Wednesday, November 2, 2016

कवि बलभद्र के भोजपुरी गीत और कविता

भलहीं जे रहबो कुजतिया
भलहीं जे रहबो कुजतिया
ना ढोअले ढोआला इजतिया

लइका सेयान सभे भाॅंजे लउरिया
कातिक असाढ़ तानि सुते दुपहरिया
असकत के भरल मोटरिया
ना ढोअले ढोआला इजतिया

लाम-चाकर अतना कि आॅंटे ना बतिया
आॅंखि जाए जहॅंवा ले बाटे बिगहटिया
नवले नवे ना फुटनिया
ना ढोअले ढोआला इजतिया

घरवा में कुहुकेली कनिया-कुॅंआरी
हतिएसा बतिया प लात-मुका-गारी
देखत झवान भइल मतिया
ना ढोअले ढोआला इजतिया

बड़े-बड़े लोगवा से नेवता हॅंकारी
बड़का कहाए के बड़की बेमारी
जतिए भइल जहमतिया
ना ढोअले ढोआला इजतिया


अबेर हो जाई
गड़िए में बचवा सबेर होइ जाई
ठाॅंवे-ठाॅंवे रोकबऽ, अबेर होइ जाई

खाइब-पियब कइसे के रतिया कटाइब
काल्हुए सहेबवा का बतिया बताइब
कुल्हिए कइलका अनेर होइ जाई
ठाॅंवे-ठाॅंवे रोकबऽ, अबेर होइ जाई

नाहीं बा सड़किया, ना सुविधा-सहूर बा
टेसन से गॅंउवा हमार बड़ा दूर बा
साॅंप-बिछी गोड़वा कॅंटेर होइ जाई
ठाॅंवे-ठाॅंवे रोकबऽ, अबेर होइ जाई
होइहें अन्हार राहे-बाटे बटमारवा
अरजल धन सून छन्हिया छपरवा
हॅॅंसिए बखेरा में अन्हेर हो जाई
ठाॅंवे-ठाॅंवे रोकबऽ, अबेर होइ जाई

गइया दुआर खूॅंटा अन्हके बछरुआ
घरवा बेहाल कवनो नाहीं रे पहरुआ
नेहिया टॅंगाई के बॅंड़ेर होइ जाई
ठाॅंवे-ठाॅंवे रोकबऽ, अबेर होइ जाई

गफलत परी हाय गिर-पर जइबऽ
सॅॅंचल सनेहिया के कइसे बॅंचइबऽ
हाथ-गोड़ का जाने ढेर होई जाई
ठाॅंवे-ठाॅंवे रोकबऽ, अबेर होइ जाई

भाई-भउजाई तहार माई ताके रहिया
मने-मने बाबूू देलें अपनो उमिरिया
रोटिया सुखाइ के कड़ेर होइ जाई
ठाॅंवे-ठाॅंवे रोकबऽ, अबेर होइ जाई

आजुए ना कल्हुए त लड़ि जाले रेलिया
चिरई के जान लइका के खेलिया
दिने-दुपहर गधबेर होइ जाई
ठाॅंवे-ठाॅंवे रोकबऽ, अबेर होइ जाई

गड़िए में बचवा सबेर होइ जाई
ठाॅंवे-ठाॅंवे रोकबऽ, अबेर होइ जाई

गम काथी के बा
हम त काॅंट-कूस चलवइया
हमरा गम काथी के बा
हम त ताल-तूल बन्हवइया
हमरा गम काथी के बा

देह अॅंइठलऽ रोबे आपन
लोक बिगड़लऽ रोबे आपन
हम त साॅंच-साॅंच कहवइया
हमरा गम काथी के बा

सगरो भरम-भेद फैलवलऽ
सहक-सनक के माथ गिरवलऽ
हम त नेह-छोह सॅॅंचवइया
हमरा गम काथी के बा

आखिर माया-मरम छुपल ना
कंचल काया फरल-फुलल ना
हम त रूप-रंग रचवइया
हमरा गम काथी के बा

रोजे-रोज बनवलऽ सेना*
तब्बो कवनो जोर चले ना
हम त अंतकथा लिखवइया
हमरा गम काथी के बा

*सेना- बिहार की निजी सामंती सेनाएँ 

खत अगिला में शेष
जालऽ कवना दो देस
देके जोगिनी के भेस
आहो अॅंखिए में कटि जाला रतिया नू हो
जालऽ कवना दो देस...

पीहऽ फूँकि-फूॅंकि पानी
बिसरइहऽ जनि छान्ही
आहो ठोपे-ठोपे चूए बरसतिया नू हो
ढाॅंपी अॅंचरा कि केस?
जालऽ कवना दो देस...

जोते बोए के सुतार
नाहीं केनियो उधार
घरे ससुरू बेमार
सासु आॅंखे अलचार
आहो थउसल सॅंउसन उमिरिया नू हो
कहीं कतना कलेस!
जालऽ कवना दो देस...

एगो धउगल डोले
एगो टापा-टोंइया बोले
जानीं सॅॅंझवा ना भोर
बा समइया मुॅंहजोर
आहो फरके से छाॅंटेलऽ फुटनिया नू हो
इहाॅं ठाॅंवे-ठाॅंवे ठेस
जालऽ कवना दो देस...

होला काॅंव कीच हाला
झूठ भइलें धरमसाला
जाने कतना दो बोझा
लउके केहू नाहीं सोझा
आहो बखरे बेहाल बखरिया नू हो
आहो दूनो हाथे बजिहें थपरिया नू हो
खत अगिला में शेष
जालऽ कवना दो देस...

जालऽ कवना दो देस
देके जोगिनी के भेस



मधुर राग में
खाए से जादे खिआवे के सुख
दिन के फिकिर, दुनिया भर के
सुति जाली सिरहाना सहेज

चूल्हि दमक दिहलस
तसला के बाफ ठंढक
उनकर सबसे पाॅंखवार दिन
चउकठ के पाठ से टकरा के गुुजरल
जबसे होस हम सम्हरलीं
घेरत घटा के
लुभावे से बेसी
उनके के सचेत करत पवलीं
उनका लिलार के रेख से पुछलीं
पुछलीं आॅंगन के माथ प मेड़रिआत मेघ से

उमिर का थकाई उनका के!
थका दिहलस ठेहुना के दरद

उनका दरद के बारे में सोचत
इयाद परेला दॅंवरी
मेह घेरवटत मुॅंह जाबल महादेव

जबकि सभे नीन में रहेला
बिचहीं टूटल मनभावन सपना
जोड़े के कोशिश में केहू-केहू
नीम के पतइन बीचे बइठल भुुचेंगा
भोर के अगरम पाके शिव-शिव गुहरावेला
आ मधुर राग में गावेली माई-
‘...अमवा लगवलीं टिकोरवा के आसा
बहि गइलें पुरवा चुअन लागे लासा...’

आ भोर के झुलफुल चदर ओढ़ि
सिरहाना से
उठा लेली सहेजल आपन चीज मनगॅंवे
उनका खटर-पटर के संगे
पसर जाला दिन के दुधमुॅंह मुसकी
दुनिया भर के


जा रहल बा लोग, अबकियो
ऊ लोग गुरुप में बा
साॅंस-में-साॅंस गॅंथाइल-जेनरल डाबा में
चूरा-चबेना के फाॅंका में
मन के अपना फरियावत-फॅंफरियावत

कमा-धमा के रहे लोग आइल
फेरू जा रहल बा- कमाए-धमाए
घर के, खेती-खरिहानी के-
तास सम्हार के
सम्हारे भर भरि के
फेरु लवटि आवे खतिरा
ई जतरा

सटि-सुटि के बइठल, बइठवले
बीड़ी धरावत
खइनी बनावत
नीन के बेसम्हार झोंका
बगलवाला कान्ह प सम्हरावत

नया नइखे ई सफर
ना रेल, ना टीटी, ना पुलिस
ना हल्ला, ना हुज्जत, ना खोमचा-खॅंचोली
नया नइखे पानी बिना परान घुटुकत नल
बाकिर! के जाने कइसे, कुछ अइसन
कि जा तारे जा
पहिले-पहिले जात जइसन
सभत्तर लुटात-डॅंटात
डब्बा के हज-हज में
गाॅंव-घर के फेंटले आपन बात
जा रहल बा लोग- हॅंसत-हहात
साल-छौ महीना के दूरी के
कठिन एहसास में दहात
जा रहल बा लोग एगो झोंक में
एह झोंक में दिल्ली बा झलकत
झलकत बा सूरत...

दियरखा प छूटल चुनौटी के संग
जइसे छूटि गइल होखे मन
जा रहल बा लोग
अपना के छोड़ले...

निसबद रात में
दीया अस बरी अबकियो
गीत बन झरी
कूकर, कराही भा ताल ठोंकी तसला प
ईहे छुटलका

जा रहल बा लोग
अबकियो
कतने कुुल्हि बात
कतने फरमाइस
कतने कुल्हि आस-फाॅंस लिहले
लवटि के आवे के दिन धइले
जा रहल बा लोग
अबकियो....



अपनापन एगो जियला अस
कबो बेटा के तरफ
कबो पतोह के तरफ
कबो बेटी
कबो दामाद के तरफ
बोलेली माई
बेटा-पतोह के तरफ जतना
कम ना तनिको बेटी-दामाद के तरफ
बाबू जहिया उतरल-उतरल
भा लउकेलन थाकल-थहराइल
भा कम जहिया खालन
उनका से हिर-फिर पूछेली माई
बाकी जब बोले के होला
त बहुते कम बोलेली बाबू के तरफ

उनका बोले के जगह के नइखे कवनो कमी
ऊ रसोई घर से बोल सकेली
बोल सकेली भंडार घर से
आॅंगन-दुुआर भंडार घर से
आॅॅंगन-दुआर
कवनो कोना कवनो अंतरा से बोल सकेली
ऊ जहॅंवा से बोलस चाहे जवना तरे
भाषा में उनका ना परेला कवनो खास फरक
बोलेली त जरुरियो ई नइखे
कि लग्गे उनका होखबे करे केहू

ऊ बतिया लेली चूल्हा से
तावा-चउकी-बेलन से बतिया लेली भरपेट
सूप से चलनी से
बहुत फरिछ भाषा में बतिया लेली झाड़ू से
अनाज के बोरा आ फाटल-पुरान झोरा से
बरिस-बरिस के ई अरजन उनकर आपन

उनकर बोलल-बतियावल
कबो लड़ला अस लागेला
कबो गीत कवनो गवला अस
जेठ के दुपहरिया में
ओरियानी तर एक सुर में बोलेलें स पंडुक
काम के पल्ला छटका के सुस्तालें मजूर
आ सुस्ताली माई
सुुई-धागा के हर टोप पर
मतलब छोड़त चीजन के नया एगो मतलब देत
अपनो के मतलब से जोड़त हर टोप पर

तीज-तेवहार के मोका प कवनो
भा असहूॅं बीच क के सूक भा सोमार
घरर-घरर ताल आपन ठोकेला जाॅंत
उचटि जाला घर के बड़-बनुआ नीन

जाॅंत के उखाड़े के चलल जब-जब बात
उखड़ि गइली माई
कि जइसे कि उखाड़त केहू उनुके के होखे

गाॅॅंव में आटा-चक्की के नइखे कवनो कमी
घर-दुआर चूल्हा-चउका बदल गइल बहुते
बहुते बदल गइल बात-बेवहार
तब्बो रुकल नइखे ई जाॅंत
नइखी रुकल माई
खूब बा दवर आ दरकार
खूबे खीस-पीत
खूब बा अपनापन
ऊ बोलेली अपना अपनापन के तरफ
एह अपनापन के जियला अस बाटे
उनकर बोलल-डोलल



हद बाड़ी स!
हद बा
अतना रोक-टोक के बादो
चहकि रहल बाड़ी स ई लइकी
जाए के बा बक्सर
पुरहर एगो गोल में
बहकि रहल बाड़ी स ई लइकी
हद बाड़ी स

बिरत रात ले गावत-बजावत
सहेजत-सरियावत एक-एक चीज
बिरत रात ले
तेयारी में बाड़ी स

कब सुतली स
कब जगली स
कब भइली स तेयार
कहल कठिन बा
होत फजीरे बइठे लगली स बस मंे
पिछिला सीट प
एक पताॅंह से
भउजियो के छोड़ली स ना
खींच ले ली स अपना लग्गे
घूघ-घेरा सरका देली स
एकनिए के लग्गे, लागि के
बेबइठले रहली ना
आजी, चाची, माई आ मउसी

बस अपना चाल में आइल
आ लइकियो अपना गोल-ढोल के साथे
मुॅंह प एकनी के झूलि-झूलि आवत रहे केस
खात रहे रहि-रहि के झटका
जतने ऊ रहली स बस में
ओसे तनिको कम ना सड़क प
हाट-बाट के कतने कुल्हि लोग
लय-बहार ई लोक लेत रहे लपकि-लपकि
बस के संगे उड़त धूूर के जाके पार

अनेर नइखे ई चहक-बहक
ढोल आ बोल
तान आ ताल नइखे ई अनेर
गहगहा रहल बा बस
नस-नस में दउरत खून अस
सनसनी एगो पसरि रहल बा सगरो

हद बा
अतना रोक-टोक के बादो
गा-बजा रहल बाड़ी स
अतना गवला-बजवला के बादो
रोक-टोक में बाड़ी स
हद बाड़ी स!



काका के गइला के बाद
चाय त बनी
रोज
बूढ़, जवान, लइका, मेहरारू सभे सुरुकी
ना होइहें त एगो मुखिया काका
खाटी के पाटी से ना होई लागल उनुकर डंटा
दोसर कवनो डंटा उपरा लिहें स लइका
खेलिहें स घोड़ा-घोड़ा
केहू अउर के लुकवा के जूता, केहू अउर उहाॅं होई-
मने मुसुकात, मुॅंहे छिछियात-बिखियात

आसमान में बदरी-कबो झमरी, भा करी खूब झापस
फुहियाई भा फाटी, भा घमरस बरखी
कबो दिन-दिन भ सूरुज के सॅंवस ना लागी कि झाॅंकी
त आॅंख प तरहथी के ओट से, जब कवनो मौसम-विज्ञानी
थाही कि कबले निबद्दर हो पाई आकाश
काका के आई इयाद

केहू किहें हित-नात अइहें
तै-तापर होई शादी-बियाह
बिकाई-किनाई केहू के बैल, गाय बियाई
केहू घरे सोहर गवाई
भा आई कवनो आफत
झाॅंकियो ना पारी
जब केहू किहाॅं केहू
त काका के रहला के माने बुझाई
काका के गइला के बाद

जे उठावत रहे तनखाह
हलुको-पातर नगद के आवग रहे जेकरा
ना जानि पावल ऊ, काका के घुकुुड़ियाइल कद-काठी के राज
उनुका बूता के बहरी रहे काका के मन के पीर-पहचान

समिलात सताइस बिगहा के जोत
परथकू होखे तक जवना के, शान से गिनत-गिनावत अइले आपन
बान्हि के राखल चहले जवन इज्जत-बरोह
हर लेलस ऊहे, उनुका भीतर के आग-पानी

उनका बारे में जवन चाहत बानीं कहल साफ-साफ
अॅॅंटक के अझुरा जा रहल बाटे बिचहीं
उनुका जिनगी के तार, के जाने कवन-कवन दुविधा में
ना झनक पावल, अपना रंग-राग में कबहीं

एह धरा-धाम से मुकुती के
महीना-डेढ़ महीना पहिले के बात उनुकर
नाच रहल बाटे सुरता प हमरा
कि सचहूूॅं, जाति-जनेव से आदिमी के पहचान बा अनेर...
कि आदिमी के सोचे के परी, आदिमी बन
उनुका जिनगी के रहे ई निचोर, कि कवनो मुॅंह देखल बात!

उनुका गइला के कई-कई दिन बाद ले, रोज साॅंझ खा
काकी जोहत रही, बगही* से उनुका लवटला के बाट
*बगही- एक स्थानीय बाजार



ई सोचि के
ई सोचि के ना बनल रहे ई पुल
कि लोग एह पर बइठी-सुहताई
बोली-बतियाई
खइनी-बींड़ी बनाई-धराई
चरवाह चढ़ि तकिहें
कि गाय-गोरू गइलें स केने
लगइहें हाॅंक
बूनी-बदरी में लुकइहें
गोबर-गोइंठा बीने वाली
गढ़ेवाली घास जुड़इहें एकरा नीचे
का-का दो ना बतियइहें
हेरिहें ढील
ई सोचि के थोड़े ना बनल रहे
कि पानी जब आई अफरात
एह पर से कूदिहें-फनिहें लइका
साॅंझ से बिरत रात ले
खाये के खोज-पुकार ले
रहिहें एही पर जमल
राही-बटोही पूछिहें
एह पर बइठल मनई से
कि ए भाई
बर्हमपुर परी कतना दूर
रानीसागर जाई कवन राह

मामा जो अइहें
बहिन से अपना भेंटे से पहिले
एही पर होइहंे नया-पुरान
केहू खुरपी पिजाई
केहू हॅंसुआ-कुदारी के बेंट सोझियाई
ललकारी केहू फगुआ-चइता
पेठाई केहू गीतन के जरिए कलकत्ता सनेस

ना बनल रहे ई सोचि के
कि एकरा जरी बनी छठ के घाट
माई अपना छोटकी पतोह के
दीहें कलसुप

ई सोचि के थोड़े बनल रहे
कि रहले ई रही
कि एह पर कहियो
लिखल जाई कविता

(लोकायत प्रकाशन, बी-2, सत्येंद्र कुमार गुप्त नगर, लंका, वाराणसी-221005  से प्रकाशित कविता संग्रह 'कब कहलीं हम' से साभार। मूल्य- 100 रुपए)