
विनय सौरभ मुख्यतः स्मृति संबंध और स्थान के कवि हैं - गहरी संवेदना, सार्थक विचार के जीवनधर्मी कवि। समकालीन हिंदी कविता में 'समय की धूल से' स्मृतियों को बचाने वाले कवि कम हैं। उनकी कविताओं में गुम होती पहचान है और पहचान का संकट सभ्यातिक संकट भी है। भूमंडलीकरण और नवउदारवादी अर्थव्यवस्था ने बहुत कुछ जो नष्ट कर डाला है, विनय अपनी कविताओं में उन सबको बचाते हैं। बाजार और विज्ञापन से भरे अपने समय में यह कवि कुछ अन्य कवियों की तरह 'प्रोटेस्ट' नहीं करता, पर यह कहना गलत होगा कि वहां 'प्रोटेस्ट' नहीं है। विनय 'साइलेंट प्रोटेस्ट' के कवि हैं। जब जीवन धुंध में हो तो एक बड़ा कवि-कर्म उसे ढूंढना, छांटना भी है। अपने समय और यथार्थ की सही पहचान अब कठिन है क्योंकि 'हमारी दुनिया में कोई भी दृश्य साफ नहीं है'। कविता का काम आज धुंधले दृश्यों को साफ करना भी है, जिससे हमारे समक्ष हमारे समय का सच स्पष्ट हो, उजागर हो। जब चीजें प्रत्येक क्षण बदल रही हों 'कितना कठिन है /कितना कठिन है /एक कवि का जीवन जीना'। बहुत कम कवियों में अब 'एक कवि का अंतरद्वंद' है। अक्सर हम सब या तो कविता में वस्तुजगत की पहचान करते हैं या कवि के भाव जगत की। हमारा ध्यान इस ओर कम जाता है कि बाह्य संसार के साथ एक कवि के अंतर-संसार का कितना सघन संबंध है। समय जिन मूल्यवान चीजों को नष्ट करता है कवि उन्हें कविता में बचा डालता है। विनय के यहां बाजार और विज्ञापन के साथ 'हाट की बात' भी है। 'नई सभ्यता के एकांतवास' के कवि नहीं हैं विनय सौरभ। वे अपने सामने कस्बा, शहर, गांव, संबंध, स्थान सब कुछ को बदलते देख रहे हैं। उनकी स्मृति में घर, मकान, स्वेटर, साड़ी, शॉल, पिता की कमीज, ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर, पतंग, साइकिल, ताड़ के हाथ पंखें सब हैं। चीजों के प्रति यह 'रागात्मक भाव' दुर्लभ है। रागात्मक भाव, सहजता, सरलता, आत्मीयता, प्रेम, मैत्री, जब सब नष्ट हो रहे हों, किए जा रहे हों, एक कवि का अपनी कविताओं में उसे बचाना आज सर्वाधिक आवश्यक है। विनय सौरभ की कविताएं नवउदारवादी अर्थव्यवस्था एवं भूमंडलीकरण के विरोध में हैं। उनके समय-बोध और युग-बोध से उनकी विचार संपन्नता जुड़ी है। वे एक साथ अनुभव संपन्न और विचार संपन्न कवि हैं।
विनय सौरभ केवल स्मृतियों के कवि नहीं है। वे वर्तमान के भी कवि हैं। हमारे समय में सब कुछ बदल रहा है। 'कितना बदल गया है यह भागलपुर' और 'गिरिडीह भी पहले का गिरिडीह नहीं रहा'। आलोक धन्वा ने 'सफेद रात' कविता में बहुत कम शहरों के बचे रहने की बात कही थी। उन शहरों की अपनी पहचान और संस्कृति थी जिसे नष्ट किया गया - 'लखनऊ में बहुत कम बच रहा है लखनऊ/ इलाहाबाद में बहुत कम इलाहाबाद /कहां है वह हरे आसमान वाला शहर बगदाद/ ढूंढो उसे /अब वह अरब में कहां है '। कानपुर, बनारस, पटना और अलीगढ़, बम्बई, हैदराबाद, अमृतसर, श्रीनगर कोई भी शहर पहले की तरह नहीं रहा। उसकी पहचान, उसकी सभ्यता, उसकी संस्कृति नष्ट कर दी गई। 'नोनीहाट' ने भी अब शहर के कपड़े पहन लिए। हिंदी में बहुत कम कवि हैं जो विनय सौरभ की तरह अपने जन्म स्थल और जन्मभूमि से जुड़े हों। नोनीहाट की एक पहचान विनय सौरभ हैं- 'वही बैद्यनाथ बाबू का लड़का/ जो दोहा करता है'। गांव के सामान्य जनों में कविता से अधिक 'दोहा' इसलिए है कि उसके मानस में दोहा-चौपाई में लिखित 'रामचरितमानस' है। पदार्थ, वस्तु, समान,
स्थान का स्वतंत्र अर्थ या महत्त्व नहीं है। वे मनुष्य से जुड़कर ही वर्तमान होते हैं, कमीज हो या शाल, घड़ी हो या ऐनक, फोटो हो या कुर्सी। इनकी याद संबंधों की याद है। निष्प्राण पदार्थों, वस्तुओं की स्मृति उस गहरी संवेदनशीलता से है जो अब नष्ट हो रही है। पिता की 'कमीज' देखकर यह कवि 'ऊर्जा और विश्वास' से भर उठता है। वर्तमान कहीं अधिक विषैला और खौफनाक है, जहां पिता के सरकारी पैसे निकालने के लिए दफ्तर में 'हवा भी रुपए मांगती थीं/ काम के एवज में'।
समकालीन हिंदी कविता में वर्तमान का अस्वीकार कई रूपों में है। यह अस्वीकार ही एक प्रकार का 'प्रोटेस्ट' है, जो कई कवियों के यहां मुखर और प्रबल रूप में है और कई कवियों के यहां शांत और मध्यम स्वर में। बाजार, पूंजी और अर्थ-व्यवस्था ने पुराने सभी धंधों को समाप्त कर दिया है। जिस 'जिल्दसाज' ने 'पचासों जर्जर किताबों को जीवन दिया' था, अब उसे कोई नहीं पूछता। जिल्दसाज की याद कवि के लिए के 'एक यंत्रणा' है। सुबंधु का चला जाना उसकी संवेदना में 'फांस की तरह' है। बाजार ने, तकनीक ने, मशीन ने 'पुश्तैनी पेशे' खत्म किये । 'खान बहरूपिया' कविता में 1986 और 1992 का भी जिक्र है जब रामानंद सागर रामायण लेकर हमारे घरों के भीतर आए और 1992 का वर्ष बाबरी मस्जिद ध्वंस के रूप में हम सब की स्मृति में है। फोटोग्राफी, बढ़ईगिरी अब कम हो रही है। वर्तमान से, यथार्थ और समकाल से कोई भी कवि अलग नहीं रह सकता। नॉस्टैल्जिया का अपना एक समाजशास्त्र भी है। विनय सौरभ नॉस्टैल्जिक कवि नहीं है। वहां अतीत की स्मृतियों के साथ वर्तमान के अनेक दृश्य और प्रसंग है जिन्हें हम 'संसद', 'अर्थशास्त्री कथा', 'इन्हें धरती का भगवान मत कहो' और 'मानहानि' जैसी कविताओं में अच्छी तरह देखते हैं। 'संसद' कविता में 'अय्याशों, जोकरों और भीतरघात करने की/ हरामजादा मस्तिष्कों की भीड़ से/ चौतरफा घिर गई थी यह इमारत' का जिक्र है। संसद में 'नकाबपोश' हैं, हत्यारे, व्यापारी और 'सधे हुए कलाकार' हैं , रजत पर्दे के सितारे और 'भाषाविद् पत्रकार' हैं, बिकाऊ सांसद हैं जो 'हर चुनाव के बाद गहरी उत्तेजना/ के साथ आते थे / हम उनका आना देखते थे / फिर उनका तांडव देखते थे'। अब संसद में करोड़पतियों और अपराधियों के संख्या बढ़ रही है। पिछली लोकसभा में 88% करोड़पति थे जो अब 18वीं लोकसभा में 93% हैं और 46 प्रतिशत सांसदों पर आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं। 'मानहानि' कविता आज की राजनीति का एक घिनौना चित्र सामने रखती है। कविता में डॉक्टर, जांचघर, अस्पताल, इंश्योरेंस, किसान, यूट्यूब, जज, राज्यसभा सांसद, गवर्नर, नई संसद, मीडिया, सांसद, देश का मुखिया, तानाशाह, पुलिस अधिकारी, अमिताभ बच्चन, सचिन तेंदुलकर, साहित्य उत्सव सब है। विनय सौरभ इस सत्ता तंत्र का विरोधी कवि है।
'बख्तियारपुर' से विनय सौरभ की पहचान उस तरह जुड़ी है जिस तरह 'नोनीहाट' से। स्थानवाची कविता संग्रह हिंदी में अधिक नहीं है। इस कविता में एक पंक्ति आती है - 'देश समस्याओं से भरा पड़ा है' और 'दिल्ली में हर मर्ज का इलाज है'। पिता के साथ समुचित चिकित्सा के लिए साथ में जाता अपनी मां के साथ नवोदित कवि पुत्र दिल्ली को अपनी तरह से देखा है - 'दिल्ली में कवि कैसे होते हैं/कौन से एकांत में लिखते हैं कविताएं'। कवि कर्म के लिए एकांत से संबंध है। उसके सामने एक बड़ा प्रश्न यह भी है कि 'कैसे हो जाते हैं दिल्ली के कवि जल्दी चर्चित। विनय सौरभ 'बख्तियारपुर' कविता से सर्वाधिक चर्चित प्रशंसित हुए। कविता में ट्रेन यात्रा के साथ पिता पुत्र की मानस यात्रा भी है। पिता की स्मृतियां 'महानगर की ओर भागती इस जिंदगी की जरूरत में/ 40 वर्ष पुरानी चौखटे लांघ रही थी'। विनय सौरभ की सभी कविताएं बहुअर्थी, बहुआयामी है। उनका पाठ सरल नहीं है। पिता ट्रेन से गुजरते हुए 'रामाधार महतो की चाय' को याद करते हैं। पिता की याद को विनय सौरभ ने कविता का बहुत जरूरी हिस्सा कहा है। उसे 'शब्द के एहसास' हैं जो कभी होने की जरूरी शर्त भी है। 'बख्तियारपुर' पर विस्तार से विचार की जरूरत है। दिल्ली के आलोचकों को इस संग्रह पर विशेष नजर इसलिए डालनी चाहिए क्योंकि आज दिल्ली में ही सब कुछ है जो सब कुछ का भक्षण कर रहा है।
सुधीर सुमन की विनय सौरभ की तरह हिंदी कविता में एक स्थापित पहचान नहीं है, पर वे इस अर्थ में महत्त्वपूर्ण समकालीन कवि हैं क्योंकि इनका काव्य स्टैंड साफ है। निराला, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर, धूमिल, गोरख पांडे और महेश्वर उनके पसंदीदा कवि हैं। सुधीर राजनीतिक चेतना के कवि हैं। अपने समय और समाज से टकराकर ही वे जीवन की सार्थकता की तलाश करते हैं। उनकी कविताओं का यथार्थ आज के गांव, कस्बे, शहर और महानगर का यथार्थ है। इस समय को बदलने की आकांक्षा कम कवियों में है। ऐसे कवियों की एक विचार दृष्टि है, एक संकल्प भी। सही बात यह है कि 'समय आता खुद नहीं/ उसे लाया जाता है'। एक्टिविस्ट की कविता का स्वर और मिजाज स्वाभाविक रूप से उन सभी कवियों से भिन्न होगा जो एक्टिविस्ट नहीं हैं। सुधीर सुमन हिंदी के उन कवियों की पंक्ति में है जिनके लिए कविता एक कार्रवाई की तरह है। स्वाभाविक है कि ऐसी कवि का स्वप्न देखना क्योंकि 'सबसे खतरनाक होता है /सपनों का मर जाना'। इस समय की हिंदी कविता कई आवाजों से भरी हुई है। एक ओर रक्त से भरे समय को देखने वाले कवि हैं जिनमें प्रतिरोध और संघर्ष के विपुल स्वर हैं तो दूसरी ओर बदलाव और मुक्ति की आकांक्षा वाले ऐसे कवि भी हैं जिनके शब्द आग में कम तपे हैं पर वह प्रतिरोध से जुड़े हैं। हिंदी कविता में प्रतिरोध के स्वरों में भी भिन्नता है। स्वप्न, विचारधारा और यथार्थ के अंतर संबंध को सुधीर सुमन महत्त्वपूर्ण मानते हैं- 'कवि को स्वप्नहीन या कल्पनाहीन नहीं होना चाहिए, पर सपनों या विचारधाराओं को हमेशा यथार्थ की ठोस जमीन से जुड़ा होना चाहिए।' वहां यथार्थ किसी स्थान विशेष का न होकर अपने समय और पूरे समाज का है। सुधीर सुमन जैसी यथार्थ की समझ कम कवियों में है - 'वे फूल को फूल से रौंदते हैं/रोशनी से रोशनी का कत्ल करते हैं/ माधुर्य से मधुरता को मिटाते हैं।' इस कवि की वर्गीय दृष्टि और चेतना कविताओं में स्पष्ट दिखाई देती है। यह कवि 'संस्कृति और संस्कृति में/हरियाली और हरियाली में/ फूल और फूल में/ खुशी और खुशी में/संवेदना और संवेदना में/देश और देश में/फ़र्क ' करता है। नये कवियों में 'डाॅलर' का जिक्र शायद सुधीर सुमन के ही यहां है। केदारनाथ अग्रवाल हिन्दी के पहले कवि थे, जिन्होंने अपनी कविताओं में डाॅलर का जिक्र किया था। डाॅलर केवल अमरीकी मुद्रा ही नहीं है, उसकी अपनी संस्कृति है। सुधीर 'पैसों के मकड़जाल' और 'सिक्कों की संस्कृति' के खिलाफ हैं - अर्थ संस्कृति के खिलाफ और जन संस्कृति के साथ। कविता उनके लिए एक सामाजिक व सांस्कृतिक कर्म है। वहां उपभोक्तावाद का विरोध है। उनकी कविता में 'रिलायंस वेदांता' के साथ 'सामानों का जंगल' भी है, जिसका विरोधी है कवि। सुधीर सुमन की कविता परिवर्तनकामी तथा मुक्ति के स्वप्न की है। आम आदमी के पक्ष में और उपभोक्ताओं के विरोध में। कविताएं सत्ता में काबिज हत्यारों के 'मंसूबों के खिलाफ ' है। कवि का एक अपना स्टैंड है, जन पक्षधरता और प्रतिबद्धता का। वह किसी भी प्रकार के उधेड़बुन या भ्रम में नहीं है। कविता के संबंध में दृष्टि साफ़ है - 'कविता की एक मात्र कसौटी जीवन है.... मुझे उन आंखों से प्यार है, जिनके भीतर दुनिया को बदलने का कुछ भी सपना है ...जो मानते हैं कि बाहर की दुनिया को बदले बगैर कविता की दुनिया नहीं बदल सकती है और शब्दों के अर्थ को नयी ताकत नहीं मिल सकती, उन सबके नाम है मेरी कविता'। शांति, प्रेम और विश्वास के लिए व्यवस्था को बदलना जरूरी है। कवि व्यवस्था नहीं बदलता, पर उसे बदलने की शक्ति तो अवश्य देता है। शब्द इसी कारण ऐसे कवियों के यहां सकर्मक भूमिका में है। मार्क्स, का. सूफियान, वीर कुंवर सिंह, गांधी पर लिखी गई कविताओं में एक इतिहास दृष्टि भी है। मेहनतकश इनके यहां दोस्त हैं। देश और आजादी को लेकर कुछ सवाल भी है - 'आज भी जुल्म और शोषण के तार जुड़े हैं/ सात समंदर पार से'। जुल्म और शोषण का नया रूप अमेरिकी साम्राज्यवाद जो उदारवादी अर्थव्यवस्था, बाजार और एकाधिकारी पूंजी से जुड़ा है। यह पहचान और समझ बहुत कम कवियों में है। सुधीर सुमन के यहां 'मेहनतकश दोस्त' के साथ 'सांपों की कपट कथा' भी है। उनकी कविता 'भूख, रोटी और प्रेम की कविता' है। वहां कविता का एक प्रयोजन है - 'कविता होगी तब समृद्ध/ जब होंगे सारे सपने पूरे/....गर मुरझाए रहेंगे लोग/ अधूरी रहेगी कविता' और 'बंधन टूटेंगे जिस दिन /मुक्ति मिलेगी सबको/ मंजिल पाएगी उसी दिन /कविता अपनी'। सुधीर सुमन अकेले ऐसे कवि हैं जो 'कविता की मंजिल' की बात कर रहे हैं।
सुधीर सुमन की कविताओं के अनेक स्वर हैं। 'घर' उनके लिए ईंट, खिड़की, दरवाजे, रोशनदान का नाम न होकर 'एक छोटा आसमान' है जहां 'अहसास तेरे मेरे भरते हैं उड़ान'। मंगलेश का एक कविता संग्रह है 'घर का रास्ता'। समकालीन हिंदी कविता में 'घर' अधिक इसलिए है कि वह हम सबसे छूट चुका है। 'ऐसी ट्रैजेडी है नीच' कविता में एक साथ मुक्तिबोध, भिखारी ठाकुर और भगत सिंह के विचारों की याद है। 'सरकारी संस्कृति' की यहां आलोचना है और वैसे लेखकों की पहचान भी है जो 'भगत सिंह के विचारों का दमामा बजाता.../तानाशाह के लिए मुरली बजाने लगता है'। सुधीर सुमन 'शब्द' और 'फर्क' को समझते हैं। उनकी चिंता में स्वप्न है। सपने कभी नहीं मरने चाहिए - 'समझौता गर करना /सपने मेरे कांधे पर रख देना'।
'बख्तियारपुर' और 'सपना और सच' इस समय के महत्त्वपूर्ण कविता संग्रह हैं। विनय सौरभ और सुधीर सुमन में अपने समय की बड़ी बारीक पहचान है। सब कुछ बदल रहा है और उजड़ भी रहा है। ये दोनों कवि इस हाहाकार-बलात्कारी समय और उसके निर्माताओं के विरुद्ध हैं । पूंजी, बाजार, विज्ञापन, प्रचार, सत्ता तंत्र की गहरी समझ रखने वाले इन दोनों कवियों ने अपने समय में अपनी कविताओं के माध्यम से एक सार्थक हस्तक्षेप किया है। दोनों दिल्ली से दूर हैं। इनमें से कोई यश:प्रार्थी नहीं है। संताल परगना में रहकर भी विनय सौरभ ने संतालों और आदिवासी पर कविता नहीं लिखी है। विनय के पास एक सधा काव्य शिल्प है। 'सप्तपदीयम' के 'आत्मकथ्य' में सुधीर सुमन ने स्वीकार है 'मेरी अपनी काव्य भाषा और काव्य शैली का बनना शेष है'। यह स्वीकारोक्ति कम बड़ी बात नहीं है।