आनंदी प्रसाद बादल की चित्र-प्रदर्शनी
राकेश दिवाकर
कला भी इश्क की तरह ही है। यह भी आग का दरिया है, जिसमें डूब के जाना है। ताउम्र कलाकारी आसान नहीं। समाज में रहते हुए भी समाज के रीति-रिवाज से इतर, समाज के रोजमर्रे की भागदौड़ भरी जिंदगी से अलग बादल की छटाओं को निहारते रहना और फिर उसे अपने कैनवास पर उतारना निश्चित तौर पर दीवानापन ही तो है। यही दीवानापन बादल जी जैसे बुजुर्ग कलाकार को इस उम्र में भी सक्रिय रखे हुए है। 1933 में जन्में बादल जी अपने पूरे जीवन के अनुभव व ज्ञान को तेज गति से कैनवास पर उकेरते जा रहे हैं।
07 जून 16 से 12 जून 16 तक पटना ललित कला अकादमी के प्रदर्शनी कक्ष में बादल जी के नए कामों की प्रभावशाली प्रदर्शनी का आयोजित की गई।
प्रदर्शनी को देख कर यह सुखद आश्चर्य हुआ कि 83 वर्ष की अवस्था में भी बादल अनवरत सृजन कार्य में लगे हैं। बादल जी के चित्र मूर्तन से अमूर्तन का सफर करते हैं। रंगों की परिपक्वता और आकारों का सुगठन जहां उनके उम्र के अनुभव को प्रदर्शित करते हैं वहीं मस्त तूलिका संचालन व मजबूत तूलिकाघात उनके चंचल स्वभाव को दर्शाते हैं। सामाजिक स्थिति का प्रभाव उनके चित्रों पर परोक्ष रूप से नजर आता है। अमूर्तन की प्रक्रिया में भी आकार बरबस उनके कैनवास पर उतर आते है। आकृतिमूलकता से वे भाग नहीं पाते। उनकी कलाकृतियों में मौजूद गति दर्शकों पर सकारात्मक प्रभाव डालती है। हालांकि रंगों की मोटी परत उतार-चढ़ाव तो पैदा करती है, पर गहराई उत्पन्न नहीं कर पाती।
उनकी चित्रण शैली में कथ्य का अभाव बुरी तरह से खटकता है। उम्र के इस पड़ाव पर आकर यदि कोई कलाकार दुविधा की इस स्थिति में खड़ा है तो निश्चित तौर पर यह सामाजिक दुविधा है, सामाजिक कन्फ्यूजन है जो उनकी सारी कृतियों को शीर्षकहीन बनाता है। आज कलाकारों का एक बड़ा वर्ग इस कन्फ्यूजन में है, और सच कहें तो अधिकांश युवा कलाकार इस कन्फ्यूजन में हैं। इसकी झलक हम राजनीतिक व आर्थिक स्तर पर भी देख सकते हैं। तीसरी कमी यह है कि इतने वर्षों तक रचनात्मक सक्रियता के बावजूद बादल जी अपनी शैली नहीं बना पाए हैं। विविधता जहां एक तरफ सम्पन्न बनाती है वहीं इसमें सबसे बड़ा खतरा यह भी रहता है कि कलाकार की पहचान नहीं बन पाती और इसकी वजह भी वह कन्फ्यूजन ही है जो उनकी कृतियों को शीर्षकहीन बनाता है और कभी-कभी तो सारहीन भी।
वर्तमान में बादल जी बिहार ललित कला अकादमी के अध्यक्ष भी हैं, ऐसे में उनकी रचना का प्रभाव बिहार की कला पर पड़ना अवश्यंभावी है। उनकी रचना दृष्टि से बिहार की कला अप्रभावित नहीं रह सकती ।
बादल जी की यह प्रदर्शनी कुछ कमियों के साथ ही कुछ सकारात्मक प्रभाव डालती है। उनकी रचनात्मक सक्रियता कलाकारों को प्रेरित करती है, उन्हें ऊर्जा प्रदान करती है। खुशहाली से दमकते उनके रंग इस निराशा के दौर में हस्तक्षेप करते हैं और खुले आसमान में उड़ान भरने को प्रेरित करते हैं।
जिस उम्र में और जिस पद पर बादल जी पहुंच गए हैं वहां पहुंच कर प्रदर्शनी व लगातार काम करना बहुत चुनौती भरा हो जाता है। मगर बादल जी ने इस चुनौती को स्वीकार किया है तथा समय के घोड़े के साथ दौड़ने की कोशिश की है। एक तरह से उन्होंने एक जोखिम उठाया है। बिहार के कलाकार जब राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर धूम मचा रहे हैं वैसे में बादल जी पटना में गड़ कर काम कर रहे हैं, यह वाकई साहस भरा काम है। यह इसलिए भी कि पटना में कोई कला बाजार नहीं है, कोई पेज थ्री नहीं है। इसके बावजूद अगर मंजा हुआ कलाकार इस शहर में प्रदर्शनी करता है तो इसे पटना शहर और बिहार के कला जगत में जान फूंकने की कोशिश के तौर पर भी देखा जाना चाहिए। बादल जी की प्रदर्शनी राज्य के कला जगत में बहुत दिन तक याद रखी जाएगी।
शुक्रिया
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