Wednesday, November 7, 2018

सांस्कृतिक योद्धा थे अकारी : बलभद्र

भोजपुरी के जनकवि दुर्गेन्द्र अकारी का 5 नवंबर 2012 को निधन हुआ। ये बिहार के भोजपुरी जिला के अकिलनगर एड़ौरा गाँव के थे। अकारी जी का एक संग्रह ‘चाहे जान जाए’ नाम से प्रकाशित है। इनके गीतों में भोजपुर और बिहार के क्रांतिकारी किसान संघर्षों की अनुगूंजें हैं। ये अत्यंत गरीब परिवार के थे और जीवन-यापन के लिए इन्होंने कुछ दिनों तक गाँव में ‘बनिहारी’ (मजदूरी) भी की थी। दो सेर अनाज उस समय मजदूरी के रुप में मिलता था। दो सेर सवा किलो के बराबर होता है। अपने उन अनुभवों को अकारी जी ने अपने कई गीतों में आकार दिया है। अपने अनुभवों को सहज-सशक्त आकार देने के चलते ही इन्हें ‘अकारी’ नाम से लोग पुकारने लगे। इस नाम के पीछे एक रोचक प्रसंग भी है, जिसकी चर्चा बाद में की जाएगी। अकारी जी अपने अनुभवों के आधार पर कहते हैं-‘मत करऽ भाई बनिहारी तू सपन में’ (सपने में भी बनिहारी मत करो)। कवि ने फरियादी स्वर में एक गीत लिखा है-‘चढ़ते अषाढ़वा हरवा चलवलीं,/चउरा के बन हम कबहूँ ना पवलीं/जउवे आ खेंसारी से पिरीतिया ए हाकिम/कतना ले कहीं हम बिपतिया ए हाकिम।’ (अषाढ़ के शुरू होते ही हल चलाया। मेहनताना के रुप में चावल कभी नहीं पाया। जौ और खेंसारी ही मयस्सर हुआ। कहाँ तक अपनी विपत्तियाँ सुनाएँ।) अकारी जी का एक लोकप्रिय गीत है-‘बढ़ई लोहार धोबी रोपले बा आलू कोबी/ पेड़-पाता खड़ा ओकर फलवे नापाता/बतावऽ काका कहँवा के चोर घुसि जाता।’ (बढई, लोहार, धोबी ने आलू-गोभी की खेती की। ये गांव के अत्यन्त गरीब, पिछड़े व अल्पसंख्यक हैं। खेतोें में पेड़-पत्ते तो ख़ड़े हैं पर फल गायब हैं। इन खेतों में कहाँ के चोर घुस जाते हैं।)

यह गीत इतना लोकप्रिय रहा कि गांवों में नाच-नौटंकी वाले भी इसे गाते थे और कई नाटक टीम के कलाकारों ने भी इसे अपने-अपने ढंग से जरूरत के मुताबिक गाया। देश में जो लूट-खसोट है बड़े पैमाने पर, सत्ता-प्रतिष्ठानों में जो भ्रष्टाचार है और शाासक वर्ग द्वारा बार-बार यह झूठ प्रचारित किया जा रहा है निरंतर, कि सब सुरक्षित है, यह गीत इस लूट-खसोट, भ्रष्टाचार और झूठ को उजागर करता है। साथ ही साथ भारत की जो जटित जाति-संरचना है, जातियों के जो चरित्र और अंतर्विरोध हैं, उसकी भी इसमेें शिनाख्त है और इस सिस्टम पर करारा व्यंग्य है।
अकारी जी का सम्बन्ध राजनीतिक रूप से भाकपा (माले) से रहा है। ये उसके सांस्कृतिक योद्धा थे। भोजपुर और बिहार के किसान- आन्दोलन के विभिन्न पड़ावों, प्रसंगों, घटनाओं और चरित्रों पर इनके गीत हैं। इनके गीतों में किसान-संघर्षों का इतिहास दर्ज है। इन्हें जेल भी जाना पड़ा है और जेल जीवन के अनुभवों को भी इन्होंने गीतों में उतारा है। इस तरह कि लोग बार- बार उनके मुँह से सुनना चाहते थे।
अक्षर-ज्ञान भर ही शिक्षा थी। गीतों में देखने में आता है कि हिन्दी और भोजपुरी के शब्दों और वाक्यों के प्रयोग से ये कहीं परहेज नहीं करते। भिखारी ठाकुर की तरह किसी-किसी गीत में दो लाइन हिन्दी में है और पूरा गीत भोजपुरी में। यह नौटंकी का शिल्प है। अकारी जी का संघर्ष समझौताहीन संघर्ष रहा। इनको और इनके संघर्ष को सलाम।
मैंने इनको बार-बार गाते हुए देखा- सुना है। ये ‘आत्म-आलोचना’ में विश्वास करते थे। पार्टी की बैठकों में ‘आत्म-आलोचना’ की जगह रहती है। साहित्य की विधा ‘आलोचना’ से परिचित होते हुए भी इन्होंने कभी यह नहीं सोचा कि उनके गीतों पर कौन क्या सोचता-कहता है ? उन्हें तो जन संघर्षों के लिए जीना था और उसी के लिए गीत रचने थे।
जन संस्कृति मंच का तेरहवाँ राष्ट्रीय सम्मेलन 03-04 नवम्बर 2012 को गोरखपुर में चल रहा था। यहाँ ‘जनभाषा- समूह’ के प्रारूप और कार्य-योजना पेश करते हुए मैंने आरा में अकारी जी पर एक कार्यक्रम करने और उन्हें सम्मानित करने का प्रस्ताव रखा था। यह कार्यक्रम हमलोग शीघ्र करते। पर अफसोस कि अकारी जी हमारे बीच से चले गए। हम उन्हें याद करते हैं और अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। प्रो0 बलिराज पाण्डेय, प्रो0 सदानन्द शाही, प्रकाश उदय, बलभद्र, आसिफ रोहतासवी, संतोष कुमार चतुर्वेदी, कृपाशंकर प्रसाद, राजकुमार, सुरेश काँटक, राधा, सुमन कुमार सिंह, जितेन्द्र कुमार, सुधीर सुमन, दुर्गा प्रसाद सिंह, आस्था सिंह, आदि ने श्रद्धांजलि पेश की है। ये गोरख पाण्डेय, रमता जी, विजेन्द्र अनिल की धारा की एक कड़ी थे।

Monday, November 5, 2018

जनकवि नागार्जुन पर उनके समकालीन और परवर्ती दौर के कवियों की कुछ कविताएं

नागार्जुन का स्वर प्रबुद्ध जनता का स्वर है : त्रिलोचन

हिंदी की कविता उनकी कविता है, जिनकी सांसों को आराम न था- कवि त्रिलोचन की यह काव्य-पंक्ति जितनी खुद उनके लिए उपयुक्त है, उतनी ही नागार्जुन के लिए भी।

                            1

कहा एक महिला ने, नागार्जुन तो कवि से
cover : ramniwas singh

नहीं जान पड़ते। आए तो ज्यों ही पास

त्यों ही घुलमिल गए। ढंग ऐसे कब पाए

थे हमने कवियों के। मुंह खोला तो रवि से

नीचे उतरे नहीं और मिट्टी की छवि से

निपट अपरिचित मिले, हवाई महल बनाए

रहे; स्वाद उन्हें कब मिला जीवन की हवि से।


एक मजूर ने कहा, नागार्जुन ने मेरे

बच्चे को बहलाया फिर रोटियां बनाईं

खाईं और खिलाईं। खुशियां साथ मनाईं,

गम आया तो आए। टीह टाह की। घेर

खड़े रहे असीस बनकर। हठ हारा, फेरे

फिरे नहीं, चिंताएं मेरी गनी गनाईं। 

                       2

अत्याचार अनय पर नागार्जुन का कोड़ा

चूका कभी नहीं। कोड़ा है वह कविता का

कहीं किसी ने जानबूझ कर अनभल ताका

अगर किसी का तो कवि ने कब उस को छोड़ा

ऐसा जन ही सामाजिक शरीर का फोड़ा

है; उस का चलता हो चाहे जितना साका,

रोब-दाब, आतंक, घेर लो उसका नाका;

वह भी सीखे आकुल व्याकुल होना थोड़ा।


कवि नागार्जुन सर्वमंगला का ध्यानी है

इसी लिए छल और वंचनाओं की छाया

में रम जाना, उस के मन को कभी न भाया

कठिन शाप भी देता है, यों वरदानी है,

अपनी वाणी से भर दी प्राणों की माया।

                            3

नागार्जुन- काया दुबली, आकार मझोला,

आंखें धंसी हुई घन भौंहें, चौड़ा माथा,

तीखी दृष्टि, बड़ा सिर। इस में ऐसा क्या था

जिस से यह जन सामान्य है। पूरा चोला

कुछ विचित्र है, पतले हाथ-पैर। वह बोला

जब कविता के बोल तब लगा सत्य सुना था,

इस जन का यश, जिस ने जीवन-तत्व चुना था;

खुला बात में, बात बात में जीवन खोला।


अपने दुख को देखा सब के उपर छाया

आह पी गया, हंसी व्यंग्य की उपर आई

कांटों में कलिका गुलाब की भू पर आई

भली-भांति देखा, किस ने क्या खोया क्या पाया।

हानि लाभ दोनों का उस ने गायन गाया

कभी व्यंग्य उपहास कभी आंखें भर्र आइं


                               4

नागार्जुन क्या है। अभाव है। जम कर लड़ना

विषम परिस्थितियों से उस ने सीख लिया है

लिया जगत से कुछ तो उस से अधिक दिया है।

पथ कंटकाकीर्ण था पर कांटों का गड़ना

उस को रोक न सका। युद्ध में डट कर अड़ना

और उलझना, जान चुका है। यही किया है,

जीवन धारा की तरखा में, और जिया है, 

देखो हरसिंगार का खिलना, खिल कर झड़ना।


पत्नी, बच्चे, आह सभी विपदा की थापी

खाते हैं, क्या जाने कौन रूप पाना है।

विपदा ने भी इस घर को अपना माना है, 

इस विपदा पर कवि ने लहर हंसी की छापी,

आंखों की प्याली में छटा स्वप्न की खापी;

अपने पथ पर ही चलना उस का बाना है। 


                              5

नागार्जुन जनता का है। जनता के बन में

अलग नहीं दिखलाई देता। यह जन-धारा

लिए जा रही उस को। नव जीवन प्यारा

स्वर बन कर ओठों पर है उर की धड़कन में

एक एक धड़कन है। पावन चिंता मन में 

अहोरात्र की है। पल दो पल को यदि हारा

लोटा पोटा भू पर और ग्लानि को गारा, 

कुंडल मेे विद्युत् सी आभा दौड़ी तन में।


नागार्जुन का स्वर प्रबुद्ध जनता का स्वर है।

नए पुराने कवियों की प्रतिभा कल्याणी

कवि के मुख से बोली है। चिर पीड़ित प्राणी

जागा है, पहचान लिया क्या उसका वर है

नए सुदर्शन से आतंकित विषमज्वर है

शर है और शरासन भी इस कवि की वाणी।



बाबा हमारे, नागार्जुन बाबा

शमशेर 

अपने समय के बेहद संवेदनशील कवि शमशेर ने बाबा नागार्जुन के बारे में लिखा था- ‘‘उनकी कविताएं संघर्षरत साहसी युवकों और शोषित श्रमिक वीरों की दुनिया में हमें ले जाती हैं। शहीदों की पावन याद को हमारी आंखों में बसाने वाला और कौन दूसरा कवि हिंदी में लिख रहा है, कोई मुझे बताए। आज के अत्यंत सस्ते खोखलेे दंभ के युग में नागार्जुन की कविताएं कीमती दस्तावेज हैं। इसलिए यह मुुझे आज के कवियों में सबसे प्रिय हैं।’’ 


बाबा हमारे, अली बाबा

नागार्जुन बाबा!!


‘खुल सिसोम’ सबके सामने-

कहते- सबों के सामने-

खजाने की गुफाएं

सबों के लिए खुल पड़तीं,

क्लासिक क्रांतिकारी खजाने


बहादुर कविता के जीते-जागते,

कभी न हार मानने वाली जनता के

बहादुर तराने

और जिंदा फसाने

आंखों को चमकाने वाले,

दिलों को गरमाने वाले,

आज के इतिहास को

छंद में समझाने वाले:

-कभी धीमी गुनगुनाहटों में,

कभी थिरकते व्यंग्य में,

कभी करुण सन्नाटे में,

तो कभी बिगुल बजाते

और कभी चिमटा;

कभी बच्चों को हंसाते,

तो कभी जवानों को रिझाते,

और बूढ़ों की आंखों में

मस्ती लाते

-ऐसे खजाने कविता की

झोली में बरसाते

हमारे बाबा, अली बाबा

नागार्जुन बाबा!!

×××

‘‘काहे घबराऽऽएऽ’’

इस फिल्मी गीत के बोल

अपने बेटे के साथ

मिलकर गाते हुए

जब मैंने सुना था

-वह समां मुझे याद है!


चुटकी बजा-बजाकर,

मौज से भूख और अभाव को

बहलाते हुए,

मेरे अली बाबा,

गीतों के दस्तरखान बिछाए,

कविताओं के जाम चढ़ाए,

अभावों  की गहरी छाने,

बेफिक्र मस्त;

इसी मस्ती से क्रोध और आवेश के

कड़ुए घूंट को

किसी तरह मीठा-सा कुछ बनाए,

जनता के, जलते हुए अभावों की

आग में

नाचते हुए 

अजब अमृत बरसाते

अनोखे खजाने लुटाते,

आत्मा को तृप्त करते,

युग की गंगा में गोते लगाते

अद्भुत स्वांग बनाए,

मेरे बाबा अली बाबा

नागार्जुन!!

1954



नागार्जुन

केदारनाथ अग्रवाल

भारतीय जनकविता के दो बड़े नाम हैं केदारनाथ अग्रवाल और नागार्जुन। दोनों ने एक दूसरे पर कविताएं लिखीं हैं। दोनों के वैचारिक-आत्मीय रिश्ते की झलक पेश करती यह कविता मानो नागार्जुन का लाइफ स्केच है। 


नागार्जुन कवि हैं

कवि आदमी होता है

नागार्जुन आदमी हैं

आदमी और भी हैं

फिर भी आदमी नहीं हैं

नागार्जुन ऐसे आदमी नहीं हैं


नागार्जुन पति हैं

पत्नी से जीते हुए नहीं

अपराजिता से हारे हुए पति हैं

नागार्जुन बाप हैं

फक्कड़ बाप हैं

घुमक्कड़ बाप हैं

बेटों पर कभी-कभार छतुरी तानते हैं-

जो बहुधा उड़ जाती है

उड़ी छतुरी के पीछे नागार्जुन नहीं भागते

आशीष की छाया बेटों पर डालते हैं

मंत्र मारते और पेट पालते हैं नागार्जुन


नागार्जुन हंसोड़ हैं

दूसरे भी हंसोड़ हैं

पर वैसे नहीं हैं वे

जैसे बेजोड़ हंसोड़ हैं नागार्जुन

कोई सानी नहीं है उनका 

हंसोड़ होकर भी जो जिये वैसा

वह जीते हैं जैसा

नागार्जुन व्यंग्य और विद्रूप की मार करते हैं

दूसरों का विष दिन-रात पिये रहते हैं

नागार्जुन दोस्त हैं

आज के नहीं, पहले के-

जनता के भले के।

अपराजिता- पत्नी का नाम, मंत्र- नागार्जुन की एक कविता


बरौनियों पर शहद

कुबेर दत्त

यह कविता कवि-चित्रकार-दूरदर्शन के चर्चित प्रस्तुतकर्ता और कार्यक्रम निर्माता कुबेर दत्त ने 1996 में लिखी थी, जब वे सादतपुर में उनसे मिलने गए थे। सैकड़ों परिवारों जिनसे बाबा का आत्मीय संबंध था, उसमें कुबेर दत्त और उनकी पत्नी प्रसिद्ध नृत्यनिर्देशक और दूरदर्शन आगार की पूर्व निदेशक कमलिनी दत्त का परिवार भी एक था, जहां भौतिक रूप से दुनिया में न होने के बावजूद बाबा अक्सर चर्चाओं में रहते थे। कुबेर जी अक्सर बाबा की पंक्ति दुहराते थे- हमसे क्या झगड़ा है/ हमने तो रगड़ा है/ इनको भी, उनको भी, उनको भी। 


फटी बिवाई

बूढ़े, अनुभवी उन पंजों में

सूर्यमुखी-से जो दीखते थे

ढलता सूर्य गांव सादतपुर में...

उस दिन नहीं था कोई प्रशंसक

नहीं थी अधेड़ स्त्री मजाक ठट्ठे के लिए

अकेला था नागार्जुन अकेले थे बाबा-

अलसाई धूप में सोए

गर्भस्थ शिशु जैसे

खाट पर...


बाजू में बैठे थे कालिदास

सूखती परात पर रखा था

अभिज्ञान शांकुतलम्

खिचड़ी विप्लवी खदक रहा था-

सहन में रखी अंगीठी पर...


सोई थी देह बाबा की

आगे थे नाक के सफेद बाल

नाक के बालों के स्वागत में

उड़ती थी दाढ़ी इधर-उधर...

गमछा था मगन-मगन

दबा-दबा/ कोहनी के नीचे

दिन का अखबार भी

आधा था दबा-दबा/ बाबा के नीचे

दबी हो जैसे पृथ्वी आधी/ बाबा के नीचे...

सिरहाने की ओट खिला था गेंदा एक

बैठी थी जिस पर मधुुमक्खी

शहद मगर उगजता था

नींद में हंसते

नागार्जुन की बरौनियों पर!



बाबा नागार्जुन के लिए दो कविताएं

श्याम सुशील
साहित्य संबधी सामग्री का दस्तावेजीकरण श्याम सुशील की सहज प्रवृत्ति रही है। जनता के प्रति प्र्रतिबद्ध रचनाकारों के साथ उनका विचार और व्यवहार दोनों स्तरों पर बेहद अंतरंग संबंध रहा है। 


हमारी जिंदगी

आपका जीना हमारी जिंदगी है

आप युग-युग तक जिएं

जिससे-

जी सकें हम, 

मधु-हलाहल पी सकें हम-

जिंदगी का। 


बाबा क्यों न हंसेंगे!

अपने को तो पढ़ नहीं पाते

वेद-पुराण पढ़ेंगे!

अपने को तो गढ़ नहीं पाते

काव्य महीन गढ़ेंगे!

बाबा क्यों न हंसेंगे!

(जनपथ, अक्टूबर 2011 अंक से साभार)

स्मरण जनकवि 'अकारी : संतोष सहर


स्मरण जनकवि 'अकारी' - 1
भोजपुरी के जनकवि दुर्गेंद्र अकारी की कुछ अप्रकाशित रचनाएँ मिली हैं. वे खुद को एलएलपीपी (लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर) भी कहते हैं ''आइसीएस आइपीएस बा दोषी कि एलएलपीपी अकारी''. एक ही गीत दर्जनों बार रफ/ फेयर के साथ. इस जूनून को सलाम करते हुए मुझे कहना है कि वे अतुलनीय हैं. उनकी अनुभूति प्रत्यक्ष व प्रामाणिक है और विचार क्रन्तिकारी. भोजपुरी व मगही समेत हमारी जनभाषाओं में उनके जैसा कोई नहीं है. 'बिहार के धधकते खेत खलिहानों की दास्तान' अधूरी रहती अगर उसमें ' कहत अकारी बिहारी मजदूर प, शत बाड़ ए भइया कवन कसूर प' जैसा स्वर न होता.
उनका 'क्राफ्ट' इतना मौलिक व् विविधतापूर्ण कि अचरज होता है. सिर्फ दो उदाहरण देता हूँ. पहला उनका गीत 'चाहे जान जाये' देखिये--
चाहे जान जाये, चाहे प्राण जाये
मगर तुमको हटाकर दमे-दम लूंगा. (यह खड़ी बोली में है)
हई बरियारी देख तनिको ना सहाता
केहू मरे भूखे केहू बइठल बइठल खाता. (यह भोजपुरी है)
और पूरा गीत इसी क्रम में पूरा होता है.
मुझे बेगम अख्तर का गाया याद आया--
हमरी अटरिया पे आओ सांवरिया
देखा देखी बलम होइ जाये
तसव्वुर में चले आते हो कुछ बातें भी होती हैं
शबे फुरकत भी होती है मुलाकातें भी होती हैं.
कथात्मक/वर्णनात्मक शैली में लिखी हुई उनकी एक अप्रकाशित गीत रचना (सम्भवतः 80- 81 में रचित) 'लड़ल बाघ से बकरिया' बेजोड़ है. यह अदम गोंडवी के 'मैं चमारों की गली में ले चलूंगा आपको' से बहुत आगे ले जाती है. देखिये--
बाघवा गरजे जइसे गरजेला दरिया
बकरी के अंखिया से चले पवनरिया
बाघ कभी बच्चा प नजरिया
लड़ल बाघ से बकरिया........
गरजि के बाघवा बकरिया प छरके
पेट में घुसली बकरी एक डेग बढिके
पँहथि के कइली पटरिया
लड़ल बाघ से बकरिया.........
बाघवा के पेटवा में घुसली बकरिया
ढोंढ़ी में लगा के सींग देली झकझोरिया
फाटि गइल बाघ के धोकरिया
लड़ल बाघ से बकरिया..........
एहि विधि दुखवा गरीबवन के जाई
दूसर कही का, केतना ले समझाई
अकिलनगर (एरौड़ा) के अकरिया
लड़ल बाघ से बकरिया.
यह रूपक एक ही साथ कितने विमर्श को, कितनी लड़ाईयों को समेट लेता है?
'टूटल टँगरी अकारी देखावे' जेल और पुलिस दमन की यह दास्ताँ उनके संग्रह ' चाहे जान जाये,' में शामिल है. इसी कड़ी का एक छूटा हुआ गीत---
जेकरा कम्मर ना चट बरतन बा, रे लोगवा जेहल में बन (बन्द) बा ना!
पिछले दिनों जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ की पूर्व अध्यक्ष साथी मोना दास का एक शोध पत्र देखा. मुझे यह देखकर बहुत ख़ुशी हुई कि उसमें जनकवि अकारी को रमताजी, विजेंद्र अनिल और गोरख पांडेय की कतार में रखकर उनकी रचनाओं पर विचार किइस गया है. लेकिन, यह राजनीति शास्त्र का शोध पत्र है--''कल्चरल फॉर्म्स इन पॉलिटिकल मोबिलाईजेशन: ए केश स्टडी ऑफ़ भोजपुरी फोक सांग्स इन नक्सलाइट मूवमेंट'

स्मरण जनकवि 'अकारी' - 2 :
'लोहे का स्वाद' जानने वाला कवि
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'अकारी' इस वजह से भी खास हैं कि उनकी रचनाएँ 90 के दशक में शुरू हुए 'मंडल' व 'कमंडल' के उभारों के प्रति गरीब जनता का खरा व सच्चा स्वर हैं। वे सवाल उठाते हैं : 
'एह देश के प्रधानमंत्री अटल बा
भय -भूख-भ्रष्टाचार बढ़ल बा कि घटल बा?'
और आगे भारत में साम्प्रदायिक फासीवादी ताकतों का चरित्र निर्धारण करते हुए एक नया शब्द रचते है - 'चुनवटल बा' यानी चुनावबाज (जुमलाबाज) है। 
इसी क्रम में पोखरण विस्फोट पर उनकी रचना को भी देखा जा सकता है -
'घूस लेई-लेई बम फोड़ता मुदईया
महंगईया ए बड़का भईया बढ़ल बेशुमार'
लेकिन वे 90 के दशक से ही उभार में आये 'लालू-नीतीश' मार्का 'सामाजिक न्याय' के भी भ्रष्ट-दमनकारी-सामंत-पूंजीपति परस्त चरित्र की बखिया उधेड़ते हैं। 'सामाजिक न्याय के नारा', 'मंत्री रामलखन', 'का लत रखल बिगाड़ी ए लालू', 'काहे ले अइल लालू', 'मरलस लालू सरकार, गरीब रेला आदि रचनाएं बेलाग यह काम करती हैं। 'अपराधी के मंतरी बनावत बाड़ी' और 'सुशासन' भी क्रमशः राबड़ी व नीतीश को भी निशाने में लेकर रचित है।
'धूमिल' कहते हैं - 'लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो, उस घोड़े से पूछो जिसके मुंह में लगाम है।'
जनकवि 'अकारी' लोहे का स्वाद जानते हैं। चौदह साल की उम्र में ही बंधुआ मजदूर 'अकारी' श्रम व मजदूरी को एक अलग ही नजर से देखते हैं। उनका अनुभव प्रामाणिक है और उनकी संवेदना भी बेहद खरी है।
'मुकाबला' जो उनका पहला संग्रह है की कई रचनाएं - 'कहत अकारी', 'भईया बनिहार', 'मत कर भाई बनिहारी', 'कहवां ले कहीं विपतिया ए हाकिम', 'अब न करे मोर मनवा करे के मजूरी' आदि एक खेत मजदूर के कष्टमय जीवन की प्रामाणिक गाथा हैं। उनकी एक अप्रकाशित रचना ईंट-भठ्ठा मजदूर के रूप में उनके काम करने के अनुभव को बयान करती है - 'जाके खटेल ईंट खोला रे चोला।' एक अन्य शुरुआती गीत में धान रोपनी के कठिन श्रम का बयान है- 'घुमरिया हमरा आईल सजनी।' वे श्रम में क्रीड़ा जैसे आनन्द का वर्णन कभी नहीं करते। श्रम उनके लिए आनन्ददायक हरगिज नहीं है।
अनपढ़ 'अकारी' ने इंदिरा तानासाही के दौर में कलम उठायी थी। संघ-भाजपा-मोदी राज के इस अघोषित आपातकाल में उनको याद करने के खास मायने हैं।

स्मरण जनकवि 'अकारी' - 3

'दुखवा में जेलवा लागेला ससुरारी'

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जनकवि 'अकारी' अपनी रचनाओं में कई जगहों पर अनूठे लगते हैं। प्रायः ऐसा लगता है कि इस विषय पर इस तरह से कहना किसी दूसरे के लिए सम्भव ही नहीं जैसे कि वो कहते हैं। बेगारी पर उनकी रचना 'कहत अकारी बिहारी मजदूर पर' को ही देखिये। वे कहते हैं 'चिहुंकल मनवा करे ल तुहूँ कामवा'। 
आपातकाल में पुलिसिया हत्याकांडों पर लिखित 'बिहार सून कइलू इंदिरा' की यह पंक्ति भी देखिये -
'कुहुँक-कुहुँक घर तिरिया रोवे, 
बहिनी कहि-कहि भईया
बे बछरू के गइया भोंकरे
ओइसे भोंकरे मईया'
और 'बेटी की शादी' में वे भिखारी ठाकुर द्वारा स्थापित 'सोइरी में नीमक चटईत हो बाबूजी' से चली आ रही 'न्याय धारणा' को किस तरह पलट देते हैं और दहेज-दंड को बेटियों पर नहीं, उनके पिताओं पर डाल देते हैं:
'देखी के जवान बेटी, टिपी लेतीं आपन नेटी
तेजि देतीं बोलता परान हो सजनवा'
बात सिर्फ शब्दों के चयन या भावों की प्रस्तुति की ही नहीं बल्कि कहने के ढंग यानि अंदाजे-बयां की भी है। 'देखो! देखो! देखो! चँवरी के लीला देखो!' - चँवरी पुलिस फायरिंग कांड पर उनकी रचना इसकी अच्छी बानगी है।
अब जेल जीवन को ही देखिये। उनकी एक प्रकाशित रचना है : 'हितवा दाल रोटी पर हमनी के भरमवले बा' (चाहे जान जाये में संकलित)। इसमें वे शासक वर्ग (उसे हितवा कहते हुए) पर चुटीले तंज कसते हैं।
'जाने कबतक ले बिलमायी, हितवा देवे न बिदाई
बिदा रोक-रोक के नाहक में बुढ़ववले बा।
बीते चाहता जवानी, हितवा एको बात ना मानी
बहुते कहे-सुने से गेट प भेंट करवले बा।
बात करहूँ ना पायीं देता तुरते हटाई
माया मोह देखाके जियरा के डहकवले बा।'
लेकिन, अब तक अप्रकाशित इस गीत में जेल-जीवन का एक अलग ही तरह का बखान है:-
जेकरा कम्मर ना, चट्ट, बरतन बा,
रे लोगवा, जेहल में बंद बा ना!
केहू-केहू से बरतन ले के, कसहूं करत भोजन बा
जेल जीवन प ध्यान ना देता, केहिविधि नर तन बा
साग मूली लउका के भाजी, ओहि में देले बैंगन बा
भात कांच अधकच्चू रोटी, गुड़ चना मूल धन बा
तेरह रोग के एके दवाई, उहो ना मिलत खतम बा
एक रही इमली के पाता, एकरे प जीवन-मरन बा
जाड़ ठाढ़ गिरे ना सहाता, पछेया बहत कनकन बा
सुते-बइठे के जगहा ना, विपत में परल बदन बा
गन्दा बन्दी के संग शासक, रखले नित रसम बा
बात भइल दरखास दिआइल, तबो ना परिवर्तन बा
एक बात - एकता के बले, पूरा होई जो मन बा
कहे कवि दुर्गेन्द्र 'अकारी, टूटिहें गेट परन बा
photo by Nicolas Jaoul
'आपन बात' में वे अपनी जीवन गाथा सुनाते हैं। इसकी अंतिम पंक्ति है - 'नौ साल के उम्र में भैया भइलन पर आधीन, ए साथी अइसन मत होखो केकरो दिन-बेदिन'। विडम्बना देखिये कि पराधीनता की इस बेड़ी को काटने के लिए ही तो उन्हें बार-बार जेल जाना पड़ा। जैसा कि वे 'चाहे जान जाये' शीर्षक अपनी रचना में कहते हैं -
'अब ना सहाता दुख कहेलें अकारी
दुखवा में जेलवा लागेला ससुरारी'
और अंत में साथी Nicolas Jaoul के कैमरे की नज़र में 'अकारी'। अद्भुत तस्वीर। बहुत कुछ बोलती हुई।

(ये तीनों टिप्पणियां संतोष सहर के फेसबुक वाॅल से ली गई हैं। )

कहें कवि दुर्गेंद्र अकारी...

(कविता के लिए जिन्होंने सब कुछ किया, पूरी जिन्दगी उसे दी, जनता ने उसे पाला पोसा, अपना बनाया और सर आँखों पर रखा. कहानी जैसी लगती इस बात के प्रमाण हैं दुर्गेन्द्र अकारी.) 


दुर्गेन्द्र अकारी photo by s.suman
पिछली गर्मियों में आरा पहुँचने पर मालूम हुआ कि जनकवि दुर्गेंद्र अकारी जी की तबीयत आजकल कुछ ठीक नहीं रह रही है। साथी सुनील से बात की, तो वे झट बोले कि उनके गांव चला जाए। उनकी बाइक से हम जून माह की बेहद तीखी धूप में अकारी जी के गांव पहुंचे। लोगों से पूछकर झोपड़ीनुमा दलान में हम पहुंचे, जिसकी दीवारें मिट्टी की थीं और छप्पर बांस-पुआल और फूस से बना था। एक हिस्से में दो भैंसे बंधी हुई थीं। दूसरे हिस्से में एक खूंटी पर अकारी जी का झोला टंगा था। एक रस्सी पर मच्छरदानी और कुछ कपड़े झूल रहे थे। दीवार से लगकर दो साइकिलें खड़ी थीं और बीच में एक खाली खाट, लेकिन अकारी जी गायब। हम थोड़े निराश हुए कि लगता है कहीं चले गए। फिर एक बुजर्ग शख्स आए। मालूम हुआ कि वे उनके भाई हैं। उन्होंने बताया कि अकारी गांव में ही हैं। खैर, तब तक एक नौजवान उन्हें पड़ोस से बुलाकर ले आया। उसके बाद उनसे हमने एक लंबी बातचीत की, जिसके दौरान हमें भोजपुर के क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास की झलक तो नजर आई ही, एक सीधे स्वाभिमानी गरीब नौजवान का संघर्षशील जनता का कवि बनने की दास्तान से भी हम रूबरू हुए।

जनकवि दुर्गेन्द्र अकारी photo by s.suman
जसम की ओर से 1997 में उनके चुनिंदा गीतों का एक संग्रह ‘चाहे जान जाए’ प्रकाशित हुआ था। उसकी भूमिका सुप्रसिद्ध स्वाधीनता सेनानी, कम्युनिस्ट और जनकवि रमाकांत द्विवेदी ‘रमता’ ने लिखा था कि बचपन के पितृ-विहीन अकारी ने हलवाही और मजदूरी की है, गीतों के कारण पुलिस और गुंडों के कठिन आघात झेले हैं और जेल भी काटी है। फिर भी वह संघर्ष की अगली कतार में ही हैं। प्रलोभनों को उन्होंने सदा ही ठुकराया है और गरीबी से उबरने की कोशिश न करके गरीबों को उबारने की कोशिश करते रहे हैं। सांस्कृतिक-राजनीतिक कार्यक्रमों के दौरान धोती कुर्ता पहने, कंधे में झोला टांगे ठेठ मेहनतकश किसान लगने वाले अकारी जी को गीत गाते तो हमने कई बार सुना-देखा : उनके गीतों की खास लय, जिसमें मौजूद करुणा, आह्वान और धैर्य के मिले-जुले भाव के हम कायल रहे.

‘मत कर भाई, तू बनिहारी सपन में’- इस गीत से उन्होंने अपने बारे में बताने की शुरुआत की। इस गीत को उन्होंने अपने ही गांव में एक रूपक की तरह मंच से प्रस्तुत किया था, जिसे सुनने के बाद हलवाहों ने हल जोतने से मना कर दिया था। चूंकि बनिहारों की पीड़ा को उस गीत में उन्होंने बड़ी प्रभावशाली तरीके से आकार दिया था, इसी कारण उनके नाम के साथ अकारी शब्द जुड़ गया। गीत का असर देखकर नौजवान अकारी का मन उसी में रमने लगा। इसी बीच नक्सलबाड़ी की चिंगारी भोजपुर में गिरी और उससे जुड़े सवाल और संघर्ष के मुद्दे इनके गीतों में आने लगे। वे सामंतों और सरकार के खिलाफ गीत लिखने लगे। उन्होंने चंवरी, बहुआरा, सोना टोला आदि गांवों में पुलिस-सीआरपीएफ से लोहा लेने वाले क्रांतिकारी कम्युनिस्टों के बहादुराना प्रतिरोधों और उनकी शहादतों की घटना को अपने गीतों में पिरोया। उनकी पहली किताब का नाम था - जनजागरण। यह बताते हुए वे गर्व से भर उठे कि उनके गीतों को सुनकर लोगों का उत्साह बढ़ता था। जिस समय नक्सल का नाम सुनकर कोई अपने ओरी, छप्पर के किनारे भी नहीं ठहरने देता था, वैसी हालत में उन पर उन्होंने गीत लिखा।

हमने सवाल किया कि गीत लिखने के अलावा और क्या करते थे? उन्होंने कहा कि उनके लिए भी बड़ा गंभीर सवाल था कि जीविका के लिए क्या करें। किसी का नौकर बनके रहना उन्हें मंजूर न था। उसी दौरान उन्हें एक विचार आया कि मड़ई कवि की तरह किताब छपवाकर वे भी बेच सकते हैं। लेकिन मड़ई कवि से उन्होंने सिर्फ तरीका ही लिया, विषय नहीं लिया। मड़ई कवि सरकारी योजनाओं के प्रचार में गीत गाकर सुनाते थे, जबकि अकारी गीतों के जरिए सरकार की पोल खोलने लगे।

अकारी जी 74 के आंदोलन के साथ रहे। उन्होंने बताया- ‘जब इमरजेंसी लगा तो सब नेता करीब-करीब अलोपित हो गए। कुछ नेपाल की तराई में चले गए। हमको लगा कि इस तरह तो कहां क्या हो रहा है, इस बारे में कोई बातचीत ही नहीं हो पाएगी। तो उसी दौर में किताब छपवा के बेचने लगे ट्रेन में।’ उस वक्त का इनका एक मशहूर गीत था- 'बे बछरू के गइया भोंकरे, ओइसे भोंकरे मइया, बिहार तू त सून कइलू इंदिरा'। अपने गीतों के जरिए जनता पार्टी को वोट देने की अपील भी उन्होंने की और 74 के आंदोलन की जनभावना से गद्दारी करने वालों पर व्यंग्य भी किया-

'जनता जनता शोर भइल, जनता ह गोल भंटा हो
हाथ ही से तूरी ल, ना मारे पड़ी डंटा हो।'

अपनी पढ़ाई-लिखाई के बारे में पूछने पर अकारी जी ने बताया कि वे स्कूल नहीं गए। बुढ़वा पाठशाला में गए, पर वहां कुछ सीख नहीं पाए। एक दिन दलान पर लड़के पढ़ रहे थे तो उन्हीं से कहा कि भाई हमें भी कुछ पढ़ा दो। उन सबों ने एक टूटी स्लेट दी और उस दिन उन्होंने 'क' वर्ग के सारे अक्षर रात भर मे याद किए। इस तरह पांच-छह दिन में सारे अक्षरों को लिखना सीख गए। हमने पूछा कि अब तो किताब धड़ल्ले से पढ़ लेते होंगे, तो हंसते हुए बोले- पढ़ लेता हूं, पर ह्रस्व-इ और दीर्घ-ई अब भी समझ में नहीं आता।

शिक्षा के अभाव या शब्दों और भाषा के स्कूली ज्ञान के अभाव का जो सच था उसे भी उन्होंने एक तरह का ढाल बना लिया और अपने नाम के साथ एल एल पी पी लिखने लगे-दुर्गेंद्र अकारी, एल एल पी पी। उनके गीतों के पुराने संग्रहों में आज भी यही लिखा मिलता है। तो इस एल एल पी पी से जुड़ा एक किस्सा उन्होंने सुनाया कि एक बार जीआरपी वालों ने उन्हें पकड़ लिया। एक ने पूछा कि एल एल पी पी किसने लिखा है? अकारी बोले- हमने। उसने सवाल किया- इसका मतलब? अकारी- आप लोग पढ़े लिखे आदमी हैं अब हम क्या सिखाएं आपलोगों को। तो उसने कहा- इसका मतलब तो लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर होता है। अकारी बोले - वही है सर। उसने पूछा- गीत कैसे लिखते हो? अकारी के पास जवाब तैयार- क ख ग किसी तरह जोड़ के। फेयर किसी दूसरे से कराते हैं। उसमें से किसी ने कहा कि सिर्फ क ख ग के ज्ञान से इतना लिख पाना संभव नहीं है। उनमें एक बड़ा बाबू था, कुछ समझदार, उसने इनके इंदिरा विरोधी कुछ गीतों को सुना और कहा- समुद्र में बांध बनाया जा सकता है, लेकिन कवियों के विचारों को बांध नहीं जा सकता। उसने यह भी कहा कि गीत तो आपका अच्छा है, पर यहां हमलोगों की जिम्मेवारी है। हमलोगों की बदनामी होगी। यहां मत गाइए-बजाइए। तो अकारी बोले- कहां जाएं, भाई? कचहरी पर जाते हैं, तो आप ही लोग हैं। बाजार में जाते हैं तो आप ही लोग हैं। यहां स्टेशन पर आते हैं, तो आप ही लोग हैं। हम मैदान में गाने के लिए गीत तो बनाए नहीं है। बड़ा बाबू बोला- नहीं मानिएगा, तो विदाउट टिकट में आपको पकड़ लेंगे।

विदाउट टिकट में तो अकारी जी नहीं पकड़े गए। लेकिन प्रलोभन और धमकी के जरिए उन्हें गीत लिखने से रोकने की कोशिश जरूर की गए। एक दिन वे आरा रेलवे स्टेशन पर किताब लेके पहुंचे तो वहां असनी गांव के कामेश्वर सिंह से मुलाकात हुई। अकारी ने बताया कि कामेश्वर सिंह उस तपेश्वर सिंह के भाई थे, जिन्हें सत्ता और प्रशासन के लोग बिहार के सहकारिता आंदोलन का नायक बताते हैं और आम लोग को-आपरेटिव माफिया। कामेश्वर सिंह ने अकारी से कहा कि वे किताब बेचना छोड़ दें। वे उनको नौकरी दिला देंगे। अकारी बोले- नौकरी तो नौकरी ही होती है। नौकर की तरह ही रहना होगा। लेकिन हमने जो किताब छपवाई है वह नौकर बनकर नहीं छपवाई है। इससे कम या ज्यादा पैसा भी आ रहा है। कामेश्वर सिंह ने कहा कि कुछ हो जाएगा तब? कोई घटना घट जाएगी तब? अकारी के पास सटीक जवाब था- होगा तो होगा, किसी भी काम में कुछ हो सकता है। कामेश्वर सिंह चिढ़कर बोले- तुम चंदबरदाई नहीं हो न! अकारी कहां चुप रहने वाले थे,पलट कर जवाब दिया- एक चंदबरदाई हुए तो आप गिन रहे हैं, यहां इस धरती ने आदमी आदमी को चंदबरदाई बनाके पैदा किया है। कामेश्वर सिंह थोड़े सख्त हुए- इसका मतलब कि तुम किताब बेचना नहीं छोड़ोगे? तो इसका परिणाम तुम्हें पता चलेगा? अकारी- ठीक है हम जान-समझ लेंगे।

उसके दो चार दिन बाद ही जब आरा स्टेशन पर एक चाय की दूकान के पास लोगों की फरमाइश पर अकारी 'चंवरी कांड' पर लिखा अपना गीत सुना रहे थे, तभी कामेश्वर सिंह का भेजा हुआ एक बदमाश साइकिल से वहां पहुंचा। वह दारु पिए हुए था। आते ही बोला- भागो यहां से। अकारी बोले- क्या बात है भाई। बदमाश उन पर चढ़ बैठा- पूछता है कि क्या बात है? यहां से जाओ। अकारी ने शांति से काम लिया- हम ठहरने के लिए नहीं आए हैं, दो-चार मिनट में हम खुद ही चले जाएंगे। तब तक वह उनके बगल में आ गया। अकारी ने चौकी पर से उतर कर उससे पूछा कि यह रोड आपका है? उसने कहा- हां, है। अकारी बोले- नहीं, जितना आपका हक़ है, उतना ही हमारा भी हक़ है, उतना ही सबका है। इस पर उसने उन्हें धकेल दिया। वे पीछे रखी साइकिलों पर गिरे। इस बीच वह जनसंघ समर्थक एक गुमटी वाले से हंटर मांगने गया, उसने हंटर के बदले फरसा दे दिया। फरसा लेकर वह आया और सीधे अकारी पर वार कर दिया। अपना सर बचाने की कोशिश में उन्होंने अपने हाथ उठाए। इसी बीच उसी चौकी पर बैठा एक साधु अचानक उठा और उसने अपनी कुल्हाड़ी पर फरसे के वार को रोक लिया। तब तक दूसरे लोग भी बीच बचाव में आ गए। जनता ने कहा कि कवि जी आप यहां से हट जाइए, वह गुंडा है। इस पर अकारी गरम हो गए, बोले कि वह गुंडा नहीं है, यही उसका रोजगार है, जिसका खाया है उसकी ड्यूटी में आया है। खैर, गुंडा गुंडई कर रहा हो, इंसान बेइज्जत हो रहा हो, पब्लिक देख रही हो, तो गलती किसकी है? यह सुनना था कि लोग उसे पकड़ने के लिए उठ खड़े हुए। लोगों का मूड बदलता देख, वह साइकिल पर सवार होके वहां से भाग गया। अकारी उसके बाद लगातार एक माह तक वहां जाते रहे, ताकि उसे यह न लगे कि वे डर गए, लेकिन वह फिर उन्हें नजर नहीं आया।

अकारी जी ने बताया कि वे नक्सल आंदोलन के पक्ष में गीत लिखते थे, कार्यकर्ता उनको पहचानते थे, लेकिन उनसे अपना राज खोलना नहीं चाहते थे। एक कारण यह भी था कि वे लोकदल के एक स्थानीय नेता राम अवधेश सिंह के साथ थे। राम अवधेश सिंह के साथ होमगार्ड, दफादार-चैकीदार के आंदोलन में जेल भी गए। लेकिन बाद में लोकदल उन्होंने छोड़ दिया। हुआ यह कि सेमेरांव नामक एक गांव में लड़कों का एक मैच हो रहा था। अकारी जी वहां पहुंचे तो लड़कों ने किताब के लिए भीड़ लगा दी। वहीं एक पुलिस कैंप था। वहां से एक सिपाही आया और एक किताब मांगकर चलता बना। इन्होंने पैसा मांगा तो उसने कहा- आके ले जाओ। ये पुलिस कैंप में गए तो सिपाहियों ने कहा- एक और किताब दो। इन्होंने एक और किताब दे दी। उसके बाद उन सबों ने कहा- जाओ भागो। इन्होंने कहा- क्यों भाई, पइसा दीजिए या किताब लौटाइए। एक सिपाही ने कहा कि भागोगे कि करोगे बदमाशी। नहीं माने तो पुलिस ने मारकर इनका पैर तोड़ दिया। उस वक्त इनकी उम्र करीब 25-30 के आसपास थी। चूंकि राम अवधेश सिंह को चुनाव में जिताने के लिए इन्होंने बहुत काम किया था इसलिए उनको खबर भेजी ,लेकिन उन्होंने कुछ नहीं किया। राम अवधेश सिंह का तर्क था कि इन्होंने बयान नहीं लिखवाया इसीलिए कुछ नहीं हुआ। अकारी जी का कवि अपनी जिद पर अड़ा रहा कि बयान क्या होता है, उस पर एक गीत लिखा था - 'टूटल टंगरी अकारी देखावे, ई तोड़ी निदर्दी आरक्षी कहावे', कहा वही बयान है। उसके बाद रामअवधेश सिंह ने कहा कि वे कर्पूरी ठाकुर से इस बारे में बात करेंगे। अकारी ने मना कर दिया कि कर्पूरी ठाकुर के पास उनके लिए वे न जाएं, वे खुद चले जाएंगे। खैर, कर्पूरी ठाकुर से जब मिले तो उन्होंने पूछा कि क्या हुआ कवि जी? कवि जी ने अपने ऊपर जुल्म की दास्तान कह सुनाई और उलाहना दे डाला कि आपकी सरकार में पुलिस ने पैर तोड़ दिया, केस नहीं हुआ तो क्या उसे कोई सजा नहीं होगी? आखिरकार कार्रवाई हुई और दो पुलिसकर्मी मुअत्तल हुए। लेकिन अकारी लोकदल में नहीं लौटे। रामअवधेश सिंह ने भी नौकरी का प्रलोभन भी दिया। लेकिन अब तो वे अपने गीतों के नायकों की राजनीतिक राह पर खुद ही चल पड़े थे।

लोकदल छोड़कर वे एक माह घर बैठे रहे। उसी दौरान भाकपा माले के कामरेडों ने उनसे संपर्क किया। इसके बारे में भी उन्होंने एक रोचक घटना सुनाई कि कामरेडों का आना-जाना मुखिया और सामंतों की निगाह से छुपा न रहा। मुखिया ने दलपति को समझाने भेजा कि यह खराब काम हो रहा है। दलपति से इन्होंने सवाल किया कि क्या खराब काम हो रहा है? उसने कहा- नक्सलाइट आ रहे हैं। अकारी बोले- तुम्हारे यहां कोई आता है कि नहीं? दलपति ने कहा- आते हैं, पर वे दूसरे आदमी होते हैं। अकारी कहां चुप रहने वाले थे, बोले- बताओ उनलोगों ने कौन सा खराब काम किया है, मुझे भी तो जरा पता चले? इसपर दलपति चीढ़कर बोला- तो भाई नहीं मानिएगा, तो हम गिरफ्तार करवा देंगे। अकारी ने चुनौती दे दी कि उसको गिरफ्तार कराना है, करा ले, लेकिन यह जान ले कि उसके साथ उन्हें भी जो करना होगा, कर देंगे। यह चेतावनी मुखिया तक पहुंची और मुखिया से थाना के दारोगा तक। दारोगा ने एक पट्टीदार से जमीन के एक मामले में एक केस करवा दिया और चैकीदार से इनको थाने पर बुलवाया। बाद में दारोगा खुद आया और उसने लोगों से कहा- हम इसको बुलाते हैं तो यह मुझे ही बुलाता है। अकारी निर्भीकता के साथ बोले- आपको जरूरत है तो आपको आना ही चाहिए। खैर, केस गलत था, सो थाने से ही मामला खत्म हो गया।

वैसे आंदोलनों में तो थाना, केस, जेल का चक्कर लगा ही रहता है। लेकिन 2009 में तो अकारी जी को 43 दिन बिना केस के जेल में रहना पड़ा। कारण यह था कि पुलिस गांव में किसी और को पकड़ने आई थीं। इनसे दरवाजा खोलवाने लगी। इन्होंने चोर-चोर का हल्ला मचा दिया। हल्ला से हुआ यह कि जिन लोगों को पकड़ने पुलिस आई थी वे भाग गए। उसके बाद गुस्से में पुलिस ने इन्हें गिरफ्तार करके जेल भेज दिया। इन्हें समझ में नहीं आया कि किस केस में जेल में डाला गया है। कोई वारंट और बेलटूटी भी नहीं थी। आखिरकार 43 दिन बाद जज ने रिलीज भेजा। जेलर बेल बांड मांगने लगा। अकारी जी बोले- जब केस ही नहीं पता तो बेल कैसे फाइल करते। बाद में जज के रिलीज आर्डर पर इन्हें छोड़ा गया। हमने यहीं उनसे जेल जीवन की कठिनाइयों पर लिखे गए उनके लोकप्रिय गीत को सुनाने का आग्रह किया। उन्होंने सुनाया-

हितवा दाल रोटी प हमनी के भरमवले बा
आगे डेट बढ़वले बा ना।

जाने कब तक ले बिलमायी, हितवा देवे ना बिदाई
बिदा रोक रोक के नाहक में बुढ़ववले बा। आगे डेट...

बीते चाहता जवानी, हितवा एको बात ना मानी
बहुते कहे सुने से गेट प भेट करवले बा। आगे डेट...

बात करहु ना पाई देता तुरूते हटाई
माया मोह देखा के डहकवले बा। आगे डेट...

देवे नास्ता में गुड़ चना, जरल कच्चा रोटी खाना
बोरा टाट बिछाके धरती प सुतवले बा। आगे डेट...

गिनती बार बार मिलवावे, ओसहीं मच्छड़ से कटवावे
भोरे भरल बंद पैखाना प बैठवले बा। आगे डेट...

एको वस्त्रा ना देवे साबुन, कउनो बात के बा ना लागुन
नाई धोबी के बिना भूत के रूप बनवले बा। आगे डेट...

कवि दुर्गेंद्र अकारी, गइलें हितवा के दुआरी
हितवा बहुत दिन प महल माठा खिअइले बा। आगे डेट....

हमने उनसे पूछा कि इतने लंबे अरसे से वे जनता के लिए गीत लिखते रहे, अब उम्र के इस मुकाम पर क्या महसूस होता है? उन्होंने इसे लेकर फ़िक्र जाहिर की कि आंदोलन हुए, उससे लोग लाभान्वित भी हुए, संघर्ष किए, कुछ मिला। लेकिन फिर उन्हें परेशानी होने लगी। परेशानी से बचने के लिए लोग किसी तरह जीने-खाने की कोशिश करने लगे हैं। यही जीने का ढंग बनने लगा है। जो ठीक नहीं है। हमने कहा कि संघर्ष भी तो हमेशा एक गति से और एक तरीके से नहीं चलता। आज जनता का आंदोलन कैसे मजबूत होगा, संस्कृति के क्षेत्र में काम करने वाले क्या करें? संस्कृति में तो ऊर्जा आंदोलन से ही मिलती है। आंदोलन जितना जनहित में होगा, उतनी संस्कृति भी जनहित में बढ़ेगी, क्रांतिकारी रूप में बढ़ेगी। हमने सवाल किया कि कवि भी तो कई बार आंदोलन को ऊर्जा देते हैं। जब आंदोलन में उभार न हो, उस वक्त कवि क्या करे, क्या आंदोलन का इंतजार करे? अकारी बोले- नहीं, कवि कभी-कभी माहौल को देखते हुए कुछ ऐसा निकालता है कि जिससे माहौल बदल जाता है।

हमने पूछा कि उनके राजनीतिक-सांस्कृतिक सफर में कौन से ऐसे साथी थे, जिनकी उन्हें बहुत याद आती है। इस पर उन्होंने किसी का नाम नहीं लिया। कहा कि जितने साथी लगे थे या आज भी लगे हैं सब अपनी ऊर्जा लेके लगे हैं, जिनसे जितना हुआ उसने जनता के लिए उतना काम किया और आज भी कर रहे हैं। हमने कहा कि सारी पार्टियां अपने को गरीबों का हितैषी कहती हैं, लेकिन गरीबों की ताकत को बांटने की साजिश में ही लगी रहती हैं। आज के दौर में गरीब के पक्ष में कोई राजनीति या संस्कृति किस तरह काम करे कि उसकी एकजुटता बढ़े। उन्होंने जवाब दिया कि उन्हें तो यही समझ में आया कि सारी पार्टियां वर्ग की पार्टी होती हैं। वे अपने अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं। गरीब के पक्ष में बोलने वाली बाकी पार्टी सिर्फ अपना मतलब साधने के लए गरीब का नाम लेती है। सिर्फ माले है जिसके लिए गरीब मतलब साधने की चीज नहीं, बल्कि गरीबों की पक्षधरता उसका सिद्धांत ही है। जबकि कांग्रेस सामंत-पूंजीपति की पार्टी है और भाजपा इस मामले में उससे भी आगे है, ज्यादा उद्दंड है।
उस वक्त बिहार में चुनाव हुए नहीं थे। हमने उनसे नीतीश के सरकार के बारे में पूछा और सड़कों की हालत में सुधार के दावे पर उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाही। उन्होंने बड़ी दिलचस्प प्रतिक्रिया दी- गरीब आदमी के हित में सड़क थोड़े है। गरीब आदमी को कभी कभार कहीं जाना होता है, तो वह गाड़ी से जाए या पैदल जाए, उसके लिए बहुत फर्क तो पड़ता नहीं। हां, बड़ा-बड़ा पूंजीपति का कारोबार चले, इसके लिए तो सड़कें जरूरी हैं ही। बंटाईदारी के बारे में पूछने पर बोले कि यह भूमि सुधर से जुड़ा सवाल है। हमने कहा कि इसे लेकर बहुत कन्फ्यूजन फैलाया गया है, एकदम छोटे किसानों को भी शासकवर्गीय पार्टियां डरा रही हैं कि उनकी जमीन छीन जाएगी। हमने पूछा कि इस मुद्दे पर आंदोलन की कोई संभावना लगती है आपको? अकारी बोले कि भूमि सुधार तो तभी पूरी तरह से हो पाएगा, जब बिहार में वामपंथ का शासन आएगा। क्या यह संभव है? क्या जीवन का लंबा समय गरीबों की मुक्ति और गरीबों का राज कायम करने के संघर्षों में लगा देने के बाद उम्र के आखिरी दौर में कोई उम्मीद लगती है या निराश हैं कुछ- यह सवाल करने पर अकारी थोड़ी देर चुप रहे और बड़ी गंभीरता से बोले कि अभी दो-चार चुनाव और लगेगा। हमने फिर सवाल दागा कि क्या फिर लालू, रामविलास या नीतीश जैसे लोग नहीं आ जाएंगे? इस पर अकारी बोले- आएंगे, लेकिन विक्षोभ पैदा हो रहा है। इनमें कोई भी जनहित में काम करने वाला नहीं है, ये सब अंततः सामंत और पूंजीपति का हित ही साधेंगे।
जनकवि दुर्गेन्द्र अकारी photo by  Nicolas Jaoul
कहते हैं कि अकारी जी के गांव का नाम पहले अकिल नगर था। लेकिन चेरो खरवार के डर से किसी जमाने में लोगों को गांव से भागना पड़ा था। आज जहां इनका गांव है, लोकमान्यता है कि वह ग्राम देवता गोरया बाबा की जगह थी। आसपास भारी दह था। यहीं आकर उनके पूर्वज बसे, मानो यहीं एड़ी रोप दिया लोगों ने, इसलिए गांव का नाम एड़ौरा पड़ा। गोरया बाबा का जिक्र आते ही हमने पूछा कि आपने जीवन में कोई भक्ति गीत लिखा। उन्होंने इनकार में सिर हिलाया। बोले कि भगवान में उनको कुछ दिखाई ही नहीं दिया। हमने जानना चाहा कि क्या किसी का प्रभाव था। वे गर्व से मुस्कुराते हुए बोले- नहीं। बस ऐसे ही नहीं लिखे। तभी अचानक उन्हें कुछ याद आया। बोले कि अगर भक्ति समझिए या भजन तो यही लिखे थे-
जिंदगी में हम कुछ करेंगे
हम कुछ और बनेंगे। 
हम समझ गए कि यह भक्ति दरअसल मनुष्य की ताकत के प्रति थी, खुद को ही बुलंद करने जैसा। संघर्ष, आजादी और स्वाभिमान की आंच में तपे हुए जनता के अपने कवि अकारी जी से मिलकर जैसे खुद हमारे भीतर कोई नई ताकत का अहसास पैदा हो रहा था, जैसे नई ऊर्जा से भर उठे थे हम। 

वापस लौटते वक्त सुनील की बाइक का टायर पंक्चर हो गया था। सुनील टायर ठीक करवाने आगे बढ़ गए थे। झुलसाती धूप में मैं उस राह पर चल रहा था, अकारी जी के बारे में सोचते हुए। उन्होंने बताया कि उनकी किताबें खूब बिकती थीं। बनारस में एक रैली में 1800 की किताबें बिक जाने को वे अपने जीवन की किसी महत्वपूर्ण घटना की तरह याद रखे हुए हैं। जहां पैसा और सुविधाएं ही जीवन की श्रेष्ठता का पैमाना बनती जा रही हों, वहां इस 1800 की कीमत जो समझेगा, शायद वही इसके प्रतिरोध में नए जीवन मूल्य गढ़ पाएगा। अकारी जी ने प्रलोभनों को ठुकराया और लुटेरों और शोषकों को पहचानने में कभी नहीं चूके। गांव में विभिन्न जातियों के यहां चोरी की घटना पर ‘बताव काका कहवां के चोर घुस जाता’ से लेकर बोफोर्स घोटाले पर ‘चोर राजीव गांधी, घूसखोर राजीव गांधी’ जैसे गीत लिखे। जब छोटी रेलवे लाइन बंद हुई, तो उस पर बड़े प्यार से जो गीत उन्होंने लिखा- 'हमार छोटको देलू बड़ा दिकदारी तू' वह जनजीवन के प्रति गहरे लगाव का सूचक है। उनके गीत कहत ‘अकारी बिहार मजदूर पर, सहत बाड़ ए भइया कवना कसूर पर’ की गूंज तो देश के बाहर भी गई। उनके गीतों में भोजपुरी के कई दुर्लभ शब्द हैं और इंकलाब के प्रति एक धैर्य भरी उम्मीद है। उनके गीतों में जो लड़ने की जिद है, चाहे जान जाए, पर चोर को साध और साध को चोर कहने वाली इस व्यवस्था को बदल देने का जो उनका संकल्प है, उसे सलाम!

(2011 की गर्मियों में हमने अकारी जी से लंबी बातचीत की थी। इसे समकालीन जनमत पत्रिका के अतिरिक्त मृत्युबोध, कारवां, पत्रकार Praxis  जैसे ब्लाॅग्स पर भी प्रकाशित किया गया था। अकारी जी के स्मृति दिवस पर इसे इस ब्लाॅग पर पुनः प्रकाशित कर रहा हूं। )

Sunday, November 4, 2018

वीर कुंवर सिंह वि.वि.विश्वविद्यालय के हिंदी-भोजपुरी विभाग में रचना-पाठ का आयोजन


घुला है किस तरह माहौल में जहर, लिखना


3 नवंबर 2018 वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा के हिंदी-भोजपुरी विभाग की ओर से रचना-पाठ का आयोजन किया गया। कार्यक्रम जनकवि नागार्जुन (निधन-5 नवंबर 1998), रमाकांत द्विवेदी ‘रमता’ (जयंती- 30 अक्टूबर 1917), पांडेय कपिल (निधन-2 नवंबर 2017), जनगीतकार विजेंद्र अनिल (निधन-3 नवंबर 2007), दुर्गेंद्र अकारी (निधन-5 नवंबर 2012) और कवि मुक्तिबोध (जयंती- 13 नवंबर 1917) की स्मृति को समर्पित था। 

कार्यक्रम की शुरुआत नागार्जुन पर दूरदर्शन के मशहूर प्रोड्यूसर, कवि और चित्रकार कुबेर दत्त (निधन-2 अक्टूबर 2011) द्वारा बनाए गए एक वृत्तचित्र की प्रस्तुति से हुई और समापन मशहूर शायर फैज अहमद फैज (निधन-20 नवंबर 1984) की गजल के अंश के पाठ से हुआ।

मुझे लगता है कि किसी भी भाषा के साहित्य के विद्यार्थियों का सृजन की दुनिया और सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक मुद्दों से गहरा सरोकार होना चाहिए। साथ ही जो करीबी या सहयोगी भाषाओं का साहित्य है, उससे भी जुड़ाव होना चाहिए। जैसे मैं चाहता हूं कि हिंदी के विद्यार्थी को भोजपुरी समेत इस क्षेत्र की अन्य जनभाषाओं और उर्दू के साहित्य की भी जानकारी होनी चाहिए। जीवन में इन भाषाओं के बीच जब कोई दीवार नहीं है, तो साहित्य में क्यों होना चाहिए? और मैं यह भी सोचता हूं कि साहित्य-अध्ययन से संबंधित विभागों को साहित्यिक हलचलों का केंद्र होना चाहिए। इसी चाह में करीब 28 साल पूर्व मैंने साइंस छोड़कर हिंदी में आॅनर्स करने का फैसला लिया था। 2 नवंबर को जब हिंदी विभाग के वर्तमान अध्यक्ष कथाकार नीरज सिंह ने रचना-पाठ के आयोजन करने की इच्छा जाहिर की, तो मुझे बहुत खुशी हुई। महज कुछ घंटे थे हमारे पास। लोगों की अपनी-अपनी व्यस्तताएं थीं। फिर भी साहित्यकार और छात्रों का जुटान हुआ और एक यादगार कार्यक्रम संपन्न हुआ, जिसमें कई जनपक्षधर रचनाकारों की स्मृतियां थीं, मौजूदा समय के अंधेरे को पार करने का संकल्प था और ‘आएंगे उजले दिन’ की उम्मीद थी। हमने कार्यक्रम का शीर्षक दिया था- रोशनी की ओर। 

अध्यक्षता करते हुए प्रो. नीरज सिंह ने हिंदी-भोजपुरी विभाग द्वारा की जाने वाली साहित्यिक गतिविधियों की विस्तार से चर्चा की। उन्होंने बताया कि दो दिन बाद ही हिंदी विभाग में उनके कार्यकाल के 25 साल पूरे हो जाएंगे। छात्र जीवन से लेकर शिक्षक के जीवन तक साहित्य की निरंतर मौजूदगी से जुड़े अनुभवों को उन्होंने साझा किया, जिसमें बाबा नागार्जुन से मुलाकात, प्रेमचंद की सौवीं जयंती पर हुए आयोजन, भिखारी ठाकुर जयंती और 2011 में कई साहित्यकारों की जन्मशती के मौके पर हुए आयोजन से जुड़ी यादें प्रमुख थीं। उन्होंने कहा कि इस तरह के आयोजन पठन-पाठन का अनिवार्य हिस्सा होते हैं।

इस मौके पर रचनाकारों ने हिंदी, भोजपुरी और उर्दू- तीन भाषाओं की रचनाओं का पाठ किया। हिंदी विभाग के ही छात्र सतीश कुमार पांडेय की कविता से रचना-पाठ का सिलसिला शुरू हुआ। गांव से शहर आया नौजवान जिस तरह के सांस्कृतिक द्वंद्व से गुजरता है, उसी की अभिव्यक्ति उनकी पहली कविता में थी। शहर जहां चकाचैंध तो बहुत है, पर फूलों की कोमलता नहीं है, आत्मीयता नहीं है, जहां व्यक्ति का वजूद खुद को ज्यादा संकट में पाता है। हालांकि ऐसा नहीं है कि गांव में सबकुछ अच्छा ही है। उनकी दूसरी कविता ‘बुढ़ापा’ को सुनते हुए तो यही लगा- अपना ही बेटा करता बेघर/ समुंदर की लहर से बड़ा है यह कहर। 

कवि-कथाकार कृष्ण कुमार ने ‘राह केने बा?’ और ‘अल्ट्रा साउंड’ शीर्षक वाली भोजपुरी कविताओं में सतीश कुमार पांडेय की फिक्र को ही और विस्तार दिया। उन्होंने अपनी संस्कृति से भटकाव को पारिवारिक-सामाजिक संबंधों में पसरती स्वार्थपरता की वजह माना। 

प्रो. अयोध्या प्रसाद उपाध्याय ने भोजपुरी कहानी ‘रोहित’ में गरीब प्रतिभाओं के प्रति सहानुभूति की जरूरत को चित्रित किया और साथ ही समाज में बढ़ती हिंसा के प्रति चिंता जाहिर की। इस कहानी में रंगदारी के लिए एक संवेदनशील व्यक्तित्व वाले मास्टर की हत्या कर दी जाती है। उपाध्याय जी की कविता ‘तमन्ना’ में भी कई तरह की सामाजिक विडंबनाओं को दर्शाया गया। 

वरिष्ठ कवि-कथाकार जितेंद्र कुमार ने भोजपुरी की कहानी ‘सुमंगली’ के जरिए अंधविश्वास, पाखंड का विरोध किया और स्त्री की आत्मनिर्भरता प्रश्न को उठाया। भारतीय समाज में लड़कियों के परिजनों द्वारा उनकी शादी के लिए वर की तलाश की आम समस्या तो इस कहानी में थी ही, चूंकि लड़की की कुंडली में मंगल-दोष था, इस कारण वह खास भी बन गई। कुंडली बनाने का धंधा, मंगल-दोष वाला दुल्हा मिल जाने के बाद भी दहेज की बड़ी मांग आदि पर कहानीकार ने व्यंग्य किया है। लड़की खुद ही इस दुष्चक्र से बाहर निकलती है और कहती है कि आत्मनिर्भरता ही वह तरीका है जो मंगली होने के दोष को दूर कर सकता है। वह उसी राह पर चलती है और सफल होती है। हालांकि आत्मनिर्भरता और रोजगार की राह इतनी सहज नहीं है। वह और भीषण जद्दोजहद से भरी हुई है, जिसके चित्र जाहिर है इस कहानी में नहीं थे, क्योंकि स्त्रियों की आत्मनिर्भरता की जरूरत के संदेश को ही पाठक या श्रोता तक पहुंचाना इस कहानी का बुनियादी मकसद था।

मैंने ‘मेरी बच्ची’ और ‘बासंती बयार की तरह’ शीर्षक कविताओं का पाठ किया। अरुण शीतांश ने ‘तान’ कविता में मनुष्य, उसके समाज और पर्यावरण को बचाने की गुहार की। वरिष्ठ कवि जर्नादन मिश्र ने ‘लौटकर नहीं आउंगा’ और ‘चेतक’ कविता में आज के संकटों और उससे मुक्ति की भावना को जुबान दी। चर्चित युवा शायर इम्तयाज अहमद दानिश ने अपनी दो गजलें सुनाई जिसके जरिए आम अवाम के दर्दाे गम का इजहार हुआ। उन्हीं के शब्दों में- वही फिजा, वहीं आंसू, वही सदा-ए-गम/ किसी के सामने क्या अपना दुख बयां करते। प्रो. नीरज सिंह ने अपनी गजल के जरिए साहित्य लेखन के वैचारिक मकसद को स्पष्ट किया। उन्होंने कहा- घुला है किस तरह माहौल में जहर, लिखना। कवि-चित्रकार राकेश दिवाकर ने अपनी कविता में रात को रात कहने पर तानाशाह सत्ता की धमकियों और दमन के संदर्भों का जिक्र करते हुए इस पर जोर दिया कि सच तो कहना ही होगा। सुमन कुमार सिंह ने अपनी हिंदी कविता ‘मैं मुजफ्फरपुर नहीं जाऊंगा’ में स्त्रियों के साथ बढ़ती अमानवीयता और हिंसा की घटनाओं के प्रति आक्रोश व्यक्त किया और अपनी भोजपुरी कविता में आज के समय में हर ओर कायम डर के माहौल को दर्शाया। 

प्रो. रवींद्रनाथ राय ने पठित रचनाओं के बारे में कहा कि इनमें हमारे समय की विडंबनाएं और संकट व्यक्त हुए हैं। ये रचनाएं अन्याय के विरुद्ध कार्रवाई हैं। ये रचनाएं साहित्य और समाज के प्रति उम्मीद बंधाती हैं। 

धन्यवाद ज्ञापन आनंद कुमार ठाकुर ने किया। इस मौके पर कवि रविशंकर सिंह और हिंदी-भोजपुरी विभाग के छात्र दीप्ति कुमारी, रुपाली त्रिपाठी, आदित्य नारायण, शोध छात्रा रजनी प्रधान, मिलन सिन्हा, त्रिवेणी साह, पंकज कुमार, नागेंद्र सिंह आदि मौजूद थे। 

Friday, November 2, 2018

विजेंद्र अनिल : लाली हम भोर के


विजेंद्र अनिल उन रचनाकारों में से हैं जिनसे मेरा पहला परिचय पत्रिकाओं या किसी साहित्यिक आयोजन के जरिए नहीं हुआ। भोजपुर के एक गांव में मेरा बचपन गुजरा। वह दौर भोजपुर में एक नए किस्म के किसान आंदोलन के उभार का था जिसमें खेतिहर मजदूर अगली कतार में नजर आते थे। उनके मुंह से ही मैंने बार-बार ‘अब ना करबि हम गुलमिया तोहार, चाहे भेज जेहलिया हो’, ‘गुलमिया अब हम नाहीं बजइबो अजदिया हमरा के भावेला‘, ‘समाजवाद बबुआ धीरे धीरे आई’, केकरा से करीं अरजिया हो सगरे बटमार’, ‘रउरा शासन के बड़ुए ना जवाब भाई जी’, ‘आइल बा वोट के जबाना हो पिया मुखिया बनिजा’, ‘केकरा से करीं अरजिया हो सगरे बटमार’ जैसे गीत सुने। उसी दौरान पता नहीं कब, कैसे पता चला कि इन गीतों को विजेंद्र अनिल और गोरख पांडेय ने रचा है। फिर यह भी मालूम हुआ कि विजेंद्र अनिल एक शिक्षक हैं, अपने गांव के स्कूल में ही पढ़ाते हैं। हमारे किशोर मन के लिए यह कम रोमांच की बात नहीं थी, क्योंकि आम तौर पर शिक्षक या सरकारी कर्मचारी सीधे इस आंदोलन से अपना संबंध जाहिर नहीं करते थे। 

ऐसा संयोग रहा कि काॅलेज के जमाने में जब सांस्कृतिक गतिविधियों से मेरा जुड़ाव हुआ, तब तक कई धरेलू परेशानियों और तबादले के कारण विजेंद्र अनिल के लेखन की गति में एक ठहराव आने लगा था। लेकिन इसके बावजूद हमारे बीच उनकी अनिवार्य उपस्थिति थी। अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ रही जनता के अभिन्न साथी लेखक के रूप में वे तब भी हमारे प्रेरणास्रोत थे। हमने उनसे सीखा कि लेखक का पहला फर्ज है गरीब मेहनकश जनता की जिंदगी को बदलने के लिए लिखना, एक बेहतर दुनिया को रचने में अपनी उर्जा लगाना। आरा में आयोजित होने वाले साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में वे अक्सर समय निकालकर चले आते थे। जब भी उनसे मुलाकात हुई, तब उन्होंने कहा कि दिमाग में बहुत सारी चीजें चल रही हैं, फिर नए सिरे से लिखना शुरू करूंगा। यह जरूरत वे क्यों महसूस कर रहे थे इसे 2006 में ‘साहित्य और किसान’ विषय पर दिए गए उनके वक्तव्य से समझा जा सकता है। उन्होंने कहा था कि ‘‘यह विडंबना है कि हमारा लेखक समुदाय मेहनतकश वर्ग से कटा हुआ है। उसे ठीक से पहचानता नहीं। उसे आम जनता के जीवन की समस्याओं की ठीक-ठीक समझ नहीं है। वह आजकल उसी को याद करता है जिससे उसकी रोजी-रोटी चलती है। वह जनता के बीच में नहीं है। ....किसान भारी असुरक्षा और शोषण के बीच जी रहे हैं। मगर उनका शोषण करने वालों के खिलाफ खड़ा होना तो दूर, आज लेखक वहां की विसंगतियों को भी नहीं दिखा पा रहा है।’’ यकीनन वे फिर से आम आवाम, खासकर ग्रामीण मेहनतकश जनता की उन सच्चाइयों को सामने लाना चाहते थे, जिनके लिए आज की सूचना क्रांति की दूनिया में जगह कम है और जिनसे हिंदी लेखक भी किनारा करते जा रहे हैं। जैसा कि उनके साथी कथाकार सुरेश कांटक बताते हैं कि अक्टूबर 2007 में हुई एक मुलाकात में उन्होंने लेखन संबंधी अपनी कई योजनाओं से अवगत कराया था। लेकिन नवंबर आया, पहला दिन बीता। दूसरे दिन की सुबह हुई और एक वज्रपात-सा हुआ। दोपहर तक उनके चाहने वालों को यह दुखद खबर मिली कि जबर्दस्त बे्रन हैमरेज के कारण वे कोमा में चले गए। उसके अगले दिन यानी 3 नवंबर की रात पटना के इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान के इमरजेंसी वार्ड में उनका निधन हो गया।

ग्यारह साल बीत चुके हैं, जमीनी आंदोलनों की आंच और अनुभव से तपा वह सांवला चेहरा और उसकी आत्मीय मुस्कान हमारी स्मृतियों में आज भी मौजूद है। और हमारे बीच मौजूद हैं उनके जनगीत भी, जो आज भी जनता की पीड़ा, आकांक्षा और आक्रोश को अभिव्यक्ति प्रदान कर रहे हैं। उनकी कहानियां आज भी लेखकों-संस्कृतिकर्मियों को उनके सामाजिक-राजनीतिक फर्ज की याद दिला रही हैं।

21 जनवरी 1945 को आज के बक्सर जिले के बगेन गांव में विजेंद्र अनिल का जन्म हुआ था। उन्होंने अपने जीवन में दर्जनों कहानी संग्रह या उपन्यास नहीं लिखे। जबकि 18 साल की उम्र में ही उनका पहला कविता संग्रह ‘आग और तूफान’ प्रकाशित हो चुका था, जिसमें भारत-चीन युद्ध के समय प्रतिक्रिया में लिखी गई अंधराष्ट्रवादी भाव वाली कविताएं भी थीं। मगर वे उस राह पर आगे नहीं बढ़े। जैसे जैसे उनकी रचनाओं में देश के मजदूर-किसान नायक बनकर आने लगे वैसे वैसे राष्ट्र और दशभक्ति के प्रति उनकी अवघारणा बदलती गई। कविता संग्रह के बाद 1964 में उनका एक सामाजिक उपन्यास ‘उजली-काली तस्वीरें’ छप कर आया। उसके बाद 1967 में ‘एगो सुबह एगो सांझ’ नाम से भोजपुरी उपन्यास प्रकाशित हुआ, जिसे भोजपुरी का तीसरा उपन्यास माना जाता है। उसके बाद 1968 से 1970 तक उन्होंने अपने गांव से ही ‘प्रगति’ नाम की पत्रिका का प्रकाशन किया। ‘मंजिल कहां है’ उनकी पहली कहानी थी, जिसका शीर्षक उनके रचनात्मक सफर के लिहाज से बड़ा अर्थपूर्ण है। उनकी मंजिल नाम, यश, पद-पुरस्कार, अकादमियों और सत्ता के गलियारे नहीं थे। उनकी मंजिल थी वह दलित वंचित खेतिहर जनता, जिसके राजनीतिक-सांस्कृतिक जागरण के लिए उन्होंने अपनी पूरी रचनात्मक ताकत लगा दी। यही वह मकसद था जिसके कारण वे रचनाओं की सहजता और लोकप्रियता के बेहद आग्रही थें। यह आग्रह उनके लेख ‘लोकप्रिय साहित्य और जनवादी साहित्य’ में बखूबी देखा जा सकता है।

विजेंद्र अनिल की जिंदगी में उनके दो ही कहानी संग्रह प्रकाशित हो पाए- 1984 में ‘विस्फोट’ और 1989 में ‘नई अदालत’। अभी उनकी अनेक कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाआंे में बिखरी हुइ्र्र हैं। विजेंद्र अनिल की कहानियां बिहार में क्रांतिकारी जनराजनीति के निर्माण की वजहों और उसके विकास की प्रक्रिया के ऐतिहासिक दस्तावेज की तरह है। मगर इनमें विचारघारा का स्थूल प्रचार नहीं हैं। पहले संग्रह की जन्म, बैल, दूध, आधे पेट, माल मवेशी आदि कहानियों में तो बस बदहाली का यथार्थ चित्र ही पेश कर दिया गया है। इन कहानियों को पढ़ते हुए यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि किस तरह सूदखोरों और जमींदारों के शोषण-उत्पीड़न, सामाजिक भेदभाव, महाजनों की धोखाधड़ी और अपनी निर्धनता के कारण गांव के गरीब मेहनतकश लोग लड़ाई के लिए संगठित हुए होंगे। उनके पहले संग्रह में ‘विस्फोट’ ही एकमात्र ऐसी कहानी है जिसमें गरीबों की क्रांतिकारी पार्टी बनने की सूचना मिलती है। यहां माक्र्वेज जैसे लेखकों को पढ़कर किसी अविश्वसनीय घटना या नायक को नहीं गढ़ा है कहानीकार ने। कहीं कोई अतिरंजना नहीं है। ‘विस्फोट’ तो भूस्वामियों के आतंक के खिलाफ चेतावनी भर है। आगे चलकर जब भूस्वामियों, महाजनों ,पुलिस और सरकार की सम्मिलित शक्ति के समानांतर जनप्रतिरोध संगठित होने लगा, तब विजेंद्र अनिल ने जो कहानियां लिखीं, वे ‘नई अदालत’ संग्रह में संकलित हैं। जनप्रतिरोध बढ़ता है तो सामंतों और पुलिस की बर्बरता भी बढ़ती है। ‘हमला’ और ‘जुलूम की रात’ जैसी कहानियां इसी की बानगी हैं। यह संघर्ष अपने जीवन के प्रश्नों से जूझ रहे पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय लोगों को भी अपनी ओर खींचता है। ‘कामरेड लीला’, ‘अपनों के बीच’ और ‘फर्ज’ में लीला, मास्टर सुखदेव और मास्टर अखिलेख ऐसे ही चरित्र हैं जो अपनी मुक्ति के लिए भी गरीब-मेहनतकशों की न्यायसंगत लड़ाई में शामिल होते हैं। जाहिर है जनता के हाथ सिर्फ ‘नई अदालत’ कहानी जैसी जीत ही हाथ नहीं लगती, उसकी संगठित ताकत को खत्म करने के लिए शोषक वर्ग निरंतर साजिशें भी रचता रहता है। ‘अमन चैन’ और ‘रात विरात’ तथा विजेंद्र अनिल की प्रतिनिधि कहानी ‘फर्ज’ इस संघर्ष की तीव्रता और जटिलता को भी सामने लाती है। मगर ये कहानियां सिर्फ लड़ाइयों की दास्तान ही नहीं हैं। ये कहानियां 1970 और 1980 के दशक के गांवों के यथार्थ का बारीक और विस्तृत विवरण पेश करती हैं। किसी श्वेत-श्याम कला फिल्म की तरह। इन कहानियों के आइनें में आज के गांवों को देखा जाए तो पता चल जाएगा कि उपर उपर दिखने वाले बदलावों के बावजूद भीतर यातना और अभाव का सिलसिला किस तरह जारी है। खेत मजदूर और मेहनतकश किसान ही तो विजेंद्र अनिल के नायक हैं। जिनके लिए उन्होंने कई सालों की रचनात्मक चुप्पी तोड़ते हुए 2004 में पांच नए गीत लिखे थे।

‘फर्ज’ कहानी को विजेंद्र अनिल उपन्यास का रूप देना चाहते थे, पर इसका वक्त ही उन्हें नहीं मिला। वक्त भी कैसे मिलता उस उपन्यास को तो वे खुद ही जी रहे थे। ‘फर्ज’ एक तरह से विजेंद्र अनिल के रचनात्मक मकसद को समझने का सूत्र उपलब्ध कराता है। गांव में जमीन के लिए लड़ाई चल रही है लेकिन बड़ी जाति के सामंत किसी कीमत पर उस पर अपना कब्जा बरकरार रखना चाहते हैं। उन्होंने एक निजी सेना बना रखी है और चाहते हैं कि मास्टर अखिलेख वर्मा उसमें शामिल हो जाएं। वे मास्टर को याद दिलाते हैं कि उनका जन्म एक उंचे खानदान में हुआ है। उससे भी मास्टर गरीबों की हिमायत नहीं छोड़ते, तो उन्हें धमकी दी जाती है। मास्टर द्वंद्व से धिर जाते है- एक ओर उसूल, ष् शहीदों का सपना, बेवश-बेसहारा लोगों की रोटी और आजादी का सपना दूसरी ओर घर-परिवार की फिक्र। अगर उसे कुछ हो गया तो क्या होगा उसके घर का? उसकी पत्नी कैसे रहेगी? उसके बच्चे किस किनारे लगेंगे, तो क्या करे वह? अपनी इच्छा के विरुद्ध शामिल हो जाए शिवरतन के गिरोह में? उन लुटेरों और आदमखोरांे से कदम-से-कदम मिलाकर चले जो अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए लगातार मनुष्यता का गला घोंट रहे हैं।’’ आखिरकार वे निर्णय पर पहुंचते है- ‘‘नहीं...नहीं.., हरगिज नहीं। वह ऐसा नहीं कर सकता। वह अपने उसूलों का गला नहीं घोट सकता। अपने और अपने बाल-बच्चों की सुख-सुविधा के लिए वह हजारों लाखों-करोड़ों मेहनतकशों की आशाओं-आकांक्षाओं का खून नहीं कर सकता।’ कहानी के आखिर में पुलिस इन्सपेक्टर मास्टर अखिलेश को आंदोलन से दूर रहने के लिए समझाता है और जब वह नहीं मानते, तो वह सवाल करता है- ‘‘आखिर आप क्यों उग्रपंथियों का साथ दे रहे हैं? उनसे आपको क्या हासिल होगा?’’ 

इसका मास्टर जो जवाब देते हैं, वह गौर करने लायक है- ‘‘....मैं नहीं समझ पाता कि आप किन लोगों को उग्रपंथी कह रहे हैं। ....क्या अपने हक के लिए आवाज उठाने वाले लोग उग्रपंथी हैं?.....तो फिर, गरीबांे को सताकर, उनके खून-पसीने की कमाई को लूटकर अपनी तिजोरियां भरनेवाले शरीफजादे और काले कानूनों, फौजी बूटों और बंदूकों के बल पर शासन करने वाले लोग...’’ निश्चित तोैर पर शासन-प्रशासन से ये सवाल पूछने का वक्त बीत नहीं गया। बल्कि आज ऐसे सवाल पूछने की जरूरत लगातार बढ़ती गई है। ऐसी कहानियां अपने पाठकों को ऐसे सवाल करना सिखाती हैं। वाकई विजेंद्र अनिल ने न केवल अपने रचनाकार दोस्तों को एक्टिविस्ट बनने की प्रेरणा दी बल्कि पाठकों को भी एक्टिविस्ट बनाया। उनकी शवयात्रा में जिस तरह से हजारों लोग शामिल हुए, वैसा उदाहरण अपने देश में बहुत कम मिलता है। जिनके लिए उन्होंनें गीत लिखे, कहानियां लिखी, वे सब उन्हें सचमुच जानते और मानते थे, यह साबित हुआ।

विजेंद्र अनिल खुद को महान साहित्यकार प्रेमचंद की परंपरा से जोडते थे। 1980 में उन्होंने प्रेमचंद पर अपने गांव में एक बड़ा आयोजन किया था, जिसमें ‘कफन’, ‘पूस की रात’ और ‘सवा सेर गेहूं’ कहानियों का उन्होंने खुद भोजपुरी में नाट्य रूपांतरण करके गांव के नौजवानों के साथ मिलकर उनका मंचन किया था। डाॅ. मैनेजर पांडेय ने उनके दूसरे कहानी संग्रह की भूमिका में लिखा है कि विजेंद्र अनिल की कहानियों में दृष्टि और दिशा वही है, लेकिन नए संदर्भ और नई प्रखरता और विशिष्टता के साथ। कोई चाहे तो यह तलाश सकता है कि सीधे-सीधे साम्राज्यवाद विरोध का कोई प्रसंग विजेंद्र अनिल के यहां नहीं है। मगर वे उन लेखकों में से नहीं थे जो अमेरिका के खिलाफ तो खूब चिल्लाते है, लेकिन साम्राज्यवादी शक्तियों को जो मजदूर-किसान जनता निर्णायक चुनौती देगी, उसकी बदहाली, दमन और कत्लेआम पर चुप्पी साधे रहते हैं। प्रेमचंद पर लिखे एक भोजपुरी गीत में विजेंद्र अनिल ठीक इसके विपरीत किसानों के जागरण के एजेंडे को साम्राज्यवाद विरोध से जोड़ते हैं और प्रेमचंद से हर किस्म के अन्याय के विरोध की प्रेरणा ग्रहण करते दिखते हैं-

अबहीं ना देस के बिपतिया घटल बिया 

सुखी ना किसान-मजदूर मोरे सथिया। 

बेलछी, नरायनपुर, पिपरा आ पारस बिगहा

जुलुम के कहता कहानी मोरे सथिया। 

दुनिया में बढ़ल आवे, समराजी पंजवा हो

देसवा में मचल हहकार मोरे सथिया। 

जहां-जहां होत बा बिरोधवा जुलुमवा के

उहां बाड़न प्रेमचंद ठाढ़ मोरे सथिया। 


आज कोई चाहे तो बेलछी, नरायनपुर, पिपरा बिगहा की जगह दूसरे नाम रख दे सकता है जहां जमीन और अपने रोजगार के लिए लड़ रहे किसानों का कत्लेआम किया गया है। यहां एक बात और ध्यान देने लायक है कि विजेंद्र अनिल ने जनभाषा में गीत रचे, उनकी कहानियों में भोजपुरी के शब्दों की भरमार है, लेकिन इससे अंततः हिंदी ही ताकतवर बनती है। विजेंद्र अनिल ने किसी बोलीवाद का पक्ष नहीं लिया। यह प्रवृत्ति भी उन्हें प्रेमचंद से जोड़ती हैं। विजेंद्र अनिल ने गजल और कविताएं भी काफी लिखी हैं। ‘मेरे हमदम मेरी आवाज को जिंदा रखना’ और ‘लिखने वालों को मेरा सलाम, पढ़ने वालों को मेरा सलाम’ जैसी उनकी गजलों को संस्कृतिकर्मियों द्वारा खूब गाया गया है। उनकी कविताएं बहुत कम प्रकाशित हो पाई। उनके भोजपुरी जनगीतों के दो संग्रह ‘जनता के उमड़ल धार’ और ‘विजेंद्र अनिल के गीत’ की तो आज तक मांग रहती है। अगर उनकी समग्र रचनाएं प्रकाशित हो सकें तो यह महत्वपूर्ण काम होगा। 

विजेद्र अनिल ने एक वैकल्पिक जनसंस्कृति के निर्माण का काम किया। वैकल्पिक पत्रिकाओं को उनकी रचनात्मकता का भरपूर सहारा मिला। एक लेखक के बतौर उन्होंने कभी भी सत्ता के केंद्रों की ओर नहीं देखा। विजेंद्र अनिल उन लेखकों में से नहीं थे, जो दूर की क्रांतियों और जनसंघर्षों का तो बहुत गान करते हैं, पर अपने आसपास चल रहे आंदोलनों के बारे में सायास चुप्पी साधे रहते हैं। उन्होंने सचमुच लेखकों के लिए फर्ज की एक कसौटी गढ़ दी है। विजेंद्र अनिल ने विचार और कर्म के स्तर पर इसे खुद भी साबित किया, यह दुहराने की जरूरत नहीं है। विजेंद्र अनिल न केवल बिहार नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा और जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में से एक थे, बल्कि अपने गांव में भी उन्होंने लेखक कलाकार मंच बनाया था, जिसके कारण सामंती ताकतों ने उनका विरोध किया। उन्हें प्रलोभन दिए गए कि पैसे ले लो पर ऐसी संस्था न चलाओ, ऐसे गीत न लिखो। फिर धमकियां मिलीं और उनका हाथ तोड़ दिया गया। लोकिन उनकी लेखनी नहीं रुकी। किसी लेखक की ताकत का अंदाजा इससे भी पता चलता है कि उसके दुश्मन उससे कितना डरते हैं। अकारण नहीं है कि प्रेमचंद कइयों की आंख की आज भी किरकिरी बने रहते हैं। विजेंद्र अनिल के बारे में एक दिलचस्प प्रसंग याद आ रहा है। सन 2001 में पटना के एक अखबार में जब उनसे की गई एक बातचीत छपी, तो भूस्वामियों की तीखी प्रतिक्रिया आई- ‘मस्टरवा फिर लिखे लागल का, लागता चैन से रहे ना दिही’। 

विजेंद्र अनिल को श्रद्धांजलि देते हुए कहानीकार नीरज सिंह ने सही ही कहा था कि उनका गांव सामंतवाद का गढ़ था, जहां रहते हुए उसके खिलाफ लिखना बहुत साहस का काम था। बेशक लेखक के पास यह साहस कहां से आता है यह जानने के लिए भी विजेंद्र अनिल को जानना और उनकी रचनाओं को पढ़ना जरूरी है। खासकर इस दौर में जब मनुष्यता विरोधी, लोकतंत्र विरोधी ताकतें चारों ओर तांडव मचाए हुए हैं तब इस लेखकीय साहस को पाना बेहद जरूरी है। 
-सुधीर सुमन

शाह चांद : रौशन है जिनसे अब भी इंकलाब की जमीन


का. शाह चांद मध्य बिहार के किसान आंदोलन के उन चौदह नेताओं में से एक थे, जिन पर टाडा के तहत फर्जी मुकदमा चलाया गया था।  उसी मुकदमे के तहत का. शाह चांद जेल में बंद थे, जहां 2 नवंबर 2014 को उनका निधन हुआ था। बचपन से ही का. शाह चांद के साथ घनिष्ठ रहे मो. ईसा कहते हैं कि वे आतंकवादी नहीं थे। कोई आतंकवादी खुद जाकर हाजिर नहीं होता। वे तो इस यकीन के साथ वहां गए थे, कि वे बेगुनाह हैं। लेकिन कोर्ट ने उनके विश्वासघात किया। उनकी पत्नी और बच्चे ही नहीं, बल्कि बिहार के अरवल जिले की ज्यादातर जनता उन्हें बेगुनाह मानती है। यहां के लोगों का यह कहना है कि दारोगा पुलिस की ही आपसी रंजिश में मारे गए थे। अब भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लोग राजनीतिक मंशा से किया गया अन्यायपूर्ण फैसला ही मानते हैं।

मिली जुली तहजीब की नुमाइंदगी

का. शाह चांद मुखिया बिहार और खासकर जहानाबाद-अरवल की गरीब-मेहनतकश जनता और लोकतंत्रपसंद-सेकुलर लोगों के अत्यंत प्रिय नेता थे। 1982 में उन्हें जहानाबाद-अरवल शांति समिति का सदस्य बनाए गया था। 1985 में वे आइपीएफ में शामिल हुए। शहाब याद करते हैं कि इस इलाके में कोई विवाद हुआ था। उसी समय कौशिक जी (तिलेश्वर कौशिक) आए और चांद साहेब यक-ब-यक आईपीएफ में शामिल हो गए। पूरा गांव आईपीएफ बन गया। एक घर भी बाकी न रहा। 

हिंदू-मुस्लिम की एकता के लिए उन्होंने बहुत काम किया। एक बार भदासी पंचायत के ही मोथा गांव में इस पर बवाल हुआ कि अगजा (होलिका दहन) के गोईंठे को पैठानों ने चुरा लिया है। निर्दलीय चुनाव लड़ने वाले एक नेता इसको शह भी दे रहे थे। का. शाह चांद को जैसे ही खबर लगी, पांच-छह लोगों को लेकर पठान टोली गए और उसके बाद अकेले यादव टोली में चले गए। वहां बोले कि अगर हमारा कोई आदमी गलती किया है, तो हमको मार दो और ले लो बदला। लोग बोलने लगे- ‘ना, ना मुखिया जी, ऐसे कैसे होगा?’ खैर, अंत में समझौता हुआ, और उन्होंने साथ जाकर अगजा फूंका। 

ऐसे तीन वाकयों के गवाह शहाब बताते हैं कि चांद साहेब खुद दूसरे संप्रदाय के लोगों के बीच चले जाते थे। यहां तक कि जिनसे लड़ाई रहती थी, उन दुश्मनों के सामने भी वे बेधड़क जाते थे। मुखिया रहे तब भी और नहीं रहे तब भी। कुछ कहने पर कहते- ‘नही जी हमको कौनो डर नहीं है, हम पहले उनसे ही मिलेंगे।’ मो. ईसा याद करते हैं कि जब कब्रिस्तान को लेके तनाव हुआ तब भी उन्होंने बातचीत करके विवाद को सलटाया। 

अरवल में दोनों संप्रदायों के बीच होली खेलने के सिलसिले को शाह चांद ने बढ़ावा दिया। 

का. व्यासमुनि सिंह याद करते हैं कि एक मुस्लिम व्यक्ति द्वारा एक नाबालिग बच्चे को प्रताड़ित किया गया था, कोयला चुराने के नाम पर कड़ी धूप में पक्का पर रखकर उसकी पिटाई की गई थी। उसी संदर्भ में पार्टी की ओर से एक पर्चा निकाला गया था, जिसमें कहा गया था कि बच्चे को प्रताड़ित करने वाला व्यक्ति काफिर है। ‘काफिर’ शब्द पर बड़ा बवाल हुआ। तब लोगों को समझाने के लिए का. शाह चांद और अनवर जी को बुलाया गया। और इन लोगों ने बढ़िया स्पष्टीकरण दिया। कलेर में एक बार सांप्रदायिक तनाव हुआ और दोनों ओर से मारपीट शुरू हो गई तो उस वक्त उन्होंने गांव-गांव दौरा किया। हिंदू-मुस्लिम दोनों गांवों में गए।

1994 में का. शाह चांद को इंकलाबी मुस्लिम काफ्रेंस का राज्य सचिव बनाया गया। 2002 में वे जहानाबाद-अरवल वक्फ बोर्ड के सदस्य बनाए गए।

भाकपा-माले के समर्पित कार्यकर्ता

भाकपा-माले जब भूमिगत थी, तभी का. शाह चांद इसके सदस्य बन गए थे। बतौर पार्टी सदस्य उन्होंने किसी भी काम से परहेज नहीं किया। पार्टी द्वारा दी गई हर जिम्मेवारी को कुशलता से निभाया। एक बार ठेला पर लादकर पार्टी के मुखपत्र लोकयुद्ध के नए-पुराने अंक लेकर बेचने निकल गए। फेरी वाले की तरह बोलते गए- ‘पढ़ो जी, तीन रुपया लाओ, पढ़ो।’ और अरवल में लोगों ने लोकयुद्ध की सारी प्रतियां खरीद लीं। वे अक्सर कहते थे कि लोकयुद्ध पुराना नहीं होता, हमेशा यह नया रहता है। 

उनके बेटे शाह शाद ने बताया कि जब वे गया जेल में थे तब राजद सांसद शहाबुद्दीन को भी वहां लाया गया था। शहाबुद्दीन वहां पहुंचा, तो इनको सलाम किया। इनके घर-परिवार के बारे में पूछा। उसने सहानुभूति दिखाते हुए कहा कि इतने दिनों से आप जेल में हैं, घर-परिवार कैसे चल रहा है, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई कैसे हो रही है? उसने उनको आॅफर किया कि बेटी को मेडिकल काॅलेज और बेटे को इंजीनियरिंग काॅलेज में निःशुल्क दाखिला दिला देगा। का. शाह चांद ने दो टूक कहा कि आप तो हमारी पार्टी के विरोधी हैं, आपसे एक पैसा लेना भी मुनासिब नहीं है। 

व्यक्तिगत-पारिवारिक हित के लिए अपने विरोधी से कोई समझौता न करने वाले शाह चांद जनता के मुद्दे पर संयुक्त आंदोलनों की अगुवाई करने में कभी पीछे नहीं रहते थे। अरवल को जिला और अनुमंडल बनाने के लिए चले आंदोलनों में उनकी अहम भूमिका थी। 

शाह शाद फख्र से कहते हैं कि उनके पापा पर लेनदेन का कोई आरोप कभी नहीं लगा। उनके अनुसार उन्हें किसी खास चीज का शौक नहीं था। उन्होंने यही सिखाया कि ‘सच के साथ रहना, जमीर से कभी समझौता नहीं करना। तुम अकेले नहीं हो। पार्टी के साथ बने रहना, पार्टी ही तुम्हारी सबकुछ है।’

शाह शाद को अंदेशा है कि बेउर जेल में किसी ने उनके पापा का टार्चर किया था। कभी कभी उन्हें लगने लगता था कि उन्हें फांसी देने का फैसला सुनाया गया है। जबकि सच में ऐसा नहीं था। आखिरी दिनों में उन्हें  दौरा आने लगा था। उसमें अक्सर उन्हें लगता कि उन्हें फांसी पर चढ़ाने ले जा रहे हैं, और वे जोर से बोलने लगते- भाकपा-माले जिंदाबाद, माले का झंडा ऊंचा रहेगा।

आखिरी दौर में पीएमसीएच में उनसे मुलाकात करने वाले का. परवेज बताते है कि जब उनके परिजनों ने कहा कि जल्दी रिहाई हो जाएगी और अब आप अपने घर चलेंगे, तो उन्होंने कहा कि घर क्यों, मैं पार्टी आफिस जाऊंगा, घर भी आऊंगा, जैसे आता था। अभी मुझे पार्टी के लिए बहुत कुछ करना है। 

मौत बरहम है, खतरे से खेलना मेरा काम है

जेल जीवन की कठिनाइयों और गंभीर बीमारियों की प्रशासन द्वारा जानबूझकर की गई उपेक्षाओं ने का. शाह चांद के शरीर को जर्जर जरूर कर दिया था, लेकिन उनका कम्युनिस्ट मन पहले की तरह ही जीवटता से भरा हुआ था। अन्याय का उन्होंने आखिरी सांस तक विरोध किया। आखिरी दौर में पीएमसीएच में हथकड़ी लगे एक कैदी के साथ पुुलिस के सख्त व्यवहार को लेकर वे बिगड़ पड़े थे और उन्होंने कहा कि पुलिस जनता की सेवा के लिए होनी चाहिए, उस पर जुल्म ढाने के लिए नहीं। 

उनको जानने वाले हर व्यक्ति के पास अन्याय के खिलाफ लड़ने वाले जननेता के रूप में उनकी कोई न कोई छवि है। लोग बताते हैं कि एक बार भदासी में मछली बेचने वाला एक आदमी बस से कुचल गया। शाह चांद ने तुरत सड़क जाम कर दिया। पुलिस ने लाठी चलाई, कई लोग घायल हुए। लेकिन शाह चांद दीवार की तरह सड़क पर अड़े रहे और अकेले गिरफ्तार हुए। 

एक बार सीआरपीएफ ने किसी रैली में इमामगंज जाते वक्त लोगों की पिटाई की थी। उसका अधिकारी पूछने लगा कि नेता कौन है? शाह चांद बेझिझक सामने आए और उससे जोरदार तरीके से बहस की। मो. ईसा के अुनसार वे अक्सर कहते थे कि ‘मौत बरहम है, खतरे से खेलना हमारा काम है।’

का. शाह चांद फखरूल होदा और साजिदा खातुन के चार बेटों में से मंझले बेटे थे। इनका जन्म फरवरी 1950 में हुआ था। शैक्षणिक प्रमाणपत्रों में इनका नाम कशफुल होदा था। चांद पुकार का नाम था, जिस नाम से ये आगे चलकर मशहूर हुए। अरवल की जनता आसमान के चांद से तुलना करते हुए उन्हें जमीन का चांद कहती थी, तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं थी।


जनता के प्यारे चांद मुखिया 

जिस तरह से भोजपुर में का. रामनरेश राम को ज्यादातर लोग मुखिया जी कहकर संबोधित करते थे, उसी तरह का. शाह चांद ज्यादातर लोगों के लिए मुखिया जी ही थे। शाह चांद पहली बार 1978 में भदासी पंचायत के मुखिया बने थे। उस समय जिला प्रशासन ने उन्हें कम लागत में नहर निर्माण, साक्षरता कार्यक्रम और स्वास्थ्य अभियान के क्षेत्र में असाधारण कार्य के लिए सर्वोत्तम मुखिया के तौर पर सम्मानित किया। मो. ईसा मानते हैं कि मुखिया के रिजन में उन्होंने जनता को फूल की तरह रखा। वे योजना को जनता के बीच में रखते थे। जहां जिस चीज की जरूरत रहती थी, वहां खड़ा होकर काम कराते थे।

विजय सिंह उन्हें ऐसे मुखिया के बतौर याद करते हैं, जो जनप्रतिनिधियों और जनता के अधिकारों के प्रति बेहद सचेत थे। अरसे बाद 2001 में जब मुखिया बने तो पहली मीटिंग में उन्होंने पंचायती राज संबंधी कानूनों के बारे में धाराप्रवाह अंग्रेजी में बोलकर अधिकारी को चकित कर दिया था। अपने भाषणों में वे शेरो-शायरी का भी खूब इस्तेमाल करते थे। उन्होंने बैंक-ब्लाॅक में दलाली पर रोक लगा दी थी। गरीबों तक योजनाएं पहुंचे, इस पर उनका पूरा ध्यान रहता था। विंदेश्वरी प्रसाद सिंह के अनुसार शाह चांद ऐसे मुखिया थे जो भदासी से कभी पैदल तो कभी साइकिल से अरवल आते थे। 

उम्र के सत्तर साल पार कर चुके रामबाबू बताते हैं कि वे लड़ने के लिए हमेशा पहले तैयार रहते थे, जुलूस में भी आगे रहते थे। वे याद करते हैं कि पार्टी के कामकाज के सिलसिले में कई बार मुखिया जी अपने साथियों के साथ आते और खाना खिलाने को कहते। माड़, भात, अचार जो होता वही खा लेते। 

वे जोर देकर कहते हैं कि सन् 2000 में विधायक का चुनाव मुखिया जी जीते हुए थे, पर अखिलेश ने पैसे के बल पर हरा दिया। जबकि विजय सिंह के अनुसार वे अपने को महज मुखिया नहीं, बल्कि जिला और राज्य स्तर का नेता समझते थे। हिंदू-मुसलमान सबकी चाहत थी कि वे विधायक बनें। उनके निधन से जितना दुख मुस्लिम को हुआ उतना ही हिंदू को भी हुआ। अरवल ने एक अनमोल रत्न को खो दिया। 

विंदेश्वरी प्रसाद सिंह के अनुसार का. शाह चांद ने अरवल का इंटेलिजेंसिया को भाकपा-माले से जोड़ा था। उनमें दृढ़ इच्छाशक्ति थी और वे पार्टी के प्रति बहुत समर्पित थे। इतना ही नहीं, उनका मानना है कि शाह चांद ने घर-परिवार के स्तर पर भी क्रांतिकारी निर्णय लिए। पिता के विरोध के बावजूद उन्होंने मां द्वारा पसंद की गई गरीब घर की लड़की से शादी की। और उनका यह निर्णय सही रहा। उनकी बीवी ने अंत तक उनका साथ दिया। 


मेरे शौहर ने मुझे एक नजीर माना : जमीला खातून 

मैं जब ढाई साल की थी, तो मेरे फादर की डेथ हो गई थी। मैं गरीब परिवार की थी। इनके घर में सिर्फ इनकी नानी और मां चाहती थीं कि शादी हो। इन्होंने उनके पसंद का मान रखा। ये अपनी नानी के बहुत दुलारे थे। नानी ने अपनी सारी जायदाद इनके नाम से लिख दी थी, मगर इनकी ईमानदारी कि इन्होंने उसे अपनी मां के नाम लिख दिया। वे मां को भी बहुत मानते थे। नानी इनकी खैरियत को लेकर बहुत चिंता करती थीं। अक्सर कहतीं कि पार्टी में चला गया है, अल्ला मेरे चंदवा को बचा के रखना। ये भी अपनी नानी को बहुत मानते थे, जब भी घर आते तो उनके लिए कुछ न कुछ लेकर आते। इन्होंने वसीयत किहिन था कि इंतकाल के बाद उन्हें नानी के बगल में ही लिटाया जाए। ऐसा ही किया गया। 
कामरेड शाह चांद का परिवार

हमारी शादी उनके मुखिया बनने के बाद हुई थी। निकाह के बाद जो सेहरा पढ़ा गया, उसमें कुछ इस तरह के शब्द थे- हमारे कुंवारे मुखिया, हमारे सबसे बड़े दुलारे मुखिया। असल में उस समय किसी कुंवारे नौजवान का मुखिया बन जाना बड़ी बात थी। बाढ़ केे एक अमीर घर से इनके लिए रिश्ता आया था, लेकिन इन्होंने उसे ठुकरा दिया। शादी के पांच साल बाद अपनी जमीन में स्कूल बनवाने लगे। उसमें स्कूल वालों के कहने पर रातो-रात इन्होंने एक कमरा और बनवा दिया। तो समझिए कि बाबू जी से लड़ाई करके स्कूल बनवाया अपनी जमीन पर। इसके बाद बाप-बेटे के बीच तनाव पैदा हुआ और तनाव इतना बढ़ा कि इनको परिवार सहित बाहर निकाल दिया गया। 

जब मुखिया थे, तब हमें लगभग साढ़े तीन साल घर से बाहर रहना पड़ा। बड़ी बेटी का जन्म नैहर में हुआ। बाहर-बाहर वे आते, मुखिया का काम करते। उस वक्त मुखिया को आज की तरह बहुत फंड नहीं मिलता था। पंचायत में कुछ जो ठेकेदारी का काम आता था, उसे भी दूसरों को दे देते थे। उन्होेंने अपनी जमीन पर बसे लोगों को बासगीत का पर्चा दिया था। 

जब पार्टी का कामकाज बढ़ा तो कई बार 10-10 दिन गायब रहने लगे। मीटिंग होती तो नहीं आते थे, पर मीटिंग खत्म हो जाती तो अरवल से घर जरूर आ जाते थे। कई बार दस-दस, बीस-बीस लोग भी आते। घर में जो चीज नहीं होती, उसे खरीदकर लेते आते। हमलोग सबको खिलाते।

कई बार रात को चले जाते और मैं बस यही कहती कि संभल के जाइएगा। हमेशा येे कहते कि हम तुरंत वापस आते हैं। चिंता मत करो, हमारे बहुत लोग हैं। दो-तीन दूसरे केस मंे भी इनका नाम था। बार-बार पुलिस की छापामारी होती थी। मैं फाटक के पास ही सोती थी कि जब ये आवेंगे तो तुरत फाटक खोल देंगे। एक बार जब पुलिस ने छापामारी की, तो पैर में जख्म होने के बावजूद ये यहां से निकल गए। पुलिस आई तो हमें धमकाया, मारने की धमकी भी दी। हमने कहा कि मारिए पर हमको पता नहीं है कि वे कहां हैं। छोटे-छोटे बच्चे थे और पुलिस आके किवाड़ पिटने लगती थी। 

पैसा नहीं भी रहता था, तो इनसे नहीं कहती थी। सोचती थी कि वे जेल में हैं, पैसे का कहां से इंतजाम करेंगे। सबसे कहते कि मेरी वाइफ बहुत अच्छी है, एक नजीर है। बच्चे कभी कहते कि तकलीफ है, पैसे का इंतजाम करने को कहिए, तो मैं कहती कि वे तो जेल में हैं, वे सोच-सोच कर परेशान होंगे, कहां से पैसा लाएंगे? उनको परेशानी क्यों दें? कोटा (जन वितरण प्रणाली) का चावल गिराकर बच्चों को पाला। एक कपड़े पर गुजारा किया। लेकिन अपने शौहर को कभी उरेब बात नहीं कहा। यही सोचती थी कि नहीं है, तभी तो नहीं दे रहे हैं। हम उनको कभी नहीं बोले।

आखिर में जब हाॅस्पीटल में थे, तब भी बच्चों ने कहा कि ये तो पापा को बोलती ही नहीं। तो मैंने कहा कि पापा मुसीबत में हैं। अल्ला ताला मेरी मुसीबत को हल कर देंगे, पर अल्ला ताला हल नहीं किए। ऐसा नहीं था कि इन्हें बच्चों की चिंता नहीं थी, कहते कि मेरे शाद (बड़ा बेटा) का क्या होगा! ये अपनी बहन को संभालेगा। हम बहुत आदमी छोड़ के जा रहे हैं। मुझसे कहते कि पार्टी को मत छोड़ना। 


एक विधायक या सांसद से ज्यादा रुतबा था चांद साहब का : सोहैल अख्तर

चांद साहब हमेशा गरीब-मजदूर-अकलियत लोगों के कल्याण की बात करते थे। 96 में बिजली के लिए आंदोलन हुआ, उस वक्त वे भूमिगत थे, लेकिन उन्होंने आंदोलन में पूरी मदद की। कब्रिस्तानों को लेकर अक्सर विवाद होता था। 97-98 में उनके नेतृत्व में हमने कब्रिस्तान बचाने और उसकी घेरेबंदी के लिए आंदोलन किया। यह इसीलिए किया गया कि इसे लेकर दंगा-फसाद की स्थिति पैदा न हो। 

सीपीआई का सन् 2000 के चुनाव में गठबंधन था, इस नाते मैं लगातार उनके साथ चुनाव प्रचार में रहता था। अरवल का चुनाव काफी चुनौतीपूर्ण था। लोग जगह-जगह मजारों पर मन्नत मांग कर चुनाव प्रचार शुरू कर रहे थे, उनके विपरीत का. शाह चांद ने यादव जाति के एक शहीद साथी के घर से प्रचार की शुरुआत की। गरीबों के प्रति कितना प्यार था उनमें, यह उस चुनाव कैंपेन में भी दिखा। एक दिन एक दर्जी जो फुटपाथ पर सिलाई करते थे, उन्होंने उनको अपने घर दावत दी, जिसे चांद साहब ने तुरत कबूल कर लिया। रात में हम वहां पहुंचे, जो खाना उन्होंने खिलाया, खाए। झोपड़ा टाइप का घर था। हमें जिस कमरे में सुलाया गया, उसमें दरवाजा नहीं था। मेजबान के पास एक ही रजाई थी, जिसे बच्चों ने ओढ़ रखा था, उन्होंने वही रजाई लाकर दिया जिसे लेने से का. शाह चांद ने मना कर दिया। हमने एक ही चादर में रात काटी। मैंने चांद साहब से कहा कि अरवल लौट चलते हैं। उन्होंने कहा कि हमने दावत कबूल किया है, नहीं रुकेंगे तो गरीब का दिल टूट जाएगा।

चुनाव हारने के बाद भी शाह चांद एक विधायक और सांसद से ज्यादा रूतबा रखते थे। चुनाव जीतने वाले तो पटना गए, पर वे शहर से देहात तक लोगों का शुक्रिया अदा कर रहे थे। सुबह से ही लोगों के बीच घूमना शुरू कर दिया था। लोगों से बोले कि चुनाव में हारना-जीतना तो लगा ही रहता है, किसी का दोष नहीं है, आपलोग साथ हैं तो मैं तो जीता ही हुआ हूं। उसके अगले ही साल 2001 में वे मुखिया के रूप में चुने गए, उनकी ईमानदारी और कर्मठता की वजह से उनके विरोधियों ने खुलकर समर्थन किया। उस वक्त रणवीर सेना के खिलाफ तीखा आंदोलन चल रहा था और वे उसका नेतृत्व भी कर रहे थे। वे जनता की एकजुटता के जितने हिमायती थे, उतनी ही मुस्तैदी से वामपंथी ताकतों की एकता के लिए प्रयासरत रहते थे। व्यक्तिगत तौर पर मैं उनसे इतना मुतास्सिर हुआ कि सीपीआई से भाकपा-माले में आ गया।

वे बहुत ही खुशमिजाज आदमी थे। बिल्कुल खुले दिल से किसी से मिलते थे। कभी भी उन्होंने ऐसा नहीं समझा कि वे कोई बड़े नेता हैं या किसी बड़े खानदान से हैं। वे बेधड़क किसी घर में चले जाते थे। घर की औरतें और बच्चियां उनसे पर्दा नहीं करती थीं। 

चांद साहब बहुत पक्के इरादे के व्यक्ति थे। जब पटना-औरंगाबाद रोड पर मौजूद मकानों को तोड़ने का आदेश आया तो वे सुबह-सुबह मेरे पास पहुंचे और कहे कि ये गरीब लोग हैं, ये उजड़ जाएंगे, क्यों न इसे रोकने के लिए आंदोलन शुरू किया जाए? मात्र तीन आदमी थे- मैं, चांद साहब और विजय। मैंने कहा कि चांद साहब, तीन आदमी से आंदोलन खड़ा होगा? वे बोले- साहब, इरादा पक्का हो तो एक आदमी भी काम कर सकता है, आंदोलन को तेज कर सकता है, हम तो तीन हैं। हम तीन आदमी ही झंडा लेकर निकल गए। तीनों को पुलिस ने पकड़ा और डंडे से पीटा और कहा कि आंदोलन बंद करो। लेकिन चांद साहब अडिग खड़े रहे। उसी मोड़ पर सभा की और लोगों की भीड़ जुट गई। मकान नहीं टूटे, अब तक कायम हैं। उन्होंने कहा था कि जब तक चांद है अरवल नहीं टूटेगा। मकान-दूकान तोड़ने से पहले प्रशासन को वैकल्पिक व्यवस्था करनी होगी। 

साथियों को खिलाने और चीजों को बांटने की भी उनको आदत थी। 1998 में वे एक दूसरे केस में जहानाबाद जेल में बंद थे। तो उन्होंने मुझसे दो किलो मिठाई और 1 किलो खैनी, छह लाइफब्वाॅय साबुन और कपड़ा धोने का साबुन मंगवाया। तमाम कैदियों के साथ सिपाहियों के बीच उसे उन्होंने बांट दिया। फकीराना अंदाज था उनका। अपने पास रखने की आदत नहीं थी, जो भी होता था, बांट देते थे।

जेल में कोई भी मिलने जाता था तो अपने परिवार से ज्यादा गांव और इलाके के लोगों का ही हालचाल लेते थे।


का. शाह चांद की एकता के पाठ को कैदियों ने याद रखा : त्रिभुवन शर्मा

जेल में प्रशासन और दबंग बंदियों की लूटखसोट चलती थी। कैदियों के लिए जो सामग्री आती थी, उसका तकरीबन आधा हिस्सा अपराधी किस्म के लोग लूट लेते थे। वे लोग व्यक्तिगत तौर पर खाना बनवाते थे। इसके खिलाफ का. शाह चांद गरीब-गुरबे कैदियों को एकजुट करके लड़े। सर्वदलीय कमेटी बनी। सामूहिक भंसा की शुरुआत हुई। सबको बढ़िया खाना मिलने लगा। जो घर से खुशहाल कैदी थे, वे भी सामूहिक भंसा में आकर खाने लगे।

बाहर समाज में जितना विभाजन रहता है, वह जेल में कुछ अधिक ही होता है। इसलिए यहां व्यापक गोलबंदी आसान नहीं होता। लेकिन यह का. शाह चांद ने किया। दो-तीन बार मारपीट भी हुई। एक बार यादव जाति के एक लंपट से मार हुई, तो उसने जातीय गोलबंदी करने की कोशिश की, लेकिन का. शाह चांद ने इसे सफल नहीं होने दिया। तमाम न्यायपसंद लोग उनके साथ एकजुट रहते थे। पार्टी कार्यकर्ता छोटा हो या बड़ा, उसके साथ वे कोई भेदभाव नहीं करते थे। कोई भी कैदी कोई समस्या लेकर उन तक पहुंचता था तो उसका समाधान करने की कोशिश करते थे। अगर उनके पास दो कुरता पैजामा हो, तो एक कुरता पैजामा भी दे देने में उनको कोई हिचक नहीं होती थी। किसी साथी को बेल के लिए पैसे की जरूरत होती और उनके पास पैसे होते तो उनका बेल भी करवा देते थे। उनका सारा साधन पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए तो था ही, मुसीबत में फंसे दूसरी पार्टियों के कार्यकर्ता भी इस उम्मीद में उन तक पहुंचते थे कि वे उनकी मदद करेंगे। एक बार भाजपा के एक अभियान में अरवल में गोली भी चल गई थी और वहां के भाजपाइयों को जेल हो गई थी। वे जब जेल पहुंचे, तो उन लोगों ने कहा कि वे चांद साहब के साथ ही रहेंगे। किसी कैदी के साथ कोई प्रशासनिक समस्या भी होती थी, तो वे उसकी मदद करते थे। जहानाबाद जेल में कैदियों की जो गोलबंदी उन्होंने बनाई, उसी कारण उन्हें यहां से गया जेल भेज दिया गया। लेकिन एकता का जो पाठ उन्होंने पढ़ाया उसे जहानाबाद के कैदियों ने याद रखा और आज भी उनकी एकता कायम है। 

जेल में जनतांत्रिक अधिकारों की जंग

का. शाह चांद जेल में भी कैदियों के अधिकारों के लिए लड़ते रहे। आंदोलन के दौरान उन्होंने जो 26 सूत्री मांग रखी थी, उसमें कैदियों के लिए स्वास्थ्य, भोजन, शुद्ध पेयजल, शौचालय आदि की सुविधा को दुरुस्त करने की मांग तो की ही, उसमें एक महत्वपूर्ण मांग यह भी थी कि अगर किसी कैदी की जेल या हिरासत में मौत होती है, तो उसके लिए डाॅक्टर और संबंधित अधिकारी को जिम्मेवार ठहराया जाए और उनके परिजनों को दस लाख का मुआवजा दिया जाए। 65 साल की उम्र पार कर चुके तमाम सजायाफ्ता कैदियों को रिहा करने, ट्रायल के नाम पर तीन साल पूरा कर चुके लोगों को अनिवार्य रूप से जमानत पर छोड़ने, सजा की अवधि पूरा होने के बावजूद जेल में रखने वाले कैदियों को प्रति दिन 300 रु. के दर से क्षतिपूर्ति की व्यवस्था करने, सरकार की जनविरोधी नीतियों और काले कानूनों का विरोध करने वाले बंदियों को राजनीतिक बंदी का दर्जा देने, हाथ में हथकड़ी और कमर में रस्सी बांधकर कोर्ट ले जाने की प्रक्रिया को बंद करने, रिमांड के नाम पर कैदियों को शारीरिक-मानसिक यातना देने की प्रवृत्ति को बंद करने, पोटा-टाडा जैसे कानूनों को निरस्त करने की मांग भी उन्होंने की थी। 2013 में उन्होंने बेउर जेल में कैदियों के अधिकार के लिए जो आंदोलन छेड़ा था, वह कई जेलों में फैल गया था। 

का. शाह चांद जेल में रहे या जेल से बाहर, वे जनता के एक सच्चे नेता की भूमिका में रहे। जनता के दुख-दर्द से उनका गहरा सरोकार रहा। वे आखिरी सांस तक उसके लोकतांत्रिक हक-हकूक की हिफाजत में खड़े रहे। अपने समय के तमाम ज्वलंत सवालों से उनका वैचारिक सरोकार रहता था। उनका जेल नोट बुक इसका साक्ष्य है। वह शायरी के प्रति उनकी दिलचस्पी का भी पता देता है। अजीमुल्ला खां और 1857 के अन्य रणनीतिकार, 1857 : तब और अब, भारत में मुसलमानों, खासकर दलित मुसलमानों के हालात, धर्मनिरपेक्षता, बेगुनाह मुस्लिम नौजवानों को आतंकवादी कहकर फर्जी मुकदमों में फंसाने की शासकवर्गीय नीति, हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रति मौलाना आजाद के विचार, मुस्लिम महिलाओं के बुनियादी लोकतांत्रिक अधिकार, उ.प्र., महाराष्ट्र जैसे राज्यों में सांप्रदायिक दंगों की बढ़ती संख्या, परमाणु करार, एफडीआई, उर्दू भाषा की खासियत, ‘आप’ का स्वागत और उससे सवाल, उदारीकरण, कैग की जरूरत, काॅमनवेल्थ में अनियमितता, मनरेगा धांधली, इसरो में अनियमितता आदि कई विषय और मुद्दे हैं, जिनसे संबंधित विभिन्न अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं से लिए गए नोट्स उनके जेल नोट बुक में मिले। 


बेचकर अपनी खुशी औरों के गम खरीदेंगे

शाहिद अख्तर, वरिष्ठ पत्रकार, पीटीआई

शाह चांद साहब से मेरी पहली मुलाकात 1986 में हुई थी। उस वक्त आईपीएफ के झंडे तले भाकपा माले ने पहली बार चुनाव में हिस्सा लिया था और कुछ सीमित सीटों पर चुनाव लड़ा था। उनमें एक सीट अरवल की भी थी। यहीं चुनाव प्रचार के दौरान उनके घर में करीब एक घंटे तक उनसे बातचीत हुई। वह 1978 के चुनाव में मुखिया चुने गए थे, लेकिन किसी परंपरागत मुखिया से बिल्कुल भिन्न वह एक बेहद सुलझे हुए और जनसरोकार वाले इंसान दिखे। वह माले के आंदोलन का नजदीक से अवलोकन कर रहे थे, लेकिन उसमें शामिल नहीं हुए थे।

करीब सात साल बाद उनके साथ काम करने का मौका मिला। तब पार्टी ने इन्कलाबी मुस्लिम कान्प्रफेंस का गठन किया था और मैं और शाह चांद साहब दोनों ही सचिव पद की जिम्मेदारी निभा रहे थे। यहां उन्हें करीब से देखने और जानने-समझने का मौका मिला। वह एक ध्नी परिवार से आते थे लेकिन उनके घर का खर्च किसी तरह चलता था। 

मुझे नहीं पता कि उन्होंने माक्र्सवाद का ककहरा कितना पढ़ा था। जहानाबाद और अरवल क्रांतिकारी जनसंघर्षों का एक मुख्य केन्द्र रहा है और उन्होंने इन्ही संघर्षों में दीक्षा ली थी। वह किताबी कामरेड के बजाय जमीन से जुड़े एक असली नेता थे। जनता से उनका गहरा जुड़ाव था। उनका सब कुछ आम दलित दमित जनता के लिए था। तभी तो तमाम उतार-चढ़ाव के बाद भी वह अंत तक संघर्ष में डटे रहे।

‘बाजार से जमाने के कुछ भी न हम खरीदेंगे/ हां बेचकर खुशी अपनी औरों के गम खरीदेंगे। चांद साहब इसी शेर की एक मिसाल थे।


का. शाह चांद : इंकलाब के जांबाज सिपाही

वसी अहमद, नेता, भाकपा-माले

मैं शाह चांद से पहली बार मिला, अरुण भारती, डाॅ. जगदीश व कई अन्य मेरे साथ थे। मैं उस समय आईपीएफ जिला अध्यक्ष था। वो मिले- बड़े जोशो-खरोश के साथ, मगर शाहाना अंदाज में। उनके शाहाना ठाटबाट से मुझे बिल्कुल नहीं लगा था कि ये शख्स समाज के ऐसे फटेहाल तबकों के साथ घुलमिल सकता है जिस पर आईपीएफ या सीपीआई-एमएल की बुनियाद खड़ी होती है। लेकिन मुखिया बनने के दौरान ही वे बड़े हैरतअंगेज अंदाज से बिना जाति या धर्म का फर्क किए अवाम से घुल-मिल गए और तेजी से इंकलाबी सियासत की तरफ बढ़ चले। 

मैंने एक बार उनसे चुटकी ली और कहा- ‘भाई चांद, आप तो शाह हैं, आपको गरीबों की जद्दोजहद से क्या हासिल होगा?’ उन्होंने बड़े इत्मीनान से जवाब दिया- ‘‘वसी साहब, जो सिर्फ अपने लिए जीता है, उसका जीना सचमुच कोई जीना नहीं। जीना तो उसका है, जो दूसरों के लिए जीता हो।’’

आज हम देख रहे हैं कि काॅ. चांद की बातें सिर्फ कहने भर के लिए नहीं थीं। उन्होंने इसे कर दिखाया भी। एक्तदार के भूखे दरिंदों के तमाम जुल्म-ओ-सितम के बाद भी वो अपने इरादे से न डिगे तो हिरासत में उनकी जान ले ली गई।