Friday, July 18, 2014

मधुकर होने का मतलब : प्रेम भारद्वाज

जब मधुकर सिंह ने लिखना शुरू किया तब वह नेहरू युग से मोहभंग के बाद आक्रोश, नाराजगी और जनांदोलनों का दौर था. वह दिल्ली माने सत्ता, माने सुविधा, माने तिकड़म से इसलिए दूर रहे, क्योंकि उन्होंने जो रास्ता चुना वह दिल्ली नहीं पहुंचता था.
एदुआदरे गालीआनो ने लिखा है, ‘इस दुनिया में वर्गीकरण की एक अजीब सनक है. और इस वजह हम सबके साथ कीड़ों की तरह व्यवहार होता है.’ मधुकर सिंह के 15 जुलाई को अचानक चले जाने पर अगर ये पंक्तियां सहसा जेहन में कौंधी तो जरूर इसका कोई मतलब है. मतलब दोहरा है, एक उनके लिए, जिनके बारे में मधुकर सिंह जिंदगी की आखिरी सांस तक लिखते रहे. दूसरे खुद लेखक के मुताल्लिक, जिसे कीड़ा नहीं तो ‘कुजात’ जरूर समझा गया. यह एक मधुकर सिंह नहीं, हाशिये का दर्द और उपेक्षा का दंश ङोलनेवाले हिंदी के बहुत सारे ‘मधुकरों’ की तल्ख हकीकत है. हमारे समय में मधुकर सिंह होने का अर्थ क्या है, यह कथाकार मधुकर सिंह के संघर्ष और उनकी व्यथा-कथा की कुछ झलकियों से जाना-समझा जा सकता है.
अंत के पहले तक अंत नहीं मानने की जिद ही किसी लेखक को मधुकर सिंह बनाती है. कायदे से मुङो लिखना चाहिए कि मधुकर सिंह हिंदी कथा साहित्य के महान लेखक थे. उनके निधन से साहित्य के एक युग का अंत हो गया. एक अपूरणीय क्षति हुई है.
लेकिन, मैं ऐसा न लिख कर सिर्फ वहीं बातें करूंगा जो हिंदी समाज में मधुकर सिंह के बनने, होने और मिट जाने की वजहें रही हैं और जिसे हमने भीष्मीय-अश्वत्थामीय आभिशप्तता के रूप में स्वीकार कर लिया है. हमने कबूल लिया है कि जो दिल्ली से दूर रहेगा, वह साहित्य की प्रारंभिक नागरिकता से भी दूर होगा. जो किसी महंत का शिष्यत्व नहीं स्वीकारेगा, वह हाशिये पर ही रहेगा. जो हिंदी में प्रचलित कलावाद की तलवारें नहीं चमकायेगा, उसके जीवन में अंधकार बना रहेगा.
मधुकर सिंह ने अपने एक आत्मकथात्मक लेख में कहा, ‘पुलिसमैन पिता मुङो दारोगा बनाना चाहते थे, लेकिन मैं बन गया लेखक. उन्होंने बचपन में ही मेरी शादी कर दी. जब मैं मैट्रिक में पढ़ता था, तभी बाप भी बन गया. तभी से दो पीढ़ी के बापों का संघर्ष जारी रहा. मेरी ‘तक्षक’ कहानी इसी तनाव की गाथा है. सुराजियों को बर्फ की सिल्ली पर भी वंदे मातरम गाते हुए सुनता था. पुलिस और सरकार के खिलाफ मैंने बराबर लिखा.’ असल में उन्होंने बहुत पहले ही समझ लिया था कि उन्हें करना क्या है. जिस पुलिसिया जुल्म के खिलाफ उनकी कहानियां चीत्कार करती हैं, उस पुलिस व्यवस्था का हिस्सा वह कैसे बन सकते थे. संघर्ष उनकी धमनियों में लहू बन कर जिंदगी की आखिरी सांस तक दौड़ता रहा. संघर्ष उनके जीवन में भी रहा और लेखन में भी.
2 जनवरी, 1934 को बंगाल प्रांत के मिदनापुर में जन्मे मधुकर सिंह दस साल की अवस्था में भोजपुर जिले के धरहरा गांव आ गये. शोषण, विषमता और संघर्ष से मधुकर सिंह का गहरा रिश्ता रहा. बचपन में ही उन्होंने अंगरेजों के विरुद्ध सुराजियों को आजादी के लिए संघर्ष करते देखा. जवान हुए तो आजाद देश में गरीबों-वंचितों, भूमिहीनों, किसानों, मजदूरों के शोषण चक्र में बदलाव नहीं आया. आजादी के चमकते सूरज के उगने के बावजूद जुल्म का स्याह अंधेरा बरकरार रहा. मधुकर सिंह जानते थे कि अंधेरे को दूर करने का एक ही रास्ता है- रोशनी. वे बेजुबानों की जुबान बन कर रचनाओं के जरिये चीखे, तो उन पर तरह-तरह के आरोप लगे. यहां तक कि उन्हें नक्सली लेखक भी कहा गया.
साठ के दशक में जब मधुकर सिंह ने लिखना शुरू किया, तब वह नेहरू युग से मोहभंग के बाद आक्रोश, नाराजगी और जनांदोलनों का दौर था. वह दिल्ली माने सत्ता, माने सुविधा, माने तिकड़म से इसलिए दूर रहे क्योंकि उन्होंने जो रास्ता चुना वह दिल्ली नहीं पहुंचता था. उन्होंने दलितों, पिछड़ों के संघर्ष और उनकी जिजीविषा को अपनी रचनाओं का केंद्रीय विषय बनाया. अगर भोजपुर क्षेत्र के किसानों की व्यथा-कथा, वहां के समाज, राजनीतिक संघर्ष को जानना हो तो मधुकर सिंह के कथा साहित्य में उसे ढूंढ़ा जा सकता है. वह साधारण आदमी थे.
उनकी छोटी जरूरतें थीं, मामूली इच्छाएं. सपना भी खुद के लिए नहीं, उन गरीब किसानों, मजदूरों के लिए देखा जो उनकी कहानियों के पात्र थे. सोवियत लैंड जैसा पुरस्कार जरूर लिया, पर पुरस्कार की राजनीति से दूर रहे. वह सहज, सरल और साधरण थे, जो शायद उनका अपराध बन गया और सजा के तौर पर उन्हें वह सम्मान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे.
अंत में यान ओत्शानेक की पंक्तियां याद आ रही हैं, ‘कुछ लोगों को अक्सर याद किया जाता है, कुछ हैं जिन्हें हमेशा के लिए भुला दिया जाता है. कुछ ऐसे भी हैं जिनका जिक्र कोई नहीं करता. वे बिना शब्दों के जीवित रहते हैं, मुंह के पीछे, आंखों के पीछे वे पुराने घरों में अविरल गिरते प्रवाहमान इतिहास का आंगन होते हैं.’ मधुकर सिंह उन लोगों में हैं, जिनके रचे शब्द उनकी हमेशा याद दिलाते रहेंगे. खास कर तब जब किसी गरीब किसान की आंखों में आंसू होंगे और वह अपना दर्द बयान करने में गूंगा साबित कर दिया जायेगा.
By Prabhat Khabar | Publish Date: Jul 17 2014 6:02AM | 

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