Sunday, November 4, 2018

वीर कुंवर सिंह वि.वि.विश्वविद्यालय के हिंदी-भोजपुरी विभाग में रचना-पाठ का आयोजन


घुला है किस तरह माहौल में जहर, लिखना


3 नवंबर 2018 वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा के हिंदी-भोजपुरी विभाग की ओर से रचना-पाठ का आयोजन किया गया। कार्यक्रम जनकवि नागार्जुन (निधन-5 नवंबर 1998), रमाकांत द्विवेदी ‘रमता’ (जयंती- 30 अक्टूबर 1917), पांडेय कपिल (निधन-2 नवंबर 2017), जनगीतकार विजेंद्र अनिल (निधन-3 नवंबर 2007), दुर्गेंद्र अकारी (निधन-5 नवंबर 2012) और कवि मुक्तिबोध (जयंती- 13 नवंबर 1917) की स्मृति को समर्पित था। 

कार्यक्रम की शुरुआत नागार्जुन पर दूरदर्शन के मशहूर प्रोड्यूसर, कवि और चित्रकार कुबेर दत्त (निधन-2 अक्टूबर 2011) द्वारा बनाए गए एक वृत्तचित्र की प्रस्तुति से हुई और समापन मशहूर शायर फैज अहमद फैज (निधन-20 नवंबर 1984) की गजल के अंश के पाठ से हुआ।

मुझे लगता है कि किसी भी भाषा के साहित्य के विद्यार्थियों का सृजन की दुनिया और सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक मुद्दों से गहरा सरोकार होना चाहिए। साथ ही जो करीबी या सहयोगी भाषाओं का साहित्य है, उससे भी जुड़ाव होना चाहिए। जैसे मैं चाहता हूं कि हिंदी के विद्यार्थी को भोजपुरी समेत इस क्षेत्र की अन्य जनभाषाओं और उर्दू के साहित्य की भी जानकारी होनी चाहिए। जीवन में इन भाषाओं के बीच जब कोई दीवार नहीं है, तो साहित्य में क्यों होना चाहिए? और मैं यह भी सोचता हूं कि साहित्य-अध्ययन से संबंधित विभागों को साहित्यिक हलचलों का केंद्र होना चाहिए। इसी चाह में करीब 28 साल पूर्व मैंने साइंस छोड़कर हिंदी में आॅनर्स करने का फैसला लिया था। 2 नवंबर को जब हिंदी विभाग के वर्तमान अध्यक्ष कथाकार नीरज सिंह ने रचना-पाठ के आयोजन करने की इच्छा जाहिर की, तो मुझे बहुत खुशी हुई। महज कुछ घंटे थे हमारे पास। लोगों की अपनी-अपनी व्यस्तताएं थीं। फिर भी साहित्यकार और छात्रों का जुटान हुआ और एक यादगार कार्यक्रम संपन्न हुआ, जिसमें कई जनपक्षधर रचनाकारों की स्मृतियां थीं, मौजूदा समय के अंधेरे को पार करने का संकल्प था और ‘आएंगे उजले दिन’ की उम्मीद थी। हमने कार्यक्रम का शीर्षक दिया था- रोशनी की ओर। 

अध्यक्षता करते हुए प्रो. नीरज सिंह ने हिंदी-भोजपुरी विभाग द्वारा की जाने वाली साहित्यिक गतिविधियों की विस्तार से चर्चा की। उन्होंने बताया कि दो दिन बाद ही हिंदी विभाग में उनके कार्यकाल के 25 साल पूरे हो जाएंगे। छात्र जीवन से लेकर शिक्षक के जीवन तक साहित्य की निरंतर मौजूदगी से जुड़े अनुभवों को उन्होंने साझा किया, जिसमें बाबा नागार्जुन से मुलाकात, प्रेमचंद की सौवीं जयंती पर हुए आयोजन, भिखारी ठाकुर जयंती और 2011 में कई साहित्यकारों की जन्मशती के मौके पर हुए आयोजन से जुड़ी यादें प्रमुख थीं। उन्होंने कहा कि इस तरह के आयोजन पठन-पाठन का अनिवार्य हिस्सा होते हैं।

इस मौके पर रचनाकारों ने हिंदी, भोजपुरी और उर्दू- तीन भाषाओं की रचनाओं का पाठ किया। हिंदी विभाग के ही छात्र सतीश कुमार पांडेय की कविता से रचना-पाठ का सिलसिला शुरू हुआ। गांव से शहर आया नौजवान जिस तरह के सांस्कृतिक द्वंद्व से गुजरता है, उसी की अभिव्यक्ति उनकी पहली कविता में थी। शहर जहां चकाचैंध तो बहुत है, पर फूलों की कोमलता नहीं है, आत्मीयता नहीं है, जहां व्यक्ति का वजूद खुद को ज्यादा संकट में पाता है। हालांकि ऐसा नहीं है कि गांव में सबकुछ अच्छा ही है। उनकी दूसरी कविता ‘बुढ़ापा’ को सुनते हुए तो यही लगा- अपना ही बेटा करता बेघर/ समुंदर की लहर से बड़ा है यह कहर। 

कवि-कथाकार कृष्ण कुमार ने ‘राह केने बा?’ और ‘अल्ट्रा साउंड’ शीर्षक वाली भोजपुरी कविताओं में सतीश कुमार पांडेय की फिक्र को ही और विस्तार दिया। उन्होंने अपनी संस्कृति से भटकाव को पारिवारिक-सामाजिक संबंधों में पसरती स्वार्थपरता की वजह माना। 

प्रो. अयोध्या प्रसाद उपाध्याय ने भोजपुरी कहानी ‘रोहित’ में गरीब प्रतिभाओं के प्रति सहानुभूति की जरूरत को चित्रित किया और साथ ही समाज में बढ़ती हिंसा के प्रति चिंता जाहिर की। इस कहानी में रंगदारी के लिए एक संवेदनशील व्यक्तित्व वाले मास्टर की हत्या कर दी जाती है। उपाध्याय जी की कविता ‘तमन्ना’ में भी कई तरह की सामाजिक विडंबनाओं को दर्शाया गया। 

वरिष्ठ कवि-कथाकार जितेंद्र कुमार ने भोजपुरी की कहानी ‘सुमंगली’ के जरिए अंधविश्वास, पाखंड का विरोध किया और स्त्री की आत्मनिर्भरता प्रश्न को उठाया। भारतीय समाज में लड़कियों के परिजनों द्वारा उनकी शादी के लिए वर की तलाश की आम समस्या तो इस कहानी में थी ही, चूंकि लड़की की कुंडली में मंगल-दोष था, इस कारण वह खास भी बन गई। कुंडली बनाने का धंधा, मंगल-दोष वाला दुल्हा मिल जाने के बाद भी दहेज की बड़ी मांग आदि पर कहानीकार ने व्यंग्य किया है। लड़की खुद ही इस दुष्चक्र से बाहर निकलती है और कहती है कि आत्मनिर्भरता ही वह तरीका है जो मंगली होने के दोष को दूर कर सकता है। वह उसी राह पर चलती है और सफल होती है। हालांकि आत्मनिर्भरता और रोजगार की राह इतनी सहज नहीं है। वह और भीषण जद्दोजहद से भरी हुई है, जिसके चित्र जाहिर है इस कहानी में नहीं थे, क्योंकि स्त्रियों की आत्मनिर्भरता की जरूरत के संदेश को ही पाठक या श्रोता तक पहुंचाना इस कहानी का बुनियादी मकसद था।

मैंने ‘मेरी बच्ची’ और ‘बासंती बयार की तरह’ शीर्षक कविताओं का पाठ किया। अरुण शीतांश ने ‘तान’ कविता में मनुष्य, उसके समाज और पर्यावरण को बचाने की गुहार की। वरिष्ठ कवि जर्नादन मिश्र ने ‘लौटकर नहीं आउंगा’ और ‘चेतक’ कविता में आज के संकटों और उससे मुक्ति की भावना को जुबान दी। चर्चित युवा शायर इम्तयाज अहमद दानिश ने अपनी दो गजलें सुनाई जिसके जरिए आम अवाम के दर्दाे गम का इजहार हुआ। उन्हीं के शब्दों में- वही फिजा, वहीं आंसू, वही सदा-ए-गम/ किसी के सामने क्या अपना दुख बयां करते। प्रो. नीरज सिंह ने अपनी गजल के जरिए साहित्य लेखन के वैचारिक मकसद को स्पष्ट किया। उन्होंने कहा- घुला है किस तरह माहौल में जहर, लिखना। कवि-चित्रकार राकेश दिवाकर ने अपनी कविता में रात को रात कहने पर तानाशाह सत्ता की धमकियों और दमन के संदर्भों का जिक्र करते हुए इस पर जोर दिया कि सच तो कहना ही होगा। सुमन कुमार सिंह ने अपनी हिंदी कविता ‘मैं मुजफ्फरपुर नहीं जाऊंगा’ में स्त्रियों के साथ बढ़ती अमानवीयता और हिंसा की घटनाओं के प्रति आक्रोश व्यक्त किया और अपनी भोजपुरी कविता में आज के समय में हर ओर कायम डर के माहौल को दर्शाया। 

प्रो. रवींद्रनाथ राय ने पठित रचनाओं के बारे में कहा कि इनमें हमारे समय की विडंबनाएं और संकट व्यक्त हुए हैं। ये रचनाएं अन्याय के विरुद्ध कार्रवाई हैं। ये रचनाएं साहित्य और समाज के प्रति उम्मीद बंधाती हैं। 

धन्यवाद ज्ञापन आनंद कुमार ठाकुर ने किया। इस मौके पर कवि रविशंकर सिंह और हिंदी-भोजपुरी विभाग के छात्र दीप्ति कुमारी, रुपाली त्रिपाठी, आदित्य नारायण, शोध छात्रा रजनी प्रधान, मिलन सिन्हा, त्रिवेणी साह, पंकज कुमार, नागेंद्र सिंह आदि मौजूद थे। 

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