(यह कविता जब मैंने लिखी थी, तब हिंदी साहित्य में बाजार का विमर्श जोरों पर चल रहा था। इसमें जो तिलकधारी है, वह किसी जाति विशेष को ध्यान में रखकर मैंने नही लिखा था, बल्कि वह तमाम पोंगापंथी और धंधेबाज लोगों का प्रतीक है। व्यक्तिगत जीवन की मुश्किलें-अभाव अपनी जगह थे। मुझे लग रहा था कि किसी भी विचारक को संपूूर्णता में जानने-समझने का माहौल नहीं है। खासकर, विवेकानंद पर दक्षिणपंथियों से तीन साल पहले काफी बहस हो चुकी थी।
हालांकि इस कविता में काव्यात्मकता शायद नहीं है, क्योंकि जिस पत्रिका का मैं बाद में संपादक बना, उसी से साथी इरफान के हस्ताक्षर वाले पत्र के साथ यह लौट आई थी। फिर मैंने कहीं नहीं भेजा। अब भी किसी साथी की कविता जब नहीं छाप पाता और उसकी शिकायत आती है, तो यही कहता हूं कि कविता न छपी, तो आप भविष्य में संपादक जरूर बन सकते हैं। खैर, यह तो हुई मजाक की बात।
आज मार्क्स की 200 जयंती पर मुझे इस कविता की याद आई, सो इसे ब्लाॅग पर लगा रहा हूं। यह खतरा उठाते हुए कि ‘ मार्क्स का पोस्टर/ बड़ा ही खूबसूरत/ बेचता है एक तिलकधारी’ को आधार बनाकर जाति को ही विमर्श का केंद्र बनाये रखने वालों को मार्क्सवाद को गरियाने का एक और मौका मिल जाए, क्योंकि संपूर्णता में देखने की उनकी भी आदत नहीं है। खैर, मेरा मानना है कि कविता में तिलकधारी जो है वह हर जाति-समुदाय के भीतर हैं। यह जरूर है कि कुछ जातियों-समुदायों के भीतर ज्यादा है। )
चक्कर लगाता हूं
दिन-रात
इच्छाओं के बाजार में
तौलता हूं जेब
छांटता हूं
सपनों को तोड़-तोड़
फिर भी
नहीं होती कम
भूख।
क्या खरीदूं
क्या छोड़ दूं
कशमकश में
गुजरता है हर दिन।
एक सनातन प्रश्न
चिपटा रहता है साथ
दुनिया ऐसी क्यों है?
सदियों से इतने बंधे हाथ
ऐसा क्यों है?
विचार, सुंदर विचार
खोकर रह गए
दिमाग की अनंत गहराइयों में
व्यवसायी हावी रहे
विचारों के संसार में
और आम आदमी
नहीं उबर सका
उपभोक्तापन से।
जो बिकता अधिक
वही बेचते वे
संशोधन के साथ।
बिकते हैं शिखर चित्र
ऊंचे-ऊंचे दामों में
बिकते हैं विचारक
कटे-छंटे रूपों में।
मैंने तो
देखा एक अजीब सपना
मार्क्स का पोस्टर
बड़ा ही खूबसूरत
बेचता है एक तिलकधारी।
जेब टटोलती उंगलियां
शरम से हो जातीं पानी-पानी
अगर आंखें नहीं खुलती।
तमन्नाएं मारती हैं जोर
चाहिए एक पोस्टर
सूनी दीवार पे
पता है मुझे
खरीद नहीं सकता
खरीद भी लूं तो
नहीं हो सकता संतुष्ट
सौदे से
मजबूरन उठा के पेंसिल
खींच देता हूं
एक दाढ़ी वाली तस्वीर
क्या फर्क पड़ता है
छायाप्रति नहीं है तो
छायाएं तो धोखा देती हैं
मैंने कर दिया- पुनर्सृजन
और चिपका दी तस्वीर
दीवार पे।