Monday, June 19, 2017

सोशल साइट्स के जमाने में कविता की जद्दोजहद : महज बिम्ब भर मैं


राकेश दिवाकर हैं तो चित्रकार, एक सरकारी स्कूल में छात्रों को चित्रकला की शिक्षा देते हैं, पर वे हिन्दी कविता के पाठक भी हैं। पाश उनके प्रिय कवि हैं। अक्सर फेसबुक और गुगल प्लस पर चित्रों के अलावा वे अपनी कवितानुमा अभिव्यक्तियाँ भी लगाते रहते हैं। पिछले दिनों उन्होंने अपनी पीढ़ी के कई चित्रकारों और मूर्तिकारों के काम पर धारावाहिक टिप्पणियाँ लिखीं। राकेश दिवाकर कला समीक्षाओं के अतिरिक्त कविता और कहानी संग्रहों की समीक्षाएं भी लिखते रहे हैं। पेश है सुमन कुमार सिंह के कविता संग्रह 'महज़ बिम्ब भर मैं' पर लिखी गई उनकी समीक्षा, किंचित सम्पादन के साथ। हाल के दिनों में आरा में पुस्तकों या रचनाओं पर गंभीर विचार-विमर्श की प्रवृत्ति बढ़ी है, राकेश की यह समीक्षा इसी की बानगी है। सुमन कुमार सिंह के कविता संग्रह पर बातचीत के दौरान उन्होंने इसी के अंश पढ़े थे। इस बीच पाठक कृष्ण समिद्ध द्वारा लिखी गई समीक्षा उनके ब्लॉग, फेसबुक और हवाट्सएप के जरिए पढ़ चुके होंगे। 'महज़ बिम्ब भर मैं' संग्रह पर जितेंद्र कुमार, सुनील श्रीवास्तव और रविशंकर सिंह ने भी टिप्पणी/ समीक्षा लिखी है। आगे वे भी कहीं पढ़ने को मिलेंगी। 
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पूंजीवादी व्यवस्था में जारी तकनीकी विकास ने हमसे बहुत सी खूबसूरत चीजें छीन ली है । संभवत साहित्य कला का चिंताजनक ह्रास भी इसी का एक दुष्प्रभाव है । यह ह्रास लगभग टीवी के आक्रामक विस्तार के साथ ही शुरू हो गया था लेकिन सोशल साइट्स कीजादुई छापेमारी ने तो सिनेमा तक को हाशिए पर धकेल दिया और साहित्य तो बेचारा अब लगभग इनडेंजर्ड की श्रेणी में पहुंच चुका है ।
यद्यपि फेसबुक पर चोरी की घासलेटी शायरी या कविता ने जोर भी पकड़ा है, बेशक उसमें कुछ मौलिक व काबिल-ए-तारीफ शायरी और कविताई भी हो रही है लेकिन साहित्यिक द्विजों के लिए वह लगभग अछूत है जिसकी स्वीकृति होते होते होगी या यह भी हो सकता है कि अभिव्यक्ति की यह पारंपरिक विधा विलुप्त ही हो जाए । खैर आने वाले समय में यह विधा कौन सा स्वरूप ग्रहण करेगी यह भविष्य के गर्भ में छिपा है क्योंकि ऐसा भी हो सकता है कि दकियानूसी ताकतें जो 21 वीं सदी के दूसरे दशक में दुनिया भर में नए सिरे से जोर पकड़ रहीं हैं, ऐसा भी हो सकता है कि वे पूरी दुनिया का तालीबानीकरण कर दें, तमाम तकनीकी विकास को मटियामेट कर डालें, या फिर सोशल साइट्स को अपनी जागीर बना लें जहां किसी तरह की खिलाफत की इजाजत न हों । फिलहाल कविताई अपने परम्परागत रूप को अर्थात किताबी रूप को बचाने की जद्दोजहद से गुजर रही है । जिसमें कई नए कवि शामिल हैं । ऐसे ही एक कवि हैं सुमन कुमार सिंह ।
सुमन कुमार सिंह ने पिछली सदी के अंतिम दशक में कविता के क्षेत्र में कदम रखा था। वे आम जनजीवन के आम व खास दोनों तरह के संघर्ष को अभिव्यक्त करते रहे हैं । हिंदी कविता की युवा पीढ़ी में उन्होंने एक पहचान भी बनाई है लेकिन बहुत धीरे-धीरे । दो दशक कविता के क्षेत्र में रहने के बाद अब उनका पहला कविता संग्रह आया है- "महज बिंब भर मैं "।
सुमन कुमार सिंह का यह संग्रह कई अर्थों में महत्वपूर्ण है । जब यह महसूस हो रहा था कि पारंपरिक रूढ़िवादी धार्मिक सामंती पुरूषवादी वर्जनाएँ को तोड़ दी गयी हैं और वे  विकृत अवशेष के रूप में अंतिम सांस ले रही हैं, उस दौर में जो कवि पीढ़ी सामने आई,  सुमन कुमार सिंह उस पीढ़ी के कवि हैं।  इस पीढ़ी ने सोवियत संघ का पतन को  भी  देखा और महसूस किया कि धार्मिक चरमपंथ से गठजोड़ कर साम्राज्यवादी पूंजी के नई आक्रामक दिशा में बढ़ रही है। इस पीढ़ी ने देश के पिछड़े गांव शहरों में बचे खुचे सामंती धार्मिक अवशेषों को नए रूप में संगठित होते देखा। किसानी घाटे का सौदा हो चुकी थी, बेरोजगारी पसर रही थी । बिहार में तथाकथित सामाजिक न्याय की सरकार के संरक्षण में खूंखार रणबीर सेना व नव धनाढ्य लंपट संस्कृति कुकरमुत्ते की तरह हर जगह पसर रही थी । नौकरी की संभावनाएं खत्म हो रही थीं। संयुक्त परिवार कलह, अभाव, बेईमानी, गाली गलौज व मारपीट का केन्द्र बन चुके थे। सत्ता संरक्षित अपराध का धंधा नई ऊंचाई हासिल कर रहा था । दूसरी तरफ दबे कुचले, गरीब, दलित पिछड़े, स्त्री शोषण-उत्पीड़न के पुराने दौर में धकेल दिये जाने की कोशिशों का विरोध कर रहे थे। यह उथल-पुथल का एक नया दौर था । ऐसे समय में सुमन सिंह ने कविता शुरू की और अपना स्पष्ट पक्ष चुना । 
सुमन कुमार सिंह की खासियत है कि वे चिल्लाते नहीं हैं, शोर नहीं मचाते हैं बल्कि कविता लिखते हैं । वे कहते हैं- '' पहाड़ पर चढना कभी आसान नहीं रहा / न है / जैसे लक्ष्य पर आगे बढना।'' इसी कविता में वे आगे कहते हैं ''हे मायावी! / हम नहीं जानते तो यह / कि तुम्हारे प्राण कहां बसते हैं / किस खोह में / और हम जानते हैं / अच्छी तरह / कि हमें क्या करना है / उस प्राण का ।'' कई नए रूपक व बिम्ब इस कविता संग्रह की कविताओं में हमें देखने को मिलते हैं। वैसे तो सभी कविताएं गौरतलब हैं परंतु 'आओ चांद', 'पधारो हे महानद!', 'ओ अविरल गंगे ' 'गंधाते बेहाये',  'बकरियां',  'मेरे बदले हुए शहर में' इस संग्रह की बेहतरीन कविताएं हैं ।
'आओ चांद',  'पधारो हे महानद!', 'ओ अविरल गंगे'  प्राकृतिक संसाधनों को कब्जियाने  की नव साम्राज्यवादी षड्यंत्रों की खिलाफत करती मानवीय प्रतिरोध की कविताएं हैं । कवि कहता है कि हे चांद उससे पहले की किसी धनेश्वर के द्वारा कब्जीया लिए जाओ, किसी धनेश्वर के तारामंडल की मशीन में पीस दिये जाने के पहले हमारी तहजीब बन जाओ कि कोई नपाक दैत्य तुम पर कब्जा करने की हिमाकत न करे । कवि कहता है कि सोन को बालू माफियाओं ने हड़प लिया, गंगा को भी हड़पा जा रही है । यह हम रोज देख भी रहे हैं कि किस तरह सोन जो हजारों लोगो को जीवन देता था उसे चंद बालू माफिया सीधे निगल गये । गंगा को हड़पने के लिए पाखंड का सहारा लिया जा रहा है । ये तीनो कविताएं हमें गहराई से संवेदित करती हैं। 
'गंधाते बेहाये' कविता भी आकर्षित करती है। बेहाये हमेशा उपेक्षा का पात्र रहे हैं । सुमन कुमार सिंह कहते हैं कि ये बेहाये घोंघे सितुहा मेढक जैसे कितने ही प्राणियों को आश्रय देते है । जब फूल खिलते हैं तो ये बेहाये विनम्रता से सिस झुका लेते हैं । भले ही इनका नाम बेहाया रख दिया गया हो लेकिन कवि इन्हे विनम्र भी कहता है यह अपने तरीके का बिलकुल नया बिम्ब है। उसी तरह 'बकरियां' कविता में कहता है कि ये बकरियां ऐसे चलती हैं जैसे कामगार महिलाएं । यहाँ भी कवि नए बिम्ब का इस्तेमाल करता है । मेरे बदले हुए शहर में कवि एक आततायी हत्यारे की हत्या के बाद आततायी ताकतों के द्वारा विंध्वस को रेखांकित करता है कि सत्ता किस तरह मौन होकर उनके उपद्रव को देखती है । यह साफ तौर पर यह बताती है कि आततायी ताकतों को सत्ता का संरक्षण था । यह बहुत ही धारदार कविता है । यह कवि की दक्षता को भी दर्शाती है। ऐसे विषय पर कविता लिखना बहुत ही मुश्किल होता है । 'आगे बधिक का घर है' कविता में कवि ने बहुत सावधानी से और सहज रूप में अंध भक्ति के परिणाम को दर्शा दिया है ।
आम तौर पर कवि की प्रेम कविता सर्वाधिक सम्प्रेषणीय व प्रभावशाली होती है, लेकिन सुमन कुमार सिंह यहाँ अपरिपक्व साबित होते हैं, ऐसा शायद इसलिए भी है कि वे कुछ ज्यादा आदर्शवादी दिखने का प्रयास करते हैं ।
कुल मिलाकर यह कविता संग्रह अपने समय का खास संग्रह है । 'जनता', 'हाथी', 'रक्षा सूत्र', 'एक है राजा', 'निरूपमेय डोडो', 'चैत के दिन' आदि बहुत अच्छी कविताएं हैं । पिछले तीन दशक के आम अवाम के संघर्ष व सपनों को प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त करने में यह संग्रह सफल रहा है । 

कविता संग्रह- महज़ बिम्ब भर मैं
 कवि- सुमन कुमार सिंह ।
प्रकाशक- बोधि प्रकाशन 
समीक्षक- राकेश कुमार  दिवाकर (मो- 8521815587)

1 comment:


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