Monday, November 5, 2018

जनकवि नागार्जुन पर उनके समकालीन और परवर्ती दौर के कवियों की कुछ कविताएं

नागार्जुन का स्वर प्रबुद्ध जनता का स्वर है : त्रिलोचन

हिंदी की कविता उनकी कविता है, जिनकी सांसों को आराम न था- कवि त्रिलोचन की यह काव्य-पंक्ति जितनी खुद उनके लिए उपयुक्त है, उतनी ही नागार्जुन के लिए भी।

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कहा एक महिला ने, नागार्जुन तो कवि से
cover : ramniwas singh

नहीं जान पड़ते। आए तो ज्यों ही पास

त्यों ही घुलमिल गए। ढंग ऐसे कब पाए

थे हमने कवियों के। मुंह खोला तो रवि से

नीचे उतरे नहीं और मिट्टी की छवि से

निपट अपरिचित मिले, हवाई महल बनाए

रहे; स्वाद उन्हें कब मिला जीवन की हवि से।


एक मजूर ने कहा, नागार्जुन ने मेरे

बच्चे को बहलाया फिर रोटियां बनाईं

खाईं और खिलाईं। खुशियां साथ मनाईं,

गम आया तो आए। टीह टाह की। घेर

खड़े रहे असीस बनकर। हठ हारा, फेरे

फिरे नहीं, चिंताएं मेरी गनी गनाईं। 

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अत्याचार अनय पर नागार्जुन का कोड़ा

चूका कभी नहीं। कोड़ा है वह कविता का

कहीं किसी ने जानबूझ कर अनभल ताका

अगर किसी का तो कवि ने कब उस को छोड़ा

ऐसा जन ही सामाजिक शरीर का फोड़ा

है; उस का चलता हो चाहे जितना साका,

रोब-दाब, आतंक, घेर लो उसका नाका;

वह भी सीखे आकुल व्याकुल होना थोड़ा।


कवि नागार्जुन सर्वमंगला का ध्यानी है

इसी लिए छल और वंचनाओं की छाया

में रम जाना, उस के मन को कभी न भाया

कठिन शाप भी देता है, यों वरदानी है,

अपनी वाणी से भर दी प्राणों की माया।

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नागार्जुन- काया दुबली, आकार मझोला,

आंखें धंसी हुई घन भौंहें, चौड़ा माथा,

तीखी दृष्टि, बड़ा सिर। इस में ऐसा क्या था

जिस से यह जन सामान्य है। पूरा चोला

कुछ विचित्र है, पतले हाथ-पैर। वह बोला

जब कविता के बोल तब लगा सत्य सुना था,

इस जन का यश, जिस ने जीवन-तत्व चुना था;

खुला बात में, बात बात में जीवन खोला।


अपने दुख को देखा सब के उपर छाया

आह पी गया, हंसी व्यंग्य की उपर आई

कांटों में कलिका गुलाब की भू पर आई

भली-भांति देखा, किस ने क्या खोया क्या पाया।

हानि लाभ दोनों का उस ने गायन गाया

कभी व्यंग्य उपहास कभी आंखें भर्र आइं


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नागार्जुन क्या है। अभाव है। जम कर लड़ना

विषम परिस्थितियों से उस ने सीख लिया है

लिया जगत से कुछ तो उस से अधिक दिया है।

पथ कंटकाकीर्ण था पर कांटों का गड़ना

उस को रोक न सका। युद्ध में डट कर अड़ना

और उलझना, जान चुका है। यही किया है,

जीवन धारा की तरखा में, और जिया है, 

देखो हरसिंगार का खिलना, खिल कर झड़ना।


पत्नी, बच्चे, आह सभी विपदा की थापी

खाते हैं, क्या जाने कौन रूप पाना है।

विपदा ने भी इस घर को अपना माना है, 

इस विपदा पर कवि ने लहर हंसी की छापी,

आंखों की प्याली में छटा स्वप्न की खापी;

अपने पथ पर ही चलना उस का बाना है। 


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नागार्जुन जनता का है। जनता के बन में

अलग नहीं दिखलाई देता। यह जन-धारा

लिए जा रही उस को। नव जीवन प्यारा

स्वर बन कर ओठों पर है उर की धड़कन में

एक एक धड़कन है। पावन चिंता मन में 

अहोरात्र की है। पल दो पल को यदि हारा

लोटा पोटा भू पर और ग्लानि को गारा, 

कुंडल मेे विद्युत् सी आभा दौड़ी तन में।


नागार्जुन का स्वर प्रबुद्ध जनता का स्वर है।

नए पुराने कवियों की प्रतिभा कल्याणी

कवि के मुख से बोली है। चिर पीड़ित प्राणी

जागा है, पहचान लिया क्या उसका वर है

नए सुदर्शन से आतंकित विषमज्वर है

शर है और शरासन भी इस कवि की वाणी।



बाबा हमारे, नागार्जुन बाबा

शमशेर 

अपने समय के बेहद संवेदनशील कवि शमशेर ने बाबा नागार्जुन के बारे में लिखा था- ‘‘उनकी कविताएं संघर्षरत साहसी युवकों और शोषित श्रमिक वीरों की दुनिया में हमें ले जाती हैं। शहीदों की पावन याद को हमारी आंखों में बसाने वाला और कौन दूसरा कवि हिंदी में लिख रहा है, कोई मुझे बताए। आज के अत्यंत सस्ते खोखलेे दंभ के युग में नागार्जुन की कविताएं कीमती दस्तावेज हैं। इसलिए यह मुुझे आज के कवियों में सबसे प्रिय हैं।’’ 


बाबा हमारे, अली बाबा

नागार्जुन बाबा!!


‘खुल सिसोम’ सबके सामने-

कहते- सबों के सामने-

खजाने की गुफाएं

सबों के लिए खुल पड़तीं,

क्लासिक क्रांतिकारी खजाने


बहादुर कविता के जीते-जागते,

कभी न हार मानने वाली जनता के

बहादुर तराने

और जिंदा फसाने

आंखों को चमकाने वाले,

दिलों को गरमाने वाले,

आज के इतिहास को

छंद में समझाने वाले:

-कभी धीमी गुनगुनाहटों में,

कभी थिरकते व्यंग्य में,

कभी करुण सन्नाटे में,

तो कभी बिगुल बजाते

और कभी चिमटा;

कभी बच्चों को हंसाते,

तो कभी जवानों को रिझाते,

और बूढ़ों की आंखों में

मस्ती लाते

-ऐसे खजाने कविता की

झोली में बरसाते

हमारे बाबा, अली बाबा

नागार्जुन बाबा!!

×××

‘‘काहे घबराऽऽएऽ’’

इस फिल्मी गीत के बोल

अपने बेटे के साथ

मिलकर गाते हुए

जब मैंने सुना था

-वह समां मुझे याद है!


चुटकी बजा-बजाकर,

मौज से भूख और अभाव को

बहलाते हुए,

मेरे अली बाबा,

गीतों के दस्तरखान बिछाए,

कविताओं के जाम चढ़ाए,

अभावों  की गहरी छाने,

बेफिक्र मस्त;

इसी मस्ती से क्रोध और आवेश के

कड़ुए घूंट को

किसी तरह मीठा-सा कुछ बनाए,

जनता के, जलते हुए अभावों की

आग में

नाचते हुए 

अजब अमृत बरसाते

अनोखे खजाने लुटाते,

आत्मा को तृप्त करते,

युग की गंगा में गोते लगाते

अद्भुत स्वांग बनाए,

मेरे बाबा अली बाबा

नागार्जुन!!

1954



नागार्जुन

केदारनाथ अग्रवाल

भारतीय जनकविता के दो बड़े नाम हैं केदारनाथ अग्रवाल और नागार्जुन। दोनों ने एक दूसरे पर कविताएं लिखीं हैं। दोनों के वैचारिक-आत्मीय रिश्ते की झलक पेश करती यह कविता मानो नागार्जुन का लाइफ स्केच है। 


नागार्जुन कवि हैं

कवि आदमी होता है

नागार्जुन आदमी हैं

आदमी और भी हैं

फिर भी आदमी नहीं हैं

नागार्जुन ऐसे आदमी नहीं हैं


नागार्जुन पति हैं

पत्नी से जीते हुए नहीं

अपराजिता से हारे हुए पति हैं

नागार्जुन बाप हैं

फक्कड़ बाप हैं

घुमक्कड़ बाप हैं

बेटों पर कभी-कभार छतुरी तानते हैं-

जो बहुधा उड़ जाती है

उड़ी छतुरी के पीछे नागार्जुन नहीं भागते

आशीष की छाया बेटों पर डालते हैं

मंत्र मारते और पेट पालते हैं नागार्जुन


नागार्जुन हंसोड़ हैं

दूसरे भी हंसोड़ हैं

पर वैसे नहीं हैं वे

जैसे बेजोड़ हंसोड़ हैं नागार्जुन

कोई सानी नहीं है उनका 

हंसोड़ होकर भी जो जिये वैसा

वह जीते हैं जैसा

नागार्जुन व्यंग्य और विद्रूप की मार करते हैं

दूसरों का विष दिन-रात पिये रहते हैं

नागार्जुन दोस्त हैं

आज के नहीं, पहले के-

जनता के भले के।

अपराजिता- पत्नी का नाम, मंत्र- नागार्जुन की एक कविता


बरौनियों पर शहद

कुबेर दत्त

यह कविता कवि-चित्रकार-दूरदर्शन के चर्चित प्रस्तुतकर्ता और कार्यक्रम निर्माता कुबेर दत्त ने 1996 में लिखी थी, जब वे सादतपुर में उनसे मिलने गए थे। सैकड़ों परिवारों जिनसे बाबा का आत्मीय संबंध था, उसमें कुबेर दत्त और उनकी पत्नी प्रसिद्ध नृत्यनिर्देशक और दूरदर्शन आगार की पूर्व निदेशक कमलिनी दत्त का परिवार भी एक था, जहां भौतिक रूप से दुनिया में न होने के बावजूद बाबा अक्सर चर्चाओं में रहते थे। कुबेर जी अक्सर बाबा की पंक्ति दुहराते थे- हमसे क्या झगड़ा है/ हमने तो रगड़ा है/ इनको भी, उनको भी, उनको भी। 


फटी बिवाई

बूढ़े, अनुभवी उन पंजों में

सूर्यमुखी-से जो दीखते थे

ढलता सूर्य गांव सादतपुर में...

उस दिन नहीं था कोई प्रशंसक

नहीं थी अधेड़ स्त्री मजाक ठट्ठे के लिए

अकेला था नागार्जुन अकेले थे बाबा-

अलसाई धूप में सोए

गर्भस्थ शिशु जैसे

खाट पर...


बाजू में बैठे थे कालिदास

सूखती परात पर रखा था

अभिज्ञान शांकुतलम्

खिचड़ी विप्लवी खदक रहा था-

सहन में रखी अंगीठी पर...


सोई थी देह बाबा की

आगे थे नाक के सफेद बाल

नाक के बालों के स्वागत में

उड़ती थी दाढ़ी इधर-उधर...

गमछा था मगन-मगन

दबा-दबा/ कोहनी के नीचे

दिन का अखबार भी

आधा था दबा-दबा/ बाबा के नीचे

दबी हो जैसे पृथ्वी आधी/ बाबा के नीचे...

सिरहाने की ओट खिला था गेंदा एक

बैठी थी जिस पर मधुुमक्खी

शहद मगर उगजता था

नींद में हंसते

नागार्जुन की बरौनियों पर!



बाबा नागार्जुन के लिए दो कविताएं

श्याम सुशील
साहित्य संबधी सामग्री का दस्तावेजीकरण श्याम सुशील की सहज प्रवृत्ति रही है। जनता के प्रति प्र्रतिबद्ध रचनाकारों के साथ उनका विचार और व्यवहार दोनों स्तरों पर बेहद अंतरंग संबंध रहा है। 


हमारी जिंदगी

आपका जीना हमारी जिंदगी है

आप युग-युग तक जिएं

जिससे-

जी सकें हम, 

मधु-हलाहल पी सकें हम-

जिंदगी का। 


बाबा क्यों न हंसेंगे!

अपने को तो पढ़ नहीं पाते

वेद-पुराण पढ़ेंगे!

अपने को तो गढ़ नहीं पाते

काव्य महीन गढ़ेंगे!

बाबा क्यों न हंसेंगे!

(जनपथ, अक्टूबर 2011 अंक से साभार)

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