29 जून 2016 को भारतीय आधुनिक कला के एक युग का अंत हो गया। मूर्धन्य चित्रकार के.जी. सुब्रमण्यम का जाना, भारतीय कला से गंभीरता का जाना है, आदर्श का जाना है। समकालीन भारतीय कला जगत में के.जी.सुब्रमण्यम एक ऐसे कलाकार थे, जो कला बाजार की शर्तों से ऊपर थे ।
1924 में केरल में के.जी सुब्रमण्यम का जन्म हुआ था। 1942 में उन्होंने अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लिया था, जिसके फलस्वरूप उन्हे जेल की सजा भुगतनी पड़ी थी। राजनीति में महात्मा गांधी उनके आदर्श थे।
1944 में उन्होंने कला अध्ययन के लिए शांति निकेतन में दाखिला लिया। राम किंकर बैज, विनोद बिहारी मुखर्जी, नंदलाल बोस सरीखे कलाकारों के निर्देशन में उन्होंने कला शिक्षा प्राप्त की। कालांतर में फेलोशिप प्राप्त कर पश्चिमी कला का भी गहन अध्ययन किया। कला रचना के साथ ही उन्होंने बडौदा व शांति निकेतन में अध्यापन कर समकालीन भारतीय कला की कई पीढ़ी का मार्ग-दर्शन किया। कला शिक्षण में हमारे यहां चली आ रही पुरानी पश्चिमी प्रशिक्षण पद्धति के खोखलेपन को भाप लिया था, उन्होंने स्वाभाविक कला प्रवृत्तियों को उभारने पर बल दिया। उन्होंने कहा है कि ‘‘आलमतिरा के कलाकार किसी कला विद्यालय में नहीं गये। हमारे प्राचीन मूर्तिकारों ने शरीर रचना विज्ञान का अध्ययन नहीं किया फिर भी उन्होंने अतुल्य कलाकृतियों का सृजन किया।’’ इसका यह मतलब कतई नहीं है कि वे अंधभक्ति में विश्वास रखते थे बल्कि वे कला प्रवृत्तियों का स्वभाविक विकास करना चाहते थे।
उनकी कलाकृतियां बंगाल स्कूल की सकारात्मक प्रवृति को आगे ले जाती हैं, कविवर रवींद्रनाथ टैगोर के कला दर्शन को मूर्त करती हैं। रवींद्रनाथ टैगोर की कलाकृतियों का सौंदर्य उनकी स्वाभाविक अनगढ़ता है तो सुब्रमण्यम की कला का सौंदर्य सहज सुगठता। समकालीन भारतीय कला जब भारी जद्दोजहद के दौर से गुजर रहा थी, बंगाल स्कूल के कलाकार, बंबई के कलाकार, दिल्ली के कलाकार सब अलग-अलग दिशा में प्रयोग कर रहे थे, तब वे एक भिन्न रास्ते पर चले और गहन अध्ययन कर भारतीय कला को एक सरलता प्रदान की। दो चार रेखाओं, रंग के दो-चार धब्बे, दो चार तूलिकाघात में, पशु पक्षी आदमी दृश्य जगत को बहुत ही सरलता से छोटे छोटे कागज के टुकड़ों पर उतार दिया है। देखने में उनकी कृतियां चाहे जितनी सरल व साधारण लगें मगर जब हम उनके सामने खड़े होते हैं तो हर जटिल उतार-चढ़ाव हमारे समक्ष खुलने लगता है। जिस दक्षता से वे कागज के छोटे से टुकड़े को साधारण कलम की चंद रेखाओं से आलोकित कर देते हैं उतनी ही महारत से वे विशाल दीवार को भी म्यूरल से जीवंत बना देते हैं। वे एक मात्र भारतीय कलाकार हैं जिनके लिए कोई भी रचना सामग्री नकारात्मक मायने नहीं रखती । वे चित्रकार, प्रिंट मेकर, म्यूरलिस्ट, टेराकोटा शिल्पी और कला चिंतक हैं।
रचना सामग्री की तरह ही बाजार की शर्ते भी उनके लिए कोई खास मायने नहीं रखती थीं। आम तौर पर बड़े कलाकार या बिकने वाले कलाकार रचना सामग्री व प्रदर्शनी स्थल का ध्यान रखते हैं, जिससे उनकी कृतियों का बाजार मूल्य बना रहे। चूंकि कला बाजार काले धन के निवेश का एक सुरक्षित जगह बन चुका है और निवेशक टिकाऊपन की वजह से कैनवास पर तैल चित्रण या एक्रेलिक चित्रण पसंद करता है। इसी तरह मूर्तिशिल्प में वह पत्थर या धातु पसंद करता है। वह चाहता है कि कलाकार बड़ी गैलरी में प्रदर्शनी करे ताकि उसकी कृतियों का बाजार मूल्य गिरे नहीं। के. जी. सुब्रमण्यम बड़ी विनम्रता से बाजार के इस अघोषित शर्त को दरकिनार कर देते हैं। वे कागज के छोटे से टुकड़े को भी चित्राधार बना लेते हैं, पटना जैसे शहर में भी अपनी प्रदर्शनी कर डालते हैं। अभी 24 जून से 05 जुलाई 16 तक ललित कला अकादमी बिहार, पटना में उनकी प्रदर्शनी चल भी रही है । के. जी. सुब्रमण्यम आधुनिक भारतीय कला के एक आदर्श कलाकार के तौर पर हमेशा याद रखे जाएंगे।
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