Saturday, June 22, 2013

अंधेरे दौर में जनविमर्श : सुधीर सुमन




अनंत कुमार सिंह, अच्युतानंद मिश्र और कुमार मुकुल की किताबों पर  एक निगाह 


एक ऐसे दौर में जब अखबारों के संपादक प्रगतिशील जनवादी आकांक्षाओं वाले साहित्य को छापने के बजाए उसका उपहास उड़ाने को अहमियत दे रहे हों और पूरी नई पीढ़ी के भीतर सर्वनकार और आत्मश्लाघा की प्रवृत्ति को खूब प्रोत्साहित किया जा रहा हो, तब उन साहित्यकारों की आकांक्षाओं की थाह लेना ज्यादा सार्थक प्रतीत होता है, जो साहित्य को आज भी बदलाव का माध्यम समझते हैं और जो विचारधारात्मक मूल्यों की पहचान, उन मूल्यों को बचाए रखने की चिंता और नए जनपक्षधर मूल्यों की तलाश को ज्यादा अहमियत देते हैं। 

हाल में मुझे तीन पुस्तकें मिलीं। पहला कहानी संग्रह है कथाकार अनंत कुमार सिंह का- ब्रेकिंग न्यूज। शीर्षक कहानी खुद ही एक ऐसे साहित्यकार के बारे में है जिसकी एक इलेक्ट्रानिक चैनल का एक्सीक्यूटिव प्रोड्यूसर बनने के बाद साहित्य की दुनिया में भी पूछ बढ़ जाती है, पर वह अपनी सामाजिक नैतिकता खो देता है। औरतें सिर्फ उसके लिए उपभोग हैं और मीडिया महज मालिक के कारोबार का माध्यम। अपने पारिवारिक सामाजिक रिश्तों से भी वह पूरी तरह कट जाता है। 

शिक्षा (लपटें), खेती (मुआर नहीं), कृषि संस्कृति (भुच्चड़), शहरी मेहनतकशों की जिंदगी (पहियों पर पहाड़, वाह रे! आह रे! चैधरी मुरारचंद्र शास्त्री) के प्रति लेखक गहरे तौर पर संवेदित है। ये अपने ही अहं और कुंठा में डूबे आत्मकेंद्रित मध्यवर्गीय व्यक्ति की कहानियां नहीं हैं। और ऐसा नहीं है कि पुराने समाज के प्रति कोई अंधमोह है इनमें, वहां के शोषण और उत्पीड़न की स्मृतियां, खासकर अपने हक अधिकार से वंचित लोगों और अपने प्रेम से वंचित स्त्रियों (बसंती बुआ, मुखड़ा-दुखड़ा-टुकड़ा!) की बहुत मार्मिक स्मृतियां हैं, जो पाठक की चेतना को लोकतांत्रिक बनाती हैं। शहर और गांव और संगठित और असंगठित श्रमिकों को एकताबद्ध करने का स्वप्न (रात जहां मिलती है) भी इनमें है। कहानी संग्रह का समर्पण भी गौर करने लायक है- इस धरती को जहां रहता हूं मैं अपने शब्दों के साथ।

अपनी धरती और धरतीपुत्रों से जुड़कर उनकी व्यथाओं को कविता में लाने की ऐसी ही चिंता अच्युतानंद मिश्र के पहले कविता संग्र्रह ‘आंख में तिनका’ की कविताओं में दिखाई देती है। इसमें बदलते हुए खतरनाक समय की पूरी पहचान है और अपनी भूमिका की तलाश भी। संग्रह की पहली ही कविता है- मैं इसलिए लिख रहा हूं/ कि मेरे हाथ तुम्हारे हाथ से जुड़कर/ उन हाथों को रोकें/ जो इन्हें काटना चाहते हैं।

अच्युतानंद की कविताओं को पढ़ते हुए प्रगतिशील क्रांतिकारी काव्य धारा की मुहावरा सी बन गई कई पंक्तियों की याद आती है, पर यह नकल नहीं, बल्कि उस काव्य पंरपरा का जबर्दस्त प्रभाव है। जो चीज इन कविताओं को उन कविताओं से अलगाती है, वह है इनमें मौजूद अपने समय के संकट की शिनाख्त। एक कविता का शीर्षक ही है- इस बेहद संकरे समय में। समय जो है वह मनोनुकूल नहीं है, चीजें सारी बेतरतीब हैं, जिनके बीच एक सलीके की तलाश है कवि को, सड़कें बहुत तंग हैं, पर कवि का मानना है कि ‘बड़े सपने तंग सड़कों/पर ही देखे जाते हैं।’ जाहिर है समय के संकटों का अहसास तो है पर वैचारिक पस्ती नहीं है, क्योंकि संकरे समय में रास्ते की तलाश भी है। 

बेशक, वर्तमान से कवि संतुष्ट नहीं है, पर आस्थाहीनता की आंधी में वह बहने को तैयार नहीं है, उसे पूरा भरोसा है कि मेहनतकश हाथों से ही ‘दुनिया का नक्शा’ बदलेगा। इन कविताओं में शहर हैं, जो बस्तियों की छाती पर पैर रख जवान हुए हैं, देश है, जिसमें बच्चे भूखे ठिठुर रहे हैं, ‘किसान’ धीरे-धीरे नष्ट किए जा रहे हैं, नौजवान मरने को अभिशप्त हैं, औरतें उदास, उत्पीडि़त और पराधीन हैं, बच्चे उपेक्षित हैं। लेकिन शासकवर्ग देश ही नहीं, पूरी पृथ्वी की ही रक्षा का नाटक करता है। लेकिन त्रासदी यह है कि इस नाटक के बीच ‘डूबते किसान को कुछ भी नहीं पता/ डूबती हुई पृथ्वी के बारे में’ (आखिर कब तक बची रहेगी पृथ्वी)। 

‘एकालाप’ महज किसी लंबी कविता का शीर्षक ही नहीं है, बल्कि हर कविता मानो खुद से भी जिरह है। यही अगर इस संग्रह का शीर्षक भी होता, तो शायद ज्यादा उचित होता। यह एक ऐसी कविता है जिसमें कवि की वैचारिक बेचैनियों के कई स्तर नजर आते हैं और साथ ही एक जनधर्मी काव्य मुहावरा विकसित करने की जद्दोजहद भी- ‘सुरक्षित था जीवन/ आरक्षित था मन/ केंद्रित था पतन/ और ठगा जा रहा था वतन।’ 

संग्रह के फ्लैप पर आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी ने सही ही लिखा है कि अच्युतानंद पर्यवेक्षक कवि नहीं, अतटस्थ रचनाकार हैं। 

पर्यवेक्षण और परिवर्तन की चाहत का ऐसा ही द्वंद्व कुमार मुकुल की आलोचनात्मक लेखों के संग्रह ‘अंधेरे में कविता के रंग’ में दिखाई देता है। कवि से कर्ता होने का उनका आग्रह रहता है। वे श्रम की कीमत बताने तक कवि की भूमिका नहीं मानते, बल्कि श्रम की लूट को नष्ट करने का तरीका बताने का भी आग्रह करते हैं। राजनीतिक कविताआंे की जरूरत, अनिर्णयों का अरण्य बनती हिंदी कविता, अंधेरे में की पुनर्रचना जैसे लेख हिंदी कवियों से निर्णायक भूमिका की अपेक्षा रखते हैं। आलोचक का जो वैचारिक आग्रह कवि से है, वही समाज से भी है, इसलिए भी कि कविता को समाज से अलग करके वह कहीं नहीं देखता। इसलिए कविता में आलोचक को स्त्रीविरोधी कोई स्वर भूले से भी मंजूर नहीं है। रघुवीर सहाय और धूमिल से इसी कसौटी पर कुमार मुकुल अपनी असहमति जाहिर करते हैं। सविता सिंह, अनामिका, निर्मला पुतुल आदि कवियत्रियों की कविताओं के मूल्यांकन के दौरान स्त्रियों के प्रति उनकी संवदेनशीलता और उनकी मुक्ति के प्रति अटूट पक्षधरता दिखाई पड़ती है। अंधविश्वास, अवैज्ञानिकता, तथ्यहीनता और तर्कहीनता आदि के वे मुखर विरोधी हैं और इस आधार पर अपने प्रिय कवियों की पंक्तियों की भी आलोचना करने से नहीं चूकते। किसी आलोचक द्वारा अपने पसंद-नापसंद को भी निरंतर जांचना और अपनी आलोचनात्मक समझ को दुरुस्त करते रहना सकारात्मक प्रवृत्ति है, जो आजकल के कम आलोचकों में दिखाई पड़ती है। फिर दूसरों की समझ और राय को भी महत्व देने और अपने आलोचनात्मक विवेक के निर्माण में उसे भी जगह देने की जो आदत है, वह भी उनकी आलोचना पद्धति की खासियत है। वे प्रगतिशील जनवादी शब्दावलियों का इस्तेमाल अपेक्षाकृत कम करते हैं, पर उनकी आलोचना में निहित जो वैचारिक आकांक्षा है, वह निःसंदेह प्रगतिशील-जनवादी है, आधुनिक है। उनके आलोचक ने विचारों और सपनों में यकीन नहीं खोया है। 

कुमार मुकुल की आलोचना बहस के लिए उकसाती है। खासकर दो या कभी कभी तीन कवियों को आमने सामने रखकर तुलना करते हुए जो निर्णय वे सुनाते हैं, उसमें अच्छी कविता और बुरी कविता का जो वर्गीकरण होता है, उस वर्गीकरण से बहसें रह सकती हैं। लेकिन यह तो स्पष्ट है कि उनकी आलोचना पाठक को हिंदी कविता के व्यापक संसार से परिचित कराती जाती है। जिन कवियों और कविताओं को कुमार मुकुल परशुरामी मुद्रा में ध्वस्त करते हैं, उनके प्रति भी एक जिज्ञासा पनपती है कि जरा उस कविता को देखा जाए एक बार, जिससे मुकुल इतना क्षुब्ध हैं। कुल मिलाकर ‘अंधेरे में कविता के रंग’ की आलोचना पाठक को हिंदी कविता और अपने समय के जरूरी सवालों और बहसों से जुड़ने को उकसाती है, यही इस किताब की खासियत है।




ब्रेकिंग न्यूज (कहानी संग्रह)

अनंत कुमार सिंह

भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली

मूल्य: 120 रुपये

आंख में तिनका (कविता संग्रह)

अच्युतानंद मिश्र

यश पब्लिकेशंस, दिल्ली

मूल्य: 150 रुपये

अंधेरे में कविता के रंग (आलोचना)

कुमार मुकुल

नई किताब, दिल्ली-92

295 रुपये
                                        (समकालीन जनमत जून २०१३ से साभार) 

वरिष्ठ जनवादी आलोचक शिवकुमार मिश्र को जसम की श्रद्धांजलि

२१ जून को हिन्ढी के वरिष्ठ जनवादी आलोचक शिवकुमार मिश्र हमारे बीच नहीं रहे. उन्हें जसम की श्रद्धांजलि 


पिछले एक दशक से जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे हिंदी के वरिष्ठ आलोचक और प्राध्यापक डॉ. शिव कुमार मिश्र के निधन पर जन संस्कृति मंच हार्दिक शोक संवेदना व्यक्त करता है। प्रगतिशील जनवादी साहित्य और वैचारिकी पर चौतरफा हमले के दौर में पिछले दो दशक में उन्होंने जनवादी लेखक संघ की कमान संभाल रखी थी। 2003 में जलेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जाने से पहले 1992 से लेकर 2003 तक वे जलेस के राष्ट्रीय महासचिव भी रहे।
कानपुर में 2 फरवरी, 1931 को जन्मे प्रो. शिवकुमार मिश्र करीब दो सप्ताह से बीमार थे। उन्हें सांस लेने में तकलीफ थी। सरदार पटेल के गाँव करमसद के एक अस्पताल में उनका इलाज हो रहा था, जो गुजरात के वल्लभ विद्यानगर के पास है, जहां उनके जीवन का लंबा समय गुजरा। तबीयत अधिक खराब होने पर उन्हें अहमदाबाद ले जाया गया था, जहां उन्होंने आखिरी सांसें लीं। आपातकाल के बाद जिन लोगों ने नए सिरे से साहित्यकारों को संगठित करने की जरूरत महसूस करते हुए जलेस का निर्माण किया था, शिवकुमार मिश्र उनमें से एक थे। आज जबकि पूरे देश में ही एक तरह से अघोषित आपातकाल जारी है और लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ने वाले आंदोलनकारियों और साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों पर शासकवर्ग निरंतर हमले कर रहा है, जब चौतरफा राजनीतिक अवसरवाद जारी है, तब उसके खिलाफ प्रगतिशील-जनवादी रचनाकारों और बुद्धिजीवियों द्वारा व्यापक एकता बनाते हुए संघर्ष करना ही शिवकुमार मिश्र जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। इस लड़ाई में परंपरा से हरसंभव मदद लेनी होगी, जो कि खुद शिवकुमार मिश्र के आलोचनात्मक लेखन की पहचान रही है। नए पीढ़ी की रचनाशीलता के साथ संवाद बनाए रखने और हिंदी की प्रगतिशील-जनवादी कविता के साथ अपने आलोचक की गहरी अंतरंगता के लिए भी उन्हें याद रखा जाएगा। खासकर नागार्जुन की कई कविताएं हमेशा उनकी जुबान पर रहती थीं। 
साहित्य के सत्ता केंद्र दिल्ली से शिवकुमार मिश्र की प्रायः दूरी ही बनी रही। 1976 में उनकी पुस्तक ‘मार्क्सवादी साहित्य चिंतन: इतिहास तथा सिद्धांत’ पर उन्हें सोवियत लैंड नेहरु पुरस्कार मिला था। साहित्य चिंतन की यह एकमात्र किताब है, जिस पर किसी को यह पुरस्कार मिला। उनकी प्रसिद्ध आलोचनात्मक कृतियों में ‘नया हिंदी काव्य’, ‘यथार्थवाद’, ‘प्रगतिवाद’ , ‘प्रेमचंद: विरासत का सवाल’, ‘रामचंद्र शुक्ल और आलोचना की दूसरी परंपरा’, ‘दर्शन, साहित्य और समाज’, ‘साहित्य और सामाजिक संदर्भ, ‘मार्क्सवादी साहित्य चिंतन: इतिहास और सिद्धांत’, ‘भक्ति काव्य और लोकजीवन’, ‘मार्क्सवाद देवमूर्तियां नहीं गढ़ता’ आदि मुख्य हैं। शिवकुमार मिश्र एक अच्छे वक्ता थे और साहित्यप्रेमियों के साथ साथ विद्यार्थियों में भी काफी लोकप्रिय थे। शिवकुमार मिश्र जी को जन संस्कृति मंच की ओर से हार्दिक श्रद्धांजलि!

Tuesday, June 18, 2013

जनता की रोटी : ब्रेख्त



इंसाफ जनता की रोटी है
वह कभी काफी है, कभी नाकाफी
कभी स्वादिष्ट है तो कभी बेस्वाद
जब रोटी दुर्लभ है तब चारों ओर भूख है
जब बेस्वाद है, तब असंतोष।

खराब इंसाफ को फेंक डालो
बगैर प्यार के जो भूना गया हो
और बिना ज्ञान के गूंदा गया हो।
भूरा, पपड़ाया, महकहीन इंसाफ
जो देर से मिले, बासी इंसाफ है।

यदि रोटी सुस्वादु और भरपेट है
तो बाकी भोजन के बारे में माफ किया जा सकता है
कोई आदमी एक साथ तमाम चीजें नहीं छक सकता।

इंसाफ की रोटी से पोषित
ऐसा काम हासिल किया जा सकता है
जिससे पर्याप्त मिलता है।

जिस तरह रोटी की जरूरत रोज है
इंसाफ की जरूरत भी रोज है
बल्कि दिन में कई-कई बार भी
उसकी जरूरत है।

सुबह से रात तक, काम पर, मौज लेते हुए
काम, जो कि एक तरह का उल्लास है
दुख के दिन और सुख के दिनों में भी
लोगों को चाहिए
रोज-ब-रोज भरपूर, पौष्टिक, इंसाफ की रोटी।

इंसाफ की रोटी जब इतनी महत्वपूर्ण है
तब दोस्तों कौन उसे पकाएगा?
दूसरी रोटी कौन पकाता है?
दूसरी रोटी की तरह
इंसाफ की रोटी भी
जनता के हाथों ही पकनी चाहिए
भरपेट, पौष्टिक, रोज-ब-रोज।

Friday, June 14, 2013

मैं तो मर के भी तुझे चाहूँगा (मेहदी हसन के पहले स्मृति दिवस पर) : सुधीर सुमन

13 जून 2012 को उस्ताद मेहदी हसन का निधन हुआ था, पर पिछले एक साल में कभी नहीं लगा कि वे हमारे बीच नहीं हैं। वैसे भी पिछले कई वर्षों से वे गा नहीं रहे थे, इसके बावजूद वे हमारे स्मृतियों के किसी तलघर में नहीं चले गए थे, बल्कि हमारे रोजमर्रा के जीवन में वे गहरे रचे-बसे हुए थे और आगे भी रहेंगे। आज बाजार आए दिन नई नई आवाजें उछालता रहता है, नए नए आकर्षणों को बड़ी धूम से प्रचारित करता है, लेकिन वे आवाजें बहुत देर तक हमारे दिलो दिमाग या जीवन में टिक नहीं पातीं, मेहदी हसन की आवाज मानो इस प्रवृत्ति को चुनौती देती है, वह मानो कहती है कि मैं कोई उपभोक्तावादी लहर से पैदा उत्पाद नहीं हूं, मैं तो मनुष्य के जीवन और संस्कृति के गहरे अनुभवों और उसकी सृजनात्मक शक्ति की अभिव्यक्ति हूं। कुछ जो शाश्वत भावनाएं हैं, जिनसे तमाम कलाएं जन्मी और विकसित हुई, उसकी अभिव्यक्ति की जो परंपरा है उसी की बेमिसाल देन हूं। मुझमें अपनी मिट्टी, अपने जल, अपनी जबान और अपने जैसे हजारो-लाखों लोगों का हाल-ए-दिल दर्ज है। इसीलिए तो बहुत सीधे और सहज तरीके की गजल ‘मुझे तुम नजर से गिरा तो रहे हो, मुझे तुम कभी भी भूला न सकोगे’ को जब हम मेहदी हसन की आवाज में सुनते हैं, तो वह सिर्फ किसी प्रेमी की उपेक्षा की पीड़ा और इस दावेदारी की गजल नहीं रह जाती कि उपेक्षा के बावजूद प्रेमी की वफा में इतनी ताकत है कि उसे भुलाया नहीं जा सकता, बल्कि उसमें वफा के बावजूद उपेक्षित और वंचित किए जाने की जाने कितनी दास्तानें जुड़ जाती हैं। 
भारत-पाकिस्तान के रिश्ते के संदर्भ में अहमद फराज की गजल ‘रंजिश ही सही’ जरूर ज्यादा लोकप्रिय रही, शायर अहमद फराज से भी इसे सुनाने की अक्सर फरमाइशें की जाती थीं और वह भी कबूल करते थे कि यह तो मेहदी हसन की गजल हो गई है। लेकिन ‘मुझे तुम नजर से गिरा तो रहे हो’ को सुनते हुए अक्सर मुझे लगता है, मानो इसमें उन करोड़ों लोगों के विषाद का इजहार हो रहा है, जिन्होंने इस देश और इसकी संस्कृति को रचने में साझी भूमिका निभाई, मगर इतिहास के एक खास मोड़ पर अपने मादर-ए-वतन के प्रति ही गैर वफादार करार दिए गए। खुद मेहदी हसन की जिंदगी को विभाजन की इस त्रासदी के बगैर समझा नहीं जा सकता। राजस्थान के अपने गांव और पूरे भारत के प्रति उनके जबर्दस्त लगाव की कुछ घटनाओं की चर्चा लोग करते रहे हैं। कई बार लगता ही नहीं कि उनके द्वारा गायी गई गजल में (भले वह किसी फिल्म के लिए क्यों न गाई गई हो) महज कोई नायक किसी नायिका के प्रति संबोधित है। इसी गजल की अगली पंक्तियां हैं- न जाने मुझे क्यों यकीन हो चला है, मेरे प्यार को तुम मिटा न पाओगे/ मेरी याद होगी, जिधर जाओगे तुम, कभी नग्मा बनके कभी बनके आंसू। मेहदी हसन को सुनते हुए कभी नहीं लगता कि भारत और पाकिस्तान दो भिन्न मुल्क हैं, बल्कि ऐसा महसूस होता है कि हम बिल्कुल अभिन्न हैं। 
अकारण नहीं है कि भारत में मुस्लिम विरोध और पाकिस्तान विरोध के जरिए अंधराष्ट्रवादी व सांप्रदायिक उन्माद भड़काए जाने की जो राजनीति रही है, उसका प्रतिकार करने वालों को जाने-अनजाने मेहदी हसन की आवाज बेहद सुकून प्रदान करती रही है। वे हमारे लिए हमारी साझी संस्कृति के बहुत बड़े प्रतिनिधि थे। मैंने खुद नब्बे के दशक की शुरुआत में जो पहला कैसेट खरीदा था, वह मेहदी हसन का था, जिसमें शोला था जल बुझा हूं, रंजिश ही सही, जिंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं आदि मशहूर गजलें थीं। बीस साल की उम्र में पहली बार देश की राजधानी दिल्ली एक रेडियो प्रोग्राम के सिलसिले में आया था और यहां से लौटते वक्त वह कैसेट और चांदनी चौक से एक सस्ता सा वाकमैन खरीद कर ले गया। वाकमैन तो जल्द ही खराब हो गया, पर वह कैसेट आज भी मेरे एक जिगरी दोस्त के पास सुरक्षित है।
हमारी पीढ़ी को फैज, फराज, मीर और दाग जैसे शायरों से जोड़ने वाले मेहदी हसन ही थे। उन्होंने इन शायरों की जिन गजलों का चुनाव किया, उसे सुनते हुए हम न केवल साहित्य की बेमिसाल परंपरा से जुड़े, बल्कि आधुनिक और प्रगतिशील भावबोध भी हमारे भीतर घुलता गया। अक्सर यह बात जो मन में चलती रहती है कि हिदी उर्दू की पढ़ाई अलग-अलग नहीं, बल्कि एक साथ होनी चाहिए, तो इसके पीछे भी मेहदी हसन जैसे गायकों की भी बड़ी भूमिका है, जिन्होंने अपनी गायकी के सहारे हमें इन महान शायरों की रचनाओं की खासियत से रूबरू कराया। 
मेहदी हसन के गुजर जाने के बाद उनके द्वारा गायी गई अपने पसंद की गजलों को याद करने लगा, तो तुरत दो दर्जन से अधिक गजलें जुबान पर आ गईं। मुझे महसूस हुआ कि दूसरे किसी गायक द्वारा गाई गईं पसंदीदा गजलों से यह संख्या अधिक है। बल्कि मीर, फैज, गालिब और अहमद फराज को छोड़ दें तो कई गजलों के शायरों का नाम भी जेहन में कम ही रहता है। यकीन से भरी और हौले से अपने भरोसे में लेने वाली मेहदी हसन की आवाज का जादू ही सर्वोपरि होता है, जो उन शायरों की रचनाओं में मौजूद भावनाओं और अर्थों की बारीकियों को अत्यंत कुशलता से खोलते हुए, हमारे भाव-जगत से बेहद आत्मीय संवाद करता है। कई बार तो उनके द्वारा गायी गई किसी पसंदीदा गजल के शायर का नाम जब पता चलता है, तो हम एक अजीब सी खुशी से भर उठते हैं। ऐसा ही मेरे साथ ‘रोशन जमाले यार से है अंजुमन तमाम’ गजल सुनते हुए हुआ। मैं उन्हीं के अंदाज में इसे दोस्तों के बीच गाता भी रहा हू, लेकिन शायर का नाम ही पता नहीं था। अभी कुछ महीने पहले खुद मेहदी हसन के एक प्रोग्राम की रिकार्डिंग सुनते हुए मुझे पता चला कि इसके रचनाकार हसरत मोहानी हैं, वही चुपके चुपके रात दिन वाले हसरत मोहानी, आजादी के आंदोलन की इंकलाबी शख्सियत हसरत मोहानी। इसी तरह इंकलाबी शायर हबीब जालिब की मशहूर गजल ‘दिल की बात लबों पर लाकर अब तक हम दुख सहते हैं’ को अपनी आवाज के जरिए मकबूल बनाने और बहुतों के दिल की आवाज का बयान बना देने का श्रेय भी मेहदी हसन को ही जाता है। मीर की गजल ‘पत्ता पत्ता बुटा बुटा हाल हमारा जाने है’ को जब मेहदी हसन की आवाज में पहली बार सुना, तो लगा कि इससे बेहतर कोई और नहीं गा सकता। और अपने अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर की गजल- ‘बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी’ हो या फिर मीर की ‘देख तो दिल कि जां से उठता है/ये धुंआ सा कहां से उठता है’ और दाग की ‘गजब किया तेरे वादे पे एतबार किया’, ऐसा लगता है कि ये गजलें मेहदी हसन की आवाज के लिए ही बनी थीं। जहां तक गुलों में रंग भरे और शोला था जल बुझा हूं सरीखी फैज और फराज की कई गजलों की मकबूलियत की बात है, तो इसमें मेहदी हसन की आवाज की भी बहुत बड़ी भूमिका है। यद्यपि गालिब की गजल दिले नांदा तुझे हुआ क्या है मेहदी हसन की आवाज में मुझे व्यक्गित तौर पर उतनी प्रभावशाली नहीं लगती, लेकिन यह एक अपवाद है। परवीन शाकिर की गजल कूबकू फैल गई मेहदी हसन की आवाज में गाई गई ऐसी गजल है, जिसे अब भी खूब पसंद किया जाता है। मिलन की खुशी- (यूं जिंदगी की राह में टकरा गया कोई, दुनिया किसी के प्यार में जन्नत से कम नहीं) और बिछड़ने का गहरा दर्द- (अबके हम बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिले, हमें कोई गम नहीं था गमे आशिकी से पहले) जिस गहराई से इस आवाज में अभिव्यक्त होता है, वह इसे श्रोताओं का बेहद आत्मीय बनाता है। एक गजल है- इलाही आंसू भरी जिंदगी किसी को न दे/ खुशी के बाद गमे-बेकसी किसी को न दे। अपने एक प्रिय कामरेड के संग्रह में से मैंने इसे पहली बार सुना था और लंबे समय तक समझता रहा कि यह गालिब की गजल होगी। लेकिन हाल में पता चला कि इसे मशरूर अनवर ने लिखा था और पाकिस्तानी फिल्म ‘हमे जीने दो’ के लिए मेहदी हसन ने इसे गाया था। मैं अक्सर यह भी सोचता रहा हूं कि मेरे साथी जो अपने साथियों के निजी दुखो को जाहिर करने को बहुत अहमियत नहीं देते थे और खुद भी अपने दुखों की झलक आज भी किसी को नहीं लगने देते, उनके संग्रह में यह गजल क्यों है? क्या यह इसे सुनते हुए कोई कथार्सिस होता है, जैसे जो हमारे दुख अभिव्यक्त नहीं हो पाते, जो हमारे अंदर घर किए रहते हैं, इस गजल को सुनते हुए मानो हम उनसे मुक्त होते हैं। जिस अंदाज मे मेहदी हसन गाते हैं- उजाड़ के मेरी दुनिया को रख दिया तूने, मेरे जहान के मालिक ये क्या किया तूने, वह दुख और शिकायत की इंतहा लगती है। अब इलाही या जहान के किसी मालिक की अवधारणा में भले ही किसी का यकीन न हो, पर दुनिया उजड़ने के दुख का श्रोताओं के अपने दुख से बिल्कुल तादात्म्य हो जाता है। उजड़ने और बिछड़ने का गम मेहदी हसन की आवाज में बड़ी असरदार तरीके से सामने आता है। और यह गम मानो वफा पैमाना भी है। फराज की गजल में जब वे गाते हैं- ढूंढ उजड़े हुए लोगों में वफा के मोती/ ये खजाने तुझे मुमकिन है खराबों में मिले, तो इसे साफ तौर पर महसूस किया जा सकता है। 
वह आवाज आज भी गूंज रही है- जिदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं, मैं तो मरकर भी मेरी जान तूझे चाहूंगा। यह कोई भाववाद नहीं या किसी अपार्थिव सत्ता में कोई यकीन नहीं, बल्कि तमाम दुश्वारियों के बीच अपने होने का यकीन है। एक जिंदगी जिस जमीन और मिट्टी से विस्थापित हुई, जिसके बीच सरहदों की दीवारें खींच गईं, उसकी बाड़ाबंदियों को तोड़ती हुई, मरके भी उसी की खुश्बू में शामिल होने की यकीन है मेहदी साहब की आवाज।