Wednesday, February 10, 2016

एक तारीख : तीन आयोजन


प्रतिरोध की सांस्कृतिक धाराओं का मिलन

7 फरवरी। दिल्ली के प्रेस क्लब के कैंपस में कबीर कला मंच की शीतल साठे और उनकी साथियों के जनगीतों की प्रस्तुति की खबर सोशल मीडिया के जरिए मुझ तक पहुंची। अगर मैं दिल्ली होता, तो जरूर वहां मौजूद होता। 
7 फरवरी। जन संस्कृति मंच की ओर से भोजपुर, बिहार के एक ग्रामीण बाजार पवना में स्वाधीनता सेनानी जनकवि रमाकांत द्विवेदी ‘रमता’, जनकवि गोरख पांडेय और छात्रों-नौजवानों के प्रिय कवि रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ की याद में आयोजित कविता पाठ और नुक्कड़ नाट्य प्रस्तुति में हमलोग थे। 
7 फरवरी। पवना से लौटकर आरा पहुंचता हूं, तो झारखंड से साथी बलभद्र का फोन आता है। वे सूचना देते हैं कि आज एक 62 वर्षीय शाइर तैयब खान की गजलों और कविताओं की पुस्तिका ‘बात कहीं से भी शुरू की जा सकती है’ का लोकार्पण झरिया में हुआ, जिसे जसम और जलेस ने मिलकर प्रकाशित किया है। तैयब खान की जिंदगी अभावों के विरुद्ध संघर्ष करते हुए गुजरी है। उन्होंने झरिया-धनबाद में पत्रकारिता भी की। घर-परिवार चलाने के लिए कभी उन्हें मजदूरी भी करनी पड़ी। उनकी कविताओं में गरीबी और अभाव के चित्र हैं। फाकाकशी के बीच मुलुर-मुलर ताकते बच्चे हैं। लेकिन शाइरी महज उनके व्यक्तिगत दुखों की दास्तान नहीं रह जाती, बल्कि उसमें हमारे समय की बहुत उस बड़ी आबादी का दुख-दर्द जाहिर होता है, जो सरकारी आंकड़ों के हिसाब से 20 रुपये से कम आय पर गुजर-बसर करने को मजबूर है। तैयब खान वामपंथी हैं। धनबाद-झरिया में बेहद लोकप्रिय रहे हैं। आम आदमी के जीवन की पीड़ा, तकलीफ, उसकी ख्वाहिशें, संघर्ष और आसपास की राजनीतिक घटनाओं और सक्रियताओं को भी उन्होंने अपनी रचनाओं में दर्ज किया है।
बलभद्र बताते हैं कि धनबाद में वे लंबे समय तक साहित्यिक आयोजन कराते रहे। पहली बार उन पर कोई आयोजन हुआ है। उनके चाहने वालों की बड़ी कतार है। कथाकार नारायण सिंह उन पर हो रहे आयोजन के लिए ही दिल्ली से आए। झरिया, सिंदरी, बोकारो, धनबाद के अधिकांश महत्वपूर्ण साहित्यकार- मनमोहन पाठक, डाॅ. अली इमाम, डाॅ. हसन नजामी, बलभद्र, अनवर शमीम, अनिल अनलहातु, कृपाशंकर प्रसाद, सत्येंद्र, अशोक कुमार, लालदीप गोप, ग्यास अकमल, मार्टिन जाॅन आदि- आयोजन में मौजूद थे। युवा रचनाकारों की भी अच्छी मौजूदगी थी। आयोजन के लिए एक स्कूल का हाॅल मिला था, लेकिन उसे उसके कैंपस में किया गया। 
बलभद्र ने एक दिलचस्प बात बताई कि श्रोताओं में टीका-फाना किये एक वृद्ध भी पहुंचे थे, उन्होंने दो टूक टिप्पणी करते हुए तैयब खान की कविताओं को ‘सच्ची कविता’ कहा। बलभद्र ने मुझसे उनकी कविता ‘तुम आओगे’ का जिक्र करते हुए कहा कि वे परिवर्तनकारी शक्तियों को संगठित होने की कामना करते है। उन्होंने  बताया कि तैयब खान की कविताओं पर बातचीत करते हुए लोगों ने भाकपा-माले के जननेता महेद्र सिंह और रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ की कविताओं की भी चर्चा की। 
हमने भी पवना, भोजपुर के आयोजन में किसान-मजदूर-नौजवान श्रोताओं के बीच विद्रोही जी के अवधी गीत- 'जनि जनिहा मनइया जगीर मांगता’, कविता ‘गुलामी की अंतिम हदों तक लड़ेंगे’ और ‘नई दुनिया’ तथा गजल ‘दर्द को महसूस करना आपका बूता नहीं है’ का पाठ किया। 
आयोजन के आरंभ में हमने कवि पंकज सिंह, उर्दू के अफसानानिगार इंतजार हुसैन, मार्क्सवादी विचारक प्रो. रणधीर सिंह, कार्टूनिस्ट सुधीर तैलंग के साथ-साथ रोहित वेमुला समेत सामाजिक-राजनीतिक उत्पीड़न और हिंसा के कारण जिंदगी खोने वाले तमाम लोगों को श्रद्धांजलि दी और दमनकारी व्यवस्था को बदलने का संकल्प लिया। सोशल मीडिया से पता चला कि दिल्ली के आयोजन में शीतल साठे ने रोहित वेमुला पर लिखा गया एक गीत गाया, जिसमें ब्राह्मणवाद का विरोध किया गया और मौजूदा लोकशाही पर सवाल उठाए गए। हमने भी रोहित वेमुला की याद में हिरावल के साथी संतोष झा द्वारा गाए गए गीत को लोगों को सुनाया। मुझे सूचना है कि हिरावल के साथी हैदराबाद में आंदोलनरत छात्रों के बीच अपने गीतों के साथ पहुंचने वाले हैं। वे उसी तरह प्रतिरोध की धाराओं के साथ अपनी एकजुटता जाहिर कर रहे हैं, जैसे कबीर कला मंच के कलाकारों की गिरफ्तारी और पुलिसिया दमन के खिलाफ विरोध के अभियान में उतरे थे और उनकी जुबान पर शीतल साठे का मशहूर गीत- ‘ऐ भगतसिंह तुम जिंदा हो’ था। 
विद्रोही, रोहित वेमुला, रमता जी, गोरख पांडेय,- सारे नाम एक-दूसरे में घुल-मिल रहे हैं। एक दिन पहले स्मृति ईरानी और बंडारू दत्तात्रेय के इस्तीफे की मांग को लेकर किए गए आइसा के हड़ताल में एक छात्र नेता ने विद्रोही जी की कविता ‘नई खेती’ पढ़ी थी। पवना, भोजपुर के आयोजन की अध्यक्षता करते हुए जसम के राष्ट्रीय सहसचिव कवि जितेंद्र कुमार खेती-किसानी की तबाही, बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य के सवाल उठाए। गरीब-दलित परिवार के रोहित और उनके साथियों को किस तरह धार्मिक और जातिवादी भेदभाव को बनाए रखने में जुटी ताकतों ने हाॅस्टल से निकाला और ठंढ की रात में उन्हें बाहर गुजारना पड़ा। और जब रोहित मर गए और पूरे देश में विरोध शुरू हुआ तो उनके बाकियों साथियों का निष्कासन वापस लिया गया, इसकी उन्होंने चर्चा की।  उन्होंने दिल्ली में निहत्थे छात्र-छात्राओं के प्रदर्शन पर केंद्र सरकार की अधीन पुलिस और गुंडों द्वारा किए गए हमलों की भर्त्सना की और कहा कि यह निर्णायक वक्त है, इस वक्त गरीबों, मजदूर-किसानों, दलित-वंचित समुदायों और छात्र-नौजवानों के आंदोलनों के साथ एकजुटता बेहद जरूरी है। इसी से समाज और देश मजबूत होगा। 
जसम की नाट्य-गीत इकाई ‘युवानीति’ के कलाकारों ने गोरख पांडेय के गीत ‘समय का पहिया’ के गायन से आयोजन की शुरुआत की थी। मनुष्य ने अपनी मेहनत और ताकत के बल पर समय के जिस पहिये को प्रगति की दिशा में आगे बढ़ाया, उसे पीछे धकेलने की कोशिशों के खिलाफ और बड़ी एकजुटता और बड़े अभियान हमें जरूरी लगते हैं, क्योंकि मनुष्य को गुलाम बनाने वाली ताकतें कई रूप में सक्रिय हैं। जनता अपनी बदहाली की जिम्मेवार शक्तियों से बेखबर होकर किसी न किसी ईश्वर खुदा को भरोसे बैठी रहे, इसका कारोबार भी गांव-गांव में चल रहा है। हम तक उन औरतों की आवाजें पहुंचती है, जो हिंदुओं के एक देवता को पिछले एक-डेढ़ दशक से जगाने के लिए गुहार लगा रही हैं, ताकि उनकी जिंदगी की मुश्किलों का हल हो जाए, उनकी आकांक्षाएं पूरी हो जाएं। कविता पाठ के संचालक अरविंद अनुराग ने अपनी मगही कविता में समाज और राजनीति की विडंबनाओं के व्यक्त करने के साथ-साथ ऐसी भक्ति पर भी कटाक्ष किया। निर्माेही ने गोरख पांडेय के गीत ‘गुलमिया अब हम नाहिं बजइबो, अजदिया हमरा के भावेले’ को गाकर सुनाया।
भोजपुर वह धरती है जहां नक्सलबाड़ी की चिंगारी गिरी और फिर तेज लपट में तब्दील हो गई। जिस आंदोलन ने सच्चे मायने में जनवादी राज-समाज के सपनों को नया आवेग प्रदान किया। जहां सामंती-वर्णवादी सामाजिक ढांचे को बदल देने की जुझारू लड़ाई की शुरुआत हुई, जहां
गरीब-मेहनतकशों ने लड़ाई के हर तरीके को अपनाते हुए अपनी राजनीतिक दावेदारी पेश करने की शुरुआत की। एक दिन पहले ही मैंने आइसा के प्रोग्राम में रोहित के प्रसंग में भोजपुर के ही शहीद क्रांतिकारी निर्मल को याद किया था, जिन्होंने लगभग 4 दशक पहले शिक्षण संस्था में मौजूद सामंती-वर्णवादी वर्चस्व को चुनौती दी थी। कवि सुनील चौधरी ने ‘नक्सलबाड़ी का सपना’ कविता के जरिए कहा- नक्सलबाड़ी के सपने/ आज भी जिंदा हैं/ मजदूरों-किसानों, छात्र-नौजवानों के संघर्षों में।’। जनकवि कृष्ण कुमार निर्मोही ने अपने भोजपुरी गीत के जरिए इसी बात को कहा- ‘जबसे आइल माले लेके लाल निसनवा, कि तहिये से ना, बढ़ल गरीबन के शानवा कि तहिये से ना।’ उन्होंने अपने गीत में भोजपुर आंदोलन के कई शहीदों को याद किया। संयोग यह हुआ कि सत्तर के दशक में भोजपुर में का. जगदीश मास्टर  और उनके कई साथियों की शहादत के बाद का.रामनरेश राम के साथ मिलकर उस आंदोलन को आगे बढ़ाने वाले, उसके शिल्पकार भाकपा-माले पोलित ब्यूरो के सदस्य का. स्वदेश भट्टाचार्य भी आयोजन की सूचना पाकर पहुंच गए। उनकी मौजूदगी हमारे लिए फख्र की बात थी। माले नेता का. रघुवर पासवान, चंद्रमा प्रसाद आदि भी आयोजन में शामिल हुए। 




 कवियों ने अपनी भोजपुरी कविताओं और गीतों के जरिए सत्ता के दोहरे चरित्र पर करारा व्यंग्य किया। सुनील चौधरी ने कहा- ‘गांव के ग्लोबल बनाव ताडें/ धर्म के नाम पर लड़ाव ताड़े/ किसान करजा में डूब ताड़ें/ उ अडानी अंबानी के किसान बनाव ताड़े।’ राकेश दिवाकर ने व्यंग्य किया- ‘जनता से कहत बाड़ें सब्सीडी छोड़ द/ आ पूंजीपतियन के कहले बाड़े/ सउंसे देस कोड़ द’। निर्मोही ने भी सत्ताधारियों पर निशाना साधा- ‘रघुपति राघव राजा राम/ भर भर दे मेरा गोदाम/ भूखे मर जाए देश तमाम।’ सुुमन कुमार सिंह ने भी विकास और अच्छे दिन के शासकवर्गीय पाखंड पर प्रहार किया- ‘रोजी गायब, रोटी गायब/ पढ़ने जाती बेटी गायब/ झूल रहा फंदों पे अब तो/ देश हमारा होता गायब’। जितेंद्र कुमार ने अपने दोहों के जरिए आज की सच्चाइयों और विडंबनाओं को अभिव्यक्त किया- ‘धर्म के शिखर पर अनर्थ के पंडे/ मासूम चेहरे बेचते चौक पर अंडे/ हर चौक पर लहराते बाजार के झंडे/ तख्त पर नृत्य करते राजनीति के पंडे।’ जसम के राज्य अध्यक्ष सुरेश कांटक ने 'का ए बकुला', 'हाड़ा हव' और 'बकरी' कविताओं के जरिए शोषक वर्ग के चरित्र को उजागर किया तथा उनका प्रतिरोध करने का संदेश दिया। भोजपुरी की इन कविताओं को श्रोताओं ने काफी पसंद किया। 
युवानीति के कलाकार इस मौके पर एक मनोशारीरिक नाटक ‘तेतू’ के साथ पहुंचे थे। कुछ साथियों को यह हिचक थी कि एक ऐसा नाटक जिसमें संवाद नहीं है, पता नहीं उसे ग्रामीण दर्शक कितना पसंद करेंगे! लेकिन चिड़िया, उसके बच्चों और गिद्ध के जरिए शोषक और शोषितों के बीच के संघर्ष को दर्शाने वाले इस नाटक को दर्शकों ने खूब पसंद किया। जब गिद्ध को चिड़ियाएं घेर लेती हैं और उसका अंत करती हैं, तब दर्शकों की खुशी और तालियां देखने-सुनने लायक थीं। ‘युवानीति’ इस वक्त बिल्कुल नए लड़कों की टीम है। दर्शकों ने इन कलाकारों को आर्थिक सहयोग भी दिया।
पूरा आयोजन बाजार में सड़क के किनारे हो रहा था। सड़क के आधे हिस्से में लोग थे, कुछ बैठे हुए और कुछ खड़े। बीच-बीच में एक तरफ से गाड़ियां भी गुजर रही थीं। उनके हाॅर्न या  प्रचार वाहन के लाउडस्पीकरों से कभी-कभी व्यवधान भी हो रहा था, पर कवि-कलाकार और दर्शक-श्रोता जमे हुए थे। 
‘है नहीं अलग संघर्षों से जीवन की सुंदरता’ युवानीति के कलाकारों द्वारा गाया हुआ यह गीत मानो इस आयोजन को भी सार्थकता प्रदान कर रहा था। स्वाधीनता सेनानी रमता जी जनवरी 2008 में शारीरिक रूप से हमारे बीच नहीं रहे, पर अपने गीतों के जरिए वे अब भी हमारे बीच थे। युवानीति के कलाकारों की आवाज में उनका संदेश गूंज रहा था- ‘अइसन गांव बना दे जहवां अत्याचार ना रहे/ जहां सपनों में जालिम जमींदार ना रहे।’
गांव से लेकर पूरे देश को नए किस्म से रचने की समझ और उसमें यकीन ही तो हम सबको जोड़ता है- ‘हमनी देशवा के नया रचवइया हईं जा...हमनी देशवा के नइया के खेवइया हईं जा’। शाम हो रही थी, पर हम सुबह की उम्मीद से भरे हुए थे। 
धन्यवाद ज्ञापन करते हुए मैंने गोरख पांडेय के ‘वतन का गीत’ को गाया- ‘हमारे वतन की नई जिंदगी हो।’ बाद में सोशल मीडिया के जरिए पता चला कि ठीक उसी वक्त दिल्ली की शाम में सुबह की वह आवाज- शीतल साठे की आवाज गूंज रही थी- भगत सिंह तुम जिंदा हो, इंकलाब के नारों में...।
एक मित्र ने यह वाजिब सवाल उठाया है कि मुख्यधारा की मीडिया में शीतल साठे के कार्यक्रमों की खबर नहीं है। चलिए सोशल मीडिया और मित्रों के जरिए ही सही, हमें तो खबर है। सत्ताधारियों के ताकतवर सूचना माध्यमों के नजरअंदाज किए जाने के बावजूद प्रतिरोध के तार आपस में जुड़ेंगे ही जुड़ेंगे। भारतीय शासकवर्ग ने भगतसिंह को भी मारने की बहुत कोशिश की, लेकिन वे कहां सफल हो पाए! वे तो जिंदा हैं और हमें एकजुट कर रहे हैं। प्रेस क्लब से जेएनयू, जेएनयू से दूसरे विश्वविद्यालयों तक, महाराष्ट्र से दिल्ली, दिल्ली से बिहार, झारखंड तक विरोध, प्रतिवाद और प्रतिरोध का संस्कृतिकर्म जारी है। 

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