Sunday, September 7, 2014

मधुकर सिंह को सलाम : कमलेश


ठीक-ठीक याद नहीं कि पहली बार मधुकर सिंह से कब मिला था। शायद वह 1983 या 84 का साल था और मैं अभी-अभी कॉलेज में गया था। उस समय हम नये रचनाकारों को मधुकर सिंह नायक की तरह लगते थे। उसी समय मैंने पहली बार उनका कहानी संग्रह माई पढ़ा था और एकदम अभिभूत रह गया था। इसके बाद दुश्मन, सोनभद्र की राधा और भी ढेर सारी कहानियां। तब तक मैं उनसे मिला नहीं था लेकिन मुझे लगता था कि मधुकर सिंह कमलेश्वर की तरह ही होंगे।
उस समय भोजपुर और बक्सर दोनों धधक रहे थे। किसान आन्दोलनों के ताप में हम भी जल रहे थे। पढ़ाई, नाटक और साहित्य रचना का काम एक साथ चल रहा था। तब नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा हुआ करता था और उसकी एक बैठक में मुझे आरा आना पड़ा था। उस बैठक में बिजेन्द्र अनिल, नवेन्दु, श्रीकांत और अनिल चमड़िया के साथ मुझे एक आदमी मिला था। मेरे आते ही उस आदमी ने चबूतरे पर मेरे लिए बैठने की जगह बनाई थी। नवेन्दुजी ने कुरता-पाजामा पहने उस व्यक्ति से मेरा परिचय कराया था-मधुकर सिंहजी से परिचय है ना?  जैसे ही उन्होंने यह बात कही मैं तुरत खड़ा हो गया था। हंसे थे मधुकर सिंह। निश्छल और बच्चों सी हंसी। मेरा हाथ पकड़ा और खींचकर अपने पास बैठा लिया। नवेन्दुजी ने कहा था- ये कमलेश हैं। बक्सर से हैं। लिखते-पढ़ते हैं। मधुकर सिंह ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा था- डुमरांव के छात्रों के आन्दोलन पर तुम्हारी रिपोर्ट मैंने जनमत में देखी है। अच्छा लिखा है। खूब पढ़ो और खूब लिखो।
बैठक के बाद मैं बक्सर वापस लौटने के लिए निकला ही था कि मधुकर सिंह ने आवाज दी थी- जल्दी में हो क्या? ट्रेन है सर- मैंने सकुचाते हुए कहा था। मधुकर सिंह ने मेरा हाथ पकड़कर कहा था- दूसरी ट्रेन से चले जाना, चलो चाय पीते हैं। इसके बाद एक चाय की दुकान में बिछी बेंच पर बैठकर दुनिया भर की बातें की थी। मेरी पढ़ाई-लिखाई के बारे में, मेरी रचनाओं के बारे में और मेरे दोस्तों के बारे में। मेरे घर के बारे में पूछा और फिर मां-पिता के बारे में। उन्होंने मुझे कुछ किताबें भी दी। कहा था- कहानी लिखना तो जरूर बताना।
इसके लगभग चार वर्षों के बाद अचानक बक्सर में सृजन संस्कृति मंच ने मेरी और विजयानंद तिवारी की कहानी पाठ का आयोजन किया था। उसमें मधुकर सिंह मुख्य वक्ता थे। कार्यक्रम स्थल पर पहुंचते ही उन्होंने मुझे खोजा और गर्मजोशी से हाथ मिलाया। उन्होंने गौर से मेरी कहानी सुनी थी और उसपर खूब बोला भी था। बाद में मुझे कहा था- शिल्प पर और ज्यादा काम करने की जरूरत है। यह केवल पढ़ने से ही संभव हो पाएगा।
कुछ दिनों के बाद मैं पटना आ गया और पत्रकारिता के काम में लग गया। लेकिन उनकी सूचना मिलती रहती थी। उनकी पत्रिका भी मिलती थी। अचानक एकदिन आज अखबार के दफ्तर में वे मुझे खोजते हुए पहुंच गये थे। थके-थके और बीमार से। मुझसे चाय मंगाने को कहा फिर धीरे से बोले- पत्रिका के काम में बहुत मशक्कत करनी पड़ रही है। तुम अपनी कहानी मुझे दो। इस बार के अगले अंक में तुम्हारी कहानी लेनी है। मेरे लिए यह बहुत बड़ी बात थी और दो दिनों के बाद मैं उन्हें अपनी कहानी देने गया था। हालांकि न तो उनकी पत्रिका का अगला अंक प्रकाशित हो सका और न मैं उनसे कहानी वापस लेने का साहस कर सका।
कुछ दिनों के बाद वे मुझे भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी और कथाकार सुभाष शर्मा के यहां मिले और अखबारों में छप रही खबरों को लेकर खूब खरी-खोटी सुनाई थी। कहा था- तुमलोग अखबार में हो फिर भी जनता की लड़ाई अखबारों से बाहर हो रही है। मैं चुपचाप सुनता रहा था। हालांकि उन्होंने फिर कहा भी था- तुमलोगों की विवशता भी मैं जानता हूं। इसके बाद हमलोग पैदल कुछ दूर तक टहलते हुए गये थे। उनके साथ कोई और था जो बार-बार रिक्शा लेने की जिद कर रहा था। लेकिन वे तैयार नहीं हुए थे। परीक्षा समिति के दफ्तर से संग्रहालय तक वे मेरे साथ पैदल आये थे और घर पर मिलने आने के लिए कहा था। तब वे पटना में ही कहीं कमरा किराये पर लेकर रहते थे। लेकिन उनसे फिर कभी मिलना नहीं हो सका। हां उनके बारे में खबरें मिलती रहती थी। उनकी बीमारी के बारे में ज्यादा। अचानक उनके निधन की भी खबर मिली। उनका जाना सचमुच दुखदायी है। नये रचनाकारों को प्रेरित करने वाले रचनाकार अब कहां है? उनकी रचनाओं की तरह उनकी यादों को सुरक्षित रखना होगा ताकि आने वाली पीढ़ियों को हम उनके बारे में बता सकें। मधुकर सिंह को सलाम।
जन गुहार 15 जुलाई 2014

स्मृतिशेष : ढोलक पर थाप देता कथाकार : कपिल आर्य





`बा जत अनहद ढोल’ का रचनाकार आखिर नींद की गहराइयों में सो गया। कहने सुनने की शैली में शब्दों के बाजीगर मधुकर सिंह उम्र के अस्सीवें साल में परिवार, साथी रचनाकारों और हिंदी-भोजपुरी बांचने वालों को आखिरी सलाम देते हुए चल बसे। बीमारियों से पिछले पांच साल से वे जूझ रहे थे। फिर भी वे करोड़ों लोगों की जिंदगी की कहानियां सबको सुना रहे थे और मुस्कराकर कह रहे थे, ढोल बज रहा है चलो हम सुनेंगे एक नई कहानी। पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर में जन्मे मधुकर सिंह का किशोर वय बिहार व उनके पुश्तैनी जिले आरा-भोजपुर में गुजरा। पूरे देश में वे घूमते-फिरते, ध्यान से समाज और लोगों को जानते-परखते। इन्हीं से वे अपनी कहानी का प्लॉट चुनते। फिर अपनी शैली में कथा बुन डालते। ऐसी कहानी जो आपको इसलिए याद रह जाती है, क्योंकि वह ऐसे मोड़ पर खत्म होती हैं, जहां से आप सोचना शुरू करते हैं। मधुकर सिंह का चिंतन और लेखन दलित आंदोलन, वामपंथी-नक्सली संघर्ष और समाजवादी चिताओं में पला-बढ़ा। वे हमेशा कृषक-मजदूर चेतना से संपन्न रहे। उनकी कहानियां जातिवादी अहंकार के खिलाफ थीं। वे हिंदी कहानी लेखन की साठोत्तरी पीढ़ी की जमात के प्रमुख कहानीकार थे। उनकी तुलना में तब के तमाम कथाकार काफी पीछे रह जाते हैं।
भारतीय ग्रामीण संदर्भों में जिस कौशल और शैली के जरिए मधुकर सिंह ने सहजता से अपनी नजर का पैनापन सृजनशीलता में झलकाया, उससे लगता है कि लेखनी की जमीन पर वे अपनी पीढ़ी के तमाम कहानीकारों से कहीं अलग थे। जिस तरह ग्रामीण संस्कृति और गांवों की समस्याओं से वे जुड़े और उन्हें अपनी कहानियों और उपन्यासों का कथानक बनाया, वह उन्हें अपने दौर के तमाम मेधावी खिलाड़ी कहानीकारों से अलग करता है। अपनी मां से भोजपुरी के लोकगीत सुनते-सुनते एक दिन वे खुद अच्छे भोजपुरी गायक बने। उन्होंने अपनी गायन की प्रतिभा उस नाटñ मंडली में दिखाई, जिसके साथ वे तरह-तरह के नाटक खेलते थे। पूरे आरा-भोजपुर में, वे नाटक अभिनेता और कहानीकार के रूप में जाने और माने जाते थे। अपनी नाटकमंडली की प्रस्तुतियों से वे गांवों-कस्बों के लोगों को सामाजिक-आर्थिक रूढ़ियों से संघर्ष करने और समाज के आर्थिक- सामाजिक विकास को वैज्ञानिक नजरिए से सोचने-समझने की राय देते थे। उन्होंने कई बाल नाटक लिखे और मंचित भी किए। वे बच्चों को हमेशा नाटक खेलने, अभिनय करने और संवाद बोलने की अलग-अलग शैलियों को आत्मसात करने के लिए प्रेरित करते।
मधुकर सिंह ने शिक्षक के रूप अपनी जिंदगी की शुरुआत की। आरा के घघरहा गांव में ही उनकी पढ़ाई-लिखाई हुई। मैट्रिक के बाद वे जैन विद्यालय, आरा में स्कूल अध्यापक बन गए। वहीं उनके सहकर्मी अध्यापक मिले जगदीश मास्टर। वे पूरे इलाके में जाने जाते थे। कहा जाता है कि जगदीश मास्टर बंगाल में शुरू हुए नक्सलबाड़ी आंदोलन से प्रभावित थे। उन्होंने आरा-भोजपुर में उस चेतना को प्रसारित किया। इसी दौरान मारे भी गए। मधुकर सिंह ने उनके संघर्षों और मौत को जमीनी सच्चाइयों के बतर्ज देखा-परखा। उन्होंने सामंतवाद और वर्ण-व्यवस्था को अपने चिंतन और लेखन की गहराइयों में एक अलग अंदाज दिया। वे गांव की संस्कृति के रचे-बसे कथाकार बने। कथा कहने की उनकी शैली गजब की थी, जो सभी को प्रभावित करती थी। बंगाल के नामी साहित्कार मसलन महाश्वेता देवी, समरेश बसु, शक्ति चटृोपाध्याय उन्हें हमेशा मानते थे।
प्रेमचंद के सुपुत्र और `कहानी’ पत्रिका के संपादक श्रीपत राय को वे अपना कथा गुरू मानते थे। वे एक अन्य कहानीकार-उपन्यासकार भैरव प्रसाद को वे अपना मार्गदर्शक बताते। कोलकाता में उन्होंने दैनिक `लोकमान्य’ में काम किया और बंगाल के रचनाकारों के संपर्क में भी रहे। उन्होंने `लोकमान्य’ विशेष पूजा-दीपावली अंकों में मेरी और तब के कई कहानीकारों की कहानियां छापीं। उनके वे दिन खासे अर्थाभाव के थे, लेकिन अपने दुखों पर वे कोई चर्चा नहीं करते थे। उन्हीं दिनों उन्होंने खूब लिखना-पढ़ना, मिलना-जुलना शुरू किया, जो जीवन के आखिरी वर्षों तक चला।
कहानी शिल्पी कमलेश्वर जब `सारिका’ में संपादक बने तो उन्होंने समांतर आंदोलन के जरिए रचनाकारों को जोड़ना शुरु किया तो मधुकर सिंह भी उनसे जुड़े और लगातार लेखन में सक्रिय रहे। समांतर के राजगिरि सम्मेलन में विभिन्न भारतीय भाषाओं के लेखकों से उनका सीधा संपर्क बना। कमलेश्वर की कोशिशों से मराठी के दलित रचनाकारों का परिचय हिंदी के लेखकों से हुआ। कहानीकार-उपन्यासकार राजेंद्ग यादव ने हिंदी साहित्य में दलित लेखन को तभी से बढ़ावा दिया और धीरे-धीरे हिंदी में भी दलित चिंतन की परंपरा बनी। इसमें भी मधुकर सिंह ने अपने तरीके से योगदान किया। दलित तबकों की आवाज बनकर उन्होंने एक नई पहचान बनाई। मधुकर आज नहीं हैं, लेकिन ढोल की थाप पर कथा कहने की उनकी `स्टाइल’ आज भी जन-जन के दिलो-दिमाग में है।  से साभार