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Tuesday, July 24, 2018

मैथिली के वरिष्ठ आलोचक मोहन भारद्वाज को जसम की श्रद्धांजलि

''मोहन भारद्वाज से दिल्ली में युवा कवि अच्युतानंद मिश्र के साथ मुलाकात हुई थी। उसके बाद एकाध आयोजनों में भी उनसे मुलाकात हुई। पहली मुलाकात मुझे इसलिए भी याद है कि उन दिनों समकालीन जनमत में हम विभिन्न भाषाओं और जनभाषाओं के साहित्य पर लेख प्रकाशित कर रहे थे, ताकि हिंदी के पाठक उस भाषा के साहित्य से अवगत हो सकें। मैथिली साहित्य जिसकी लंबी परंपरा है, उस पर बातचीत हुई। उसमें मौजूद प्रगतिशील-जनवादी धारा के साहित्य पर भी उनसे बातचीत हुई। मैंने उनसे अनुरोध किया कि वे मैथिली साहित्य, खासकर समकालीन मैथिली साहित्य पर ‘जनमत’ के लिए लिखें। वे उस समय किसी और लेखन कार्य में व्यस्त थे, पर उन्होंने कहा कि समय मिला तो जरूर लिखूंगा। हालांकि यह संभव नहीं हो पाया। उस मुलाकात में वे जितने सीधे-सहज लगे, एक शांत और धैर्यवान साधक की तरह, इस कारण भी मैं उन्हें नहीं भूल पाया। अच्युतानंद ने बताया कि आपसी बातचीत में लोग उन्हें मैथिली का नामवर सिंह कहते थे। अच्युता के अनुसार इतिहास का उन्हें गहरा ज्ञान था। 
आज बीबीसी के पूर्व बिहार संपादक मणिकांत ठाकुर से मैंने उनके बारे में पूछा तो उन्होंने छात्र जीवन में पढ़़ी ‘मिथिला मिहिर’ में प्रकाशित उनकी कविता को याद किया और उसकी तीन पंक्तियां भी सुनाईं, जो अब भी उन्हें याद थीं। हिंदी में उन पंक्तियों का अर्थ भी उन्होंने समझाया- ‘मन होता है आपको छड़ी से पीटूं/ फिर मन होता है हृदय से लगा लूं/ अपने में आत्मसात कर लूं।’ मणिकांत जी ने ही बताया कि वे रांची एजी आॅफिस में काम करते थे, बाद में पटना एजी आॅफिस आ गए।
‘बलचनमा वाली पुस्तक का नाम मुझे याद नहीं आ रहा था। उसका नाम कथाकार अशोक जी ने बताया और डाक-वचन वाली किताब का नाम भी उन्होंने ही बताया। 
उन्होंने मैथिली साहित्य में प्रगतिशील-जनवादी आलोचना को समृद्ध किया।''

मैथिली साहित्य में आधुुनिक-प्रगतिवादी दृृष्टिबोध को विकसित किया मोहन भारद्वाज ने : जसम
पटना : 24 जुलाई 2018
जन संस्कृति मंच ने मैथिली के वरिष्ठ आलोचक मोहन भारद्वाज के निधन पर शोक संवेदना जाहिर करते हुए कहा है कि उनका निधन भारतीय साहित्य की प्रगतिशील साहित्यिक धारा के लिए एक अपूरणीय क्षति है। जन संस्कृति मंच के राज्य सचिव सुधीर सुमन और जसम, पटना के संयोजक कवि राजेश कमल ने कहा है कि नागार्जुन और राजकमल चौधरी के बाद की पीढ़ी के जिन प्रमुख साहित्यकारों ने मैथिली साहित्य में आधुनिक-प्रगतिवादी मूल्यों और नजरिये के संघर्ष को जारी रखने की चुनौती कुबूल की थी, मोहन भारद्वाज उनमें से थे। यह संयोग नहीं है कि नागार्जुन और राजकमल चौधरी पर उन्होंने मैथिली आलोचना साहित्य में बेहतरीन काम किया, जिसे हिंदी में भी अनूदित होना चाहिए। नागार्जुन के उपन्यास पर केंद्रित उनकी पुस्तक का नाम ‘बलचनमा : पृष्ठभूमि आ प्रस्थान’ है और राजकमल पर केंद्रित पुुस्तक का नाम ‘कविता राजकमलक’ है। समकालीन साहित्य के साथ-साथ इतिहास और परंपरा पर भी उनकी गहरी नजर थी। उन्होंने मैथिली की बहुत ही पुरानी डाक-वचन की परपंरा पर काम किया और ‘डाक-दृष्टि’ नामक पुस्तक प्रकाशित की। 
9 फरवरी 1943 में बिहार के मधुबनी जिले के नवानी गांव में जन्में मोहन भारद्वाज पिछले कुछ दिनों से कोमा में थे। रांची के एक अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था। वहीं आज सुबह उन्होंने अंतिम सांस ली। 
मोहन भारद्वाज ने आरंभिक दौर में कुछ कविताएं भी लिखीं, जो ‘मिथिला मिहिर’ जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। उन्होंने कुछ कहानियां भी लिखीं। लेकिन बाद में उन्होंने सिर्फ आलोचनात्मक साहित्य ही लिखा। ग्रियर्सन के ‘भारत का भाषा सर्वेक्षण’ समेत कई अनुवाद भी किए। मैथिली गद्यक विकास, मैथिलीक प्रसिद्ध कथा, रमानाथ झा रचनावली, समकालीन मैथिली कविता आदि पुस्तकों का उन्होंने संपादन किया। मैथिली के प्रसिद्ध रचनाकार कुलानंद मिश्र के साथ उनके करीबी संबंध थे। उनके निधन के बाद उनकी कविताओं के प्रकाशन में उनकी महत्वपूूर्ण भूूमिका रही। ‘मैथिली आलोचना : वृत्ति आ प्रवृत्ति’ शीर्षक से मैथिली आलोचना पर भी उनकी एक पुस्तक प्रकाशित हुई। आलोचना के अलावा संस्मरण, नाटक, निबंध से संबंधित पुस्तकें भी उन्होंने लिखीं या संपादित कीं, जिनमें ‘अर्थात’, ‘स्मृृति संध्या : भाग- एक और तीन’, ‘किरण नाट्य संग्रह’ आदि प्रमुख हैं। उन्होंने इंटरमीडिएट के छात्रों के लिए ‘मैथिली गद्य-पद्य संग्रह’ भी तैयार किया था। उन्हें यात्री चेतना पुरस्कार और प्रबोध सम्मान से सम्मानित किया गया था। 
मैथिली साहित्य में प्रगतिशील आलोचनात्मक दृष्टि और समाजशास्त्रीय आलोचना की प्रवृत्ति को विकसित और मजबूत करना ही मोहन भारद्वाज जैसे प्रखर आलोचक के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। 

राजेश कमल, संयोजक, जन संस्कृति मंच, पटना की ओर से जारी

Saturday, June 22, 2013

अंधेरे दौर में जनविमर्श : सुधीर सुमन




अनंत कुमार सिंह, अच्युतानंद मिश्र और कुमार मुकुल की किताबों पर  एक निगाह 


एक ऐसे दौर में जब अखबारों के संपादक प्रगतिशील जनवादी आकांक्षाओं वाले साहित्य को छापने के बजाए उसका उपहास उड़ाने को अहमियत दे रहे हों और पूरी नई पीढ़ी के भीतर सर्वनकार और आत्मश्लाघा की प्रवृत्ति को खूब प्रोत्साहित किया जा रहा हो, तब उन साहित्यकारों की आकांक्षाओं की थाह लेना ज्यादा सार्थक प्रतीत होता है, जो साहित्य को आज भी बदलाव का माध्यम समझते हैं और जो विचारधारात्मक मूल्यों की पहचान, उन मूल्यों को बचाए रखने की चिंता और नए जनपक्षधर मूल्यों की तलाश को ज्यादा अहमियत देते हैं। 

हाल में मुझे तीन पुस्तकें मिलीं। पहला कहानी संग्रह है कथाकार अनंत कुमार सिंह का- ब्रेकिंग न्यूज। शीर्षक कहानी खुद ही एक ऐसे साहित्यकार के बारे में है जिसकी एक इलेक्ट्रानिक चैनल का एक्सीक्यूटिव प्रोड्यूसर बनने के बाद साहित्य की दुनिया में भी पूछ बढ़ जाती है, पर वह अपनी सामाजिक नैतिकता खो देता है। औरतें सिर्फ उसके लिए उपभोग हैं और मीडिया महज मालिक के कारोबार का माध्यम। अपने पारिवारिक सामाजिक रिश्तों से भी वह पूरी तरह कट जाता है। 

शिक्षा (लपटें), खेती (मुआर नहीं), कृषि संस्कृति (भुच्चड़), शहरी मेहनतकशों की जिंदगी (पहियों पर पहाड़, वाह रे! आह रे! चैधरी मुरारचंद्र शास्त्री) के प्रति लेखक गहरे तौर पर संवेदित है। ये अपने ही अहं और कुंठा में डूबे आत्मकेंद्रित मध्यवर्गीय व्यक्ति की कहानियां नहीं हैं। और ऐसा नहीं है कि पुराने समाज के प्रति कोई अंधमोह है इनमें, वहां के शोषण और उत्पीड़न की स्मृतियां, खासकर अपने हक अधिकार से वंचित लोगों और अपने प्रेम से वंचित स्त्रियों (बसंती बुआ, मुखड़ा-दुखड़ा-टुकड़ा!) की बहुत मार्मिक स्मृतियां हैं, जो पाठक की चेतना को लोकतांत्रिक बनाती हैं। शहर और गांव और संगठित और असंगठित श्रमिकों को एकताबद्ध करने का स्वप्न (रात जहां मिलती है) भी इनमें है। कहानी संग्रह का समर्पण भी गौर करने लायक है- इस धरती को जहां रहता हूं मैं अपने शब्दों के साथ।

अपनी धरती और धरतीपुत्रों से जुड़कर उनकी व्यथाओं को कविता में लाने की ऐसी ही चिंता अच्युतानंद मिश्र के पहले कविता संग्र्रह ‘आंख में तिनका’ की कविताओं में दिखाई देती है। इसमें बदलते हुए खतरनाक समय की पूरी पहचान है और अपनी भूमिका की तलाश भी। संग्रह की पहली ही कविता है- मैं इसलिए लिख रहा हूं/ कि मेरे हाथ तुम्हारे हाथ से जुड़कर/ उन हाथों को रोकें/ जो इन्हें काटना चाहते हैं।

अच्युतानंद की कविताओं को पढ़ते हुए प्रगतिशील क्रांतिकारी काव्य धारा की मुहावरा सी बन गई कई पंक्तियों की याद आती है, पर यह नकल नहीं, बल्कि उस काव्य पंरपरा का जबर्दस्त प्रभाव है। जो चीज इन कविताओं को उन कविताओं से अलगाती है, वह है इनमें मौजूद अपने समय के संकट की शिनाख्त। एक कविता का शीर्षक ही है- इस बेहद संकरे समय में। समय जो है वह मनोनुकूल नहीं है, चीजें सारी बेतरतीब हैं, जिनके बीच एक सलीके की तलाश है कवि को, सड़कें बहुत तंग हैं, पर कवि का मानना है कि ‘बड़े सपने तंग सड़कों/पर ही देखे जाते हैं।’ जाहिर है समय के संकटों का अहसास तो है पर वैचारिक पस्ती नहीं है, क्योंकि संकरे समय में रास्ते की तलाश भी है। 

बेशक, वर्तमान से कवि संतुष्ट नहीं है, पर आस्थाहीनता की आंधी में वह बहने को तैयार नहीं है, उसे पूरा भरोसा है कि मेहनतकश हाथों से ही ‘दुनिया का नक्शा’ बदलेगा। इन कविताओं में शहर हैं, जो बस्तियों की छाती पर पैर रख जवान हुए हैं, देश है, जिसमें बच्चे भूखे ठिठुर रहे हैं, ‘किसान’ धीरे-धीरे नष्ट किए जा रहे हैं, नौजवान मरने को अभिशप्त हैं, औरतें उदास, उत्पीडि़त और पराधीन हैं, बच्चे उपेक्षित हैं। लेकिन शासकवर्ग देश ही नहीं, पूरी पृथ्वी की ही रक्षा का नाटक करता है। लेकिन त्रासदी यह है कि इस नाटक के बीच ‘डूबते किसान को कुछ भी नहीं पता/ डूबती हुई पृथ्वी के बारे में’ (आखिर कब तक बची रहेगी पृथ्वी)। 

‘एकालाप’ महज किसी लंबी कविता का शीर्षक ही नहीं है, बल्कि हर कविता मानो खुद से भी जिरह है। यही अगर इस संग्रह का शीर्षक भी होता, तो शायद ज्यादा उचित होता। यह एक ऐसी कविता है जिसमें कवि की वैचारिक बेचैनियों के कई स्तर नजर आते हैं और साथ ही एक जनधर्मी काव्य मुहावरा विकसित करने की जद्दोजहद भी- ‘सुरक्षित था जीवन/ आरक्षित था मन/ केंद्रित था पतन/ और ठगा जा रहा था वतन।’ 

संग्रह के फ्लैप पर आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी ने सही ही लिखा है कि अच्युतानंद पर्यवेक्षक कवि नहीं, अतटस्थ रचनाकार हैं। 

पर्यवेक्षण और परिवर्तन की चाहत का ऐसा ही द्वंद्व कुमार मुकुल की आलोचनात्मक लेखों के संग्रह ‘अंधेरे में कविता के रंग’ में दिखाई देता है। कवि से कर्ता होने का उनका आग्रह रहता है। वे श्रम की कीमत बताने तक कवि की भूमिका नहीं मानते, बल्कि श्रम की लूट को नष्ट करने का तरीका बताने का भी आग्रह करते हैं। राजनीतिक कविताआंे की जरूरत, अनिर्णयों का अरण्य बनती हिंदी कविता, अंधेरे में की पुनर्रचना जैसे लेख हिंदी कवियों से निर्णायक भूमिका की अपेक्षा रखते हैं। आलोचक का जो वैचारिक आग्रह कवि से है, वही समाज से भी है, इसलिए भी कि कविता को समाज से अलग करके वह कहीं नहीं देखता। इसलिए कविता में आलोचक को स्त्रीविरोधी कोई स्वर भूले से भी मंजूर नहीं है। रघुवीर सहाय और धूमिल से इसी कसौटी पर कुमार मुकुल अपनी असहमति जाहिर करते हैं। सविता सिंह, अनामिका, निर्मला पुतुल आदि कवियत्रियों की कविताओं के मूल्यांकन के दौरान स्त्रियों के प्रति उनकी संवदेनशीलता और उनकी मुक्ति के प्रति अटूट पक्षधरता दिखाई पड़ती है। अंधविश्वास, अवैज्ञानिकता, तथ्यहीनता और तर्कहीनता आदि के वे मुखर विरोधी हैं और इस आधार पर अपने प्रिय कवियों की पंक्तियों की भी आलोचना करने से नहीं चूकते। किसी आलोचक द्वारा अपने पसंद-नापसंद को भी निरंतर जांचना और अपनी आलोचनात्मक समझ को दुरुस्त करते रहना सकारात्मक प्रवृत्ति है, जो आजकल के कम आलोचकों में दिखाई पड़ती है। फिर दूसरों की समझ और राय को भी महत्व देने और अपने आलोचनात्मक विवेक के निर्माण में उसे भी जगह देने की जो आदत है, वह भी उनकी आलोचना पद्धति की खासियत है। वे प्रगतिशील जनवादी शब्दावलियों का इस्तेमाल अपेक्षाकृत कम करते हैं, पर उनकी आलोचना में निहित जो वैचारिक आकांक्षा है, वह निःसंदेह प्रगतिशील-जनवादी है, आधुनिक है। उनके आलोचक ने विचारों और सपनों में यकीन नहीं खोया है। 

कुमार मुकुल की आलोचना बहस के लिए उकसाती है। खासकर दो या कभी कभी तीन कवियों को आमने सामने रखकर तुलना करते हुए जो निर्णय वे सुनाते हैं, उसमें अच्छी कविता और बुरी कविता का जो वर्गीकरण होता है, उस वर्गीकरण से बहसें रह सकती हैं। लेकिन यह तो स्पष्ट है कि उनकी आलोचना पाठक को हिंदी कविता के व्यापक संसार से परिचित कराती जाती है। जिन कवियों और कविताओं को कुमार मुकुल परशुरामी मुद्रा में ध्वस्त करते हैं, उनके प्रति भी एक जिज्ञासा पनपती है कि जरा उस कविता को देखा जाए एक बार, जिससे मुकुल इतना क्षुब्ध हैं। कुल मिलाकर ‘अंधेरे में कविता के रंग’ की आलोचना पाठक को हिंदी कविता और अपने समय के जरूरी सवालों और बहसों से जुड़ने को उकसाती है, यही इस किताब की खासियत है।




ब्रेकिंग न्यूज (कहानी संग्रह)

अनंत कुमार सिंह

भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली

मूल्य: 120 रुपये

आंख में तिनका (कविता संग्रह)

अच्युतानंद मिश्र

यश पब्लिकेशंस, दिल्ली

मूल्य: 150 रुपये

अंधेरे में कविता के रंग (आलोचना)

कुमार मुकुल

नई किताब, दिल्ली-92

295 रुपये
                                        (समकालीन जनमत जून २०१३ से साभार)