Friday, July 19, 2013

ग्लैमर के ताज़ा संसार में : महेश्वर

महेश्वर जी की यह कविता नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों में जनमत में छपी थी. मनमोहन सिंह तब वित्तमंत्री थे और नरसिंह राव प्रधान मंत्री. आर्थिक उदारीकरण के दौर की शुरुआत हो चुकी थी. इस अर्थव्यवस्था द्वारा दिखाए जा रहे ग्लैमर के संसार पर यह कविता एक जबरदस्त टिप्पणी है. सितम्बर २००२ के जनमत में हमने इसे पुनर्प्रकाशित किया था. महेश्वर जी जून १९९४  में हमारे बीच नहीं रहे, पर उनकी कवितायेँ , स्त्री प्रश्न पर लिखे गए उनके लेख, समसामयिक मुद्दों पर उनकी पैनी टिप्पणियां, साहित्यिक-सांस्कृतिक  आलोचंनाएँ, सामयिक राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों पर उनके लेख और गोलू की कहानी  हमारी विरासत हैं. वैकल्पिक पत्रकारिता को  ताकतवर आवेग देने वाली पत्रिका समकालीन जनमत के प्रधान संपादक और जन संस्कृति मंच के महासचिव के तौर पर उनकी भूमिका  को कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता है. 

पैसे की कीली पर
नाचती हुई दुनिया में
किसी भी क्षण तुम्हें
हो जाना चाहिए
उरुग्वे राउंड के समापन पर
उठा हुआ हथौड़ा
या मनमोहन सिंह के भेजे से बड़ा पग्गड़
प्रणव मुखर्जी की उच्चारण-भ्रष्ट अंग्रेजी
हर्षद मेहता का रहस्यमय पिटारा
या, दाऊद इब्राहिम की सलोनी रखैल...
आखिरकार
कोई कैसे कर सकता है प्रेम
अगर समंदर जैसे दिल में
केल्विनेटर फ्रिज जितनी भी जगह न हो
कभी सुना है
की प्रेम के बनते हों आमलेट
या
साफ्ट ड्रिंक कन्सेन्ट्रेट
ज़िन्दगी का होज्जाए चक्का जाम
अगर तुम्हारा ज़मीर
न पिये कैलटेक्स का मोबिल आयल
कभी अपने गिरेबान में झांक कर देखो तो
सही
की एक अदद रेनाल्ड्स बालपेन के सामने
एक अदने इंसान की हैसियत ही क्या है...
घिसा-पिटा चीथड़ा हो तुम
अगर कीमत को छोड़कर
मूल्यों की बात करते हो
घोकते हो ज़्यादा तकनीक से तहज़ीब
कुछ तो लिहाज़ करो
वक्त की नज़ाकत का
सीखना तो शुरू करो घर बेच कर मकान
कमाने का सलीका
सुनो-गुनो-धुनो
कि उपयोग की स्पेलिंग
इम्पोर्टेड जिन्सों से ज्यादा इम्पार्टेन्ट नहीं है
जिस्म और रूह का रिश्ता
और जहां तक तुम्हारे होने का ताल्लुक है
उससे कहीं ज्यादा चमकदार है
रूपर्ट मर्डोक जैसों का
होठों में छुपा कोई मल्टीनेशनल दांत...
झटककर समझदारी के खिलाफ़
उस एक अदद चिरकुट गंवार हिन्दुस्तानी
मुहविरे का खौफ़
आखिर कब समझोगे
कि ग्लैमर के ताज़ा संसर में
पिद्दी से ज़्यादा
बिकाऊ है पिद्दी का शोरबा
और
कसम पीवी नरसिम्ह राव की
आदमी से ज़्यादा जरूरी है- दलाल...
कहो, कि-कभी नहीं...!
कहो, कि-कभी नहीं...!
चुप क्यों हो?
बोलते क्यों नहीं
बोलते क्यों नहीं, ऐ मेरे लोगों?
बोलो तो सही, ऐ भले लोगों!!
(समकालीन जनमत जुला॰-सितम्ब॰ 2002 में पुनर्प्रकाशित )