Thursday, February 5, 2015

कृष्ण मुरारी किशन ने बिहार के सच को अपनी तस्वीरों में दर्ज किया


कृष्ण मुरारी किशन वैकल्पिक मीडिया और जनांदोलनों के साथी छायाकार थे

समकालीन जनमत और जन संस्कृति मंच की ओर से श्रद्धांजलि 

1987 में जनमत में छपा इंटरव्यू 
समकालीन जनमत के नए अंक की तैयारी के सिलसिले में इलाहाबाद में था। तभी सूचना मिली कि 1 फरवरी की रात में बिहार के मशहूर प्रेस फोटोग्राफर कृष्ण मुरारी किशन का दिल्ली के मेदांता हास्पीटल में निधन हो गया। पिछले दिसंबर में प्रतिरोध का सिनेमा, पटना फिल्मोत्सव में उनसे आखिरी बार मुलाकात हुई थी। उस रोज फिल्मोत्सव में ढेर सारे छोटे-छोटे बच्चे आए थे। फिल्मोत्सव में एक पेटिंग कार्यशाला भी आयोजित थी। बच्चे अभी दो कतारों में बैठकर कागज पर पेंसिल और रंग के जरिए अपनी कल्पनाओं को आकार देने की शुरुआत ही कर रहे थे, कि तभी अचानक कृष्ण मुरारी किशन नजर आए और आते ही उनका कैमरा उमंग और उत्साह से भरे नन्हें कलाकारों पर टिक गया, मानो फिल्मोत्सव का सबसे खास दृश्य वही हो। फिल्मकारों के प्रेस कांफ्रेस वगैरह से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण उनके लिए बच्चे थे। 

यूं तो हमलोग बचपन से ही अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में उनकी तस्वीरें देखते रहे। लेकिन मैंने उन्हें सबसे ज्यादा समकालीन जनमत में छपी उनकी तस्वीरों से जाना था। चाहे वे गरीब-दलित, खेत मजदूर और भूमिहीन किसानों के जनसंहारों और बिहार में उभरते एक नए किसान आंदोलन की तस्वीरें हों या मुर्गा खाते मुख्यमंत्री विंदेश्वरी दूबे की तस्वीर या बोफोर्स तोप घोटाले के खिलाफ उभरे जबर्दस्त जनांदोलन की तस्वीरें, सबकी याद आने लगी। बैक कवर पर भी कई बार उनके द्वारा ली गई ऐसी तस्वीरें छपती थीं, जिनसे आम आदमी की जीवन स्थिति और जनविरोधी तंत्र का असली चेहरा उजागर हो जाता था। 

समकालीन जनमत के प्रधान संपादक रामजी राय ने बताया कि ‘‘कृष्ण मुरारी किशन जिन अखबारों से जुड़े हुए थे, उन्होंने ‘बेलछी कांड’ से संबंधित फोटो को छापने की हिम्मत नहीं दिखाई थी। बाद में जनमत ने उन्हें छापा था। इस कारण वे कहते थे कि जनमत जनता की पत्रिका है, इसे जब भी जरूरत होगी, मैं बिना पारिश्रमिक के तस्वीरें दूंगा। और अपने इस वायदे को उन्होंने आजीवन निभाया। पटना से जब समकालीन जनमत साप्ताहिक निकलती थी, तब अक्सर उनके द्वारा खींची गई तस्वीरें उसमें छपती थीं। कई अंकों के आवरण भी उन तस्वीरों से बनाए गए थे।’’ 

एक गरीब परिवार में पले-बढ़े छायाकार कृष्ण मुरारी किशन आम आदमी की जिंदगी और उसके संघर्षों के प्रति बेहद संवेदनशील थे। सिर्फ राजधानी पटना ही नहीं, बल्कि पिछले तीस सालों में बिहार-झारखंड की लगभग तमाम चर्चित घटनाओं, जनांदोलनों, प्राकृतिक आपदाओं, पुलिसिया दमन, गरीब-मेहनतकशों के जनसंहार, सामंती जुल्म के खिलाफ सुलगते जनप्रतिरोध और आम जनजीवन के अनेक अछूते दृश्यों को उन्होंने अपने कैमरे की आंख से देखा और अपनी तस्वीरों में उन्हें दर्ज किया। अस्सी के दशक में समकालीन जनमत के संपादक मंडल के सदस्य रहे पत्रकार विष्णु राजगढि़या उन्हें जिंदगी को कैमरे की नजर से देखने वाले आम आदमी के छायाकार के बतौर ही याद करते हैं। संपादक मंडल के दूसरे सदस्य पत्रकार चंद्रभूषण ने बताया कि अपने साथी छायाकारों से वे हमेशा यह कहते थे कि सिर्फ अपनी आंख से देखकर फोटो मत खींचो, कैमरे की आंख से देखो। उन्होंने यह भी बताया कि जनमत के हर अंक की सामग्री तैयार हो जाने के बाद जिस तरह के फोटो की जरूरत होती थी, उसके बारे में उन्हें बताया जाता था और वे उसके अनुसार तस्वीरें उपलब्ध करा देते थे। 

1987 में समकालीन जनमत में छपे एक इंटरव्यू में कृष्ण मुरारी किशन ने बताया था कि 1974 में छात्रों के आंदोलन से वे जुड़े हुए थे। छात्रों के बर्बर दमन की तस्वीरें अखबारों से गायब रहती थीं। उन्हें लगा कि जो तस्वीरें उनमें छपती हैं, वे हकीकत से काफी दूर हैं। वे चाहते थे कि एक्शन तस्वीरें छपे, इसलिए उन्होंने अपने हाथों में कैमरा थामा। जयप्रकाश आंदोलन के चर्चित फोटोग्राफरों में उनकी गिनती होती थी।

जनमत के इंटरव्यू में उन्होंने बताया था कि डाक टिकट जमा करना उनकी हाॅबी थी। डाक टिकट बेचकर ही उन्होंने 1974 में एक साधारण कैमरा खरीदा था और 1977 तक उसी से फोटोग्राफी करते रहे। उन्होंने यह भी बताया था कि उस समय वे पैसे के लिए फोटोग्राफी नहीं करते थे, बल्कि ट्यूशन पढ़ाकर अपना खर्च चलाते थे। उसी समय बिहार में आए बाढ़ और 1979 के जमशेदपुर दंगों की तस्वीरें उन्होंने खींची। कृष्ण मुरारी किशन का कहना था कि ‘‘वह दंगा जनता रिजिम की देन था। सरकार कह रही थी कि 10 लोग मारे गए हैं, लेकिन सच तो यह है कि कुल 300 लोग से कम नहीं मरे थे। कभी मुस्लिम के घर में और कभी हिंदू के घर रात को रुककर मैंने दंगे की तस्वीर उतारी थी।’’

1980 में कृष्ण मुरारी किशन ने पटना के दैनिक ‘आर्यावर्त’ को ज्वाइन कर लिया। फिर रविवार से जुड़े, जिसमें पत्रकार अरुण रंजन और छायाकार कृष्ण मुरारी किशन की जोड़ी बहुत चर्चित रही। दिनमान, साप्ताहिक हिंदुस्तान, इंडिया टुडे, संडे मेल, चौथी दुनिया आदि देश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं, समाचार एजेंसियों और बीबीसी और रायटर समेत कई अंतर्राष्ट्रीय प्रसारण संस्थाओं में भी उनकी तस्वीरों को जगह मिली। कई पुरस्कार और सम्मान भी मिले। सत्ता, राजनीति और नौकरशाही की दुनिया में सब उन्हें जानते थे, लेकिन इस जान-पहचान और संपर्क से उत्पन्न किसी विशिष्टता का गुमान उन्हें कभी नहीं रहा। देश-दुनिया में काफी मकबूलियत के बावजूद वे उतने ही सहज और आम जन के उतने ही करीब थे, जैसा फोटोग्राफी की शुरुआती दिनों में थे। कंधे पर झोला और टूटही साइकिल से उनके छायाकार के सफर की शुरुआत हुई थी, जो स्कूटर से होते हुए एक पुरानी कार तक पहुंची। कार की जरूरत भी उन्हें तब पड़ी जब उनके पैरों में तकलीफ रहने लगी थी।

मैं तो हकीकत को सामने भर लाना चाहता हूँ
कृष्ण मुरारी किशन जोखिम से कभी नहीं डरे। 1980 में तो पटना हाईकोर्ट में सीआरपी वालों ने उन्हें सिर्फ इसलिए घसीट-घसीटकर मारा कि वे सच्चाई को सामने लाना चाहते थे। बिहार में सांमती शक्तियों और पुलिस द्वारा दलितों और खेत मजदूरों की उत्पीड़न की अनेक घटनाओं और उनके संगठित होते आंदोलन को उन्होंने कवर किया। कोई इसके लिए उनकी तारीफ करता तो बहुत ही सहज अंदाज में हंसते हुए वे कहते थे- ‘मैं तो हकीकत को सामने भर लाना चाहता हूं।’ हकीकत को सामने लाने के लिए प्रतिबद्ध कृष्ण मुरारी किशन पर लगभग डेढ़ दशक पहले मुजफ्फरपुर से रात में पटना लौटते वक्त हमला हुआ था और उन्हें गोली मार दी गई थी। उस वक्त भी उन्हें इलाज के लिए दिल्ली भेजा गया था और तब उन्होंने जिंदगी की जंग जीत ली थी। लेकिन इस बार वे हम सबसे हमेशा के लिए जुदा हो गए। 

कृष्ण मुरारी किशन ने बी. काॅम तक पढ़ाई की थी। लेकिन उन्होंने कैमरे के जरिए बिहार के जिस सच को तस्वीरों में दर्ज किया, वह आने वाले समय में न केवल फोटोग्राफी, बल्कि जन माध्यमों, जन संस्कृति और जनराजनैतिक आंदोलनों से जुड़े तमाम लोगों के लिए एक नजीर रहेगा, वह बेमिसाल काम आने वाली पीढि़यों के लिए भी एक प्रेरणा बना रहेगा। वे चाहते थे कि प्रेस फोटोग्राफर प्रेस कांफ्रेस में ही सारा समय न व्यतीत करें, वे गांवों में जाएं। उन्होंने बिहार के गांवों में पल रहे दर्द और आम आदमी की जिंदगी की जिजीविषा को अपनी तस्वीरों में जगह दी। गांवों से शहर आकर मेहनत-मजदूरी करने वाले लोगों की जिंदगी तक भी उनके कैमरे की निगाह पहुंची। 

हमारे लिए वे समकालीन जनमत के अनन्य सहयोगी तो थे ही, जन सांस्कृतिक आंदोलन के भी एक अनिवार्य अंग थे। जन संस्कृति मंच और हिरावल समेत पटना के अधिकांश साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों के आयोजनों मेें वे अपने कैमरे के साथ मौजूद रहते थे और उसे पूरी दिलचस्पी से कवर करते थे। सांवले चेहरे पर सजी उनकी सौम्य मुस्कुराहट और सबके साथ बहुत अपनापे से उनका पेश आना हमेशा याद आएगा। वैकल्पिक मीडिया और जनसांस्कृतिक-जनराजनीतिक आंदोलनों ने सचमुच आज अपने एक सच्चे हमदर्द और साथी को खो दिया है। उनके परिजनों के शोक में हम सब शामिल हैं। समकालीन जनमत और जन संस्कृति मंच की ओर से उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि! 

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