2 अक्टूबर 2016 को कवि-चित्रकार, टीवी प्रोड्यूसर कुबेर दत्त के स्मृति दिवस पर हमने एक अनौपचारिक गोष्ठी की, जिसमें उनकी कविताओं को पढ़ा गया। पहले मैंने उनके सृजनात्मक व्यक्तित्व के सारे पहलुओं के बारे में विस्तार से बताया। कुछ संस्मरण भी सुनाए। मौजूदा तंत्र के भीतर रहते हुए किस तरह उन्होंने प्रगतिशील-जनवादी साहित्य-संस्कृति और विचारधारा के लिए काम किया, इसकी चर्चा की। संयोग से उनके सारे कविता संग्रह मेरे पास थे। हमने तय किया कि जिसको जो कविता पसंद आए, वह उसे पढ़े और चाहे तो यह भी बताए कि उसे वह कविता क्यों पसंद आई।
कवि सुनील श्रीवास्तव ने एक छोटी कविता ‘आंखों में रहना’ से कविता पाठ की शुरुआत की। उन्होंने कहा कि पहली ही नजर में यह कविता उन्हें अच्छी लगी। आज के बाजारवादी युग का जो प्रवाह है, उसमें हम बह न जाएं, इसके लिए यह कविता प्रेरित करती है। उन्होंने ‘स्त्री के लिए जगह’ और ‘प्रेयसी से’ कविता का पाठ किया। कवि रविशंकर सिंह ने ‘अब मैं औरत हूं’ और ‘रात के बारह बजे’ कविता का पाठ किया। आशुतोष कुुमार पांडेय जो मोबाइल से कविता पाठ का वीडियो बनाने में मशगूल थे, उन्हें टीवी और कैमरे से संबंधित ‘टीवी पर भेड़िए’, ‘कैमरा: एक’ और ‘कैमरा: दो’ शीर्षक कविताओं ने खास तौर पर आकर्षित किया। उनका कहना था कि आज टी.वी. पर बहुत सारी ऐसी खबरें आ रही हैं, जो आदमी के अंदर आतंक पैदा करती हैं, कुबेर जी ने उसी को अपनी कविताओं में समेटा है।
आज के दौर में जब अधिकांश टीवी चैनल पूरी तरह दमनकारी, जनविरोधी सरकार के प्रवक्ता बन चुके हैं, तब वैसे भी ये कविताएं प्रासंगिक लगती हैं। पर जब आशुतोष ने ‘कैमरा : 2’ पढ़ना शुरू किया और उसमें निम्नलिखित पंक्तियां आईं-
‘‘टीवी सब दिखाता है
फौजी विजयघोष।
राजपथ विजयपथ दर्पपथ...
.........
राजा गाल बजाता है!
.........
सुरक्षा कवच पहन-पहन
बैठे सिपहसालार और सालारजंग
दायें-बायें नगर-प्रांतों में गोली-वर्षा जारी
शासन पर विजय का पल-पल नशा तारी।
............
सैनिक के बूटों के नीचे जो
बजता है
महाकुठार शवों-अस्थियों का
शस्त्रों का नहीं।
कनस्तर खाली है
माल-असबाब सब
अन्न, खाद्यान सब
तन्न, मन्न, धन्न सब
विजय गीत की
स्वरलिपियों में बदल चुका।
दासानुदास प्रवर
बना बैठा है प्रधान
लोक-लोक बज रहा
सज रहा तंत्र-तंत्र
सत्ता के मंत्र पर
गर्दन हिलाता है
विषधर वह....................’’
तो मैं और सुनील श्रीवास्तव एक साथ बोल पड़े- यह तो आज की कविता लगती है!
आशुतोष ने ‘भंग संगीत समारोह’ कविता का पाठ भी किया।
इसी दौरान कवि-चित्रकार राकेश दिवाकर और कवि सुनील चौधरी पहुंचे। राकेश ने ‘संसद में संसद’ और सुनील चौधरी ने ‘हट जा... हट जा...हट जा’ शीर्षक कविता का पाठ किया।
आखिर में मैंने भी ‘बोल अबोले बोल’, ‘संगीत-1’, ‘अयोध्या-1’, ‘अयोध्या-2’, ‘ओ केरल प्रिय-2’, ‘ओ केरल प्रिय-3’, ‘कोट्टकल में मई दिवस’, ‘कोट्टकल में बकरीद’ का पाठ किया। वरिष्ठ कवि विष्णुचंद शर्मा के रचना संसार से गुजरते हुए लिखी गई कुबेर जी की लंबी कविता ‘अंतिम शीर्षक’ के पाठ के साथ इस अनौपचारिक गोष्ठी का समापन हुआ। गोष्ठी के बाद सबकी जो प्रतिक्रियाएं थीं, उससे महसूस हुआ कि किसी रचनाकार पर केन्द्रित इस तरह की छोटी गोष्ठियां जिसमें पूरे इत्मीनान के साथ उनकी रचनाओं को पढ़ा जाए, उन पर बातचीत की जाए, तो वह भी सार्थक हो सकता है।
यहां मैं इस गोष्ठी में पढ़ी गई कुबेर जी की कविताओं को प्रस्तुत कर रहा हूं। समयाभाव के कारण उनमें से पांच-छह कविताएं टाइप नहीं कर पाया, इस कारण उन्हें यहां नहीं दे पा रहा हूं।
आंखों में रहना
दुख का पारावार भले
हो
जीवन-गति लाचार भले
हो
हे सूरज
हे चांद-सितारो
आंखों में रहना।
मतिभ्रम का बाजार
भले हो
हे समुद्र
हे निर्झर, नदियो
आंखों में रहना।
स्त्री के लिए जगह
कोई तो होगी
जगह
स्त्री के लिए
जहां न हो वह मां,
बहिन, पत्नी और
प्रेयसी
न हो जहां संकीर्तन
उसकी देह और उसके
सौंदर्य के पक्ष में
जहां
न वह नपे फीतों से
न बने जुए की वस्तु
न हो आग का दरिया या
अग्निपरीक्षा
न हो लवकुश
अयोध्या,
हस्तिनापुर,
राजधनियां और फ्लोर
शो
और विश्व सौदर्य मंच
निर्वीय
थके
पस्त
पुरुष अहं
को पुनर्जीवित करने
वाली
शाश्वत मशीन की तरह
जहां न हों
मदांध पुरुषों की
गारद
जहां न हों
संस्कारों और
विचारों की
बंदनवार
उर्फ हथकड़ियां
कोई तो जगह अवश्य
होगी
स्त्री के लिए
कोई तो जगह होगी
जहां प्रसव की चीख न
हो
जहां न हों
पाणिग्रहण संस्कारों में छुपी
भविष्यत की त्रासद
कथा- शृंखलाएं
जहां न हो
रीझने रिझाने की कला
के पाठ
और सिंदूर-बिंदी के
वेदपुराण
कोई तो जगह होगी
स्त्री के लिए
जहां
न वह अधिष्ठित हो
देवियों की तरह
रानियों, पटरानियों
जनानियों की तरह
ठीक उसी तरह
जैसे कि
उस जैसे पीड़ित पुरुष
के लिए
जो जन्मा है
उसी से
कोई तो जगह होगी।
हर जगह
सर्व शक्तिमानों के
लिए
कभी नहीं थी
जैसे कि
अज्ञान और अधर्म के
लिए नहीं है हर जगह
कोई तो जगह अवश्य
होगी।
प्रेयसी से
कहां गए वे दिन
जिन्हें हमने छोटे
छोटे एल्युमीनियम के गमलों में बोया था?
धीरे-धीरे बड़े हो
रहे थे दिन।
हमारे श्रमकर्षित
जिस्मों से निकलती थीं ठोस इरादों की उसांसें,
बांस की छोटी सी
झोपड़ी की खिड़की से आती ठंढी हवा
हमें सुबह की लड़ाई
के लिए लोहा बना देती थी।
दिन भर हम भट्ठी में
गलते थे
और शाम को देखते थे
एल्युमीनियम के गमलों में
पलते-बड़े होते अपने दिनों को।
वे दिन थे हमारे
लिए- तुलसी दल
पीपल
कनेर, बेला, गुलमेहदी, सूरजमुखी
गुलमोहर, तीज त्योहार, नए कपड़े,
नई किताबें, नई कविताएं, नये नृत्य-
संगीत रचनाएं, संघर्ष की नई खबरें,
नई तैयारियां, नई सफलताएं, नए मित्र
नए संवाद...
गमलों में उगते उन
दिनों में
झलकते थे इंद्रधनुष,
अलकापुरी, सैर सपाटे, अभियान,
पर्वत, समंदर, फूलों की घाटी की सैर...
चाबुक खाते लोगों के
साथ हम भी लगाते थे इंकलाब का नारा
हो जाते थे लहूलुहान.... पर
गमलों को सिरहाने रख हम
सो जाते थे अगली सुबह की लाली को मस्तक पर
गालों पर
होठों पर
हृदय पर मलने के लिए...
कि जब एक दूजे के
चेहरों में खुद को
और अपने जैसों
करोड़ों अनाम साथियों को देख
रीझ रीझ जाते थे हम।
बिस्तर की सलवटों को
निकालते-चहकते हम
सुनते थे प्रभात फेरियों के ताजा स्वर
और दुनिया भर के
अंधे कुंओं की मुंडेर पर
खड़ी होकर चीखती भीड़ की आवाज-
‘सुबह हो गई,
अंधेरा बेदखल हो!’
...कि जब अखबारों के
तेज तुर्श शीर्षकों को
कैंची से काट
हम असली खबरों की
अलबम में चिपकाते थे...
...कि जब दफ्तर के बॉस को मुंह चिढ़ाते थे
और अपनी पसंद के
शब्द लिखते थे सरकारी नोटशीट पर
कि जब मार्क्स और आदि शंकराचार्य
लेनिन और भगतसिंह
कबीर और पुरंधरदास
और हरिदास
मीरा और आण्डाल-
सबको मथते थे अपने अध्ययन कक्ष में
कि जब घर की
खिड़कियों से झांकते
भेड़ियों को हम भगा
देते थे जंगलों में-
डरा कर अपनी आंखों की लाल चिंगारियों से।
मगर फिर क्या हुआ?
याद है?
मुझे याद है।
मुझे याद है कि
सचिवालय से आया था एक तेजाब का बादल
बरस गया था हमारे
गमलों पर।
फिर भी हमारे इरादे
सुरक्षित थे
तेजाब के बादलों के
छंटते ही हमने देखी थी माफिया टोली
नहीं नहीं वे जादूगर
नहीं थे-
बाजीगर नहीं थे
बहुरूपिये नहीं थे
उनमें थे व्यापारी,
आरक्षी, अधिकारी-राजपुरुष-गुंडे-कातिल,
लबारची, चारण, चमचे, दलाल, कमीशनखोर, सटोरिये,
जुएबाज, चोर, बटमार और गोएबल्स के नए कम्प्यूटरी संस्करण।
उनमें हरेक के जबडों
में फंसे थे
हमारे छोटे छोटे
गमले
जिनमें रोपे थे हमने
अपने दिन।
वे हमारे दिन चबा रहे थे....
हमारे शरीर का तमाम
लोहा और रक्त उन्होंने सोख लिया है
वे सोख चुके हैं
हमारे मस्तिष्क का
तमाम विवेकी द्रव...
अपनी अपनी पोशाक पर
तीन रंगों का उलटा
स्वस्तिक सजाए....वे
हमें गुलाम बना चुके
हैं...
हमें बेहोश कर
हमारी नींद में उन्होंने
ले लिए हैं हमारे अंगूठों के निशान-
अपने सोने-चांदी-हीरे और झूठ के
स्टाम्प पेपरों पर।
दशक धंस रहे हैं काल
के गाल में।
धंस सकती है शताब्दी
भी...
अगले दशक भी,
अगली शताब्दी भी...
हमारी जलती लालटेन
की बत्ती
उन्होंने निकालकर
फेंक दी है।
.........................
अंधेरे, घुप्प अंधेरे में
छू रहा हूं मैं
तुम्हें
टटोल रहा हूं
कोशिश कर रहा हूं जगाने
की....
ताकि तुम्हारे चेहरे
की
मायावी रंगत बेदखल
हो....
तुम एक नहीं हो मेरी
प्रेयसी
तुम महादेश की करोड़ो
करोड़ जनता हो
तुम्हारी अधखुली,
नींद भरी आंखों की कोरों से रिसते
सपनों के दृश्यबंध
और
तुम्हारी चेतना में
नर्तन करते
एक गोल गुंबद में
रचे जादू के करिश्मों के
मायाजाल के तार काट
सकूं...
बेताब हूं इसके लिए...
देखो तो/ जागो तो/
सुनो तो
सबके साथ यही हुआ
है... ठीक यही...
हम सबके साथ यही हुआ
है...
...............................
हां मैं देख रहा हूं
साफ साफ
तुम जाग रही हो धीरे
धीरे/ लोग जाग रहे हैं धीरे धीरे
रंगीन, सुगंधित कोमा की दलदल से लोग
धीरे धीरे उठ रहे
हैं, संभल रहे हैं....
बुझी हुई लालटेनों
की बत्तियां ढूंढ रहे हैं लोग...
अपने अपने गमलों में
फिर से रोपेंगे
अपने पौधे, अपने स्वप्न
जिन्हें पोसेगी आजाद
हवा।
मेरी प्रिय
आजाद सांस और आजाद
हवा
और आजाद धरती से बड़ा
कुछ नहीं होता।
...मैं तुम्हारी आंखों
की
रक्ताभा में देख रहा हूं
आजादी का
स्वप्न, पुनर्नवा!
(‘इन्हीं शब्दों में’
संग्रह में संकलित यह कविता ‘स्वप्न पुननर्वा’ नाम से ‘कविता की रंगशाला’
संग्रह में भी संकलित है।)
अब मैं औरत हूँ
मेरे आका
खिड़कियों के सुनहरे
शीशे
अब काले पड़ चुके हैं
उधर मेरा रेशमी
लिबास
तार तार...
कमरबंद के चमकीले
गोटे में
पड़ चुकी फफूंद
तुम्हारे दिए चाबुक
के निशान
मेरी पीठ से होते
हुए
दिल तक जा पहुंचे
हैं...
जिस्म मेरा
नंगा होने लायक अब
नहीं रहा
उस पर दुबके हैं
दुनिया भर के
अनाथ बच्चे...
तार तार मेरा लिबास
उतरते ही जिसके
एक इशारे पर
नहीं कांपने दूंगी
उन बच्चों को
तुम्हारे जूतों की कसम...
मेरे आका
मेरी-तुम्हारी आंखों
की टकराहट से
नहीं पैदा होंगे अब
अंगूर के बागान...
सभ्यताएं और
थरथराएंगी-
तुम्हारे इरादों की
जुंबिश पर।
ब्रह्मांड सिकुड़कर
नहीं जाएगा तुम्हारे
नथुनों में अब...
तुम्हारी धमनियों
में बहता
तीसरी दुनिया का लहू
बेगैरत अब नहीं
रहा...
रौंद रहा तुम्हारी
सैनिक संगीत-लिपियों
को
लोकसंगीत अब...
देख लो
गौर से देख लो मेरे
आका
कि अब
असल में तुम नहीं
रहे मेरे आका;
नई सदी का पहला आघात
हो चुका है तुम्हारी
नाभि पर
तुम्हारी नाभि में
हलाक है आदमी की अधूरी
यात्राएं...
गौर से देख
अब मैं कनीज नहीं
औरत हूं।
टी.वी. पर भेड़िये
भेड़िये
आते थे पहले जंगल से
बस्तियों में होता
था रक्तस्राव
फिर वे
आते रहे सपनों में
सपने खंड-खंड होते
रहे।
अब वे टी.वी. पर आते
हैं
बजाते हैं गिटार
पहनते हैं जीन
गाते-चीखते हैं
और प्रायः अंग्रेजी
बोलते हैं
उन्हें देख
बच्चे सहम जाते हैं
पालतू कुत्ते,
बिल्ली, खरगोश हो जाते हैं जड़।
भेड़िये कभी-कभी
भाषण देते हैं
भाषण में होता है
नया ग्लोब
भेड़िये ग्लोब से
खेलते हैं
भेड़िये रचते हैं
ग्लोब पर नये देश
भेड़िये
कई प्राचीन देशों को
चबा जाते हैं।
लटकती है
पैट्रोल खदानों की कुंजी
दूसरे हाथ में सूखी रोटी
दर्शक
तय नहीं कर पाते
नमस्ते किसे दें
पैट्रोल को
या रोटी को।
टी.वी. की खबरे भी
गढ़ते हैं भेड़िये
पढ़ते हैं उन्हें खुद
ही।
रक्तस्राव करती
पिक्चर ट्यूब में
नहीं है बिजली का
करंट
दर्शक का लहू है।
कैमरा : एक
सिर्फ दृश्य ही नहीं
पकड़ता है कैमरा
दृश्यों के रंग भी
बदलता है
खुद नहीं रोता
दर्शक के तमाम
आंसुओं को
श्रीमंतों के पक्ष
में घटा देता है।
चमड़े के सिक्कों को
बदलता है स्वर्ण
मुद्राओं में
भाषा नहीं है कैमरा
गढ़ लेकिन सकता है
रत्नजड़ित भाषा
उजाड़ में उतार देता
है परिस्तान
धरती पर स्वर्ग बसा
देता है।
जहां नहीं है धरती
रच सकता है धरती
वहां।
जहां है उखड़ी हुई
जमीन
बसाता है बस्तियां
वहां।
दिन या रात
या गहरी रात के किसी
प्रकाश-इंतजाम में
कैमरा
स्लम और
झोपड़पट्टियों की कतारों को
बनाता है आकर्षक
सजाता है बंदनवार शवों पर
मुर्दाघर को कर सकता
है सराबोर
समृद्ध शास्त्रीय संगीत से।
गैस पिये कंकालों के
ढेर पर
रच देता है विश्व
कविता मंच।
नैतिकता के
असमाप्त प्रवचन के
दरमियां
ताबड़तोड़ गालियां
देता है कैमरा।
प्रेम-मुहब्बत को
बना देता है
प्रेम-मुहब्बत की
डमी।
आमात्यों के पक्ष
में रचता है
नयी बाइबिल
रामायण, गीता नयी
वेद, कुरान, पुराण नये
और तो और दास कैपिटल नयी,
परिवारों और दिलों
के
गुप्त कोनों,
प्रकोष्ठों को
करता है ध्वस्त।
दिखाता नहीं है फकत
युद्ध
रचता है युद्ध भी
खा सकता है इतिहास
उगल भी सकता है,
इतिहास का मलबा,
निगल भी सकता है भूगोल-
राज और समाज का
एक चेहरे पर अजाने
ही
चस्पां कर देता है
चेहरा ए और बी और सी
या
कोई भी नोट, पुरनोट
मुद्रा, स्फीति, प्रतिभूति, बैंक,
राष्ट्रीय पुरस्कार
अंतर्राष्ट्रीय तमगे
किरीट या गोबर के
टोकरे
आदमी की काया को
करता है फिट
मनचाहे जानवर के सिर
पर।
सिर के बल खड़े
औचक भौचक इंसानों को
बदलता है
भाप
इंजन
इंधन
इलेक्ट्रान
शून्य
संख्या या गणित में।
अचेत इंसानों के
इरादों तक को
गुजार देता है
इन्फ्रारेड इंद्रजाल से
या खालिस सैनिक
संगीत में
अनूदित कर देता है।
सिलसिला शवाब पर है
कैमरा प्रमुदित है
हे दर्शक
चाहे तो
गौर से देख
दिखाता जो कैमरा है
शक्तिशाली उससे भी
तीन आयामी फिल्में
असंख्य
चलती हैं तुम्हारी
चेतना के पर्दे पर
तुमने ज्यादा देखा
है।
अभी तो
कुछ-कुछ नींद में हो
नहीं जो तुम्हारी
कमाई हुई पूरी-पूरी
तुम चाहो तो
जा सकते हो
कैमरों के पीछे
चाहो तो
मोड़ सकते हो
कैमरों का लैंस भी
मोड़ते जैसे हो बंदूक
की नाल
कभी-कभी।
यकीन कर
हे दर्शक
व्यू फाइंडर देखेगा
वही
जो तुम देखना
चाहोगे।
तय करो
कहां रहोगे अंततः
कैमरों के आगे
या पीछे?
कैमरा : दो
टीवी सब दिखाता है
फौजी विजयघोष।
राजपथ विजयपथ दर्पपथ
लेफ्ट राइट लेफ्ट
राइट
लेफ्ट राइट थम।
सांस थामे
जीन कसे घोड़ों की
चमकीली पीठ पर
लहरियां लेता संगीत
बरतानी बाजों से
सांप की फुफकार-सा
बाहर आता है
राजा गाल बजाता है!
पार्श्व में
रोता है भारत का
दलिद्दर!
सुरक्षा कवच पहन-पहन
बैठे सिपहसालार और
सालारजंग
दायें-बायें
नगर-प्रांतों में गोली-वर्षा जारी
शासन पर विजय का
पल-पल नशा तारी।
ढेर-ढेर होता है
भारत का दलिद्दर
सचिवालय के पार्श्व में रोता है!
खद्दर से रेशम तक
खोई से साटन तक
पहुंच गया गणराज्य
सैनिक के बूटों के
नीचे जो
बजता है
महाकुठार
शवों-अस्थियों का
शस्त्रों का नहीं।
कनस्तर खाली है
माल-असबाब सब
अन्न, खाद्यान सब
तन्न, मन्न, धन्न सब
विजय गीत की
स्वरलिपियों में बदल
चुका।
दासानुदास प्रवर
बना बैठा है प्रधान
लोक-लोक बज रहा
सज रहा तंत्र-तंत्र
सत्ता के मंत्र पर
गर्दन हिलाता है
विषधर वह
जिसकी फुफकार
आती बाहर है
बरतानी बाजों की नलियों से
छिद्रों से।
आसमान बारूदी
हवा, पानी, धरती सब बारूदी
भारत का दलिद्दर
खांसता है खांसता
है।
संसद में संसद
1
संसद में बिकी संसद
टके सेर
राजपथ पर सुलभ सारे
हेर फेर
बिना मूल्य बिके
मूल्य टके सेर
संसद में बिकी संसद
टके सेर।
भाजपा जपा इंका
तिंका
जद फद, जदस फदस
अगप सकप
सपा बसपा
लुक छिप सरे-आम
बिना दाम
लुट रहे टके सेर
संसद में बिकी संसद
टके सेर।
2
कीचड़ मल सने राजकाज
हत्या हथियारों के
व्यापारी
लूट चके शर्म लाज
मादर
बिरादर तक सत्ता के
दरबदर घूम रहे-
सत्ता के अपने ही गलियारे
त्राहि त्राहि रहे टेर
संसद में बिकी संसद
टके सेर।
3.
भाषण पर भाषण देता
है दुःशासन
अनुशासन की चीर जांघ
सजा धजा हत्यासन
कविचारण, कलावंत, पत्रकार,
कलाकार
भाट रचनाकार करते
संकीर्तन
द्रौपदी का चीरहरण
फिर जारी
वृहन्नला बने खड़े
हैं-
जबर-बबर-रबर-शेर
संसद में बिकी संसद
टके सेर।
4.
जनता को
गाय वाय
भेड़ भूड़
बकरी या ठेठ मूढ़
समझे हैं सदियों से
धवल वस्त्रधारी पिंडारी
भाषा के आखेटक,
नियमों-अधिनियमों के
नादिरी बहेलिये
हाड़ मांस नगर गांव
इंसानी हाथ पांव एक
साथ खाते जो
सभ्यता चबाते जो
मूल, सूद, पंचायत, पालिका, जिला, प्रांत...
देश-द्वीप-महाद्वीपखोर
ग्लोब की नसों पर,
चिपके हैं-
जोंक से...
बारूदी, रक्तबुझी, स्वर्णतुला
तौल रही देश-दुनिया
संसदी चंगेज मुखरित
हैं, मगन हैं
मगन उनके धूर्त,
हिंसक पुतुल-सर्कस
संसदी चंगेज के गुंडे
बजाते तालियां हैं
राम-महिमा के निकट
ही
दाम-महिमा का हरम है
गरम है, खासा गरम है
शासनी बंदूक के घोड़े
के पीछे-
राम-रथ के,
रोज की तनखा-खरीदे
खच्चरी घोड़े खड़े हैं
उनके पीछे
क्रूर चेहरे
न्याय, समता की नटी की
ओढ़नी ओढ़े खड़े हैं
पोस्टर पर पोस्टर पर
पोस्टर है
शब्दकोषों की धुनाई
चल रही है
जन-लहू की
उन को बट कर
बुनाई चल रही है
हर अंधेरा मुंह
छिपाए
भागता है-
देखकर यह
खून से तरबतर अजब अंधेर
संसद में बिकी संसद
टके सेर।
5.
संसदी चंगेज के खूनी
जमूरे
औरतों, मजदूर, बच्चों को, किसानों को
दफ्तरों, सड़कों, मुहल्लों को
कारखानों, मदरसों को
खेत को, खलिहान को
रायफल की नोक पर
टांगे खड़े हैं...
पेटियां मत की हुईं
तैयार
हुलसते हैं
सेठ-साहूकार
लो,
उधर सुविधा-सलौने
उर्फ बौने
बिके, सत्ता-सिंके वे सब पत्रकार
झूठ की रपटें बनाने
में जुटे हैं,
पत्रकारी के सभी
आदर्श-
स्वर्ण बिस्कुट
मोद मदिरा से पिटे हैं
स्वेच्छा से, लुटे हैं;
खौफ के मंजर हैं या
जम्हूरियत के खाक
पिंजर
रोज टीवी पर दिखाए
जा रहे हैं
खून पीते
ग्लोब भर का नून
खाते, चून खाते
संसदी चंगेज
रोज टीवी पर दिखाए जा रहे हैं
आदमी से आदमी तक
खिंच रही है
बोल-भाषा की दिवार
इस सदी से दूसरी में
हो रही दाखिल
गुनाहों की मिनार...
कालिमा की
किंगडम का बनैला
अंधेर...
संसद में बिकी संसद
टके सेर।
हट जा...हट जा...हट
जा
आम रास्ता
खास आदमी...
हट जा, हट जा, हट जा, हट जा।।
खास रास्ता
आम आदमी
हट जा, हट जा, हट जा, हट जा।।
धूल फांक ले,
गला बंद कर,
जिह्वा काट चढ़ा दे-
संसद की वेदी पर,
बलि का कर इतिहास
रवां तू,
मोक्ष प्राप्त कर,
प्रजातंत्र की खास
सवारी का-
पथ बन जा
हट जा, हट जा, हट जा, हट जा।।
बच्चों की किलकारी
बंद कर
राग भारती की वेला
है
शोषण का आलाप रोक दे
राष्ट्र-एकता का रथ
पीछे मुड़ जाएगा,
क्लिंटन-मूड बिगड़
जाएगा,
गौर्बाचैफ शिरासन
करता रुक जाएगा...
आंख मूंदकर-
भज हथियारम्,
कारतूस का पावडर बन
जा,
हत्यारों के नवसर्कस
में
हिटलर का तू हंटर बन
जा
हट जा, हट जा, हट जा, हट जा।।
सोच समझ के-
हेर फेर में-
मत पड़-
सुन ले-
मत पेटी के बाहर
लिखा है-
‘ठप्पा कहां लगाना
लाजिम’,
राजकाज के-
तिरुपति मंदिर-
की हुंडी में
सत्य वमन कर
हल्का हो जा,
आंतों पर
सत्ता का लेपन-
कर, सो जा निफराम नींद तू,
मल्टीनेशन के
अल्टीमेटम को सुनकर
पूजा कर तू विश्वबैंक
की
कर्जों का इतिहास
रवां कर
महाजनी परमारथ बन जा
हट जा, हट जा, हट जा, हट जा, हट जा।।
कला फला का,
न्याय फाय का,
अदब वदब का,
मूल्य वूल्य का,
जनहित वनहित,
जनमत फनमत
सब शब्दों का
इंद्रजाल है
इसमें मत फंस,
कलदारी खड़ताल बजा ले,
कीर्तन में लंगड़ी
भाषा सुन,
सुप्त सरोवर में
गोते खा,
धूप, दीप, नैवेद्य सजाकर
राजा जी की गुण-गीता
गा...
आम आदमी
खास भरोसे,
राम भरोसे जगती को
कर,
जनाधार का ढोल पीटकर,
परिवर्तन की मुश्क
बांध ले,
सावधान बन,
शासन जी की इच्छाओं
का
प्रावधान बन,
शासित हो, अनुशासित हो जा,
जाग छोड़ दे, नींद पकड़ ले,
अपना आपा आप जकड़ ले,
आतमहंता वर्जिश
करके-
एजडिजायर्ड शराफत बन
जा
हिस्टोरिकल हिकारत बन जा
आदमखोर हिमाकत बन जा
रक्त-राग की संगत बन
जा
हरी अप
हरी अप
हरी अप
हरी अप
भू देवों के नेक
इरादों पर तू डट जा
हट जा, हट जा, हट जा, हट जा।।
बोल, अबोले बोल
1
बोल
अबोले बोल
अबोले बोल
फंसे जो,
भाषा के संकरे
भोजन-तलघर से लेकर
भाषा की वर्तुल
ग्रीवा में
गांठ-गांठ
गठरी-गठरी में
भाषा की ठठरी में बजती है
अर्थ-समर्थ
अनर्थ
हुए सब डांवाडोल।
बोल
अबोले बोल
अबोले बोल।
2
तम से उपजा
काल
हुआ आपात
उधेड़ा गात प्रात का
वणिक चक्र से
ब्रह्मचक्र तक
काल काल आपात।
काल चबेना राजकाज का
जनता के आमाशय में
जबरन ठूँसा जाता
चुभता बनकर विष-शूल।
कभी कलदार-खनक,
दक्षिणा-दंड वह
कुत्तों तक को नहीं
हुआ मंजूर,
हुआ मगरूर....
खोल, काल की ऐंठन खोल।
बोल
अबोले बोल, अबोले बोल।
3.
मुर्दे घूम रहे।
बस्ती में।
सस्ती, सुंदर और टिकाऊ
सरकारों का
दंड-विधान लिए।
प्रेत-बाध को कील,
कवि।
कर, सर-संधान प्रिये
घर,
मग में अब
लौह-चरण
सत्ता का उड़े मखौल।
बोल
अबोले बोल, अबोले बोल।
4.
शस्त्रों की
खेती उजाड़
भकुओं के भाषण
फाड़
स्वेद कणों की देख
बाढ़
भागें लबाड़
लुच्चे, बैरी, कुटिल-कबीले
मुफ्तखोर, साधू-कनफाड़
काट डाल सपनों के
बंधन,
तन के, मन के।
दायें-बायें उगी हुई
जो
खरपतवारी बाढ़,
खूब चले हंसिया
कुदाल....
सोने की हेठी के
नाकों में लोहे की
दे नकेल
शोषक सांप-बिच्छुओं
को
धरती से नीचे दे
ढकेल...
शिशुओं का क्रंदन
बंद करो कवि
उनके आंसू का मंडी
में लगे न कोइ्र मोल
दोहन का मिट्टी-गारा,
श्रम-कर्म-संपदा को,
हे कवि।
पूरा-पूरा तोल
बोल, अबोले बोल
अबोले बोल।
परहित
जनहित के ध्वज फहरें
राजमहल पर, प्रासादों पर
दहल-दहल जायें
भूपतियों के कातिल
संसार संवत्सर
स्वर्ण-बिस्कुटों की
जाजम
बिछ जाए वहां जनपथ
पर।
जनता के घायल पद-दल
से
फूटें
नव दिनकर।
क्रांति-राग के
सम्मुख हारे
खूनी शंख, ढपोल
बोल
अबोले बोल
अबोले बोल।
अयोघ्या : एक
बाकर अली
बनाते थे खड़ाऊं
अयोध्या में।
खड़ाऊं
जाती थीं मंदिरों
में
राम जी के
शुक्रगुजार थे बाकर
अली।
खुश था अल्लाह भी।
उसके बंदे को
मिल रहा था
दाना-पानी
नमाज और समाज
अयोध्या में।
एक दिन
जला दी गई
बाकर मियां की दूकान
जल गई खड़ाऊं-
मंदिरों तक जाना था
जिन्हें
हे राम!
केरल-प्रवास : तीन
कैंटीन के भीतर से
आती
खुशबू ने मुझे
लुभाया...
कैंटीन के भीतर जाकर
सांबर के संग चावल
खाया
ऊपर से एक
छोटा पापड़
चरड़ चरड़ चड़ खूब
चबाया
कूट्ट भी खाया
कद्दू का कुछ...
चार ओक पी रसम चरपरी
छाछ पिया फिर तीन
कटोरी।
भूलभाल कर
दिल्ली, हिंदी
भूलभाल कर
शर्ट-पैंट, अंग्रेजी की दुम
मैंने भी लुंगी डाटी
थी
तबियत खासी खांटी
थी।
चलन हुआ रंगीला मेरा
चाल हो गई गबरू मेरी
मुझे देखकर
कैंटीन का पतला-सा
वह
खुशदिल बैरा
फरर फरर हंसता जाता
था
मानो कहता हो वह
मुझको-
‘दिल्ली वाले के बस
का यह
इमली रोज पचाना
यूं आसान नहीं जी
मुश्किल है जी।
एक साल कम से कम रह
लो
थोड़ी-सी मलयालम सीखो
थोड़ा-सा कर्नाटक
म्यूजिक
केरल कला मंडलम जाकर
थोड़ी सीखो कला-कथकली
नंबूदरियों से भिड़ने
का कौशल सीखो
थोड़ा सीखो हाथ चलाना,
पैर चलाना
थोड़ा सीखो नाव चलाना
कई-कई दिन
घरवालों से दूर
समंदर के जबड़ों में
रहना सीखो।
मच्छी पकड़ो
कच्छी पहनो
पैंट-शर्ट को अलमारी
की भेंट चढ़ाओ...
नारिकेल के
ऊंचे-ऊंचे शहतीरों
पर
सरपट-सरपट चढ़ना
सीखो।
केरल की जनता के
संग-संग
जीना सीखो, मरना सीखो,
ताप, घाम, बारिश-थपेड़ को
सिर-माथे पर धरना
सीखो।
धारा के विरुद्ध
तैरो तो
बात बनेगी
इमली तभी पचेगी।
वरना श्रीमन्
नारिकेल की चटनी
खाकर
केले के पत्तों पर
थोड़ी
उपमा लेकर
अप्पम लेकर
लेकर थोड़ा
पान-सुपारी,
ताड़ी की कुछ
लाल खुमारी
हरियाली का
चुंबन लेकर
लौटो अपनी दिल्ली
वापस
पहनो अपनी पैंट महाशय
पकड़ो अपनी ट्रेन
महाशय
केरल को
केरल रहने दो।’
संगीत : एक
कहां से आ रहा है
संगीत यह?
शेल्फ में अंटी,
धूल-सनी
किताबों में
संभावनाएं भरता हुआ....
यह संगीत कहां से आ रहा है...?
दिशाओं के
श्वेत परदों पर
उभरने लगीं
सपनों में देखे सच
की शक्ल...
मैले-चीकट चेहरों पर
नाचने लगे
जुगनू...
खंडहरों में धूनी
रमा रहे हैं
बिस्मिल्ला खां...
भूतकाल के लैंपपोस्ट
के नीचे खड़ी
खलास-बदहवास
आकृतियों में
उभरने लगे हाथ पैर सिर
अभियान...
अकादमियों की कारा
से
मुक्त होकर दौड़ पड़े
रचनाकार
विस्तृत मैदानों में
सांस लेते खुलकर
हवाओं को आलिंगनबद्ध
करते....
मुक्तिकामी रचनाओं का
चुंबन लेते चुंबन देते....
जादू कर रहा है
संगीत यह...
खुल रही है बस्ती की
डरी दुबकी खिड़कियां
सड़कों पर जुट रहे हैं लोग
शिरस्त्रान कस रही हैं राजधानियां
रक्षाकवच पहन रहे हैं भद्रजन....
चाबुक खाई मांओं की
गोद में
लोरियां सुनते
शिशु
उठ बैठे हैं
सीख रहे हैं जल्दी-जल्दी चलना
मौसम के तमाम
आदिम अर्थ लेकर
इतिहास की लावारिस
काली-सफेद सुर्खियां
लेकर
आंसुओं के सूर्यमुखी
लेकर
जड़ आत्माओं के
विलुप्त गीत लेकर
और
मेरे समय के आधे हरे
आधे भरे
घावों को दुलराता
और
मेरे समय के शब्दों
को
अर्थवान करता....
और
करता हुआ हजारों
सुराख
अंधेरे की दीवार में
यह संगीत...
आखिर
कहां से आ रहा है?
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