Thursday, December 4, 2014

अपने अपने प्रो. लक्ष्मीकांत सिनहा



प्रो. लक्ष्मीकांत सिनहा की स्मृति में श्रद्धांजलि सभा

प्रो. लक्ष्मीकांत सिनहा 
20 नवंबर को मैं दिल्ली में था तभी आरा से कवि आलोचक जितेन्द्र कुमार ने फोन ने सूचना दी कि 19 नवंबर को प्रो. लक्ष्मीकांत सिनहा का निधन हो गया। वे सिन्हा नहीं, सिनहा लिखते थे। हमलोग जब एम.ए. में आये उसके पहले हिंदी के वही विभागाध्यक्ष थे। कार्यक्रमों के सिलसिले में उनसे मुलाकात होती थी। उनके रिटायर होने के बाद हम यानी मैं और सुमन सिंह ने एम.ए. में दाखिला लिया था। इस कारण हमारे साथ गुरु के बजाए एक स्नेहिल अभिभावक का ही उनका व्यवहार रहता था, काफी मित्रवत। उनका आलोचनात्मक विवेक काफी प्रखर था। हमारी पीढ़ी के वैचारिक मकसद और उलझनों के प्रति उनका रुख बहुत संवेदनशील रहता था। यथार्थ पर उनकी गहरी पकड़ थी। अगर वे जमकर साहित्य सृजन में लगे होते तो शायद बहुत सारी महत्वपूर्ण रचनाएँ दे गए होते। यह मैं उनके उपन्यास ‘उभरी परतें’ के आधार पर कहता रहा हूं। इस उपन्यास पर कथाकार मधुकर सिंह ने ‘इस बार’ के लिए लिखवाया था। मैंने उस उपन्यास और उसके नायक की सीमाओं की ओर संकेत किया था, जिसकी उन्होंने तारीफ की थी। ऐसी तारीफों ने ही हमें किसी रचना पर अपनी बेबाक आलोचनात्मक राय देने का हौसला दिया। इस उपन्यास पर और भी समीक्षाएं और आलोचनाएं लिखी गयी थीं, जिन्हें वे एक साथ प्रकाशित करना चाहते थे। उनके उपन्यास का नायक मुझे इस कारण भी याद रहता है कि वह रोमांटिक भी है और नियतिवादी भी। दिल्ली जाने के बाद से एकाध बार ही उनसे मुलाकात हो पाई थी। 

जितेन्द्र जी ने ही सूचना दी कि 3 दिसंबर को स्मृति सभा है। वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय के सभागार में उनकी स्मृति में आयोजित श्रद्धांजलि सभा में गुरुजनों और साहित्यकार-बुद्धिजीवी मित्रों के अलावा छात्र-छात्राएं भी मौजूद थे। अध्यक्षमंडल में डाॅ. दुर्गविजय सिंह, डाॅ. दीनानाथ सिंह, प्रो. पारसनाथ सिंह, प्रतिकुलपति लीलाचंद साहा और प्रो. अयोध्या प्रसाद मंच पर मौजूद थे। 

रामनिहाल गुंजन 
जब मैं स्मृति सभा में पहुंचा तो जसम के राज्य उपाध्यक्ष वरिष्ठ आलोचक रामनिहाल गुंजन बोल रहे थे। उन्होंने प्रो. लक्ष्मीकांत सिनहा के उपन्यास ‘उभरी परतें’ की विस्तार से चर्चा करते हुए कहा कि उन पर प्रेमचंद का गहरा प्रभाव था। 
प्रो. वीर बहादुर सिंह ने कहा कि उनका व्यक्तित्व आडंबरहीन था। उन्होंने उनके उपन्यास ‘उभरी परतें’ को महत्वपूर्ण उपन्यास बताया। आलोचक प्रो. रवीद्रनाथ राय ने आरा की साहित्यिक बिरादरी के साथ उनकी घनिष्ठता की चर्चा की। 
डाॅ. रवींद्र कुमार और डाॅ. परशुराम सिंह ने उनके मिलनसार और सहयोगी रवैये को याद किया.प्रो. अरुण कुमार सिन्हा ने कहा कि प्रो. लक्ष्मीकांत सिनहा के विचारों और कृतियों पर विचार करना आज की जरूरहै। कवि जितेंद्र कुमार ने याद किया कि लालू यादव के शासनकाल में अपहरणकर्ताओं के एक गिरोह ने प्रो. लक्ष्मीकांत सिनहा के बेटे सुजीत की हत्या कर दी थी, क्योंकि उन्होंने उनका प्रतिरोध किया था। सुजीत बैंक के मैनेजर थे। अपहरणकर्ताओं ने उनके बेटे अपूर्व का अपहरण कर लिया था। बेटे की हत्या और पोते के अपहरण से प्रो. सिनहा को गहरा आघात पहुंचा था। जब उनके दूसरे बेटे समीर, जो उस समय आसाम में डीएम थे, ने जब गर्वनर से आग्रह किया और तब लालू यादव ने हस्तक्षेप किया, तब उनके पोते को अपहरणकर्ताओं ने छोड़ा। जितेंद्र कुमार ने कहा कि प्रो. सिनहा का जीवन बेहद सादगीपूर्ण था। उनका व्यवहार बेहद आत्मीय था। 


डाॅ. नंदजी दूबे ने कहा कि वे भी उनके शिष्य थे। उन दिनों किसी छात्र का शिक्षक से सान्निध्य हो, ऐसा दुर्लभ था। उनका व्यक्तित्व एक विरोधाभासी व्यक्तित्व था। कक्षा में वे बहुत ही सख्त और अनुशासन प्रिय शिक्षक की भूमिका में रहते थे। कक्षा में घड़ी देखने पर पड़ी डांट को याद करते हुए उन्होंने कहा कि उनकी कक्षा में कोई समय नहीं देख सकता था। कक्षा के बाहर वे कभी हिंदी में नहीं, बल्कि ठेठ भोजपुरी में बोलते थे। डाॅ. नंदजी दूबे ने कहा कि प्रो. लक्ष्मीकांत सिनहा सारे मतवादों को जानते थे। इसी कारण उनके उपन्यास को पढ़ते हुए सबको लगता है कि वे उसी के विचारधारा के हैं। उन्होंने उनको रामचरित मानस की समन्यवादी परंपरा से जोड़ते हुए तंज किया कि आजकल प्रगतिशीलता का दायरा बढ़ गया है, प्रो. लक्ष्मीकांत सिनहा तथाकथित वामपंथी भी थे। 
प्रो. अलखदेव सिंह ने कहा कि खान-पान, पहनावे से लक्ष्मीकांत सिनहा इंडीजनस व्यक्ति थे। वे कम्युनिस्टों की संगत में भी थे। 

अध्यक्षमंडल के पहले मुझे भी बोलने का मौका मिला। मैंने प्रो. लक्ष्मीकांत सिनहा के साथ शायर फराज नजर चांद, कथाकार मधुकर सिंह और कवयित्री उर्मिला कौल को भी याद किया। इनमें दो ही घोषित कम्युनिस्ट थे, लेकिन इन सबका हमें एक समान स्नेह मिला। जिनके होने से आरा हमारा अपना शहर बनता था, उनलोगों में से ये सब थे। निदा फाजली का एक शेर है- देर न करना घर जाने में/ वरना घर खो जाते हैं। दिल्ली से वापसी के बाद ऐसा ही लग रहा है जैसे कई घर खो गए हैं। वे सिर्फ व्यक्ति ही नहीं, हमारे लिए एक घर भी थे। प्रो. लक्ष्मीकांत सिनहा कम्युनिस्ट थे या नहीं, इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने अपने उपन्यास ‘उभरी परतें’ में बहुआयामी यथार्थ को पात्रगत और परिवेशगत वैविध्य के साथ दर्ज किया है। जातीय, लैंगिक और वर्गीय विभाजनों की जो वास्तविकता है, उस पर उनकी नजर थी। आज जब साहित्य, राजनीति और अर्थनीति हर क्षेत्र में वर्ग वैषम्य पर पर्दा डालने की कोशिशें की जा रही हैं, तब इस उपन्यास में आई वास्तविकता और नायक का अंतर्द्वंद्व नए सिरे से इसको प्रासंगिक बनाते हैं। 

उपन्यास के 268वें पृष्ठ को देखा जा सकता है, जहां नायक श्रीराम तिवारी जो बाद में स्वामी चिदानंद बन जाते हैं, को यह भान होता है कि ‘उनके संस्थान द्वारा जो विद्यालय-महाविद्यालय चलाए जाते हैं, उनमें केवल पैसों वालों की संतानें शिक्षा लेती हैं।....यह सारा धन धनियों का है और वे ही इसे भोग रहे हैं। हम तुम सभी इसके बड़भोगी हैं और हिस्सेदार हैं।’ 

असल में उपन्यास के अंत में स्वामी चिदानंद को यह भी लगता है कि ऋषि-मुनियों ने बहुत सोच-समझकर जो धार्मिक व्यवस्था की थी, उसकी साख सूख चली है। अब अमन-चैन के लिए कोई दूसरा मार्ग तलाशना होगा। लेकिन वे केंद्रीय मंत्रियों, सांसदों और बुद्धिजीवियों से अपील के सिवा कुछ कर नहीं पाते। देश से लंदन वापस लौटते हुए वे सोचते हैं कि उन्हें उनका वर्तमान नहीं चाहिए। वे पुनः भूत बन जाना चाहते हैं और देश की मिट्टी में दुबारा जन्म चाहते हैं। 

यह सब मैंने ‘उभरी परतें’ पर अपनी समीक्षा में चिह्नित किया था। इसलिए मैंने कहा कि आज के दौर में स्वामी चिदानंद जैसी वेशभूषा वालों की भारी तादाद देश की सत्ता में दिख रही है, पर उनके यहां आदर्शों का सिर्फ नाटक है, जिससे इस देश की जनता के बुनियादी मुद्दों और सवालों का टकराव होना तय है।

डा. दीनानाथ सिंह 
अध्यक्षमंडल की ओर से बोलते हुए वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष डाॅ. दीनानाथ सिंह ने कहा कि उनका प्रो. सिनहा के साथ पचास वर्षों का संबंध था। हर किसी का एक निजी जीवन होता है, जो वह शब्दों में अभिव्यक्ति के जरिए शेयर करता है या किसी मित्र से साझा करता है। उन्होंने कहा कि एक मित्र होने के नाते वे उनके अंतरंग जीवन से परिचित थे। लक्ष्मी बाबू से उन्होंने बहुत कुछ सीखा है।

प्रो. अयोध्या प्रसाद उपाध्याय 
वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, हिंदी विभाग के वर्तमान अध्यक्ष प्रो. अयोध्या प्रसाद उपाध्याय ने याद किया कि प्रो. सिनहा ऐसे शिक्षक थे जिन्हें अपने शिष्यों की बहुत चिंता रहती थी। उन्होंने उन्हें यह भी सिखाया कि शिक्षकों को क्या करना चाहिए। 

वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय के प्रति कुलपति लीलाचंद साहा ने कहा कि विश्वविद्यालय को हर साल प्रो. सिनहा की स्मृति मनानी चााहिए। उनकी अप्रकाशित रचनाओं को प्रकाशित करने का भी उन्होंने सुझाव दिया। उन्होंने ‘उभरी परतें’ उपन्यास की पंक्तियों को दुहराया- रोजी रोटी गरीबों को नहीं मिल रहा/ सोचो देश कहां जा रहा है? 

प्रो. दुर्गविजय सिंह 
जयप्रकाश नारायण विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति और महाराजा काॅलेज, हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. दुर्गविजय सिंह ने कि स्मृति सभा में जो चर्चाएं हुईं, उससे प्रो. लक्ष्मीकांत सिनहा के महाकाव्यात्मक व्यक्तित्व का आभास होता है। उन्होंने प्रस्ताव दिया कि प्रो. सिन्हा की स्मृति व्याख्यान आयोजित किए जाएं और उन्हें प्रकाशित भी किया जाए।

प्रो. पारसनाथ सिंह 
धन्यवाद ज्ञापन करते हुए जैन काॅलेज के पूर्व प्राचार्य प्रो. पारसनाथ सिंह ने कहा कि तीन तरह के व्यक्ति इस दुनिया में होते हैं, एक जो बड़े घर में जन्म लेते हैं, दूसरे जिन पर बड़प्पन थोप दिया जाता है और तीसरे जो अपनी कर्मठता के बल पर अपना व्यक्तित्व बनाते हैं। प्रो. लक्ष्मीकांत सिनहा तीसरे तरह के व्यक्ति थे। उनके विचार-व्यवहार का कोई विरोधी न था। गुरुदेव अजातशत्रु थे। 

स्मृति सभा में जनपथ संपादक अनंत कुमार सिंह, कथाकार मिथिलेश्वर, केसी दूबे और डाॅ. वीरेंद्र कुमार सिंह ने भी प्रो. सिन्हा से जुड़ी स्मृतियों को साझा किया। संचालन डाॅ. रणविजय ने किया। डाॅ. राघवेंद्र प्रसाद सिंह की स्मृति सभा को आयोजित करने में महत्वपूर्ण भूमिका थी।
मुझे अच्छा लगा कि इस स्मृति सभा में का. राजू राम और का. रचना के साथ आइसा से जुड़े छात्र भी मौजूद थे।


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