Sunday, December 7, 2014

नए भारत का निर्माण जनता के गुणों के जरिए होगा इसका अहसास कराया छठे पटना फिल्मोत्सव ने



अभिभावकों की संवेदना को झकझोरा ‘कैद’ ने 

बच्चों के प्रति ज्यादा संवेदनशील होने की जरूरत का अहसास कराया फिल्म और फिल्मकारों ने
जनस्वास्थ्य का मुद्दा भी उठा फिल्मोत्सव में 


पटना: 7 दिसंबर 2014
हिरावल, जन संस्कृति  मंच द्वारा कालिदास रंगालय में आयोजित त्रिदिवसीय पटना फिल्मोत्सव, प्रतिरोध का सिनेमा के आखिरी दिन का पूरा एक सत्र बच्चों के नाम रहा।  जिसकी शुरुआत ज्ञान प्रकाश विवेक की कहानी ‘कैद’ पर इसी नाम से बनाई गई एक बेहद मार्मिक और हृदय को झकझोर देने वाली फिल्म से हुई। एक बच्चे की चिल्लाहट से फिल्म शुरू हुई, जो एक छत पर बने कमरे में कैद में है। फिर कहानी फ्लैश बैक में लौटती है। लड़के का नाम संजू है। वह बहुत गुस्से में रहता है। बच्चों और बड़ों पर भी हमले करता है, उन्हें काट खाता है। डाॅक्टर मेंटल स्ट्रेस का शिकार बताकर उसका इलाज करते हैं, पर वह ठीक नहीं हो पाता। उसके मां-बाप उसे ओझा गुनियों के पास ले जाते हैं। ओझा उस पर जिन्नात का साया बताता है। लेकिन जितना ही उसे रोगमुक्त करने की कोशिश की जाती है, उतना ही उसका मर्ज बढ़ता जाता है। संजू के स्कूल के एक शिक्षक को, जो कि बच्चों पर रिसर्च भी करता रहा है, पता चलता है कि संजू तेज छात्र था। गणित में भी वह अच्छा था, पर ट्यूशन पढ़ाकर कमाई करने वाले उसके गणित शिक्षक को उसकी योग्यता नागवार गुजरती थी। वे उसे डांटते थे और रोजाना झूठी सजा देकर बेंच पर खड़ा कर देते थे, उसकी काॅपी नहीं चेक करते थे। तब एक दिन उसने काॅपी फाड़कर फेंक दी थी। वह अपने सहपाठियों के साथ टूर में जाना चाहता था, पर हिंदी की शिक्षिका उसे नाराज रहती थी, उसके द्वारा माफी मांगने और आइंदा गलती न करने के वादे के बावजूद टूर पर उसे नहीं ले जाया जाता। वह लगातार उपेक्षित महसूस करता है। इसी उपेक्षा और डांट के कारण वह तनाव में रहता है और हिंसक होता जाता है। अंततः परिवार के लोग उसे छत पर एक कमरे में कैद कर देते हैं। वह लगातार चिल्लाता रहता है- खोल दो, निकाल दो। 

यह फिल्म ‘तारे जमीन पर’ से इस मायने में भिन्न है कि यहां बच्चा बीमारी से पहले से ग्रस्त नहीं है, बल्कि डांट और उपेक्षा ने उसे बीमार और विक्षिप्त-सा बना दिया है। इस फिल्म का परिवेश ‘तारे जमीन पर’ के बच्चे से अलग है। यहां एक आम निम्नमध्यवर्गीय परिवार है, जिसमें बाप को बच्चे की इलाज और नौकरी में से किसी एक को चुनना पड़ता है। अगर वह इलाज के लिए जाता है तो नौकरी प्रभावित होती है। उसकी बहन को छोड़कर सबको लगता है कि बच्चा पागल है। खैर, रिसर्चर जो संजू के स्कूल में शिक्षक हो गया है, को लगता है कि उसका गुस्सा ही इसका साक्ष्य है कि वह पागल नहीं है। वह जिंदगी में लौटना चाहता है। संजू के मनोभावों को वह ठीक से समझता है और उस पर यकीन करके उसे कैद से मुक्त करता है। इस फिल्म के संवाद लेखक ज्ञानप्रकाश विवेक और हनीफ मदार है. रिसर्चर  व शिक्षक की  भूमिका सनीफ मदार तथा संजू की भूमिका किशन ने निभाई है। खासकर किशन ने संजू की भूमिका में अविस्मरणीय अभिनय किया है।

संजय मट्टू के साथ बच्चों ने किस्सों की दुनिया की सैर की

संजय मट्टू आॅल इंडिया रेडियो में अंगे्रजी के समाचार वाचक हैं। पिछले पांच-छह साल से वे कहानियों, खासकर लोककथाओं के माध्यम से बच्चों की सृजनशीलता और कल्पनाशीलता को आवेग देने में लगे हुए हैं। आज कालिदास रंगालय में अभिनय और संवाद के जादू से लैस संजय मट्टू की किस्सागोई का बच्चों ने खूब आनंद उठाया। आज प्रेस कांफ्रेंस को संबोधित करते हुए संजय मट्टू ने कहा कि वे लोककथाओं का इस्तेमाल इसलिए करते हैं, क्योंकि वे ज्यादा सहज होती हैं। उन्होंने कहा कि बच्चों को नसमझ समझना ठीक नहीं है, उनके साथ गहरा संपर्क बहुत जरूरी है। वे क्या कहना चाहते हैं, इसे सुनना बहुत जरूरी है। 

अभिभावकों को मालिकाना रवैया छोड़ना होगा

लेखकों-फिल्मकारों-संस्कृतिकर्मियों को बच्चों को विकल्प देना होगा
आज प्रेस कांफ्रेंस में ‘कैद’ फिल्म के संवाद लेखक हनीफ मदार और अभिनेता सनीफ मदार ने कहा कि मां-बाप को बच्चों के साथ मालिकाना रिश्ता छोड़ना होगा। उन पर अपनी अतृप्त इच्छाओं को लादना बंद करना होगा। संजय मट्टू का कहना था कि टीवी का दुष्प्रभाव बच्चों पर इस कारण पड़ता है कि उन्हें दूसरा कोई विकल्प नहीं मिल रहा है। बच्चों के मानसिकता को समझकर ही कोई विकल्प भी देना होगा। सनीफ मदार ने कहा कि बच्चों में अंधविश्वास, अवतारवाद, बाजारवाद और सांप्रदायिकता का जो कूड़ा परोसा जा रहा है, उसके खिलाफ ज्यादा संगठित तरीके से काम करना होगा। उन्होंने कहा कि दृढ़ इच्छा शक्ति हो तो कुछ भी मुश्किल नहीं है। उन्होंने अपनी फिल्म ‘कैद’ को मिले जनसहयोग का उदाहरण देते हुए कहा कि अब तकनीक भी सस्ता हो गया है, अब जनता का सिनेमा बनाना ज्यादा संभव है। उन्होंने बताया कि उनकी फिल्म मथुरा के स्कूलों में दिखाई जा रही है, वे गांवों में भी इसे दिखा रहे हैं। प्रतिरोध का सिनेमा फिल्मोत्सवों में भी लोग सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए इसका डीवीडी खरीद रहे हैं।

बच्चों ने अपनी कल्पनाओं में रंग भरा

इस बार पटना फिल्मोत्सव के प्रेक्षागृह के बाहर परिसर में पेंटिंग कार्यशाला आयोेजित हुई, जिसमें बच्चों ने अपनी कल्पनाओं को कैनवस पर उतारा। उन्हें किसी विषय में नहीं बांधा गया था। पेड़-पौधे, मछली, सूरज, नदी से लेकर कई तरह की आकृतियां उन्होंने बनाई, जिनको बाद में यहां प्रदर्शित भी किया गया। कार्यशाला का उद्घाटन कवयित्री प्रतिभा ने किया। सुमन सिन्हा ने प्रतिभागी बच्चों को प्रमाणपत्र दिया। इस मौके पर डाॅ. अमूल्या भी मौजूद थे। 


वैकल्पिक जनस्वास्थ्य की राह दिखाई अजय टीजी की फिल्म ‘पहली आवाज’ ने

अजय टी जी की दस्तावेजी फिल्म ‘पहली आवाज’ को देखना और उसके निष्कर्षों को समझना स्वास्थ्य में ठोस विकल्प का रास्ता सुझाता लगा। भिलाई में रहने वाले अजय पूरावक्ती दस्तावेजी फिल्मकार हैं और कामगारों के सवालों को वे लगातार अपनी फिल्मों का विषय बनाते आये हैं। पहली आवाज या फस्र्ट क्राई छतीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के नायक शहीद शंकर गुहा नियोगी द्वारा शुरू किए गए शहीद अस्पताल की कहानी है। इसकी कहानी हमेंपूंजीवादी समाज में स्वास्थ्य के ढांचे के बरक्स समतामूलक समाज में होने वाली स्वास्थ संबंधी चिंताओं को सहज समझाती है। छत्तीसगढ़ के खनन इलाके दल्ली राजहरा में शुरू हुआ शहीद अस्पताल अपने लोगों को बचाने की जरूरत से शुरू हुआ। इसलिए इसके निर्माण में भी इससे लाभान्वित होने वाले लोगों का श्रम लगा था। फिल्म में अस्पताल को देखते हुए बड़े शहरों में निर्मित हो रहे फाइव स्टार अस्पतालों से बड़ा फर्क नजर आया। यह फर्क दल्ली राजहरा और बड़े फाइव स्टार की चमक और उसके अर्थ का था। शहीद अस्पताल में चमकते प्राइवेट वार्ड नहीं हैं, न ही उसकी बिल्डिंग का बाहरी हिस्सा दमकता है। लेकिन यहां भी इलाज के लिए जरूरी उपकरण और उससे भी ज्यादा संत जैसे डाॅक्टरों और सहायकों की एक बड़ी फौज नज़र आती है। सबसे खास बात जो है वो यह कि यहां हर गरीब का बिना किसी भेदभाव के इलाज हो सकता है। यह शायद देश का एकमात्र अस्पताल है जिसमे काम करने वाले सहायकों और डाक्टरों की तनख्वाह में मामूली अंतर है। दरअसल यह अस्पताल अपने मरीज की लूट पर नहीं बल्कि उसका इलाज कर उसे स्वस्थ कर घर भेजने के सिद्धांत पर निर्मित हुआ है। फिल्म देखते हुए दल्ली राजहरा के इस अनोखे अस्पताल की दुश्वारियों का भी पता चला। हर चीज को मुनाफे में देखने के आदी लोगों के सामने यह एक नसीहत के रूप में सामने खड़ा दिखाई देता है।
अजय टीजी जनता का सिनेमा बनाते रहे हैं। उन पर छत्तीसगढ़ सरकार के एक दमनकारी कानून के तहत माओवादी करार कर जेल में बंद कर दिया गया था, जिसके खिलाफ पूरे देश के बुद्धिजीवियों और साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों ने प्रतिवाद किया था। फिल्म के प्रदर्शन के बाद इसके निर्देशक अजय टीजी से दर्शकों का स्वास्थ्य के मुद्दे और फिल्म निर्माण की प्रक्रिया पर संवाद हुआ। अजय टीजी ने कहा कि जनता का सिनेमा कम खर्चे में बनाया जा सकता है। भोजपुरी में भी ऐसी फिल्मों का निर्माण संभव है। 

इंसेफलाइटिस के निदान के लिए एक सिनेमाई पहल

गोरखपुर फिल्म सोसाइटी की ओर से बनाई गई फिल्म ‘इंसेफलाइटिस: एक ट्रेजडी’ ने भी स्वास्थ्य के सवाल को ही उठाया। इसका परिचय कराते हुए गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के संयोजक मनोज सिंह ने बताया कि यह बीमारी पूर्वांचल में काफी गंभीर रूप अख्तियार कर चुकी है। पिछले साढ़े तीन दशक में एक लाख से अधिक बच्चे असमय काल कवलित हो चुके हैं। इस बीच कितनी सरकारें आईं गईं लेकिन आज तक इस बीमारी के निदान के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया है। इस आपराधिक उपेक्षा के खिलाफ जनांदोलन संगठित करने की मंशा से भी यह फिल्म बनाई गई है। 

फर्जी गिरफ्तारियों का विरोध

‘फैब्रिकेटेड’ केपी ससी निदेर्शित मलयालम फिल्म थी, जिसमें फर्जी गिरफ्तारियों के सवाल को उठाया गया। 

तमाम खतरों के बावजूद कला-संगीत की यात्रा जारी रहेगी

'हाफ मून' कुर्दिश भाषा में 2006 में बनी इरानियन-कुर्दिश लेखक बहमन गोबादी निर्देशित फिल्म हैं। ईरान, आस्ट्रिया, इराक और फ्रांस का संयुक्त प्रस्तुति है। अंतराष्र्टीय स्तर पर इस फिल्म को काफी पुरस्कार मिले हैं। ममो नाम का एक बुजुर्ग कुर्दिश संगीतकार यह फैसला करता है कि वह अपने एक अंतिम संगीत प्रस्तुति इराकी कुर्दिस्तान में देगा। तो गांव के बूढ़े बुजर्ग लोग उसे चेतावनी देती हैं कि अगर आधा चांद पूरा हो गया तो कोई बड़ी दुघर्टना घट सकती है। लेकिन वह अपने बेटे के साथ लंबी और खतरनाक यात्रा पर निकल पड़ता है। उस यात्रा में हेसो नाम की एक गायिका को भी साथ ले लेता है जो एक ऐसे गांव में रहती है जहां लगभग डेढ़ हजार गायिकाएं विस्थापन में जी रही हैं। लेकिन हेसो के पास इराक जाने का कोई वैध कागजात नहीें होेने के कारण इस यात्रा की जटिलता और बढ़ जाती है। लेकिन तमाम बाधाओं के बावजूद ममो अपने फैसले पर कायम है कि वह यात्रा पूरी करेगा और अपनी सांगीतिक प्रस्तुति देगा। 

नए भारत के निर्माण के लिए प्रेरित किया फिल्मोत्सव ने: रामजी राय

रामजी राय ने दिया फिल्मोत्सव का समापन वक्तव्य
आखिर में समापन सत्र को संबोधित करते हुए जसम के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और समकालीन जनमत के प्रधान संपादक रामजी राय ने कहा कि जो बातें, जो फिल्मों और जो डाक्यूमेंट्री फिल्मोत्सव में दिखाई गईं, वे हमारे मानसिक धरातल को विस्तार देती हैं। इनसे यह पता चला है कि इस देश और समाज को बेहतर बनाने के लिए कितनी तरह से लोग लगे हुए हैं। चाहे दंगे का सवाल हो या शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई का मसला, इनके जरिए ये फ़िल्में एक नए देश को  बनाने की बात करती है। ये यह दर्शाती हैं कि भविष्य के भारत का निर्माण जनता के गुणों के जरिए ही होगा। रामजी राय ने कहा कि बच्चों ने अपनी पेंटिंग में रंगों और सृजन की जो छटा बिखेरी उसने हमें आह्लादित तो किया ही भविष्य के लिए आश्वस्त भी किया। उनके सृजन में रंगों का वैभव था, रंग बातें कर रहे थे, और उन बातों से खुश्बू आ रही थी। यह सारा सृजन हमें हमें एक नए देश बनाने के लिए कृतसंकल्प होने को बाध्य कर रहा था, यही प्रतिरोध के सिनेमा का मकसद है। 

दर्शक का सम्मान

पटना फिल्मोत्सव की ओर से इस बार परम शिवम और उनके परिवार को सबसे प्रतिबद्ध दर्शक के रूप में सम्मानित किया गया। वे अपने परिवार के साथ पहले दिन से आखिरी दिन तक लगातार मौजूद थे। 

चित्र प्रदर्शनी और बुक स्टाॅल

फिल्मोत्सव में तीनों दिन जैनुल आबेदीन की याद में उनकी चित्र प्रदर्शनी ‘अकाल की कला’ और कविता पोस्टर भी प्रदर्शित किए गए। कालीदास रंगालय का परिसर भी कलात्मक तौर पर सजाया गया था। परिसर में किताबों और सीडी का स्टाॅल भी लगाया गया था। 
यह फिल्मोत्सव महान गायिका बेगम अख्तर, क्रांतिकारी कवि नबारुण भट्टाचार्य,  विख्यात रंगकर्मी जोहरा सहगल, जन-चित्रकार जैनुल आबेदीन और कथाकार मधुकर सिंह की स्मृति को समर्पित था। इसमें हाल में गुजरे अभिनेता देवेन वर्मा, महान नृत्यांगना सितारा देवी और बिहार के फिल्म निर्देशक गिरीश रंजन को भी श्रद्धांजलि दी गयी।  फिल्मोत्सव की केन्द्रीय थीम 'बोल की लैब आज़ाद हैं तेरे'  भारतीय उपमहाद्वीप के मशहूर शायर फैज़ अहमद फैज़ की गज़ल से ली गई थी।  फिल्मोत्सव ने देश की अर्थनीति, राजनीति, आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक समुदायों की जिंदगी की मुश्किलों, अन्धविश्वास, महिलाओं और बच्चों के अधिकार और स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे बुनियादी मुद्दों के प्रति संवेदित किया।

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