वे हमेशा प्रगतिशील मूल्यों के साथ रहे हैं
डाॅ. पशुपतिनाथ सिंह (पूर्व विभागाध्यक्ष, अर्थशास्त्र, वीर कुँवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा )
रामनिहाल गुंजन अपने को बहुत प्रोजेक्ट नहीं करते। हमेशा प्रगतिशील मूल्यों के साथ रहे हैं। उनकी विनम्रता का कोई जवाब नहीं। अपने मूल्यों से समझौता किए बगैर दूसरे के साथ कैसे संबंध बनाए रखा जाता है, यह गुंजन जी से सीखा जा सकता है। सत्तर के दशक से ही उन्हें गोष्ठियों वगैरह में देख रहा हूं।
मैं जितना उन्हें जानता हूं, मुझे कोई अवगुण उनमें दिखाई नहीं पड़ा। वे एक पूर्ण मनुष्य हैं अपने मूल्यों को साथ। ऐसी शख्सियतें बहुत कम हैं समाज में। यहां जो लोग हैं साहित्य में, जिनसे मेरा परिचय है, अधिकांश के व्यवहार से मैं क्षुब्ध रहता हूं। आज के युग में मनुष्य और साहित्यकारों के स्तर पर जो दुर्गुण हैं, इस आदमी में हमने कोई भी वैसा दुर्गुण नहीं देखा। तिकड़म वगैरह की जो सामान्य प्रवृत्ति है, इसका उनमें बिल्कुल अभाव है।
आलोचना की कृतियां उनकी मेहनत का सुबूत हैं
सुधाकर उपाध्याय, शहर के जाने-माने साहित्यप्रेमी
गुंजन जी को तबसे देख रहा हूं जब वे लेखक नहीं, सचेत पाठक थे। वे खूब मेहनत करते हैं। पढते तो सभी हैं, पर उसे संजोना एक दूसरी चीज हैं। गुंजन जी ने सिलसिलेवार ढंग से जो पढ़ा उसे अपने ढंग से संजोया भी। लिखके अपनी समझदारी विकसित की। और यह सब शांति के साथ दत्तचित्त होकर किया। गुंजन जो भी लिखते हैं, उसे पढ़ते हुए झलकेगा कि लिखने के लिए वे कई जगहों से गुजरे हैं। 74-76 की किसी पत्रिका में क्या छपा, सव्यसाची की पत्रिका में कौन सी चीज निकली, इस तरह की जानकारियां उनकी जुबान पर रहती है।
गुंजन जी की पारिवारिक समस्याएं भी कम नहीं रहीं। उन्हें संघर्ष बहुत करना पड़ा। उस दौरान भी उन्होंने अपनी बौद्धिकता को बचाए रखा। विचलित नहीं हुए। वे उत्तेजित नहीं होते कभी। यह बहुत बड़ी बात है। स्वस्थ हैं। अभी भी बहुत पैदल चलते हैं। उनमें धैर्य बहुत है। उनकी पत्नी जब मरीं, तो हम लोगों को सूचना मिली। पत्नी के न रहने का दुख बर्दाश्त नहीं होता। लेकिन मिलने पर वे जरा भी विचलित नहीं दिखे। बिल्कुल स्थितप्रज्ञ की तरह नजर आए। निजी सुख-दुख की चर्चा वे नहीं करते। हर आदमी के साथ उन्हें अपना संबंध अच्छा रखने की कोशिश की। आलोचना की कृतियां उनकी मेहनत का सुबूत हैं। उनसे उनके अध्ययन की झलक मिलती है।
गुंजन जी हमेशा आत्मप्रचार से दूर रहे हैं
प्रो॰ रवींद्रनाथ राय, वरिष्ठ आलोचक
गुंजन जी से मेरी मुलाकात आरा की साहित्यिक गोष्ठियों में हुई थी। करीब 1980 से ही मेरा संबंध रहा है। उनसे पहली बार मिला तो लगा कि मैं ऐसे आदमी से मिल रहा हूं, जिसमें आत्मीयता और सहजता है। पहली बार ही उन्होंने मुझे एक बड़े और सहज व्यक्ति के रूप में प्रभावित किया। वे मुझे बड़े ही निश्छल और निरहंकारी लगे।उनसे मिलकर लगता था, वर्षों पुराने किसी व्यक्ति से मिल रहा हूं। हालांकि उस वक्त भी गुजन जी एक आलोचक के रूप में विख्यात हो चुके थे, लेकिन उनके व्यक्तित्व में कहीं भी कोई लेखकीय आतंक नहीं दिखाई पड़ा।
मैं उनके घर भी आता-जाता रहा हूं। वे एक सामान्य वित्तीय परिवार से आते हैं, लेकिन लोगों को चाय पिलाना और उनको लेखन के लिए प्रेरित करना उनकी खास खूबी रही है। मैं उन्हें जितने वर्षों से जानता हूं, उनके व्यक्तित्व में कभी कोई दुहरापन की स्थिति नहीं देखी। उन्होंने अपनी पुस्तकें भी मुझे पढ़ने को उपलब्ध कराईं। उन्होंने नागार्जुन, मुक्तिबोध, शमशेर, निराला, समकालीन कविता, राहुल सांकृत्यायन, ग्राम्शी, जार्ज थाॅमसन इत्यादि पर अपनी आलोचना केंद्रित की है। उनकी दृष्टि निश्चित रूप से मार्क्सवादी रही है, लेकिन वे गैर-मार्क्सवादियों के प्रति भी सम्मान का भाव रखते थे। मुझे याद है कि जब में रामेश्वरनाथ तिवारी विशेषांक का संपादन कर रहे थे और इनके द्वारा लिखे कवि-परिचय की पुस्तक पर मैं समीक्षा लिख रहा था और उस समीक्षा में कबीर के प्रति उनकी उपेक्षा भाव को रेखांकित कर रहा था, तो गुंजन जी ने कहा कि किसी साहित्यकार की मृत्यु के बाद उसकी कठोर आलोचना नहीं की जानी चाहिए। मुझे याद है कि मेरे जैसे कभी कभार लिखने वाले लोगों से भी उन्होंने यशपाल, रामवृक्ष बेनीपुरी, चंद्रभूषण तिवारी इत्यादि पर लिखवा ही लिया।
गुंजन जी की आलोचना की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे विषयवस्तु को गहराई से स्पष्ट करते हैं। अपने व्यक्तित्व के अनुरूप भी उनकी आलोचना भी सहज और स्पष्ट है। नागार्जुन और मुक्तिबोध को मैं रामनिहाल गुंजन, नंदकिशोर गुंजन, नंदकिशोर नवल और खगेंद्र ठाकुर को ही पढ़कर ही समझ सका।
गुंजन जी की आलोचनात्मक पुस्तकें न केवल दृष्टि संपन्न हैं, बल्कि वे छात्रोपयोगी भी हैं। गुंजन जी हमेशा आत्मप्रचार से दूर रहे हैं। हमने साहित्य की दुनिया में तो कुछ भी सीखा उसमें चंद्रभूषण तिवारी, मधुकर सिंह और सर्वाधिक रूप से रामनिहाल गुंजन का भी योगदान है। समकालीन दौर में जब बहुत साहित्यकार आत्मप्रशंसा और पुरस्कारों के लिए दिग्भ्रमित होते दिखाई पड़ रहे हैं, इस बुरे वक्त में भी गुंजन की सादगी और सहजता से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। विचारों के प्रति प्रतिबद्धता और आत्मप्रचार से अलग रहकर साहित्य सेवा करना उनकी अलोचना पुस्तकें जिस विश्वदृष्टि को अभिव्यक्त करती रही हैं, उससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। इस अंधेरे समय में रामनिहाल गुंजन हमारे लिए जरूरी साहित्यकार हैं। ये मेरा सौभाग्य है कि मुझसे उनका आत्मीय संबंध है और वैचारिक दृष्टि से बिरादराना भी। वे मेरे लिए मेरे परिवार के व्यक्ति हैं, अभिभावक तुल्य।
उनमें अद्भुत धैर्य और सहनशीलता है
अनंत कुमार सिंह, कथाकार और संपादक, जनपथ
जब मैं आरा आया और विभिन्न लोगों से परिचय हुआ। पहला आकर्षण तो मधुकर सिंह ही थे। लोगों से मिलने-जुलने और गोष्ठियों में आने जाने का सिलसिला शुरू हुआ। गुंजन जी उन साहित्यकारों में थे जिनकी कुछ अपवाद को छोड़कर बिला लागा तमाम संगठनों की गोष्ठियों में समय पर शिरकत होती थी।
मैं उनके घर जाने लगा। उनका परिवार बड़ा है। वे नीचे वाले कमरे में बैठाते थे। बिना हंगामे के उनका अनवरत लेखन चलता रहा है। जो लोग लिखने से ज्यादा हल्ला करते हैं, उनसे अलग हैं ये। उनमें अद्भुत धैर्य और सहनशीलता है। उन्हें कभी आक्रोशित होते नहीं देखा। अभाव के बावजूद इस उम्र में भी संगठन और साहित्य को एक साथ देखना यह दुर्लभ काम है।
वे विचारों को थोपते नहीं
सुनील सरीन, पूर्व सचिव, युवानीति
यह उन दिनों की बात है जब हम आलोचना का मतलब समझते थे- शिकायत करना या कमियां निकालना। स्कूली ज्ञान से हमें यही सीखने को मिला था कि आलोचनात्मक उत्तर लिखना कमियों को गिनाना है। बाद में युवानीति से जुड़ने के बाद हम इस शब्द के और भी आदी हो गए। हमारी सभी बैठकों में एक मुद्दा हुआ करता था- आलोचना-आत्मालोचना। इसमें हम अक्सर उन साथियों की खिंचाई कर दिया करते थे जो संस्था के नियमों-उसूलों की अनदेखी करते थे। उन्हें रूला देते थे और भविष्य में वे ऐसी गलती ना दुहराएं- यह पाठ पढ़ाया जाता था।
युवानीति से जुड़ने के कुछ वर्षों बाद ही मैंने गुंजन जी के बारे में सुना कि वे मार्क्सवादी आलोचक हैं। वे हमारे बगल के मुहल्ले के हैं और पटना सचिवालय में नौकरी करते हैं। दादा (सुभाष सरकार) ने एक दो बार उनकी चर्चा की थी। सुभाष दादा उस दौर के नक्सलवादी थे जब यह आंदोलन भूमिगत था। हमारे मुहल्ले में रहते थे। मैं जब पहली बार रामनिहाल गुंजन जी से मिला था तो साथ में विजेंद्र अनिल थे। दोनों लोग काफी देर तक साहित्य और वैचारिक चर्चा में लगे रहे। मुझे बहुत ज्यादा रुचि तो थी नहीं उनकी बातों में पर यह समझ पाया कि आलोचक सिर्फ निंदा नहीं करते। वे विचार और कला की कसौटी पर परखते हुए रचनाओं को समृद्ध करने में रचनाकार की मदद करते हैं। विजेंद्र अनिल ने मेरा परिचय कराया कि ये युवानीति से जुड़े हैं और नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा के गठन में सक्रिय हैं। विजेंद्र अनिल ने मुझे बताया कि गुंजन जी पास ढेरों मार्क्सवादी पत्र-पत्रिकाओं व किताबों का अम्बार है। साहित्य और विचारधारा पर गुंजन जी ने खूब लिखा है। मैंने बहस और उत्तरार्द्ध के कई अंक उन्हीं के यहां से पढ़े। उस दौर की सभी लघु पत्रिकाएं उनके यहां मिल जाती थीं।
पढने का शौक था ही और पास के मुहल्ले का होने का फायदा उठाया मैंने। जब भी मौका मिला गुंजन जी के अनुभवों से सीखने की कोशिश की मैंने। वे रविवार को या छुट्टियों के दिन ही मिल पाते। उनकी व्यस्तताओं के बावजूद हम यही कोशिश करते कि हमारी साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का एक अहम हिस्सा बनें। उनके बिना हमारी गोष्ठियों अधूरी लगतीं। जब युवानीति रामकथा पर रंगमंचीय प्रस्तुति की योजना बना रही थी तब नरेंद्र कोहली के संबंधित उपन्यास हमें गुंजन जी के यहां से पढ़ने को मिले थे। जब अरविंद जी के साथ मिलकर हम लोग बनारसी प्रसाद भोजपुरी जी की स्मृति में सम्मान समारोह की योजनाएं बनाया करते थे तो गुंजन जी उसमें बढ़-चढ़ कर भूमिका निभाते थे।
गुंजन जी अपनी धीमी धीमी आवाज़ में किसी भी विषय को ऐसे समझा देते हैं जैसे हृदय से आपको सिखा रहे हैं। अपने ज्ञान के सागर का जरा भी दम्भ नहीं उनमें। वे हमारी आपकी बातें उतनी ही संजीदगी से सुनते भी हैं। उनकी यह कोशिश होती है कि आप वैचारिक दृष्टि से समर्थ बनें। वे विचारों को थोपते नहीं, उसमें बहते और बहाते हैं। उद्धरणों और टिप्पणियों से वे अपनी बाते बखूबी सजा कर कहते हैं। विचारों की परख होने के साथ ही भरपूर सम्वेदना है उनमें। इसमें कोई दो राय नहीं कि वे एक बेहद सम्वेदनशील आलोचक हैं।
आरा है तो एक छोटा शहर, पर अपने आप में साहित्य-संस्कृति का एक विशाल संसार संजोए हुए है। गुंजन जी इस शहर की विरासत से भलिभांति जुड़े हैं। इस विरासत को दुनिया भर में पहुंचाने में और पूरी दुनिया के हालातों से अपने साथियों को जोड़ने में एक कड़ी की तरह हैं गुंजन जी। उम्र के इस पड़ाव पर भी वो अपने लोगों के बीच सदैव मौजूद रह्ते हैं। उनका स्नेह और मार्गदर्शन हम सबको मिलता रहे यही कामना है।
उनका निरंतर लेखन हम सबको बहुत प्रभावित करता है
ओमप्रकाश मिश्र, युवा कवि
गुंजन की सबसे बड़ी बात है एक छोटे शहर में रहकर निरंतर लेखन करते रहना। छोटी से लेकर बड़ी पत्र-पत्रिकाओं में वे दिखते हैं। बहुत लोग शुरू में तो दिखते हैं, पर उम्र बढ़ने के बाद उनका लेखन अवरुद्ध हो जाता है। इनके साथ वैसा नहीं है। जिस रचनाकार या जिस विषय पर लिखते हैं, उसकी ठीक से तैयारी करते हैं, तब उस विषय को प्रस्तुत करते हैं।
गुंजन जी की स्मरण शक्ति अच्छी है। उन्हें पहले की चीजें याद रहती हैं। उनके संस्मरण जानकारीपूर्ण होते हैं। किस बैठक में कौन था, कौन सी कहानी किसने लिखी है, इसके बारे में कोई संदेह या भ्रम होने पर हमलोग उनसे ही पूछते हैं। उनका लेखन जनसरोकारों से जुड़ा हुआ है। उनके विचार और लेखन में कोई बड़ी खाई नहीं है, अंतर नहीं है। वैचारिक रूप में वे जैसे हैं लेखक के रूप में भी वैसे ही हैं। उनका निरंतर लेखन हम सबको बहुत प्रभावित करता है।
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