Tuesday, October 2, 2018

कुबेर दत्त : एक हरफनमौला रचनाकार


एक गुलाम शहर में आजाद सपने की तरह...

(स्मृति 
दिवस पर विशेष)

सुधीर सुमन


मीडियाकर्मी, कवि-संस्मरणकार और चित्रकार कुबेर दत्त की बड़ी खासियत यह है कि विविध कलाएं और साहित्य की विविध विधाएं उनकी रचनाओं और कलाकृतियों में अत्यंत सहजता से परस्पर घुलती-मिलती प्रतीत होती हैं। 

मुजफ्फरनगर के बिटावदा गांव में 1949 को कुबेर दत्त का जन्म हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा मुजफ्फरनगर और गांव में हुई। उनके शिक्षक पिता आर.सी.सरस संस्कृत के विद्वान थे और हिंदी-फारसी के अच्छे कवि थे। जब उनका तबादला पूना हुआ, तो कुुबेर दत्त भी उनके साथ गए। पूना से गांव लौटे, तो पास के बुढ़ाना कस्बे के इंटर काॅलेज में दाखिला लिया। बी.ए. साहिबाबाद के लाजपतराय कालेज और एम.ए. गाजियाबाद के महानंद मिशन काॅलेज से किया। इसके बाद भारतीय विद्या भवन पत्रकारिता में डिप्लोमा के बाद उन्होंने कुछ अखबारों में छिटपुट लिखना शुरू किया। 26 अक्टूबर, 1973 को दूरदर्शन में प्रोड्यूसर के बतौर उनकी नियुक्ति हुई। 2008 में अपनी सेवानिवृत्ति तक सहायक केंद्र निदेशक, एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर और चीफ प्रोड्यूसर के पदों पर काम किया। सेवानिवृति के बाद डीडी भारती के सलाहकार रहे। 

कुबेर दत्त दूरदर्शन के विलक्षण कार्यक्रम निर्माता और प्रसारक थे। 1976 में दूरदर्शन-प्रोड्यूसर के रूप में एफटीआईआई, पुणे में ट्रेनिंग लेते वक्त उन्होंने ए.प्रताप की कहानी ‘सीलन’ पर फीचर वीडियो और मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ पर फिल्में बनाईं थीं। उन्होंने दूरदर्शन के माध्यम से न केवल प्रेमचंद, प्रसाद, निराला, महादेवी, पंत, हरिवंश राय बच्चन, अज्ञेय, नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर, रामविलास शर्मा, केदारनाथ अग्रवाल, भवानी प्रसाद मिश्र, अमृत राय, हंसराज रहबर, कमला देवी चटोपाध्याय, भीष्म साहनी, पद्मा सचदेव, इस्मत चुगताई, महाश्वेता देवी, मार्कंडेय, स्वदेश दीपक, कुमार विकल, रामकुमार कृषक, मुज्तबा हुसैन और तसलीमा नसरीन सरीखे भारतीय उपमहाद्वीप के सैकड़ों साहित्यकारों के जीवन और साहित्य से परिचित कराया, बल्कि खलील जिब्रान, तोल्सतोय, चेखव, लू-शून, ज्यां पाल सात्र्र, एडवर्ड सईद, नेल्सन मंडेला, देरिदा, नोम चोमस्की आदि प्रमुख साहित्यकारों, दार्शनिकों, विचारकों और नेताओं के विचारों, कृतियों और जीवन से भी अवगत कराया। ऋत्विक घटक, नेत्रसिंह रावत, नेमीचंद्र जैन, सफदर हाशमी जैसे फिल्मकार और रंगकर्मियों; रजा, रेरिख, जे. स्वामीनाथन, विवान सुंदरम, गुलाम रसूल संतोष, हरीप्रकाश त्यागी जैसे चित्रकारों और मास्टर फिदा हुुसैन, हरि प्रसाद चैरसिया, उस्ताद अली अकबर खां जैसे संगीतकारों पर भी उन्होंने कार्यक्रम बनाए। पिकासो की पेंटिंग पर सत्तर कड़ियों का एक यादगार धारावाहिक उन्होंने बनाया। 1980 में उन्होंने किशोरी दास वाजपेयी पर दो खंडों में एक शोधपरक वृत्तचित्र बनाया और उनके योगदान पर एक लंबा लेख भी लिखा, जिसका शीर्षक था- अभिनव पाणिनी किशोरी दास वाजपेयी। उसी वर्ष प्रेमचंद की सौवीं जयंती पर उनके गांव लमही जाकर एक यादगार कार्यक्रम बनाया। उन्होंने लगभग चार दशक की अनेक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक गतिविधियों और सक्रियताओं  को दर्ज किया। यह अपने आप में बेमिसाल दस्तावेजीकरण है। 
कुबेर दत्त ने 25 वर्षों तक साहित्यिक ‘कार्यक्रम’ पत्रिका का निर्देशन किया। 12 वर्षों तक श्रोताओं के पत्रोत्तर का कार्यक्रम ‘आप और हम’ पेश किया। आईना, कला परिक्रमा, पहल, जनवाणी, सरस्वती, फलक, सृजन, किताब की दुनिया आदि कार्यक्रमों के जरिए उन्होंने अपने समय के काफी महत्वपूर्ण प्रसंगों, संदर्भों और बहसों को दर्ज किया। नई सदी के शुरुआत में तो एक साल उन्होंने हर दिवस के अनुरूप एक प्रोग्राम तैयार किया।

कुबेर दत्त दूरदर्शन के एक बेहद जनप्रिय कार्यक्रम ‘जनवाणी’ के प्रोड्यूसर थे। इस कार्यक्रम में किसी एक मंत्री से जनता सवाल पूछती थी। रिकार्डिंग के दौरान मंत्री की सहायता के लिए संबंधित मंत्रालय का कोई अधिकारी मौजूद नहीं होता था और न ही इसकी इजाजत थी कि संपादन के दौरान मंत्री का कोई सहायक या मंत्रालय का अधिकारी मौजूद रहेगा। जिस मंत्री पर कार्यक्रम तैयार होता था, उसकी दूरदर्शन अग्रिम पब्लिसिटी करता था। जाहिर है अक्षम मंत्रियों को एक्सपोज होना पड़ा। इस कारण कुबेर दत्त की छवि को धूमिल करने की साजिश की गई। वे दो-ढाई वर्ष अनेक तरह की यातनाओं से गुजरे। सस्पेंशन, तबादला, हार्ट अटैक, मां की मृत्यु, डिपार्टमेंटल इंक्वायरी, अर्थ कष्ट आदि का सामना किए। हालांकि हर जांच में वे पाक-साफ निकले। उनकी जीवन संगिनी प्रसिद्ध नृत्य निर्देशक और दूरदर्शन अर्काइव्स की पूर्व निदेशक कमलिनी दत्त के अनुुसार, ‘‘वे इस संबंध में स्पष्ट विचार रखते थे कि कार्यक्रम दर्शकों के लिए बनता है, सरकार या अधिकारियों के लिए नहीं।’’ 

कैमरे पर लिखी गई एक अप्रकाशित कविता में कुबेर दत्त ने यह कहा है कि एक दिन कैमरा कविताएं भी लिखेगा। वे मूलतः अपने को कवि मानते थे। कविताएं वे छात्र जीवन से ही लिखने लगे थे, लेकिन उनका पहला कविता संग्रह ‘काल काल आपात’ 1994 में प्रकाशित हुआ। काॅलेज के दिनों में बाबा नागार्जुन ने उनकी कविताओं पर टिप्पणी करते हुए कहा कि ‘इनमें नाट्य तत्व’ खूब है। 1970-71 में लिखी गई उनकी लंबी कविता ‘अंधकूप’ काफी चर्चित रही, जिसका एक अंश रमेश बक्षी ने ‘आवेश 72’ में प्रकाशित किया। इसी वर्ष इस कविता के एक अंश पर दिल्ली दूरदर्शन की प्रोड्यूसर कीर्ति जैन ने एक फिल्म बनाई। ‘काल काल आपात’, ‘कविता की रंगशाला’, ‘केरल प्रवास’, ‘धरती ने कहा फिर’, ‘अंतिम शीर्षक’, ‘इन्हीं शब्दों में’ और ‘शुचिते’ नामक उनके कविता संग्रहों में नेरूदा, बे्रख्त, नजरूल, मुक्तिबोध, नागार्जुन, धूमिल, शमशेर आदि देश-दुनिया के कई मशहूर प्रगतिवादी कवियों की परंपराएं नजर आती हैं। ‘भाषा’ और ‘कविता’ शब्द अनेक बार उनकी कविताओं में आते हैं। कवियों को संबोधित जितनी रचनाएं और जितनी पंक्तियां उन्होंने लिखीं, शायद उनके समकालीनों में उतनी किसी ने नहीं लिखी होगी।

‘काल काल आपात’ संग्रह की कविताएं सूचना क्रांति यानी सूचना साम्राज्य के दौर में सामाजिक-पारिवारिक संबंधों, धर्म, अर्थनीति, साहित्य-संस्कृति और राजनीति के क्षेत्र में हो रहे अप्रत्याशित बदलावों की प्रक्रिया से जूझते एक संवेदनशील मन की कविताएं हैं। ये कविताएं सूचना ‘क्रांति’ का पोस्टमार्टम करती हैं- ‘‘सिर्फ दृश्य ही नहीं पकड़ता कैमरा/ दृश्यों के रंग भी बदलता है/ खुुद नहीं रोता/ दर्शक के तमाम आंसुओं को/ श्रीमंतों के पक्ष में घटा देता है/...प्रेम मुहब्बत को/ बना देता है/ प्रेम-मुहब्बत की डमी।/ आमात्यों के पक्ष में रचता है/ नयी बाइबिल/ रामायण, गीता नयी/ वेद, कुरान, पुराण नये... परिवारों और दिलों के/ गुप्त कोनों, प्रकोष्ठों को/ करता है ध्वस्त।/ दिखाता नहीं है फकत युद्ध/ रचता है युद्ध भी/ खा सकता है इतिहास/ उगल भी सकता है, इतिहास का मलबा,/ निगल भी सकता है भूगोल-/ राज और समाज का’’ लेकिन इसी कविता के अंत में कवि ने लिखा है- ‘‘तुम चाहो तो/ जा सकते हो/ कैमरों के पीछे/ चाहो तो/ मोड़ सकते हो/ कैमरों का लैंस भी/... तय करो/ कहां रहोगे अंततः/ कैमरों के आगे/ या पीछे?’’ (कैमरा: एक)

कुबेर दत्त के दूसरे कविता संग्रह ‘कविता की रंगशाला’ की ‘हट जा... हट जा...हट जा...’, ‘संसद में संसद’, ‘अब बजा लो सितार’ आदि कविताएं आम और खास, जनता और व्यवस्था के बीच बढ़ती दूरी और राजनीतिक दलों के प्रति बढ़ते गहरे मोहभंग और आक्रोश को जाहिर करती हैं। कबीर मठों की यात्राएं करने के बाद लिखी गई कविता ‘समय-जुलाहा’ में कवि अपने समय के हिंसक कुचक्र को फिर से तोड़ने की नई युक्ति के बारे में सोचता है- ‘‘कोटि कोटि/ हृृदयों का मंथन/ कोटि कोटि शोषित बाधित तन/ नव कबिरा के पुनर्सृजन में/ पल पल रत हैं।’’ बाद में महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय विश्वविद्यालय की पत्रिका ‘पुस्तक वार्ता’ में ‘समय जुलाहा’ शीर्षक से ही वे साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों और आयोजनों पर रपट भी लिखते रहे। 

कुुबेर दत्त एक प्रयोगधर्मी रचनाकार थे। अपने तीसरे कविता संग्रह ‘केरल प्रवास’ की कविताएं कवि ने केरल में अपनी पत्नी कमलिनी दत्त के इलाज के दौरान लिखी हैं, जो हिंदी भाषियों के हृदय का विस्तार करती हैं और सही मायने में उसे राष्ट्रीय बनाती हैं। विष्णुचंद्र शर्मा ने इस संग्रह की भूमिका में लिखा है- ‘‘कवि मलयाली भाषा की ‘आंखों की गली’ में उतर कर हिंदी भाषा को एक नया अर्थ देता है। यह एक अनूठा प्रयोग है। कविताओं की पृष्ठभूमि में रहती है पत्नी की पीड़ा और सामने नजर आता है केरल का सौष्ठव।’’ यहां हहराते हैं अंतरिक्ष तक हरे समंुदर, जिसके सामने कवि अपने सब अभिमान को तिरोहित होता महसूस करता है, फुदकते-चहकते केरल के लंबे कौए हैं, कैंटीन के भीतर से आती सांबर, चावल, रसम आदि की खुश्बू है, बारिश में नहाते अपना सीना ताने नारियल के पेड़ हैं। केरल प्रिय संबोधन से लिखी गई 29 कविताओं में केरल के साथ कवि का संवाद काफी दिलचस्प है। ‘भेषज-प्रसंग’ में पत्नी को दी जाने वाली सिद्धमकरध्वज, अश्वगंधारिष्ट, विषमज्वारांतम्, रससिंदूरम्, तुलसीजल, क्षीरबला, नेत्रामृतम्, कपूर्रादि तैलम, पिषिच्चल आदि औषधियों को शीर्षक बनाकर कवि ने रूपकीय संरचना प्रदान करने की कोशिश की है।

वरिष्ठ कवि विष्णुचंद्र शर्मा की रचनाओं से गुुजरते हुए लिखी गई लंबी कविता ‘अंतिम शीर्षक’ पर आधारित काव्य पुस्तिका में उनके साथ-साथ उनकी दिवंगता पत्नी और उनके कुत्ते शेरू के वक्तव्यों के जरिए आर्थिक उदारीकरण और इलेक्ट्रानिक सूूचना माध्यमों के सर्वग्रासी वर्चस्व से ग्रस्त समाज, राजनीति, संस्कृति, विचारधारा और कविता- सबकी गहरी समीक्षा करने की कोशिश की गई है। कुबेर दत्त ने इसमें फ्लैश बैक, स्वप्न, एकालाप आदि फिल्म और इलेक्ट्रानिक माध्यमों के कला-रूपों का इस्तेमाल किया है। 

2 अक्टूबर 2011 को कुबेर दत्त के असमय निधन के बाद से अब तक उनके तीन काव्य संग्रह ‘इन्हीं शब्दों में’  ‘शुचिते’ और ‘बचा हुआ नमक लेकर’ का प्रकाशन हुआ है। ‘इन्हीं शब्दों में’ संग्रह की कविताओं में कवि साम्राज्यवादी वैचारिकी को मानो चुनौती देता है कि विचारों और सपनों के अंत की जो घोषणाएं हो रही हैं उनसे अपनी भाषा के इन्हीं शब्दों के जरिए वह लड़ेगा। ‘जड़ों में’ कविता में उन्होंने लिखा है- ‘इस नगर के/ भाषा वाणिज्य में/ कहीं भी शामिल नहीं- मेरी जिंदा या मृत/ भाषाओं की अनुगूंज.../ एक गुलाम शहर में/ आजाद सपने की तरह/ तैरता हूं-/ याद करता हूं अपने खलिहान की गंध/ और/ बिना यूरिया की तूरई/ और कुम्हड़े का स्वाद.../ मैं जादुई यथार्थवाद नहीं/ चमरौंधे का/ तेल हूं/ जो बजिद है/ भाषा की जड़ों में लौटने के लिए...’। दरअसल भाषा की जड़ों में लौटने की आकांक्षा का मतलब ही है, जनता के साथ गहरे जुड़ाव की चाहत। इसी जनसमूह में पत्नी, बेटी और उनके प्रिय साहित्यकार हैं और इसी में लाहौर, पटना, इलाहाबाद जैसे शहर भी। उन्हीं की कविता के हवाले से कहा जाए तो जो जनसमुद्र है, उसकी सांस हैं उनकी कविताएं।

उनका कविता संग्रह ‘शुचिते’ दुनिया भर की बेटियों और महाकवि निराला की बेटी सरोज के नाम समर्पित है। इस संग्रह की कविताएं कवि की अपनी बेटी भरत नाट्यम की सुप्रसिद्ध नृत्यांगना पुरवाधनश्री को संबोधित हैं। इनमें एक ओर भारतीय मिथकों और प्रतीकों की प्रेरणाएं हैं, तो दूसरी ओर स्त्री को गुलाम बनाने वाली तमाम परंपराओं के प्रतिकार का उद्घोष भी। पितृसत्ता ने एक स्त्री के लिए जो मर्यादाएं और नैतिकताएं तय की हैं, उससे कवि को जबर्दस्त इंकार है। कवि को एक नई स्त्री की प्रतीक्षा है- एक आजाद और सशक्त स्त्री की। कुबेर दत्त के अन्य संग्रहों में संकलित ‘छिन्नमस्ता वह’, ‘ऋतु-चक्र के उत्सव-सदन में’, ‘चिदग्निकुंडसंभूता’, ‘पुरुष करंट’, ‘एक और स्त्री चाहिए’, ‘अब मैं औरत हूं’, ‘क्या वह तुम थीं?’, ‘पूर्वकाल से उत्तरकाल तक...तुम!, ‘काली औरतें’, ‘स्त्री के लिए जगह’ आदि कविताओं में स्त्री मुक्ति को मुक्ति के अन्य संदर्भों से ही जोड़कर देखा गया है।

‘स्वप्न-पुनर्नवा’ में कवि ने लिखा है- 

‘मेरी प्रिय 

आजाद सांस और आजाद हवा

और आजाद धरती से बड़ा

कुछ नहीं होता।’

स्त्री समेत तमाम उत्पीड़ित समुदायों, भाषा, हवा और धरती तक की आजादी का जो स्वप्न है वह कुबेर दत्त की कविताओं को विशिष्ट बनाता है। प्रयोग के स्तर पर ‘शुचिते’ कुबेर दत्त की खूबसूरत हस्तलिपि में लिखी गई कविताओं और हरिपाल त्यागी के चित्रों का संयोजन है।

जीवन के आखिरी वर्षों में खुद कुबेर दत्त ने हजारों चित्र बनाए। उनके चित्रों का देखते हुए ऐसा महसूस होता है, मानो रंग आपस में संवाद कर रहे हों। उनमें स्वप्न-दुःस्वप्न, अतीत, वर्तमान और भविष्य सबके बीच बड़ी तेज गति से आवाजाही नजर आती है। एक सहजता जो बालकला और लोककला की जान होती है, उसे भी उनके चित्रों में महसूस किया जा सकता हैं। विशाल और विविधता से भरी दुनिया के अनगिनत रंगों को देखकर हम जिस तरह उनके प्रति एक दुर्निवार आकर्षण से भर उठते हैं, कुछ वैसा ही जादू उनके चित्रों में है- सम्मोहक फैंटेसी या स्वप्न दृश्यों सरीखा, पर हकीकत की जमीन कहीं पीछा नहीं छोड़ती। इनमें दृश्यों के भीतर दृश्य हैं, रंगों का एक दूसरे में घुलना है, कहीं नाॅस्टेल्जिया है, कहीं अपने दौर की भयानक आशंकाएं, कहीं रंगों में  घुलती आकृतियां हैं और कहीं कोई रंग ही शक्ल लेता प्रतीत होता है। हरिपाल त्यागी के शब्दों में- ‘रचना के आंतरिक सौंदर्य के प्रति उसकी जिज्ञासा, छटपटाहट, सहजता और डाइरेक्टनेस देखते ही बनती है।’ कुबेर दत्त ने जो हजारों चित्र बनाए हैं, उनका मूल्यांकन अभी बाकी है। उनके चित्रों से कई किताबों और पत्रिकाओं के आवरण भी बने।

मुक्तिबोध कुबेर दत्त के प्रिय कवि हैं। उनकी लंबी कविताओं के संग्रह ‘धरती ने कहा फिर’ में संकलित 9 कविताओं में से ‘आमीन’ कविता मुक्तिबोध को ही समर्पित है। कवि मदन कश्यप इन कविताओं को ‘मुक्तिबोध की परंपरा का विकास’ मानते हैं, तो दिनेश कुमार शुक्ल इन्हें हमारे वक्तों का रिपोर्ताज बताते हुए ‘कविता में गुएर्निका’ की संज्ञा’ देते हैं। ‘एशिया के नाम खत’ भी इसी तरह की कविता है, जो 2017 में प्रकाशित कविता संग्रह ‘बचा हुआ नमक लेकर’ में संकलित है।  ‘बचा हुआ नमक लेकर’ में उनकी कविता का हर रंग है। 1987 से 2011 के बीच लिखी गयी ये ऐसी कविताएँ  हैं, जो पिछले किसी कविता-संग्रह  में  मौजूद नहीं  हैं। भक्ति आंदोलन से लेकर प्रगतिवादी-जनवादी आंदोलन तक की काव्य परम्पराओं की अनुगूंज सुनाई देती है इनमें, और हिंदी-उर्दू की साझी परम्परा की भी। मुक्तिबोध ने लिखा है कि मैं उनका ही होता, जिनसे/ मैंने रूप-भाव पाये हैं। कुबेर जी के यहाँ कोशिश दिखती है। जनकवियों में उनका शुमार नहीं होता, पर वे जनकवि होना चाहते हैं। उनका यह रूप इस संग्रह के जरिए सामने आता है। इसमें उनके गीतों और ग़ज़लों को शामिल किया है। ये किसी जनांदोलन के लिए लिखे गए गीत नहीं हैं, पर इनकी अंतर्वस्तु जनराजनीतिक है। वर्गभेद पर उंगली उठाना वे कभी नहीं भूलते। जो निराशाएँ या मोहभंग हैं वे भी एक विराट स्वप्न के टूटने या उसके हकीकत में तब्दील न होने की वजहों से है। इसीलिए यथास्थिति का इनमें विरोध है, खासकर मध्यवर्गीय यथास्थिति का। राजनीतिक वर्ग पर तीखा प्रहार है और उसके जनविरोधी व्यवहार को लेकर अनवरत बहस भी। सबसे बड़ी बात यह कि उनकी कविताएँ किसी फ्रेम में जबरन फिट नहीं की गई है, बल्कि कंटेंट और क्राफ्ट दोनों स्तरों पर फ्रेम को तोड़ती हैं। अपने लिए अपना मौलिक-सा स्पेस बनाती हैं। 
कुबेर जी  की कविताओं पर विस्तार से लिखना इस लेख में संभव नहीं है, इसके लिए एक लंबे स्वतंत्र लेख की दरकार होगी।

कुबेर जी को संगीत की गहरी समझ थी। पुराने फिल्मी गीत और ‘ब्रह्म है मुझमें लीन’, ‘बोल अबोले बोल’ जैसे अपने गीत अक्सर वे गाते थे। आदमी को आदमी का हाथ चाहिए, आदमी को आदमी का साथ चाहिए- यह गीत उन्हें बहुत प्रिय था। यह जैसे उनका घोषणा-पत्र था। शायद इसी साथीपन की चाह ने उनके चाहने वालों की बड़ी कतार पैदा की। नौजवानों के साथ सहजता के साथ घुल जाना उनका स्वभाव था। कवि-पत्रकार चंद्रभूषण के अनुसार, वे नौजवानों की तरह निश्छल और निष्कवच थे। पाक-विद्या में उनकी रुचि, खाने-पिलाने का उनका शौक और उनकी आत्मीय दुनिया में मौजूद बिल्लियों के किस्से तो जगजाहिर हैं।

कुबेर दत्त देश दुनिया की दशा को लेकर बेहद बेचैन रहने वाले साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी थे। कमलिनी दत्त जैसी कला-साधक का जीवन भर का साथ उनकी ताकत थी। आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने एक आयोजन में सही कहा था कि संस्कृति की दुनिया में ऐसा कोई दूसरा दंपत्ति दिखाई नहीं देता। कमलिनी दत्त ने अपने एक साक्षात्कार में कहा है- ‘‘कुबेर तमाम आक्रोश और प्रतिबद्धता के बावजूद रोमांटिक थे, स्वप्नद्रष्टा तो थे ही। उनका सबसे बड़ा स्वप्न था- एक सोशलिस्ट कम्यूनिस्ट समाज, साम्यवादी समाज जिसमें इंसान-इंसान के बीच फर्क नहीं होा। पुरुष-स्त्री समाज रूप से गरिमापूर्ण जीवन बिताएंगे। बच्चों का बिना शोषण विकास होगा, हर बच्चा अपने स्वप्न को साकार करने में सक्षम बनेगा। जनता अपने निर्णय लेगी। एक स्वस्थ समाज की रचना उनका सबसे बड़ा स्वप्न था।’’ ( कल के लिए, अप्रैल 2015 से मार्च 2016, पृ. 76 )

No comments:

Post a Comment