Monday, November 20, 2023

एलिस के खत फैज के नाम

हम तो बस अंधेरे पार से तुम्हारे आने की राह तक रहे हैं
एलिस के खत फैज के नाम (अनुवाद- नूर ज़हीर)


9 मार्च, 1951 को चार बजे सुबह, लाहौर पाकिस्तान में फैज अहमद फैज को गिरफ्तार किया गया। तीन महीने तक किसी को यह खबर नहीं थी कि वे कहां कैद हैं, उन पर कौन से इल्जाम लगाए गए हैं, वे जिंदा भी हैं या नहीं।
गिरफ्तारी के वक्त उनकी पत्नी एलिस फैज और दोनों बेटियां- नौ साल की सलीमा (चीमी), और पांच साल की मोनीजा (मीजू) घर पर मौजूद थीं। एलिस ने न सिर्फ पैसा कमाने, घर चलाने और बच्चियों को पालने की जिम्मेदारी उठा ली, बल्कि पाकिस्तान सरकार को सैकड़ों अर्जियां भेजी, देश के बाहर फैज और अपने चाहने वालों को अनगिनत खत लिखे, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस नाजायज गिरफ्तारी के खिलाफ आंदोलन खड़ा करवाया, और सबसे बढ़कर यह कि अंग्रेज होने के बावजूद, इंग्लैंड लौट जाने के बहुत से मौके मिलने के बावजूद वे पाकिस्तान में डटी रहीं।
फैज जिस समय गिरफ्तार हुए वे पाकिस्तान के कम्युनिस्ट पार्टी के सेेक्रेटरी थे। सज्जाद जहीर जो तीन दिन बाद गिरफ्तार हुए, वे जेनरल सेक्रेटरी थे। इन दोनों के अलावा बहुत से और कम्युनिस्ट भी पकड़े गए।
तीन महीने बाद पता चला कि एक बहुत पुराने ऐक्ट- 1818 बंगाल कांस्पिरेसी ऐक्ट के तहत उन्हें गिरफ्तार किया गया है। ऐलिस के अपने शब्दों में, ‘‘ब्रिटिश साम्राज्य का सबसे जालिम, अन्यायी और बदबख्त दिनों का यह ऐक्ट!’’
यहाँ भी बात थमी नहीं। प्रधानमंत्री लियाकत अली खां ने इन लोगों के बारे में ऐसा भाषण दिया जैसे ये लोग पाकिस्तान को नेस्तनाबूद करने की साजिश रच रहे थे। प्रेस ने खूब हंगामा मचाया और लाहौर चौक में इन लोगों को फाँसी देने की माँग की। पाकिस्तान ऐसेंबली ने एक स्पेशल ऐक्ट पारित किया- दि रावलपिंडी कांस्पिरेसी ऐक्ट। हाईकोर्ट जजों का एक ट्रिब्यूनल बनाया गया। सिंध के रेगिस्तान के बीच, हैदराबाद जेल में इस मुकदमे को चलाया जाएगा, यह तय हुआ।
तीन महीने फैज को सालिट्री कनफाइन्मेंट में रखा गया था, ताकि उनका मनोबल टूट जाए। खैर, एक इंकलाबी का मनोबल तोड़ना इतना आसान तो था नहीं, सज्जाद जहीर ने एक लेख में लिखा है कि जब ट्रिब्यूनल ने यह फैसला सुनाया कि अब सारे कैदियों को एक जेल में रखा जाएगा और उन्हें आपस में मिलने की इजाजत होगी, तो फैैज ने खुशी में कोर्ट के अंदर ही भंगड़ा नाचना शुरू कर दिया।
जब मुकदमा चला और तथ्य सामने आते गए, तो यह असलियत भी खुलती गई कि सारे इल्जाम झूठे और बेबुनियाद हैं और पाकिस्तान सरकार के पास इनलोगों को गिरफ्तार करने या सजा देने लायक कोई सुबूत नहीं है। 1951 का अंत आते-आते यह बात साफ हो गई थी और किसी भी पल सभी कैदियों के रिहा हो जाने की उम्मीद बंध गई थी। लेकिन भला सत्ताधारी इतनी जल्दी कैसे गलती स्वीकार कर लेते। मुकदमा खिंचता रहा, वक्त गुजरता रहा, आखिर 1955 में, चार साल की बिलावजह की कैद काटकर फैज रिहा किए गए। उस वक्त वे मंटगुमरी जेल में थे।
एलिस फैज ने इन चार सालों में, एक पत्नी के फर्ज तो अदा किए ही, उससे भी बढ़कर उन्होंने एक सशक्त कामरेड का रोल अदा किया। इन चार सालों में उन्होंने जेल में बंद फैज को जो खत लिखे वे सुबूत हैं उनके हौसले के, उनकी निष्ठा के, उनकी मोहब्बत और उनके यकीन के।
इन खतों से यह पता चलता है कि अक्सर एलिस और फैज का इंसानियत के बारे में दृष्टिकोण भिन्न है, लेकिन दोनों ने जद्दोजहद की, संघर्ष किया और लड़ाई लड़ी, एक जैसे उसूलों और एक जैसे मूल्यों के लिए। दोनों ने अपने -अपने हिस्से की सलीब यह मानकर उठाई कि न्याय के लिए लड़ने का खामियाजा भुगतना, उस न्याय को जीने का एक हिस्सा है।
इन खतों की भाषा सीधी-साधी है, लेकिन इनमें भावनाओं की वह गहराई है जो पढ़ने वाले की आंखें नम नहीं करती, बल्कि उनमें भी सच के लिए लड़ने की आग को प्रज्जवलित करती है। इन खतों में एलिस ने यह कोशिश की है कि फैज को जेल से बाहर का जीवन दे सकें। घर की, लाहौर की, मौसम की, दोस्तों की छोटी-छोटी बातें दर्ज हैं। जहां यह खत फैज की उम्मीद को जिंदा रखने की कोशिश करते हैं, वहीं एलिस अपने अकेलेपन और दुख को भी फैज से छुपाती नहीं, बांटती हैं। दो कामरेडों का सबकुछ बांटना जरूरी है।
फैज को लिखे इन खतों में एलिस की जो तस्वीर उभरती है, वह एक ऐसी औरत की है जो बेइंतिहा हिम्मत और हौसले से भरपूर है, जिसकी एक अपनी अलग पहचान है, जो अपनी नियति, अपना धर्म खुद गढ़ती और जीती है। वह ऐसी जिंदगी की कामना करती है, जिसमें संघर्ष जिंदा रहे, ताकि आने वाला कल गीत गाता हुआ आए।
फैज ने इन खतों को जेल में संभालकर रखा, यह इस बात की गवाही है कि ये खत उन मुश्किल दिनों में उनके सहारा थे, बाहरी दुनिया से उनका संपर्क थे और एतमाद की ताकत को बढ़ाते थे।
हमारे लिए ये खत उम्मीदों, आकांक्षाओं और चाहतों के प्रतीक हैं, क्योंकि इनमें जिंदा है हमारा आने वाला कल। इनको पढ़कर यह यकीन होता है कि संघर्ष ही एकमात्र विकल्प है, कि उम्मीद अभी जिंदा है, कि ख्वाब मरते नहीं!
इन खतों में
न कोई संबोधन है और न ही ये एलिस के नाम से खत्म होते हैं। अगर यूं ही पढ़ें तो ये संघर्ष कर रहे दो कामरेडों के बीच का पत्र व्यवहार है। दुनिया के किसी भी कोने में न्याय के लिए लड़ते हुए दो साथियों के प्रेम और वचनबद्धता के प्रतीक हो सकते हैं ये खत। क्या एलिस ने जानबूझकर इनको यह व्यापकता प्रदान की थी?
(फैज अहमद फैज के जीवन पर केंद्रित नूर जहीर की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक से)


31. 7. 51
आज मुझे तुम्हारा पहला खत मिला... कितना संक्षिप्त... मगर इन फाकाकशी के दिनों में, हमें जिंदा रखने के लिए काफी। घर का यह समाचार है कि मुझे ‘स्टे ऑर्डर’ मिल गया है- यानी मकान मालिक हमें निकाल नहीं सकता, पर किराया बढ़ाने की उसे इजाजत मिल गई है। उम्मीद है ‘एन’ (नजीर- फैज के भाई का बेटा) मेरे साथ किराया बांट पाएगा। वह सरकारी मुलाजिम है इसलिए उसे सरकारी इजाजत चाहिए होगी। प्रेस हमारा साथ दे रहा है, शायद इसीलिए अफसरों के हौसले कुछ ठंढे पड़े हैं। इस खत के साथ, आई जी प्रिजन का एक खत है, तुम्हारे बकाया पैसों के बारे में.....दिन भर में एक बार, पेट भर खुराक इसमें मुश्किल से आएगी!
आज बारिश हुई और आज इतवार भी है.....याद है तुम्हारी इतवार की सुस्ती पर तुमसे कितना झगड़ती थी?.....आज यह हाल है कि मैं भी छुट्टी के दिन बस पड़ी रहती हूं। कुछ करने की ताकत ही नहीं रहती। बरसात ने यादों के बंद किवाड़ खोल दिए हैं.....याद है, जब बुखारी यहां आया था और हमने पिछले बरामदे में पिकनिक मनाई थी?....डबलरोटी, मक्खन और कितना सारा जैम.....और बस बारिश! बारिश! बारिश!
खलील और निजामी ने हमारी मुसीबतजदा हालत पर एडीटोरियल लिखे हैं.....बहुत अच्छे हैं दोनों। लोग इतने हमदर्द हैं। सभी समझ रहे हैं कि मेरे लिए घर चलाना और ऊपरी तौर पर एक गरिमा बनाए रखना जरूरी है ताकि दूसरों का हौसला बढ़े। जबसे तुम गए हो मैंने एक भी सिनेमा नहीं देखा, लेकिन आज जा रही हूं। बाली ने (फैज की रिश्ते की बहन) घर का हिसाब-किताब रखना शुरू कर दिया है। देखें 430 रुपये में, जिसमें 100 रुपये किराया भी शामिल है, घर कैसे चलता है? बड़ा भिगोना-निचोड़ना पड़ेगा, लेकिन निभ जाएगी! हम तो बस अंधेरे पार से तुम्हारे आने की राह तक रहे हैं। तब इतना कुछ होगा पूरा करने को, इतना कुछ याद करने को, उतना ही भूल जाने को....
तुम हमें बदला हुआ पाओगे। बच्चियां तो बहुत बदल गई हैं..... दोनों समझदार और गंभीर हो गई हैं....और मैं भी ज्यादा अक्लमंद हो गई हूं। वह चीजें जो बहुत माने रखती थीं, आज बेमानी मालूम होती हैं.....गई रात मीजू (छोटी बेटी मुनीजा) एक दांत ब्रश और रात के कपड़े लेकर सरवर के यहां चली गई। आज जब लौटी तो मैंने पूछा, ‘‘क्या तुम उदास रही, अम्मीजान के लिए?’’
उसने जवाब दिया, ‘‘नहीं तो, मैं सिर्फ अब्बूजान के लिए उदास हूं।’’ मीजू हमारी धूप भी है और खुशी भी....वही हमें हमें जिंदादिल और खिलखिलाता रखती है।
मजहर (कामरेड मजहर अली- तारीक अली के पिता) तुम्हें बहुत मोहब्बत से याद करता है और बहुत सारे और लोग भी। हमारे बहुत सारे, बहुत ही सारे दोस्त हैं...... मेरा शुरू का डर और सोच बेमानी थी। हरामजादे तो दुनिया भर में हरामजादे ही रहेंगे और दुनिया को सड़ाकर खोखला करने की कोशिश करते रहेंगे। आजकल ‘पाकिस्तान डे’ नंबर पर काम चल रहा है। कमाल भी पहले से ज्यादा समझदार हो गया है.....अपनी मेज साफ-सुथरी ओर बाकायदा रखता है। अभी तक तो वह एक अच्छा सहकर्मी साबित हो रहा है।.....


10.9.51
आज ‘सबात’ था, सो हमने जितना हो सका उसे अपवित्र रखने की कोशिश की। आने वाले जाड़े के दिनों के लिए पूरा घर साफ किया, कालीनों को धूप दी, झाड़ा फटका और फिर से बिछाया, इस उम्मीद के साथ कि तुम जल्द उन पर चहलकदमी करोगे। रातें ठंढी हो चली हैं और बच्चों पर गिरती शफाक चांदनी उन्हें और ज्यादा खूबसूरत बना रही है। यह लिखते वक्त दोनों मेरे बराबर में सोई हैं।
मीजू की कही हुई बातें किस्से बन जाती है और हर जगह दोहराई जाती है। आज कहने लगी, ‘‘आप चीमी आपा (फैज की बड़ी बेटी सलीमा) को तो ‘प्यारी’ कहकर पुकारती है। मुझे किस नाम से पुकारेंगी? मैं सीधे फीके ‘मीजू, मीजू’ से तंग आ गई हूं।
मैंने जवाब दिया, ‘‘तो ठीक है, मैं तुम्हें जानी बुलाऊंगी।’’
खैर, उसने उस वक्त तो अनमने ढंग से बात मान ली। लेकिन कुछ ही देर बाद, गलती से मेरे मुंह से चीमी के लिए भी ‘जानी’ निकल गया! ऐसा बिगड़ी कि क्या बताऊं! ‘‘यह आपने तीसरी बार आपा को जानी कहा है! क्या आप मेरे लिए कोई ऐसा नाम नहीं सोच सकतीं जो किसी और का ना हो?
‘एन’ और उसकी बीवी उससे अच्छा खासा घबराते हैं। एक दिन जिद करने लगी कि उसकी बीवी को नहाते देखेगी और जब डांटकर मना किया गया तो ऐसा भौंकड़ा मचाया कि बस! रोते-रोते कहने लगी, ‘‘क्यों नहीं! मैं तो अम्मी को नहाते देखती हूं।’’
जब तुम लौटोगे तो अपनी जिंदगी में इन दो मोहतरमाओं से भी तुम्हें जूझना होगा। चीनी भी जिंदगी की पेचीदगियों पर सवाल पूछने लगी है- ‘‘जानवरों को शादी और बच्चे पैदा करने की इजाजत कौन देता है?’’ वगैरह।
जेल के अफसर क्या ज्यादा एहतियात से तुम्हारे खत ‘सेंसर’ नहीं कर सकते? पिछले वाले पर पान के बड़े चकत्ते थे!.....


18.9.51
दिन चुपचाप फिसल रहे हैं....मसरूफियत के दिन हैं, जिनमें दफ्तरी काम की भगदड़ है, घर के कामों की भीड़ है और सैकड़ों दूसरे मसले हैं। मेरे लिए तो सुकून के पल तब होते हैं जब सब सो चुके होते हैं, जैसे कि अभी। कल से बच्चियों का स्कूल खुल जाएगा। मीजू आखिरकार अपनी चुटिया काट देने को राजी हो गई है। हर रोज दो रिबन और बेशुमार क्लिपें खोेने के बाद। घर के खर्च का हिसाब ही गड़बड़ा गया था। अब उसे तकरीबन ‘सफाचट’ करवा दिया है।
मौसम हर दिन ज्यादा ठंढा होता जा रहा है। इस वक्त मखमली हवा बह रही है और आधा खाया हुआ-सा चांद चमक रहा है। जानती हूं यह चांद तुम्हें भी दिखाई दे रहा है और यह ख्याल मुझे खुशी देता है। लोग आजकल अजीब-ओ-गरीब बातें कर रहे हैं। अचानक लगाई गई ‘इमरजेंसी’ और फिर उसका इस तरह फुसफुसाकर खत्म हो जाना..... लोग चकरा गए हैं। सरकारी फैसला ‘‘जंग नहीं’’, क्योंकि ईरान में तेल का संकट पैदा हो गया है.....जंग के लिए तेल तो जरूरी है! यह थैकी पता नहीं कैसे अपना कत्लेआम मचाए हुए है? समझदारी और अक्ल की बातचीत को दिल तरस गया है। पढ़ती रहती हूं, ज्यादातर फ्रांसीसी, लेकिन दफ्तर का काम इतना थका देता है, और इतनी सारी दूसरी परेशानियां हैं कि कुछ करने की ताकत ही नहीं रहती। लेकिन बच्चियों के फलसफियाना खोज बहुत दिलचस्प होती है। इतना सहारा बहुत है, और तुम्हारे खत भी तो हैं!.....
जब मीजू के बाल कटवाए तो क्या बोली जानते हो?....‘‘अब्बू आकर कहेंगे....अरे, यह लड़का कहां से आया?’’
इतनी प्यारी है! कभी-कभी उन दोनों को देखती हूं तो जैसे जिस्मानी तकलीफ का एहसास होता है....एक टीस सी....उस जगह जहां दिल होना चाहिए। घर तुम्हारे बगैर सूना है.....उस तपिश से खाली जो तुमसे होती थी....जल्दी लौट आओ......


4.11.51
कल भी तुम्हें लिखा था। क्या मालूम, तुम्हें इतनी जल्दी जल्दी एक के बाद एक, खत पाने की इजाजत है या नहीं! चीमी ‘स्पाईडर एंड दि फ्लाई’ के उर्दू संस्करण से जूझ रही है और हमारी नन्हीं घुमक्कड़ गहरी नींद सो रही है। आज उन्होंने तुम्हारी तस्वीर के पास असली सुर्ख गुलाब सजाए हैं....बूबू जान के दिए हुए। वे इन गुलाबों को लेकर, अपने लड़के की साईकल पर सवार, सरपटाती हुई चली आईं....अपने बुर्के समेत! तुम्हें प्यार भेजा है। लड़कियों ने बहुत सलीके से ताजा गुलाब सजाए और पहली बार नकली वाले छुपा दिए गए हैं.....


7.11. 51
जाड़े धीरे-धीरे, पर यकीनी तौर पर आ रहे हैं। तुम्हारी वाली सुबहें आखिरकार आ गई हैं....तुम आशिक हो इस लाहौर के....धुंधली सुबह, शफाक दिन! मैं बेकरार हो जाती हूं और अक्सर सोचती हूं कि जनता के वक्त और पैसों की ऐसी बरबादी से आखिर किसे खुशी मिल रही है। इस तकलीफ से जो मुस्तकिल खिंचती जाती है किसका भला हो रहा है! लोग अब खुल्लम खुल्ला कहते हैं कि ‘मुकदमा अब खत्म पर है और तुम घर लौट आओगे।’ हर तरफ तुमलोगों की तारीफ हो रही है। मिस्र ने दुनिया भर की आंखें खोल दी है....
गेरहार्ड हेगलबर्ग का बहुत खूबसूरत खत मुझे मिला। यह एक अमरीकन है जो 1945 में, तासीर के दिल्ली के घर में ठहरा हुआ था। वह, पॉल राबसन, हावर्ड फास्ट और बहुत से और लोग तुम सबके लिए बहुत कुछ कर रहे हैं। उसने तुम्हारा अभिनंदन किया है और उम्मीद जाहिर की है कि तुम जल्द घर लौटेगो। कैसे अच्छे लोग हैं दुनिया में, हालांकि कितने दूसरे भी हैं जो इनकी आवाज दबा देना चाहते हैं......
सुनो, इसके बारे में क्या कहते हो.......
‘‘फैज अहमद फैज, ट्रेड यूनियन लीडर, पीस काउंसिल मेंबर, ऐडीटर पाकिस्तान टाईम्स, पाकिस्तान के और उर्दू बोलने वाले हिंदुस्तानियों के सबसे लोकप्रिय कवि.....’’ ऐसा कहते हैं एक बयान में पॉल राबसन, हावर्ड फास्ट और अनेकानेक दूसरे......
मैं पिछले दिनों काफी मसरूफ रही। तुम्हारी राय के मुताबिक ‘युवा पाठक मोर्चा’ कायम करने की दौड़धूप करती रही। आज रात उसकी पहली मीटिंग हुई.....तकरीबन 400 लड़के-लड़कियां थे।
इफ्ती (मियां इफ्तिकारूदीन- पाकिस्तान टाईम्स के मालिक) लौट आए हैं। कल उन्होंने दफ्तर का चक्कर लगाया। बता रहे थे कि जहां भी वे गए, फैज की चर्चा जरूर हुई.... जब तुम अप्रैल (?) में आओगे, तो इस पूरी जद्दोजहद के यकीनन बहुत बड़े मतलब होंगे।
एक फ्रांसीसी अखबार भेज रही हूं...... अल्जीरिया का है। बन्ने को (कामरेड सज्जाद जहीर) को जरूर दिखाना।
तासीर की पहली बरसी है नवंबर 30 को। हर तरफ अफसुर्दगी-सी छाई है।
.....लोग दिन ब दिन भले होते जा रहे हैं और यह उम्मीद बंध रही है कि वह वक्त दूर नहींे जब समझदारी कायम हो जाएगी....


अंग्रेजी से अनुवाद: नूर जहीर