Sunday, April 27, 2014

भगाणा की दलित बेटियों के साथ एकजुट हों. सामंती -जातिवादी वर्चस्व को ध्वस्त करें --जन संस्कृति मंच

गैंगरेप की शिकार हरियाणा के भगाणा गाँव की चार लड़कियाँ न्याय की गुहार लगातीं पिछले पन्द्रह दिनों से  जंतर -मंतर सपरिवार धरने पर बैठी हैं .
मासूम लड़कियों की  यौन प्रताड़ना उस गाँव  में कई वर्षों से जारी जातीय उत्पीडन की एक कड़ी  है .  यह अधिक खूंखार और भयानक रूप में खैरलांजी की घटना  की पुनरावृति है .  हक की मांग करने वाले दलितों के खिलाफ अमानवीय हिंसा और बलात्कार किसी एक गाँव के नहीं , बल्कि देश भर  के जागरूक दलितों को डराने और खामोश करने का आजमाया हुआ जातिवादी हथकंडा है .  सामन्ती गुंडों के घृणित इरादों को सरकार , नौकरशाही , पुलिस और न्याय -प्रक्रिया में तक में निहित कठोर जातिवादी पूर्वग्रहों से लगातार बढ़ावा मिलता है . अभी ही आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने त्सुन्दर जनसंहार के सभी अभियुक्तों को बाइज्जत बरी किया है . लक्षमणपुर  बाथे , बथानी टोला , शंकर बिगहा , मियाँपुर ,कुम्हेर , धरमपुरी और ऐसे ही अनगिनत मामलों में हमने जातिवादियों और जनसंहार करने वालों के सामने हमने न्याय प्रक्रिया को मुकम्मल तौर पर घुटने टेकते देखा है . इन सभी मामलों में एक भी अपराधी को सजा नहीं मिली . 
भगाणा गाँव के दलित पिछले दो वर्षों से हिसार से ले कर दिल्ली तक अपने खिलाफ चल रहे आर्थिक-सामाजिक बहिष्कार और उत्पीडन के खिलाफ आन्दोलन करते रहे हैं . लेकिन किसी भी स्तर से उन्हे न्याय की आस नहीं मिली है . उस गाँव के ताकतवर गैर-दलित दलितों को गाँव से बाहर खदेड़ देने पर आमदा हैं , क्योंकि ये भूमिहीन दलित उन जमीनों अपर अपना कब्ज़ा मांग रहे हैं , जो उन्हें कागजी तौर अपर आवंटित की जा चुकी है . बर्बर  यौन हिंसा उनके प्रतिरोध को समाप्त करने का सब से बड़ा और सब से भयानक हथियार है . 
चुनाव के इस दौर में एक तरफ तो सामन्ती -कारपोरेट -फासीवादी ताकतें सीना ठोंक रही हैं , दूसरी तरफ  बुर्जुआ उदारवादी शक्तियां खूंटा गाड़े बैठी हैं . दलित सर्वहारा इन पार्टियों के लिए वोट बटोरने के मशीन जरूर हैं , लेकिन वे जानती हैं कि मनुवादी सत्ता  से गंठबंधन किये बगैर उन्हें कुर्सी हासिल नहीं होगी . इसलिए न्याय की लड़ाई में वे हमेशा दलित-विरोधी दबंग जातियों के पक्ष में खड़ी होती हैं . यहाँ तक कि सामाजिक न्याय और दलित-उत्थान की राजनीति करने वाली पार्टियां भी उनकी कृपा की आकांक्षी होने के नाते उत्पीडन और अन्याय के मामलों में पीड़ितों के  साथ खड़े होने से परहेज करती हैं . मुख्यधारा मीडिया भी पूरी तरह इसी चरित्र के साथ इसी भूमिका में सक्रिय दिखाई देता है . यही कारण है कि दलितों के खिलाफ यौन हिंसा उसके लिए खबर तक नहीं है .
जन संस्कृति मंच भगाणा की दलित बेटियों और सर्वहारा मजदूर-किसानों के साथ नागरिक  एकजुटता को देश में लोकतंत्र और न्याय की रक्षा के लिए सब से अधिक महत्वपूर्ण मानता है . वह ख़ास तौर पर लेखकों -कलाकारों -शिक्षकों और छात्रों से इस लड़ाई में बढ़चढ़ कर हिस्सेदारी करने की अपील करता है . 
वह मांग करता है कि भगाणा के दलितों का बहिष्कार और उत्पीडन तत्काल बंद किया जाए . पीड़ित बेटियों के उत्पीड्कों को गिरफ्तार किया जाये और उन पर समयबद्ध मुकदमा चलाया जाए . साथ ही जान बूझ कर लापरवाही बरतने के दोषी अधिकारियों के खिलाफ अविलंब दंडात्मक  कार्रवाई की जाये .   

जन संस्कृति मंच की ओर से आशुतोष कुमार द्वारा जारी 

बल्ली सिंह चीमा की गिरफ्तारी अनुचित : जन संस्कृति मंच


नैनीताल- ऊधम सिंह नगर लोकसभा क्षेत्र से आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार तथा सुविख्यात शायर बल्ली सिंह चीमा को चुनाव प्रचार के दौरान कथित रूप से धारा १४४ तोड़ने के आरोप में प्रशासन द्वारा १४ दिन की न्यायिक हिरासत में भेजा जाना अलोकतांत्रिक और अनुचित है. यह अत्यंत आश्चर्य की बात है कि भाजपा जैसी पार्टी के अनेक नेता साम्प्रदायिक और भड़काऊ भाषण देने के संगीन आरोपों के बावजूद या तो चुनाव आयोग की नोटिस के बाद या महज आयोग की चेतावनी के बाद खुले घूम रहे हैं, वहीं बल्ली सिंह चीमा को एक निरर्थक से आरोप की बुनियाद पर आचार संहिता की आड़ में गिरफ्तार कर लिया गया . यह चुनाव लड़ने और प्रचार करने के उनके अधिकार पर हमला है .
एक ऐसे समय जब २०१४ के लोकसभा चुनाव में पैसे पानी की तरह बहाए जा रहे हैं, करोड़पति और आपराधिक छवि वाले लोग भारी तादाद में चुनाव में अपने धन-बल और बाहु-बल की आज़माइश कर रहे हैं, तब बल्ली सिंह चीमा की गिरफ्तारी एक गहरी विडम्बना की और इशारा करती है, जहां चुनाव आयोग के तमाम लम्बे-चौड़े दावों के बावजूद भारतीय लोकतंत्र के बड़ी पूंजी और आपराधिक तत्वों द्वारा अपहरण की कोशिशें बेरोक-टोक जारी हैं . एक सामान्य नागरिक के लिए चुनाव लड़ना ही असंभव बना दिया जा रहा है .
जन संस्कृति मंच बल्ली सिंह चीमा और उनके साथियों की अविलम्ब रिहाई की मांग करता है और चुनाव आयोग से मांग करता है कि इस मामले में जो अधिकारी दोषी हैं , उन पर आयोग कार्रवाई करे.

Tuesday, April 22, 2014

मार्केज को जसम की श्रद्धांजलि

जन संस्कृति मंच

22 अप्रैल 2013
इसी 18 अप्रैल को लातिन अमरीका के अद्भुत किस्सागो गैब्रियल गार्सिया मार्केज ने 87 साल की उम्र में हमसे विदा ली। उनका कथा संसार लातिन अमरीका के देशों के पिछड़े माने जाने वाले समाजों की जिंदगी की समझ के साथ ही इस समाज के दुख-दर्द, हिंसा, असमानता, आवेग और गतिशीलता से पूरी दुनिया को बावस्ता कराता है।  
6 मार्च 1927 को कोलम्बिया के छोटे से शहर आर्काटका में जन्मे गैब्रियल खोसे द ला कन्कर्डिया गार्सिया मार्केज का यह शहर 20 वीं सदी की शुरुआत में दुनिया के नक्शे पर भीषण औपनिवेशिक लूट के नाते दिखा। यही शहर और उसके अनुभव बाद में मार्केज के रचना संसार के बीज बने। 'क्रानिकल्स ऑफ ए डेथ फोरटोल्ड', 'लव इन द टाइम ऑफ कॉलरा', 'ऑटम ऑफ द पैट्रियार्क', 'वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड' आदि मार्केज के नामी गिरामी उपन्यास हैं। वास्तविक घटनाओं को मिथकों के साथ जबर्दस्त ढंग से गूँथ देने की उनकी क्षमता ने उन्हें विश्वस्तर पर ऐसा उपन्यासकार बना दिया जिसके विरोधियों को भी उसका सम्मान करना पड़ता था।
1982 में उनको साहित्य के नोबल सम्मान से नवाजा गया। सम्मान समारोह के मौके को उन्होने साम्राज्यवाद-विरोध के मंच के रूप में बदल दिया। इस मौके पर बोलते हुए उन्होने न सिर्फ लातिन अमेरिकी जमीन पर अंग्रेजी उपनिवेशवाद की क्रूरताओं का जिक्र किया बल्कि अमरीका और यूरोप के कॉर्पोरेट घरानों द्वारा इस इलाके में की जा रही लूट और भयानक दमन को भी बेनकाब किया। उन्होने साफ-साफ कहा कि उनकी कहानियाँ गायब हुए लोगों, मौतों और राज्य प्रायोजित नरसंहारों के बारे में हैं जो कॉर्पोरेट हितों के लिए रचे जाते हैं।
मार्केज को याद करते हुए श्रद्धांजलियों में पीली तितलियों, लाल चींटियों, चार साल ग्यारह हफ्ते दो दिन चली बारिश आदि मिथकीय कथातत्त्वों का जिक्र तो काफी हो रहा है पर उनकी इस शैली के पीछे की असलियत पर निगाह अपेक्षाकृत कम ही टिकती है। मार्केज के सामने एक पूरी ढहा दी गई सभ्यता थी, जिसे उन्होने भोगा और महसूस किया था। मार्केज के नाना गृहयुद्धों में भाग ले चुके थे और नानी जीवन की असंभव किस्म की कहानियाँ सुनाया करती थी। शायद इतिहास की अकादमिक व्याख्या की जड़ता से अलग पूरी हकीकत बताने की छटपटाहट ही मार्केज को उस शिल्प तक ले गई जिसे पश्चिमी अकादमिक जन जादुई यथार्थवाद कहते हैं। इतिहास की वर्तमान धारणा से पहले अन्य किस्म की अवधारणाएं विभिन्न समाजों में रही आई हैं। मार्केज ने इन धारणाओं को भी अपने बयान के लिए चुना।
लातिन अमरीका की जमीन 20वीं सदी में समाजवाद के नए प्रयोगों के लिए जानी गई। फिदेल कास्त्रो इस आंदोलन के प्रतीक पुरुष बने। ठीक ऐसे ही लातिन अमरीकी देशों की जमीन से पुराने यथार्थवाद को बदलने-विकसित करने वाले ढेरों रचनाकार पैदा हुए, जिनकी अगुवाई मार्केज ने की। संयोग से ज्यादा ही है कि फिदेल, मार्केज के उपन्यासों के पहले कुछ पाठकों में शुमार हैं। दोनों ही वामपंथ की लड़ाईयों को अलग-अलग मोर्चों पर विकसित करने वाले योद्धा हैं। मार्केज की प्रतिबद्धताएं हमेशा ही वामपंथ के साथ रहीं।  वेनेजुएला, निकारागुआ और क्यूबा के वाम आंदोलनों के साथ उनके गहन रिश्ते थे। अनायास नहीं कि उनकी रचनाशीलता के अमरीकी प्रसंशक उनके वामपंथी होने को कभी पचा नहीं पाये।
हम तीसरी दुनिया के लोग औपनिवेशिक विरासत के चक्के तले पिसने को बखूबी समझते हैं, पश्चिमी आधुनिकता के साथ ही अलग तरह का देशज इतिहास-बोध हमें भी हासिल है, ऐसे में मार्केज अपनों से ज्यादा अपने लगते हैं। एक पूरी सभ्यता का बनना और उसका नष्ट होना हमारे अपने देश-काल में भी धीरे-धीरे घटित होता जा रहा है। हम भी मिथकों के औजार से यथार्थ को और बेहतर तरीके से और संपूर्णता में देख सकते हैं।
आज जब हमारे देश में अमरीकी तर्ज पर ही स्मृतिहीनता और फर्जी इतिहासबोध लादा जा रहा है, तब मार्केज के उपन्यास 'वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड' के आखिर हिस्से के एक वर्णन की याद बेहद प्रासंगिक है। भारी वर्षा के बाद कत्ल कर दिये गए 3000 हड़ताली मजदूरों की स्मृति लोगों के दिमाग से धुल-पुंछ जाती है। अकेले खोसे आर्कादियो सेगुंदो को इस बात की याद है और वह लोगों से इस बाबत बात करता है पर लोग भूल चुके हैं।
ऐसी स्मृतिहीनता को दर्ज करना और स्मृतिहीन बनाने वाली ताकतों, व्यवस्थाओं, कॉर्पोरेटों के खिलाफ प्रतिरोध रचना ही मार्केज को सही श्रद्धांजलि होगी !

जन संस्कृति मंच दुनिया की जनता के इस दुलारे कथाकार को सलाम करता है। 

Friday, March 14, 2014

मार्क्स सर्वोपरि क्रांतिकारी थे : फ्रेडरिक एंगेल्स



कार्ल मार्क्स की समाधि पर भाषण

मार्क्स-एंगेल्स
14 मार्च को तीसरे पहर, पौने तीन बजे, संसार के सबसे महान विचारक की चिंतन-क्रिया बंद हो गई। उन्हें मुश्किल से दो मिनट के लिए अकेला छोड़ा गया होगा, लेकिन जब हम लोग लौट कर आए, हमने देखा कि वह आरामकुर्सी पर शांति से सो गए हैं- परंतु सदा के लिए। 

इस मनुष्य की मृत्यु से यूरोप और अमरीका के जुझारू सर्वहारा वर्ग की, और ऐतिहासिक विज्ञान की अपार क्षति हुई है। इस ओजस्वी आत्मा के महाप्रयाण से जो अभाव पैदा हो गया है, लोग शीघ्र ही उसका अनुभव करेंगे। 

जैसे कि अब प्रकृति में डार्विन ने विकास के नियम का पता लगाया था। उन्होंने इस सीधी-सादी सचाई का पता लगाया- जो अब तक विचारधारा की अतिवृद्धि से ढकी हुई थी- कि राजनीति, विज्ञान, कला, श्रम आदि में लगने के पूर्व मनुष्य-जाति को खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना और सिर के ऊपर साया चाहिए। इसलिए जीविका के तात्कालिक भौतिक साधनों का उत्पादन और फलतः किसी युग में अथवा किसी जाति द्वारा उपलब्ध आर्थिक विकास की मात्रा ही वह आधार है जिस पर राजकीय संस्थाएं, कानूनी धाराएं, कला और यहां तक कि धर्म संबंधी रचनाएं भी विकसित होती हैं। इसलिए उसके ही प्रकाश में इन सबकी व्याख्या की जा सकती है, न कि इनसे उल्टा जैसा कि अब तक होता रहा है। 

परंतु इतना ही नहीं, मार्क्स ने गति के उस विशेष नियम का पता लगाया जिससे उत्पादन की वर्तमान पूंजीवादी प्रणाली और इस प्रणाली से उत्पन्न पूंजीवादी समाज, दोनों ही नियंत्रित हैं। अतिरिक्त मूल्य के आविष्कार से एकबारगी उस समस्या पर प्रकाश पड़ा, जिसे हल करने की कोशिश में किया गया, अब तक का सारा अन्वेषण- चाहे वह पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों ने किया हो या समाजवादी आलोचकों ने, अंध-अन्वेषण ही था।

ऐसे दो आविष्कार एक जीवन के लिए काफी हैं। वह मनुष्य भाग्यशाली है, जिसे इस तरह का एक भी आविष्कार करने का सौभाग्य प्राप्त होता है। परंतु जिस भी क्षेत्र में मार्क्स ने खोज की- और उन्होंने बहुत से क्षेत्रों में खोज की और वह एक में भी सतही छान-बीन करके ही नहीं रह गए- उसमें यहां तक गणित में भी, उन्होंने स्वतंत्र खोजें कीं। 

ऐसे वैज्ञानिक थे वह। परंतु वैज्ञानिक का उनका रूप उनके समग्र व्यक्तित्व का अर्द्धांश भी न था। मार्क्स के लिए विज्ञान एक ऐतिहासिक रूप से गतिशील, क्रांतिकारी शक्ति था। वैज्ञानिक सिद्धांतों में किसी नई खोज से, जिसके व्यावहारिक प्रयोग का अनुमान लगाना अभी सर्वथा असंभव हो, उन्हें किसी भी प्रसन्नता क्यों न हो, जब उस खोज से उद्योग-धंधों और सामान्यतः ऐतिहासिक विकास में कोई तात्कालिक क्रांतिकारी परिवर्तन होते दिखाई देते थे, तब उन्हें बिल्कुल ही दूसरे ढंग की प्रसन्नता का अनुभव होता था। उदाहरण के लिए बिजली के क्षेत्र में हुए आविष्कारोें के विकास-क्रम का और मरसैल देप्रे के हाल के आविष्कारों का माक्र्स बड़े दौर से अध्ययन कर रहे थे। 

मार्क्स सर्वोपरि क्रांतिकारी थे। जीवन में उनका असली उद्देश्य किसी न किसी तरह पूंजीवादी समाज और उससे पैदा होने वाली राजकीय संस्थाओं के ध्वंस में योगदान करना था, आधुनिक सर्वहारा वर्ग को आजाद करने में योग देना था, जिसे सबसे पहले उन्होंने ही अपनी स्थिति और आवश्यकताओं के प्रति सचेत किया और बताया कि किन परिस्थितियों में उनका उद्धार हो सकता है। संघर्ष करना उनका सहज गुण था। और उन्होंने ऐसे जोश, ऐसी लगन और ऐसी सफलता के साथ संघर्ष किया जिसका मुकाबला नहीं है। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में उनका काम, इनके अलावा अनेक जोशीली पुस्तिकाओं की रचना, पेरिस, ब्रुसेल्स और लंदन के संगठनों में काम और अंततः उनकी चरम उपलब्धि- महान अंतराष्ट्रीय मजदूर संघ की स्थापना- यह इतनी बड़ी उपलब्धि थी कि इस संगठन का संस्थापक, चाहे उसने कुछ भी और किया हो, उस पर उचित ही गर्व कर सकता था। 

इस सबके फलस्वरूप मार्क्स अपने युग के सबसे अधिक विद्वेष तथा लांछना के शिकार बने। निरंकुशतावादी और जनतंत्रवादी, दोनों ही तरह की सरकारों ने उन्हें अपने राज्यों से निकाला। पूंजीपति, चाहे वे रूढ़वादी हों, घोर जनवादी, मार्क्स को बदनाम करने में एक दूसरे से होड़ करते थे।मार्क्स इस बस को यूं झटकार कर अलग कर देते थे, जैसे वह मकड़ी का जाला हो, उसकी ओर ध्यान न देते थे, आवश्यकता, से बाध्य होकर ही उत्तर देते थे। और अब वह इस संसार में नहीं हैं। साइबेरिया की खानों से लेकर कैलिफोर्निया तक, यूरोप और अमरीका के सभी भागों में उनके लाखों क्रांतिकारी मजदूर साथी जो उन्हें प्यार करते थे, उनके प्रति श्रद्धा रखते थे, आज उनके निधन पर आंसू बहा रहे हैं। मैं यहां तक कह सकता हूं चाहे उनके विरोधी बहुत से रहे हों, परंतु उनका कोई व्यक्तिगत शत्रु शायद ही रहा हो।

उनका नाम युगों-युगों तक अमर रहेगा, वैसे ही उनका काम भी अमर रहेगा।

Wednesday, January 22, 2014

रमता जी स्मृति दिवस, 24 जनवरी 2014



क्रांतिकारी स्वाधीनता सेनानी जनकवि रमता जी के सुराज के सपनों को साकार करें

संकल्प सभा

24 जनवरी 2014, 11 बजे दिन, महुली घाट

वक्ता: का. स्वदेश भट्टाचार्य, रामनिहाल गुंजन, जितेंद्र कुमार, सुधीर सुमन

गायन: राजू रंजन




अइसन गांव बना दे, जहां अत्याचार ना रहे 

जहां सपनों में जालिम जमींदार ना रहे

सबके मिले भर पेट दाना, सब के रहे के ठेकाना

कोई बस्तर बिना लंगटे-उघार ना रहे

सभे करे मिल-जुल काम, पावे पूरा श्रम के दाम

कोई केहू के कमाई लूटनिहार ना रहे

सभे करे सब के मान, गावे एकता के गान

कोई केहू के कुबोली बोलनिहार ना रहे
                                           - रमाकांत द्विवेदी रमता




बंधुओ,

30 अक्टूबर 1917 में भोजपुर जिले के बड़हरा प्रखंड के महुली घाट में जन्मे रमाकांत द्विवेदी रमता जी ने आजीवन राजनैतिक आजादी, सामाजिक-आर्थिक बराबरी और सुराज के लिए संघर्ष किया। 1932 में वे नमक सत्याग्रह के दौरान पहली बार जेल गए। लेकिन जल्द ही गांधीवादी आंदोलन से उनका मोहभंग हो गया। 1941 में ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें फिर जेल में डाल दिया। जुलाई 1941 में उन्होंने ऐलान किया कि ‘क्रांतिपथ पर जा रहा हूँ/ धैर्य की कडि़यां खटाखट तोड़कर मैं आ रहा हूं।’ 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान सचमुच युवकों ने धैर्य की कडि़यां तोड़ डालीं। रमता जी उस आंदोलन की अगली कतार में थे। 1943 में उनकी पुनः गिरफ्तारी हुई और उन्हें यातना भी दी गई। 1943 में ही उन्होंने भविष्य के अपने रास्ते का संकेत दे दिया- ‘रूढि़वाद का घोर विरोधी, परिपाटी का नाशक हूं/ नई रोशनी का प्रेमी, विप्लव का विकट उपासक हूं/......मैं तो चला आज, जिस पथ पर भगत गए, आजाद गए/ खुदीराम-सुखदेव-राजगुरु-बिस्मिल रामप्रसाद गए।’

1947 की आजादी और उसके बाद के राजकाज से वे जरा भी संतुष्ट नहीं रहे। उन्होंने अपने एक भोजपुरी गीत में लिखा कि ‘हम त शुरूए में कहलीं कि सुलहा सुराज ई कुराज हो गइल/ रहे जेकरा प आशा-भरोसा उ नेता दगाबाज हो गइल।’ इसके बाद लगातार वामपंथी राजनीति में उनकी दिलचस्पी बढ़ती गई। पहले वे सीपीएम में गए। उसके थोड़े दिनों के बाद ही उनका भाकपा-माले से जुड़ाव हुआ। इसके बाद वे 24 जनवरी 2008 को अपने निधन तक आजीवन इस पार्टी द्वारा संचालित आंदोलनों के साथ रहे। बिहार राज्य जनवादी देशभक्त मोर्चा और आईपीएफ के गठन में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। वे आईपीएफ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी रहे।

रमता जी ने जनता की मुक्ति के गीत लिखे। जनता की राजनैतिक समझदारी को बढ़ाने और उसकी एकता को मजबूत करना उनका मकसद रहा। एक गीत में उन्होंने लिखा- ‘सौ में पंचानबे लोग दुख भोगता/सौ में पांचे सब जिनिगी के सुख भोगता/ओही पांचे के हक में पुलिस-फौज बा/दिल्ली-पटना से हाकिम-हुकुम होखता/ओही पांचे के चलती बा एह राज में/ऊहे सबके तरक्की के राह रोकता।’’ आज जबकि विकास और तरक्की का बढ़चढ़कर दावे करने वाली सरकारें और शासकवर्गीय पार्टियां वास्तव में किसान और मजदूर जनता के जीवन के विनाश में लगी हुई हैं, तब दुख भोगने वाली पंचानबे प्रतिशत जनता की राजनैतिक एकजुटता ही रमता जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है। आजादी की पहली लड़ाई के योद्धा कुंवर सिंह पर लिखे गए एक गीत में रमता जी ने लिखा था कि ‘देश जागेला त दुनिया में हाला हो जाला/ कंपनी का, पार्लमेंट के दीवाला हो जाला।’ आज जबकि पूरे देश को कारपोरेट कंपनियों का चारागाह बना दिया गया है, सरकारें जानबूझकर खेती और किसानी की गहरी उपेक्षा कर रही हैं, लाखों किसान आत्महत्याएं कर चुके हैं, जब खेती को पूरी तरह पूंजीपतियों के हवाले कर देने की साजिश की जा रही है, नौजवान अपने गांव-घर से रोजगार के लिए पलायन करने को मजबूर हैं, गांवों में शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार और अन्य बुनियादी सुविधाओं की हालत बदतर है, जब पार्लियामेंट में सांसद कारपोरेट कंपनियों के एजेंट की तरह काम कर रहे हैं और वहां जनविरोधी नीतियां बन रही हैं, तब नए सिरे से सुराज और आजादी की उस लड़ाई को आगे बढ़ाने की जरूरत है, जिसका रास्ता रमता जी हमें दिखा गए हैं। आइए उनके स्मृति दिवस पर हम अपने गांव समाज को जगाने, जनविरोधी राज को बदलने तथा असली आजादी और सुराज की उनकी लड़ाई को आगे बढ़ाने का संकल्प लें। यह उन्हीं की पुकार है- काहे फरेके-फरके बानीं, रउरो आईं जी/ हमार सुनीं, कुछ अपनो सुनाईं जी।’ 
(रमता जी के स्मृति दिवस पर आयोजित कार्यक्रम का पर्चा  )



Friday, December 27, 2013

एक अंतर्कथा : गजानन माधव मुक्तिबोध



अग्नि के काष्ठ
खोजती माँ,
बीनती नित्य सूखे डंठल
सूखी टहनी, रुखी डालें
घूमती सभ्यता के जंगल
वह मेरी माँ
खोजती अग्नि के अधिष्ठान

मुझमें दुविधा,
पर, माँ की आज्ञा से समिधा
एकत्र कर रहा हूँ
मैं हर टहनी में डंठल में
एक-एक स्वप्न देखता हुआ
पहचान रहा प्रत्येक
जतन से जमा रहा
टोकरी उठा, मैं चला जा रहा हूँ

टोकरी उठाना...चलन नहीं
वह फ़ैशन के विपरीत –
इसलिए निगाहें बचा-बचा
आड़े-तिरछे चलता हूँ मैं
संकुचित और भयभीत

अजीब सी टोकरी
कि उसमें प्राणवान् माया
गहरी कीमिया
सहज उभरी फैली सँवरी
डंठल-टहनी की कठिन साँवली रेखाएँ
आपस में लग यों गुंथ जातीं
मानो अक्षर नवसाक्षर खेतिहर के-से
वे बेढब वाक्य फुसफुसाते
टोकरी विवर में से स्वर आते दबे-दबे
मानो कलरव गा उठता हो धीमे-धीमे
अथवा मनोज्ञ शत रंग-बिरंगी बिहंग गाते हों

आगे-आगे माँ
पीछे मैं;
उसकी दृढ़ पीठ ज़रा सी झुक
चुन लेती डंठल पल भर रुक
वह जीर्ण-नील-वस्त्रा
है अस्थि-दृढ़ा
गतिमती व्यक्तिमत्ता
कर रहा अध्ययन मैं उसकी मज़बूती का
उसके जीवन से लगे हुए
वर्षा-गर्मी-सर्दी और क्षुधा-तृषा के वर्षों से
मैं पूछ रहा –
टोकरी-विवर में पक्षी-स्वर
कलरव क्यों है
माँ कहती –
'सूखी टहनी की अग्नि क्षमता
ही गाती है पक्षी स्वर में
वह बंद आग है खुलने को।'
मैं पाता हूँ
कोमल कोयल अतिशय प्राचीन
व अति नवीन
स्वर में पुकारती है मुझको
टोकरी-विवर के भीतर से।
पथ पर ही मेरे पैर थिरक उठते
कोमल लय में।
मैं साश्रुनयन, रोमांचित तन; प्रकाशमय मन।
उपभाएँ उद्धाटित-वक्षा मृदु स्नेहमुखी
एक-टक देखतीं मुझको –
प्रियतर मुसकातीं...
मूल्यांकन करते एक-दूसरे का
हम एक-दूसरे को सँवारते जाते हैं
वे जगत्-समीक्षा करते-से
मेरे प्रतीक रूपक सपने फैलाते हैं
आगामी के।
दरवाज़े दुनिया के सारे खुल जाते हैं
प्यार के साँवले किस्सों की उदास गलियाँ
गंभीर करूण मुस्कराहट में
अपना उर का सब भेद खोलती हैं।
अनजाने हाथ मित्रता के
मेरे हाथों में पहुँच मित्रता भरते हैं
मैं अपनों से घिर उठता हूँ
मैं विचरण करता-सा हूँ एक फ़ैंटेसी में
यह निश्चित है कि फ़ैंटेसी कल वास्तव होगी।
मेरा तो सिर फिर जाता है
औ' मस्तक में
ब्रह्मांड दीप्ति-सी घिर उठती
रवि-किरण-बिंदु आँखों में स्थिर हो जाता है।

सपने से जागकर पाता हूँ सामने वही
बरगद के तने-सरीखी वह अत्यंत कठिन
दृढ़ पीठ अग्रगायी माँ की
युग-युग अनुभव का नेतृत्व
आगे-आगे,
मैं अनुगत हूँ।
वह एक गिरस्तन आत्मा
मेरी माँ
मैं चिल्लाकर पूछता –
कि यह सब क्या
कि कौन सी माया यह।
मुड़कर के मेरी ओर सहज मुसका
वह कहती है –
'आधुनिक सभ्यता के वन में
व्यक्तित्व-वृक्ष सुविधावादी।
कोमल-कोमल टहनियाँ मर गईं अनुभव-मर्मों की
यह निरुपयोग के फलस्वरूप हो गया।
उनका विवेकसंगत प्रयोग हो सका नहीं
कल्याणमयी करूणाएँ फेंकी गईं
रास्ते पर कचरे-जैसी,
मैं चीन्ह रही उनको।
जो गहन अग्नि के अधिष्ठान
हैं प्राणवान
मैं बीन रही उनको
देख तो
उन्हें सभ्यताभिरूचिवश छोड़ा जाता है
उनसे मुँह मोड़ा जाता है
दम नहीं किसी में
उनको दुर्दम करे
अनलोपम स्वर्णिम करे।
घर के बाहर आंगन में मैं सुलगाऊँगी
दुनियाभर को उनका प्रकाश दिखलाऊँगी।'

यह कह माँ मुसकाई,
तब समझा
हम दो
क्यों
भटका करते हैं, बेगानों की तरह, रास्तों पर।
मिल नहीं किसी से पाते हैं
अंतस्थ हमारे प्ररयितृ अनुभव
जम नहीं किसी से पाते है हम
फिट नहीं किसी से होते हैं
मानो असंग की ओर यात्रा असंग की।
वे लोग बहुत जो ऊपर-ऊपर चढ़ते हैं
हम नीचे-नीचे गिरते हैं
तब हम पाते वीथी सुसंगमय ऊष्मामय।
हम हैं समाज की तलछट, केवल इसीलिए
हमको सर्वाज्ज्वल परंपरा चाहिए।
माँ परंपरा-निर्मिति के हित
खोजती ज़िंदगी के कचरे में भी
ज्ञानात्मक संवेदन
पर, रखती उनका भार कठिन मेरे सिर पर

अजीब अनुभव है
सिर पर टोकरी-विवर में मानव-शिशु
वह कोई सद्योजात
मृदुल-कर्कश स्वर में
रो रहा;
सच. प्यार उमड़ आता उस पर
पर, प्रतिपालन-दायित्व भार से घबराकर
मैं तो विवेक खो रहा
वह शिकायतों से भरा बाल-स्वर मँडराता
प्रिय बालक दुर्भर, दुर्धर है – यह मैं विचारता, कतराता
झखमार, झींक औ' प्यार गुँथ रहे आपस में
वह सिर पर चढ़ रो रहा, नहीं मेरे बस में
बढ़ रहा बोझ। वह मानव शिशु
भारी-भारी हो रहा।

वह कौन? कि सहसा प्रश्न कौंधता अंतर में –
'वह है मानव परंपरा'
चिंघाड़ता हुआ उत्तर यह,
'सुन, कालिदास का कुमारसंभव वह।'
मेरी आँखों में अश्रु और अभिमान
किसी कारण
अंतर के भीतर पिघलती हुई हिमालयी चट्टान
किसी कारण;
तब एक क्षण भर
मेरे कंधों पर खड़ा हुआ है देव एक दुर्धर
थामता नभस दो हाथों से
भारान्वित मेरी पीठ बहुत झुकती जाती
वह कुचल रही है मुझे देव-आकृति।
है दर्द बहुत रीढ़ में
पसलियाँ पिरा रहीं
पाँव में जम रहा खून
द्रोह करता है मन
मैं जनमा जब से इस साले ने कष्ट दिया
उल्लू का पट्ठा कंधे पर है खड़ा हुआ।
कि इतने में
गंभीर मुझे आदेश –
कि बिल्कुल जमे रहो।
मैं अपने कंधे क्रमशः सीधे करता हूँ
तन गई पीठ
और स्कंध नभोगामी होते
इतने ऊँचे हो जाते हैं,
मैं एकाकार हो गया-सा देवाकृति से।
नभ मेरे हाथों पर आता
मैं उल्का-फूल फेंकता मधुर चंद्रमुख पर
मेरी छाया गिरती है दूर नेब्यूला में।
बस, तभी तलब लगती बीड़ी पीने की।
मैं पूर्वाकृति में आ जाता,
बस, चाय एक कप मुझे गरम कोई दे दे
ऐसी-तैसी उस गौरव की
जो छीन चले मेरी सुविधा
मित्रों से गप करने का मज़ा और ही है।
ये गरम चिलचिलाती सड़कें
सौ बरस जिएँ
मैं परिभ्रमण करता जाऊँगा जीवन भर
मैं जिप्सी हूँ।

दिल को ठोकर
वह विकृत आईना मन का सहसा टूट गया
जिसमें या तो चेहरा दिखता था बहुत बड़ा
फूला-फूला
या अकस्मात् विकलांग व छोटा-छोटा-सा
सिट्टी गुम है,
नाड़ी ठंडी।
देखता हूँ कि माँ व्यंग्यस्मित मुस्करा रही
डाँटती हुई कहती है वह –
'तब देव बिना अब जिप्सी भी,
केवल जीवन-कर्तव्यों का
पालन न हो सके इसीलिए
निज को बहकाया करता है।
चल इधर, बीन रूखी टहनी
सूखी डालें,
भूरे डंठल,
पहचान अग्नि के अधिष्ठान
जा पहुँचा स्वयं के मित्रों में
कर ग्रहण अग्नि-भिक्षा
लोगों से पड़ौसियों से मिल।'
चिलचिला रही हैं सड़कें व धूल है चेहरे पर
चिलचिला रहा बेशर्म दलिद्दर भीतर का
पर, सेमल का ऊँचा-ऊँचा वह पेड़ रूचिर
संपन्न लाल फूलों को लेकर खड़ा हुआ
रक्तिमा प्रकाशित करता-सा
वह गहन प्रेम
उसका कपास रेशम-कोमल।
मैं उसे देख जीवन पर मुग्ध हो रहा हूँ!

Tuesday, December 17, 2013

जनसंहार पीडितों के न्याय की लड़ाई : सुधीर सुमन


पिछले दिनों बिहार में बाथे जनसंहार के मामले में हाईकोर्ट के अन्यायपूर्ण फैसले के बाद न्याय के लिए हस्ताक्षर अभियान चलाया गया है। 10 दिसंबर मानवाधिकार दिवस को बिहार की राजधानी पटना से लाखों हस्ताक्षर लेकर न्याय यात्रा चल पड़ी है। बिहार के जनसंहार वाले इलाकों से और हस्ताक्षरों को एकत्र करते हुए लोग सड़क के रास्ते उत्तर प्रदेश होते हुए दिल्ली पहुंचेगे जहां राष्ट्रपति को हस्ताक्षर सौंपे जाएंगे और 18 दिसंबर को  12 बजे से दिल्ली, जंतर मंतर पर जनसुनवाई होगी, जिसमें जस्टिस राजेंद्र सच्चर, अधिवक्ता रेबेका जान, प्रो. सोना झारिया मिंज, जेएनयू, प्रो. नंदिनी सुंदर, डीयू, प्रो. नवल किशोर चौधरी, पटना यूनिवर्सिटी, डॉ. वाईएस एलोन, जेएनयू, कॉलिन गोंजाल्विस, पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन, जेएनयू छात्र संघ की उपाध्यक्ष अनुभूति अग्नेस बारा समेत कई लोग बतौर जूरी शिरकत करेंगे।
हाल में नगरी जनसंहार, बथानी जनसंहार और बाथे जनसंहार के सूचकों और गवाहों से मेरी मुलाकात हुई। एक गांव में संयोग से एक जमाने में गुरिल्ला लड़ाई में शामिल एक कामरेड से भी मुलाकात हुई। वहीं हमने जनता से संघर्ष के गीत भी सुने। न्याय की लंबी लड़ाई के प्रति किस तरह की अवधारणा उनके भीतर है, न्याय की कानूनी लड़ाई और हाईकोर्ट के फैसलों को लेकर वे क्या सोचते हैं, मैंने यह जानने की कोशिश की। पूरा लेख 'न्याय के लिए लड़ता बिहार' समकालीन जनमत के दिसंबर अंक में देखा जा सकता है। यहां पेश है कुछ अंश-

न्याय की लड़ाई में कातिल हारे हुए हैं
12 नवंबर को नगरी जनसंहार के सूचक उमा यादव से मुलाकात हुई। 11 मई 1998 को नगरी में रणवीर सेना ने 8 दूकानदारों और 2 अन्य लोगों की हत्या कर दी थी। सेशन कोर्ट ने इसमें कुछ अभियुक्तों को फांसी और कुछ को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। लेकिन हाईकोर्ट से अभियुक्त रिहा कर दिए गए।...एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि जिस तरह की कार्रवाई रणवीर सेना ने की, उस तरह की कार्रवाई हम नहीं कर सकते। व्यक्तिगत प्रतिशोध के बजाए न्याय की बड़ी लड़ाई से हमारी लड़ाई जुड़ी हुई है......यह लड़ाई आज की नहीं है, यह उसी लड़ाई से जुड़ी है जिसकी शुरुआत भोजपुर में जगदीश मास्टर, रामेश्वर अहीर, रामनरेश राम और बुटन मुसहर ने की थी। हमारी लड़ाई किसी जाति विशेष से नहीं है। न्याय की लड़ाई कहीं भटकी नहीं है। हमने वोट देने का अधिकार हासिल किया। हमने बूथ कब्जा करने वालों का विरोध किया। हमने सामाजिक बराबरी के लिए संघर्ष किया। नगरी के दूकानदारों ने दबंगों को रंगदारी टैक्स देना बंद कर दिया था। उन दबंगों के आतंक को कायम रखने के लिए रणवीर सेना ने जनसंहार को अंजाम दिया था। यहां तक कि खुद भूमिहार जाति के कमलेश पांडेय के भाई ने उन्हें रोका कि वे गलती कर रहे हैं, तो उनकी भी उन्होंने हत्या कर दी। 
उमा यादव ने बताया कि इस पूरी लड़ाई में सिर्फ भाकपा-माले ही उनके साथ खड़ी रही। अन्य पार्टियों की भूमिका के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि जनसंहार के बाद राजद की टीम आई थी। माओवादियों के एक नेता ने भी संपर्क किया था, लेकिन हमलोग यहां माओवादी कहे जाने वालों की भूमिका देख रहे थे, रंगदारी टैक्स वसूलना, चोरी-छिनतई और डकैती करना उनका धंधा रहा है, हमने यही सवाल किया कि ऐसे लोग हमारी क्या मदद करेंगे?....जहां तक भाजपा की बात है तो वह शुरू से ही कातिलों के साथ है।...  
मैंने पूछा कि न्याय की इस लड़ाई से आपने  क्या पाया है और अभियुक्तों ने क्या खोया है? क्या हाईकोर्ट से रिहाई उनकी जीत है? उमा ने छूटते ही जवाब दिया कि हम इस देश के सर्वोच्च न्यायालय तक भी गए हैं, देखना है कि वहां क्या फैसला होता है। अपराधियों की जीत उनकी सुरक्षा की गारंटी नहीं होती।...न्याय की इस लड़ाई में कातिल पहले से ही हारे हुए हैं, उन्होंने बहुत कुछ खोया है। हत्यारों और अन्यायी वर्ग को आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक रूप से नुकसान हुआ है।   
उमा यादव ने जोर देकर कहा कि हम बिके नहीं, डरे नहीं, तो इसलिए कि हम कमजोरों और गरीबों को संगठित करने वाली ताकत भाकपा-माले के जरिए सींचे गए हैं। बातचीत में उन्होंने न्याय प्रणाली पर सवाल उठाते हुए इस जरूरत को चिह्नित किया कि हाईकोर्ट में गरीबों के प्रति संवेदनशील, न्यायपसंद और वर्गचेतना वाले लोग कैसे पहुंचे इसके बारे में भी सोचना चाहिए, ताकि पीड़ित लोगों को न्याय मिल सके।

न्याय की कानूनी लड़ाई भी प्रतिरोध है
बथानी टोला शहीद स्मारक 
इसी रोज बथानी टोला जनसंहार के गवाह नईमुद्दीन से मुलाकात हुई। हत्यारों ने नईमुद्दीन की बहन, पतोहू, दो बेटियों और दो बेटों की हत्या की थी। उनकी बेटी आस्मां मात्र तीन माह की थी, जिसे हत्यारों ने तलवार से काट डाला था। एक बेटे की आमिर सुभानी की उम्र 3 साल थी और दूसरे बेटे सद्दाम की उम्र 8 साल थी, जिसने आरा सदर अस्पताल में दम तोड़ा था। मैंने पूछा कि कभी आपके मन में ख्याल नहीं आया कि इसी तरह हत्यारों के परिजनों को मारके बदला ले लें? नईमुद्दीन ने कहा कि ऐसा हम करते तो उनमें और हममें फर्क ही क्या रह जाता?...ऐसा नहीं है कि हम प्रतिरोध करना नहीं जानते थे। जनसंहार के पहले भी छह बार हमले हुए थे। प्रशासन, सरकार और राजनीतिक पार्टियों को इसकी खबर थी। लेकिन तब भाकपा-माले को छोड़कर कोई हमारे साथ नहीं खड़ा हुआ था। हम छह बार उनके हमलों को जनता की संगठित ताकत के बल पर ही तो विफल कर पाए। हाईकोर्ट कहता है कि सुबह में एफआईआर क्यों हुआ? क्या इसमें हमारी कमजोरी है? यह तो पुलिस की कमजोरी है। जज कह रहे हैं कि साक्ष्य नहीं था, तो क्या हाईकोर्ट से वे देख रहे थे कि गवाह यहां नहीं थे? लोअर कोर्ट के फैसले से जनता बहुत खुश थी कि हत्यारों ने जैसा किया, वैसी उन्हें सजा मिली। लेकिन जब हाईकोर्ट के सामने लोअर कोर्ट के फैसले का कोई वैल्यू नहीं है, तो लोअर कोर्ट को रखने की जरूरत क्या है?...
मैंने कहा कि कुछ लोग कह रहे हैं कि न्याय की कानूनी लड़ाई से जनता का प्रतिरोध कमजोर हो रहा है? इस पर वे भड़क उठे और बोले कि इस तरह की हवाई फायरिंग करने वाले प्रतिरोध को क्या समझेंगे? अगर जनता के प्रतिरोध से इतनी हमदर्दी होती तो प्रतिरोध करने वाली जनता से संपर्क करते, उसके दुख-दर्द में शामिल होते। जो ऐसा कह रहे हैं उन्हें बता दीजिए कि न्याय की कानूनी लड़ाई भी प्रतिरोध ही है। जनता की संगठित ताकत और प्रतिरोध की हिम्मत न हो, तो अन्याय की ताकतें गरीबों को कोर्ट तक ही न पहुंचने दें। 
नईमुद्दीन ने बताया कि अजय सिंह और  धीरेंद्र सिंह नाम के अभियुक्तों ने जान से मार देने की धमकी भी दिलवाई। मैंने साफ कह दिया कि मारना है तो मारो, सब परिवार खो दिए हैं, पर केस नहीं छोड़ेंगे। न्याय की लड़ाई लड़ रहे हैं, कोई गलत काम नहीं कर रहे हैं, इसमें जान भी चली जाए, तो परवाह नहीं।....

आज हमारी राजनीति आगे है
13 नवंबर की शाम मैं और हिरावल के साथी संतोष झा संदेश प्रखंड के एक गांव अहपुरा पहुंचे। हम गए थे इस गांव के कलाकारों से मिलने, जो आंदोलनों के गीत गाते हैं। लेकिन इस गांव में पहुंचते ही सबसे पहले भूमिगत जमाने के एक कामरेड से मुलाकात हो गई। ये भाकपा-माले के दूसरे महासचिव का. जौहर के साथ काम कर चुके थे। उम्र के सात दशक पार कर चुके, सीधे तने हुए, पतले छरहरे, कहीं से किसी श्रेष्ठताबोध का कोई भाव नहीं, बिल्कुल ही सामान्य लोगों में घुले-मिले उन कामरेड से मैंने पूछ दिया कि कहां तो आप गुरिल्ला लड़ाई लड़ रहे थे और कहां आप जनांदोलन चला रहे हैं और कानूनी लड़ाइयां लड़ रहे हैं, ऐसा नहीं लगता कि पार्टी अपने मूल रास्ते से भटक गई है? उन्होंने बड़े शांत लहजे में कहा कि हमलोग जब का. जौहर के नेतृत्व में गुरिल्ला लड़ाई लड़ रहे थे, उन दिनों भी वे कहते थे कि एक दिन हमारी पार्टी का बड़ा आधार होगा और उसके जरिए वह जनता के राजनीतिक आंदोलन का नेतृत्व करेगी। वह हर मोर्चे पर शासकवर्ग को चुनौती देगी। आज हमारी पार्टी सिर्फ भोजपुर और बिहार की ही पार्टी नहीं है, बल्कि पूरे देश की पार्टी बन गई है, आज लगता है कि का. जौहर कितना सही सोच रहे थे। मैंने उनसे सवाल किया कि आज ‘जनसंहार पीड़ितों के लिए न्याय’ का जो आंदोलन चलाया जा रहा है, एक सशस्त्र लड़ाका होने के नाते क्या आपको लगता है कि यह प्रतिरोध नहीं है? इस पर वे बोले कि आंदोलन तो एकदम जरूरी है। मैंने कहा कि कुछ लोग कह रहे हैं कि माले ने समझौता कर लिया है। उन्होंने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा- समझौता! हमलोग संघर्ष में है साथी। माओवादियों की लाइन ही गड़बड़ है। वे हथियारबंद प्रतिरोध को ही सिर्फ प्रतिरोध कहते हैं। आज हमारी राजनीति आगे है, इसीलिए वे इस तरह का आरोप लगा रहे हैं। उन्होंने कहा कि शासकवर्ग की जो राजनीति है हथियार उसके आगे चलता है, लेकिन जो सही मायने में जनता की राजनीति होती है, हथियार उसके पीछे चलता है यानी राजनीति के नेतृत्व में हथियार न कि हथियार के नेतृत्व में राजनीति। उन्होंने कहा कि शासकवर्ग माले पर हर हथियार आजमा चुका है और नाकामयाब हुआ है, अब अपने दूसरे हथियार को आगे किया है, पूंजी को, जिसके जरिए वह माले के आधार को तोड़ने की कोशिश करता रहता है, हमें इस पूंजी को हराना है। पूंजी को हराने की इस बात को हम बाद में कई कई सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों में महसूस करते रहे।

संस्कृति के मोर्चे पर भी जारी है लड़ाई
जब कलाकार जुटे, तो हमने पहले उन कामरेड से आग्रह किया कि वे कुछ सुनाएं। थोड़ी देर तो वे मुकरते रहे कि वे कोई कलाकार नहीं है, पर फिर एक शहीद गीत सुनाया और उसके बाद अकारी जी का एक मशहूर गीत सुनाया, जो 30 अक्टूबर की माले की रैली जिन परिस्थितियों में हुई थी, उसमें बार-बार मेरी जुबान पर आ रहा था- 
चाहे कुछ भी करो, मुझे बमे ना मारो
मगर तुझको हटा कर, दमे दम लूंगा। 
चाहे जान जाए, मेरा प्राण जाए।
पिछले साल 5 नवंबर को अकारी जी नहीं रहे, पर यहां जनता के संकल्प, न्यायबोध और संघर्षों के बीच वे जीवित थे। हमें यह महसूस हो रहा था कि हमेशा तात्कालिकता और उतावलेपन में रहने वाले लोग शायद जनता के धैर्य और उसकी ताकत को कभी नहीं समझ सकते। अखबारों में देखा था कि अस्सी के दशक में कई गरीबों की हत्या करने वाले एक आदमखोर सामंत की प्रतिमा का अनावरण रणवीर सेना से जुड़ा एक अपराधी जो बिहार के सत्ताधारी दल का विधायक भी है, कर रहा था। जिस तरह रणवीर सेना के सरगना को गांधी और किसानों का शुभचिंतक बताने के तमाम प्रपंच विफल हुए, उसी तरह उस आदमखोर को जुल्म के खिलाफ संघर्ष करने वाली जनता कभी भी समाजसेवी नहीं मान सकती। इस गांव में तो जनता अब भी अकारी जी का लिखा वह गीत गा रही थी, जिसमें वर्णन था कि किस तरह वह आदमखोर जनप्रतिरोध में मारा गया था। यह लड़ाई हमेशा जुल्म करने वालों के खिलाफ रही है, किसी जाति के खिलाफ नहीं रही।
यह एक संयोग था कि वह आदमखोर जिस उंची जाति का था, उसी उंची जाति से आने वाले एक शहीद कामरेड वीरबहादुर सिंह इस गांव की राजनीति और संस्कृति में गहरे पैठे हुए थे। 1976 में उनकी ही जाति के सामंतों ने उनकी हत्या कर दी थी। उन्होंने गरीबों के जागरण के लिए संगीत-नाटक मंडली बनाई थी। नाटक और गीत भी लिखे थे। उनके गीत आज भी इस गांव के लोग गाते हैं। उनके साथ काम कर चुके सतहत्तर साल के शर्मा जी ने उनके द्वारा ही रचित गाना ‘इंसान जहां भूखो मरते, हैवान अमीरी करते हैं’ गाया तो लगा जैसे फिर वे अपनी जवानी के दिनों में पहुंच गए। सामने बैठी महिलाओं ने कहा कि बिना गाना के इस गांव में किसी बैठक की शुरुआत नहीं होती। पंद्रह साल से लेकर सत्तर साल के कलाकार थे इस गांव में। न केवल गायक और वादक, बल्कि खुद नए-नए गीत रचने वाले, आसपास की विसंगतियों और संघर्ष की जरूरतों के गीत। 
बबन शर्मा अपने एक गीत में उस जनता से संबोधित थे कि जिसने भाजपा को वोट दिया था, वे बता रहे थे कि वोट देने से उसे क्या नुकसान हुआ, तो दूसरे गीत में रोजगार गारंटी, इंदिरा आवास आदि योजनाओं में मौजूद भ्रष्टाचार को निशाना बना रहे थे, वहीं 15 साल के किशोर मंटू अपनी वर्ग स्थिति पर खड़े होकर अपने आसपास की चीजों को परख रहे थे। स्कूलों में मिल रही खिचड़ी पर उन्होंने काफी पोपुलर अंदाज में एक गीत लिखा था कि खिचड़िया ले गइल लइकन के पढ़ाई। उनके अपने तर्क थे कि किस तरह पढ़ाई-लिखाई की ही अवहेलना हो रही है। यहां तक कि उनका भक्ति गीत भी आजकल प्रचलित भक्ति गीतों की लंपट और उत्तेजक प्रवृत्ति के विपरीत गरीब और निर्धन जनता के सवालों को उठा रहा था। अपराधियों के ठिकाने को खोजने, भटके हुए भाइयों की एकता बनाने और विजय के लिए गरीबों की एकता बनाने का निवेदन उसमें था। मुझे उसे सुनते हुए याद आ रही थी निराला की कविता ‘राम की शक्तिपूजा’ की पंक्तियां- ‘अन्याय जिधर है उधर है शक्ति’ और ‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना।’  
.... ओज और उत्साह से भरी इस टीम के संयोजक बबन शर्मा बनाए गए।...उनकी आवाज में एक इस्पाती दृढ़ता और लचीलापन था- एक हरफनमौला कलाकार, ओज भरी आवाज में गायन, वादन और लेखन भी। लाल झंडे, पार्टी की राजनीति और आंदोलन से सीधे जुड़े आह्वान गीत भी अद्भुत सृजनात्मकता से रचे गए थे- जब जब घटा छाया काल, उसे मिटा दिया लाल/ ले झंडा हाथ लाल, चल मंजिल बना मिसाल। बीच-बीच में बिल्कुल लय के साथ इंकलाब जिंदाबाद, भाकपा-माले जिंदाबाद की गूंज। ऐसा महसूस हो रहा था कि हम किसी जुलूस में हों और एक जबर्दस्त मार्चिंग सान्ग बज रहा हो। आखिर में उन्होंने जो गीत सुनाया, उसमें कई जनसंहारों की तारीखों का जिक्र था और उन्हें याद रखने का निवेदन था। हमें महसूस हुआ कि लड़ाई कई मोर्चे पर जारी है।...

इंसाफ के लिए संगठित होता आक्रोश
गवाह लक्ष्मण राजवंशी का घर और टूटा हुआ दरवाजा 
14 नवंबर को हमलोग बाथे पहुंचे। पहुंचते ही गवाह लक्ष्मण राजवंशी जी से मुलाकात हुई, जिनकी बेटी और पतोहू समेत परिवार के तीन लोग मारे गए थे। वे नीतीश सरकार के खिलाफ काफी आक्रोश से भरे हुए थे। हमने कहा कि सरकार तो कह रही है कि वह सुप्रीम कोर्ट जाएगी। इस पर वे बोले- सुप्रीम कोर्ट का जाएंगे, उनकी सरकार है, उन्हीं की राय से सब हुआ है, तीन माह बीतने वाला है, चकमा दे रहे हैं कि अपील कर रहे हैं। 
लक्ष्मण जी कोर्ट और सरकार के रवैये से बहुत दुखी थे। उन्होंने कहा कि अच्छा होता कि सरकार हमें ही फांसी पर चढ़ा देती। संतोष ने धीरे से जनकवि निर्मोही के गीत की याद दिलाई- रहिहें ना मजूर नाहिं करिहें मजदूरी/ चलवा द ए नीतीश गरदनिए पर छूरी। यही कह रहे थे लक्ष्मण जी- महादलित बनवावे के काम कइलें, आ कटववलें। पीड़ित जनता हाईकोर्ट के फैसले को दुबारा जनसंहार करने के तौर पर ही देखती है। 
शहीद स्मारक बाथे 
...लक्ष्मण जी ने हमें बताया कि गवाही के दौरान उन्होंने लगातार धमकियां दी, कदम-कदम पर उनके लोग थे। गवाही से पलटने के लिए 25 लाख रुपया का प्रलोभन भी दिया, पर वे नहीं माने। 
लक्ष्मण राजवंशी को कतई आशंका नहीं थी कि हाईकोर्ट से हत्यारों की रिहाई का फैसला आएगा। हम जहां बैठे हुए थे, वहीं बगल में एक टीन का धुंधला सा बोर्ड लगा हुआ था। बायीं ओर भाकपा-माले द्वारा बनाया हुआ स्मारक था। हमें दिलचस्पी हुई कि उस टीन के बोर्ड पर क्या लिखा हुआ है। काफी ध्यान से देखने पर पता चला कि इस पर भी मृतकों की सूची दर्ज है, जिसे मजदूर किसान संग्रामी परिषद संगठन की ओर से लगाया गया था। यह संगठन पार्टी यूनिटी, फिर पीपुल्स वार से जुड़ा हुआ था। अब इससे जुड़े लोग भाकपा-माओवादी के साथ हैं। हमने पूछा कि यह बोर्ड जिन लोगों ने लगाया है, वे कभी आए? लक्ष्मण जी बोले- कोई नहीं आया।
...हत्यारों की रिहाई से बाथे के नौजवान बिल्कुल खौफजदा नहीं थे। नौवीं कक्षा में पढ़ने वाले एक नौजवान ने कहा कि वह तो अचक्के में यानी अचानक हुआ था, अब हम सचेत हैं, अब कोई करके देखे। वहीं हमारी मुलाकात विमलेश राजवंशी से हुई, जिनके चेहरे पर दुख, क्षोभ और गुस्से का एक स्थायी भाव सा था। हमें मालूम हुआ कि उनके परिवार के पांच लोग- दो भाई, दो भाभी और पिता की हत्या हुई थी। गोली उन्हें भी लगी थी और वे बेहोश होके लाशों के नीचे वे दब गए थे। बाद में इलाज हुआ और बच गए। उन्होंने कहा कि यह फैसला कोई अंत नहीं है।...
एक नौजवान ने हत्यारों की नृशंसता के बारे में बताते हुए कहा कि उनको कभी माफ नहीं किया जा सकता, एक साल के बच्चे को उनलोगों ने गोली मारा था, वह बिधुना (क्षत-विक्षत) गया था। मैंने फिर नौजवानों के मिजाज की थाह लेनी चाही कि क्या कभी मन नहीं करता कि आप लोग भी उन्हीं के तर्ज पर बदला लें? उनका दो टूक जवाब था- हम औरतों-बच्चों को मारना नहीं चाहते, क्योंकि उन्होंने हमारा कुछ नहीं बिगाड़ा है। हम तो चाहते हैं कि दोषियों को सजा मिले। इस तरह का बदला हम नहीं लेना चाहते कि जाके कहीं किसी को मार दें।...
देश बाल दिवस मना रहा था। बाथे में बिल्कुल छोटे बच्चे अपने स्लेट व किताब-कॉपी के थैले संभाले गांव की गलियों से अपने घरों को लौट रहे थे। नौजवानों में आक्रोश था। बुजुर्गों में क्षोभ था। मेरे जेहन में बाल दिवस और स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर खूब बजने वाला गीत गूंज रहा था- इंसाफ के डगर पे बच्चो दिखाओ चल के/ ये देश है तुम्हारा नेता तुम्हीं हो कल के। सोच रहा था कि कहां है इंसाफ की डगर? इस देश में उस डगर को कितना दुर्गम बना दिया गया, कितने छलावों से उसे भर दिया गया है! लेकिन खुद उस डगर की जो गड़बड़ियां हैं, वे भी इंसाफपसंद लोगों के संघर्ष के जरिए ही दुरुस्त होंगी, यह तय है।