुका है और निवेशक टिकाऊपन की वजह से कैनवास पर तैल चित्रण या एक्रेलिक चित्रण पसंद करता है। इसी तरह मूर्तिशिल्प में वह पत्थर या धातु पसंद करता है। वह चाहता है कि कलाकार बड़ी गैलरी में प्रदर्शनी करे ताकि उसकी कृतियों का बाजार मूल्य गिरे नहीं। के. जी. सुब्रमण्यम बड़ी विनम्रता से बाजार के इस अघोषित शर्त को दरकिनार कर देते हैं। वे कागज के छोटे से टुकड़े को भी चित्राधार बना लेते हैं, पटना जैसे शहर में भी अपनी प्रदर्शनी कर डालते हैं। अभी 24 जून से 05 जुलाई 16 तक ललित कला अकादमी बिहार, पटना में उनकी प्रदर्शनी चल भी रही है । के. जी. सुब्रमण्यम आधुनिक भारतीय कला के एक आदर्श कलाकार के तौर पर हमेशा याद रखे जाएंगे।

मूर्तन से अमूर्तन का सफर करते हैं बादल जी के चित्र


आनंदी प्रसाद बादल की चित्र-प्रदर्शनी 
 राकेश दिवाकर 
कला भी इश्क की तरह ही है। यह भी आग का दरिया है, जिसमें डूब के जाना है। ताउम्र कलाकारी आसान नहीं। समाज में रहते हुए भी समाज के रीति-रिवाज से इतर, समाज के रोजमर्रे की भागदौड़ भरी जिंदगी से अलग बादल की छटाओं को निहारते रहना और फिर उसे अपने कैनवास पर उतारना निश्चित तौर पर दीवानापन ही तो है। यही दीवानापन बादल जी जैसे बुजुर्ग कलाकार को इस उम्र में भी सक्रिय रखे हुए है। 1933 में जन्में बादल जी अपने पूरे जीवन के अनुभव व ज्ञान को तेज गति से कैनवास पर उकेरते जा रहे हैं। 
07 जून 16 से 12 जून 16 तक पटना ललित कला अकादमी के प्रदर्शनी कक्ष में बादल जी के नए कामों की प्रभावशाली प्रदर्शनी का आयोजित की गई।
प्रदर्शनी को देख कर यह सुखद आश्चर्य हुआ कि 83 वर्ष की अवस्था में भी बादल अनवरत सृजन कार्य में लगे हैं। बादल जी के चित्र मूर्तन से अमूर्तन का सफर करते हैं। रंगों की परिपक्वता और आकारों का सुगठन जहां उनके उम्र के अनुभव को प्रदर्शित करते हैं वहीं मस्त तूलिका संचालन व मजबूत तूलिकाघात उनके चंचल स्वभाव को दर्शाते हैं। सामाजिक स्थिति का प्रभाव उनके चित्रों पर परोक्ष रूप से नजर आता है। अमूर्तन की प्रक्रिया में भी आकार बरबस उनके कैनवास पर उतर आते है। आकृतिमूलकता से वे भाग नहीं पाते। उनकी कलाकृतियों में मौजूद गति दर्शकों पर सकारात्मक प्रभाव डालती है। हालांकि रंगों की मोटी परत उतार-चढ़ाव तो पैदा करती है, पर गहराई उत्पन्न नहीं कर पाती। 
उनकी चित्रण शैली में कथ्य का अभाव बुरी तरह से खटकता है। उम्र के इस पड़ाव पर आकर यदि कोई कलाकार दुविधा की इस स्थिति में खड़ा है तो निश्चित तौर पर यह सामाजिक दुविधा है, सामाजिक कन्फ्यूजन है जो उनकी सारी कृतियों को शीर्षकहीन बनाता है। आज कलाकारों का एक बड़ा वर्ग इस कन्फ्यूजन में है, और सच कहें तो अधिकांश युवा कलाकार इस कन्फ्यूजन में हैं। इसकी झलक हम राजनीतिक व आर्थिक स्तर पर भी देख सकते हैं। तीसरी कमी यह है कि इतने वर्षों तक रचनात्मक सक्रियता के बावजूद बादल जी अपनी शैली नहीं बना पाए हैं। विविधता जहां एक तरफ सम्पन्न बनाती है वहीं इसमें सबसे बड़ा खतरा यह भी रहता है कि कलाकार की पहचान नहीं बन पाती और इसकी वजह भी वह कन्फ्यूजन ही है जो उनकी कृतियों को शीर्षकहीन बनाता है और कभी-कभी तो सारहीन भी। 
वर्तमान में बादल जी बिहार ललित कला अकादमी के अध्यक्ष भी हैं, ऐसे में उनकी रचना का प्रभाव बिहार की कला पर पड़ना अवश्यंभावी है। उनकी रचना दृष्टि से बिहार की कला अप्रभावित नहीं रह सकती । 
बादल जी की यह प्रदर्शनी कुछ कमियों के साथ ही कुछ सकारात्मक प्रभाव डालती है। उनकी रचनात्मक सक्रियता कलाकारों को प्रेरित करती है, उन्हें ऊर्जा प्रदान करती है। खुशहाली से दमकते उनके रंग इस निराशा के दौर में हस्तक्षेप करते हैं और खुले आसमान में उड़ान भरने को प्रेरित करते हैं। 
जिस उम्र में और जिस पद पर बादल जी पहुंच गए हैं वहां पहुंच कर प्रदर्शनी व लगातार काम करना बहुत चुनौती भरा हो जाता है। मगर बादल जी ने इस चुनौती को स्वीकार किया है तथा समय के घोड़े के साथ दौड़ने की कोशिश की है। एक तरह से उन्होंने एक जोखिम उठाया है। बिहार के कलाकार जब राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर धूम मचा रहे हैं वैसे में बादल जी पटना में गड़ कर काम कर रहे हैं, यह वाकई साहस भरा काम है। यह इसलिए भी कि पटना में कोई कला बाजार नहीं है, कोई पेज थ्री नहीं है। इसके बावजूद अगर मंजा हुआ कलाकार इस शहर में प्रदर्शनी करता है तो इसे पटना शहर और बिहार के कला जगत में जान फूंकने की कोशिश के तौर पर भी देखा जाना चाहिए। बादल जी की प्रदर्शनी राज्य के कला जगत में बहुत दिन तक याद रखी जाएगी।