Thursday, January 15, 2015

नेह के ई लहरिया, ना सूखी कभी (भोला जी के स्मृति दिवस पर ) : सुधीर सुमन

भोला जी को मैं अपने बचपन से नवादा थाने के इर्द-गिर्द पान की गुमटी में बैठा देखता रहा। यहीं बैठकर वे गरीब-मेहनतकशों पर जुल्म ढाने वाले थाने और कोर्ट को उड़ाने और जलाने की बात करते रहे, बेशक व्यावहारिक तौर पर नहीं, जुबानी ही सही, पर इन संस्थाओं के प्रति जनता का जो गहरा गुस्सा था, वह तो इसके जरिए अभिव्यक्त होता ही था। कितनी बार प्रशासन के अतिक्रमण हटाओ अभियान में उन्हें यहां से हटना पड़ा था, पर बार-बार वे यहीं आकर जम जाते थे। 

उनकी पान दूकान आरा में जनसंस्कृति और जनता की राजनीति से जुड़े लोगों के मेल-मिलाप का अड्डा रही। भले व्यंग्य में कभी उन्होंने खुद पर बेवकूफ पान वाले का लेबल लगा लिया था, पर वे पढ़े-लिखे और अपने ही निजी स्वार्थ की दुनिया में खोये रहने वाले समझदारों में से नहीं थे, बल्कि उन समझदारों में से थे, जिनके लिए रमता जी ने कहा था कि राजनीति सबके बूझे के बुझावे के पड़ी, देशवा फंसल बाटे जाल में छोड़ावे के पड़ी। भोला जी शहर में माले और जसम की गतिविधियों मे शिरकत करते और पान की दूकान पर बैठे हुए कांग्रेस और गैर-कांग्रेस की तमाम सरकारों को आते-जाते देखते रहे और महसूस किया कि गरीबों की पीड़ा खत्म ही नहीं हो रही है। उदाहरण के तौर पर इसी गीत को देखा जा सकता है-

कवन हउवे देवी-देवता, कौन ह मलिकवा
बतावे केहू हो, आज पूछता गरीबवा
बढ़वा में डूबनी, सुखड़वा में सुखइनी
जड़वा के रतिया कलप के हम बितइनी
करी केकरा पर भरोसा, पूछी हम तरीकवा 
बतावे केहू हो, आज पूछता गरीबवा

कांग्रेस के लंबे शासन के बाद लालू जी जो वर्णव्यवस्था और धार्मिक अंधविश्वास की आलोचना करते हुए सत्ता में आए थे, वे बहुत ही जल्दी उसी की शरण में चले गए, लेकिन भोला जी ने ऐसा नहीं किया। बल्कि अपनी पान की दूकान पर बैठकर उनकी सरकार की भी आलोचना की। जिंदगी भर वे किराये के घर में रहे, बाल-बच्चों के लिए जितना करना चाहिए था, उतना कर नहीं पाए, लेकिन वे अपनी मुश्किलों के हल के लिए किसी देवी-देवता के शरण में नहीं गए और ना ही मुश्किलों के कारण निराशा में डूबे। जीवन ही नहीं, उनकी कविता में भी गरीब तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद सवाल पूछता है और यह सवाल पूछना ही उनकी कविता और व्यक्ति दोनों की ताकत है।

मुझे जनमत के पुराने अंक में पढ़ी हुई ‘मैं आदमी हूं’ शीर्षक की उनकी एक कविता याद आती है, जिसमें उन्होंने मेहनतकश मनुष्यों की जुझारू शक्ति, शान और सौंदर्य के बारे में लिखा था। इतना ही नही, भोला ने जाने-अनजाने हमें यह सिखाया कि गरीब-मेहनतकश आदमी की निगाह से देखने से ही शासन-प्रशासन के दावों, राजनीति और विचार का असली सच समझ में आ सकता है। ‘पढ़निहार बुड़बक का जनिहें, का पढ़ावल जा रहल बा’ कविता इसी की बानगी है, जिसमें अखबार की खबरों पर सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा कि नीचा को ऊंचा और ऊंचा को नीचा बताया जा रहा है, जिन्हें शरीफ कहा जा रहा है, दरअसल लोगों की निगाह वे लुच्चे हैं। उसी कविता में आगे वे कहते हैं गरीबन के कइसे गारल जा रहल बा। अपनी आवाज के जरिए वे बकायदा गारने ( कसकर निचोड़ने) की प्रक्रिया को भी व्यक्त करते थे।

मुझे जनमत में ही सितंबर 87 में छपी भोला जी की एक और कविता की याद आती है- जान जाई त जाई, ना छूटी कभी/ बा लड़ाई इ लामा, ना टूटी कभी। और इस लंबी लड़ाई में यकीन के बल पर ही भोला ने दो टूक कहा- जनता के खीस, देखिंहे नीतीश। इसे खीस और नीतीश का तुक जोड़ना मत समझ लीजिए। सोचिए जब नीतीश सरकार द्वारा बांटे जा रहे पुरस्कारांे और सम्मानों के बोझ तले दबे साहित्यकारों-संस्कृतिकर्मियों को जनता के इस गुस्से का अंदाजा नहीं था, किताबी ज्ञान रखने वालों या वर्गीय श्रेष्ठता के अहं से ग्रस्त रचनाकारों और बुद्धिजीवियों को भी जब नीतीश के पराजय की आशंका नहीं रही होगी, तब जनता के कवि ने उनके भविष्य का लेखा लिख दिया था। अब भी बहुत सारे साहित्यकार जनता की ताकत को मजबूत बनाने के बजाए किसी न किसी शासकवर्गीय गठबंधन की ओर उम्मीद लगाए रखते हैं, उनकी तारीफें करते हैं। जनवादी ताकतों की शिकस्त से जो रचनाकार निराशा में डूबकर किसी न किसी शासकवर्गीय राजनीति के साथ जा खड़े होते हैं, उनमें से भोला जी नहीं थे। वे लड़ाई लड़ने के लिए संकल्पबद्ध थे। पाश के लहजे में कहें तो हम लड़ेंगे जब तक लड़ने की जरूरत बाकी है। भोला की समझ थी कि जनता की लड़ाई लंबी है और इस लंबी लड़ाई में दुश्मनों और दोस्तों की पहचान लगातार होनी है। जिस तरह गरीब जनता सरकार और प्रशासन के नस-नस को जानती है, उसी तरह भोला भी उन्हें जानते-समझते थे। उनके पैमाने से अफसर और मच्छड़, हड्डा और गुंडा, नेता और कुत्ता एक ही थे। अब नेता तो जनता के संघर्ष के भी होते हैं, पर उनके लिए उनका पैमाना अलग था, यहां तो नेता साथी होते हैं। तभी तो 1987 की कविता में उन्होंने लिखा कि ‘साथ साथी के हमरा ई जबसे मिलल/ नेह के ई लहरिया, ना सूखी कभी।’ और यह नेह मरते दम तम उनके भीतर मौजूद रहा। 

कई बार खुद से सवाल करता हूं कि भोला जी की कविताएं क्या हैं? जवाब मिलता है, आम जनता का दुख-दर्द ही तो है उनमें, जनता की जिंदगी में बदलाव के लिए जो लंबा संघर्ष चल रहा है, जो उसकी आजादी, बराबरी और खुदमुख्तारी का संघर्ष है, उसी के प्रति उम्मीद और भावनात्मक लगाव का इजहार ही तो है उनकी कविताएं। उन्होंने कोई पद-प्रतिष्ठा और पुरस्कार के लिए तो लिखा नहीं। जिस तरह कबीर कपड़ा बुनते हुए, रैदास जूते बनाते हुए कविताई करते रहे, उसी तरह भोला पान बेचते हुए कविताई करते रहे। भोला आशु कवि थे यानी ऐसे कवि जो तुरत कुछ पंक्तियां गढ़के आपको सुना देते हैं। महान कवियों के इतिहास में शायद भोला का नाम दर्ज न हो पाए, पर जिस तरह इतिहास में बहुसंख्यक जनता का नाम भले नहीं होता, लेकिन वह बनता उन्हीं के जरिए है, उसी तरह भोला की कविताएं भी हैं। वे आरा काव्य-जगत की अनिवार्य उपस्थिति थे। जसम के पहले महासचिव क्रांतिकारी कवि गोरख पांडेय की याद में हर साल होने वाले नुक्कड़ काव्यगोष्ठी ‘कउड़ा’ के आयोजन में भोला जी का उत्साह देखने लायक होता था। हमने देखा है कि जब भी उन्हें कार्यक्रमों में बोलने का मौका मिला, उन्होंने कम ही शब्दों में बोला, पर हमेशा उनकी कोशिश यह रही कि कुछ सारतत्व-सा सूत्रबद्ध करके रख दें। और ऐसे मौके पर अक्सर लोग उनकी कुछ ही पंक्तियों के वक्तव्य पर वाह, वाह कर उठते थे। 

डाइबिटिज की बीमारी से भी एक योद्धा की तरह उन्होंने लंबा संघर्ष किया। अस्वस्थता के कारण उनका शरीर कमजोर हो गया था। लेकिन उन्होंने अंतिम दम तक हार नहीं मानी। भोला ने अपना गोला दागना यानी कविताओं की पतली पुस्तिकाएं प्रकाशित करवाना नहीं छोड़ा। उनका लाल झोला और उसमें रखा हथौड़ा हमेशा उनके साथ रहा, जिसके बल पर वे जनता के दुश्मनों से फरिया लेने का हौसला रखते थे।

हमारे फिल्म उद्योग को धर्म-अध्यात्म के नाम पर जनता को ठगने वालों पर उंगली उठाने के लिए एलियन को गढ़ना पड़ता है, जिसे लोग समझते हैं वह नशे में है यानी पीके है। भोला जी हमारे पीके थे, लेकिन वे कोई एलियन नहीं थे, जीते-जागते इसी दुनिया के मनुष्य थे, पीके इसलिए थे कि पान के पत्ते काटने वाले कवि थे। वे पान के पत्तों के जरिए समाज को देखते-समझते थे, उनका मानना था कि अगर सड़े हुए पत्तों को बाहर नहीं फेंका गया तो वे सारे पत्तों को सड़ा देते हैं। यह संयोग है कि अभी फेसबुक पर अनिल जनविजय ने उनकी तस्वीर लगाकर पूछा कि यह किसकी तस्वीर है तो ज्यादातर लोगों ने उन्हें नागार्जुन बताया।

बेशक वे नागार्जुन नहीं थे, पर उन्होंने मिजाज उन्हीं का पाया था। वे साधारण थे इसीलिए असाधारण थे। आइए साधारण की इस सृजनात्मकता के महत्व को पहचानें, जनता की इस आवाज को सलामी दें। हर साल हम उनकी याद में आयोजन करेंगे और अगले साल से विषय भी देंगे, जिन पर उन्हीं की तरह आशुकविताओं का सृजन किया जाएगा और जनता के बीच उन्हें प्रस्तुत किया जाएगा। उनकी परंपरा इस तरह से आगे बढ़ेगी। 

उन्होंने जिस संघर्षशील जनता को अपने गीत में संबोधित किया आइए हम भी उसे गाएं- 

तोहरा नियर केहू ना हमार बा
मनवा के आस विश्वास मिलल तोहरा से
तोहरे से जुड़ल हमार जिनिगी के तार बा।

No comments:

Post a Comment