
मंटो 1948 के शुरू में हिंदुस्तान (मुंबई) छोड़कर पाकिस्तान (लाहौर) चले गये, और वहीं 18 जनवरी 1955 में उनका इंतक़ाल हुआ। तब उनकी उम्र सिर्फ़ 42 साल नौ महीने थी। फ़िल्म ‘मंटो’ मानीख़ेज़ और मर्मस्पर्शी है, दर्शक को पूरी तरह बांधे रखती है, और गहरी समझदारी व संवेदनशीलता से बनायी गयी है। यह मंटो के जीवन व विचार को, उनकी जद्दोजहद को, उनके अंतर्द्वंद्व और अंतर्विरोध को शिद्दत से उभारने की कोशिश करती है। इस कोशिश में फ़िल्म काफ़ी हद तक क़ामयाब है। ‘फायर’ फ़िल्म की अभिनेत्री नंदिता दास से, जो अब निर्देशक की भूमिका में हैं, यही उम्मीद थी।
फ़िल्म से यह भी पता चलता है, और जैसा कि उर्दू-हिंदी साहित्यिक जगत से जुड़े लोगों को मालूम है, कि प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन व प्रगतिशील लेखक संघ (पीडब्लूए) से मंटो का रिश्ता तनावपूर्ण था। प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े लेखकों के समूह ने—हिंदुस्तान में व बाद में पाकिस्तान में भी—मंटो को ‘प्रतिक्रियावादी व अश्लील लेखक’ कहना, कड़ी आलोचना करना और मंटो से दूरी रखना शुरू कर दिया था। इस बात ने मंटो को बहुत चोट पहुंचायी थी। विडंबना यह है कि पाकिस्तान की सरकार मंटो को ‘अवांछित प्रगतिशील’ के रूप में देखती थी।
मंटो पर, अपनी कहानियों के माध्यम से, अश्लीलता फैलाने के आरोप में तीन मुक़दमे अविभाजित हिंदुस्तान में चले और इतने ही मुक़दमे पाकिस्तान में भी चले, जिनमें से एक में उन्हें जेल भी हुई थी। इन मुक़दमों में उन्हें प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से कोई मदद नहीं मिली। पाकिस्तान में जब मंटो की कहानी ‘ठंडा गोश्त’ पर अश्लीलता-संबंधी मुक़दमा चला, तब अदालत में मंटो की तरफ़ से गवाही देने के लिए कवि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ हाज़िर हुए थे। उन्होंने अपनी गवाही में यह तो कहा कि ‘ठंडा गोश्त’ अश्लील नहीं है, लेकिन साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि कहानी साहित्य की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। अब यह कहना क्यों ज़रूरी था? शायद ऐसा करके फ़ैज़ मंटो से अपनी दूरी दिखाना चाह रहे होंगे, जो उन दिनों प्रगतिशील लेखकों-कवियों के बीच का चलन था। फ़ैज़ की यह टिप्पणी मंटो को बहुत दुखी, बहुत बेचैन कर गयी, क्योंकि इसका मतलब था, मंटो को साहित्य की तमीज़ नहीं है। फ़िल्म में मंटो कहते हैं कि फ़ैज़ ने अगर मेरी इस कहानी को अश्लील कह दिया होता तो मुझे इतनी तकलीफ़ न होती। 1950 के आसपास लिखी गयी कहानी ‘ठंडा गोश्त’ समय बीतने के साथ-साथ ज़्यादा-से-ज़्यादा पढ़ी व सराही गयी है और इसे मनुष्य की अंतरात्मा को झकझोर देने वाली कहानी के रूप में देखा-समझा गया है।
पाकिस्तान में प्रकाशित अपने एक कहानी संग्रह की भूमिका में सादत हसन मंटो ने लिखा थाः ‘आप मुझे एक कहानीकार के रूप में जानते हैं और इस देश की अदालतें मुझे एक अश्लील लेखक के रूप में जानती हैं। आप इसे मेरी कल्पना कह सकते हैं, लेकिन मेरे लिए यह कड़वी सच्चाई है कि मैं पाकिस्तान नामक इस देश में, जिसे मैं बेहद प्यार करता हूं, अपने लिए जगह पाने में नाकाम रहा हूं। इसीलिए मैं हमेशा बेचैन रहता हूं। इसी वजह से कभी मैं पागलख़ाने में पाया जाता हूं और कभी अस्पताल में।’
फ़िल्म ‘मंटो’ देखकर कुछ सवाल दिमाग़ में कौंधते हैं। मंटो अगर ज़िंदा होते, तो आज के हिंदुस्तान को देखकर क्या सोचते? वह किस तरह की कहानियां लिखते? क्या मंटो आज भी प्रासंगिक हैं? जब मुसलमानों को खुलेआम, सरकार की सरपरस्ती में, वीडियो फ़िल्में बनाकर लिंच (पीट-पीट कर मार डालना) किया जा रहा हो, जब मुसलमानों के हत्यारों को सार्वजनिक तौर पर फूलमालाएं पहनाकर केंद्रीय मंत्री स्वागत कर रहे हों, तब मंटो अपने लिए वाजिब जगह कहां तलाशते? घर वापसी-लव जिहाद-गाय आतंकवाद के शोर और भगवावादी विमर्श में मंटो के बेचैन कर देनेवाले तीखे सवाल सुनायी देते? क्या मंटो की हत्या न कर दी जाती, जैसे अन्य लेखकों व बुद्धिजीवियों की की गयी?
नंदिता दास कहती हैं कि सादत हसन मंटो आज भी प्रासंगिक हैं, क्योंकि वह हमें विभाजित करनेवाली धार्मिक और राष्ट्रीय पहचान की सीमा को पार कर गये हैं। मंटो को किसी धार्मिक या राष्ट्रीय पहचान में बांध कर नहीं रखा जा सकता। फ़िल्म ‘मंटो’ बताती है कि मंटो की प्रासंगिकता बनी रहेगी—हिंदुस्तान में भी, पाकिस्तान में भी। मंटो हमारे अपने हैं।
लखनऊ : 30.09.2018, इतवार
Tel: 09335778466
जनसंदेश टाइम्स से साभार
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