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Tuesday, September 17, 2013

हमारे समय की कोई रचना सत्ता के लिए चुनौती क्यों नहीं बन पा रही है? : मधुकर सिंह

मधुकर सिंह अपने बेबाक बयानी के लिए भी जाने जाते हैं. 22 सितम्बर को नागरी प्रचारिणी सभागार में हो रहे तैयारी के दौरान एक किताब में उनका एक लंबा साक्षात्कार मिला, जिसे अशोक आनंद ने 1993 में लिया था. इसमें वे इस आरोप का पुरजोर विरोध करते हैं कि उनका साहित्य वर्ण संघर्ष का साहित्य है. वे चिंता जाहिर करते हैं कि लोक संस्कृति और लोक साहित्य का जनसंस्कृति और जनसाहित्य के रूप में विकास नहीं हो पाया है. अधिकांश मार्क्सवादी चिन्तक भी आधुनिकतावादियों के साथ बहस और विलास में ही सिमटते सिकुडते रह गए हैं. उत्तर आधुनिकता का वाम मिजाज दूसरा उदाहरण है. उन्हें लगता है कि साहित्यकार संस्कृतिकर्मी 'मास' को चेतना, विद्रोह और प्रतिरोध दे सकता है. वे मानते हैं कि जो शब्द अर्थ नहीं बन पाते, वे शब्द हज़ार लिखने के बावजूद व्यर्थ रह जाते हैं. उनके अनुसार रचना की सोद्देश्यता ही उसका मापदंड निर्धारित करती है. यहाँ पेश है उसके कुछ अंश. जिसे हमने राजेंद्र सिंह द्वारा सम्पादित पुस्तक साहित्य में लोकतंत्र की आवाज़ से लिया है.